Tuesday, December 30, 2008

मेरी चौबीसवीं कहानी - मर्द नहीं रोते

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सूरज प्रकाश

Wednesday, December 17, 2008

बाजीगर - तेईसवीं कहानी

बाजीगर

खबर हाथों हाथ पूरे दफ्तर में फैल गयी है। सभी लपक रहे हैं उस तरफ। जो भी सुनता है, चार को सुनाता है, फिर कानों सुनी को आंखिन देखी करने के लिए टीले की तरफ बढ़ जाता है। जो लोग उस तरफ से आ रहे हैं, ऐसे बतिया रहे हैं, हो-हो कर रहे हैं, मानो संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य देखकर आ रहे हों। उस तरफ जाने वालों को बता भी रहे हैं, ‘जाओ भइया, तुम भी दर्शन कर आओ शिवजी महाराज के। एकदम फोकट में।’ महिलाओं तक भी खबर पहुंच गयी है। वे भी आपस में खुसर-पुसर करके खी-खी कर रही हैं। सब अच्छी तरह जानते हैं शिलाकांत जी कोई भी अनहोनी कर सकते हैं। करते भी रहते हैं। आये दिन सारा दफ्तर उनसे परेशान है, फिर भी उसकी इन हरकतों से मजे भी लेते रहते हैं। लेकिन उनकी अभी थोड़ी देर पहले की हरकत की खबर से तो लोगों को बहुत मजा आ रहा है, तभी तो टीले के नीचे सभी सैक्श़नों के चपरासी, बाबू लोग जमा हो गये हैं और हो-हो कर रहे हैं, उनसे और पंगे ले रहे हैं।
दफ्तर की मुख्य इमारत से कोई दो सौ गज दूर मोटर गैराज के पिछवाड़े एक ऊँचे टीले पर श्रीमान शिलाकांत, पीऊन अटैच्ड टू जनरल सैक्शन अलफ नंगे खड़े हैं। उनकी मैली वर्दी, फटी बनियान और धारीदार जांघिया आसपास बिखरे पड़े हैं। उनकी छ: फुट लम्बी, हट्टी-कट्टी बेडौल नंगी काया बहुत अजीब लग रही है। श्रीमान जी अपने पोपले श्रीमुख से मैनेजमेंट के खिलाफ धुंआधार गालियां प्रसारित कर रहे हैं, ‘अपने आपको समझते क्या हैं साले! हमसे बदमासी करेंगे! लें, कर ले बदमासी!’ वे अपने अंग विशेष को एक हाथ से झटका देते हैं ‘लें, लें, कर लें बदमासी। हम भी देखें उनकी . .. . में केतना दम हय। हमरी बदमासी देखेंगे तो होस ठिकाने आ जायेंगे भडुओं के! ससुरे जब से हमरे पीछे पड़े हैं। कहते है मीमो देंगे, चारसीट देंगे, सस्पेंन कर देंगे। अरे तुमने असली माई का दूध पीया हो तो आओ और चिपकाय देव हमरे पीछे मीमो सीमो।’’ वे अब अपने पिछले हिस्से को दो-तीन झटके देते हैं। लोग उनकी हरकतों पर खूब हंस रहे हैं और हो-हो करके उन्हें और उकसा रहे हैं। आज पहली बार और वह भी भरे-पूरे आफिस में शिलाकांत ने सबको अपना खुल्‍ला खेल दिखा दिया है फोकट में।
वैसे वे गाहे-बगाहे अपनी नयी-नयी हरकतों से सबका मान-अपमान करते करते ही रहते हैं, लेकिन उन्होंने मर्यादा की सारी सीमाएं एक साथ कभी नही लांघी थीं। बहुत हुआ तो किसी को मां-बहन की रसीली गालियां सुना दीं, गुस्से में सैक्शन में ही अपनी धोती उठा दी या ऐसा ही कुछ हंगामा। इससे आगे वे कभी नहीं बढ़े थे।
आज के उनके इस पब्लिक शो के पीछे क्या कारण हैं, वहां खड़े लोगों में से किसी को नहीं मालूम। सब अपने-अपने कयास भिड़ा रहे हैं। थोड़ी देर पहले कोई बता रहा था कि बड़े बाबू ने जब उनसे उनकी पिछली तीन-चार गैर-हाजरियों की छुट्टी की अर्जी मांगी तो जनाब उखड़ गये। पहले वहीं गाली-गलौज करते रहे। जब बड़े बाबू ने मीमो देने और बड़े साहब के सामने पेशी करने की धमकी दी तो महाशय यहां आकर नटराज नृत्य करने लगे। अभी इसी खबर को विश्वसनीय माना जा ही रहा था और प्रचारित भी किया जा रहा था कि जनरल सैक्श़न का कोई चपरासी इसका खण्डन करते हुए एक और शगूफा छोड़ गया है। उसके अनुसार रिजर्व कोटे के नये यू.डी.सी. मुसद्दी लाल ने जब शिलाकांत को एक गिलास पानी लाने के लिए कहा तो बताते हैं इन्होंने ऊंच-नीच बोलना शुरू कर दिया। नौबत हाथापाई तक आने को थी कि शिलाकांत बिफर गये और यहां चले आये। इस कहानी को भी मानने न मानने की दुविधा से अभी भीड़ उबरी नहीं थी कि डिस्पैच क्लर्क अपने यारों के साथ इस तरफ खैनी खाते हुए मजा लेने की नीयत से चले आये और पहले की कहानियों को चन्डू‍खाने की निर्मिति बताते हुए एक नया ही किस्सा छेड़ने लगे। उनके अनुसार आज के इस अद्भुत सीन के निर्माता, निर्देशक वे खुद हैं। वे बड़े गर्व से बता रहे हैं कि उन्हीं से हुई नोंक-झोंक का नतीजा है कि सबको शिलाकांत का यह गीत-संगीत और नृत्य का कार्यक्रम देखने को मिल रहा है। सब उनके आस-पास जुट आये हैं, सच्ची बात जानने के लिए।
उनके अनुसार, पिछले दिनों शिलाकांत के खिलाफ दो-तीन मामलों में अलग-अलग विभागीय जांच की गयी थीं। एक मामला बिना पूर्व अनुमति के अलग-अलग मौकों पर छुट्टी लेने और बाद में भी अर्जी न देने का, दूसरा मामला तृतीय श्रेणी के अपने से वरिष्ठ कर्मचारी से दुर्व्यवहार और गाली-गलौज का तथा तीसरा मामला उनके खिलाफ कार्यालय का अनुशासन और कायदे-कानून न मानने के बारे में था। दो मामले सिद्ध हो गये थे और तीसरे में उन्हें चार्जशीट दी जानी थी। इन तीनों मामलों के गोपनीय पत्र लेने से वे कब से इनकार कर रहे थे। बिल्कुल हाथ नहीं धरने देते थे। बकौल डिस्पैच क्लर्क के, आज भी जब शिलाकांत ने ये पत्र प्राप्त करने और डाकबुक में हस्ताक्षर करने से आनाकानी की, तो पहले बड़े बाबू और फिर अधीक्षक सा‍हब से शिकायत की गयी। अधीक्षक महोदय ने सुझाया कि ये पत्र उन्हें सबके सामने थमा दिये जायें और यह बात डाक बुक में दर्ज कर ली जाये। डिलीवरी पीऊन ने ज्यों ही शिलाकांत की जेब में ये लिफाफे जबरदस्ती ठूंसने चाहे, वे एकदम भड़क गये, गालियों पर उतर आये। जब बड़े बाबू ने डांटा और कमरे से बाहर निकल जाने के लिए कहा, तो जनाब यहां आकर यह नाटक करने लगे।
वहां जुटे सब कर्मचारियों को डिस्पैच क्लर्क की बात में वजन लगा। सबको पता था, आये दिन उसके खिलाफ कोई न कोई विभागीय जांच चलती ही रहती है। चिटि्ठयां लेने से इनकार करने का मामला भी कोई नया नहीं था। सबका ध्यान फिर शिलाकांत की तरफ चला गया था। वे फिर से शुरू हो गये थे, ‘सब साले चोर भरती हो गये हैं, कोई काम नहीं करना चाहता। सबसे सीनियर और बुजुर्ग आदमी को इस तरह लतियाया जाता है। मेरा धरम भ्रष्ट करना चाहते हैं सरऊ। मुझे भंगियों को पानी पिलाने की ड्यूटी दी जाती है। मैं विरोध करता हूं, आवाज उठाता हूं तो मीमो-सीमो की धमकी दी जाती है। मैं भी देख लूंगा सब हराम के जनों को। एक-एक का कच्चा चिट्ठा जानता हूं, खोल दूं तो भडुवों को लुगाइयन के पेटीकोट में मुंह छिपाना पड़े।’ सब जोर-जोर से हंसने लगे। शिलाकांत को और ताव आ गया। उनकी आवाज और ऊंची हो गयी और गालियों में एकदम नंगापन आ गया। वे सविस्तार अफसरों और उनके चमचों के झूठे-सच्चे किस्से बखानने लगे।
शिलाकांत भी एक ही जीव हैं। पचास के होने को आये, तीस साल की नौकरी हो गयी, कब से नाना-दादा बने हुए हैं, लेकिन चीजों के प्रति उनका नजरिया बच्चों से भी गया-गुजरा है। आजकल उनकी जिन्दगी का एक ही मकसद हो गया है—हर चीज का विरोध करना। उन्हें उनके प्रति लिये गये हर निर्णय में षड्यन्त्र की बू आती है। उन्हें लगता है, पूरी दुनिया में वे अकेले सही आदमी हैं और बाकी सब जटिल, गंवार, अनपढ़। इस खुशफहमी के बावजूद वे हद दर्जे के कामचोर, मुंहफट और कूड़मगज चपरासी के रूप में विख्यात हैं। कोई सैक्शन उन्हें लेने को तैयार नहीं होता। हर सैक्शन बिना चपरासी के गुजारा करने को तैयार है लेकिन शिलाकांत के रूप में आदमकद मुसीबत किसी को भी नहीं चाहिए। यही वजह है कि बार-बार जनरल सैक्शन से धकियाये जाने के बावजूद वे उसी सैक्शन के गले का हार बने रहते हैं।
यदि उन्हें आसान ड्यूटी दी जाती है तो यह उन्हें अपनी वरिष्ठता का अपमान लगता है, मुश्किल ड्यूटी को वे बुढ़ापे में अपने शोषण के रूप में लेते हैं। किसी भी जवाब तलब को वे अपना अपमान मानते हैं और यदि उन्हें कोई पूछता नहीं, तो वे यह मान लेते हैं कि उन्हें इग्नोर किया जा रहा है, इसे वे किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करते। उन्हें किसी से भी ऊंचा बोलने, गाली देने, काम करने से इनकार कर देने के सारे अधिकार हैं। लेकिन उनसे कोई ऐसी हरकत करे तो वे इस तरह के नाटक करने लगते हैं। छुट्टी की अर्जी न देना, घंटों गायब रहना, कैंटीन में हंगामे करना, दफ्तर द्वारा दी गयी वर्दी में छोटे-मोटे नुक्स निकालना उनके मौलिक अधिकार हैं। मैनेजमेंट द्वारा जवाब-तलब किये जाने को वे अपने मौलिक अधिकारों का हनन मानते हैं।
उनके विरोध के तरीके भी अजीब हैं। कभी घंटों बड़बड़ाते रहेंगे, सिर पर खड़े होकर, कभी अपनी शिकायत को पोस्टर के आकार में उलटी-सीधी भाषा में लिखकर नोटिस बोर्ड पर चिपका आयेंगे, कभी तंग करनेवाले अधिकार/कर्मचारी के इतने कान खायेंगे कि उसी को माफी मांगने पर मजबूर कर देंगे। अपने अकेले के बलबूते पर अफसरों के खिलाफ नारेबाजी करने का सौभाग्य भी उन्हें ही प्राप्त है।
हां, एक बात है, वे न कभी गिड़गिड़ाते हैं और न ही हाथ-पांव पकड़ कर माफी मांगते हैं। उनका कहना है कि वे जब कोई गलती ही नहीं करते, तो माफी किस बात की मांगें।
लेकिन शिलाकांत हमेशा से ऐसे नहीं थे। एक वक्त़ था जब उन्हें पूरे आफिस का सबसे बेहतरीन चपरासी समझा जाता था। एकदम चुस्त, मुस्तै्द। कोई भी काम करने के लिए एकदम तैयार। क्या मजाल जो किसी से ऊंची आवाज में बात करें। उन दिनों उन्हें जिस भी सैक्शन में या जिस अधिकारी के साथ रखा जाता, वे अपने मृदु स्वभाव और आज्ञापालन की मिसाल कायम करते थे। वे थे भी युवा और नौकरी में नये-नये आये थे।
तभी तो उनकी ईमानदारी और मेहनत से खुश होकर एक बार बड़े साहब ने उन्हें कोठी की ड्यूटी पर लगा दिया था। काम था घर के छोटे-मोटे काम कर देना और मेमसाहब की मदद करना। पता नहीं इस बात में कहां तक सच्चाई है पर तब कहने वाले यही कहते थे कि साहब के घर पर काम करते-करते उनकी जीभ मेमसाहब की जवानी देखकर ही लपलपाने लगी थी, शायद मेमसाहब को भी कुछ शक हो गया था कि शिलाकांत छुप-छप कर उन्हें नहाते हुए या कपड़े बदलते हुए देखते रहते हैं। ऊपर से भोलेनाथ बने रहने के बावजूद वे अपनी नजरों का खोट नहीं छुपा पाये थे और वहां से तुरन्त हटा दिये गये थे। लेकिन उनके बारे में इसके ठीक उलटी कहानी भी कही जाती रही। वह यह कि मेमसाहब खुद ही उनकी जवानी और कदकाठी पर मोहित हो गयी थीं और उनसे घर के कामकाज करवाने के बजाय अपने हाथ-गोड़ दबवाने लगी थीं। वे इससे भी आगे बढ़ पातीं या शिलाकांत को आगे बढ़ने के लिये आमन्त्रित कर पातीं शिलाकांत खुद ही बिफर गये थे ‘हम यहां बीबियन की मालिस करने की पगार नहीं पाते हैं,’ उन्होंने आफिस में बड़े बाबू से कह दिया था, ‘हमें आफिस में काम करने की पगार मिलती है, हम यहीं काम करेंगे। बहुत कुरेद-कुरेद कर पूछ कर लोगों ने भीतर की बात जाननी चाही थी पर वे टस से मस नहीं हुए थे। इस पूरे प्रकरण पर एकदम चुप्प हो गये थे। आज बीस-पच्चीस साल बीत जाने पर भी सच्चाई किसी को मालूम नहीं है।
शिलाकांत की तीन पत्नियां हैं। दो गांव में और एक यहां पर लोकल। गांव की दोनों शादियों से उन्हें सात बच्चे हैं, पांच लड़कियां, दो लड़के। यहां वाली से तीन बच्चे हैं, दो बच्चे उसकी पहली शादी के हैं। वह साथ लायी थी। एक शिलाकांत से हुआ। सबको पता है उनकी तीनों शादियों के बारे में, लेकिन ऑफिस में उनकी एक ही शादी और उससे पांच बच्चे दर्ज हैं। गांव वाली बीवियों, बच्चों को वे यहां कभी नहीं लाये। खुद हर साल एक बार महीने भर के लिए घर जाते हैं, कभी किसी बच्चें का गौना कर आते हैं, तो कभी ब्याह। खेती-बाड़ी के सारे मामले वे उसी महीने में निपटा आते हैं। सुना है पहले काफी खेती थी उनकी, उसी में और शिलाकांत के भेजे थोड़े-बहुत पैसों से गुजर हो जाया करती थी। इधर बच्चों के बड़े हो जाने और ब्याह वगैरह हो जाने के बाद काफी जमीन हाथ से निकल चुकी है। कुछ जमीन भाई लोगों ने दबा ली है।
पहले उनके घर से हफ्ते में तीन-चार चिटि्ठयां आया करती थीं। सबकी सब बैरंग, वे ही हर बार पैसे देकर छुड़ाते। सारी चिटि्ठयां बैरंग आने के पीछे दो वजहें थीं, पहली तो यह कि उनकी बीवियों, बच्चों, भाइयों में से किसी का भी आपस में जरा सा झगड़ा, तू-तू, मैं-मैं हुई नहीं कि बच्चों की कापी से पन्ना फाड़ा, खुद लिखना आता है तो ठीक वरना किसी बच्चे़ को घेर-घार कर शिकायत लिखवायी, गोंद या चावल के माड़ से चिपकायी और डाल दी लाल डिब्बे में। घर पर पैसे, पोस्टकार्ड न भी हो तो परवाह नहीं, पाती तो पहुंचेगी ही बाबा के पास। कर्इ बार तो ऐसा होता कि झगड़ा करने वाली दोनों पार्टियों के खत उन्हें एक ही डाक से मिलते। इससे उन्हें झगड़े की पूरी बात दोनों पक्षों से पढ़ने को मिल जाती और उन्हें यह फैसला करने में कतई दिक्कत नहीं होती कि अगली बार उन्हें खत में क्या लिखना है।
आठवीं पास हैं शिलाकांत। अपनी चिट्ठी पत्री खुद ही करते हैं। बैरंग चिटि्ठयां पाने में शिलाकांत को बेशक गांठ से काफी पैसे ढीले करने पड़ते लेकिन वे इसका बुरा नहीं मानते थे। वे दो तर्क देते, एक तो चिट्ठी वक्त पर मिलती है, उन्हें ही मिलती है, सलामत मिलती है और डाकिया खुद उन्हें ढूंढ़ कर देता है और दूसरे वे यह मानते कि घर-बार के लोगों को जब तक तुरन्त और मुफ्त में उन तक शिकायत पहुंचाने का अवसर मिलता रहे, तभी तक बेहतर। वे लिख कर अपना बोझ हलका कर लेते हैं तो उन्हें इस सुख से क्यों वंचित रखा जाये।
लेकिन उनकी यह सुखद स्थिति ज्यादा अरसा नहीं चल पायी थी। तीन-तीन बीवियां, दस बच्चे, मामूली-सा वेतन उनकी मानसिक और आर्थिक हालत डांवाडोल होने लगी थी, इसका असर उनके कामकाज और व्यवहार पर नजर आने लगा। हर समय चिड़चिड़ाये बैठे रहते। कभी जबान भी न खोलने वाले शिलाकांत लोगों से उलझने लगे। शायद उन्हें सबसे ज्यादा दिक्कत आर्थिक थी, सो कर्जे का सहारा लेने की जरूरत पड़ने लगी, अब उन्होंने बैरंग चिटि्ठयां लेना भी बंद कर दिया था। जब उन्हें पता ही है कि इनमें झगड़ों की बातों और शिकायतों, पैसों की मांग के अलावा कुछ नहीं है तो और पैसे क्यों बरबाद किये जायें। उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ने की स्थिति आ गयी। शायद एकाध लड़की की शादी की बात भी टूट गयी थी और उनका काफी पैसा दबा लिया गया था। वे मामला सुलझाने लिए एक बार गांव गये तो पूरे तीन-चार महीने तक नहीं लौट पाये थे। एक तो छुटि्टयां नहीं थीं उनके पास, सो रजिस्टर्ड डाक से बुलावे पहुंचने लगे और दूसरे यहां वाली बीवी और बच्चों के भूखे मरने की नौबत आ गयी। वह बेचारी सबसे पूछती फिरी। दो-दो, चार-चार रुपये उधार मांग कर दिन गिनती रही।
शिलाकांत जब लौटे तो गांव के मामले सुलझने के बजाय और उलझ चुके थे। सिर पर भारी कर्ज हो गया था। ऑफिस में भी बिना छुट्टी गैर-हाजिर रहने की स्थिति अनुकूल नहीं रही थी। ऐसे कठिन समय में एक बहुत बड़ी दुर्घटना हो गयी शिलाकांत के साथ।
उन्होंने जिस पठान से पैसे उधार ले रखे थे, अरसे से उसका ब्याज भी नहीं चुका पा रहे थे। बकाया वेतन न मिलने के कारण वैसे ही फाकों की हालत में उनके दिन कट रहे थे। ऐसे में एक दिन पठान सवेरे-सवेरे उनके घर जा धमका और लगा उन्हे गलियाने, ‘अगर कर्जा चुका नहीं सकते तो लेते क्यों हो? तीन-तीन बीवियों से मजे लेने के लिए पैसे हैं और हमारे लिए नहीं है। शायद शिलाकांत का परिवार उस दिन फाके पर था, वैसे ही उनका पारा गर्म था, सो शिलाकांत बाहर निकले और पठान की अच्छी-खासी धुनाई कर दी।
पठान रोता हुआ थाने जा पहुंचा और शिलाकांत हवालात के अन्दर हो गये। बहुत हाथ-पैर मारे, लेकिन कोई जमानत के लिए तैयार न हुआ। यूनियन ने भी मदद करने से मना कर दिया। ऑफिस वाले तो पहले से ही तैयार बैठे थे सस्पैंशन ऑर्डर के साथ। बड़ी मुश्किल से बीवी ने अपने सारे जेवर, बर्तन-भाण्डे बेचकर पठान का कर्ज चुकाया, पुलिस को खिलाया-पिलाया, तभी शिलाकांत बाहर आ सके। हवालात से तो बाहर आ गये, लेकिन ऑफिस के अन्दर न घुस सके। वे सस्पैण्ड किये जा चुके थे। अब भी यूनियन उनकी तरफ से केस लड़ने को तैयार न थी। पूरे चार महीने तक सस्पैण्ड रहे। जब नौकरी पर बहाल किया गया तो सजा के तौर पर दो साल के लिए वेतनवृद्धियां रोक दी गयीं और भविष्य में कायदे से रहने की हिदायत दी गयी। यूनियन के रुख से बेजार होकर शिलाकांत ने उसकी सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया और अपनी अलग से यूनियन बना ली। अब तक उन्होंने शराफत का जामा उतार फेंका था और मैनेजमेंट को दिये गये आश्वासन के बावजूद खुराफातें करने में लगे रहे। उनकी तरह के कुछ और भी ऐसे कर्मचारी थे, जिनके सही गलत कामों में यूनियन ने पक्ष लेने से इन्‍कार कर दिया था या पूरी तरह से उनके साथ नहीं रही थी, वे सब शिलाकांत के साथ हो लिये। आखिर उन्हें भी तो कोई मसीहा चाहिये था। यह बात दीगर है कि उनकी यूनियन को न तो कभी मान्यंता दी गयी, न ही सुविधाएं और न ही किसी विवाद की स्थिति में मान्‍यता प्राप्त यूनियन की तरह बातचीत के लिए उन्हें बुलवाया गया।
शिलाकांत ने कभी परवाह नहीं कि कि कोई उनकी यूनियन को घास नहीं डालता या उसे कोई यूनियन मानने के लिए तैयार ही नहीं है। वे हर वक्त इस बात की टोह लेते रहते कि मान्यता प्राप्त यूनियन या मैनेजमेंट से कब कोई गलती या चूक होती है। वे तुरन्त अपनी अधकचरी भाषा में पोस्टर तैयार करके, दीवार पर, यूनियन या ऑफिस के नोटिस बोर्ड पर दन्न से चिपका आते। उनकी भाषा एक दम धमकी भरी होती और उसमें किसी का लिहाज न रहता। उन्हें कई बार वार्निंग दी गयी कि वे अपनी इन ओछी हरकतों से बाज आयें, पर वे कहां मानने वाले थे।
उनकी इन हरकतों से परेशान होकर एक बार मान्यता प्रापत यूनियन ने भी तय कर लिया कि शिलाकांत को मजे चखाये जायें। किसी कर्मचारी के जरिये उनके खिलाफ शिकायतें की गयीं कि हालांकि उन्होंने तीन-तीन शदियां कर रखी हैं, लेकिन घोषित एक ही की है। एक से अधिक शादियां सेवा-नियमों के खिलाफ हैं इसलिए उनके विरुद्ध कार्रवाई की जाये। किसी तरह शिलाकांत को यह खबर लग गयी कि यह शिकायत किसने की है। आधी रात को गंडासा लेकर उसके घर पहुंच गये और उसकी गर्दन पर गंडासा रखते हुए धमकाया, ‘’मेरी तीन बीवियों और दस बच्चों का तो किसी तरह गुजारा हो जायेगा, पर अगर तेरी बीवी विधवा हो गयी तो सड़क पर आ जायेगी। सोच ले।’ उसकी घिग्घी बंध गयी। उस बेचारे ने तो यूनियन के कहने पर शिकायत की थी, उसे क्या पड़ी थी कि किसके तीन बीवियां हैं या पांच। उसने अगले ही दिन अपनी शिकायत वापिस ले ली थी। फिर किसी ने उनसे शादी को लेकर कोई लफड़ा नहीं किया।
अलबत्ता, अब शिलाकांत पहले वाले भोले-भाले आदर्श चपरासी नहीं रहे थे। वे लोगों से, अपने संगी-साथियों से कटते चले गये। पता नहीं किस बात पर वे कैसे रिएक्ट करें। हां, लोगों को ऑफिस का मनहूस वातावरण रंगीन बनाना हो, कुछ फुलझडि़यां सुननी हों तो उनसे बढि़या कोई पात्र नहीं था। लोग अक्सर उनसे पंगे ले लेते, उन्हें छेड़कर अपनी सीट की तरफ बढ़ जाते शिलाकांत को सुलगता हुआ छोड़कर। घंटों बकझक करते रहते शिलाकांत। कई बार स्थिति बड़ी विचित्र हो जाती। वे तो अपनी तरफ से तो बड़ा सूझ भरा कदम उठाते, लेकिन सयाना बनने के चक्कर में उनसे कोई मौलिक बेवकूफी हो जाती। कई बार वे और लोगों के झांसे में भी आ जाते और ऊटपटांग हरकतें कर बैठते।
एक बार ऑफिस के बाद कहीं जाने के लिए घर से निकले। चकाचक धोती और कुर्ता। शायद किसी दावत में जीमने जा रहे थे। बस स्टैण्ड पर भीड़ थी। दो-तीन बसें आयीं, लेकिन वे चढ़ नहीं पाये। एक बस रुकी। उसमें पहले ही बहुत भीड़ थी। किसी तरह वे फुटबोर्ड पर एक पैर रखने की जगह भर बना पाये थे कि बस चल पड़ी। दूसरा पैर जमीन पर था। शायद ऑफिस के ही किसी आदमी ने उनकी धोती पर पैर रख दिया। बस चल चुकी थी। नतीजा यह हुआ कि उसके पैर रखने से इनकी धोती जो खुली, खुलती चली गयी और बस के पीछे-पीछे हवा में लहराने लगी। शिलाकांत जी अजीब दुविधा में फंसे चिल्लाने लगे, ‘’अरे भाई बस रोको।‘’ वे मुश्किल से एक हाथ से डण्डा पकड़े हुए थे। दूसरे हाथ से धोती लपकने की कोशिश की, पर हाथ भीड़ में ही फंस कर रह गया। बस तेज हो चुकी थी और उनकी धोती लहराने के बाद अब सड़क पर बिछी हुई थी। उन्होंने दनादन दो-चार गालियां ड्राइवर को, धोती पर पैर रखने वालों को और ही-ही कर रही जनता को दीं। किसी तरह बस रुकी, अपने कुर्ते को दबाये-दबाये धोती की तरफ लपके। धोती सड़क पर मिट्टी में बुरी तरह से गंदी हो गयी थी। बस अड्डे पर खडे लोग भी उनकी हरकत के मजे ले रहे थे। उन्हें और ताव आ गया। एक आड़ में जाकर धोती लपेटी और बस स्टैण्ड पर आकर जोर-जोर से गालियां बकने लगे, ‘’किस सरऊ की हिम्मत हुई है, सामने आये। हमारा वो देखना चाहता है धोती खुलबाय के तो ले, देख ले’’ वे वहीं बिना किसी का भी लिहाज किये अश्लील हरकतें और गाली-गलौज करने लगे। अगर उन्हें पता चल जाता कि धोती पर पैर किसने रखा है, तो उस दिन उसकी खैर नहीं थी।

