tag:blogger.com,1999:blog-59136882334222559372024-02-20T13:06:14.806+05:30सूरज प्रकाश का रचना संसार.........sooraj prakash ka rachna sansaarसूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.comBlogger31125tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-61160074172911179232009-09-18T15:25:00.002+05:302009-09-18T15:31:18.971+05:30कहानी - छूटे हुए घरवे महिलाएं अपनी जिंदग़ी के सबसे कठिन दौर से गुज़र रही थीं। वे बेहद चिड़चिड़ी हो गई थीं और हमेशा शिकायत के मूड में रहतीं। इन दिनों उनके पास बातचीत का सिर्फ एक ही टॉपिक था। इस विषय के अलावा वे न तो कुछ कहना चाहतीं, न सुनना। वे मौके या जगह की भी परवाह नहीं करती थीं, न यह देखती कि कोई उनका दुखड़ा सुनने के लिए तैयार भी है या नहीं। बस, उन्हें, ज़रा-सी शह मिली नहीं कि उनके दर्दभरे गीत शुरू हो जाते। वे अपना दुखड़ा न भी सुना रही होतीं, तब भी लगता, वे बिसूर तो ज़रूर ही रही थीं।<br /> इन रोने-धोने की वज़ह से उनकी सेहत खराब होने लगी थी। वे ज्यादा बूढ़ी, थकी-थकी-सी और चुक गई-सी लगने लगी थीं। उनके जीवन से बचा-खुचा रस भी विदा लेने लगा था और वे जैसे-तैसे दिन गुज़ार रही थीं। कुछ तो सचमुच ही बीमार हो गई थीं। अगर वे खुद बीमार नहीं थीं तो उनके परिवार का कोई न कोई सदस्य बीमार हो गया था और वे उसी की चिंता में घुली जा रही थीं।<br /> उनमें से अधिकतर की उग्र चालीस से पचास के बीच थी और वे मेनोपॉज के भीषण बेचैनी वाले कठिन दौर से गुज़र रही थीं, या किसी भी दिन उस दौर में जा सकती थीं। इस वज़ह से भी उनकी तकलीफें और बढ़ कई थीं। वे असहाय थीं। लाचार थीं। खुद को शोषित और पीड़ित तो वे मानती ही थीं। कुल मिलाकर उनके लिए ये बेहद तकलीफ भरे दिन थे।<br /> वैसे वे हमेशा से ऐसी नहीं थीं। वे सब की सब अच्छे घरों से आती थीं। पढ़ी-लिखी थीं। उनके स्कूल-कॉलेज जाने वाले बच्चे थे। रुतबे वाले पति थे। घर-बार थे। उनमें से कुछ के तो महानगर में खुद के फ्लैट्स भी थे। गाड़ियां थीं। उनके पास सुख-सुविधा का सारा सामान था। अच्छे-अछे अगने और ढेर सारी साड़ियां थीं। वे हर दृष्टि से भरपूर जीवन जी रही थीं। वे सब-की-सब अच्छा कमा रही थीं। कुछ का वेतन तो `कोई फोर फीगर' से बढ़कर `फाइव' फीगर तक पहुंचा था। और यही अच्छा कमाना उनके लिए अभिशाप बन गया था। वैसे देखा जाए तो उनके साथ कोई ऐसी गंभीर बात नहीं हुई थी कि वे सब-की-सब सदमा लगा बैठतीं या जिंदग़ी से इतनी बेज़ार हो जातीं। लेकिन वे अपनी ज़िंदगा की पहली बड़ी परीक्षा में ही फेल हो गई थीं और उनकी यह हालत हो गई थी।<br /> दरअसल वे सब-की-सब एक बहुत बड़े और महत्वपूर्ण संस्थान से जुड़ी हुई थीं। कुछ तो बहुत वरिष्ठ पदों पर भी कार्य कर रही थीं। इस संस्थान का प्रधान कार्यालय एक ऐसे महानगर में था, जिसमें वैसे तो ढेरों समस्याएं थीं, लेकिन वहां रहने वाले उस महानगर को बेहद प्यार करते थे। यह महानगर उनकी शिराओं में बहता था। उनकी सांस-सांस में रचा-बसा था। इस संस्थान की शाखाएं सभी प्रदेशों की राजधानियों में थीं। संस्थान में काम करना गर्व की बात माना जाता था, क्योंकि वहां बेतहाशा सुविधाएं थीं और वहां नौकरी का मतलब सुशी जीवन की गारंटी हुआ करता था। महानगर में स्थापित इस प्रधान कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारियों में महाओं का अनुपात अन्य केंद्रों की तुलना में बहुत अधिक था। यह अनुपात भी एक मायने में उनके लिए अभिशाप बन गया था।<br /> उनकी खुद की निगाह में, यह अभिशाप था-उनका ट्रांसफर। हालांकि इस ट्रांसफर में कूछ भी नया या गलत नहीं था। संस्थान के नियम और ज़रूरतें ही ऐसी थीं। ये ट्रांसफर अरसे से होते आ रहे थे और हर बरस होते ही थे। जो अधिकारी सीधी भर्ती से आते थे, जिनमें अक्सर लड़कियां भी होती थीं, वे इन स्थानांतरणों को सहर्ष स्वीकार कर लेते थे, क्योंकि वे जानते थे, कैरियर की सीढ़ी लगातार चढ़ते रहने के लिए पांच-सात ट्रंसफर तो देखने ही होंगे। फिर उनकी उम्र भी कम होती थी। वे कुछ भी कर गुज़रने के जोश से लबालब भरे होते। लेकिन समस्या उन अधिकारियों की होती जो संस्थान में ही पंद्रह-बीस बरस की नौकरी करने के बाद अधिकारी बनते थे। इनमें से भी महिलाओं के साथ ज्यादा समस्याएं होतीं। ट्रंसफर की बारी आते-आते वे उम्र के चार दशक पार कर चुकी होती। घर-बार सैठिल कर चुकी होतीं। जीवन में स्थायित्व आ चुका होता। बच्चे बड़ी कक्षाओं में पहुंचने को होते। लड़कियां होतीं तो वे उपनी उम्र के सबसे नाजुक मोड़ पर होतीं, जहां उन्हें पिता की नहीं, मां की ही ज़रूरत होती। उम्र के ये दौर ही उनके लिए अभिशाप बन कर आए थे।<br /> पिछले दो-तीन बरसों से संयोग कुछ ऐसा बन रहा था कि इन दिनों जितने भी ट्रंसफर हुए, हर सूची में इस महानगर की महिलाएं ही अधिक रहीं, जिन्हें वरिष्ठता क्रम से बाहर भेजा जाना था। अलबत्ता, इन महिलाओं के साथ संस्थान ने इतना लिहाज ज़रूर किया था कि उन्हें निकटतक प्रदेश की राजधानी में ही भेजा था, जहां से वे रातभर की यात्रा करके आ-जा सकती थीं। उनकी तुलना में उनके पुरुष सहकर्मी दूर-दूर के केंद्रो पर भेजे गए थे। इसके बावजूद ये महिलाएं खुद को अभिशप्त मान रही थीं।<br /> ये अभिशप्त महिलाएं हर तरफ से घिर गई थीं। एक तरफ घर-बार था। पढ़ने और महंगी जींस पहनने वाले लड़के थे। सपने देखने वाली जवान होती लड़कियां थीं, जिन्हें लगातार अपनी मांओं की ज़रूरत थी और दूसरी तरफ इन सबकी बेतहाशा बढ़ चुकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें नौकरी करते रने की ज़रूरत थी। उनमें से कुछ ही महिलाएं ऐसी थीं जो, आदतवश, वक्त गुज़ारने के लिए नौकरी कर रही थीं। वे बहुत अच्छे घरों से थीं और नौकरी न करके भी अपना स्तर बनाए रख सकती थीं। बल्कि नौकरी करके वे जितना कमाती थीं, नौकरी के लिए खुद को सजाने-संवारने में उससे कहीं अधिक खर्च कर डालती थीं। कुछ ऐसी भी थीं, जिनके पति छोटी-मोटी या प्राइवेट नौकरी में थे और घर इन महिलाओं के वेतन से ही चल रहे थे। अगर नहीं भी चल रहे थे, तो भी उनकी अतिरिक्त और अच्छी-खासी आमदनी से उनके परिवार जिस तरह की सुख-सुविधाओं के आदी हो चुके थे, उन्हें त्यागने की वे लोग सोच भी नहीं सकते थे। कुछ महिलाओं ने कर्जे लेकर मकान बनवा लिये थे, या गाड़ी वगैरह खरीद ली थी, जिसकी किस्तें चुकाने के लिए उनका नौकरी करते रहना ज़रूरी था। उनकी यह मज़बूरी थी कि वे अगर नौकरी छोड़ना भी चाहतीं तो भी उनका परिवार उन्हें ऐसा करने की इजाज़त नहीं देता था।<br /> निश्चित तारीख को उन्हें रिलीव कर दिया गया था। जो हैसियत वाली थीं और शौकिया नौकरी कर रही थींए उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी। कुछ ऐसी भी थीं जो इस उम्र में अकेली रहने की कल्पना भी नहीं कर सकती थीं, या जिन्हें डर था, उनके बिना उनका घर-बार टूट-बिखर जाएगा, उनके सामने भी नौकरी छोड़ने के अलावा और कोई रास्ता न था। कुछ घबरा कर बीमारी की छुट्टी पर चली गई थीं, तो कुछ सचमुच बीमार पड़ गई थीं। लेकिन उन्हें भी कभी न कभी तो ठीक होना ही था और नए केंद्रों पर ज्वाइन भी करना ही था।<br />अधिकतर महिलाओं के सामने समस्या यह थी कि वे कभी अकेली घर से बाहर निकली ही नहीं थीं। चार-पांच साल तक घर से अलग रहने की सोच-सोच कर उनकी रूह कांप रही थी। अधिकतर परिवारों की हालत ऐसी थी कि वे बच्चों को, परिवार को, नौकरीशुदा पति को, सास-ससुर को अपने साथ नहीं ले जा सकती थीं, या वे खुद इस पक्ष में नहीं थीं कि उनकी वजह से चार-पांच बरस के लिए पूरी गृहस्थी उजाड़ी जाए। वे गहरे असमंजस में थीं। ज्यादातर घरों में कई-कई दिन तक सलाह-मशविरे चलते रहे थे। आगा-पीछा सोचा गया था और अंतत: नये केंद्र पर ड्यूटी ज्वाइन कर ली गई थी। उन्होंने सोचा था-पहले जाएंगी तो पहले लौटेंगी। रो-धो कर बाकी महिलाएं भी वहां पहुंची थीं।<br /> यहीं से उनके जीवन की दिशा बदल गई थी। वे एक तरह से बेघर हो गई थीं। यहां उन्हें नये सिरे से गृहस्भी जमानी थी। अपनी पहचान बनानी थी और अगले कई बरस तक अपने बिछुड़े परिवार के लिए ऐशो-आराम जुटाते रहने के लिए अकेले खटना था। संस्थान उन्हें यह सुविधा देता था कि जब तक उन्हें नये केंद्र पर रहने की जगह उपलब्ध नहीं करा दी जाती, वे दो महीने तक संस्थान के खर्चे पर किसी स्तरीय होटल में ठहर सकती थीं, लेकिन उनमें से कोई भी होटल में नहीं ठहरी थी। अकेली कैसे ठहर सकती थीं। कभी ठहरी ही नहीं थीं। सबने उन्हीं महिलाओं के यहां डेरे डाले थे, जो उनसे पहले यहां आ चुकी थीं और जिन्हें फ्लैट मिल चुके थे। दर असल, वे आयी ही उनके सहारे थीं कि चलो, कोई तो है अपना कहने को।<br /> वे शुरू-शुरू में आधी-अधूरी तैयारी के साथ आयी थीं। संस्थान के फिलहाल कुछ को रहने के लिए सजे-सजाए सिंगल रूम दे दिये थे और कुछ के हिस्से में शेयरिंग आवास की सुविधा आई थी, जहां एक-एक फ्लैट में तीन-तीन, चार-चार महिलाएं नाम-मात्र के किराये पर रह सकती थीं। तभी अचानक उन सबमें यह परिवर्तन आया था। इसे संयोग माना जाए या दुर्घटना, लेकिन जो कुछ हुआ था, उस पर विश्वास करने को जी नहीं चाहता था। ये मैच्योर और समझदार महिलाएं, जो संस्थान में बड़े-बड़े फैसले लिया करती थीं, अकेले के बलबूते पर विभाग तक संभालती थीं, अचानक लड़ने लगी थीं। शिकायतें करने लगी थीं। जिन महिलाओं के हिस्से में सिंगल रूम आए थे, उन्हें शिकायत थी-हम कभी अकेली नहीं रही हैं। हमें डर लगता है। हमें शेयरिंग आवास दिया जाए। जिन्हें शेयरिंग आवास दिया गया था, उन्हें अपनी पार्टनर पसंद नहीं थीं। वे कभी एनसीसी के कैंपों में नहीं गई थीं। न कभी ट्रैकिंग वगैरह में ही गई थीं। उन्हें शेयर करने की आदत नहीं थी। न कमरा, न रोजमर्रा की चीज़ें और नही प्रायवेसी। उन्होंने आज तक राज किया था अपने-अपने घरों में, बच्चों, पतियों पर, नौकरों पर। वहां वे मालकिन हुआ करती थीं और पूरी व्यवस्था, सेटिंग और मूवमेंट पर पूरा नियंत्रण रखती थीं। वहां सब कुछ उनकी इच्छानुसार हुआ करता था। लेकिन इस ट्रंसफर ने उनकी हैसियत, राजपाट और नियंत्रण का दायरा एक ही झटके में बिस्तर भर की जगह में सीमित कर दिया था। यहां उन्हें सब कुछ शेयर करते रहना था-किचन, ड्राइंगरूम, बाथरूम, यहां तक कि बर्तन भी। यहां हुकुम चलाने या सैट करने जैसा कुछ भी नहीं था। यहां न परिवार के साथ शाम की चाय थी, न पति के साथ खुसुर-पुसुर। यहां कोई उनके आदेश पर एक गिलास पानी या चाय लोने वाला नहीं था, क्योंकि वे सब की सब वरिष्ठ अधिकारी थीं, सहकर्मी थीं। हमउम्र थीं। वे यहां एक-दूसरे के जूठे बर्तन मांजने तो कत्तई नहीं आई थीं। शुरू-शुरू में उन्होंने कुछ समझौते भी किए। जिसके साथ भी ठहराया गया, ठहर गईं। मिल-जुलकर सामान भल ले आईं। एक सब्जी बना लेती, तो दूसरी फटाफट चपातियां बेल देती। तीसरी इस बीच सलाद बना देती। चाय के बर्तन धो देतीं। फिलहाल उनका पहला मकसद था-कम से कम खर्च में खुद गुज़ारा करके महानगर में अपने परिवार के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसे भेजना। यहां आ जाने के बाद उन्हें बीच-बीच में की जाने वाली रेलयात्राओं और एसटीडी फोनों के लिए भी अतिरिक्त पैसे बचाने ही थे।<br /> वैसे भी वे अकेले या बिना परिवार के होटलों में खाना खाने नहीं जाती थीं, बेशक शहर में अच्छे होटलों की कोई कमी नहीं थी और शहर के लाग बेहद शरीफ थे। वे अकेली औरत को दखकर लार नहीं टपकाते थे। अगर लोग शरीफ न भी होते तो भी कम से कम इन भद्र महिलाओं को, जिनकी उम्र चालीस से पचास के बीच थी और जो आजकल उदास-उदास रहा करती थीं, उनसे कोई खतरा नहीं हो सकता था। हालांकि इन महिलाओं ने अपना सारा जीवन देश के आधुनिकतम कहे जाने वाले महानगर में बिताया था, फिर भी वे पहले घरेलू महिलाएं थीं और बाद में आधुनिक। इसीलिए कभी-कभार होटल से खाना पैक करवा कर ले आती थीं। इसी में उन्हें सुभीता रहता था।<br /> तो अभी जिक्र हुआ था इन महिलाओं का अचानक आम औरतों में बदल जाने का। अब सचमुच ये महिलाएं शक्की, झगड़ालू और नाक-भौं सिकोड़ने वाली हो गई थीं, जिनकी नाक पर हर समय गुस्सा घरा रहता था। वैसे भी उन्होंने कभी ज़िंदगी में शेयर नहीं किया था, मिल-जुलकर नहीं रही थीं और कभी झुकी नहीं थीं। अब मामूली-सी बात को लेकर भी वे अपनी पार्टनरों से लड़ पड़तीं। बेशक यह लड़ना सार्वजनिक नल पर होने वाले लड़ने के स्तर तक नहीं उतरा था फिर भी गुबार तो निकाला जाता ही था। वे अब इस बात पर भी आपस में बोलना छोड़ सकती थीं कि वे चप्पल पहन कर रसोई में चली आती हैं... जब मैं अखबार पढ़ रही होती हूं तो ज़ोर-ज़ोर से घंटी बजाकर आरती करती हैं... चाय के अपने जूठे कप कहीं भी छोड़ देती हैं... बाथरूम... गंदे बालों से भरी गंदी कंघी..., वाशबेसिन... वगैरह... वगैरह...। ऑफिस में बीसियों कर्मचारियों पर नियंत्रण करने वाली और महत्वपूर्ण फैसले लेने वाली महिलाएं अब इस बात पर भी लड़ लेती थीं कि ड्राइंगरूम में घूम रहा तिलचट्टा कौर मारे या देर रात या अल सुबह दरवाजे की घंटी बजने पर दरवाजा कौन खोले, या फिर रोज सुबह दूध कौन ले। कई बार खर्च शेयर करने को लेकर भी पंजे लड़ जाते। ये और ऐसी ढेरों बातें थीं जिनकी वजह से इस खूबसूरत, हरे-भरे, शालीन लोगों वाले फाश इलाके में रहने वाली ये भद्र महिलाएंं अपनी सुबह खराब करती थीं, दोपहर भर कुढ़ती रहती थीं। बेहद खूबसूरत शामों को, जब मौसम को देखकर किसी का भी मन खिल उठना चाहिए, वे या तो अपने डेरे पर आने से कतरातीं या सांझ ढले अपने-अपने दरवाजे बंद कर लेतीं। रात के वक्त जब सारा शहर उत्सव के मूड में होता, देर रात तक आवारागर्दी करता, शुशियां बांटता रहता, वे बिसूरते हुए करवटें बदलती रहती थीं।<br /> सुबह उठते समय आम तौर पर सभी पार्टनरों के चेहरों पर मुर्दनगी छायी होती और उनके सामने मनहूस चेहरों को देखते हुए एक और मनहूस दिन काटने के लिए होता। वे भारी मन से ऑफिस पहुंचतीं। वहां मन की यह भड़ास लंच टाइम में दैनिक किस्तों में अलग-अलग मेजों पर निकलती। एक ही फ्लैट शेयर करने वाली महिलाएं एक ही मेज पर कभी नहीं बैठतीं। कई बार वे पहले ही फोन पर तय कर लेतीं, आज किसे अपनी रामकहानी सुनानी है। हर महिला को ही कुछ न कुछ कना होता। उनमें से हरेक को श्रोताओं की ज़रूरत होती। अजीब हालत हो जाती। सभी बोलना चाहतीं। सुने कौन। उन मेजों पर बैठे पुरूष सहकर्मियों की अजीब हालत होती। उनके सामने ही ये भद्र महिलाएं अपनी ही सहकर्मियों, सखियों, दिन-रात की, खाने-पीने की साथिनों की छीछालेदर करतीं। उनके बखिए उधेड़तीं। सब की सब कोई माकूल सा कंधा तलाशते ही रोने लगतीं।<br /> कई बार ऐसा भी होता कि वे आपस में सलाह-मशविरा करके अपने पार्टनर बदलने का फैसला कर लेतीं। ऑफिस में कह-सुनकर कागज़ी कार्रवाई करवा लेतीं। कुछ दिन तो नयी पार्टनरों के साथी ठीक-ठाक चलता, फिर वहां भी वही पुरानी रागिनी छिड़ जाती। फ्लैट बदले जा सकते थे। पार्टनर बदले जा सकते थे, लेकिन जो जीज़ कोई नहीं बदल सकता था, वह था उनका खुद का स्वभाव, जिसके बारे में उनमें से कोई भी नहीं जानता था कि उसे बदल देने भर से सारी समस्याएं खुद-ब-शुद सुलझ जाया करती हैं। वे खुद को बदलने के बारे में सोच भी नहीं सकती थीं।