शिलाकांत काण्ड की खबर डिप्टी साहब तक पहुंच गयी है। हालांकि उनके लिए यह बहुत अच्छा अवसर है अपने पुराने अपमान का बदला लेने का, लेकिन फिर भी वे रिस्‍क नहीं लेना चाहते। इतने साल बीत जाने पर भी न तो वे उस अपमान की कड़वी यादें भूल पाये हैं और न ही उसका बदला ही ले पाये हैं शिलाकांत से। ज्यों ही उन्हें खबर दी गयी है कि शिलाकांत वहां खुराफात कर रहा है, क्या किया जाये, उन्हें मन्त्रांलय का कोई भूला हुआ काम याद आ गया है। उन्होंने तुरन्त जीप मंगवाने के लिए पी.ए. से कहा और एक फाइल उठा ऑफिस से फुर्र हो गये। न वहां होंगे, न इस बारे में कोई फैसला ही करना पड़ेगा। वे चाहें तो आज इस बच्चू को अच्छा मजा चखा सकते हैं, लेकिन उन्हें पता है, यह औंधी खोपड़ी कल उनके केबिन में भी भरत नाट्यम करने पहुंच सकता है। फिर कहीं दांव शिलाकांत का पड़ गया तो।
यह किस्सा काफी पहले का है। वे प्रशासनिक अधिकारी थे तब। शिलाकांत की खुराफातों से बहुत तंग आये हुए थे। कई बार समझाने, धमकाने, वेतन काटे जाने, वार्निंग दिये जाने के बावजूद वे सीधी राह पर नहीं आ रहे थे। कई विभागीय जांचें उनके खिलाफ चल रही थीं। शिलाकांत अपने मन की तरंग में यही माने चल रहे थे कि वे तो एकदम ठीक हैं। प्रशासनिक अधिकारी ही उनके पीछे पड़े हुए हैं हाथ धो के। दोनों अपनी-अपनी तरफ से दूसरे को गलत सिद्ध करने में और नीचा दिखाने में लगे हुए थे। संयोग से शिलाकांत मौका हथिया ले गये।
डिप्टी साहब एक दिन लंच के वक्‍त यूं ही ज़रा धूप में अकेले खड़े हुए थे। आस पास बाबू, चपरासी लोग बैठे ताश खेल रहे थे। थोड़ी दूर कुछ और अधिकारी खड़े बतिया रहे थे। तभी जनाब शिलाकांत उनके पास आये और सिर झुकाकर, हाथ जोड़कर खड़े हो गये। शिलाकांत के पास आते ही वे समझ गये थे कि आज कुछ अनहोनी होने ही वाली है। तभी शिलाकांत ने नमस्कार की मुद्रा में झुके-झुके ही उन्हें मां बहन की गालियां देना शुरू कर दिया। वे जब तक संभलते, समझते, शिलाकांत जी उन्हें बुरी तरह गालिया कर गेट की तरफ बढ़ चुके थे। इस सारी प्रक्रिया में मुश्किल से एक मिनट लगा। पूरे समय के दौरान शिलाकांत सिर झुकाये, हाथ जोड़े खड़े रहे।
पहले तो उनकी समझ में ही नही आया, यह सब क्या हो गया, फिर वे एकदम गुस्से में आग-बबूला हुए साहब के केबिन की तरफ लपके थे। साहब लंच के बाद की झपकी ले रहे थे। डिप्‍टी इतने गुस्से में थे कि साहब के सामने पूरी बात कहने में भी तकलीफ हो रही थी। पूरी बात सुन कर साहब उनके साथ लपके हुए बाहर आये थे। डिप्टी साहब ने आसपास मौजूद कई लोगों को बुलवा लिया था कि इन सबके सामने शिलाकांत ने मुझे गालियां दी है। वह सुनकर सभी सकपका गये थे। दरअसल किसी ने भी उसे गालियां देते हुए नहीं सुना था। बस उसे झुके-झुके गिड़गिड़ाते हुए देखा था। वैसे भी गंडासे वाले किस्से के बाद किसकी हिम्मत थी कि उनके खिलाफ झूठी-सच्ची गवाही दे। सबने वही कहा जो उन्हों ने देखा था। सुना तो वैसे भी किसी ने कुछ नहीं था। डिप्टी साहब को इसकी कतई उम्मीद नहीं थी कि वे इस अपमान का एक भी गवाह नहीं जुटा पायेंगे। वे अभी भी अपमान की आग में जल रहे थे। शिलाकांत उनके मुंह पर थूककर चले गये थे और उसकी जलालत वे झेल रहे थे।
शिलाकांत कोई सवा दो बजे आये। लंच टाइम खत्म होने के पैंतालीस मिनट बाद। उन्हें तुरन्त तलब किया गया और एकदम कड़े शब्दों में इस घटना के बारे में साहब ने खुद पूछा। वे साफ मुकर गये, ‘’अजी साहब, क्या बात करते हैं, हम और साहब को गाली दिये? ना ना, कभी नहीं हुजूर, हम तो साहब से दरखास करने गये थे कि साहेब घर पर हमारा बचवा बुखार में तड़प रहा है। सो हमें आधे घंटे की छुट्टी दी जाये ताकि हम उसे डाक्टर के पास ले जाकर उसकी दवा-दारू का इंतजाम कर सकें और हम कुछ नहीं बोले साहब ! साहब से बस हाथ जोड़े विनती करते रहे। सब बाबू लोग इसके गवाह हैं हुजूर। किसी से भी पूछ लीजिये और अगर हम झूठ बोल रहे हैं तो हमें अपने बीमार बच्चे की कसम। ये देखिये उसकी दवा की पर्ची भी हमारे पास है।‘’ और उन्होंने जेब से डाक्टर की पर्ची निकालकर दिखा दी।
साहब और वे खुद दोनों ही समझ गये थे कि आज शिलाकांत ऊंचा खेल खेल गये हैं। बेहद शातिराना अंदाज में। उन पर हाथ डालने की कोई गुंजाइश नहीं थी। साहब ने शिलाकांत को भेजकर डिप्टी के कंधे पर हाथ रखकर कहा था। ‘’सम अदर टाइम सम अदर वे। वी कांट ट्रैप हिम टूडे।
उनका मुंह अपमान से काला पड़ गया था। उनकी मुटि्ठयां शिलाकांत का गला दबाने के लिए कसमसा रही थीं और वे कुछ नहीं कर पा रहे थे। आज उसी घटना की याद ताजा हो आयी थी उन्हें और वे जीप लेकर निकल गये थे। आज अगर वे उसे घेर भी लें, क्या गारंटी कल शिलाकांत पहले जैसा खेल नहीं खेलेगा। उससे दूर ही भले।

टीले पर अभी भी शिलाकांत का प्रवचन जारी है—‘’साले, समझते हैं कि शिलाकांत अकेला है। उसके आगे-पीछे रोने वाला कोई नहीं है। मार डालेंगे। बंबू किये रहेंगे ताकि शान्ति से बैठा रहे। अन्याय सहता रहे। हम बताये देत हैं मनिजमेंट और उसके चमचों के लिए हम ही अकेले काफी हैं। सबकी . . . में डंडा करने को। एक-एक को बुलवाये लो। सबकी फाड़ के न रख दी तो हमारा नाम भी शिलाकांत नहीं,’’ वे अपने अंग विशेष को हिलाते हुए बके जा रहे हैं। नीचे भीड़ बहुत बढ़ गयी है। लंच टाइम हो चुका है सो सभी वहीं भागे चले आ रहे हैं। हर बार कोई न कोई उन्हें उकसा देता है और वे नये से शुरू हो जाते है। तभी किसी ने उनकी तरफ एक तौलियानुमा कपड़ा फेंका ताकि वे बांध लें उसे और अपनी नंगई छोडें। वे फिर दहाड़े, ‘’ले जावो इस कफनी को और ओढ़ाय देव मनिजमेंट की लास को। वही बिना कफन के जलाने के इंतजार में सड़ रही है।‘’ सुरक्षा अधिकारी कुछेक गार्डों के साथ उन्हें नीचे उतारने और कपड़े पहनाने की कोशिश करता है, वे ऊपर से पत्‍थर मारने लगते हैं। उसी के पितरों का तर्पण करने लगते हैं।
जब बड़े साहब को इस मामले की खबर दी गयी तो वे एकदम आगबबूला हो गये हैं, तुरन्त प्रशासनिक अधिकारी, कार्मिक अधिकारी और सुरक्षा अधिकारी को तलब किया गया है। वे दहाड़े, ‘’ये क्या हो रहा है ऑफिस में। यह ऑफिस है या गंगाघाट? आप लोग कुछ देखते करते क्यों नहीं? उन्होंने बारी-बारी से तीनों को घूरा। कोई कुछ कह से, इससे पहले ही वे बोले, ‘’नो, नो, मै कुछ सुनना नहीं चाहता। अगर वह सीधी तरह नही मानता, तो टेक सम स्टर्न एक्शन। कॉल पुलिस। ही इज स्पाइलिंग द ऑफिस एटमास्फेयर। डू समथिंग इमीडियेटली’’ उन्होंने बिना किसी को कुछ भी कहने का मौका दिये हुए कहा। कार्मिक अधिकारी ने किसी तरह से हिम्मत जुटाकर कहा, ‘’सर पुलिस बुलाने में बहुत कंपलीकेशंस हैं। अगर वह गिरफ्तार कर लिया गया तो बाद में कोर्ट-कचहरी के चक्कर हमें ही काटने पड़ेंगे।‘’ कार्मिक अधिकारी अपनी खाल बचाये रखना चाहते हैं।
‘’देन डू व्हाट एवर यू कैन डू, बट दिस रास्कल मस्ट वी टॉट ए लेसन दिस टाइम।‘’ तभी उन्हें कुछ सूझा, तीनों को रुकने के लिए कहा और एकदम फैसला करने के अन्दाज में बोले, ‘’एक काम कीजिये आप’’ उन्होंने सुरक्षा अधिकारी से कहा, ‘’आप फायर ब्रिगेड को फोन कीजिये, फायर इंजिन से उसकी अच्छी तरह धुलाई करा दीजिए। अपने आप ठिकाने होश आ जायेंगे, उस इडियट के।‘’ तीनों अधिकारी साहब से एकदम सहमत हो गये हैं। उन्हें मन ही मन अफसोस भी हुआ कि इतना बढिया आइडिया उन्हें क्यों नहीं सूझा।
फायर इंजिन की घंटी की आवाज सुनकर वहां खड़ी भीड़ में भगदड़ मच गयी है। उसके लिए एकदम रास्ता बना दिया गया है। धक्का मुक्की करके हर आदमी अब आगे जाना चाह रहा है। सब हैरान भी हो रहे हैं कि यह किसके दिमाग की उपज है। डेढ़-दो घंटे से जो तमाशा चल रहा है, उसका पटाक्षेप होने ही वाला है। यह दृश्य कोई भी मिस नहीं करना चाहता। फायरमैन अपनी-अपनी पोजीशन लेकर पानी का जेट तैयार करके आदेश की प्रतीज्ञा में हैं। सुरक्षा अधिकारी, कार्मिक अधिकारी और अन्य अधिकारी शिलाकांत को आखिरी चेतावनी दे रहे हैं: ‘’शराफत से कपड़े पहनकर नीचे आ जाओ वरना.....’’
शिलाकांत यह सब अमला देखकर और भड़क गये हैं। और ऊँचे टीले पर जा खड़े हुए हैं और अपनी गालियों का प्रसाद नये मेहमानों को भी देने लगे हैं। सब लोग हो-हो करके हंसने लगे। सुरक्षा अधिकारी को एकदम ताव आ गया। वह पहले वहां खड़ी भीड़ पर दहाड़ा, ‘’क्‍या तमाशा लगा रखा है सबने यहां? जाओ अपनी-अपनी सीट पर। आप लोगों की वजह से ही वह इतनी देर से नाटक कर रहा है। जाइए आप लोग’’, लोग दो-चार कदम पीछे हट कर फिर खड़े हो गये। गया कोई नहीं। वे इस नाटक का अन्त देखे बिना कैसे जा सकते हैं।
तभी सुरक्षा अधिकारी ने शिलाकांत को स्नान कराने का आदेश दे दिया। पानी की तेज धार जब उन पर पड़ी तो वे सारी गालियां भूल गये। फायरमैनों को भी आज की इस ड्यूटी में मजा आ रहा है। उन्होंने शिलाकांत को पानी की मोटी धार से इतना परेशान कर दिया कि उनके लिए खड़ा रहना मुश्किल हो गया। वे चिल्लाने लगे। पहले घुटनों के बल झुके, तो पानी की धार भी नीचे कर दी गयी। फिर वे जमीन पर बिल्कु‍ल लेट से गये। हाथ ऊपर करके हाय-हाय करने लगे। उनकी सांस फूल गयी और वे हांफने लगे। सुरक्षा अधिकारी ने पानी रोकने का इशारा किया और चिल्ला कर पूछा, ‘’क्यों श्रीमान, दिमाग की मैल उतर गयी या अभी बाकी है ?’’
शिलाकांत एकदम बेदम पड़े हैं बुरी तरह हांफते हुए। हाथ हवा में टंगे हुए है। खेल खत्म हो गया है। सुरक्षा अधिकारी ने अग्निशमन दल को धन्यवाद दिया और सुरक्षा गार्डों को आदेश दिया कि वे शिलाकांत को कपड़े पहनाकर उसके केबिन में ले आयें।
लोगों के हुजूम लौट रहे हैं, ऑफिस की तरफ। हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा आ जाये, वाला भाव लिये।

Saturday, October 25, 2008

उपन्‍यास देस बिराना ई बुक के रूप में

हमारे मित्र रवि रतनामी ने अपने ब्‍लाग rachanakar.blogspot.com पर कुछ दिन पहले पाठकों तक मेरी दो किताबें ई बुक्‍स के जरिये पाठकों तक पहुंचायी हैं। ये हैं चार्ली चैप्लिन की आत्‍म कथा का अनुवाद http://www.esnips.com/doc/26a37191-f6a2-41b2-8946-119ab4c771b4/charlie-chaplin-ki-atma-katha-by-suraj-prakash
और चार्ल्‍स डार्विन की आत्‍म कथा का अनुवाद -http://www.esnips.com/doc/59aa7087-a4e3-4d84-9902-a10f4414b42c/charls-darwin-ki-aatmakatha।
अब वे मेरे उपन्‍यास देस बिराना को ई बुक के रूप में ले कर आये हैं। http://rachanakar.blogspot.com/2008/10/blog-post_8070.html
इस उपन्यास को पीडीएफ़ ई-बुक में डाउनलोड कर पढ़ने के लिए यहाँ से डाउनलोड करें.
उपन्‍यास ऑनलाइन विकि सोर्स पर भी उपलब्ध है. विकि सोर्स पर ऑनलाइन पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ)
बेहद पठनीय और सहज भाषा शैली में रचा गया यह मार्मिक उपन्यास एक ऐसे अकेले लड़के की कथा लेकर चलता है जिसे किन्हीं कारणों के चलते सिर्फ चौदह साल की मासूम उम्र में घर छोड़ना पड़ता है, लेकिन आगे पढ़ने की ललक, कुछ कर दिखाने की तमन्ना और उसके मन में बसा हुआ घर का आतंक उसे बहुत भटकाते हैं। यह अपने तरह का पहला उपन्यास है जो एक साथ ज़िंदगी के कई प्रश्नों से बारीकी से जूझता है। अकेलापन क्या होता है, और घर से बाहर रहने वाले के लिए घर क्या मायने रखता है, बाहर की ज़िंदगी और घर की ज़िंदगी और आगे बढ़ने की ललक आदमी को सफल तो बना देती है लेकिन उसे किन किन मोर्चों पर क्या क्या खोना पड़ता है, इन सब सवालों की यह उपन्यास बहुत ही बारीकी से पड़ताल करता है। इसी उपन्यास से हमें पता चलता है कि भारत से बाहर की चमकीली दुनिया दरअसल कितनी फीकी और बदरंग है तथा लंदन में भारतीय समुदाय की असलियत क्या है।
प्रसंगवश ये उपन्‍यास एमपी3 में ऑडियो रिकार्डिंग के रूप में भी उपलब्‍ध है। इसे तैयार कराया था लंदन की एशियन कम्‍यूनिटी आर्टस और कथा यूके ने।
सूरज प्रकाश

Monday, October 13, 2008

अल्बर्ट -1984 में लिखी पहली कहानी

(1984 में सारिका में मेरी लिखी पहली लघु कथा पुरस्कृत हुई थी। उसे पढ़ कर आकाशवाणी बंबई में काम कर रहे कवि अनूप सेठी ने पत्र भेजा था कि मैं आकाशवाणी में आ कर एक कहानी रिकार्ड करवा जाऊं। तभी बहुत जद्दोजहद के बाद ये पहली कहानी लिखी और रिकार्ड करायी गयी थी। अभी भी ये कहानी आकाशवाणी के आर्काइव में है और अक्सर प्रसारित की जाती है।
बाद में कई बार इस कहानी को और विस्तार देने के कोशिश की। इस या इस तरह के चरित्रों को ले कर बीसियों बार लिखे गये सैकड़ों पन्ने अभी भी मेरी फाइलों में रखे हैं लेकिन इस पात्र को मैं कभी भी अपने या शायद पात्र के मनमाफिक तरीके से नहीं लिख पाया, बेशक आज भी मुझे वो उतना ही हांट करता है और हर बार कोई भी कहानी शुरू करने से पहले वह चरित्र अपने हिस्से के शब्द मुझसे मांगता है लेकिन हर बार यही कहानी रह जाती है।
इसी चक्कर में 24 बीस बीत जाने के बाद भी आज भी मेरी ये पहली कहानी अप्रकाशित ही रह गयी है।)

अल्बर्ट
मुझे तुम पर शर्म आ रही है अल्बर्ट। तुम इस लायक भी नहीं रह गये हो माय सन कि तुम्हें बेटा कहूं। पता नहीं यह पत्र पढ़ने के लिए तुम घर पर लौट कर आओगे भी या नहीं। मुझे पता होता कि यहां आने पर मुझे इस तरह से परेशान होना पड़ेगा तो मैं आता ही नहीं। चार दिन से बंबई आया हुआ हूं और तुम्हारा बंद दरवाजा ही देख रहा हूं। सुबह शाम तुम्हारे घर के चक्कर काट काट कर थक गया हूं। तुम्हारा पड़ोसी बता रहा था कि यह पहला मौका नहीं है कि तुम चार पांच दिन से घर नहीं लौटे हो। पहले भी कई बार ऐसा होता रहा है कि तुम कई कई दिन घर नहीं लौटते या घर पर होते हो तो दरवाजा नहीं खोलते। कहां रहते हो, क्या करते हो, किसी को कोई खबर नहीं। तुम्हारे ऑफिस के भी चक्कर काटता रहा हूं। वहां तुम पंद्रह दिन से नहीं गये हो। दरअसल तुम्हारे ऑफिस ने जब तुम्हारी खोज खबर लेने के लिए ये वाली रजिस्ट्री हमारे पास गोवा भेजी तो ही हमें पता चला कि तुम फिर अपनी पुरानी हरकतों पर उतर आये हो तो मुझे खुद आना पड़ा। अब मैं तुम्हें कैसे बताऊं कि मुझे यहां आने के लिए कितनी मुश्किलों से पैसों का जुगाड़ करना पड़ा है।
अल्बर्ट, क्यों तुम इस तरह से अपने आप से नाराज़ हो और खुद को शराब में खत्म कर रहे हो। कितने बरस हो गये तुम्हें इस तरह से एक बेतरतीब, बेकार और अर्थहीन जिंदगी जीते हुए। तुम महीना महीना ऑफिस नहीं जाते। जाते भी हो तो पीये रहते हो। तुम्हारे ऑफिस वाले बता रहे थे कि तुम काम में एक्सपर्ट होने के बावजूद काम नहीं कर पाते क्योंकि न तो तुममें काम में ध्यान देने की ताकत रह गयी है और न ही तुम्हारा शरीर ही इस बात की इजाज़त देता है। तुम्हारे ऑफिस वाले इन सबके बावजूद तुम्हें नौकरी से नहीं निकालते। तरह तरह से काउंसलिंग करके, जुर्माने लगा कर और वार्निंग दे कर तुम्हें सही राह पर लाने की कोशिश करते रहते हैं। सिर्फ इसलिए कि तुम फुटबॉल के बहुत अच्छे खिलाड़ी रहे हो। काम में बहुत माहिर माने जाते रहे हो और फिर तुम्हें ये नौकरी खिलाड़ी होने की वजह से ही तो मिली थी। उन्हें विश्वास है कि तुम ज़रूर यीशू मसीह की शरण में लौट आओगे और फिर से अच्छा आदमी बनने की कोशिश करोगे। पर कहां। तुम जो जिंदगी जी रहे हो, तुमने कभी सोचा है कि तुम खुद के साथ और अपने बूढ़े पेरेंट्स के साथ कितना गलत कर रहे हो। हमारी बात तो खैर जाने दो। बहुत जी लिये हैं। रही सही भी किसी तरह कट ही जायेगी। पर कभी अपनी भी तो सोचो। इस तरह से कब तक चलेगा।
याद करो बेटा, तुमने कितना शानदार कैरियर शुरू किया था। किसी भी फील्ड में तुम पीछे नहीं रहे थे। पढ़ाई में तो हमेशा फर्स्ट आते ही थे, सभी स्पोर्ट्स में खूब हिस्सा लेते थे तुम। स्कूल और कॉलेज की फुटबॉल की टीम के हमेशा कैप्टन रहे। फिर गोवा की तरफ से खेलते रहे। तुम्हारी पर्फार्मेंस बेहतर होती गयी थी। तब हम सब कितने खुश हुए थे जब कुआलाम्पुर जाने वाली नेशनल टीम में तुम चुने गये थे। उस रात हम देर तक नाचते गाते रहे थे।
तुम्हारी टीम जीत कर आयी थी। जीत का गोल तुमने दागा था। तुम्हारी वापसी पर एक बार फिर हमने सेलिब्रेट किया था। हमने मदर मैरी को थैन्क्स कहा था कि तुम्हारा लाइफ कितने शानदार तरीके से शुरू होने जा रहा था। तभी तुम्हें स्पोर्ट्स कोटा में ये नौकरी मिल गयी थी और तुम बंबई आ गये थे। बस, बेटे तभी से तुम शराब के हो कर रह गये हो। तुमने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा है। पहले तुम बंबई में आपनी शामों का अकेलापन काटने के लिए पीते रहे। हमने बुरा नहीं माना। हमारी पूरी कम्यूनिटी पीती है। सेलिब्रेट करती है। और फिर हम तुम्हें साथ बिठा कर पिलाते रहे हैं, लेकिन एक लिमिट तक। पर शायद हमारी ही गलती रही। तुम तो रोज़ ही पीने लग गये थे। दिन में नौकरी या थोड़ी बहुत फुटबॉल और शाम को तुम अकेले ही पीने बैठ जाते थे। जब हमें पता चला था तो हमने यही समझा था कि नया नया शौक है, तुम खुद संभल जाओगे, लेकिन नहीं। तुम नहीं संभले तो नहीं ही संभले। हमने तुम्हारी मैरिज करानी चाही तो तुम हमेशा ये कह कर ही टालते रहे कि खुद तो होटल की डोरमैटरी में पड़ा हूं, फैमिली कहां रखूंगा।
बस, तब से सब कुछ हाथ से छूटता चला गया है। कितने बरस हो गये तुमसे ढंग से बात किये हुए। गोवा तुम कभी आते नहीं। तुम्हारी ममा तुम्हारे लिए कितना तो रोती है। अब तो बेचारी ढंग से चल फिर भी नहीं सकती। बेटे का सुख न उसने देखा है न मैंने।
तुम यकीन नहीं करोगे अल्बर्ट, उस समय मैं कितना टूट गया था जब तुम्हारे ऑफिस के लोगों ने हमें बताया कि तुम्हारी गैर हाजरी के कारण तुम्हारी पगार हर साल बढ़ने के बजाये कम कर दी जाती है। कोई ऐसा एंडवास या लोन नहीं जो तुमने न ले रखा हो। ऑफिस का कोई ऐसा बंदा नहीं जिसके तुमने सौ पचास रुपये न देने हों। और कि तुम कहीं भी पार्क में, रेलवे प्लेटफार्म पर या ऑफिस की सीढियों में ही सो जाते हो। सामान के नाम पर तुम्हारे पास टूथ ब्रश और दो फटे पुराने कपड़ों के अलावा कुछ भी नहीं। एक जोड़ा जो तुमने पहना होता है और दूसरा, तुम्हें ये फ्लैट मिलने तक तुम्हारी ड्रावर में रखा रहता था।
तुम्हारे सैक्शन ऑफिसर बता रहे थे कि तुम ढंग से जी सको, और अपनी पूरी पगार एक ही दिन में पीने में न उड़ा दो, इसके लिए उन्होंने तुम्हारी पगार एक साथ न देकर तुम्हें कुछ रुपये रोज देना शुरू किया था लेकिन कितने दिन। तुम तब से ऑफिस ही नहीं गये हो।
माय सन, शायद हमें ये दिन भी देखने थे। इस बुढ़ापे में तुम्हारी मदद मिलना तो दूर, हर बार कोई ऐसी खबर जरूर मिल जाती है कि हम शर्म के मारे सिर न उठा सकें। तुम्हारा पड़ोसी बता रहा था कि जब ऑफिस से सीनियरटी के हिसाब से तुम्हें ये फ्लैट मिला तो तुम्हारे पास फ्लैट की सफाई के लिए झाड़ू खरीदने तक के पैसे नहीं थे। सामान के नाम पर तुम्हारी मेज की ड्रावर में जो सामान रखा था, वही तुम एक थैली में भर कर ले आये थे। तुम्‍हारी लत ने तुम्हें यहां तक मजबूर किया कि तुम फ्लैट के पंखे तक बेचने के लिए किसी इलैक्ट्रिशियन को बुला लाये थे।
बेटे, तुम छोड़ क्यों नहीं देते ये सब . . . नौकरी भी। गोवा में हमारे साथ ही रहो। जैसे तैसे हम चला रहे हैं, तुम्हारे लिए भी निकाल ही लेंगे। हर बार तुम वादा करते हो, कसम खाते हो, दस बीस दिन ढंग से रहते भी हो, फिर तुम वही होते हो और तुम्हारी शराब होती है।
तुम्हारे ऑफिस वालों ने तुम्हारी मेडिकल रिपोर्ट दिखायी थी मुझे। गॉड विल हैल्‍प यू माय सन। तुम जरूर अच्छे हो जाओगे। छोड़ दो बेटे ये सब। तुम्हारी ममा तुम्हारी सेवा करके तुम्हें अच्छा कर देगी।
पिछले एक बरस में मैं चौथी बार बंबई आया हूं। पिछली बार की तरह इस बार भी तुम मुझे नहीं मिले हो। तुम्हारी ममा ने इस बार यही कह कर मुझे भेजा था कि तुम्हें साथ ले ही आऊं। पर तुम्हें ढूंढूं कहां। पिछले चार दिन से तुम्हारे घर और ऑफिस के चक्कर काट काट कर थक गया हूं। तुम्हारी तलाश में कहां कहां नहीं भटका हूं। तुम कहीं भी तो नहीं मिले हो।
अल्बर्ट, मैं थक गया हूं। तुम्हें समझा कर भी और तुम्हें तलाश करके भी। फिर कब आ पाऊंगा कह नहीं सकता। इन चार दिनों में भी होटल में, खाने पीने में और आने में कितना तो खर्चा हो गया है। चाह कर भी एक दिन भी और नहीं रुक सकता। वापसी के लायक ही पैसे बचे हैं।
ये खत मैं तुम्हारे दरवाजे के नीचे सरका करक जा रहा हूं। कभी लौटो अपने घर और होश में होवो तो ये खत पढ़ लेना। मैं तो तुम्हें अब क्या समझाऊं। तुम्हें अब यीशू मसीह ही समझायेंगे और ..।
गॉड ब्लेस यू माय सन..।

Monday, September 1, 2008

चार्ली चैप्लिन की आत्‍मकथा का अनुवाद रचनाकार.ब्‍लागस्‍पाट पर

मित्रो
आप मेरे द्वारा अनूदित चार्ली चैप्लिन की आत्‍मकथा अब आप http://rachanakar.blogspot.com/2008/08/1_29.html पर किस्‍तों पर पढ़ सकते हैं. रवि जी ने पिछले तीन दिन में इसकी पांच किस्‍तें पोस्‍ट की हैं. पूरी आत्‍मकथा लगभग 550 पेज की थी और मेरे ख्‍याल से 20 किस्‍तों में वे आप तक पूरी आत्‍म कथा पहुंचायेंगे. अनुवाद पर आपकी टिप्‍प्‍णियों का इंतज़ार रहेगा

सूरज प्रकाश

Friday, August 29, 2008

बाइसवीं कहानी रचनाकार.ब्‍लागस्‍पाट पर

मित्रो
आदान प्रदान योजना के तहत मेरी लम्‍बी कहानी देश, आज़ादी की पचासवीं वर्षगांठ और एक मामूली सी प्रेम कहानी आप रचनाकार.ब्‍लागस्‍पाट पर पढ़ें. लिंक यहां दे रहा हूं. मेरे अपने ब्‍लाग पर रचनाएं आती रहेंगी
http://rachanakar.blogspot.com/2008/08/blog-post_5754.html

सूरज

Thursday, August 21, 2008

इक्‍कीसवीं कहानी - घर बेघर

घर बेघर

लंदन से महेश आया हुआ है। यारी रोड का अपना मकान खाली कराने के लिए। दो बरस पहले जब वह हमेशा के लिए लंदन बसने के इरादे से बंबई से गया था वो एक भरोसेमंद एजेंट की मार्फत एक बरस के लिए अपना मकान एक मलयाली को दे कर गया था। तय हुआ था कि वह ठीक एक साल बाद मकान खाली कर देगा। और भी कुछ वायदे किये थे उसने, मसलन वह महेश की सारी डाक एस्टेट एजेंट के पास पहुँचाता रहेगा जो उसे किसी न किसी जरिये से लंदन भिजवाने का इंतजाम करने वाला था। सारे बिल अदा करेगा और सोसाइटी चार्जेज वक्‍त पर अदा करेगा। लेकिन उसने कोई भी वायदा पूरा नहीं किया था। न डाक भिजवायी थी, न टेलिफोन बिल अदा किये थे, न ही सोसायटी चार्जेज टाइम पर दिये थे। और तो और, बीच–बीच में बिल अदा न किये जाने के कारण दो तीन बार बिजली भी कट चुकी थी।
उससे यह भी तय हुआ था कि वह मकान का किराया नियमित रूप से महेश की तरफ से एजेंट को देता रहेगा, लेकिन किराया भी उसने छः सात महीने का ही जमा कराया था।
महेश बता रहा है कि उसने किरायेदार को कई पत्र लिखे, संदेश भिजवाये लेकिन किसी भी तरह से वह पकड़ में नहीं आया। कई बार फोन करने पर एक आध बार जब वह पकड़ में आया भी तो गिड़गिड़ाने लगा कि छः महीने की मोहलत और दे दो। छः महीने पूरे होते ही वह मकान खाली कर देगा। सारे पेमेंट भी कर देगा और किसी भी तरह की शिकायत का मौका नहीं देगा।
लंदन में बैठे हुए महेश के पास इसके अलावा और कोई उपाय भी नहीं था क्योंकि इस बीच उसका एजेंट भी अपनी दुकान बंद करके वहां से गायब हो चुका था और किरायेदार से कम से कम सात महीने का किराया भी ले जा चुका था। ये वही एजेंट था जो महेश के लंदन जाते समय आधी रात को अपनी वैन ले कर आया था और उसका सारा सामान लाद कर एयरपोर्ट ले गया था। महेश को विदा करते समय वह महेश के गले लग कर फूट–फूट कर रो रहा था और टेसुए बहा रहा था कि आप जैसा खरा और जिंदादिल इंसान मैंने जिंदगी में नहीं देखा। और यही एजेंट अपना बोरिया–बिस्तर समेट कर चंपत हो चुका था।
महेश बता रहा है कि लंदन से चलने से पहले उसने किरायेदार को दसियों बार फोन करके अपने आने की सूचना दे दी थी कि वह सिर्फ मकान खाली कराने के मकसद से ही आ रहा है और उसका यहाँ और कोई काम नहीं है। इसलिए वह जैसे भी हो, मकान खाली रखे ताकि उसे यहाँ बेकार में रुकना न पड़े। किरायेदार के ही कहने पर महेश ने यहाँ आने की तारीख दो बार बदली। जब भी महेश ने उसे बताया कि मैं आ रहा हूँ, किरायेदार ने कोई न कोई बहाना बना कर थोड़ा समय और मांगा। एक बार दो महीने का और एक बार एक महीने का। दो बार किरायेदार के कारण और एक बार खुद की छुट्टी मंजूर न होने के कारण महेश का आना तीन बार टला और आखिर वह आ ही गया है।
महेश के यहाँ पहुंचते ही हम दोनों ने सुबह–सुबह ही किरायेदार के घर पर हमला बोल दिया है। यही वक्‍त है जब उसे घर पर घेरा जा सकता है। हम दोनों को सुबह छः बजे ही अपने दरवाजे पर देख कर पहले तो किरायेदार हैरान हुआ, फिर किसी तरह संभल कर बोला – अच्छा हुआ, आप आ गये। मैंने अपने लिए दूसरे मकान का इंतजाम कर लिया है, कल बारह बजे मुझे चाबी मिल जायेगी। कल शाम तक आपका मकान आपको खाली मिल जायेगा। इससे आगे उसने संवाद की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है।
महेश घर में कदम रखते ही परेशान हो गया है। किरायेदार ने घर बहुत ही बुरी हालत में रख छोड़ा है। हम दोनों ही हैरान हो गये हैं कि क्या ये महेश का वही घर है जिसे वह इतनी सफाई से और इतने जतन से साफ–सुथरा रखता था। लग ही नहीं रहा है कि इस घर में कोई दो साल से लगातार रह रहा है। चारों तरफ मकड़ी के जाले लगे हुए हैं। कागजों के ढेर, कचरा और ढेरों फटे पुराने जूते ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ा रहे हैं। रसोई का तो और भी बुरा हाल है। जैसे वहां दो साल से कचरा ही न बुहारा गया हो। एक अजीब–सी बदबू पूरे घर में फैली हुई है। जैसे अरसे से कई चूहे मरे पड़े हों घर में और उन्हें बाहर निकाला ही न गया हो।
उसने एक और बदमाशी की है उसने कि ड्राइंगरूम में ही दीवार पर एक बहुत बड़ा–सा लकड़ी का मंदिर ठोक दिया है। महेश जब यहाँ रहता था तो उसने कभी ड्राइंगरूम में एक कील तक नहीं ठोंकी थी और अब .. .. ... ।
इस समय उससे कुछ कहने का मतलब ही नहीं है। बस एक दिन की ही तो बात है। हम खाली हाथ वापिस लौट आये हैं।