<br /> इनकी तुलना में कुछ र्साभाग्यशाली महिलाएं ऐसी भी थीं जिन्हें वरिष्ठताक्रम से पूरा फ्लैट मिल गया था। लेकिन खुश वे भी नहीं थीं। जिन्हें ये फ्लैट लीज़ पर लेकर दिए गए थे, उन्हें भी ढेरों शिकायतें थीं-फ्लैट दूर है... गंदा है... पड़ोस खराब है... धूप बहुत आती है... धूप नहीं आती... ग्राउंड फ्लोर पर है... नहीं है... सुरक्षित नहीं है। लड़-झगड़ कर अपने लिए अलग फ्लैट ले लेने के बाद भी वे वहां अकेली नहीं रहती थीं। उन्हें डर लगता था। महंगा भी पड़ता था। अकेले वक्त भी नहीं गुज़रता था। यहां उन्हें एक सुविधा ज़रूर थी कि अपनी मर्जी से पार्टनर रख और बदल सकती थीं। इसके बावजूद खुश वे भी नहीं थीं।<br /> इनकी तुलना में कुछेक महिलाओं ने इन सारी समस्याओं का एक अलग ही हल खोज लिया था। व अपने एकाध बच्चे को अपने साथ ले आई थीं और वहीं उसका एडमिशन करवा दिया था। उनके लिए कुछ हद तक जीवन र्साक बन गया था। वक्त तो अच्छी तरह गुजरता ही था, यह तसल्ली भी रहती कि बच्चे को अपनी निगरानी में पाल-पोस रही हैं।<br /> ये अकेली, परिवार से बिछ़ुड़ी महिलाएं महानगर जाने का कोई मौका नहीं छोड़ती थीं। छुट्टियों की सूची मिलते ही वे साल भर का शेड्यूल बना लेतीं, कब-कब जाया जा सकता है। किसी नेता वगैरह के मरने पर होने वाली छुट्टी उनके लिए बोनस की तरह होती। कुछ तो बिला नागा हर शनिवार की रात की गाड़ी से जातीं, दिन भर वहां खटतीं, घर-परिवार की पटरी से उतरी गाड़ी संवारतीं और रात की ट्रेन से लौट आतीं। उनके पास हर वक्त अगले कई हफ्तों के आने-जाने के कन्फर्म टिकट होते।<br /> कई बार वे एक दिन के लिए जातीं और महीनों नहीं लौटती थीं। बीमार पड़ जातीं या बीमारी की छुट्टी ले लेतीं। ऐसे में उनकी कन्फर्म टिकटों पर उनकी हमउम्र सहेलियां यात्रा करतीं। उनके छुट्टी पर बेठ जाने से ऑफिस के कामकाज का नुकसान होता था, लेकिन वे परवाह नहीं करती थीं। उनका कहना था-हमारी ही कौन परवाह करता है। इन महिलाओं में कुछ ऐसी भी थीं जिन्होंने विवाह नहीं किया था और महानगर में अकेली रहती आई थीं। वे भी बिला नागा महानगर आती-जाती रहतीं, क्योंकि महानगर उनकी हर धड़कन में इतना रचा-बसा था कि उसे बार-बार देखे बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता था। जब तक वे वहां जाकर वहां की हवा की सांस नहीं ले लेतीं थीं, उन्हें ऊर्जा नहीं मिलती थी।<br /> कुछ ऐसी भी रहीं जिन्होंने यहां आने के बाद परिस्थितियों से घबरा कर नौकरी छोड़ दी थी, जबकि कुछ इर इंतज़ार में थीं कि कब वे स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवश्यक वर्ष पूरे करें और घर बैठें। जो यहां कई बरस पहले आई थीं, वे किसी भी दिन लौटने की आस लगाए बैठी थीं। वे हर दिन प्रधार कार्यालय से आने वाली डाक का इंतज़ार करतीं। उनकी हालत लेट चल रही ट्रेन के इंतज़ार में प्लेटफार्म पर बैठे यात्रियों जैसी थी। वे अरसे से आधे घंटे के नोटिस पर शहर छोड़ने की तैयारी किए बैठी थीं। इंतजार था कि खत्म नहीं होता था।<br /> उधर कुछ महिलाओं के यहां चले आने से उनके घर-परिवार वाले गंभीर रूप से बीमार हो गए थे या दिल हार बैठे थे। ऐसी महिलाओं को एक विशेष मामले के रूप में, एक वर्ष के लिए उन्हीं के खर्च पर वापस भिजवा दिया जाता था। यह अवधि बढ़ाई नहीं जाती थी, अलबत्ता, उस हालत में कम ज़रूर कर दी जाती थी, जब मरीज ही उससे पहले चल दे। यानी महिलाओं का विशेष मामले पर लौटने का आधार ही न रहे। संस्थान इसी लिखित शर्त पर उन्हें भेजता था। इसी के साथ एक और शर्त नत्थी कर दी जाती थी कि साल भर बाद, या उससे पहले, जैसी भी स्थिति हो, उन्हें किसी और केंद्र पर भी भेजा जा सकता था। सशर्त वापसी का लाभ उठाने में आमतौर पर महिलाएं डरती थीं। हां, अगर उन्होंने ठान ही लिया हो कि साल भर बाद नौकरी छोड़नी है, तो वे किसी न किसी तिमड़म से किसी की बीमारी का बहाना लेकर एक बरस के लिए लौट आतीं और जब बाद में उन्हें कहीं और भेजा जाता तो वे नौकरी छोड़ देती थीं। इस तरह वे अपने परिवार के पास एक बरस पहले पहुंच जाती थीं।<br /> कुल मिलाकर ये सारी भद्र महिलाएं बहुत मुश्किल से अपने दिन गुज़ार रही थीं। यह शहर बेहद शूबसूरत था, सांस्कृतिक गतिविधियों की कोई कमी नहीं थी। अच्छे पुस्ताकालय थी, घूमने-फिरने की जगहें थीं, लेकिन चूंकि उन्हें लगातार अपने बिछ़ुड़े घर की याद आती रहती थी, उन्हें यहां कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। उन्होंनक अपनी पूरी ज़िंदगी सिर्फ घर और परिवार ही जाना था, इसलिए वे लिखने, पढ़ने, घूमने या जीने जैसा कुछ सोच ही नहीं पाती थीं। उन्होंने इतने बरसों में इस शहर को ढंग से देखा भी नहीं था, क्योंकि उनकी आंखों के आगे हर वक्त महानगर और उसमें अपना परिवास झिलमिलाता नज़र आता रहता था। वैसे तो इस बात पर भी बहस की जा सकती थी कि उन्होंने अपना महानगर ही मितना देशा या जाना था। छुट्टी के दिन उनके लिए बहुत भारी गुज़रते थे। कुछ भी तो करने के लिए नहीं होता था। अगर शेयरिंग पार्टनरों से बातचीत बंद हो तो और भी तकलीफ़ होती थी। दिन गुजरे नहीं गुज़रता था। कभी-कभार ही ऐसा हो पाता था कि वे मनमुटाव भुलाकर, मिलजुल कर खाने का प्रोग्राम बनाएं, या कहीं शॉपिंग पर जाएंं। वैसे वे एक-दूसरे से मिलने दूसरे फ्लैटों में भी चली जाती थीं। <br /> उनमें से कुछ को संस्थान के काम से आसपास के शहरों में निरीक्षण के लिए जाने की ज़रूरत पड़ती थी। कभी-कभी ये निरीक्षण इस तरह के पिछड़े या दूरदराज के इलाकों में होते, जहां रहने-खाने की तकलीफ होती। ऐसे निरीक्षणों पर जाने से वे भरसक बचतीं। कभी पूरी टीम में अकेली महिला होने के बहाने से, तो कभी किसी अन्य कारण से। ऐन वक्त पर उनके मना कर देने से या बीमारी की छुट्टी लेकर बैठ जाने से निरीक्षण का सारा शेड्यूल बिगड़ जाता। लेकिन अगर निरीक्षण के लिए महानगर की दिशा में जाना होता तो वे हर हाल में टीम में अपना नाम शामिल करवाने की जुगत भिड़ातीं। लल्लो-चप्पो करतीं। अगर निरीक्षण लंबा हुआ तो बीच की छुट्टियों में या रविवार को, दो-तीन घंटे की यात्रा करके चुपचाप महानगर होकर आया जा सकता था। विपरीत दिशा में कोई जाना न चाहती और महानगर की दिशा के लिए मारा-मारी होती।<br />वे हमेशा अफवाहों से घिरी रहतीं, एक-एक से उनकी सच्चाई के बारे में पूछती फिरतीं। कभी खबर उड़ा देतीं-नयी ट्रांसफर पालिसी आ रही है तो कभी कहतीं-गोल्डर हैंड शेक स्कीम आ रही है, जिसमें संस्थान इच्छुक कर्मचारियों को ढेर सारा रुपया देकर सेवानिवृत्ति करेगा। महानगर के प्रधान कार्यालय से कोई भी वरिष्ठ अधिकारी आता तो वे उससे मुलाकात के लिए समय ज़रूर मांगतीं। अपने दुखड़े रोतीं... जवान लड़कियां... गिड़ते बच्चे... पति बीमार... शदियां...पढ़ाई... खुद की बीमारी... `मेनोपॉज'। ज्यादा रोना वे `इसी' का रोतीं। एक बार तो एक वरिष्ठ अधिकारी ने उन्हें मुलाकात का समय तो दिया, लेकिन साफ-साफ कह दिया था-आपके पास वापस जाने के लिए `मेनोपॉज' के अलावा और कोई कारण हो तो बताएं। सिर्फ इसी वजह से तो आपको ट्रांसफर नहीं किया जा सकता।<br /> सबके चेहरे एकदम काले पड़ गए थे और सबकी सब बिना एक भी शब्द बोले केबिन से बाहर आ गई थीं। बाद में पता चला था-प्रधान कार्यालय में इन महिलाओं ने स्थानांतरण के लिए जितने भी आवेदन भेजे थे, सब में प्रमुख रूप से `इसी' वजह से होने वाली तकलीफों का बखान किया गया था।<br /> यहां रहते हुए इन लोगों के साथ कुछ दुर्घटनाएं भी हो गई थीं। इससे इनके हौसले और मंद हो गए थे। एक महिला कॉलेज जाने वाली अपनी अति सुंदर लड़की को साथ लेकर आयी थी कि कामकाजी पति अकेले उसका ख्याल नहीं रख पाएंगे। एक-दो साल तक सब ठीक चलता रहा था। मां-बेटी एक दूसरे का सहारा बनी रही थीं। बेटी ने मां से अपने से सहपाठी का जिक्र किया था। उससे मिलवाया भी था, लेकिन विजातीय और बेरोजगार लड़के को मां ने पहली ही नज़र में ठुकरा दिया था। बेटी को चेताया भी था-उससे मेल-जोल न रखे।<br /> इधर मां एक ट्रेनिंग पर बाहर गई, उधर लड़की ने उसी लड़के से ब्याह रचाया, चाबी पड़ोस में दी और हनीमून पर निकल गई।<br /> मां को इतना सदमा लगा था कि वह नौकरी ही छोड़ गई थी। जिसके लिए सब कुछ कर रही थी वही दगा दे गई, अब किसके लिए कमाना-धमाना। पति की निगाहों में कसूरवार भी वही बनी थी कि लड़की को संभाल नहीं पाई।<br /> एक अन्य महिला अधिकारी के पति का महानगर में चक्कर चलने लगा था। इससे पहले कि मामला कोई निर्णयक मोड़ लेता, वह बोरिया-बिस्तर समेट कर लौट गई थी और वहां से इस्तीफा भेज दिया था। इन दो-एक मामलों से ये महिलाएं काफी विचलित हो गई थीं।<br />ऐसा नहीं था कि लगभग इन्हीं कारणों से अपना परिवार पीछे छोड़कर आए उनके पुरुष सहकर्मी उनसे कम परेशान थे। तकलीफें उन्हें भी होती थीं। लेकिन वे अपनी तकलीफों का इतना सार्वजनिक नहीं करते थे कि उनके प्रति बेचारगी का भाव उपजे। वैसे उनके पास खुद को भुलाए रखने या व्यस्त रहने के जरिए भी ज्यादा थे। उनके पास ताश थे, खाना और पीना था, फिल्में थीं। ब्लू पिल्में थीं। घूमना-फिरना था। किताबें थीं। ठहाके थे और बहसें थीं। वे कभी भी किसी भी दोस्त के घर जाकर महफिल जमा सकते थे। वहां रात गुज़ार सकते थे। देर तक सड़कों पर आवारागर्दी कर सकते थे। इन सब कामों में उनकी ईगो कभी आड़े नहीं आती थी।<br /> कई बार वे अपनी महिला सहकर्मियों को छेड़ते-जिन चीज़ों पर आपका बस नहीं हैं, उसके लिए क्यों अपनी सेहत खराब कर रही हैं। तनाव में रहने से क्या जल्दी ट्रंसफर हो लाएगा। वे उन्हें समझाते भी और उन पर हंसते भी थे-हमें ही देख लो। परिवार से अलग हैं तो भी खा-पी रहे हैं। हर वक्त मस्ती के मूड में रहते हैं। कभी चुपके से अपने घर जाकर तो देखो तुम्हारे पति और बच्चे तुम लोगों के बिना कितना सहज और खुला-खुला महसूस कर रहे होंगे, बल्कि आप लोगों के वहां पहुंचने पर बाल-बच्चे पूछते होंगे-आप कितने दिन की छुट्टी पर आई हैं, लेकिन उन पर इन सीरी बातों का कोई असर नहीं होता था। उनका एक ही जवाब रहता-आप पुरुष हैं। हम लेडीज की तकलीफ कैसे समझेंगे। आपके साथ इतनी जिम्मेदारियां होतीं तो पता चलता।<br /> बहरहाल ये बहसें चलती रहती थीं। एक के बाद एक बरस बीतते रहते थे। जैसे-जैसे उनके घर से दूर रहने की अवधि बढ़ती जा रही थी, ये महिलाएं घर की चिंता में और दुबली होती जा रही थीं। घर जो पीछे छूट गया था, लेकिन दिलो-दिमाग में लगातार बना रहता था। वे उसे दूर से ही जकड़े हुए थीं। वे वहां जल्द-से-जल्द पहुंच कर उसे अपने नियंत्रण में ले लेना चाहती थीं। उनके लिए एक-एक पल भारी पड़ रहा था।<br /> दूसरी तरफ, उनकी गैर-मौजूदगी में आमतौर पर घरों को कुछ भी नहीं हुआ था। न दीवारें दरकी थीं, न किसी के सिर पर छत ही गिरी थी। सभी घर जस के तस खड़े थे, बल्कि पहले की तुलना में आत्मनिर्भर और हर लिहाज से मजबूत। इन बरसों में पढ़ने वाले बच्चे कॉलेजों में जा पहुंचे थे या नौकरी वगैरह पर भी लग गए थे, शादियां भी कई बच्चों की हुई थीं इस बीच। अमूमन सभी घर इन महिलाओं की गैर-मौजूदगी में, लेकिन उनसे मिलने वाले पैसों की मदद से, कुछ भी `मिस' नहीं करते थे, वे परिस्थितियों के अनुमूल जीवन जीने लगे थे। उन घरों को इन महिलाओं-जो पत्नी, मां, बेटी, बहरन, कुछ भी हो सकती थीं, की ज़रूरत तो थी, लेकिन ये अब उन लोगों की दिनचर्या का, आदत का हिस्सा नहीं रही थीं। वे इनके लिए परेशान होते थे लेकिन व्याकुल नहीं होते थे।<br /> वक्त गुज़रता रहा था। तभी एक दिन दो समाचार सुनने को मिले थे। एक शुभ और दुसरा खराब। अच्छी खबर यह थी कि एक लंबे अरसे के बाद से सारी महिलाएं स्थानांतरित होकर महानगर वापस लौट रही थीं।<br /> दूसरी, उदास कर देने वाली खबर यह थी कि उनके स्थान पर लगभग उतनी ही महिलाएं स्थानांतरित होकर बाहर जा रही थीं। इस बार, पास और दूर के सभी केंद्र पर।<br />रचनाकाल 1995सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-45881643693448124292009-04-24T11:54:00.002+05:302009-04-24T12:20:57.562+05:30उर्फ़ चंदरकला – 1991 की अश्लीलतम कहानीये कहानी 1976 की घटना पर 1991 में लिखी गयी थी और नवम्बर 91 में वर्तमान साहित्य में छपी थी। कहानी छपते ही हंगामा मच गया था। वार्षिक ग्राहकों ने अपना चंदा वापिस मांगा, देश भर में इसकी फोटोकॉपी करा के प्रतियां बांटी गयीं, गोष्ठियां हुईं, साल भर कहानी के पक्ष और विपक्ष में पत्र आते रहे। और मेरी लानत मलामत की जाती रही। कहानी का भूत अरसे तक हिन्दी जगत को सताता रहा। लीजिये, आप भी पढ़ कर अपनी राय बनाइये। <br /><br />उर्फ़ चन्दरकला<br /> दोनों वहां वक्त पर पहुंच गये हैं। अभी एन आर की अर्थी सजायी जा रही है। वहां खड़ी भीड़ में धीरे-धीरे सरकते हुए वे सबसे आगे जा पहुंचे और मुंह लटका कर खड़े हो गये। दोनों ऐसी जगह जा कर खड़े हो गये हैं, जहां चेयरमैन और दूसरे वरिष्ठ अधिकारियों की निगाह उन पर पड़ जाये। तभी सतीश ने आनंद को इशारा किया, दोनों आगे बढ़े और अर्थी पर फूल मालाएं रखने वालों के साथ हो लिये। ज्यादातर लोग चकाचक सफेद कुर्ते पायजामों में हैं। इन दोनों के पास कोई सफेद या डल कपड़े नहीं हैं, इसलिए रोज के ऑफिस वाले कपड़ों में ही चले आये हैं।<br /> माहौल में बहुत उदासी है। रह-रह कर मिसेज एन आर, उनके छोटे लड़के और जवान लड़कियों की सिसकियों से माहौल और भारी हो जाता है। जब एन आर की मृत देह मंत्रोच्चारणों के साथ खुले ट्रक में रखी जाने लगी तो सतीश और आनंद ने भी आगे बढ़ कर हाथ लगा दिया। एन आर परिवार और दूसरों की रुकी हुई रुलाई फिर फूट पड़ी। सबकी तरह सतीश और आनंद भी अपनी उंगलियां आंखों तक ले गये, लेकिन वहां कोई आंसू नहीं है। <br />दोनों धीरे-धीरे खिसकते हुए भीड़ से बाहर आ गये। सतीश ने आनंद का हाथ थामा और बोला - मिसेज एन आर बिना मेकअप के कितनी अजीब लग रही हैं। अपनी उम्र से दुगुनी।<br /> "अबे घोंचू, यही उनकी असली उम्र है। मेकअप से आधी लगती थी।" आनंद फुसफुसाया। तभी उसकी निगाह एन आर की बिलखती हुई बड़ी लड़की पर पड़ी। उसकी सफेद कुर्ते में से झांकती काली ब्रा की पट्टी पर नज़रें गड़ाये वह बोला," मुझसे तो इन लड़कियों का रोना नहीं देखा जा रहा। जी कर रहा है दोनों को सीने से लगाकर दिलासा दूं। पीठ पर हाथ फेर कर चुप कराऊं।" सतीश ने भी आंखों ही आंखों में लड़कियों के शरीर तौले और मायूस होते हुए कहा, "हां यार, एन आर इतनी खूबसूरत लड़कियों को यतीम कर गया। मुझसे भी उनका दुःख नहीं देखा जा रहा। एक तुझे मिले चुप कराने के लिए और एक मुझे।" उसने आनंद का हाथ दबाया और आदतन आँख मारी।