और आज सात दिन बीत जाने के बाद भी हम महेश का मकान खाली नहीं करवा पाये हैं। हर बार एक नया बहाना। हर बार थोड़ी और मोहलत के लिए गिड़गिड़ाना और नये सिरे से वायदे करना ही चलता रहा है इस दौरान।
जब हम अगले दिन वहां गये तो पता चला, किरायेदार घर पर नहीं है, रात को देर से आयेगा। घर को देखते हुए ऐसा कोई संकेत नहीं मिल रहा था कि घर खाली करने की कोई तैयारी ही की गयी होगी। जबकि किरायेदार के मुताबिक तो हमें इस वक्‍त खाली घर की चाबी लेने आना था।
हम अगले दिन सुबह–सुबह ही जा धमके हैं वहां। एक बार फिर निराशा हाथ लगी है। पता चला है कि रात को जनाब घर वापिस ही नहीं आये। आउटडोर शूटिंग के सिलसिले में बाहर गये हुए हैं। आज शाम तक आने की उम्मीद है।
दरवाजा एक खूबसूरत और जवान लड़की ने खोला है। उसके पीछे एक और लड़का खड़ा है जिसके बारे में लड़की ने ही बताया है कि वह अंकल का ड्राइवर है। लड़की का परिचय पूछने पर उसने बताया है कि वह गोपालन की भतीजी है और यहाँ कुछ दिनों के लिए एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में आयी हुई है। ये बात हमारे गले से नीचे नहीं उतर रहीं क्योंकि एक तो वह लड़की किसी भी नज़रिये से मलयाली नहीं लग रही और नीचे आने पर हमें वाचमैन ने भी यही बताया कि ये लड़की तो अकसर यहाँ आती रहती है। एक और बात हमें परेशान करने लगी है कि बेशक किरायेदार ने महेश को बताया था कि वह मॉडल कोऑर्डिनेटर है लेकिन वॉचमैन और सोसायटी के दूसरे लोगों ने जो कुछ बताया है उसके अनुसार वहां रात–बेरात जिस तरह की लड़कियों का आना–जाना है, उनमें से ज्यादातर मॉडल तो क्या, सड़क किनारे खड़ी नज़र आने वाली पतुरिया से ज्यादा नहीं लगती। जैसा कोऑर्डिनेटर, वैसी ही मॉडल।
फिलहाल ये हमारा मुद्दा नहीं है कि किरायेदार क्या करता और क्या कराता है। फिलहाल हमारी चिंता महेश का मकान वापिस पा लेने की है जो हमारे सामने होते हुए भी वापिस नहीं मिल रहा।
लड़की ने जब दरवाजा खोला था तो हम सीधे अंदर तक चले आये थे। महेश का खून वैसे ही खौल रहा था। आज उसे आये चार दिन हो गये थे और किरायेदार था कि लुका–छिपी का खेल खेल रहा था। लड़की हमें इस तरह अंदर आते देख कर घबरा गयी लेकिन जब महेश ने उसे बताया कि वह मकान मालिक है और पिछले चार दिन से गोपालन के पीछे चक्कर काट काट कर परेशान हो गया है वो लड़की ने जैसे सरंडर ही कर दिया – आप चाहें तो अभी के अभी मकान खाली करा सकते हैं। मैं अपना सामान ले कर होटल चली जाऊंगी लेकिन क्या ये बेहतर नहीं होगा कि जहां आपने इतने दिन इंतज़ार किया, एक दिन और सही। लड़की ने जिस तरह से पूरी बात की और सहयोग देने का आश्वासन दिया, हम चाह कर भी उसे खड़े–खड़े बाहर नहीं निकाल पाये। वैसे भी किरायेदार की गैर हाजिरी में मकान खाली कराना न केवल गलत था बल्कि इससे अनधिकृत और जबरन प्रवेश का मामला भी बन सकता था। भले ही वह बेईमान था लेकिन था तो किरायेदार ही।
अलबत्ता, हमने इतना जोखिम जरूर लिया कि वॉचमैन की मदद से ड्राइंगरूम में से मंदिर उखड़वा दिया है। मंदिर के पीछे इतने काक्रोच निकले कि वह लड़की तो डर ही गयी। हमारा मूड तो खराब हुआ ही।
हम रात के वक्‍त के फिर वहां गये हैं और इस बार चार–पांच आदमी गये हैं और ये तय करके गये हैं कि कैसे भी आज मकान खाली करा ही लेना है। लेकिन वहां एक और ही सदमा हमारा इंतजार कर रहा है। घर पर केवल ड्राइवर है। वह लड़की वहां से शिफ्ट कर चुकी है। ड्राइवर ने जो कुछ बताया है उसे सुन कर हमें हंसी भी आ रही है और खून भी खौल रहा है। अगर ड्राइवर पर भरोसा किया जाये तो गोपालन शाम की फ्लाइट से केरल में अपने गांव गया है, शादी करने। हमें गुस्सा इस बात पर आ रहा है कि गोपालन एक बार फिर गच्चा दे गया और हँसी इस बात पर आ रही है कि बदमाश के पास रहने के लिए छत नहीं है, जो है उसे खाली कराने के लिए हम कब से उसे तलाशते फिर रहे हैं और जनाब पचपन साल की उम्र में फिर से ब्याह रचाने गांव गये हुए हैं।

बहुत मुश्किल से ड्राइवर गोपालन के गांव का फोन नम्बर तलाश कर पाया है। उसे तो वह भी न मिलता। एक तरह से हमने ही उसके गांव का नम्बर तलाशा। हुआ ये कि वहां हमें पड़े ढेरों कागजों में एसटीडी बूथ से की गयी एसटीडी कॉलों की कई रसीदें मिलीं। उनमें से सबसे ज्यादा बार जिस नम्बर पर फोन किये गये थे, उन रसीदों पर दिये गये एसटीडी कोड के जरिये ही नम्बर का अंदाजा लगा पाये। इसी नम्बर के जरिये हमने उसके गांव के नाम का पता लगाया और फिर ड्राइवर से भी गांव का नाम कन्फर्म किया, संयोग से वहां कुछ पत्र हमें रखे मिल गये जिन पर गांव का नाम लिखा हुआ था। आखिर जायेगा कहां बच्चू। शादी करने गया हो या अपने धंधे के लिए नयी मॉडल तलाशने, आखिर वापिस तो यहीं आयेगा। कब तक बचता बचाता फिरेगा।
संयोग से गोपालन घर पर मिल गया है और महेश ने इस बात की परवाह किये बिना कि गांव में शादी कराने गया हुआ है, फोन पर ही उसकी जो लानत–मलामत की है, गोपालन जिंदगी भर याद रखेगा। लगभग पन्‍द्रह मिनट तक महेश उसे फोन पर ही धोता रहा और जब उसे ये धमकी दी गयी कि आज ही उसका सारा सामान उसकी गैर–मौजूदगी में सड़क पर डाल दिया जायेगा पुलिस केस बनता है तो बने, तो उसने एक बार फिर गिड़गिड़ा कर सिर्फ तीन दिन की मोहलत मांगी है और कहा है कि वह कैसे भी करके आते ही घर खाली कर देगा।
महेश मकान को ले कर बहुत परेशान हो रहा है। वह जानता है कि किरायेदार उसके लंदन में होने का पूरा फायदा उठा रहा है। गोपालन को पता है कि महेश हमेशा के लिए तो छुट्टी ले कर उसके पीछे चक्कर काटने से रहा इसलिए वह लगातार कोशिश करके सामने आने से ही बच रहा है।
हम पुलिस चौकी गये हैं कि इस बारे में क्या वहां से कोई मदद मिल सकती है तो पुलिस ने साफ जवाब दे दिया है कि वे इस तरह के मामलों में कुछ नहीं कर सकते। जब महेश ने उन्हें गोपालन के हस्ताक्षर वाला बिना तारीख का मकान खाली करके देने वाला कागज दिखाया तो पुलिस का यही कहना है कि आप बेशक जोर–जबरदस्ती से मकान खाली करवा लीजिये, वे बीच में नहीं आयेंगे।
महेश ने लंदन जाने से पहले यहीं और इसी इलाके में कम से कम पन्‍द्रह बरस गुजारे हैं और वह यहाँ के कायदे कानूनों से और काम करने के तौर तरीकों से अच्छी तरह से वाकिफ है फिर भी लगातार सबको गालियां दे रहा है कि ये सब लंदन में होता तो ये हो जाता और वो हो जाता। फिलहाल स्थिति यही है कि वह तीन बार अपने वापिस जाने की तारीख आगे खिसका चुका है। वहां उसके काम का हर्जा हो रहा है वो अलग। लेकिन किया भी क्या जाये। इस देश में मकान किराये पर देने वालों की यही नियति होती है। अपना मकान वापिस पाने के लिए क्या–क्या पापड़ नहीं बेलने पड़ते।

इस बीच हम लगातार महेश के इस्टेट एजेंट की तलाश करते फिर रहे हैं। कोई बताता है कि वह मीरा रोड की तरफ चला गया है तो कोई बताता है कि अब उसने ये काम ही छोड़ दिया है और चिंचपोकली के पास कम्प्यूटर सेंटर खोल कर वहां नया धंधा कर रहा है। जितने मुंह उतनी ही बातें और सारी की सारी भ्रामक। हम कई जगह भटकते रहे उसकी तलाश में लेकिन वह किसी के भी बताये पते पर नहीं मिला।

आखिर गोपालन वापिस लौट आया है। हम जानते हैं कि ये गलत है कि वह आज ही गांव से शादी करके आया है और अपने साथ नयी ब्याहता दुल्हन ले कर आया है और हम इस तरह से सुबह सुबह ही तकादा करने वालों की तरह जा धमकें। आखिर उसकी शादी हुई है और हम उसे ठीक ठीक तरीके से बधाई देने जायें लेकिन महेश का कहना है कि इस तरह जाने से वह मानसिक रूप से दबाव में आयेगा। यही बात हमारे पक्ष में जायेगी। और हम सचमुच उसे बधाई देने के बजाये उसे घर खाली करने के लिए धमकाने चले आये हैं।
लेकिन मानना पड़ेगा गोपालन को भी। इस बार भी उसके पास एक और रेडिमेड बहाना है कि जिस आदमी के घर उसे शिफ्ट करना है उसका जीजा मर गया है। कम से कम चौथे दिन के संस्कार तक के लिए इसे मोहलत दी जाये। उसके चेहरे पर एक शिकन तक नहीं है कि वह एक हफ्ते से हमें इस तरह लटकाये हुए हैं। महेश चाह कर भी इस बीच अपनी अकेली और विधवा मां से मिलने मुरादाबाद नहीं जा पाया है। इस तरफ से कुछ तय हो तो ही वह कुछ और करने की सोचे।

महेश का सिर एकदम गर्म हो गया है। वह कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं है। बात ठीक भी है। ये आदमी महेश को कब से बेवकूफ बना रहा है और लगातार तनाव में रखे हुए हैं। खुद उसे अपनी जिम्मेदारी का ज़रा सा भी ख्याल नहीं है। अगर किसी ने मेहरबानी करके आपको किराये पर मकान दे दिया तो उसका ये मतलब तो नहीं कि आप उसे मकान खाली कराने के लिए रूला डालें। गोपालन यही कर रहा है पिछले कई दिनों से।

महेश ने उसे आखिरी चेतावनी दे दी है – मैं आपको कल शाम तक का समय दे रहा हूं और ये आखिरी वार्निंग है। अगर इसके बाद भी आप मकान खाली नहीं करते तो मैं बाहर से ताला लगा दूंगा। मैं ये भी नहीं देखूंगा कि आप घर के अंदर हैं या आपकी बीवी बाथरूम में बंद रह गयी है।
हम ये धमकी दे कर आ तो गये हैं लेकिन नहीं जानते कि कल क्या होनेवाला है।
इस बीच गोपालन ने दो तीन फीलर्स भिजवाये हैं कि किसी तरह से उसे थोड़ा–सा समय और मिल जाये लेकिन महेश ने किसी भी संदेश देने वाले से बात करने से ही मना कर दिया है। हम जानते हैं कि हर बार गोपालन ने मोहलत मांगी है और हर बार वह मुकर गया है।

और गोपालन ने इस बार भी मकान खाली नहीं किया है। सोसायटी के कहने पर महेश ने दरवाजे पर ताला तो नहीं लगाया है लेकिन गोपालन को और कोई मौका न देने का फैसला कर लिया है।
हम बहुत परेशान हो चुके हैं। वह हमारे धैर्य की इतनी परीक्षाएं ले चुका है कि अब तो पानी कब का गले से ऊपर आ चुका है। हम परेशान हाल यूं ही बाज़ार में घूम रहे हैं कि सामने एक इस्टेट एजेंट का बोर्ड नज़र आया है। हम दोनों बिना किसी खास मकसद के भीतर चले गये हैं कि शायद यहाँ से कोई मदद मिल जाये।

- आइये साहब जी। भीतर एसी ऑफिस में बैठा आदमी हमारा स्वागत करता है।
महेश बताता है उसे – नमस्कार जी मेरा नाम महेश है और मैं लंदन से आया हूं।
- कहिये, आपकी क्या सेवा की जाये जी।
– जी बात दरअसल यह है कि मैं एक अजीब सी मुसीबत में फंस गया हूं और आपकी दुकान का बोर्ड देख कर सिर्फ इस उम्मीद में भीतर आ गया हूं कि शायद आप मेरी मदद कर सकें।
– ये तो जी आपकी पूरी बात सुनने के बाद ही पता चल पायेगा साहब जी कि हम आपके किस काम आ सकते हैं।
ये आदमी जिस तरह से बात कर रहा है, अपने धंधे का पूरा घाघ मालूम होता है।
महेश उसे बता रहा है – दरअसल बात ये है कि मेरा एक घर था, मेरा मतलब है कि मेरा एक घर है यारी रोड पर। मैं लगभग दो साल पहले लंदन बसने के इरादे से यहाँ से गया था तो चार बंगला के एक इस्टेट एजेंट की मार्फत अपना फ्लैट किराये पर दे गया था। वही लीव एंड लाइसेंस वाला चक्कर।
– ठीक, तो आगे . . .
- आगे हुआ ये जी कि जब मैंने ग्यारह महीने बाद फ्लैट खाली कराने के लिए किरायेदार को लंदन से खत भेजने शुरू किये तो उसने एक का भी जवाब नहीं दिया और न ही किराया ही मेरे खाते में जमा ही कराया न एजेंट को ही दिया।
- ठीक
- जब मैंने उसे लंदन से फोन किये तो उसने गिड़गिड़ाना शुरू कर दिया कि वह कुछ तकलीफों में हैं और उसे छः महीनों के लिए और रहने की मोहलत दे दी जाये। अब मैं लंदन में बैठ कर मोहलत देने के अलावा कर भी क्या सकता था। जब मैंने उससे पिछले किराये की बात की तो उसने बताया कि वह किराया चंद्रकांत भाई को लगातार देता रहा है, पचास हजार उसने एडवांस के दिये थे।
– ठीक
– वो जी मैंने तब चंद्रकांत भाई को फोन किया तो उसका फोन एक बार भी नहीं मिला। बाद में मेरे दोस्तों ने बताया कि इस पते और फोन नम्बर पर कोई इस्टेट एजेंट नहीं है। तब मैंने लंदन से अपने किरायेदार को कई बार फोन करके बताया कि मैं फलां तारीख को बंबई मकान खाली कराने आ रहा हूं तो हर बार उसने यही कहा कि आपके आने से दो दिन पहले मैं मकान खाली कर दूंगा और आपके आते ही आपको चाबी थमा दूंगा।
– फिर
– फिर जी, आज मुझे बंबई आये हुए आठ दिन हो गये हैं। वह मकान खाली करने को तैयार ही नहीं है। मैंने कई जगह पूछ के देख लिया कि शायद कहीं से बदमाश चंद्रकांत भाई का पता चल जाये लेकिन वह कहीं नहीं मिल रहा है।
– ठीक
– अब मुसीबत ये है कि मैं तीन बार अपनी टिकट कैंसिल करवा चुका हूं, उधर लंदन में मेरे काम का हर्जा हो रहा है और ये कम्बख्त किरायेदार मकान खाली करने को तैयार ही नहीं है।
– क्या कहता है।
– पहले तो वह मेरे आने वाले दिन बड़े प्यार से मिला और कहने लगा, परसों सुबह आप चाबी लेने आ जायें। घर आपको खाली मिलेगा। जब मैं दो दिन बाद पहुंचा तो दो दिन वो घर ही नहीं आया। फिर पता चला जनाब केरल निकल गये हैं अपने होम टाउन शादी करने।
– आपको कैसे पता चला?
– उस घर में, मेरा मतलब है मेरे घर में एक जवान लड़की और उस किरायेदार का ड्राइवर रह रहे थे। लड़की ने बताया कि आप बेशक घर खाली करा ले लेकिन अंकल दो दिन बाद वापिस आ रहे हैं सिर्फ दो दिन रुक जायें। मैं रुक गया तो ड्राइवर से पता चला कि वो तो शादी करने गया है। किसी तरह से हमने उससे केरल का नम्बर लेकर फोन किया और उसे याद दिलाया कि उसे इस तरह से बिना घर खाली किये नहीं जाना चाहिये था। उसने फिर वायदा किया कि वह तीसरे दिन कैसे भी करके वापिस आ कर घर खाली कर देगा।
– फिर
– अब वह वापिस आ गया है शादी करके और अब तक उसने रहने का कोई इंतजाम नहीं किया है।
– करता क्या है
– उस पर विश्वास किया जाये तो वह अपने आपको मॉडल कोऑर्डिनेटर बताता है।
– और आपको क्या लगता है कि वह क्या है
– मुझे तो जी वह लड़कियों का दलाल ही लगता है। बिल्डिंग वाले भी बताते हैं कि उस घर में रात–बेरात तरह तरह की लड़कियों का आना जाना था।
– उम्र कितनी होगी उसकी
– यही कोई पचपन के आस पास
– और आप बता रहे हैं कि वह कल ही शादी करके आया है।
– मुझे तो जी उसकी शादी भी ड्रामा ही लग रही है।
– बिल्डिंग की सोसायटी, मेरा मतलब सेक्रेटरी वगैरह को आपने विश्वास में लिया था क्या।
– वैसे तो सेक्रेटरी भला आदमी है और मेरी तरफ से पूरी कोशिश भी कर रहा है कि मेरा मकान मुझे वापिस मिल जाये लेकिन दिक्कत यही है कि जो भी उसे दो पैग पिला दे और फिश फ्राइ खिला दे, वह उसी की तरफ हो जाता है।
– और कोई बात
– देखिये मैं अपने मकान को लेकर पिछले कई दिनों से इतना परेशान हूं कि क्या बताऊं। कुछ समझ में नहीं आ रहा कि यहाँ कब तक मैं कैंप डाले पड़ा रहूंगा और उस बदतमीज किरायेदार की लंतरानियां सुनता रहूंगा। उस कम्बख्त ने छः महीने से न बिजली का बिल जमा कराया है और न ही टेलिफोन बिल ही। और तो और उस साले ने, गाली देने को जी चाहता है, साल भर से मेरी डाक तक दबा कर रखी हुई थी। आज सुबह उसने मुझे कोई सौ चिट्ठियों का बंडल पकड़ा दिया कि ये डाक है आपकी। दिल तो किया मेरा कि उसका वहीं खड़े खड़े गला घोंट दूं।
- देखिये महेशजी, तनाव में आने से तो बात और बिगड़ेगी। मैंने आपकी पूरी बात सुनी है। मुझे आपसे पूरी हमदर्दी है। जहां तक मैं समझ पाया हूं आप हमारे पास दो उम्मीदें ले कर आये हैं। पहली कि किसी भी तरह से आपका मकान खाली कराने में आपकी मदद करूं और हो सके तो आपके उस एजेंट को ढूंढ़ने में आपकी मदद करूं।
– सही फर्माया आपने। मैं हर तरफ से निराश हो कर आपके पास आया हूं। पुलिस . . .
– देखिये ऐसे मामलों में पुलिस कोई मदद नहीं कर पाती, पुलिस ने यही कहा होगा न कि आप मकान किराये पर देते समय अगर उन्हें भी फार्मली खबर कर देते तो वे शायद कुछ मदद कर भी पाते।
– जी हां, यही कहा था।
– और यह भी कहा होगा कि आप अपने आप किरायेदार से कैसे भी निपटें, वे बीच में दखल नहीं देंगे।
– जी हां मुझे नहीं पता था कि यहां की पुलिस इतनी गैर जिम्मेदार है और इतनी बेरुखी से पेश आती है।
– अब क्या किया जाये। फिलहाल हम देखें कि आपकी कैसे मदद की जाये।
– जी
– देखिये, जहां तक चंद्रकांत की बात है, हमें भी पता चला है कि वह कई लोगों को धोखा दे कर भागा हुआ है। हमारा भी एकाध पार्टी का लेनदेन अटका हुआ है उसके साथ। खैर, फिलहाल आपके मकान खाली कराने की बात है तो उसका एक ही तरीका बचता है जो कई बार हमें भी अपनाना पड़ता है और वो है मसल पावर।
– जी मैं समझा नहीं।
– देखिये ये इस शहर की खासियत है कि यहां आपको एक से बढ़ कर एक टेढ़ा आदमी मिलेगा और दूसरी तरफ आपके जैसे शरीफ आदमी भी हैं जो अपना खुद का मकान वापिस पाने के लिए भटक रहे हैं। तो ऐसे में हमारी जो ये नेचर है ना, कुदरत, सही बेलेंस करती है, टेढ़े आदमियों को सीधा करने के लिए यहां कुछ मसल मैन भी हैं। वे लोग पैसे तो लेते हैं लेकिन सिर्फ टेढ़ी उंगली से ही घी निकालना जानते हैं। निकाल कर दिखा भी देते हैं। तो जनाब अगर आप चाहते हैं कि किसी ऐसी एजेंसी की सेवाएं ली जायें तो आगे बात की जाये।
– आप क्या सजेस्ट करते हैं सर?
– देखिये महेशजी, वह आदमी आपके लंदन में होने का पूरा फायदा उठायेगा। उसे पता है, आप शरीफ आदमी है। यहां हमेशा के लिए नहीं ठहर सकते। न उसका सामान बाहर फिकवायेंगे। ज्यादा से ज्यादा ग्यारह महीने का लीव और लाइसेंस दोबारा करवा लेंगे, लेकिन वह आपको मकान तो तुरंत खाली करके देने के मूड में नहीं लगता। और फिर आप बता रहे हैं कि उसका धंधा भी कुछ इस तरह का है।
– ये देखिये, मैंने उसे फ्लैट देते समय ही लिखवा लिया था कि वह मुझे फ्लैट का खाली पोजेशन दे रहा है।
– लेकिन सर, आप कागज के बलबूते पर भी फ्लैट कहां खाली करवा पाये। वह जब तक हो सके टालेगा। एक एक दिन, एक एक घंटा। ताकि एक बार फिर आपके लौट जाने का टाइम आ जाये।
– तो इसका मतलब . .
– घबराइये नहीं, हम आपकी मदद करेंगे। फीस लगेगी 25,000 रुपये और 24 घंटे में मकान खाली कराने की गारंटी।
– रेट कुछ ज्यादा लग रहे हैं।
– आप जितनी टेंशन में हैं और अपना ब्लड प्रेशर बढ़ा रहे हैं, उसके मुकाबले कम। और फिर दस बारह आदमियों की टीम होती है, कहीं कुछ मारपीट हो जाये तो उस सबका इंतजाम करके चलता पड़ता है। इस बात का भी ख्याल रखना पड़ता है कि पुलिस केस न बने। तो समझें फाइनल?
– आप तो मुझे इस्टेट एजेंट कम और साइक्रियाटिस्ट ज्यादा नज़र आ रहे हैं। अब जा कर इतने दिनों के बाद महेश के चेहरे पर हंसी आयी है। मुझे भी लगने लगा है कि ये आदमी काम करवा सकता है।
– आपकी जानकारी के लिए मैं रूड़की युनिवर्सिटी का बी ई हूं और मैं इस लाइन में आने से पहले इंजीनियरिंग पढ़ाता रहा हूं।
– तो इस लाइन में कैसे आ गये
– आप जैसे लोगों की सेवा करने के लिए। तो जनाब हम फाइनल समझें?
– ठीक है। तो यही सही। जहां मकान ने सवा लाख का घाटा दिया है वहां डेढ़ लाख का सही।
– तो कब? कितने बजे?
– तीन बजे ठीक रहेगा।
– ठीक है तीन बजे आपके पास राजू अपनी टीम ले कर पहुंच जायेगा। अपना पता और फोन नम्बर दे दीजिये। वैसे उसकी दुल्हन कहां है?
– क्यों, वहीं पर ही है।
– तो आप एक और काम कीजिये, अपने किसी दोस्त की बीबी को भी बुलवा लीजिये, पूरे परिवार से घर खाली कराने के मामले में जरा संभल कर रहना पड़ता है। जस्ट फार सेफर साइड।
– हो जायेगा।
– पेमेंट अभी कर रहे हैं या राजू के हाथ भिजवा देंगे।
– पेमेंट की चिंता न करें। आप तक पहुंच जायेगी। तो मैं चलता हूं। - - ओके।
– ओके।

और हम बाहर आ गये हैं।

महेश पूछ रहा है मुझसे – क्या ख्याल है ये आदमी काम करवा देगा।
– यार लग तो मुझे भी रहा है कि इस आदमी की बात में दम है और ये काम करवा भी देगा।
– चलो एक कोशिश और सही।
और हम लौट आये हैं महेश के मकान के नीचे। हमने पास ही रहने वाले एक दोस्त और उसकी बीवी को भी बुलवा लिया है।

इस समय बिल्डिंग के नीचे महेश, दो–तीन लड़के, हमारे दो तीन दोस्त, एक की बीवी वगैरह खड़े हैं। बिल्डिंग का बूढ़ा सा सेक्रेटरी और कुछ तमाशबीन भी आ जुटे हैं।

महेश सेक्रेटरी से पूछ रहा है – अब क्या कहता है पुरी साहब वो सेक्रेटरी – देखिये महेशजी, मैं अभी अभी उससे बात करके आया हूं और वह अब कल सुबह तक की मोहलत मांग रहा है। अभी भी दोस्त के रिश्तेदार के मरने वाला किस्सा दोहरा रहा है कि इसीलिए चाबी नहीं ला पाया।

बीच में किसी ने टांग अड़ायी है – मतलब ही नहीं है जी मोहलत देने की। साले ने बिल्डिंग में कब से गंद मचा रखा है।

अब दूसरे को भी हिम्मत आ गयी है। सबको लग रहा है आज जो ड्रामा यहां होगा, उसे देखे बिना कैसे चलेगा।

अब दूसरा बोल रहा है – मैंने भी उसे एक मकान दिखाया था, सिर्फ आठ हजार भाड़े पर और डिपाजिट भी सिर्फ बीस हजार। ये बंदा उसके लिए भी राजी नहीं।
– अरे जब मुफ्त में हनीमून मनाने के लिए इतना बड़ा फ्लैट मिला हुआ है तो वह क्यों जायेगा कहीं और।
– साले ने बिल्डिंग में रंडीखाना खोल रखा है। पता नहीं ये भी बीवी है या नहीं, बेचने के लिए लाया होगा। देखा नहीं कितनी छोटी है इससे और डरी हुई भी थी।

ये बातें हो ही रही हैं कि तभी मोटरसाइकिल पर छः फुट तीन इंच का जवान आया है। पूछ रहा है
– यहां आप में से महेशजी कौन हैं?
महेश आगे बढ़ कर बता रहा है
– मैं ही हूं जी

वह गर्मजोशी से हाथ मिलाता है
– मेरा नाम राजू है। कहां है वो आपका किरायेदार?
– लेकिन आपकी टीम राजू
– कौन सी टीम, अरे हम वन मैन आर्मी हैं। हमारे साथ सिर्फ मां भवानी चलती है। दिखाइये कहां है वो चूहा, बस मुझे सिर्फ दो–तीन आदमी दे दीजिये सामान बाहर निकालने के लिए और मुझे बिलकुल भी भीड़ नहीं चाहिये। ओके।

सब लोग हैरानी से इस देवदूत सरीखे आदमी को देख रहे हैं और उसे लिए रास्ता छोड़ दिया है। हम भी हैरान है कि ये कैसा आदमी है जो अकेले के बलबूते पर घर खाली कराने चला है। आज तो न देखा न सुना। अगर घर खाली कराना इसके लिए इतना आसान है तो शहर में इसकी कितनी मांग रहती होगी।

वह हमारे साथ सीधे ही ऊपर चला आया है और उसी ने फ्लैट की घंटी बजायी है। दरवाजा गोपालन ने ही खोला है। इससे पहले कि वह कुछ कह सके, राजू ने दरवाजा पूरा खोल दिया है और सोफा बाहर की तरफ खिसकाना शुरू कर दिया है।

गोपालन को इसकी उम्मीद नहीं है कि ऐसा भी हो सकता है
– ये क्या करता है आप साब, आप कौन है, हम महेशजी से बात करेंगे। - महेशजी इसे रोको। मैं आपसे बोला ना हमको कल सुब्बू तक का टाइम मांगता है। हम कल सुबे ही मकान खाली कर देंगी।
– वो तो आप पिछले चार महीने से बोल रहे हैं गोपालन जी, मैं थक गया हूं आपके वायदे सुनते सुनते।

गोपालन गुस्से में राजू को रोकने की कोशिश कर रहा है – आप इस तरह से मेरे घर में घुस के मेरे सामान को हाथ नहीं लगा सकता। मैं तुमको बोला ना ये शरीफ आदमी का घर है। हमारा वाइफ क्या सोचेंगा, उसको अभी यहां आया एक दिन भी नहीं हुआ है और आप . . .
हम सब तमाशबीन बने देख रहे हैं।
राजू ने उसे परे हटा दिया है – ओये हट पीछे . . . बड़ा आया शरीफ का चाचा। क्या कर लेगा तू ओये ओये। राजू एकदम गोपालन के सीने पर सवार होने लगा है और उसने अपनी कमीज की बाहें ऊपर कर ली हैं – बोल। तब तेरी शराफत कहां गयी थी जब मकान दबा कर बैठ गया है।
गोपालन अब वाकई घबरा गया है और महेश की तरफ मुड़ा है – महेशजी, महेशजी इस आदमी को हटाओ, ये मुझे मार डालेंगा। ये गुंडा मवाली . . .
ये सुनते ही राजू ने उसका गला पकड़ लिया है – ओये, मवाली किसे बोला ओये, किसे बोला तू मवाली, मां भवानी की कसम। मैं तेरा खून पी जाऊंगा।
अब गोपालन को भी गुस्सा आ रहा है – तुम . . . तुम मेरे घर में घुस कर मुझे नहीं मार सकता। मैं मर जायेंगा तो तुमको पुलिस पकड़ कर ले जायेंगी। मैं मैं . . .
अब सेक्रेटरी वगैरह राजू को पकड़ कर पीछे कर रहे हैं कि कहीं वाकई कुछ हो न जाये लेकिन राजू पर जैसे खून सवार है। वह बार बार आगे आ रहा है।
दोनों में अभी भी गाली गलौज हो रहा है – देख लूंगा। देख लूंगा कर रहे हैं दोनों।
गोपालन ने आखरी कोशिश की है – महेशजी, यू गिव मी सम टाइम टू थिंक। जस्ट टेन मिनट्स। ऐ जैंटलमन रिक्वेस्ट। प्लीज। रिक्वेस्ट।
महेश – ठीक है। आपको हम दस मिनट दे रहे हैं। उसके बाद आपको कोई भी नहीं बचा पायेगा।
गोपालन मान गया है। शायद अपना आखरी दांव चलना चाहता होगा। हम सब वहीं ड्राइंगरूम में ही घेरा डाल कर बैठ गये हैं। पता नहीं कौन सबके लिए कोल्ड ड्रिंक ले कर आ गया है। वैसे इसकी जरूरत भी थी। सभी का तो खून खौल रहा है।
गोपालन कह रहा है – ओ के। प्लीज। प्लीज . . .
तभी हमारी निगाह सामने बेडरूम के दरवाजे के पीछे से सहमी हुई सी उसकी बीवी पर पड़ती है। उसके चेहरे पर भयातुर हिरणी जैसे भाव हैं। उसने अपने सीने से एक छोटा सा कुत्ता दबा रखा है। औरत बेहद डरी हुई है। वह जिस तरह से सारा नज़ारा देख रही है उससे मैं अचानक सकपका गया हूं। मैंने अपनी पूरी जिंदगी में किसी औरत की आंखों में इतना डर नहीं देखा होगा। उफ् . . . मैं उसकी तरफ देखने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाता।
मैं अपने हाथ की कोल्ड ड्रिंक की बोतल वहीं एक कोने में रख कर बाहर आ गया हूं। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था आंखों में इतने डर की।
हमारे साथ आयी कपूर की बीवी ने भी शायद उसकी आंखों में तैर रहे डर को पढ़ लिया है। उसने गोपालन की बीवी के पास जा कर उसके कंधे पर हाथ रखा है
– डोंट वरी। घबराओ नहीं, कुछ नहीं होगा। वह उसका कंधा थपथपा रही है। मुझे राहत मिली है कि मैं अकेला नहीं हूं जिस तरह उन डरी हुई आंखों का संदेश पहुंचा है।
इस बीच गोपालन ने तीन चार जगह फोन किये हैं। कहीं मलयालम में तो कहीं टूटी फूटी हिन्दी अंग्रेजी और मलयालम में। बता रहा है कि उसे अभी घर खाली करना है। वह सब जगह से आखरी मदद मांग रहा है लेकिन उसके चेहरे से लगता नहीं कि कहीं से भी उसे सही जवाब मिला होगा। उसने फोन रख दिया है और सिर झुकाकर बैठ गया है और अपने बालों को पकड़ कर खींच रहा है। सब लोग इंतजार कर रहे हैं कि अब क्या होगा।
महेश ने उसके पास जा कर बहुत ही ठंडे और ठहरे हुए लहजे में कहा है – अब आपके दस मिनट पूरे हो गये हैं मिस्टर गोपालन।
गोपालन कह रहा है – प्लीज, ट्राइ टू अंडरस्टैंड।
– मिस्टर गोपालन आपके पास और कोई बात हो तो बताओ। आपका टाइम पूरा हो चुका है।
गोपालन – मुझे कल सुबह तक का टाइम चाहिये। मैं जिदर सामान . ..
– दैट इज नॉट माइ प्राब्लम। ओके
– आप सुनेगा नहीं तो हम बात कैसे करेंगे। जस्ट वन डे।
राजू बीच में टपक पड़ा है – नहीं मिलेगा। और कुछ?
गोपालन – देखिये मिस्टर मैं महेशजी से बात कर रहा हूं। मुझे बात करने दें आप। महेशजी आप आप इसे बोलो, हम हार्ट पेशेंट हैं। हमको कुछ हो गया तो हमारा . . .
राजू अब गुस्से में आ गया है – मैं तेरे किसी नाटक में आने वाला नहीं । हटो जी, उतारो सामान। बहुत हो गया साले का ड्रामा।
गोपालन अब रुआंसा हो गया है – हम ड्रामा करता है? हैं हैं हम ड्रामा करता है। आप क्या बोल रहा है कि हम ड्रामा करता है।
राजू ने उसकी नकल उतारी है – हां ड्रामा करता है। और इतना कहते ही उसने सामान उठा कर दरवाजे के बाहर ले जाना शुरू कर दिया है।
हम सब तमाशबीनों की तरह खड़े देख रहे हैं। अब कोई भी बीच में नहीं आ रहा। सबको पता है, बीच बचाव कराने की घड़ी जा चुकी। इस बीच काफी चीजें बाहर ले जायी जा चुकी हैं। अब सबने मिल कर सामान निकालने में मदद करनी शुरू कर दी है। मैं अभी भी गोपालन की बीवी की सहमी सहमी आंखों पर के बारे में सोच रहा हूं। मुझे लग रहा है उस बेचारी के साथ गलत हो रहा है। उसे तो बंबई आये चौबीस घंटे भी नहीं हुए। शादी भी दो तीन दिन पहले ही हुई होगी। पता नहीं क्या–क्या सपने ले कर आयी होगी और क्या–क्या सब्ज बाज दिखाये गये होंगे उसे। लेकिन सच्चाई तो वही है जो वह अपनी डरी डरी आंखों से देख रही है।
वह अब रसोई के दरवाजे पर आ गयी है। मैं कनखियों से देखता हूं, उसकी आंखों से धारोधार आंसू बह रहे हैं
गोपालन कह रहा है – वन मोर चांस प्लीज। जस्ट वन फोन प्लीज।
महेश ने इजाजत दे दी है – ओके एक और फोन कर ले।
गोपालन एक और फोन कर रहा है। वह फोन पर गिड़गिड़ा रहा है। इस बीच राजू ओर दूसरे लड़कों ने रसोई में जा कर सामान समेटना शुरू कर दिया है।
गोपालन ने फोन नीचे रख दिया है और फिर सिर पकड़ कर बैठ गया है। वह अब अपने आप से बोल रहा है। वह अपने आप से बातें कर रहा है – माय बैड लक। क्या क्या ड्रीम्स ले कर आया था। वाइफ को बोला तुम्हें अक्खा मुंबई घुमायेगा। एन्जाय करायेगा। अभी जर्नी का थकान भी नहीं उतरा और ये लोक मेरा सारा सामान सड़क पर डाल दिया है। इन्सानियत मर गया है। इन्सान का अब कोई भरोसा नहीं रहा। मैं कितना रिक्वस्ट किया लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है। ये शहर डैड लोगों का शहर है। आदमी मर जायेंगा तो भी कोई पूछने के वास्ते नहीं आयेंगा। हम अपनी लाइफ का क्रीम इस शहर को दिया। आज हमारा ये हालत है कि हमारा सारा सामान सड़क पर है। हमारा वाइफ क्या सोचता होयेंगा कि हमारा अक्‍खा इस शहर में एक भी फ्रेंड नहीं है। लोक हमारा कितना रिस्पेक्ट करता था। हम किस किस का मदत नहीं किया। आज जब हमको मदत का जरूरत है वो कोई नहीं हैं। कोई नहीं, ओह गॉड आइ एम अलोन। हेल्प मी गॉड। माइ लाइफ माई ड्रीम्स . . . माई कैरियर गॉन। माइ गॉड। उसने अचानक रोना शुरू कर दिया है। तय है उसका कोई इंतजाम नहीं हो पाया है।
मैं एक किनारे खड़ा देख रहा हूं कि इस बीच सारा सामान नीचे उतार दिया गया है। गोपालन अपनी वाइफ का हाथ पकड़ कर नीचे आ रहा है और धीरे धीरे चलते हुए सामान के ढेर पर बैठ गया है। उसकी वाइफ अभी भी बहुत डरी हुई है और सहमी हुई निगाह से चारों तरफ देख रही है।
मैं अपने आप से पूछता हूं – ये सब क्या हो रहा है। हमने ये सब तो नहीं चाहा था। मैं सोच भी नहीं पा रहा कि इस सब में मेरी क्या भूमिका है। मैं नीचे आ गया हूं और मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा। गोपालन की बीवी की आंखों में पसरे डर ने पता नहीं मुझ पर क्या असर कर दिया है। बाकी सब लोग अभी भी ऊपर ही हैं।
धीरे धीरे अंधेरा घिर रहा है। गोपालन सड़क पर रखे अपने सामान पर बैठा हुआ है। अचानक उसने अपना सीना दबाना शुरू कर दिया है। उसे शायद सीने में दर्द महसूस हो रहा है। उसने अपने ड्राइवर को इशारा किया है। वह दौड़ कर पास की दुकान से उसके लिए सोडा ले कर आया है। वह सीना दबाये सोडा पी रहा है। उसकी बीवी और ज्यादा डर गयी है। उसने कुत्ते को नीचे उतार दिया है और पति के पास आ कर उसके कंधे पर हाथ रख कर खड़ी हो गयी है।
मेरी निगाह ऊपर की तरफ जाती है। वहां बालकनी में खड़े राजू, महेश और उनके दोस्त खुशियां मनाते हुए बीयर पी रहे हैं।
मैं समझ नहीं पा रहा कि मुझे महेश का मकान खाली होने के लिए खुश होना चाहिये या गोपालन और उसकी नयी ब्याहता बीवी के इस तरह सड़क पर आ जाने के कारण उसके कंधे पर हाथ रख कर उससे सहानुभूति के दो बोल बोलने चाहिये।