<br /> ऑफिस की सारी गाड़ियां, बसें सबको श्मशान घाट तक ले जाने के लिए खड़ी हैं। कॉलोनी तक वापिस भी छोड़ जाएंगी। आज की छुट्टी घोषित कर दी गयी है। सब लोग बसों की तरफ बढ़ने लगे।<br /> बस में चढ़ने से पहले सतीश फिर फुसफुसाया," यार क्या करेंगे वहां? ….. सारा दिन बर्बाद जायेगा। यहां सबको अपना चेहरा दिखा ही चुके हैं। हाज़िरी लग गयी है। चल खिसकते हैं।"<br /> " हां यार, वैसे भी मूड भारी हो गया है। चल, सिटी चलते हैं। वहीं दिन गुजारेंगे।"<br /> उन्होंने देखा, और भी कई लोग बसों में चढ़ने के बजाये इधर-उधर हो गये हैं। मौका देखकर वे भी शव-यात्रा का काफिला शुरू होने से पहले ही फूट लिये। <br /> एन आर के बंगले से काफी दूर आ जाने के बाद आनंद ने सिगरेट सुलगाते हुए पूछा,"क्या ख्याल है तेरा, एन आर की जगह उसकी फैमिली में किसे नौकरी दी जायेगी।"<br /> "अरे इसमें देखना क्या, तय है। बड़ी वाली लड़की ही ज्वाइन करेगी। एन आर जीएम था भई। थर्ड इन रैंक, अब उसकी विडो इस उम्र में तो डिस्पैच क्लर्क बनने से रही।" सतीश ने दार्शनिकता झाड़ी। <br /> " गुरु, मजा आ जायेगा तब तो। बल्कि मैं तो कहता हूं, जीएम के स्टैंडर्ड के हिसाब से तो दोनों लड़कियों को रखा जा सकता है। पर्सोनल मैनेजर अपना यार है। उससे कह कर इन्हें अपने सैक्शान में रखवा लेंगे।" आनंद ने मन ही मन लड्डू फोड़े।<br /> "कुछ भी हो यार", सतीश फिर दार्शनिक हो गया, "आदमी की भी क्या जिंदगी है, यही एन आर कल तक कितनी बड़ी तोप था। अच्छे-अच्छों को नकेल डाल रखी थी, आज कैसा निरीह सा पड़ा था मुझे ...."<br /> "मत याद दिला यार" आनंद ने तुरंत टोका, "मेरी आंखों से तो उसकी रोती हुई लड़कियों की तस्वीर ही नहीं मिटती। बेचारी लड़कियां, कभी जाएंगे उनके घर। अफसोस करने। पूछेंगे, हमारे लायक कोई काम हो तो .....।"<br /> "हां यार, जाना ही चाहिये। आखिर इन्सान ही इन्सान के काम आता है।" आनंद उससे पूरी तरह सहमत हो गया।<br /> तभी एक खाली ऑटो वहां से गुजरा। आनंद ने उसे रोका, बैठने के बाद सिटी की तरफ चलने के लिये कहा।<br /> "कल रात तू कितना जीता?" सतीश ऑटो में पसरते हुए बोला। <br /> "तीन सौ के करीब, लेकिन कोई खास फायदा नहीं हुआ, इस महीने कुल मिला कर घाटे में ही चल रहा हूँ।"<br /> "जो रकम तू हार चुका है, उसे गिन ही क्यों रहा है। वो तो वैसे ही तेरे हाथ से जा चुकी।" सतीश ने अपनी नरम गुदगुदी हथेलियों में उसका हाथ दबाया,"चल आज तेरी जीत ही सेलिब्रेट की जाये। सारा दिन कहीं तो गुजारना ही है।"<br /> "तेरे पास कितने हैं?" आनंद ने सतीश की जेब की थाह लेनी चाही। <br /> "होंगे सौ के आस-पास" सतीश ने लापरवाही जतायी।<br /> सिटी पहुंच कर दोनों मेन मार्केट की तरफ चले। बाजार की रौनक से आंखें सेंकते हुए। जब सतीश को कोई दर्शनीय चीज़ नज़र आ जाती तो वह आनंद का हाथ दबा देता। आनंद की निगाह पहले पड़ती तो वह सतीश को कोंच देता। काफी देर तक वे यूं ही मटरगश्ती करते रहे।<br /> तभी सड़क के किनारे बने एक पार्क के बाहर रेलिंग के सहारे खड़ी एक लड़की ने सतीश को आँख मारी। सतीश सकपका गया। दुनिया का आठवां आश्चर्य। आज तक तो यह काम वही करता रहा है। उसे आँख मारने वाली कौन सी अम्मा पैदा हो गयी। वह सांस लेना भूल गया। दोनों तब तक पाँच सात कदम आगे बढ़ चुके थे। सतीश ने हलके से मुड़ कर देखा, लड़की की निगाह अभी भी इस तरफ है। लड़की फिर मुस्कुरायी। सतीश ने तुरंत आनंद का हाथ दबाया," गुरु, रुक जरा। माल है। खुद बुला रही है।" <br /> आनंद ने शायद उसे देखा नहीं है। दोनों रुक गये। सतीश ने दिखाया, " वे रेलिंग के सहारे खड़ी है।"<br /> " हां यार, लगती तो चालू है। करें बात?" आनंद की धड़कन भी तेज हो गयी।<br /> "पर उसे दिन दहाड़े ले जायेंगे कहां?" सतीश ने आनंद की उंगलियां अपनी उंगलियों में फंसा लीं।<br /> " पहले देख तो लें। कैसी है? कितना मांगती है? जगह तो बाद में भी तय कर लेंगे। चल पास जाते हैं।"<br /> " तू जा, उससे बात कर।"<br /> " अबे पौने आठ, आंख उसने तुझे मारी है। आगे मुझे कर रहा है।" लड़की अभी भी खड़ी इन दोनों की हरकतें देख रही है। <br /> दोनों उससे थोड़ी दूर जा कर खड़े हो गये। आनंद ने सिगरेट सुलगा ली और सतीश खुद को व्यस्त दिखाने के लिए रेलिंग के सहारे जूते का तस्मा खोल कर बांधने लगा। <br /> लड़की ने दोनों की तरफ देखा और बेशरमी से मुस्कुरायी। सतीश ने उसे आँख के इशारे से बुलाया। लड़की तुरंत बगीचे के अंदर चली गयी और उसे अपने पीछे पीछे आने का इशारा किया। <br /> भीतर जा कर वह एक खाली बैंच पर बैठ गयी। दोनों उसी बैंच पर उससे हट कर बैठ गये। देखा, लड़की ठीक-ठाक है। उन्नीस बीस की उम्र। सस्ती साड़ी, प्लास्टिक की चप्पल, उलझे बाल। शायद कई दिन से नहायी भी न हो।<br /> " चलेगी?" आनंद ने कश लगाते हुए पूछा।<br /> " कित्ती देर के वास्ते?"<br /> " दिन भर के लिए" इस बार सतीश बोला। <br /> " जगा नहीं है अपुन के पास। तुमको इंतजाम करना पड़ेगा" लड़की ने स्पष्ट किया।<br /> " कर लेंगे, पहले तू पैसे बोल।"<br /> " दोनों के वास्ते सौ का पत्ता लगेगा, मंजूर हो तो बोलो।"<br /> " सौ ज्यादा है। कम कर" सतीश ने उसे नज़रों से तौला। <br /> " अस्सी दे देना और खाना खिला देना बस्स।" वह सतीश की आंखों में लपलपाती लौ देख कर बोली। <br /> " पचास मिलेंगे, चलना हो तो बोल" सतीश अपनी औकात पर आ गया। <br /> लड़की ने मना कर दिया, " पचास कम है। सत्तर दे देना।"<br /> दोनों उठ गये और गेट की तरफ बढ़ने लगे। सतीश आनंद से पूछना ही चाहता था कि सत्तर ठीक हैं क्या, इससे पहले ही लड़की इनके पीछे लपकी, "चलो सेठ।"<br /> सतीश मुस्कुराया। सौदा महंगा नहीं है। दिन भर के लिए दोनों के हिस्से में पच्चीस-पच्ची़स ही आयेंगे। आनंद से पूछा," गुरु, तय तो कर लिया। अब इसे ले जायें कहां? घर तो इस समय ले जा नहीं सकते। आज छुट्टी की वजह से पूरी कालोनी आबाद है। कोई भी चला आयेगा। होटल में ले जाने लायक यह है नहीं।"<br /> " तू ही तो मेरे पीछे पड़ गया था। अब ले भुगत।" दोनों को लगा, बेवक्त की दावत कुबूल कर बैठे हैं। लड़की अभी भी खड़ी इनके इशारे का इंतजार कर रही है। <br /> आनंद ने घड़ी देखी, साढ़े ग्या़रह, " चल, पिक्चर चलते हैं पहले। इस शो में हॉल खाली होते हैं। बाकी बाद में देखेंगे।" <br /> सतीश ने लड़की से कहा, " चलो, पहले फिल्म देखेंगे।"<br /> लड़की लाड़ से बोली, " पहले कुछ खिला दो सेठ, कल से एक कप चा भी नहीं पी है।"<br /> आनंद ने अहसान जताया, " चल पहले कुछ खा ले, नहीं तो चिल्लायेगी।" वे एक सस्ते़ से रेस्तरां की तरफ बढ़ गये। <br /> सिनेमा हॉल में बहुत भीड़ नहीं है। दोनों ने उसे अपने बीच वाली सीट पर बिठाया। अँधेरा होते ही दोनों चालू हो गये। दोनों को ही लगा, लड़की मजबूत है। वह भी खा पी कर मूड में आ गयी है। दोनों ने अपना एक एक हाथ उसके ब्लाउज में खोंस लिया। पसीने और मैल से उनके हाथ चिपचिपाने लगे। लेकिन वे लगे रहे। कभी सतीश उसे भींच लेता है तो कभी आनंद चूमने लगता है। अब उनके लिए हॉल में बैठना मुश्किल हो गया है। आस-पास बैठे लोग भी महसूस कर रहे हैं, असली फिल्म तो यहीं चल रही है। तभी धींगामुश्ती में लड़की का ब्लाउज चर्र से फट गया। लड़की जोर से चिल्ला पड़ी, "हाय, मेरा ब्लाउज फाड़ दिया।" दोनों सकपका गये। तेजी से अपने हाथ खींचे। उन्हें उम्मीद नहीं थी, वह इतनी जोर से बोल पड़ेगी। आस-पास वाले हँसने लगे और सीटियां बजाने लगे। दोनों खिसिया कर एकदम बाहर की तरफ लपके। लड़की को भी बाहर आना पड़ा। <br /> बाहर निकल कर दोनों बाथरूम में घुस गये। सतीश बोला, "यार, माल तो पटाखा है एकदम गर्म कर दिया साली ने। " <br /> "हां यार, अब अंदर तो नहीं बैठा जा रहा। क्या करें?"<br /> "एक तरीका है। ऑटो लेकर किले की तरफ निकल चलते हैं। वहां का रास्ता एकदम सुनसान है। घनी झाड़ियां भी हैं। वहीं चलते हैं।"<br /> " हां, यही ठीक रहेगा।"<br /> दोनों ने बाहर निकल कर लड़की को पीछे आने का इशारा किया। ऑटो तय करके उसमें बैठ गये और लड़की को बुला लिया। अभी ऑटो बाज़ार में ही था कि आनंद ने ड्राइवर को एक मिनट के लिए रुकने के लिए कहा। वह लपक कर गया। जब वापिस लौटा तो उसके हाथ में एक खाकी लिफ़ाफ़ा था। लिफाफे की शेप देखकर सतीश मुस्कुराया। लड़की दोनों के बीच दुबकी बैठी है। ब्लाउज ज्यानदा फट गया है उसका। साड़ी कस के लपेट रखी है उसने।<br /> किले वाली सड़क पर शहर से काफी दूर आ जाने के बाद उन्होंने आटो रुकवाया। बिल्कुल सुनसान जगह है यह। पहले आनंद ऑटो में बैठा रहा और सतीश लड़की को लेकर झाड़ियों के पीछे निकल गया। जाने से पहले उसने लिफाफे में ही 'हाफ' खोल कर गला तर कर लिया है। <br /> सतीश के आने तक आनंद घूँट भरता रहा और सिगरेटें फूँकता रहा। सतीश ने आते ही मुस्कुरा कर आनंद की तरफ देखा और उसका कंधा दबाया। अब सिगरेटें फूंकने की बारी सतीश की है। आटो ड्राइवर इतनी देर से इन सवारियों की हरकतें देख कर मुस्कुरा रहा है। सतीश के लौटने पर बेशर्मी से बोला, " साब मैं भी एक गोता लगा लूं गंगा में।"<br /> सतीश और आनंद ने एक दूसरे की तरफ देखा – यह तीसरा भागीदार कहां से पैदा हो गया। अब तक लड़की भी बाहर आ गयी है। <br /> अजीब स्थिति है। ड्राइवर को 'हां' कैसे कहें और अगर मना करते हैं तो एक तो वह इस मामले का राज़दार है और उन्हें वापिस भी जाना है। लफ़ड़ा कर सकता है। दोनों ने आंखों ही आंखों में इशारा किया। इसे भी हो आने देते हैं। अपना क्या जाता है। तभी सतीश बोला, " बीस रुपये लेगेंगे।" ड्राइवर ने एक पल सोचा, फिर बोला "चलेगा। "<br /> <br />सतीश लड़की को एक किनारे ले गया और उसे डरा दिया, " ड्राइवर धमकी दे रहा है। उसे भी निपटा दे। नहीं तो वापिस नहीं ले जायेगा। जा। चली जा। यहां और कोई ऑटो भी नहीं मिलेगा।" लड़की सचमुच डर गयी है। वह झाड़ियों की तरफ लौट गयी। ड्राइवर उसके पीछे लपका। उनके जाने के बाद सतीश ने कुटिलता से मुस्कुरा कर आनंद की तरफ देखा, " कैसी थी?"<br /> " साली गंदी थी, लेकिन थी जोरदार। तुझे कैसी लगी?"<br /> "वाह गुरु, मेरा पसंद किया हुआ माल और मुझी से पूछ रहा है, कैसी थी।"<br /> वह हंसने लगा, "बहुत दिनों बाद ऐसी चीज़ मिली है। लगता है, ज्यादा दिनों से धंधे में नहीं है।" उसने कयास भिड़ाया। " अब क्या करें, सिर्फ ढाई बजे हैं अभी।" आनंद को अब कोई मलाल नहीं है। " चल किले तक हो कर आते हैं। वहीं देखेंगे।"<br /> " इसे रात को भी रखना है क्या?"<br /> " वो तो यार, बाद की बात है। पहले यह तो तय हो, अब इसका क्या करना है। अभी पाँच मिनट में झाड़ियों से कपड़े झाड़ती निकल आयेगी हमारी अम्मा।" <br /> आनंद ने दाँत दिखाये, " अभी से तो अम्मा मत बना यार उसे, अभी तो दूध पीती बच्ची है। कुंवारी कली।" सतीश ने टहोका मारा।<br /> "अबे लण्डूरे, अभी खुद ही तो उसका दूध पी के आ रहा है और कहता है, दूध पीती बच्ची है। आनंद ने धक्का मारा, "पता नहीं तेरे जैसे कितने बिगड़े बच्चों को दूध पिला चुकी है।"<br /> तभी ड्राइवर कपड़े झाड़ता हुआ बाहर आया। उसका चेहरा चमक रहा है। तब तक लड़की भी बाहर आ गयी है। एकदम पस्त। साड़ी के भीतर से उसका फटा हुआ ब्लाउज और गुलाबी गोलाई नजर आ रहे हैं। ड्राईवर ने अपनी सीट पर जमते हुए पूछा," अब कहां चलना है साहब?" <br /> " किले की तरफ ले चलो।" सतीश ने आदेश दिया। अब उसके सामने तकल्लुफ करने की गुंजाइश नहीं है। आनंद ने लड़की के गले में बांह डाल कर उसे भींच लिया और चूमते हुए बोला, " थक गयी है क्या जाने मन।" लड़की ने सिर हिलाया," नहीं तो।"<br /> सतीश उसकी जांघ पर हाथ फेरता हुआ बोला, "तूने अपना नाम तो बताया ही नहीं, क्या नाम है तेरा?"<br /> लड़की अपना मुंह सतीश के कान के पास ले जा कर फुसफुसायी "चमेली।"<br /> "बदन से तो तेरे बदबू आ रही है और नाम चमेली है।" सतीश उसके सीने पर हाथ मारता हुआ हँसने लगा, "हम तुझे चंदरकला कह कर बुलायेंगे। चलेगा न।"<br /> यह सतीश की पुरानी आदत है। वह हर किराये की लड़की को इसी नाम से पुकारता है। वह चंद्रकला नहीं कह पाता। किले पर पहुंच कर उन्होंने ऑटो छोड़ दिया। ड्राइवर को पैसे देते समय सतीश ने बीस रुपये काट लिये। लड़की को ले कर पहले दोनों किले के भीतर घूमते रहे। उसके साथ मस्ती करते रहे। फिर किले के पिछवाड़े की तरफ निकल गये। यह जगह एकदम सुनसान है। चलते-चलते वे काफी दूर जा पहुंचे, जहां बहुत बड़े-बड़े पत्थर हैं। यह जगह सुरक्षित लगी उन्हें। वे पत्थरों के पीछे उतर गये। <br /> आनंद वहीं एक पत्थेर से टिक कर लेट गया और लड़की को अपने पास बिठा लिया। सतीश घास पर लेट गया। लेटे लेटे वह ऊंचे सुर में गाने लगा। अचानक वह उठा और लड़की से बोला," चल चंदरकला, अब तू एक गाना सुना। "<br /> " मुझे गाना नहीं आता।" वह इतराते हुए बोली।<br /> " आता कैसे नहीं, धंधेवालियों को गाना, नाचना सब कुछ आना चाहिए। चल गाना सुना।"<br /> लड़की गाने लगी। उसे सचमुच गाना नहीं आता। यूं ही रेंकती रही थोड़ी देर। सतीश और आनंद ताली बजाने लगे। उसकी हिम्मत बढ़ी। उसने और जोर से अलापना शुरू कर दिया, लेकिन जल्दी ही हांफ गयी। आनंद ने सिगरेट निकाली तो लड़की बोली, "एक मुझे भी दो।" आनंद ने डिब्बी माचिस उसी को दे दी और कहा, "ले खुद भी पी और हमें भी पिला।" लड़की ने बारी बारी से दोनों के मुंह में सिगरेट लगा कर सुलगा दी। खुद भी पीने लगी। <br />" सिगरेट ही पीती है या शराब भी?" सतीश ने धुंआ छोड़ते हुए पूछा।<br />लड़की ने आनंद के पास रखे हॉफ की तरफ देखा और सतीश की नाक पकड़कर बोली, " कोई पिला दे तो पी लेती हूँ।"<br /> सतीश ने उसे पकड़कर अपने पास बिठा लिया और बोतल उसे दे दी, " ले मेरी जान, जितनी चाहे पी पिला।"<br /> लड़की ने तीन-चार घूँट खींचे। फिर बोतल सतीश के मुंह से लगा दी। सतीश को अचानक खांसी आ गयी तो लड़की जोर-जोर से हंसने लगी। तभी सतीश बोला, " चल नाच के दिखा।"<br />वह नखरे करने लगी। सतीश ने उसे पकड़ कर खड़ा कर दिया और उसे जबरदस्ती नचाने लगा। आनंद भी उठ बैठा। दोनों ताली बजाने गाने लगे। लड़की हाथ पैर मारने लगी। उसे नशा होने लगा है। आनंद चिल्लाया, "ऐसे नहीं, ढंग से नाच। जरा तेज कदम उठा।<br /> लड़की अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रही है, लेकिन नाचना उसके बस की बात नहीं है। तभी सतीश लड़की के पास आया और उसकी साड़ी खोलने लगा। लड़की एकदम रुक गयी और उसे मना करने लगी। सतीश ने पुचकारा, "चंदरकला डार्लिंग, कपड़े उतार कर नाच। खूब मजा आयेगा।" <br />लड़की एकदम बिफर गयी, " मैं नंगी नहीं नाचूंगी।" सतीश ने कस के उसके बाल पकड़ लिए, "साली प्यार से मना रहा हूँ नाच, फिर भी नखरे कर रही है।" लड़की बिगड़ गयी है, " देखो सेठ, खाली धंधे के वास्ते मैं आई इधर। फालतू परेशान नईं करने का। एक तो इत्ता कम पइसा दे रये और उप्पर से लफड़ करने कू मांगते।" उसने अपनी साड़ी कस के पकड़ ली और सतीश का हाथ झटक रही है। उसके बाल भी भी सतीश के हाथ में हैं। <br />तभी आनंद ने लपक कर उसे सतीश की पकड़ से छुड़वाया। प्यार से थपथपाते हुए उसे दस का नोट देते हुए बोला, " ले ये नाचने के पैसे अलग से ले। अब तो नाच।" लड़की अभी भी गुस्से में है। दस का नोट हाथ में लिए तय नहीं कर पा रही, क्या। करे।