उसकी बीवी अभी भी डरी सहमी खड़ी है।

Monday, August 11, 2008

बीसवीं कहानी - करोड़पति

इस समय भी वह लिफ्ट के पास खड़ा इशारे से किसी न किसी को अपनी तरफ बुला रहा होगा या फिर कैंटीन में बैठा अपनी ताजा रचना जोर - जोर से पढ़ रहा होगा। जिसने भी उससे आंख मिलायी, उसी की तरफ उंगली से इशारा करके अपनी तरफ बुलायेगा और भर्राई हुई आवाज़ में कहेगा, '' मैं आपको एक शब्द दूंगा। आप उसका मतलब किताबों में ढूंढना। किसी पढ़े लिखे आदमी से पूछना। मैं आपसे सच कहता हूं, उस शब्द से यह ऑफिस, यह शहर, यह दुनिया सब बदल जायेंगे, बेहतर हो जायेंगे। आप मुझे मिलना। अगर आपके पास वक्त न हो।'' यहां आते - आते उसकी सांस बुरी तरह फूल चुकी होगी और वह हांफने लगेगा। वहीं बैठ जायेगा। सांस ठीक होते ही फिर से उसका यह रिकॉर्ड चालू हो जायेगा। सामने कोई हो, न हो। तब तक बोलता रहेगा जब तक दरबान उसे खदेड क़र बाहर न कर दे, या भीतर न धकेल दे।

यह करोडपति है। असली नाम पुरुषोत्तम लाल। चपरासी है। आज कल सनक गया है। कभी खूब पैसे वाल हुआ करता था। खेती - बाड़ी थी। दो - तीन घर थे। शहर के कई चौराहों पर पान के खोखे थे। आजकल खाने तक को मोहताज है। अपने अच्छे दिनों में उसने सबकी मदद की। बेरोजगार रिश्तेदारों को काम धन्धे से लगाया। इसी चक्कर में सब कुछ लुटता चला गया। कुछ रिश्तेदारों ने लूटा और कुछ ऑफिस के साथियों ने निचोड़ा। अपने पैसों को वसूलने के लिये करोड़पति सबके आगे गिड़ग़िडाता फिरा। नतीजा यह हुआ कि वह सनक गया। बहकी - बहकी बातें करने लगा। जब पी लेता है तो और भी बुरी हालत हो जाती है। कभी गाने लगता है तो कभी जोर - जोर से बोलने लगता है।
भगवान जाने कितना सच है या न जाने लोगों की उडाई हुई है। एक दिन इसी सनक के चलते एक दिन ऑफिस के बाद घर जाते समय एक थैले में ढेर सारी चीजें, पेपरवेट, पंचिंग मशीन, कागज़, पैन - पैन्सिल जो भी मेजों पर पड़ा नजर आया, थैले में ठूंस लिया। शायद दिन में किसी से कहा - सुनी हो गयी होगी। उसी को जोर - जोर से कोसता हुआ बाहर निकला तो दरबान ने यूं ही पूछ लिया - थैले में क्या ले जा रहे हो करोड़पति? तो उसी से उलझ गया। ऊंच - नीच बोलने लगा। दरबान ने उसे वहीं रोक लिया और रिपोर्ट कर दी। करोड़पति सामान चोरी करके ले जा रहा है।
करोड़पति पकडा गया। सुरक्षा अधिकारी ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की कि उसके खिलाफ मामला न बने, बेचारा पहले ही दुनिया भर का सताया हुआ है। लेकिन पता चला कि करोड़पति अव्वल तो पिये हुए है और दूसरे, ढंग से बात करने को तैयार नहीं है। कभी कहे कि ये सामान फलां साहब ने अपने घर पर मंगवाया है, तो कभी कहे कि - वह ऑफिस की नौकरी छोड़ रहा है। अब इसी सामान की दुकान खोलेगा। उसने अपने आप को यह कह कर और भी फंसा लिया कि - यह तो कुछ भी नहीं है, वह तो अरसे से थैले भर - भर कर सामान ले जाता रहा है।
उसके खिलाफ मामला बना और उसे सस्पैण्ड कर दिया गया। तबसे और सनक गया है।
मैले कुचैले कपडे, एकदम लाल आंखें, नंगे पैर, हाथ में पांच सात कागज़, दाढ़ी बढ़ी हुई। तब से रोज सुबह लिफ्ट के पास खड़ा सबको पुकारता रहता है। कोई उसके सामने नहीं पड़ना चाहता। वे तो बिलकुल भी नहीं जिन्होंने उसकी सारी पूंजी लूट कर उसकी यह हालत बना दी है।
उसकी सबसे बड़ी तकलीफ यह है कि वह घर और बाहर दोनों ही जगह से फालतू हो गया है। घरवालों की बला से वह कल मरता है तो आज मरे। कम से कम उसकी जगह परिवार में किसी को तो नौकरी मिलेगी। उनके लिये तो वह अब बोझ ही है। ऑफिस में उसकी परवाह किसे है? वहां वह अकेला पागल ही तो नहीं। एक से एक पागल भरे पड़े हैं। कुछ हैं और कुछ बने हुए हैं। जो नहीं भी हैं वो सबको पागल बनाये हुए हैं।
कोई भी करोड़पति से बात नहीं करना चाहता। उसे देखते ही सब दायें - बायें होने लगते हैं। दुर - दुर करते हैं। कौन इस पागल के मुंह लगे। अगर कोई धैर्यपूर्वक उसकी बात सुने, उससे सहानुभूति जताये तो शायद उसके सीने का बोझ कुछ तो उतरे। लेकिन किसे फुर्सत?
जब उसकी इन्‍क्वायरी के लिये तारीख तय हुई तो यूनियन से उसका डिफेन्स तय करने के लिये कहा गया। यूनियन को भला ऐसे कंगले में क्या दिलचस्पी हो सकती थी। उन्होंने भी टालमटोल करना शुरु कर दिया। जब करोड़पति को उनके रुख का पता चला तो वह वहां भी गाली - गलौज कर आया - मुझे आपकी मदद की कोई जरूरत नहीं। मैं अपना केस खुद लड़ लूंगा। गुस्से में आकर उसने यूनियन से ही इस्तीफा दे दिया - चूंकि पुरषोत्तम लाल यूनियन का मेम्बर नहीं है, अत: यूनियन की तरफ से डिफेन्स उपलब्ध कराना संभव नहीं है।
मजबूरन ऑफिस ने ही उसके लिये डिफेन्स जुटाया और केस आगे बढ़ाना शुरु किया। लेकिन करोड़पति अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारने को तैयार हो तो कोई क्या करे! कभी इनक्वायरी में नहीं आयेगा। आयेगा भी तो बात करने लायक हालत में नहीं रहेगा। अगर सारी स्थितियां उसके पक्ष में हों, वह आये, बात करने लायक हो, तो भी वह वहां कुछ ऐसा उलटा सीधा बोल आयेगा कि बात आगे बढ़ने के बजाय पीछे चली जाये - मैं एक - एक को देख लूंगा। सब मेरे दुश्मन हैं। मेरी बात ध्यान से नोट कर लो। मैं बाद में फिर आऊंगा। इस तरह की ऊटपटांग बातें करके लौट आयेगा।
इसी तरह ही चल रहा है करोड़पति। पता नहीं, खाना कहां से खाता है, पीना कहां से जुटाता है। इन दिनों उसे आधी पगार मिलती है जो पगार वाले दिन उसकी बीवी ले जाती है। कम से कम बच्चे तो भूखे न मरें। इस पागल का क्या!
संस्थान ने उसकी हालत पर तरस खा कर फिर से बहाल कर दिया है, अलबत्ता उसकी चार वेतन वृध्दियां कम कर दी हैं। उसे नौकरी में वापिस लिये जाने की एक वजह यह भी रही कि उसका ढंग से इलाज हो सके और एक परिवार बेवक्त उजड़ने से बच जाये। लेकिन हुआ इसका उलटा ही है। करोड़पति की हालत पहले से भी ज्यादा खराब हो गयी है। काम करने लायक तो वह पहले कभी नहीं था, इधर उसने दो तीन नये रोग पाल लिये हैं। आजकल वह बात - बात पर इस्तीफा दे देता है। कभी उसे गाने का शौक रहा होगा, कुछेक फिल्मी गीत याद भी रहे होंगे। उन्हीं में से कुछ शब्द आगे पीछे करके ले आता है। टाइपिस्ट सीट पर बैठे भी नहीं होते हैं कि सिर पर आ धमकता है - '' इसे टाइप कर दो। अभी किशोर कुमार इसे गाने वाले हैं। वे स्टूडियो में इसकी राह देख रहे हैं। वे नहीं गायेंगे तो मैं खुद गाऊंगा।'' और वह वहीं शुरु हो जाता है। भर्राये हुए गले से करोड़पति गा रहा होता है और सब खी - खी हंस रहे होते हैं। पिछले हफ्ते उसे सस्‍पैन्शन की अवधि की बकाया रकम मिली है। उसी पैसे से पी जा रही दारू का नतीजा है यह।
अगर टाइपिस्ट यह तुकबन्दी टाइप करने से मना कर दे, कैन्टीन से चाय मिलने में तीन मिनट से ज्यादा लग जायें, कोई बिल एक ही दिन में पास न किया जाय तो वह तुरन्त इस्तीफा दे देता है। बेशक अगले दिन उसके बारे में भूल जाये और किसी और बात पर कोई नया इस्तीफा दे दे। कई बार उसके पांच - सात इस्तीफे जमा हो जाते हैं जिन्हें डायरी क्लर्क एक किनारे जमा करती रहती है। जहां तक उसके इलाज का सवाल है, करोड़पति को डॉक्टर के पास ले जाया जाता है, उसकी तकलीफ बतायी जाती है, दवा भी मिलती है, लेकिन खाने के लिये तो करोड़पति को एक और जनम लेना पडेग़ा।

करोड़पति लापता है। पिछले कई दिनों से न घर पहुंचा है और न ऑफिस ही। वैसे तो पहले भी वह कई बार दो - दो, चार - चार दिनों के लिये गायब हो जाता था, लेकिन जल्द ही मैले - कुचैले कपड़ों में लौट आता था। इस बार उसे गायब हुए महीना भर होने को आया है। उसका कहीं पता नहीं चल पाया है। इस बार पगार वाले दिन उसकी बीवी उसे ढूंढते हुए ऑफिस आई, तभी सबको याद आया कि कई दिन से करोड़पति को नहीं देखा। कई दिन से वह घर भी नहीं पहुंचा था। वैसे तो कभी भी किसी ने उसकी परवाह नहीं की थी, न घर पर न दफ्तर में। अब अचानक सबको करोड़पति याद आ गया था। बीवी को पगार वाले दिन उसकी याद आई थी, बल्कि जरूरत पड़ी थी कि आधी - अधूरी जितनी भी पगार है, करोड़पति से हस्ताक्षर करवा कर ले जाये। अगली पगार तक करोड़पति अपने दिन कैसे काटता था, क्या करता था यह उसकी सिरदर्दी नहीं थी। बेशक कर्जे वसूलने वाले भी पगार के आस - पास मंडराते रहते थे कि उसके हाथ में लिफाफा आते ही अपना हिस्सा छीन लें। लेकिन उसकी बीवी की मौजूदगी में कुछ भी वसूल नहीं कर पाते थे। अलबत्ता बीवी को ही डरा धमका कर सौ - पचास निकलवा पायें यही बहुत होता था। वे भी अब परेशान दिखने लगे थे। करोड़पति नहीं है अब क्या वसूलें और किससे वसूलें।
अब अचानक सबको याद आने लगा है कि - किसने करोड़पति को आखिरी बार कहां देखा था! किसी को हफ्ता भर पहले स्टेशन पर पूरी - भाजी खाते नजर आया था तो किसी ने उसे सब्जी मण्डी में मैले कुचैले कपड़े पहने भटकते देखा था। किसी का ख्याल था कि वह या बिलकुल वैसा ही एक आदमी थैला लिये शहर से बाहर जाने वाली एक बस में चढ़ रहा था। जितने भी लोग थे करोड़पति के बारे में अपने कयास भिड़ा रहे थे, कोई भी यकीन के साथ बताने को तैयार नहीं था। बल्कि कुछ लोग तो इतनी दूर की कौड़ी ख़ोज कर लाये थे कि तय करना मुश्किल था कि किसके कयास में ज्यादा वजन है। एक चपरासी को तो पूरा यकीन था कि पिछले हफ्ते रेलवे पुल के पास भिखारी जैसे किसी आदमी की जो लाश मिली थी, हो न हो वह करोड़पति की ही रही होगी। अलबत्ता यह खबर देने वाले के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि अगर वह करोड़पति की ही लाश थी तो उसने पहले खबर क्यों नहीं दी? ये और इस तरह की कई अफवाहें अचानक हवा में उठीं और गायब भी हो गयीं।
ऑफिस में तो उसकी मौजूदगी - गैर मौजूदगी महसूस ही नहीं की गई थी, लेकिन उसकी बीवी वाकई चिन्ता में पड़ गयी है। उसकी चिन्ता करोड़पति की पगार को लेकर है, जो उसे बिना करोड़पति के हस्ताक्षर के नहीं मिल सकती है। उसने ऑफिस से करोड़पति की गैर हाजिरी का प्रमाणपत्र ले लिया है और थाने में उसके गुमशुदा होने के बारे में रिपोर्ट लिखवा दी है। किसी तरह रोते - पीटते अपनी गरीबी की दुहाई देते हुए उसके गुमशुदा होने का प्रसारण भी दूरदर्शन पर करवा दिया है। लेकिन इस बीच न करोड़पति लौटा है न उसके बारे में कोई खबर ही मिली है।
तीन महीने तक इंतजार करने के बाद ऑफिस ने हर तरह की कागजी कार्रवाई पूरी करने के बाद संस्थान का मकान खाली करने का आदेश उसकी बीवी को दे दिया है। उसकी बीवी की सारी कोशिशों और अनुरोधों के बावजूद ऑफिस से करोड़पति का एक पैसा भी उसे नहीं मिल पाया है। इस बीच उसने करोड़पति की जगह नौकरी के लिये भी एप्लाई कर दिया है जिसे ऑफिस ने ठण्डे बस्ते में डाल दिया है।
करोड़पति की जगह नौकरी पाने के लिये उसे या तो करोड़पति का मृत्यु प्रमाणपत्र लाना पड़ेगा या उसके गुमशुदा होने की तारीख से कम से कम सात साल तक इंतजार करना पड़ेगा।