<br /> आनंद ने फिर पुचकारा, " यहां कोई नहीं आयेगा। और फिर हम से क्या शरम?"<br />लड़की अब कातर निगाहों से दोनों की तरफ देख रही है। इससे पहले कि सतीश दोबारा उसके बाल पकड़ने के लिए आगे बढ़े, उसने कपड़े उतारने शुरू कर दिये। पैसे आनंद को पकड़ा दिया, "बाद में दे देना।"<br /> दोनों पत्थरों पर बैठ गये और फिर से गाने लगे। सतीश ने बची खुची शराब भी उसे पिला दी। दोनों देर तक शोर मचाते रहे। सतीश फिर उठ कर उसके साथ लचकने लगा। कभी उसे गोल-गोल घुमाने लगता तो कभी उसे ऊपर उठाने की कोशिश करता, लेकिन उसका वज़न संभाल न पाता। थोड़ी देर बाद वह खुद तो थक कर बैठ गया, लेकिन उसने लड़की को बैठने नहीं दिया। लड़की नाच-नाच कर बेदम हुई जा रही है। इधर दोनों चिल्लाये जा रहे हैं - "और तेज नाच ... और मटक ... और उछल ... और जोर लगा के ....।" <br />आखिर लड़की एकदम निढाल हो कर पड़ गयी। वह पसीना-पसीना हो रही है। काफी देर तक यूं ही लेटी रही। आनंद ने एक सिगरेट सुलगायी और उसके होठों से लगा दी।<br /> " थक गयी है क्या? " वह पसीने से चिपचिपाते उसके बदन पर हाथ फेरता हुआ बोला। लड़की ने आंखें खोले बिना सिर हिलाया - हां। आनंद ने लड़की को अपनी गोद में बिठा लिया और प्यार करने लगा। थोड़ी ही देर में वह उसे लेकर पत्थरों की ओट में चला गया। वापिस आने के बाद आंनद ने सतीश से पूछा, "जाता है क्या उसके पास? अभी वहीं है।" सतीश मुस्कुराते हुए उठा और बोला, " जैसी आज्ञा महाराज – और धीरे-धीरे जाता हुआ पत्थरों के पीछे गुम हो गया। उसे गये हुए अभी थोड़ी ही देर हुई है कि लड़की के चीखने चिल्लाने की आवाजें आने लगी। आनंद लेटा रहा। तभी लड़की नंगी भागती हुई आनंद के पास आयी और बड़बड़ाने लगी, " मुझे पता होता, एइसा गलीच आदमी है ये तो मैं आतीच नई। बिलकुल हैवान है। कित्ता परेशान करता है।" उधर सतीश के चीखने की आवाजें आ रही हैं। " इधर आ ओ चंदरकला, एक बार आ तो सही।" आनंद मुस्कुराया। तो सतीश आज फिर छोटी लाइन पर गाड़ी चलाना चाहता है या और कोई मांग रख बैठा है। उसे अच्छी तरह पता है, हर लड़की इस तरह के कामों के लिए आसानी से तैयार नहीं होती, फिर भी बाज नहीं आता वह। वह अभी भी चिल्ला रहा है, "आनंद जरा भेजना चंदरकला को। उससे कह, अब बिल्कुल तंग नहीं करूंगा।" लड़की ने कपड़े पहनने शुरू कर दिये हैं। वह अभी भी बोले जा रही है - पहले मेरा ब्लाउज फाड़ा, फिर कपड़े उतारे अब गलत-सलत करने को बोलता हैं, छी: एकदम जानवर की माफिक है तुम्हारा सेठ। लाओ, एक सिगरेट दो। साला मूड खराब कर दिया हलकट ने।"<br />आनंद ने उसे सिगरेट दी और सतीश के पास जाने के लिए कहा। अब वह किसी कीमत पर जाने के लिए राज़ी नहीं है। सतीश अभी भी आवाजें दिय जा रहा है। आनंद ने बड़ी मुश्किल से लड़की को सतीश के पास इस शर्त पर भेजा कि अब अगर वह जरा भी गलत हरकत करे तो फिर कभी मत जाना उसके पास। वह राजी नहीं है। बड़ी मुश्किल से गयी। एक तरह से ठेल कर भेजा आनंद ने। <br />तीनों जब किले से बाहर निकले तो धुंधलका हो रहा है। चाय पीते-पीते उन्होंने सात बजा दिये। वापिस चलने से पहले सतीश ने आनंद से पूछा, "रात भर रखने के बारे में क्या ख्याल है? " <br />आनंद ने कहा, "पहले इसे पूछते हैं, जाती भी है या नहीं। लड़की ने साफ मना कर दिया, "नई जाना मेरे कू। कित्ता हैरान किये तुम लोग। मेरा हिसाब कर देवो और वहीं छोड़ देना मुजे।" सतीश ने पुचकारा, "नाराज नहीं होते जाने मन। चल तुझे बढ़िया खाना खिलायेंगे और दारू भी पिलाएंगे।" लगता है, अभी उसका मन नहीं भरा।<br />दारू और खाने की बात सुन कर लड़की सोच में पड़ गयी है। कुछ सोच कर बोली, "पर मेरे कू फिर परेशान किया तो? <br />"नहीं करेंगे, बस कहा ना।" आनंद ने दिलासा दिलाया। <br />" रात का पूरा सौ का पत्ता लगेगा। एक पैसा कमती नई।" लड़की ने फैसला कर लिया। सतीश ने फिर पचास से शुरू किया। आखिर सौदा एक सौ तीस में पटा। दिन के मिला कर। दस उसे अलग से मिले हैं। <br /> आनंद ने ऑटो तय किया और कालोनी तक चलने के लिए कहा। आनंद ने पूछा, "ले जायेंगे कैसे?" <br />सतीश मुस्कुराया, " वही अपना ऑपरेशन बुरका।" <br />यह उनकी आजमायी हुई और सफल तरकीब है। जब भी रात को लड़की लानी होती है, लड़की तय कर लेने के बाद दोनों में से एक लड़की के साथ अंधेरे में इंतजार करता है और दूसरा असग़र को लेने चला जाता है। वह इनका खास दोस्त और कभी-कभी का पार्टनर है। वह अख़बार में लपेट कर अपनी बीवी का बुरका ले आता है। बुरके में लड़की सबके साथ घर के अंदर सुरक्षित पहुंच जाती है। बाद में बुरका पहन कर आनंद या सतीश असग़र के साथ कुछ दूर तक चला जाता है। लड़की सुबह जल्दी ही बाहर कर दी जाती है। <br />सारा रास्ता लड़की सतीश से नाराज बैठी रही। सतीश ने दो-चार बार छेड़खानी करने की कोशिश की। लेकिन वह ऊंघती बैठी रही। <br />आपरेशन बुरका शुरू होते ही सतीश खाना और शराब लेने बाजार की तरफ निकल गया। आनंद असग़र और लड़की को लेकर चला।<br />दोनों ने असग़र से बहुत कहा, आज की दावत में शरीक होने के लिए। लेकिन असग़र ने आँख दबा कर मना कर दिया, "आज नहीं।" अलबत्ता जल्दी-जल्दी उसने एक दो पैग गले से नीचे उतार लिये।<br />सतीश बुरका ओढ़े जब असग़र को छोड़ने गया तो आनंद ने लड़की को साबुन न दे कर नहाने के लिए कहा। उसने घर के दरवाजे खिड़कियां बंद कर दिये। बत्ति्यां बुझा दीं। सिर्फ टेबल लैम्प लगा कर जमीन पर रख दिया। दरियां बिछा कर खाना भी जमीन पर लगा दिया। नहाने के बाद तीनों खाने-पीने बैठे। <br />लड़की अब बिल्कुल खामोश है। दोनों की हरकतों, शरारतों का कोई जवाब नहीं दे रहीं। जो भी गोद में बिठाता है, बैठ जाती है। जूठा खाते-खिलाते हैं, खा लेती है। धीरे-धीरे उसे नशा होने लगा है। वह लुढ़कने लगी है। बहकने लगी है। इन दोनों को भी चढ़ गयी है। नशे में इन्हें लड़की बहुत सुंदर लगने लगी है। दोनों उसकी तारीफ किये जा रहे हैं।<br /> बत्ती बंद करते लड़की को इतना होश जरूर है कि उसने पूरे पैसे ले लिये और तीन-चार बार गिन कर अपने कपड़ों में छुपा कर लिए।<br /> वे कब सोये, उन्हें पता ही नहीं चला। अचानक रात को नशा टूटने पर सतीश की नींद खुली। उसने घड़ी देखी, साढ़े तीन। आनंद और लड़की बेसुध सोये पड़े हैं। सतीश उठा और उसने झिंझोड़ कर लड़की को जगाया, " उठ, उठ चंदरकला, जल्दी कर।" <br />लड़की अभी पूरी तरह नींद में है। वह कुनमुनायी और फिर सो गई। सतीश ने उसे फिर झिंझोड़ा, लड़की आंखें मलते हुए उठी और पूछा, "क्या है सेठ", सतीश दबे स्वर में बोला, " फटाफट कपड़े पहन और फूट ले।" लड़की नशे और नींद की वजह से बैठ भी नहीं पा रही। वह फिर लेट गयी। सतीश ने फिर झिंझोड़ा उसे और एकदम खड़ा कर दिया। लड़की समझ नहीं पायी, यह क्या हो रहा है। उसने सतीश का हाथ पकड़ कर उसकी घड़ी में वक्त देखा। वह परेशान हो गयी है। आधी रात को सात-आठ किलोमीटर कैसे जायेगी। सतीश अभी भी हड़बड़ा रहा है, " जल्दी कर, जल्दी कर," उसने सतीश से थोड़ी देर और रुकने देने के लिए कहा, लेकिन सतीश ने उसका हाथ पकड़कर उसके कपड़े पैसे उसे थमा दिये और उसे नंगी ही दरवाजे से बाहर कर दिया। उसकी चप्पलें उठा कर बाहर फेंक दीं। लड़की को झटका लगा, यह हो क्या रहा है। कुछ समझ नहीं पायी वह। आखिर बोली," जाती हूँ सेठ, ऑटो के लिए पन्द्रह-बीस रुपये तो दे दो।" सतीश भुनभुनाया, "नहीं, नहीं अब एक पैसा भी नहीं मिलेगा। चल फूट। " <br />लड़की अभी भी आधी नींद में, कुछ और पैसों की उम्मीद में दरवाजे पर खड़ी है। सतीश ने फिर डपटा, " जाती है या नहीं।" <br />" कुछ तो और दे दो।"<br />सतीश ने जवाब में उसे कस के एक लात जमायी और भड़ाक से दरवाजा बंद कर दिया।सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-18622428910976021152008-12-30T11:33:00.002+05:302008-12-30T11:36:09.381+05:30मेरी चौबीसवीं कहानी - मर्द नहीं रोतेमित्रो <br />मेरी चौबीसवीं कहानी - मर्द नहीं रोते का आनंद लीजिये इस लिंक पर<br /> http://www.sahityashilpi.com/<br /><br />सूरज प्रकाशसूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-54238367602914298402008-12-17T09:32:00.002+05:302008-12-17T10:02:10.774+05:30बाजीगर - तेईसवीं कहानीबाजीगर <br /><br />खबर हाथों हाथ पूरे दफ्तर में फैल गयी है। सभी लपक रहे हैं उस तरफ। जो भी सुनता है, चार को सुनाता है, फिर कानों सुनी को आंखिन देखी करने के लिए टीले की तरफ बढ़ जाता है। जो लोग उस तरफ से आ रहे हैं, ऐसे बतिया रहे हैं, हो-हो कर रहे हैं, मानो संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य देखकर आ रहे हों। उस तरफ जाने वालों को बता भी रहे हैं, ‘जाओ भइया, तुम भी दर्शन कर आओ शिवजी महाराज के। एकदम फोकट में।’ महिलाओं तक भी खबर पहुंच गयी है। वे भी आपस में खुसर-पुसर करके खी-खी कर रही हैं। सब अच्छी तरह जानते हैं शिलाकांत जी कोई भी अनहोनी कर सकते हैं। करते भी रहते हैं। आये दिन सारा दफ्तर उनसे परेशान है, फिर भी उसकी इन हरकतों से मजे भी लेते रहते हैं। लेकिन उनकी अभी थोड़ी देर पहले की हरकत की खबर से तो लोगों को बहुत मजा आ रहा है, तभी तो टीले के नीचे सभी सैक्श़नों के चपरासी, बाबू लोग जमा हो गये हैं और हो-हो कर रहे हैं, उनसे और पंगे ले रहे हैं। <br /> दफ्तर की मुख्य इमारत से कोई दो सौ गज दूर मोटर गैराज के पिछवाड़े एक ऊँचे टीले पर श्रीमान शिलाकांत, पीऊन अटैच्ड टू जनरल सैक्शन अलफ नंगे खड़े हैं। उनकी मैली वर्दी, फटी बनियान और धारीदार जांघिया आसपास बिखरे पड़े हैं। उनकी छ: फुट लम्बी, हट्टी-कट्टी बेडौल नंगी काया बहुत अजीब लग रही है। श्रीमान जी अपने पोपले श्रीमुख से मैनेजमेंट के खिलाफ धुंआधार गालियां प्रसारित कर रहे हैं, ‘अपने आपको समझते क्या हैं साले! हमसे बदमासी करेंगे! लें, कर ले बदमासी!’ वे अपने अंग विशेष को एक हाथ से झटका देते हैं ‘लें, लें, कर लें बदमासी। हम भी देखें उनकी . .. . में केतना दम हय। हमरी बदमासी देखेंगे तो होस ठिकाने आ जायेंगे भडुओं के! ससुरे जब से हमरे पीछे पड़े हैं। कहते है मीमो देंगे, चारसीट देंगे, सस्पेंन कर देंगे। अरे तुमने असली माई का दूध पीया हो तो आओ और चिपकाय देव हमरे पीछे मीमो सीमो।’’ वे अब अपने पिछले हिस्से को दो-तीन झटके देते हैं। लोग उनकी हरकतों पर खूब हंस रहे हैं और हो-हो करके उन्हें और उकसा रहे हैं। आज पहली बार और वह भी भरे-पूरे आफिस में शिलाकांत ने सबको अपना खुल्ला खेल दिखा दिया है फोकट में। <br /> वैसे वे गाहे-बगाहे अपनी नयी-नयी हरकतों से सबका मान-अपमान करते करते ही रहते हैं, लेकिन उन्होंने मर्यादा की सारी सीमाएं एक साथ कभी नही लांघी थीं। बहुत हुआ तो किसी को मां-बहन की रसीली गालियां सुना दीं, गुस्से में सैक्शन में ही अपनी धोती उठा दी या ऐसा ही कुछ हंगामा। इससे आगे वे कभी नहीं बढ़े थे।<br />आज के उनके इस पब्लिक शो के पीछे क्या कारण हैं, वहां खड़े लोगों में से किसी को नहीं मालूम। सब अपने-अपने कयास भिड़ा रहे हैं। थोड़ी देर पहले कोई बता रहा था कि बड़े बाबू ने जब उनसे उनकी पिछली तीन-चार गैर-हाजरियों की छुट्टी की अर्जी मांगी तो जनाब उखड़ गये। पहले वहीं गाली-गलौज करते रहे। जब बड़े बाबू ने मीमो देने और बड़े साहब के सामने पेशी करने की धमकी दी तो महाशय यहां आकर नटराज नृत्य करने लगे। अभी इसी खबर को विश्वसनीय माना जा ही रहा था और प्रचारित भी किया जा रहा था कि जनरल सैक्श़न का कोई चपरासी इसका खण्डन करते हुए एक और शगूफा छोड़ गया है। उसके अनुसार रिजर्व कोटे के नये यू.डी.सी. मुसद्दी लाल ने जब शिलाकांत को एक गिलास पानी लाने के लिए कहा तो बताते हैं इन्होंने ऊंच-नीच बोलना शुरू कर दिया। नौबत हाथापाई तक आने को थी कि शिलाकांत बिफर गये और यहां चले आये। इस कहानी को भी मानने न मानने की दुविधा से अभी भीड़ उबरी नहीं थी कि डिस्पैच क्लर्क अपने यारों के साथ इस तरफ खैनी खाते हुए मजा लेने की नीयत से चले आये और पहले की कहानियों को चन्डूखाने की निर्मिति बताते हुए एक नया ही किस्सा छेड़ने लगे। उनके अनुसार आज के इस अद्भुत सीन के निर्माता, निर्देशक वे खुद हैं। वे बड़े गर्व से बता रहे हैं कि उन्हीं से हुई नोंक-झोंक का नतीजा है कि सबको शिलाकांत का यह गीत-संगीत और नृत्य का कार्यक्रम देखने को मिल रहा है। सब उनके आस-पास जुट आये हैं, सच्ची बात जानने के लिए। <br /> उनके अनुसार, पिछले दिनों शिलाकांत के खिलाफ दो-तीन मामलों में अलग-अलग विभागीय जांच की गयी थीं। एक मामला बिना पूर्व अनुमति के अलग-अलग मौकों पर छुट्टी लेने और बाद में भी अर्जी न देने का, दूसरा मामला तृतीय श्रेणी के अपने से वरिष्ठ कर्मचारी से दुर्व्यवहार और गाली-गलौज का तथा तीसरा मामला उनके खिलाफ कार्यालय का अनुशासन और कायदे-कानून न मानने के बारे में था। दो मामले सिद्ध हो गये थे और तीसरे में उन्हें चार्जशीट दी जानी थी। इन तीनों मामलों के गोपनीय पत्र लेने से वे कब से इनकार कर रहे थे। बिल्कुल हाथ नहीं धरने देते थे। बकौल डिस्पैच क्लर्क के, आज भी जब शिलाकांत ने ये पत्र प्राप्त करने और डाकबुक में हस्ताक्षर करने से आनाकानी की, तो पहले बड़े बाबू और फिर अधीक्षक साहब से शिकायत की गयी। अधीक्षक महोदय ने सुझाया कि ये पत्र उन्हें सबके सामने थमा दिये जायें और यह बात डाक बुक में दर्ज कर ली जाये। डिलीवरी पीऊन ने ज्यों ही शिलाकांत की जेब में ये लिफाफे जबरदस्ती ठूंसने चाहे, वे एकदम भड़क गये, गालियों पर उतर आये। जब बड़े बाबू ने डांटा और कमरे से बाहर निकल जाने के लिए कहा, तो जनाब यहां आकर यह नाटक करने लगे। <br /> वहां जुटे सब कर्मचारियों को डिस्पैच क्लर्क की बात में वजन लगा। सबको पता था, आये दिन उसके खिलाफ कोई न कोई विभागीय जांच चलती ही रहती है। चिटि्ठयां लेने से इनकार करने का मामला भी कोई नया नहीं था। सबका ध्यान फिर शिलाकांत की तरफ चला गया था। वे फिर से शुरू हो गये थे, ‘सब साले चोर भरती हो गये हैं, कोई काम नहीं करना चाहता। सबसे सीनियर और बुजुर्ग आदमी को इस तरह लतियाया जाता है। मेरा धरम भ्रष्ट करना चाहते हैं सरऊ। मुझे भंगियों को पानी पिलाने की ड्यूटी दी जाती है। मैं विरोध करता हूं, आवाज उठाता हूं तो मीमो-सीमो की धमकी दी जाती है। मैं भी देख लूंगा सब हराम के जनों को। एक-एक का कच्चा चिट्ठा जानता हूं, खोल दूं तो भडुवों को लुगाइयन के पेटीकोट में मुंह छिपाना पड़े।’ सब जोर-जोर से हंसने लगे। शिलाकांत को और ताव आ गया। उनकी आवाज और ऊंची हो गयी और गालियों में एकदम नंगापन आ गया। वे सविस्तार अफसरों और उनके चमचों के झूठे-सच्चे किस्से बखानने लगे। <br /> शिलाकांत भी एक ही जीव हैं। पचास के होने को आये, तीस साल की नौकरी हो गयी, कब से नाना-दादा बने हुए हैं, लेकिन चीजों के प्रति उनका नजरिया बच्चों से भी गया-गुजरा है। आजकल उनकी जिन्दगी का एक ही मकसद हो गया है—हर चीज का विरोध करना। उन्हें उनके प्रति लिये गये हर निर्णय में षड्यन्त्र की बू आती है। उन्हें लगता है, पूरी दुनिया में वे अकेले सही आदमी हैं और बाकी सब जटिल, गंवार, अनपढ़। इस खुशफहमी के बावजूद वे हद दर्जे के कामचोर, मुंहफट और कूड़मगज चपरासी के रूप में विख्यात हैं। कोई सैक्शन उन्हें लेने को तैयार नहीं होता। हर सैक्शन बिना चपरासी के गुजारा करने को तैयार है लेकिन शिलाकांत के रूप में आदमकद मुसीबत किसी को भी नहीं चाहिए। यही वजह है कि बार-बार जनरल सैक्शन से धकियाये जाने के बावजूद वे उसी सैक्शन के गले का हार बने रहते हैं। <br /> यदि उन्हें आसान ड्यूटी दी जाती है तो यह उन्हें अपनी वरिष्ठता का अपमान लगता है, मुश्किल ड्यूटी को वे बुढ़ापे में अपने शोषण के रूप में लेते हैं। किसी भी जवाब तलब को वे अपना अपमान मानते हैं और यदि उन्हें कोई पूछता नहीं, तो वे यह मान लेते हैं कि उन्हें इग्नोर किया जा रहा है, इसे वे किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करते। उन्हें किसी से भी ऊंचा बोलने, गाली देने, काम करने से इनकार कर देने के सारे अधिकार हैं। लेकिन उनसे कोई ऐसी हरकत करे तो वे इस तरह के नाटक करने लगते हैं। छुट्टी की अर्जी न देना, घंटों गायब रहना, कैंटीन में हंगामे करना, दफ्तर द्वारा दी गयी वर्दी में छोटे-मोटे नुक्स निकालना उनके मौलिक अधिकार हैं। मैनेजमेंट द्वारा जवाब-तलब किये जाने को वे अपने मौलिक अधिकारों का हनन मानते हैं।<br /> उनके विरोध के तरीके भी अजीब हैं। कभी घंटों बड़बड़ाते रहेंगे, सिर पर खड़े होकर, कभी अपनी शिकायत को पोस्टर के आकार में उलटी-सीधी भाषा में लिखकर नोटिस बोर्ड पर चिपका आयेंगे, कभी तंग करनेवाले अधिकार/कर्मचारी के इतने कान खायेंगे कि उसी को माफी मांगने पर मजबूर कर देंगे। अपने अकेले के बलबूते पर अफसरों के खिलाफ नारेबाजी करने का सौभाग्य भी उन्हें ही प्राप्त है। <br />हां, एक बात है, वे न कभी गिड़गिड़ाते हैं और न ही हाथ-पांव पकड़ कर माफी मांगते हैं। उनका कहना है कि वे जब कोई गलती ही नहीं करते, तो माफी किस बात की मांगें। <br />लेकिन शिलाकांत हमेशा से ऐसे नहीं थे। एक वक्त़ था जब उन्हें पूरे आफिस का सबसे बेहतरीन चपरासी समझा जाता था। एकदम चुस्त, मुस्तै्द। कोई भी काम करने के लिए एकदम तैयार। क्या मजाल जो किसी से ऊंची आवाज में बात करें। उन दिनों उन्हें जिस भी सैक्शन में या जिस अधिकारी के साथ रखा जाता, वे अपने मृदु स्वभाव और आज्ञापालन की मिसाल कायम करते थे। वे थे भी युवा और नौकरी में नये-नये आये थे। <br /> तभी तो उनकी ईमानदारी और मेहनत से खुश होकर एक बार बड़े साहब ने उन्हें कोठी की ड्यूटी पर लगा दिया था। काम था घर के छोटे-मोटे काम कर देना और मेमसाहब की मदद करना। पता नहीं इस बात में कहां तक सच्चाई है पर तब कहने वाले यही कहते थे कि साहब के घर पर काम करते-करते उनकी जीभ मेमसाहब की जवानी देखकर ही लपलपाने लगी थी, शायद मेमसाहब को भी कुछ शक हो गया था कि शिलाकांत छुप-छप कर उन्हें नहाते हुए या कपड़े बदलते हुए देखते रहते हैं। ऊपर से भोलेनाथ बने रहने के बावजूद वे अपनी नजरों का खोट नहीं छुपा पाये थे और वहां से तुरन्त हटा दिये गये थे। लेकिन उनके बारे में इसके ठीक उलटी कहानी भी कही जाती रही। वह यह कि मेमसाहब खुद ही उनकी जवानी और कदकाठी पर मोहित हो गयी थीं और उनसे घर के कामकाज करवाने के बजाय अपने हाथ-गोड़ दबवाने लगी थीं। वे इससे भी आगे बढ़ पातीं या शिलाकांत को आगे बढ़ने के लिये आमन्त्रित कर पातीं शिलाकांत खुद ही बिफर गये थे ‘हम यहां बीबियन की मालिस करने की पगार नहीं पाते हैं,’ उन्होंने आफिस में बड़े बाबू से कह दिया था, ‘हमें आफिस में काम करने की पगार मिलती है, हम यहीं काम करेंगे। बहुत कुरेद-कुरेद कर पूछ कर लोगों ने भीतर की बात जाननी चाही थी पर वे टस से मस नहीं हुए थे। इस पूरे प्रकरण पर एकदम चुप्प हो गये थे। आज बीस-पच्चीस साल बीत जाने पर भी सच्चाई किसी को मालूम नहीं है। <br /> शिलाकांत की तीन पत्नियां हैं। दो गांव में और एक यहां पर लोकल। गांव की दोनों शादियों से उन्हें सात बच्चे हैं, पांच लड़कियां, दो लड़के। यहां वाली से तीन बच्चे हैं, दो बच्चे उसकी पहली शादी के हैं। वह साथ लायी थी। एक शिलाकांत से हुआ। सबको पता है उनकी तीनों शादियों के बारे में, लेकिन ऑफिस में उनकी एक ही शादी और उससे पांच बच्चे दर्ज हैं। गांव वाली बीवियों, बच्चों को वे यहां कभी नहीं लाये। खुद हर साल एक बार महीने भर के लिए घर जाते हैं, कभी किसी बच्चें का गौना कर आते हैं, तो कभी ब्याह। खेती-बाड़ी के सारे मामले वे उसी महीने में निपटा आते हैं। सुना है पहले काफी खेती थी उनकी, उसी में और शिलाकांत के भेजे थोड़े-बहुत पैसों से गुजर हो जाया करती थी। इधर बच्चों के बड़े हो जाने और ब्याह वगैरह हो जाने के बाद काफी जमीन हाथ से निकल चुकी है। कुछ जमीन भाई लोगों ने दबा ली है।<br /> पहले उनके घर से हफ्ते में तीन-चार चिटि्ठयां आया करती थीं। सबकी सब बैरंग, वे ही हर बार पैसे देकर छुड़ाते। सारी चिटि्ठयां बैरंग आने के पीछे दो वजहें थीं, पहली तो यह कि उनकी बीवियों, बच्चों, भाइयों में से किसी का भी आपस में जरा सा झगड़ा, तू-तू, मैं-मैं हुई नहीं कि बच्चों की कापी से पन्ना फाड़ा, खुद लिखना आता है तो ठीक वरना किसी बच्चे़ को घेर-घार कर शिकायत लिखवायी, गोंद या चावल के माड़ से चिपकायी और डाल दी लाल डिब्बे में। घर पर पैसे, पोस्टकार्ड न भी हो तो परवाह नहीं, पाती तो पहुंचेगी ही बाबा के पास। कर्इ बार तो ऐसा होता कि झगड़ा करने वाली दोनों पार्टियों के खत उन्हें एक ही डाक से मिलते। इससे उन्हें झगड़े की पूरी बात दोनों पक्षों से पढ़ने को मिल जाती और उन्हें यह फैसला करने में कतई दिक्कत नहीं होती कि अगली बार उन्हें खत में क्या लिखना है।<br /> आठवीं पास हैं शिलाकांत। अपनी चिट्ठी पत्री खुद ही करते हैं। बैरंग चिटि्ठयां पाने में शिलाकांत को बेशक गांठ से काफी पैसे ढीले करने पड़ते लेकिन वे इसका बुरा नहीं मानते थे। वे दो तर्क देते, एक तो चिट्ठी वक्त पर मिलती है, उन्हें ही मिलती है, सलामत मिलती है और डाकिया खुद उन्हें ढूंढ़ कर देता है और दूसरे वे यह मानते कि घर-बार के लोगों को जब तक तुरन्त और मुफ्त में उन तक शिकायत पहुंचाने का अवसर मिलता रहे, तभी तक बेहतर। वे लिख कर अपना बोझ हलका कर लेते हैं तो उन्हें इस सुख से क्यों वंचित रखा जाये। <br />लेकिन उनकी यह सुखद स्थिति ज्यादा अरसा नहीं चल पायी थी। तीन-तीन बीवियां, दस बच्चे, मामूली-सा वेतन उनकी मानसिक और आर्थिक हालत डांवाडोल होने लगी थी, इसका असर उनके कामकाज और व्यवहार पर नजर आने लगा। हर समय चिड़चिड़ाये बैठे रहते। कभी जबान भी न खोलने वाले शिलाकांत लोगों से उलझने लगे। शायद उन्हें सबसे ज्यादा दिक्कत आर्थिक थी, सो कर्जे का सहारा लेने की जरूरत पड़ने लगी, अब उन्होंने बैरंग चिटि्ठयां लेना भी बंद कर दिया था। जब उन्हें पता ही है कि इनमें झगड़ों की बातों और शिकायतों, पैसों की मांग के अलावा कुछ नहीं है तो और पैसे क्यों बरबाद किये जायें। उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ने की स्थिति आ गयी। शायद एकाध लड़की की शादी की बात भी टूट गयी थी और उनका काफी पैसा दबा लिया गया था। वे मामला सुलझाने लिए एक बार गांव गये तो पूरे तीन-चार महीने तक नहीं लौट पाये थे। एक तो छुटि्टयां नहीं थीं उनके पास, सो रजिस्टर्ड डाक से बुलावे पहुंचने लगे और दूसरे यहां वाली बीवी और बच्चों के भूखे मरने की नौबत आ गयी। वह बेचारी सबसे पूछती फिरी। दो-दो, चार-चार रुपये उधार मांग कर दिन गिनती रही। <br />शिलाकांत जब लौटे तो गांव के मामले सुलझने के बजाय और उलझ चुके थे। सिर पर भारी कर्ज हो गया था। ऑफिस में भी बिना छुट्टी गैर-हाजिर रहने की स्थिति अनुकूल नहीं रही थी। ऐसे कठिन समय में एक बहुत बड़ी दुर्घटना हो गयी शिलाकांत के साथ। <br />उन्होंने जिस पठान से पैसे उधार ले रखे थे, अरसे से उसका ब्याज भी नहीं चुका पा रहे थे। बकाया वेतन न मिलने के कारण वैसे ही फाकों की हालत में उनके दिन कट रहे थे। ऐसे में एक दिन पठान सवेरे-सवेरे उनके घर जा धमका और लगा उन्हे गलियाने, ‘अगर कर्जा चुका नहीं सकते तो लेते क्यों हो? तीन-तीन बीवियों से मजे लेने के लिए पैसे हैं और हमारे लिए नहीं है। शायद शिलाकांत का परिवार उस दिन फाके पर था, वैसे ही उनका पारा गर्म था, सो शिलाकांत बाहर निकले और पठान की अच्छी-खासी धुनाई कर दी। <br />पठान रोता हुआ थाने जा पहुंचा और शिलाकांत हवालात के अन्दर हो गये। बहुत हाथ-पैर मारे, लेकिन कोई जमानत के लिए तैयार न हुआ। यूनियन ने भी मदद करने से मना कर दिया। ऑफिस वाले तो पहले से ही तैयार बैठे थे सस्पैंशन ऑर्डर के साथ। बड़ी मुश्किल से बीवी ने अपने सारे जेवर, बर्तन-भाण्डे बेचकर पठान का कर्ज चुकाया, पुलिस को खिलाया-पिलाया, तभी शिलाकांत बाहर आ सके। हवालात से तो बाहर आ गये, लेकिन ऑफिस के अन्दर न घुस सके। वे सस्पैण्ड किये जा चुके थे। अब भी यूनियन उनकी तरफ से केस लड़ने को तैयार न थी। पूरे चार महीने तक सस्पैण्ड रहे। जब नौकरी पर बहाल किया गया तो सजा के तौर पर दो साल के लिए वेतनवृद्धियां रोक दी गयीं और भविष्य में कायदे से रहने की हिदायत दी गयी। यूनियन के रुख से बेजार होकर शिलाकांत ने उसकी सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया और अपनी अलग से यूनियन बना ली। अब तक उन्होंने शराफत का जामा उतार फेंका था और मैनेजमेंट को दिये गये आश्वासन के बावजूद खुराफातें करने में लगे रहे। उनकी तरह के कुछ और भी ऐसे कर्मचारी थे, जिनके सही गलत कामों में यूनियन ने पक्ष लेने से इन्कार कर दिया था या पूरी तरह से उनके साथ नहीं रही थी, वे सब शिलाकांत के साथ हो लिये। आखिर उन्हें भी तो कोई मसीहा चाहिये था। यह बात दीगर है कि उनकी यूनियन को न तो कभी मान्यंता दी गयी, न ही सुविधाएं और न ही किसी विवाद की स्थिति में मान्यता प्राप्त यूनियन की तरह बातचीत के लिए उन्हें बुलवाया गया। <br />शिलाकांत ने कभी परवाह नहीं कि कि कोई उनकी यूनियन को घास नहीं डालता या उसे कोई यूनियन मानने के लिए तैयार ही नहीं है। वे हर वक्त इस बात की टोह लेते रहते कि मान्यता प्राप्त यूनियन या मैनेजमेंट से कब कोई गलती या चूक होती है। वे तुरन्त अपनी अधकचरी भाषा में पोस्टर तैयार करके, दीवार पर, यूनियन या ऑफिस के नोटिस बोर्ड पर दन्न से चिपका आते। उनकी भाषा एक दम धमकी भरी होती और उसमें किसी का लिहाज न रहता। उन्हें कई बार वार्निंग दी गयी कि वे अपनी इन ओछी हरकतों से बाज आयें, पर वे कहां मानने वाले थे। <br />उनकी इन हरकतों से परेशान होकर एक बार मान्यता प्रापत यूनियन ने भी तय कर लिया कि शिलाकांत को मजे चखाये जायें। किसी कर्मचारी के जरिये उनके खिलाफ शिकायतें की गयीं कि हालांकि उन्होंने तीन-तीन शदियां कर रखी हैं, लेकिन घोषित एक ही की है। एक से अधिक शादियां सेवा-नियमों के खिलाफ हैं इसलिए उनके विरुद्ध कार्रवाई की जाये। किसी तरह शिलाकांत को यह खबर लग गयी कि यह शिकायत किसने की है। आधी रात को गंडासा लेकर उसके घर पहुंच गये और उसकी गर्दन पर गंडासा रखते हुए धमकाया, ‘’मेरी तीन बीवियों और दस बच्चों का तो किसी तरह गुजारा हो जायेगा, पर अगर तेरी बीवी विधवा हो गयी तो सड़क पर आ जायेगी। सोच ले।’ उसकी घिग्घी बंध गयी। उस बेचारे ने तो यूनियन के कहने पर शिकायत की थी, उसे क्या पड़ी थी कि किसके तीन बीवियां हैं या पांच। उसने अगले ही दिन अपनी शिकायत वापिस ले ली थी। फिर किसी ने उनसे शादी को लेकर कोई लफड़ा नहीं किया। <br />अलबत्ता, अब शिलाकांत पहले वाले भोले-भाले आदर्श चपरासी नहीं रहे थे। वे लोगों से, अपने संगी-साथियों से कटते चले गये। पता नहीं किस बात पर वे कैसे रिएक्ट करें। हां, लोगों को ऑफिस का मनहूस वातावरण रंगीन बनाना हो, कुछ फुलझडि़यां सुननी हों तो उनसे बढि़या कोई पात्र नहीं था। लोग अक्सर उनसे पंगे ले लेते, उन्हें छेड़कर अपनी सीट की तरफ बढ़ जाते शिलाकांत को सुलगता हुआ छोड़कर। घंटों बकझक करते रहते शिलाकांत। कई बार स्थिति बड़ी विचित्र हो जाती। वे तो अपनी तरफ से तो बड़ा सूझ भरा कदम उठाते, लेकिन सयाना बनने के चक्कर में उनसे कोई मौलिक बेवकूफी हो जाती। कई बार वे और लोगों के झांसे में भी आ जाते और ऊटपटांग हरकतें कर बैठते। <br />एक बार ऑफिस के बाद कहीं जाने के लिए घर से निकले। चकाचक धोती और कुर्ता। शायद किसी दावत में जीमने जा रहे थे। बस स्टैण्ड पर भीड़ थी। दो-तीन बसें आयीं, लेकिन वे चढ़ नहीं पाये। एक बस रुकी। उसमें पहले ही बहुत भीड़ थी। किसी तरह वे फुटबोर्ड पर एक पैर रखने की जगह भर बना पाये थे कि बस चल पड़ी। दूसरा पैर जमीन पर था। शायद ऑफिस के ही किसी आदमी ने उनकी धोती पर पैर रख दिया। बस चल चुकी थी। नतीजा यह हुआ कि उसके पैर रखने से इनकी धोती जो खुली, खुलती चली गयी और बस के पीछे-पीछे हवा में लहराने लगी। शिलाकांत जी अजीब दुविधा में फंसे चिल्लाने लगे, ‘’अरे भाई बस रोको।‘’ वे मुश्किल से एक हाथ से डण्डा पकड़े हुए थे। दूसरे हाथ से धोती लपकने की कोशिश की, पर हाथ भीड़ में ही फंस कर रह गया। बस तेज हो चुकी थी और उनकी धोती लहराने के बाद अब सड़क पर बिछी हुई थी। उन्होंने दनादन दो-चार गालियां ड्राइवर को, धोती पर पैर रखने वालों को और ही-ही कर रही जनता को दीं। किसी तरह बस रुकी, अपने कुर्ते को दबाये-दबाये धोती की तरफ लपके। धोती सड़क पर मिट्टी में बुरी तरह से गंदी हो गयी थी। बस अड्डे पर खडे लोग भी उनकी हरकत के मजे ले रहे थे। उन्हें और ताव आ गया। एक आड़ में जाकर धोती लपेटी और बस स्टैण्ड पर आकर जोर-जोर से गालियां बकने लगे, ‘’किस सरऊ की हिम्मत हुई है, सामने आये। हमारा वो देखना चाहता है धोती खुलबाय के तो ले, देख ले’’ वे वहीं बिना किसी का भी लिहाज किये अश्लील हरकतें और गाली-गलौज करने लगे। अगर उन्हें पता चल जाता कि धोती पर पैर किसने रखा है, तो उस दिन उसकी खैर नहीं थी।<br /><br />शिलाकांत काण्ड की खबर डिप्टी साहब तक पहुंच गयी है। हालांकि उनके लिए यह बहुत अच्छा अवसर है अपने पुराने अपमान का बदला लेने का, लेकिन फिर भी वे रिस्क नहीं लेना चाहते। इतने साल बीत जाने पर भी न तो वे उस अपमान की कड़वी यादें भूल पाये हैं और न ही उसका बदला ही ले पाये हैं शिलाकांत से। ज्यों ही उन्हें खबर दी गयी है कि शिलाकांत वहां खुराफात कर रहा है, क्या किया जाये, उन्हें मन्त्रांलय का कोई भूला हुआ काम याद आ गया है। उन्होंने तुरन्त जीप मंगवाने के लिए पी.ए. से कहा और एक फाइल उठा ऑफिस से फुर्र हो गये। न वहां होंगे, न इस बारे में कोई फैसला ही करना पड़ेगा। वे चाहें तो आज इस बच्चू को अच्छा मजा चखा सकते हैं, लेकिन उन्हें पता है, यह औंधी खोपड़ी कल उनके केबिन में भी भरत नाट्यम करने पहुंच सकता है। फिर कहीं दांव शिलाकांत का पड़ गया तो। <br />यह किस्सा काफी पहले का है। वे प्रशासनिक अधिकारी थे तब। शिलाकांत की खुराफातों से बहुत तंग आये हुए थे। कई बार समझाने, धमकाने, वेतन काटे जाने, वार्निंग दिये जाने के बावजूद वे सीधी राह पर नहीं आ रहे थे। कई विभागीय जांचें उनके खिलाफ चल रही थीं। शिलाकांत अपने मन की तरंग में यही माने चल रहे थे कि वे तो एकदम ठीक हैं। प्रशासनिक अधिकारी ही उनके पीछे पड़े हुए हैं हाथ धो के। दोनों अपनी-अपनी तरफ से दूसरे को गलत सिद्ध करने में और नीचा दिखाने में लगे हुए थे। संयोग से शिलाकांत मौका हथिया ले गये। <br />डिप्टी साहब एक दिन लंच के वक्त यूं ही ज़रा धूप में अकेले खड़े हुए थे। आस पास बाबू, चपरासी लोग बैठे ताश खेल रहे थे। थोड़ी दूर कुछ और अधिकारी खड़े बतिया रहे थे। तभी जनाब शिलाकांत उनके पास आये और सिर झुकाकर, हाथ जोड़कर खड़े हो गये। शिलाकांत के पास आते ही वे समझ गये थे कि आज कुछ अनहोनी होने ही वाली है। तभी शिलाकांत ने नमस्कार की मुद्रा में झुके-झुके ही उन्हें मां बहन की गालियां देना शुरू कर दिया। वे जब तक संभलते, समझते, शिलाकांत जी उन्हें बुरी तरह गालिया कर गेट की तरफ बढ़ चुके थे। इस सारी प्रक्रिया में मुश्किल से एक मिनट लगा। पूरे समय के दौरान शिलाकांत सिर झुकाये, हाथ जोड़े खड़े रहे। <br />पहले तो उनकी समझ में ही नही आया, यह सब क्या हो गया, फिर वे एकदम गुस्से में आग-बबूला हुए साहब के केबिन की तरफ लपके थे। साहब लंच के बाद की झपकी ले रहे थे। डिप्टी इतने गुस्से में थे कि साहब के सामने पूरी बात कहने में भी तकलीफ हो रही थी। पूरी बात सुन कर साहब उनके साथ लपके हुए बाहर आये थे। डिप्टी साहब ने आसपास मौजूद कई लोगों को बुलवा लिया था कि इन सबके सामने शिलाकांत ने मुझे गालियां दी है। वह सुनकर सभी सकपका गये थे। दरअसल किसी ने भी उसे गालियां देते हुए नहीं सुना था। बस उसे झुके-झुके गिड़गिड़ाते हुए देखा था। वैसे भी गंडासे वाले किस्से के बाद किसकी हिम्मत थी कि उनके खिलाफ झूठी-सच्ची गवाही दे। सबने वही कहा जो उन्हों ने देखा था। सुना तो वैसे भी किसी ने कुछ नहीं था। डिप्टी साहब को इसकी कतई उम्मीद नहीं थी कि वे इस अपमान का एक भी गवाह नहीं जुटा पायेंगे। वे अभी भी अपमान की आग में जल रहे थे। शिलाकांत उनके मुंह पर थूककर चले गये थे और उसकी जलालत वे झेल रहे थे। <br />शिलाकांत कोई सवा दो बजे आये। लंच टाइम खत्म होने के पैंतालीस मिनट बाद। उन्हें तुरन्त तलब किया गया और एकदम कड़े शब्दों में इस घटना के बारे में साहब ने खुद पूछा। वे साफ मुकर गये, ‘’अजी साहब, क्या बात करते हैं, हम और साहब को गाली दिये? ना ना, कभी नहीं हुजूर, हम तो साहब से दरखास करने गये थे कि साहेब घर पर हमारा बचवा बुखार में तड़प रहा है। सो हमें आधे घंटे की छुट्टी दी जाये ताकि हम उसे डाक्टर के पास ले जाकर उसकी दवा-दारू का इंतजाम कर सकें और हम कुछ नहीं बोले साहब ! साहब से बस हाथ जोड़े विनती करते रहे। सब बाबू लोग इसके गवाह हैं हुजूर। किसी से भी पूछ लीजिये और अगर हम झूठ बोल रहे हैं तो हमें अपने बीमार बच्चे की कसम। ये देखिये उसकी दवा की पर्ची भी हमारे पास है।‘’ और उन्होंने जेब से डाक्टर की पर्ची निकालकर दिखा दी। <br />साहब और वे खुद दोनों ही समझ गये थे कि आज शिलाकांत ऊंचा खेल खेल गये हैं। बेहद शातिराना अंदाज में। उन पर हाथ डालने की कोई गुंजाइश नहीं थी। साहब ने शिलाकांत को भेजकर डिप्टी के कंधे पर हाथ रखकर कहा था। ‘’सम अदर टाइम सम अदर वे। वी कांट ट्रैप हिम टूडे। <br />उनका मुंह अपमान से काला पड़ गया था। उनकी मुटि्ठयां शिलाकांत का गला दबाने के लिए कसमसा रही थीं और वे कुछ नहीं कर पा रहे थे। आज उसी घटना की याद ताजा हो आयी थी उन्हें और वे जीप लेकर निकल गये थे। आज अगर वे उसे घेर भी लें, क्या गारंटी कल शिलाकांत पहले जैसा खेल नहीं खेलेगा। उससे दूर ही भले। <br /><br />टीले पर अभी भी शिलाकांत का प्रवचन जारी है—‘’साले, समझते हैं कि शिलाकांत अकेला है। उसके आगे-पीछे रोने वाला कोई नहीं है। मार डालेंगे। बंबू किये रहेंगे ताकि शान्ति से बैठा रहे। अन्याय सहता रहे। हम बताये देत हैं मनिजमेंट और उसके चमचों के लिए हम ही अकेले काफी हैं। सबकी . . . में डंडा करने को। एक-एक को बुलवाये लो। सबकी फाड़ के न रख दी तो हमारा नाम भी शिलाकांत नहीं,’’ वे अपने अंग विशेष को हिलाते हुए बके जा रहे हैं। नीचे भीड़ बहुत बढ़ गयी है। लंच टाइम हो चुका है सो सभी वहीं भागे चले आ रहे हैं। हर बार कोई न कोई उन्हें उकसा देता है और वे नये से शुरू हो जाते है। तभी किसी ने उनकी तरफ एक तौलियानुमा कपड़ा फेंका ताकि वे बांध लें उसे और अपनी नंगई छोडें। वे फिर दहाड़े, ‘’ले जावो इस कफनी को और ओढ़ाय देव मनिजमेंट की लास को। वही बिना कफन के जलाने के इंतजार में सड़ रही है।‘’ सुरक्षा अधिकारी कुछेक गार्डों के साथ उन्हें नीचे उतारने और कपड़े पहनाने की कोशिश करता है, वे ऊपर से पत्थर मारने लगते हैं। उसी के पितरों का तर्पण करने लगते हैं।<br />जब बड़े साहब को इस मामले की खबर दी गयी तो वे एकदम आगबबूला हो गये हैं, तुरन्त प्रशासनिक अधिकारी, कार्मिक अधिकारी और सुरक्षा अधिकारी को तलब किया गया है। वे दहाड़े, ‘’ये क्या हो रहा है ऑफिस में। यह ऑफिस है या गंगाघाट? आप लोग कुछ देखते करते क्यों नहीं? उन्होंने बारी-बारी से तीनों को घूरा। कोई कुछ कह से, इससे पहले ही वे बोले, ‘’नो, नो, मै कुछ सुनना नहीं चाहता। अगर वह सीधी तरह नही मानता, तो टेक सम स्टर्न एक्शन। कॉल पुलिस। ही इज स्पाइलिंग द ऑफिस एटमास्फेयर। डू समथिंग इमीडियेटली’’ उन्होंने बिना किसी को कुछ भी कहने का मौका दिये हुए कहा। कार्मिक अधिकारी ने किसी तरह से हिम्मत जुटाकर कहा, ‘’सर पुलिस बुलाने में बहुत कंपलीकेशंस हैं। अगर वह गिरफ्तार कर लिया गया तो बाद में कोर्ट-कचहरी के चक्कर हमें ही काटने पड़ेंगे।‘’ कार्मिक अधिकारी अपनी खाल बचाये रखना चाहते हैं। <br />‘’देन डू व्हाट एवर यू कैन डू, बट दिस रास्कल मस्ट वी टॉट ए लेसन दिस टाइम।‘’ तभी उन्हें कुछ सूझा, तीनों को रुकने के लिए कहा और एकदम फैसला करने के अन्दाज में बोले, ‘’एक काम कीजिये आप’’ उन्होंने सुरक्षा अधिकारी से कहा, ‘’आप फायर ब्रिगेड को फोन कीजिये, फायर इंजिन से उसकी अच्छी तरह धुलाई करा दीजिए। अपने आप ठिकाने होश आ जायेंगे, उस इडियट के।‘’ तीनों अधिकारी साहब से एकदम सहमत हो गये हैं। उन्हें मन ही मन अफसोस भी हुआ कि इतना बढिया आइडिया उन्हें क्यों नहीं सूझा। <br />फायर इंजिन की घंटी की आवाज सुनकर वहां खड़ी भीड़ में भगदड़ मच गयी है। उसके लिए एकदम रास्ता बना दिया गया है। धक्का मुक्की करके हर आदमी अब आगे जाना चाह रहा है। सब हैरान भी हो रहे हैं कि यह किसके दिमाग की उपज है। डेढ़-दो घंटे से जो तमाशा चल रहा है, उसका पटाक्षेप होने ही वाला है। यह दृश्य कोई भी मिस नहीं करना चाहता। फायरमैन अपनी-अपनी पोजीशन लेकर पानी का जेट तैयार करके आदेश की प्रतीज्ञा में हैं। सुरक्षा अधिकारी, कार्मिक अधिकारी और अन्य अधिकारी शिलाकांत को आखिरी चेतावनी दे रहे हैं: ‘’शराफत से कपड़े पहनकर नीचे आ जाओ वरना.....’’ <br />शिलाकांत यह सब अमला देखकर और भड़क गये हैं। और ऊँचे टीले पर जा खड़े हुए हैं और अपनी गालियों का प्रसाद नये मेहमानों को भी देने लगे हैं। सब लोग हो-हो करके हंसने लगे। सुरक्षा अधिकारी को एकदम ताव आ गया। वह पहले वहां खड़ी भीड़ पर दहाड़ा, ‘’क्या तमाशा लगा रखा है सबने यहां? जाओ अपनी-अपनी सीट पर। आप लोगों की वजह से ही वह इतनी देर से नाटक कर रहा है। जाइए आप लोग’’, लोग दो-चार कदम पीछे हट कर फिर खड़े हो गये। गया कोई नहीं। वे इस नाटक का अन्त देखे बिना कैसे जा सकते हैं। <br />तभी सुरक्षा अधिकारी ने शिलाकांत को स्नान कराने का आदेश दे दिया। पानी की तेज धार जब उन पर पड़ी तो वे सारी गालियां भूल गये। फायरमैनों को भी आज की इस ड्यूटी में मजा आ रहा है। उन्होंने शिलाकांत को पानी की मोटी धार से इतना परेशान कर दिया कि उनके लिए खड़ा रहना मुश्किल हो गया। वे चिल्लाने लगे। पहले घुटनों के बल झुके, तो पानी की धार भी नीचे कर दी गयी। फिर वे जमीन पर बिल्कुल लेट से गये। हाथ ऊपर करके हाय-हाय करने लगे। उनकी सांस फूल गयी और वे हांफने लगे। सुरक्षा अधिकारी ने पानी रोकने का इशारा किया और चिल्ला कर पूछा, ‘’क्यों श्रीमान, दिमाग की मैल उतर गयी या अभी बाकी है ?’’ <br />शिलाकांत एकदम बेदम पड़े हैं बुरी तरह हांफते हुए। हाथ हवा में टंगे हुए है। खेल खत्म हो गया है। सुरक्षा अधिकारी ने अग्निशमन दल को धन्यवाद दिया और सुरक्षा गार्डों को आदेश दिया कि वे शिलाकांत को कपड़े पहनाकर उसके केबिन में ले आयें। <br />लोगों के हुजूम लौट रहे हैं, ऑफिस की तरफ। हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा आ जाये, वाला भाव लिये।सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-71072740865900652792008-10-25T17:30:00.001+05:302008-10-25T17:41:14.963+05:30उपन्यास देस बिराना ई बुक के रूप मेंहमारे मित्र रवि रतनामी ने अपने ब्लाग rachanakar.blogspot.com पर कुछ दिन पहले पाठकों तक मेरी दो किताबें ई बुक्स के जरिये पाठकों तक पहुंचायी हैं। ये हैं चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद http://www.esnips.com/doc/26a37191-f6a2-41b2-8946-119ab4c771b4/charlie-chaplin-ki-atma-katha-by-suraj-prakash<br />और चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद -http://www.esnips.com/doc/59aa7087-a4e3-4d84-9902-a10f4414b42c/charls-darwin-ki-aatmakatha। <br />अब वे मेरे उपन्यास देस बिराना को ई बुक के रूप में ले कर आये हैं। http://rachanakar.blogspot.com/2008/10/blog-post_8070.html<br />इस उपन्यास को पीडीएफ़ ई-बुक में डाउनलोड कर पढ़ने के लिए यहाँ से डाउनलोड करें.<br /> उपन्यास ऑनलाइन विकि सोर्स पर भी उपलब्ध है. विकि सोर्स पर ऑनलाइन पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ)<br />बेहद पठनीय और सहज भाषा शैली में रचा गया यह मार्मिक उपन्यास एक ऐसे अकेले लड़के की कथा लेकर चलता है जिसे किन्हीं कारणों के चलते सिर्फ चौदह साल की मासूम उम्र में घर छोड़ना पड़ता है, लेकिन आगे पढ़ने की ललक, कुछ कर दिखाने की तमन्ना और उसके मन में बसा हुआ घर का आतंक उसे बहुत भटकाते हैं। यह अपने तरह का पहला उपन्यास है जो एक साथ ज़िंदगी के कई प्रश्नों से बारीकी से जूझता है। अकेलापन क्या होता है, और घर से बाहर रहने वाले के लिए घर क्या मायने रखता है, बाहर की ज़िंदगी और घर की ज़िंदगी और आगे बढ़ने की ललक आदमी को सफल तो बना देती है लेकिन उसे किन किन मोर्चों पर क्या क्या खोना पड़ता है, इन सब सवालों की यह उपन्यास बहुत ही बारीकी से पड़ताल करता है। इसी उपन्यास से हमें पता चलता है कि भारत से बाहर की चमकीली दुनिया दरअसल कितनी फीकी और बदरंग है तथा लंदन में भारतीय समुदाय की असलियत क्या है।<br />प्रसंगवश ये उपन्यास एमपी3 में ऑडियो रिकार्डिंग के रूप में भी उपलब्ध है। इसे तैयार कराया था लंदन की एशियन कम्यूनिटी आर्टस और कथा यूके ने।<br />सूरज प्रकाशसूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-79213124439871409712008-10-13T10:15:00.000+05:302008-10-13T10:17:23.618+05:30अल्बर्ट -1984 में लिखी पहली कहानी(1984 में सारिका में मेरी लिखी पहली लघु कथा पुरस्कृत हुई थी। उसे पढ़ कर आकाशवाणी बंबई में काम कर रहे कवि अनूप सेठी ने पत्र भेजा था कि मैं आकाशवाणी में आ कर एक कहानी रिकार्ड करवा जाऊं। तभी बहुत जद्दोजहद के बाद ये पहली कहानी लिखी और रिकार्ड करायी गयी थी। अभी भी ये कहानी आकाशवाणी के आर्काइव में है और अक्सर प्रसारित की जाती है।<br /> बाद में कई बार इस कहानी को और विस्तार देने के कोशिश की। इस या इस तरह के चरित्रों को ले कर बीसियों बार लिखे गये सैकड़ों पन्ने अभी भी मेरी फाइलों में रखे हैं लेकिन इस पात्र को मैं कभी भी अपने या शायद पात्र के मनमाफिक तरीके से नहीं लिख पाया, बेशक आज भी मुझे वो उतना ही हांट करता है और हर बार कोई भी कहानी शुरू करने से पहले वह चरित्र अपने हिस्से के शब्द मुझसे मांगता है लेकिन हर बार यही कहानी रह जाती है। <br />इसी चक्कर में 24 बीस बीत जाने के बाद भी आज भी मेरी ये पहली कहानी अप्रकाशित ही रह गयी है।)<br /><br />अल्बर्ट<br />मुझे तुम पर शर्म आ रही है अल्बर्ट। तुम इस लायक भी नहीं रह गये हो माय सन कि तुम्हें बेटा कहूं। पता नहीं यह पत्र पढ़ने के लिए तुम घर पर लौट कर आओगे भी या नहीं। मुझे पता होता कि यहां आने पर मुझे इस तरह से परेशान होना पड़ेगा तो मैं आता ही नहीं। चार दिन से बंबई आया हुआ हूं और तुम्हारा बंद दरवाजा ही देख रहा हूं। सुबह शाम तुम्हारे घर के चक्कर काट काट कर थक गया हूं। तुम्हारा पड़ोसी बता रहा था कि यह पहला मौका नहीं है कि तुम चार पांच दिन से घर नहीं लौटे हो। पहले भी कई बार ऐसा होता रहा है कि तुम कई कई दिन घर नहीं लौटते या घर पर होते हो तो दरवाजा नहीं खोलते। कहां रहते हो, क्या करते हो, किसी को कोई खबर नहीं। तुम्हारे ऑफिस के भी चक्कर काटता रहा हूं। वहां तुम पंद्रह दिन से नहीं गये हो। दरअसल तुम्हारे ऑफिस ने जब तुम्हारी खोज खबर लेने के लिए ये वाली रजिस्ट्री हमारे पास गोवा भेजी तो ही हमें पता चला कि तुम फिर अपनी पुरानी हरकतों पर उतर आये हो तो मुझे खुद आना पड़ा। अब मैं तुम्हें कैसे बताऊं कि मुझे यहां आने के लिए कितनी मुश्किलों से पैसों का जुगाड़ करना पड़ा है।<br />अल्बर्ट, क्यों तुम इस तरह से अपने आप से नाराज़ हो और खुद को शराब में खत्म कर रहे हो। कितने बरस हो गये तुम्हें इस तरह से एक बेतरतीब, बेकार और अर्थहीन जिंदगी जीते हुए। तुम महीना महीना ऑफिस नहीं जाते। जाते भी हो तो पीये रहते हो। तुम्हारे ऑफिस वाले बता रहे थे कि तुम काम में एक्सपर्ट होने के बावजूद काम नहीं कर पाते क्योंकि न तो तुममें काम में ध्यान देने की ताकत रह गयी है और न ही तुम्हारा शरीर ही इस बात की इजाज़त देता है। तुम्हारे ऑफिस वाले इन सबके बावजूद तुम्हें नौकरी से नहीं निकालते। तरह तरह से काउंसलिंग करके, जुर्माने लगा कर और वार्निंग दे कर तुम्हें सही राह पर लाने की कोशिश करते रहते हैं। सिर्फ इसलिए कि तुम फुटबॉल के बहुत अच्छे खिलाड़ी रहे हो। काम में बहुत माहिर माने जाते रहे हो और फिर तुम्हें ये नौकरी खिलाड़ी होने की वजह से ही तो मिली थी। उन्हें विश्वास है कि तुम ज़रूर यीशू मसीह की शरण में लौट आओगे और फिर से अच्छा आदमी बनने की कोशिश करोगे। पर कहां। तुम जो जिंदगी जी रहे हो, तुमने कभी सोचा है कि तुम खुद के साथ और अपने बूढ़े पेरेंट्स के साथ कितना गलत कर रहे हो। हमारी बात तो खैर जाने दो। बहुत जी लिये हैं। रही सही भी किसी तरह कट ही जायेगी। पर कभी अपनी भी तो सोचो। इस तरह से कब तक चलेगा।