Monday, August 4, 2008

19वीं कहानी - मातमपुर्सी

इस बार भी घर पहुंचने से पहले ही बाउजी ने मेरे लिए मिलने जुलने वालों की एक लम्बी फेहरिस्त बना रखी है। इस सूची में कुछ नामों के आगे उन्होंने ख़ास निशान लगा रखे हैं, जिसका मतलब है, मुझे उनसे तो ज़रूर ही मिलना है।
इस शहर को हमेशा के लिए छोड़ने के बाद अब यहां से मेरा नाता सिर्फ़ इतना ही रहा है कि साल छ: महीने में हफ्ते दस दिन की छुट्टी पर मेहमानों की तरह आता हूं और अपने खास खास दोस्तों से मिल कर या फिर मां बाप के साथ भरपूर वक्त गुज़ार कर लौट जाता हूं। रिश्तेदारों के यहां जाना कभी कभार ही हो पाता है। हर बार यही सोच कर आता हूं कि इस बार सब से मिलूंगा, सब की नाराज़गी दूर करूंगा, लेकिन यह कभी भी संभव नहीं हो पाया है। हर बार मुझसे नाराज़ होने वाले मित्रों की संख्या बढ़ती रहती है और मैं हर बार समय की कमी का रोना रोते हुए लौट जाता हूं।
लेकिन बाउजी की इस फेहरिस्त में सबसे पहला नाम देखते ही मैं चौंका हूं। उस पर उन्होंने दोहरा निशान लगा रखा है। मैंने उनकी तरफ सवालिया निगाह से देखा है। उन्होंने हौले से कहा है - मैंने तुझे लिखा भी था कि मेहता की वाइफ गुज़र गयी है। मैंने तुझे अफ़सोस की चिट्ठी लिखने के लिए भी लिखा था। अभी बेचारा बीवी के सदमे से उबरा भी नहीं था कि अब महीना भर पहले संदीप भी नहीं रहा। मैं अवाक रह गया - अरे .. संदीप.. क्या हुआ था उसे? वह तो भला चंगा था, बल्कि उसकी शादी तो साल भी पहले. ही हुई थी। मैंने उसे कार्ड भी भेजा था।
आगे की बात मां ने पूरी की है - शांति बेचारी ज़िदगी भर खटती रही और अकेले बच्चों को पढ़ाती लिखाती रही। तेरे अंकल तो नौकरी के चक्कर में हमेशा दौरों पर रहे और उसी ने बच्चों को पढ़ाया लिखाया। जब आराम करने का वक्त आया तो कैंसर उसे खा गया। मां का गला भर आया है।
मां बता रही है कि संदीप कानपुर से एक मैच खेल कर लौट रहा था। रास्ते में किसी बस अड्डे पर कुछ खा लिया होगा उसने जिससे फूड पाइज़निंग हो गयी और यहां तक तो पहुंचते पहुंचते तो उसकी यह हालत हो गयी थी कि वहीं बस अड्डे से दो एक लोग उसे अस्पताल ले गये। जब तक घर में खबर पहुंचती, वह तो खतम हो चुका था। पता भी नहीं चल पाया कि उसने किस शहर के बस अड्डे पर क्या खाया था। अभी बेचारी शांति की राख भी ठण्डी नहीं हुई थी कि .. .. ..
मेरे सामने दोहरी दुविधा है। मैं संदीप की बीवी से पहली ही बार और वह भी कैसे दुखद मौके पर मिल रहा हूं। पता चला था संदीप की पत्नी बहुत ही खूबसूरत और साथ ही स्मार्ट भी है। शांति आंटी और अंकल भी हमेशा उसकी तारीफ करते रहते थे। मैं कल्पना भी नहीं कर पा रहा हूं कि इतनी अच्छी लड़की को शादी के सिर्फ़ साल भर के भीतर विधवा हो जाना पड़ा। क्‍या सोचती होगी वह भी कि पहले सास गयी और अब खुद का सुहाग ही उजड़ गया।
मेरा संकट है, मैं ऐसे मौकों पर बहुत ज्यादा नर्वस हो जाता हूं। मातमपुर्सी के लिए मेरे मुंह से लफ्ज़ ही नहीं निकलते। मुझे समझ ही नहीं आता कि क्या कहा जाये और कैसे कहा जाये। घबरा रहा हूं कि मैं उन लोगों का सामना कैसे करूंगा। एक तरफ अंकल हैं जो मुझे बहुत मानते हैं और इन दो महीनों में ही पत्नी और जवान बेटा खो चुके हैं और दूसरी तरफ़ संदीप की पत्नी है जिससे मैं पहली बार मिल रहा हूं।
इससे पहले कि मैं झुक कर अंकल के पैर छूता, अंकल ने बीच में ही रोक कर मुझे गले से लगा लिया है। शिकवा कर रहे हें कि मैं कितनी बार यहां आया और घर पर एक बार भी नहीं आया। मेरे पास कोई जवाब नहीं है और मैं झेंपी हुई हसीं हंस कर रह जाता हूं। देखता हूं इस बीच वे पहले की तुलना में बहुत कमज़ोर लग रहे हैं। आखिर दो मौतों का ग़म झेलना कोई हंसीं खेल नहीं। मैं संदीप या आंटी के बारे में कुछ कहने को होता हूं कि वे मुझसे पूछ रहे हैं बंबई के हालचाल और बाल बच्चों के बारे में। मैंने एक सवाल का जवाब दिया नहीं होता कि वे दूसरा सवाल दाग देते हैं। मैं खुद किसी तरह से बातचीत का सिरा उस तरफ मोड़ना चाहता हूं ताकि अफसोस के दो शब्द तो कह सकूं। बाउजी ने एकाध बार बात घुमाने की कोशिश भी की लेकिन मेहता अंकल हैं कि हंस-हंस कर इधर उधर की बातें कर रहे हैं। ठहाके लगा रहे हैं। तभी पारूल पानी की ट्रे ले कर आयी है। मैं उठ कर उसे हेलो कहता हूं। वह हौले से जवाब देती है। बेहद सौम्य और खूबसूरत लड़की। चेहरे पर ग़ज़ब का आत्मविश्वास। लेकिन हाल ही के दोहरे सदमे ने उसके चेहरे का सारा रस और नूर छीन लिया है। शादी के साल भर के भीतर उसकी जिंदगी क्या से क्या हो गयी। इतने अरसे में तो पति पत्नी एक दूजे को ढंग से पहचान भी नहीं पाते और .. .. ..।
तय नहीं कर पा रहा हूं बातचीत किस तरह से शुरू करूं। और कोई मौका होता तो कोई भी हलकी फुलकी बात कही जा सकती थी लेकिन इस मौके पर.. ..। तभी अंकल ने उसे फरमान सुना दिया है - अरे भई, दीपक को कुछ चाय नाश्ता कराओ। बरसों बाद हमारे घर आया है। और वे गाने लगे हैं - बंबई से आया मेरा दोस्त।
पारूल चाय का इंतज़ाम करने चली गयी है। अंकल ने बातचीत को अलग ही दिशा में मोड़ दिया है। वे कोई पुराना किस्सा सुनाने लगे हैं। मैं फिर संदीप के बारे में बात करना ही चाहता हूं कि पारुल चाय ले कर आ गयी और मेरा वाक्य अनकहा ही रह गया।
चाय पारुल ने खुद बना कर सबको दी है। अचानक सब खामोश हो गये हैं और कुछ देर तक सिर्फ़ चाय की चुस्कियों की ही आवाज़ आती रही। चाय खत्म हुई ही है कि पारुल ने अगला फरमान सुना दिया है - आप लोग खाना खा कर ही जायेंगे। पारुल ने जिस अपनेपन और अधिकार के साथ कहा है, उसमें मना करने की गुंजाइश ही नहीं है।
पारुल के चले जाने के बाद भी मैं देर तक बातचीत के ऐसे सूत्र तलाशता रहा कि किसी भी बहाने से सही, कम से कम दो शब्द अफसोस के कह ही दूं। दो एक बार आंटी और संदीप का ज़िक्र भी आया लेधिक बातचीत आये-गये तरीके से आये बढ़ गयी। में हैरान हो रहा हूं कि अभी तो आंटी और संदीप को गुज़रे महीना भर ही हुआ है, और अंकल ने उन्हें अपनी यादों तक से उतार दिया है।
अब बाउजी और मेहता अंकल की बातचीत अपनी निर्धारित गति से अपनी पुरानी लकीर पर चल पड़ी है और मैं उसमें कहीं नहीं हूं।
मैं मौका देख कर कमरे से बाहर आ गया हूं और कुछ सोच कर रसोई में चला गया हूं जहां पारुल खाना बनाने की तैयारी कर रही है। मुझे देखते ही पारुल ने उदासी भरी मुस्कुराहट के साथ मेरा स्वागत किया है। मैं यहां भी बातचीत शुरू करने के लिए सूत्र तलाश रहा हूं। हम दोनों ही चुप हैं।
पारूल ने ही उबारा है मुझे - बंबई से कब आये आप?
आज सुबह ही। आते ही संदीप का पता चला तो.. .. .. ..।
मैंने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया है। पारूल भी चुप है। मैं ही बात का सिलसिला आगे बढ़ाता हूं - दरअसल, मैं आप लोगों की शादी में नहीं आ पाया था इसलिए आपसे नहीं मिल पाया था लेकिन संदीप के साथ मेरी खूब जमती थी। मैं आपसे मिल भी रहा हूं तो इस हाल में। मेरी आवाज भर्रा गयी है।
पारुल की आंखें भर आयी हैं। थोड़ी देर बाद उसी ने बातचीत का सिरा थामा है - मैं आपसे पहली बार मिल रही हूं लेकिन आप के बारे में काफी कुछ जानती हूं। पापा और संदीप अक्सर आपकी बातें करते रहते थे।
पारूल ने शायद जानबूझ कर बात का विषय बदला है।
मैंने भी बात को मोड़ देने की नीयत से कहा - मैं कुछ मदद करुं क्या?
मुझे लगा, यहां उसके साथ कुछ और वक्त बिताया जाना चाहिये।
-नहीं, बस सब कुछ तैयार ही है।
-आपने बेकार में तकलीफ़ की।
-इसमें तकलीफ़ की क्या बात, मुझे खाना तो बनाना ही था। और फिर मेरे घर तो आप पहली ही बार आये हैं। संदीप होते तो भी आप खाना खाते ही। उसकी आवाज़ भर्रा गयी है।
-नहीं यह बात नहीं है। दरअसल.. .... .. .. ।
उसने कोई जवाब नहीं दिया है।
-अब क्या करने का इरादा है। मैंने बातचीत को भविष्य की तरफ मोड़ दिया है।
-सोच रही हूं घर पर ही रह कर कमर्शियल आर्ट का अपना पुराना काम शुरू करूं। संदीप कब से पीछे पड़े थे कि सारा दिन घर पर बैठी रहती हो, कुछ काम ही कर लो। पहले मम्मी जी की बीमारी थी फिर ये दोहरे हादसे। मैं तो एकदम अकेली पड़ गयी हूं। मुझे क्या पता था कि जब संदीप की बात मानने का वक्त आयेगा, तब वही नहीं होगा .. .. .. ..।
-मेरी मदद की जरूरत हो तो बताना।
-बताऊंगी, अभी कब तक रहेंगे यहां?
-दसेक दिन तो हूं ही। आऊंगा फिर मिलने। बल्कि आप का उस तरफ आना हो तो..।
-घर से निकलना नहीं हो पाता। फिर भी आऊंगी किसी दिन।
तभी अंकल की आवाज आयी है - अरे भई, यहां भी कोई आपका इंतज़ार कर रहा है। थोड़ी सी कम्पनी हमें भी दे दो। मैं पारुल को वहीं छोड़ कर ड्राइंग रूम में वापिस आता हूं।
देखता हूं - अंकल ने बोतल और तीन गिलास सजा रखे हैं।
मुझे देखते ही उन्होंने पूछा है- अभी भी अपने बाप से छुप कर पीते हो या उसके साथ भी पीनी शुरू कर दी है ?
और उन्होंने एक ज़ोरदार ठहाका लगाया है।
-आओ बरखुरदार. तुम्हारी इस विजिट को सेलिब्रेट करें।
मुझे समझ में नहीं आ रहा, पैंसठ साल का यह बूढ़ा और कमज़ोर आदमी दोहरी मौतों के दुख से सचमुच उबर चुका है या इन ठहाकों, हंसी मज़ाक और शराब के गिलासों के पीछे अपना दुख जबरन हमसे छुपा रहा है। बाउजी इस वक्त खिड़की के बाहर देख रहे हैं।

Monday, July 28, 2008

18वीं कहानी - दिव्या, तुम कहाँ हो?

सपना देख रहा हूं क्या? या सब कुछ मेरे सामने घट रहा है। मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। न मैं पूरी तरह होश में हूं न बेहोशी में। मैं जागने और नींद के बीच इधर से उधर झूल रहा हूं। हिचकोले खा रहा हूं। सरकस के एक्रोबैट्स की तरह। ऊपर से हवा में लटके एक तरफ के डण्डे से झूलते हुए दूसरी तरफ के डण्डे को थाम लेना। इधर होता हूं तो सब कुछ साफ होता है। रोशनी, कमरा... बिस्तर पर लेटा हुआ मैं, लेकिन उधर की तरफ का डण्डा थामते ही जैसे नींद की गहरी अंधेरी सुंग में उतर जाता हूं। सब कुछ गायब हो जाता है। एकदम अंधेरा। सन्नाटा। कई बार खुद को बीच अधर में पाता हूं। कुछ भी थामे बिना। रोशनी और अंधेरे की झिलमिल में वहां से तेजी से गिरने को होता हूं कि एकदम आंख खुल जाती है। थोड़ी देर बाद फिर वही कलाबाजियां। पता नहीं कितनी देर से चल रहा है यह सब। नींद की लहरों पर डूबना-उतराना।
तेज प्यास लगी है। आसपास देखता हूं। कोई भी नहीं है। किसी को पुकारना चाहता हूं। आवाज ही नहीं निकलती। कौन-सी जगह है यह? यह मेरा कमरा तो नहीं? हवा में दवाओं की गंध है। यानी अस्पताल में हूं। यहां कैसे आ गया मैं? क्या हुआ है मुझे? याद करने के लिए दिमाग पर ज़ोर डालता हूं। दर्द की एक तेज लहर से माथे की नसें तड़कने लगती हैं। याद आता है - आधी रात को सिर दर्द उठा था। भयंकर। जैसे पूरा कपाल भीतर तक खदबदा रहा हो। उलटी-सी भी आने को हो रही थी। पेनकिलर, बाम, नींद की गोलियां, सभी तो आजमाये थे। पता नहीं कितनी देर छटपटाता रहा था। दर्द की सुइयां और बारीक होती चली गयी थीं। अजीब तरीके से दिमाग चुनचुना रहा था। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। याद नहीं आ रहा, फिर क्या हुआ होगा? हो सकता है उठकर किसी पड़ोसी की जगाया हो, वही मुझे यहां छोड़ गया हो। अकेले तो नहीं आया होऊंगा। क्या कहा होगा डॉक्टर ने? इलाज शुरू हो गया क्या? कोई सीरियस बात होगी तभी तो अस्पताल में हूं। सिर अभी भी भारी लग रहा है। ऊपर से यह नींद आने उचटने की हालत।
उठकर बैठने की कोशिश करता हूं। दर्द की एक धारदार छुरी पूरे कपाल को चीरती चली जाती है। फिर लेट जाता हूँ। साइड टेबल की तरफ निगाह जाती है। ढेर सारी दवाएं। मेडिकल रिपोर्ट। तो इसका मतलब... इलाज शुरू हो चुका है। टेस्ट भी हो चुके। कब से हूं यहाँ? दर्द तो... याद नहीं आता... कब उठा था...। आज कितनी तारीख है? कैलेण्डर तो सामने लगा है। सितम्बर 1992। लेकिन इसमें दिखाई दे रही तीस तारीखों में से आज कौन-सी है? उस दिन कौन-सी तारीख थी... नहीं याद आता। आंखें बंद कर लेता हूं। क्या हुआ है मुझे? कहीं... कोई... खतरनाक...बी... मा... री...। मेडिकल रिपोर्ट तो यहीं रखी है। देखूँ, क्या कहती है। फाइल उठाता हूं। कई रिपोर्टें हैं इसमें तो। इसका मतलब कई टेस्ट हुए हैं। हर रिपोर्ट के नीचे लाल स्याही में टाइप की हुई इबारतें पढ़ने की कोशिश करता हूं।
ओह गॉड! यह... क्या... हो... गया...। फाइल मेरे हाथ से छूट कर नीचे गिर गयी है। निढाल-सा पड़ गया हूं। सांस सकदम तेज हो गयी है। जैसे मीलों दौड़कर आया हूं। गले में कांटे उग आये हैं। पानी रखा है, पर उठकर पीने को हिम्मत नहीं है। पथराई आंखों से खिड़की के बाहर का अंधेरा देखता हूं। यह अंधेरा धीरे-धीरे कमरे के भीतर आ रहा है। मेरे चारों तरफ इस अंधेरे ने एक घेरा बना लिया है। अब यह मेरे भीतर उतरेगा और फिर... सब कुछ... खत्म...।
मैं... मुझे... मुझे... ब्रेन ट्यूमर हो गया है। कैंसर के जीवाणु लिये। कोई इलाज नहीं। निश्चित मौत। छ: महीने से दो साल के बीच। कभी भी। जब आखिरी बाद दर्द उठेगा तो चौबीस घंटे की मोहलत भी नहीं मिलेगी। उससे पहले कष्टदायक बीमारी झेलते हुए जीना। खर्चीला इलाज... ऑपरेशन... तकलीफ... तकलीफ... तकलीफ... इलाज से मौत थोड़ा पीछे खिसक सकती है। टलेगी नहीं। आंखों के आगे अंधेरा छा रहा है... अरे कोई है... मुझे बचाओ... किसी को बुलाने के लिए आवाज देना चाहता हूं। आवाज ही नहीं गले में... पानी... पा... नी... कोई है... पानी।
तो... ? खत्म हो गया मैं। सिर्फ़ चौंतीस साल की उम्र... आधी... अधूरी ज़िंदगी... सब कुछ यहीं छूट जायेगा। पैक अप कर लूं? खाली हाथ जाने के लिए पैक अप! यह घर-बार... दिव्या, मां-पिताजी, भाई-बहन, ऑफिस, सुख-दुख, दोस्त, खुशियां सब यहीं... रह जायेंगे... । सब कुछ चलता रहेगा। मैं ही नहीं रहूंगा। कहीं मज़ाक तो नहीं है? डॉक्टरों ने मुझे डराने के लिए, मुझसे पैसा ऐंठने के लिए यह सब लिख दिया हो। आजकल खूब चल रहा है इस लाइन में। कब हुए थे सब टेस्ट? मुझे होश में क्यों नही लाया गया? मुझसे पूछा क्यों नहीं गया?
दिमाग सुन्न हो रहा है। एकदम अंधेरा। बाहर-भीतर, दोनों जगह। मुझे मरना होगा... उससे पहले तिल-तिल कर जीना। हर सांस अनिश्चित। मेरी रुलाई फूट पड़ी है। मैंने क्या कसूर किया था, अधबीच ऊपर बुला लिया जाऊंगा। वह भी इतनी घातक बीमारी से? दिव्या, तुम कहां हो? देखो मैं कितना लाचार पड़ा हूं यहां। अपनी मौत का परवाना लिये! अपना ख्याल रखना दिव्या! ओ मेरी मां, मुझे बचाओ। मैं इतनी जल्दी मरना नहीं चाहता। बहुत डर लग रहा है मां, मैं क्या करूं।
एक चीख निकलती है, लेकिन उसकी आवाज भीतर ही भीतर घुटी रह गई है। किसी तरह उठ कर पानी पीता हूं। थकान होने लगी है। फिर लेटता हूं। कौन है यहाँ? यह कैसा अस्पताल है? कोई पूछने क्यों नहीं आता? इतने सीरियस मरीज को भी ये लोग अकेला छोड़ देते हैं। मुझे अभी कुछ हो जाये तो? सिर में अभी भी करेंट उठ रहे हैं। कया करूं? पता तो चले कौन लाया मुझे? डॉक्टर कया कहते हैं? दवाएं? इलाज? क्या यहां इलाज हो पायेगा? या मुम्बई जाना होगा? वहां बेहतर सुविधाएं हैं? मौत को पीछे सरकाने की। अमेरिका में और बेहतर हैं। लेकिन पैसे?
पता नहीं ऑफिस वालों को खबर है या नहीं? अस्पताल का खर्च कौन देगा? दवाएं, ऑपरेशन? कहां से करूंगा इतना इंतज़ाम? पता नहीं कितनी तारीख है? घर पर तो दो-चार सौ भी नहीं होंगे। बैंक में जितने पैसे थे, दिव्या पहले ही ले जा चुकी है। कोई एडवांस बाकी नहीं है। कौन करेगा देखभाल मेरी। उधर दिव्या एक नये प्राणी के स्वागत में व्यस्त है और इधर मैं अपनी बची-खुची ज़िंदगी का लेखा-जोखा तैयार कर रहा हूं। वह तो पता चलते ही रो-रो कर जान दे देगी। मेरे बच्चे का आना और मेरा जाना। कैसा अभागा जन्मेगा! कहीं मैं ही तो अपने बच्चे का रूप धर कर नहीं लौट रहा! सोच... सोचकर कलेजा मुंह को आ रहा है।
कभी सोचा भी नहीं था, अपनी मौत को खबर बरस-दो बरस पहले मिल जायेगी मुझे। और फिर मरने के पल तक लगातार इस अहसास को जीते रहना - कोई भी पल मेरे लिए आखिरी हो सकता है। वैसे तो मौत किसी को भी कभी भी आ सकती है, रोज सैकड़ों-हजारों दुर्घटनाओं में, भूकंप से, दंगों, लड़ाइयों में मरते ही हैं, लेकिन वह मौत तो एकदम अचानक होती है। पल भर पहले भी पता नहीं होता, पिछली सांस, पिछला बोला गया संवाद, मिलाया गया हाथ, लिया गया चुम्बन आखिरी था। अगली सांस गायब। बल्ब फ्जूज हो जाने की तरह। एकदम अंधेरा। मेरे साथ भी वही होता। मरने से पहले की यह पीड़ा, ये चिंताएं तो न होतीं। एकदम मुक्त हो जाता। जो जहां है, जैसा है, वैसा ही छोड़कर। लेकिन मुझे तो खराब चोक वाली ट्यूब लाइट की तरह न जाने कब तक भक...भक... जलना-बुझना है। सबकी आंखों में चुभते हुए। मरना सिर्फ मुझे होगा, लेकिन झेलना सबको पड़ेगा।
आंखें बंद करता हूं। अपनी मौत को हर वक्त पास आते महसूस कर रहा हूं। क़ॉरीडोर में उसके कदमों की आहट आ रही है। दरवाजे पर आकर ठिठक गयी है। नॉक किया है उसने। मैं दम साधे पड़ा हूं। उसकी आवाज न सुनने का नाटक करता हूं। मौत मुस्कुराती है-घबरा रहे हो? पहले से पता हो तो सबके साथ ऐसा ही होता है। चलो। थोड़ा और जी लो। लेकिन ज्यादा नहीं। मैं यहीं बाहर इंतज़ार कर रही हूं।
देख रहा हूं - सब लगे हैं मेरी सेवा में। खुद को और मुझे झूठी तसल्ली देते हुए। मेरे सामने कोई नहीं रोता। सब आंसू पोंछकर आते हैं। जबरदस्ती रुलाई रोके हुए। लेकिन मेरे सामने से जाते ही इतनी देर से रोकी गयी रुलाई और नहीं रोक पाते। संवाद खत्म हो गये हैं। हर आदमी सूनी-सूनी आंखों से मेरी तरफ बैठा देखता रहता है। फिर हाथ दबाकर, सिर पर हाथ फेर कर चला जाता है। हिन्दी फिल्मों के नायक की तरह `सब ठीक हो जाएगा' का मंत्र दोहराता हुआ। सब परिचितों की दिनचर्या में एक और काम जुड़ जायेगा। मुझे देखने आना। मुझे और मेरे परिवार को लगातार याद दिलाया जायेगा कि मैं बस चंद दिनों का मेहमान हूं। यह अवधि जितनी कम होती चली जायेगी, सबकी चिंता का ग्राफ ऊपर उठता रहेगा। इतना ऊपर कि एक दिन मैं ही उस ग्राफ की सीमा से बाहर निकल जाऊंगा।
मेरी सांस फिर फूल गयी है। क्या है यह सब? कोई है क्यों नहीं मेरे पास? किसे बुलाऊं? किसका हाथ थामूं? दिव्या? कब आओगी दिव्या? लेकिन वह तो मायके में है? नन्हें-नन्हें स्वेटर, मोजे बुन रही होगी! खूबसूरत सपनों में जी रही होगी। और मैं?
लेकिन मुझे इतना घबराना नहीं चाहिए। हो सकता है, इनीशियल स्टेज ही हो। या डॉक्टरों की गलती भी तो हो सकती है। फिर से टेस्ट कराये जा सकते हैं। इतनी जल्दी तो नहीं मरा जा रहा। अस्पताल में तो हूं ही। देखभाल हो ही रही होगी। घबराने से क्या होगा? आखिर ऊपर वाले से छीना-झपटी तो नहीं की जा सकती। हिस्से में होगा तो बेहतर इलाज से ठीक भी तो हो सकता हूं। मुझे हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। ठण्डे दिमाग से सोचना चाहिए। अभी तो मेरे पास वक्त है। इसे जीना चाहिए।
कौन था वह? हां, आनन्द फिल्म का नायक। राजेश खन्ना। उसे भी तो कोई ऐसा ही रोग था। कितना हंसता-हंसाता था। लेकिन वह तो एक्टिंग कर रहा था। जब मरने का वक्त आया तो कितना चिल्लाता था, `बचा लो मुझे। मैं मरना नहीं चाहता। ज़िंदगी के नाटक का अंतिम सीन करते-करते कितना रोता था। लेकिन वह भी तो एक्टिंग ही थी। यहां तो सचमुच का रोल है। जीवन्त मंच। जीवंत अभिनय। मैं अकेला पात्र, कोई संवाद नहीं। बस दम साधे पड़े रहो। एक पूरा नाटक समाप्त। इस अभिनय के लिए तालियां, आंसू, शाबाशी, रोना-धोना कुछ नहीं पहुंचेगा मुझ तक।
फीकी हंसी आती है। राजेश खन्ना को अगर सचमुच ब्रेन ट्यूमर हो जाये तो कर पायेगा आनन्द फिल्म की तरह हंसना-हंसाना। कहीं रोता-छटपटाता पड़ा रहेगा। कर पाऊंगा मैं भी उसी की तरह मौत का सामना! या बाकी सारा समय रोते-कलपते बीतेगा? अपनी ज़िंदगी का नायक बनकर जीना। जीना-मरना ऊपर वाले के हाथ... हम तो सिर्फ कठपुतलियां...।
खुद पर काबू पाने की कोशिश करता हूं। अभी तो नहीं मर रहा हूं। जब तक वक्त है मेरे पास, हाथ-पांव और दिमाग चलते हैं, चीजें व्यवस्थित कर लूं। अपनी अधूरी हसरतें पूरी कर लूं। जितना है जी लूं। यह सोचकर तनाव थोड़ा कम हो गया है। उठता हूं। पानी पीता हूं।
अभी भी याद नहीं आ रहा, यहां कैसे पहुंचा? कब आया अस्पताल! नर्स आयेगी तो पूछूंगा। सारे टेस्ट हो गये हैं या नहीं! मुझे पता क्यों नहीं चला। आंखें बंद कर लेता हूं। अब क्या फर्क पड़ता है। अस्पताल तो पहुंच ही गया हूं। सुबह कोई तो आयेगा। ऑफिस या कॉलोनी से। हो सकता है, किसी ने पता ढूंढ़कर दिव्या या पिताजी को भी खबर भेज दी हो।
किसी को तो बुलवाना ही होगा। डॉक्टर भी अकेले रहने की सलाह नहीं देंगे। दिव्या तो डिलीवरी के बाद ही आयेगी। उसका अभी आना ठीक नहीं होगा। उसे खुद देखभाल की ज़रूरत है। लेकिन एक बार पता चल जाये तो रुक पायेगी क्या... रो...रोकर बुरा हाल कर लेगी। कौन करेगा उसकी देखभाल यहां?
मेरी तो पुकार हो गयी। वह कैसे निभायेगी? छोटा बच्चा? अकेली कहां रहेगी? फ्लैट भी तो छोड़ना पड़ेगा। अपना मकान अभी अधूरा खड़ा है। पता नहीं कब पैसे होंगे और कब पूरा होगा। कब तक भागदौड़ करेगी बेचारी। कैसे कर पायेगी। किस-किस के आगे हाथ जोड़े जायेंगे? वैसे भी खुद्दार है, आसानी से उसके हाथ नहीं जुड़ते।
इलाज...ऑपरेशन... कहां से आयेगा खर्च। कहां कहां भटकना होगा दिमाग का यह रोग लिये? रोज़-रोज़ नयी दवाएं, टेस्ट... मोटे-मोटे मेडिकल बिल... लम्बी मेडिकल लीव... फिर हाफ पे... फिर विदआउट पे और आखिर में... एक्सपायर्ड... इस घर, परिवार, ऑफिस से, इस दुनिया से एक और आदमी चला जायेगा। बिना कुछ हासिल किये। कुछ दिन अल्बम में, लोगों की याद में बना रहूंगा। फिर धीरे-धीरे पूरी तरह भुला दिया जाऊंगा। कहां याद करते हैं हम अपने पूर्वजों को। अपने गुजरे साथियों को। एक आदमी से एक याद और उस याद के भी धुंधला जाने के दौर से मुझे भी गुजरना होगा। मेरा सब कुछ मेरे साथ खत्म हो जायेगा।
लेकिन इस तरह खत्म होने से पहले की ज़िंदगी मैं कैसे गुज़ारूंगा? अकेले तो कत्तई नहीं रह पाऊंगा। किसी को तो घर से बुलाना पड़ेगा। दौड़-धूप... डॉक्टरों, अस्पतालों के चक्कर। हो सकता है, डॉक्टर बंबई जाने के लिए कहें। किसे बुलाऊं। सुनील भाई साहब, परेश भाई साहब या फिर छोटा सुदीप। लेकिन जो भी आयेगा, काम-धंधा छोड़कर आयेगा। काम का हर्जा होगा। पता नहीं कितने दिन रहना पड़े। और फिर सभी को तो पचीसों तकलीफें हैं। सुनील भाई साहब खुद ढीले रहते हैं। आये दिन चारपाई पकड़े रहते हैं। परेश जी तो पैसों की तंगी की वजह से छुट़टी तक नहीं ले पाते। प्राइवेट नौकरी। जो भी आयेगा, मेरी इस महंगी बीमारी में न चाहते हुए भी उस पर बोझ पड़ेगा। न भी खर्च करने दूं मैं, बीसियों बार डॉक्टरों, कैमिस्टों के चक्कर लगेंगे। पता नहीं कितने दिन अस्पताल में रहना पड़े।
पिताजी को बुलवाऊं। लेकिन कहां कर पायेंगे इतनी भागदौड़। बेशक पता चलते ही तुंत चल पड़ेंगे। इस उम्र में भी सबसे ज्यादा मददगार और सहारा देने वाले साबित होंगे। सब कुछ छोड़कर आ जायेंगे। मां की भी परवाह नहीं करेंगे, जो अभी भी पूरी तरह ठीक नहीं हुई है। उसे तो हर वक्त किसी के सहारे की ज़रूरत होती है। मां को किसके भरोसे छोड़ेंगे। पिताजी को बुलवाऊं भी किस मुंह से। कई-कई महीने बीत जाते हैं उन्हें मनीऑर्डर भेजे हुए। हर बार उन्हीं का मनीऑर्डर टल जाता है। उनकी मामूली-सी पेंशन। मां का इलाज। बीसियों दूसरे खर्चे। पूरी रिश्तेदारी। पैंसठ साल की उम्र में भी वे अपनी बूढ़ी हड्डियों को आराम नहीं देना चाहते। कहीं न कहीं खटते रहते हैं। न किसी से कुछ मांगते हैं, न हममें से कोई आगे बढ़कर उनकी बूढ़ी हथेली पर कुछ रखने की सोचता है। हर बार यही होता है। हम सब भाई यही मान लेते हैं, इस बार दूसरे ने भेज दिया होगा। सामने कोई नहीं आता।
आये भी कैसे? सबके पीछे बीवियां हैं, जो दरवाजे की ओट में खड़ी देखती रहती हैं। कहीं उनका पति आगे बढ़कर कोई फालतू जिम्मेवारी तो नहीं उठा रहा। ताने मारती रहती हैं। उनकी तेज आंखें पति की पीठ पर चिपकी उन्हें कोंचती रहती हैं। बहुत कर लिया है इस घर के लिए। सारी उम्र का ठेका थोड़े ले रखा है।
अगर पिताजी आते भी हैं तो भी मां की ही पोटलियां खुलवायेंगे। गनीमत होगी उनमें भी अगर किराये भर के पैसे निकल आयें। वैसे भी मेरी बीमारी का सुनकर एकदम टूट जायेंगे। उन्हें ही कुछ हो गया तो...? मां के एक्सीडेंट के समय इस बुढ़ाने में भी ज़ार-ज़ार रोते थे। इस उम्र में अकेले रह जाने का डर उनकी जान खाये जा रहा था। उन्हें पता था, हम सब बच्चों के होते हुए भी वे एकदम अकेले और अलग-थलग पड़ जायेंगे। नहीं, उन्हें तकलीफ होगी यहां आकर। फिर मां भी तो है। उनकी कौन करेगा?
मैं भी कैसा पागल हूं। लगता है दिमागी फोड़े ने अपना असर दिखाना खुरू कर दिया है। यह कैसे हो सकता है कि मैं किसी एक को बुलवाऊं और उसे जब यहां आकर असलियत का पता चले और वह औरों को न बताये। दो-तीन दिन में ही पूरा कुनबा यहां आ पहुंचेगा। कैसे भी करके। आयेंगे सब। बिना बुलाये ही। बस पता लगने भर की देर होगी। मुझे एक दिन भी यहां अकेले नहीं रहने दिया जायेगा। कहीं भी शिफ्ट कर दिया जायेगा। हर तरह का संभव, असंभव इलाज आजमाया जायेगा।
मां के एक्सीडेंट के समय देख चुका हूं। पता लगते ही पास-दूर के सब रिश्तेदार आ जुटे थे। हर आदमी अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराना चाहता था। हर तरह की मदद के लिए तैयार था। मां को चौथे दिन होश आया था, वह याददाश्त खो बैठी थी। फिर भी सबकी चाह रहती, मां उन्हें कम-से-कम एक बार तो पहचान ले। मां कोशिश करती। कुछ बुदबुदाती। दिमाग पर ज़ोर पड़ता। वह दर्द से कराहती। लेकिन कोई भी मां की आंखों में पहचान दर्ज करवाये बिना जाना नहीं चाहता था।
तो... तो... इसका यही मतलब हुआ, किसी को भी बुलवाया जाये, आयेंगे सब। जो भी पहले आयेगा, पहला काम यही करेगा सबको फोन, तार, चिट्ठी से खबर करेगा। यहां अकेला हूं। अस्पताल में पड़ा हूं। दिव्या मायके में। सब आ गये तो कैसे होगा? कौन करेगा सबके लिए? दिव्या लौट भी आये तो मेरी देखभाल करेगी, खुद को संभालेगी या आया-गया देखेगी। मेरे बीमार होने से सब पेट पर पट़टी बांधकर नहीं आयेंगे। फिर इलाज? खर्च?
कहां से आयेगा यह रुपया। इलाज के लिए? घर खर्च के लिए। इधर-उधर से कर्ज उठाये जायेंगे। कौन लेगा? मेरे बाद चुकाना भी तो होगा। तय है जो लेगा उसी को चुकाना पड़ेगा। कौन आयेगा सामने। बात पांच-सात हजार की हो तो कोई सोचे भी। अंधे कुएं में पता नहीं कितना डालना पड़े। न वापसी की गारंटी, न मेरे ठीक होने की।
याद करने की कोशिश करता हूं, क्या लेना-देना है। कहां से लिया जा सकता है लोन? उस दिन इन्कम टैक्स के लिए हिसाब लगाया तो था। नकद बचत तो दिव्या ले गयी है। थोड़े-बहुत सेविंग सर्टिफिकेट्स हैं। दो पॉलिसियां। और कर्ज़-डेढ़ लाख हाउसिंग लोन के, सात हजार स्कूटर लोन के। चार हजार कन्ज्यूमर लोन के, सत्रह हजार क्रेडिट सोसाइटी के। क्रेडिट सोसाइटी से लोन रिन्यू करा के तीन हजार मिलेंगे और एमरजेंसी लोन पांच हजार। ये आठ हजार तो डॉक्टर चरणामृत के रूप में ही ले लेंगे। बाकी?
ख्याल आता है, अगर मुझे कुछ हो जाये तो? पैसों के अभाव में ढंग का इलाज न मिल पाने के कारण अगर मुझे कुछ हो जाता है तो? जीते जी मुझे कर्ज़ चुकाने हैं, इलाज के लिए पैसे नहीं हैं, लेकिन मरने के बाद सारे कर्ज़ चुकाकर भी कम से कम ढाई लाख रुपये दिव्या को मिलेंगे। साठ हजार फंड के। नब्बे हजार ग्रुप इंशोरेंस, पन्द्रह हजार स्पेशल ग्रेच्यूटी, साठ हजार ग्रेच्यूटी। सर्टिफिकेट्स वगैरह के। और छोटी-मोटी रकमें, दो लाख बीमे के। अजीब मज़ाक है। ज़िंदा हाथी खाक का, मरा सवा लाख का। इलाज के बिना मरूं और मरने पर पैसे ही पैसे। किसे? दिव्या को ही तो। वही तो नॉमिनी है।
कम से कम इस फ्रंट पर तो मुझे ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए। कभी न कभी मकान भी पूरा हो जायेगा। हो सकता है, मेरे सामने हो जाये। फिर मेरी जगह दिव्या को नौकरी भी तो मिलेगी। ग्रेजुएट है। क्लर्की ही सही। आगे तरक्की कर सकती है। पर ये सारे पैसे दिव्या को मिलें, नौकरी भी उसे मिले, मकान भी उसी के नाम रहे और मां-पिताजी उन्हीं ग्यारह सौ की पेंशन में गुजारा करते रहें? अब तो फिर भी कुछ न कुछ देता हूं, बाद में तो वह भी बंद हो जायेगा। उन्हें इन पैसों में से कुछ नहीं मिलेगा, क्या किसी एकाध जगह नॉमिनी बदला नहीं जा सकता। पूछना पड़ेगा। अगर दिव्या नौकरी करेगी तो उसे यहीं रहना होगा और मां-पिताजी अपना घर छोड़कर यहां आयेंगे नहीं?
फिर ख्याल आता है, क्यों सोच रहा हूं मैं यह सब? अभी तो पता नहीं, इलाज शुरू भी हुआ है या नहीं। अभी तो नहीं मर रहा। क्या पता एकदम ठीक हो जाऊं। इन रिपोर्टों में भी जिस शब्दावली में मेरा रोग और निदान लिखा है, मुझे समझ कहां आयी है। मुझे सोच-सोचकर अपना खून नहीं जलाना चाहिए।
आंखें बंद करता हूं, फिर वही ख्याल... अपने-पराये... मरना... दिमाग में टूटे-फूटे वाक्य बन-बिगड़ रहे हैं। मानस पटल पर सबके चेहरे आ-जा रहे हैं। मां... दिव्या... पिताजी... अपने होने वाले बच्चे का चेहरा... कैसा होगा... यार-दोस्त...। सिर झटकता हूं। उठकर पानी पीता हूं। यह क्या हो रहा है मुझे... मैं... मैं... मुझे आराम क्यों नहीं मिल रहा... कोई है... मुझसे बात करो... मेरी सारी बातें नोट करे कोई... मैं... अकेला नहीं रह सकता... मुझे कोई... बोलने वाला... सुनने वाला चाहिए... अरे... कोई है...? कहां है... नर्स... कितने बजे हैं... कौन-सी तारीख है... महीना... साल... डॉक्टर कब आयेगा मां... मां... मैं यहां हूं मां... मुझे कुछ दिखायी क्यों नहीं दे रहा... किसकी चिट्ठी है... कौन आया है... कौन-कौन आ रहा है... जो भी आये... जल्दी आये... तुंत... मैं सबसे मिलना चाहता हूं। गले मिलना... पिताजी आ रहे हैं... लेकिन मां उन्हें अकेले... नहीं आने देगी... वह भी आयेगी... लेकिन मां तो सब कुछ भूल जाती है... मुझे पहचानेगी क्या या गुमसुम बैठी रहेगी... दोनों आयेंगे। पेंशन के चैक के बदले किसी से उधार लेकर...। भाई आयेंगे... भाभियां आयेंगी... कुछ भी हो... मुझसे स्नेह रखती हैं... सब...। बहनें आयेंगी... सारी तकलीफों के बावजूद... कब से नहीं मिला हूं उनसे। दीपा... उसका पति अजय... उनकी नन्हीं-सी बच्ची... क्या नाम है... करिश्मा... और संध्या... उसका गोल-मटोल गोपू... लेकिन अब उसे उठाकर ऊपर... उछाल नहीं पाऊंगा... सब दोस्त आयेंगे... उमेश, देशी, गामा, फिर... मामा आयेगा... सबके सुख-दुख में सबसे पहले पहुंचता है... दिव्या तुम... तो यहीं हो न... मेरे सिरहाने... कहीं जाना नहीं दिव्या... नहीं मुझे दवा नहीं चाहिए... तुम यहीं मेरे पास बैठकर...स्वेटर और ख्वाब... बुनती रहो... अनन्त काल तक... मुझे... कुछ नहीं होगा... इस घड़ी में अभी... बहुत चाभी बाकी है... अभी तो मेरा बच्चा... उसका नामकरण... बर्थ डे पार्टी... तालियां...।
दिमाग को एक तेज झटका लगता है। मैं यह सब क्या देख रहा था? आस-पास देखता हूं। अभी भी रात है। नर्स अभी तक नहीं आयी। दवा...पानी... फाइल अभी भी फर्श पर गिरी पड़ी है... उठाऊं। उठने की कोशिश करता हूं। टाल जाता हूं। उसमें लिखा बदल थोड़े ही गया होगा।
लेकिन अगर मैं किसी को भी न बुलवाऊं तो...? अस्पताल में तो देखभाल हो ही जायेगी। यहां हमेशा तो नहीं रहना होगा... और फिर दर्द हर समय तो नहीं उठेगा? इलाज तो चलता रह सकता है। मैं सबको प्यार करता हूं। सबको इस तरह परेशान करने का मुझे क्या हक है। मेरी मरने के बाद सबके हिस्से में जो दु:ख लिखा है, वे उसे झेलेंगे ही। जीते-जी सबको क्यों रुलाऊं। जो भी आयेगा, काम-धंधा छोड़कर आयेगा। मेरी हालत देख-देखकर रोता रहेगा। जो नहीं आयेंगे, उनकी जान वहीं सूखी रहेगी। हर वक्त तार या फोन का खटका लगा रहेगा।
जो भी झेलना है, मुझे ही झेलना है। सबको अपने साथ क्यों मारूं। सबका मोह सिर्फ मेरे लिए ही तो नहीं। मैं भी तो सबको खुश देखना चाहता हूं। सबको क्यों परेशान करूं। सबसे मिलना है, तो फिर आखिरी बार मैं ही क्यों न जाऊं सबसे मिलने? सबके पास रहूं। तब किसी को पता भी नहीं चलेगा, यह हमारी आखिरी मुलाकात है। अभी तो मेरी मौत मुझे इतना समय देगी कि सबसे मिल-जुल लूं। कुछ जी लूं। मां-बाप के पास रह लूं। दिव्या को उसके कठिन वक्त में साथ दूं। अपने होने वाले बच्चे का इंतजार करूं। उसका स्वागत करूं। खिलाऊं। उसकी मुस्कान में खुद को देखूं।
ब्रेन ट्यूमर का क्या है। किसी को बताया न जाये तो उसे पता भी न चलेगा। कहीं ज्यादा तकलीफ हुई तो कह दूंगा - मामूली सिर दर्द है। ठीक हो जायेगा। दवाएं लेता रहूंगा। लेकिन महंगा इलाज, ऑपरेशन नहीं कराऊंगा। क्या होगा उससे? मौत सिर्फ सरकेगी। टलेगी नहीं। पैसे कहां हैं इलाज के लिए? अगर हो भी जायें तो उनसे दूसरे काम निपटाऊंगा।
सोचकर अच्छा लग रहा है। लेकिन कर पाऊंगा यह सब? आनन्द की तरह जीना? या जीने का नाटक करना... किसी को पता भी न चले... और जब पता चले तो बहुत देर हो चुके... इतनी देर कि इलाज... खर्च... रोना... धोना... और फुलस्टॉप... कुछ भी मायने न रखें।
दिमाग फिर थकने लगा है। दर्द की लहरें फिर माथे से टकरा रही हैं। आंखें बंद कर लेता हूं। धीरे... धीरे... नींद...।