<br />याद करो बेटा, तुमने कितना शानदार कैरियर शुरू किया था। किसी भी फील्ड में तुम पीछे नहीं रहे थे। पढ़ाई में तो हमेशा फर्स्ट आते ही थे, सभी स्पोर्ट्स में खूब हिस्सा लेते थे तुम। स्कूल और कॉलेज की फुटबॉल की टीम के हमेशा कैप्टन रहे। फिर गोवा की तरफ से खेलते रहे। तुम्हारी पर्फार्मेंस बेहतर होती गयी थी। तब हम सब कितने खुश हुए थे जब कुआलाम्पुर जाने वाली नेशनल टीम में तुम चुने गये थे। उस रात हम देर तक नाचते गाते रहे थे। <br />तुम्हारी टीम जीत कर आयी थी। जीत का गोल तुमने दागा था। तुम्हारी वापसी पर एक बार फिर हमने सेलिब्रेट किया था। हमने मदर मैरी को थैन्क्स कहा था कि तुम्हारा लाइफ कितने शानदार तरीके से शुरू होने जा रहा था। तभी तुम्हें स्पोर्ट्स कोटा में ये नौकरी मिल गयी थी और तुम बंबई आ गये थे। बस, बेटे तभी से तुम शराब के हो कर रह गये हो। तुमने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा है। पहले तुम बंबई में आपनी शामों का अकेलापन काटने के लिए पीते रहे। हमने बुरा नहीं माना। हमारी पूरी कम्यूनिटी पीती है। सेलिब्रेट करती है। और फिर हम तुम्हें साथ बिठा कर पिलाते रहे हैं, लेकिन एक लिमिट तक। पर शायद हमारी ही गलती रही। तुम तो रोज़ ही पीने लग गये थे। दिन में नौकरी या थोड़ी बहुत फुटबॉल और शाम को तुम अकेले ही पीने बैठ जाते थे। जब हमें पता चला था तो हमने यही समझा था कि नया नया शौक है, तुम खुद संभल जाओगे, लेकिन नहीं। तुम नहीं संभले तो नहीं ही संभले। हमने तुम्हारी मैरिज करानी चाही तो तुम हमेशा ये कह कर ही टालते रहे कि खुद तो होटल की डोरमैटरी में पड़ा हूं, फैमिली कहां रखूंगा।<br />बस, तब से सब कुछ हाथ से छूटता चला गया है। कितने बरस हो गये तुमसे ढंग से बात किये हुए। गोवा तुम कभी आते नहीं। तुम्हारी ममा तुम्हारे लिए कितना तो रोती है। अब तो बेचारी ढंग से चल फिर भी नहीं सकती। बेटे का सुख न उसने देखा है न मैंने। <br />तुम यकीन नहीं करोगे अल्बर्ट, उस समय मैं कितना टूट गया था जब तुम्हारे ऑफिस के लोगों ने हमें बताया कि तुम्हारी गैर हाजरी के कारण तुम्हारी पगार हर साल बढ़ने के बजाये कम कर दी जाती है। कोई ऐसा एंडवास या लोन नहीं जो तुमने न ले रखा हो। ऑफिस का कोई ऐसा बंदा नहीं जिसके तुमने सौ पचास रुपये न देने हों। और कि तुम कहीं भी पार्क में, रेलवे प्लेटफार्म पर या ऑफिस की सीढियों में ही सो जाते हो। सामान के नाम पर तुम्हारे पास टूथ ब्रश और दो फटे पुराने कपड़ों के अलावा कुछ भी नहीं। एक जोड़ा जो तुमने पहना होता है और दूसरा, तुम्हें ये फ्लैट मिलने तक तुम्हारी ड्रावर में रखा रहता था।<br />तुम्हारे सैक्शन ऑफिसर बता रहे थे कि तुम ढंग से जी सको, और अपनी पूरी पगार एक ही दिन में पीने में न उड़ा दो, इसके लिए उन्होंने तुम्हारी पगार एक साथ न देकर तुम्हें कुछ रुपये रोज देना शुरू किया था लेकिन कितने दिन। तुम तब से ऑफिस ही नहीं गये हो।<br />माय सन, शायद हमें ये दिन भी देखने थे। इस बुढ़ापे में तुम्हारी मदद मिलना तो दूर, हर बार कोई ऐसी खबर जरूर मिल जाती है कि हम शर्म के मारे सिर न उठा सकें। तुम्हारा पड़ोसी बता रहा था कि जब ऑफिस से सीनियरटी के हिसाब से तुम्हें ये फ्लैट मिला तो तुम्हारे पास फ्लैट की सफाई के लिए झाड़ू खरीदने तक के पैसे नहीं थे। सामान के नाम पर तुम्हारी मेज की ड्रावर में जो सामान रखा था, वही तुम एक थैली में भर कर ले आये थे। तुम्हारी लत ने तुम्हें यहां तक मजबूर किया कि तुम फ्लैट के पंखे तक बेचने के लिए किसी इलैक्ट्रिशियन को बुला लाये थे। <br />बेटे, तुम छोड़ क्यों नहीं देते ये सब . . . नौकरी भी। गोवा में हमारे साथ ही रहो। जैसे तैसे हम चला रहे हैं, तुम्हारे लिए भी निकाल ही लेंगे। हर बार तुम वादा करते हो, कसम खाते हो, दस बीस दिन ढंग से रहते भी हो, फिर तुम वही होते हो और तुम्हारी शराब होती है। <br />तुम्हारे ऑफिस वालों ने तुम्हारी मेडिकल रिपोर्ट दिखायी थी मुझे। गॉड विल हैल्प यू माय सन। तुम जरूर अच्छे हो जाओगे। छोड़ दो बेटे ये सब। तुम्हारी ममा तुम्हारी सेवा करके तुम्हें अच्छा कर देगी।<br />पिछले एक बरस में मैं चौथी बार बंबई आया हूं। पिछली बार की तरह इस बार भी तुम मुझे नहीं मिले हो। तुम्हारी ममा ने इस बार यही कह कर मुझे भेजा था कि तुम्हें साथ ले ही आऊं। पर तुम्हें ढूंढूं कहां। पिछले चार दिन से तुम्हारे घर और ऑफिस के चक्कर काट काट कर थक गया हूं। तुम्हारी तलाश में कहां कहां नहीं भटका हूं। तुम कहीं भी तो नहीं मिले हो।<br />अल्बर्ट, मैं थक गया हूं। तुम्हें समझा कर भी और तुम्हें तलाश करके भी। फिर कब आ पाऊंगा कह नहीं सकता। इन चार दिनों में भी होटल में, खाने पीने में और आने में कितना तो खर्चा हो गया है। चाह कर भी एक दिन भी और नहीं रुक सकता। वापसी के लायक ही पैसे बचे हैं। <br />ये खत मैं तुम्हारे दरवाजे के नीचे सरका करक जा रहा हूं। कभी लौटो अपने घर और होश में होवो तो ये खत पढ़ लेना। मैं तो तुम्हें अब क्या समझाऊं। तुम्हें अब यीशू मसीह ही समझायेंगे और ..। <br />गॉड ब्लेस यू माय सन..।सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-33978194358010992752008-09-01T14:01:00.004+05:302008-09-01T14:08:20.596+05:30चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा का अनुवाद रचनाकार.ब्लागस्पाट परमित्रो<br /> आप मेरे द्वारा अनूदित चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा अब आप http://rachanakar.blogspot.com/2008/08/1_29.html पर किस्तों पर पढ़ सकते हैं. रवि जी ने पिछले तीन दिन में इसकी पांच किस्तें पोस्ट की हैं. पूरी आत्मकथा लगभग 550 पेज की थी और मेरे ख्याल से 20 किस्तों में वे आप तक पूरी आत्म कथा पहुंचायेंगे. अनुवाद पर आपकी टिप्प्णियों का इंतज़ार रहेगा<br /><br />सूरज प्रकाशसूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-10538051288181656442008-08-29T10:22:00.002+05:302008-08-29T10:37:18.587+05:30बाइसवीं कहानी रचनाकार.ब्लागस्पाट परमित्रो <br />आदान प्रदान योजना के तहत मेरी लम्बी कहानी देश, आज़ादी की पचासवीं वर्षगांठ और एक मामूली सी प्रेम कहानी आप रचनाकार.ब्लागस्पाट पर पढ़ें. लिंक यहां दे रहा हूं. मेरे अपने ब्लाग पर रचनाएं आती रहेंगी <br />http://rachanakar.blogspot.com/2008/08/blog-post_5754.html<br /><br />सूरजसूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-2749447900776529072008-08-21T15:39:00.000+05:302008-08-21T15:41:30.918+05:30इक्कीसवीं कहानी - घर बेघरघर बेघर<br /><br />लंदन से महेश आया हुआ है। यारी रोड का अपना मकान खाली कराने के लिए। दो बरस पहले जब वह हमेशा के लिए लंदन बसने के इरादे से बंबई से गया था वो एक भरोसेमंद एजेंट की मार्फत एक बरस के लिए अपना मकान एक मलयाली को दे कर गया था। तय हुआ था कि वह ठीक एक साल बाद मकान खाली कर देगा। और भी कुछ वायदे किये थे उसने, मसलन वह महेश की सारी डाक एस्टेट एजेंट के पास पहुँचाता रहेगा जो उसे किसी न किसी जरिये से लंदन भिजवाने का इंतजाम करने वाला था। सारे बिल अदा करेगा और सोसाइटी चार्जेज वक्त पर अदा करेगा। लेकिन उसने कोई भी वायदा पूरा नहीं किया था। न डाक भिजवायी थी, न टेलिफोन बिल अदा किये थे, न ही सोसायटी चार्जेज टाइम पर दिये थे। और तो और, बीच–बीच में बिल अदा न किये जाने के कारण दो तीन बार बिजली भी कट चुकी थी।<br />उससे यह भी तय हुआ था कि वह मकान का किराया नियमित रूप से महेश की तरफ से एजेंट को देता रहेगा, लेकिन किराया भी उसने छः सात महीने का ही जमा कराया था।<br />महेश बता रहा है कि उसने किरायेदार को कई पत्र लिखे, संदेश भिजवाये लेकिन किसी भी तरह से वह पकड़ में नहीं आया। कई बार फोन करने पर एक आध बार जब वह पकड़ में आया भी तो गिड़गिड़ाने लगा कि छः महीने की मोहलत और दे दो। छः महीने पूरे होते ही वह मकान खाली कर देगा। सारे पेमेंट भी कर देगा और किसी भी तरह की शिकायत का मौका नहीं देगा।<br />लंदन में बैठे हुए महेश के पास इसके अलावा और कोई उपाय भी नहीं था क्योंकि इस बीच उसका एजेंट भी अपनी दुकान बंद करके वहां से गायब हो चुका था और किरायेदार से कम से कम सात महीने का किराया भी ले जा चुका था। ये वही एजेंट था जो महेश के लंदन जाते समय आधी रात को अपनी वैन ले कर आया था और उसका सारा सामान लाद कर एयरपोर्ट ले गया था। महेश को विदा करते समय वह महेश के गले लग कर फूट–फूट कर रो रहा था और टेसुए बहा रहा था कि आप जैसा खरा और जिंदादिल इंसान मैंने जिंदगी में नहीं देखा। और यही एजेंट अपना बोरिया–बिस्तर समेट कर चंपत हो चुका था।<br />महेश बता रहा है कि लंदन से चलने से पहले उसने किरायेदार को दसियों बार फोन करके अपने आने की सूचना दे दी थी कि वह सिर्फ मकान खाली कराने के मकसद से ही आ रहा है और उसका यहाँ और कोई काम नहीं है। इसलिए वह जैसे भी हो, मकान खाली रखे ताकि उसे यहाँ बेकार में रुकना न पड़े। किरायेदार के ही कहने पर महेश ने यहाँ आने की तारीख दो बार बदली। जब भी महेश ने उसे बताया कि मैं आ रहा हूँ, किरायेदार ने कोई न कोई बहाना बना कर थोड़ा समय और मांगा। एक बार दो महीने का और एक बार एक महीने का। दो बार किरायेदार के कारण और एक बार खुद की छुट्टी मंजूर न होने के कारण महेश का आना तीन बार टला और आखिर वह आ ही गया है।<br />महेश के यहाँ पहुंचते ही हम दोनों ने सुबह–सुबह ही किरायेदार के घर पर हमला बोल दिया है। यही वक्त है जब उसे घर पर घेरा जा सकता है। हम दोनों को सुबह छः बजे ही अपने दरवाजे पर देख कर पहले तो किरायेदार हैरान हुआ, फिर किसी तरह संभल कर बोला – अच्छा हुआ, आप आ गये। मैंने अपने लिए दूसरे मकान का इंतजाम कर लिया है, कल बारह बजे मुझे चाबी मिल जायेगी। कल शाम तक आपका मकान आपको खाली मिल जायेगा। इससे आगे उसने संवाद की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है।<br />महेश घर में कदम रखते ही परेशान हो गया है। किरायेदार ने घर बहुत ही बुरी हालत में रख छोड़ा है। हम दोनों ही हैरान हो गये हैं कि क्या ये महेश का वही घर है जिसे वह इतनी सफाई से और इतने जतन से साफ–सुथरा रखता था। लग ही नहीं रहा है कि इस घर में कोई दो साल से लगातार रह रहा है। चारों तरफ मकड़ी के जाले लगे हुए हैं। कागजों के ढेर, कचरा और ढेरों फटे पुराने जूते ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ा रहे हैं। रसोई का तो और भी बुरा हाल है। जैसे वहां दो साल से कचरा ही न बुहारा गया हो। एक अजीब–सी बदबू पूरे घर में फैली हुई है। जैसे अरसे से कई चूहे मरे पड़े हों घर में और उन्हें बाहर निकाला ही न गया हो।<br />उसने एक और बदमाशी की है उसने कि ड्राइंगरूम में ही दीवार पर एक बहुत बड़ा–सा लकड़ी का मंदिर ठोक दिया है। महेश जब यहाँ रहता था तो उसने कभी ड्राइंगरूम में एक कील तक नहीं ठोंकी थी और अब .. .. ... ।<br />इस समय उससे कुछ कहने का मतलब ही नहीं है। बस एक दिन की ही तो बात है। हम खाली हाथ वापिस लौट आये हैं।<br /><br />और आज सात दिन बीत जाने के बाद भी हम महेश का मकान खाली नहीं करवा पाये हैं। हर बार एक नया बहाना। हर बार थोड़ी और मोहलत के लिए गिड़गिड़ाना और नये सिरे से वायदे करना ही चलता रहा है इस दौरान।<br />जब हम अगले दिन वहां गये तो पता चला, किरायेदार घर पर नहीं है, रात को देर से आयेगा। घर को देखते हुए ऐसा कोई संकेत नहीं मिल रहा था कि घर खाली करने की कोई तैयारी ही की गयी होगी। जबकि किरायेदार के मुताबिक तो हमें इस वक्त खाली घर की चाबी लेने आना था।<br />हम अगले दिन सुबह–सुबह ही जा धमके हैं वहां। एक बार फिर निराशा हाथ लगी है। पता चला है कि रात को जनाब घर वापिस ही नहीं आये। आउटडोर शूटिंग के सिलसिले में बाहर गये हुए हैं। आज शाम तक आने की उम्मीद है।<br />दरवाजा एक खूबसूरत और जवान लड़की ने खोला है। उसके पीछे एक और लड़का खड़ा है जिसके बारे में लड़की ने ही बताया है कि वह अंकल का ड्राइवर है। लड़की का परिचय पूछने पर उसने बताया है कि वह गोपालन की भतीजी है और यहाँ कुछ दिनों के लिए एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में आयी हुई है। ये बात हमारे गले से नीचे नहीं उतर रहीं क्योंकि एक तो वह लड़की किसी भी नज़रिये से मलयाली नहीं लग रही और नीचे आने पर हमें वाचमैन ने भी यही बताया कि ये लड़की तो अकसर यहाँ आती रहती है। एक और बात हमें परेशान करने लगी है कि बेशक किरायेदार ने महेश को बताया था कि वह मॉडल कोऑर्डिनेटर है लेकिन वॉचमैन और सोसायटी के दूसरे लोगों ने जो कुछ बताया है उसके अनुसार वहां रात–बेरात जिस तरह की लड़कियों का आना–जाना है, उनमें से ज्यादातर मॉडल तो क्या, सड़क किनारे खड़ी नज़र आने वाली पतुरिया से ज्यादा नहीं लगती। जैसा कोऑर्डिनेटर, वैसी ही मॉडल।<br />फिलहाल ये हमारा मुद्दा नहीं है कि किरायेदार क्या करता और क्या कराता है। फिलहाल हमारी चिंता महेश का मकान वापिस पा लेने की है जो हमारे सामने होते हुए भी वापिस नहीं मिल रहा।<br />लड़की ने जब दरवाजा खोला था तो हम सीधे अंदर तक चले आये थे। महेश का खून वैसे ही खौल रहा था। आज उसे आये चार दिन हो गये थे और किरायेदार था कि लुका–छिपी का खेल खेल रहा था। लड़की हमें इस तरह अंदर आते देख कर घबरा गयी लेकिन जब महेश ने उसे बताया कि वह मकान मालिक है और पिछले चार दिन से गोपालन के पीछे चक्कर काट काट कर परेशान हो गया है वो लड़की ने जैसे सरंडर ही कर दिया – आप चाहें तो अभी के अभी मकान खाली करा सकते हैं। मैं अपना सामान ले कर होटल चली जाऊंगी लेकिन क्या ये बेहतर नहीं होगा कि जहां आपने इतने दिन इंतज़ार किया, एक दिन और सही। लड़की ने जिस तरह से पूरी बात की और सहयोग देने का आश्वासन दिया, हम चाह कर भी उसे खड़े–खड़े बाहर नहीं निकाल पाये। वैसे भी किरायेदार की गैर हाजिरी में मकान खाली कराना न केवल गलत था बल्कि इससे अनधिकृत और जबरन प्रवेश का मामला भी बन सकता था। भले ही वह बेईमान था लेकिन था तो किरायेदार ही।<br />अलबत्ता, हमने इतना जोखिम जरूर लिया कि वॉचमैन की मदद से ड्राइंगरूम में से मंदिर उखड़वा दिया है। मंदिर के पीछे इतने काक्रोच निकले कि वह लड़की तो डर ही गयी। हमारा मूड तो खराब हुआ ही।<br />हम रात के वक्त के फिर वहां गये हैं और इस बार चार–पांच आदमी गये हैं और ये तय करके गये हैं कि कैसे भी आज मकान खाली करा ही लेना है। लेकिन वहां एक और ही सदमा हमारा इंतजार कर रहा है। घर पर केवल ड्राइवर है। वह लड़की वहां से शिफ्ट कर चुकी है। ड्राइवर ने जो कुछ बताया है उसे सुन कर हमें हंसी भी आ रही है और खून भी खौल रहा है। अगर ड्राइवर पर भरोसा किया जाये तो गोपालन शाम की फ्लाइट से केरल में अपने गांव गया है, शादी करने। हमें गुस्सा इस बात पर आ रहा है कि गोपालन एक बार फिर गच्चा दे गया और हँसी इस बात पर आ रही है कि बदमाश के पास रहने के लिए छत नहीं है, जो है उसे खाली कराने के लिए हम कब से उसे तलाशते फिर रहे हैं और जनाब पचपन साल की उम्र में फिर से ब्याह रचाने गांव गये हुए हैं।<br /><br />बहुत मुश्किल से ड्राइवर गोपालन के गांव का फोन नम्बर तलाश कर पाया है। उसे तो वह भी न मिलता। एक तरह से हमने ही उसके गांव का नम्बर तलाशा। हुआ ये कि वहां हमें पड़े ढेरों कागजों में एसटीडी बूथ से की गयी एसटीडी कॉलों की कई रसीदें मिलीं। उनमें से सबसे ज्यादा बार जिस नम्बर पर फोन किये गये थे, उन रसीदों पर दिये गये एसटीडी कोड के जरिये ही नम्बर का अंदाजा लगा पाये। इसी नम्बर के जरिये हमने उसके गांव के नाम का पता लगाया और फिर ड्राइवर से भी गांव का नाम कन्फर्म किया, संयोग से वहां कुछ पत्र हमें रखे मिल गये जिन पर गांव का नाम लिखा हुआ था। आखिर जायेगा कहां बच्चू। शादी करने गया हो या अपने धंधे के लिए नयी मॉडल तलाशने, आखिर वापिस तो यहीं आयेगा। कब तक बचता बचाता फिरेगा।<br />संयोग से गोपालन घर पर मिल गया है और महेश ने इस बात की परवाह किये बिना कि गांव में शादी कराने गया हुआ है, फोन पर ही उसकी जो लानत–मलामत की है, गोपालन जिंदगी भर याद रखेगा। लगभग पन्द्रह मिनट तक महेश उसे फोन पर ही धोता रहा और जब उसे ये धमकी दी गयी कि आज ही उसका सारा सामान उसकी गैर–मौजूदगी में सड़क पर डाल दिया जायेगा पुलिस केस बनता है तो बने, तो उसने एक बार फिर गिड़गिड़ा कर सिर्फ तीन दिन की मोहलत मांगी है और कहा है कि वह कैसे भी करके आते ही घर खाली कर देगा।<br />महेश मकान को ले कर बहुत परेशान हो रहा है। वह जानता है कि किरायेदार उसके लंदन में होने का पूरा फायदा उठा रहा है। गोपालन को पता है कि महेश हमेशा के लिए तो छुट्टी ले कर उसके पीछे चक्कर काटने से रहा इसलिए वह लगातार कोशिश करके सामने आने से ही बच रहा है।<br />हम पुलिस चौकी गये हैं कि इस बारे में क्या वहां से कोई मदद मिल सकती है तो पुलिस ने साफ जवाब दे दिया है कि वे इस तरह के मामलों में कुछ नहीं कर सकते। जब महेश ने उन्हें गोपालन के हस्ताक्षर वाला बिना तारीख का मकान खाली करके देने वाला कागज दिखाया तो पुलिस का यही कहना है कि आप बेशक जोर–जबरदस्ती से मकान खाली करवा लीजिये, वे बीच में नहीं आयेंगे।<br />महेश ने लंदन जाने से पहले यहीं और इसी इलाके में कम से कम पन्द्रह बरस गुजारे हैं और वह यहाँ के कायदे कानूनों से और काम करने के तौर तरीकों से अच्छी तरह से वाकिफ है फिर भी लगातार सबको गालियां दे रहा है कि ये सब लंदन में होता तो ये हो जाता और वो हो जाता। फिलहाल स्थिति यही है कि वह तीन बार अपने वापिस जाने की तारीख आगे खिसका चुका है। वहां उसके काम का हर्जा हो रहा है वो अलग। लेकिन किया भी क्या जाये। इस देश में मकान किराये पर देने वालों की यही नियति होती है। अपना मकान वापिस पाने के लिए क्या–क्या पापड़ नहीं बेलने पड़ते।<br /><br />इस बीच हम लगातार महेश के इस्टेट एजेंट की तलाश करते फिर रहे हैं। कोई बताता है कि वह मीरा रोड की तरफ चला गया है तो कोई बताता है कि अब उसने ये काम ही छोड़ दिया है और चिंचपोकली के पास कम्प्यूटर सेंटर खोल कर वहां नया धंधा कर रहा है। जितने मुंह उतनी ही बातें और सारी की सारी भ्रामक। हम कई जगह भटकते रहे उसकी तलाश में लेकिन वह किसी के भी बताये पते पर नहीं मिला।<br /><br />आखिर गोपालन वापिस लौट आया है। हम जानते हैं कि ये गलत है कि वह आज ही गांव से शादी करके आया है और अपने साथ नयी ब्याहता दुल्हन ले कर आया है और हम इस तरह से सुबह सुबह ही तकादा करने वालों की तरह जा धमकें। आखिर उसकी शादी हुई है और हम उसे ठीक ठीक तरीके से बधाई देने जायें लेकिन महेश का कहना है कि इस तरह जाने से वह मानसिक रूप से दबाव में आयेगा। यही बात हमारे पक्ष में जायेगी। और हम सचमुच उसे बधाई देने के बजाये उसे घर खाली करने के लिए धमकाने चले आये हैं।<br />लेकिन मानना पड़ेगा गोपालन को भी। इस बार भी उसके पास एक और रेडिमेड बहाना है कि जिस आदमी के घर उसे शिफ्ट करना है उसका जीजा मर गया है। कम से कम चौथे दिन के संस्कार तक के लिए इसे मोहलत दी जाये। उसके चेहरे पर एक शिकन तक नहीं है कि वह एक हफ्ते से हमें इस तरह लटकाये हुए हैं। महेश चाह कर भी इस बीच अपनी अकेली और विधवा मां से मिलने मुरादाबाद नहीं जा पाया है। इस तरफ से कुछ तय हो तो ही वह कुछ और करने की सोचे।<br /><br />महेश का सिर एकदम गर्म हो गया है। वह कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं है। बात ठीक भी है। ये आदमी महेश को कब से बेवकूफ बना रहा है और लगातार तनाव में रखे हुए हैं। खुद उसे अपनी जिम्मेदारी का ज़रा सा भी ख्याल नहीं है। अगर किसी ने मेहरबानी करके आपको किराये पर मकान दे दिया तो उसका ये मतलब तो नहीं कि आप उसे मकान खाली कराने के लिए रूला डालें। गोपालन यही कर रहा है पिछले कई दिनों से।<br /><br />महेश ने उसे आखिरी चेतावनी दे दी है – मैं आपको कल शाम तक का समय दे रहा हूं और ये आखिरी वार्निंग है। अगर इसके बाद भी आप मकान खाली नहीं करते तो मैं बाहर से ताला लगा दूंगा। मैं ये भी नहीं देखूंगा कि आप घर के अंदर हैं या आपकी बीवी बाथरूम में बंद रह गयी है।<br />हम ये धमकी दे कर आ तो गये हैं लेकिन नहीं जानते कि कल क्या होनेवाला है।<br />इस बीच गोपालन ने दो तीन फीलर्स भिजवाये हैं कि किसी तरह से उसे थोड़ा–सा समय और मिल जाये लेकिन महेश ने किसी भी संदेश देने वाले से बात करने से ही मना कर दिया है। हम जानते हैं कि हर बार गोपालन ने मोहलत मांगी है और हर बार वह मुकर गया है।<br /><br />और गोपालन ने इस बार भी मकान खाली नहीं किया है। सोसायटी के कहने पर महेश ने दरवाजे पर ताला तो नहीं लगाया है लेकिन गोपालन को और कोई मौका न देने का फैसला कर लिया है।<br />हम बहुत परेशान हो चुके हैं। वह हमारे धैर्य की इतनी परीक्षाएं ले चुका है कि अब तो पानी कब का गले से ऊपर आ चुका है। हम परेशान हाल यूं ही बाज़ार में घूम रहे हैं कि सामने एक इस्टेट एजेंट का बोर्ड नज़र आया है। हम दोनों बिना किसी खास मकसद के भीतर चले गये हैं कि शायद यहाँ से कोई मदद मिल जाये।<br /><br />- आइये साहब जी। भीतर एसी ऑफिस में बैठा आदमी हमारा स्वागत करता है।<br />महेश बताता है उसे – नमस्कार जी मेरा नाम महेश है और मैं लंदन से आया हूं।<br />- कहिये, आपकी क्या सेवा की जाये जी।<br />– जी बात दरअसल यह है कि मैं एक अजीब सी मुसीबत में फंस गया हूं और आपकी दुकान का बोर्ड देख कर सिर्फ इस उम्मीद में भीतर आ गया हूं कि शायद आप मेरी मदद कर सकें।<br />– ये तो जी आपकी पूरी बात सुनने के बाद ही पता चल पायेगा साहब जी कि हम आपके किस काम आ सकते हैं। <br />ये आदमी जिस तरह से बात कर रहा है, अपने धंधे का पूरा घाघ मालूम होता है।<br />महेश उसे बता रहा है – दरअसल बात ये है कि मेरा एक घर था, मेरा मतलब है कि मेरा एक घर है यारी रोड पर। मैं लगभग दो साल पहले लंदन बसने के इरादे से यहाँ से गया था तो चार बंगला के एक इस्टेट एजेंट की मार्फत अपना फ्लैट किराये पर दे गया था। वही लीव एंड लाइसेंस वाला चक्कर।<br />– ठीक, तो आगे . . .<br />- आगे हुआ ये जी कि जब मैंने ग्यारह महीने बाद फ्लैट खाली कराने के लिए किरायेदार को लंदन से खत भेजने शुरू किये तो उसने एक का भी जवाब नहीं दिया और न ही किराया ही मेरे खाते में जमा ही कराया न एजेंट को ही दिया।<br /> - ठीक<br />- जब मैंने उसे लंदन से फोन किये तो उसने गिड़गिड़ाना शुरू कर दिया कि वह कुछ तकलीफों में हैं और उसे छः महीनों के लिए और रहने की मोहलत दे दी जाये। अब मैं लंदन में बैठ कर मोहलत देने के अलावा कर भी क्या सकता था। जब मैंने उससे पिछले किराये की बात की तो उसने बताया कि वह किराया चंद्रकांत भाई को लगातार देता रहा है, पचास हजार उसने एडवांस के दिये थे।<br />– ठीक<br />– वो जी मैंने तब चंद्रकांत भाई को फोन किया तो उसका फोन एक बार भी नहीं मिला। बाद में मेरे दोस्तों ने बताया कि इस पते और फोन नम्बर पर कोई इस्टेट एजेंट नहीं है। तब मैंने लंदन से अपने किरायेदार को कई बार फोन करके बताया कि मैं फलां तारीख को बंबई मकान खाली कराने आ रहा हूं तो हर बार उसने यही कहा कि आपके आने से दो दिन पहले मैं मकान खाली कर दूंगा और आपके आते ही आपको चाबी थमा दूंगा।<br />– फिर <br />– फिर जी, आज मुझे बंबई आये हुए आठ दिन हो गये हैं। वह मकान खाली करने को तैयार ही नहीं है। मैंने कई जगह पूछ के देख लिया कि शायद कहीं से बदमाश चंद्रकांत भाई का पता चल जाये लेकिन वह कहीं नहीं मिल रहा है।<br />– ठीक<br />– अब मुसीबत ये है कि मैं तीन बार अपनी टिकट कैंसिल करवा चुका हूं, उधर लंदन में मेरे काम का हर्जा हो रहा है और ये कम्बख्त किरायेदार मकान खाली करने को तैयार ही नहीं है।<br />– क्या कहता है।<br />– पहले तो वह मेरे आने वाले दिन बड़े प्यार से मिला और कहने लगा, परसों सुबह आप चाबी लेने आ जायें। घर आपको खाली मिलेगा। जब मैं दो दिन बाद पहुंचा तो दो दिन वो घर ही नहीं आया। फिर पता चला जनाब केरल निकल गये हैं अपने होम टाउन शादी करने।<br />– आपको कैसे पता चला?<br />– उस घर में, मेरा मतलब है मेरे घर में एक जवान लड़की और उस किरायेदार का ड्राइवर रह रहे थे। लड़की ने बताया कि आप बेशक घर खाली करा ले लेकिन अंकल दो दिन बाद वापिस आ रहे हैं सिर्फ दो दिन रुक जायें। मैं रुक गया तो ड्राइवर से पता चला कि वो तो शादी करने गया है। किसी तरह से हमने उससे केरल का नम्बर लेकर फोन किया और उसे याद दिलाया कि उसे इस तरह से बिना घर खाली किये नहीं जाना चाहिये था। उसने फिर वायदा किया कि वह तीसरे दिन कैसे भी करके वापिस आ कर घर खाली कर देगा।<br />– फिर<br />– अब वह वापिस आ गया है शादी करके और अब तक उसने रहने का कोई इंतजाम नहीं किया है।<br />– करता क्या है<br />– उस पर विश्वास किया जाये तो वह अपने आपको मॉडल कोऑर्डिनेटर बताता है।<br />– और आपको क्या लगता है कि वह क्या है<br />– मुझे तो जी वह लड़कियों का दलाल ही लगता है। बिल्डिंग वाले भी बताते हैं कि उस घर में रात–बेरात तरह तरह की लड़कियों का आना जाना था।<br />– उम्र कितनी होगी उसकी<br />– यही कोई पचपन के आस पास<br />– और आप बता रहे हैं कि वह कल ही शादी करके आया है।<br />– मुझे तो जी उसकी शादी भी ड्रामा ही लग रही है।<br />– बिल्डिंग की सोसायटी, मेरा मतलब सेक्रेटरी वगैरह को आपने विश्वास में लिया था क्या।<br />– वैसे तो सेक्रेटरी भला आदमी है और मेरी तरफ से पूरी कोशिश भी कर रहा है कि मेरा मकान मुझे वापिस मिल जाये लेकिन दिक्कत यही है कि जो भी उसे दो पैग पिला दे और फिश फ्राइ खिला दे, वह उसी की तरफ हो जाता है।<br />– और कोई बात<br />– देखिये मैं अपने मकान को लेकर पिछले कई दिनों से इतना परेशान हूं कि क्या बताऊं। कुछ समझ में नहीं आ रहा कि यहाँ कब तक मैं कैंप डाले पड़ा रहूंगा और उस बदतमीज किरायेदार की लंतरानियां सुनता रहूंगा। उस कम्बख्त ने छः महीने से न बिजली का बिल जमा कराया है और न ही टेलिफोन बिल ही। और तो और उस साले ने, गाली देने को जी चाहता है, साल भर से मेरी डाक तक दबा कर रखी हुई थी। आज सुबह उसने मुझे कोई सौ चिट्ठियों का बंडल पकड़ा दिया कि ये डाक है आपकी। दिल तो किया मेरा कि उसका वहीं खड़े खड़े गला घोंट दूं।<br />- देखिये महेशजी, तनाव में आने से तो बात और बिगड़ेगी। मैंने आपकी पूरी बात सुनी है। मुझे आपसे पूरी हमदर्दी है। जहां तक मैं समझ पाया हूं आप हमारे पास दो उम्मीदें ले कर आये हैं। पहली कि किसी भी तरह से आपका मकान खाली कराने में आपकी मदद करूं और हो सके तो आपके उस एजेंट को ढूंढ़ने में आपकी मदद करूं।<br />– सही फर्माया आपने। मैं हर तरफ से निराश हो कर आपके पास आया हूं। पुलिस . . . <br />– देखिये ऐसे मामलों में पुलिस कोई मदद नहीं कर पाती, पुलिस ने यही कहा होगा न कि आप मकान किराये पर देते समय अगर उन्हें भी फार्मली खबर कर देते तो वे शायद कुछ मदद कर भी पाते।<br />– जी हां, यही कहा था।<br />– और यह भी कहा होगा कि आप अपने आप किरायेदार से कैसे भी निपटें, वे बीच में दखल नहीं देंगे।<br />– जी हां मुझे नहीं पता था कि यहां की पुलिस इतनी गैर जिम्मेदार है और इतनी बेरुखी से पेश आती है।<br />– अब क्या किया जाये। फिलहाल हम देखें कि आपकी कैसे मदद की जाये।<br />– जी<br />– देखिये, जहां तक चंद्रकांत की बात है, हमें भी पता चला है कि वह कई लोगों को धोखा दे कर भागा हुआ है। हमारा भी एकाध पार्टी का लेनदेन अटका हुआ है उसके साथ। खैर, फिलहाल आपके मकान खाली कराने की बात है तो उसका एक ही तरीका बचता है जो कई बार हमें भी अपनाना पड़ता है और वो है मसल पावर।<br />– जी मैं समझा नहीं।<br />– देखिये ये इस शहर की खासियत है कि यहां आपको एक से बढ़ कर एक टेढ़ा आदमी मिलेगा और दूसरी तरफ आपके जैसे शरीफ आदमी भी हैं जो अपना खुद का मकान वापिस पाने के लिए भटक रहे हैं। तो ऐसे में हमारी जो ये नेचर है ना, कुदरत, सही बेलेंस करती है, टेढ़े आदमियों को सीधा करने के लिए यहां कुछ मसल मैन भी हैं। वे लोग पैसे तो लेते हैं लेकिन सिर्फ टेढ़ी उंगली से ही घी निकालना जानते हैं। निकाल कर दिखा भी देते हैं। तो जनाब अगर आप चाहते हैं कि किसी ऐसी एजेंसी की सेवाएं ली जायें तो आगे बात की जाये।<br />– आप क्या सजेस्ट करते हैं सर?<br />– देखिये महेशजी, वह आदमी आपके लंदन में होने का पूरा फायदा उठायेगा। उसे पता है, आप शरीफ आदमी है। यहां हमेशा के लिए नहीं ठहर सकते। न उसका सामान बाहर फिकवायेंगे। ज्यादा से ज्यादा ग्यारह महीने का लीव और लाइसेंस दोबारा करवा लेंगे, लेकिन वह आपको मकान तो तुरंत खाली करके देने के मूड में नहीं लगता। और फिर आप बता रहे हैं कि उसका धंधा भी कुछ इस तरह का है।<br />– ये देखिये, मैंने उसे फ्लैट देते समय ही लिखवा लिया था कि वह मुझे फ्लैट का खाली पोजेशन दे रहा है।<br />– लेकिन सर, आप कागज के बलबूते पर भी फ्लैट कहां खाली करवा पाये। वह जब तक हो सके टालेगा। एक एक दिन, एक एक घंटा। ताकि एक बार फिर आपके लौट जाने का टाइम आ जाये।<br />– तो इसका मतलब . . <br />– घबराइये नहीं, हम आपकी मदद करेंगे। फीस लगेगी 25,000 रुपये और 24 घंटे में मकान खाली कराने की गारंटी।<br />– रेट कुछ ज्यादा लग रहे हैं।<br />– आप जितनी टेंशन में हैं और अपना ब्लड प्रेशर बढ़ा रहे हैं, उसके मुकाबले कम। और फिर दस बारह आदमियों की टीम होती है, कहीं कुछ मारपीट हो जाये तो उस सबका इंतजाम करके चलता पड़ता है। इस बात का भी ख्याल रखना पड़ता है कि पुलिस केस न बने। तो समझें फाइनल?<br />– आप तो मुझे इस्टेट एजेंट कम और साइक्रियाटिस्ट ज्यादा नज़र आ रहे हैं। अब जा कर इतने दिनों के बाद महेश के चेहरे पर हंसी आयी है। मुझे भी लगने लगा है कि ये आदमी काम करवा सकता है।<br />– आपकी जानकारी के लिए मैं रूड़की युनिवर्सिटी का बी ई हूं और मैं इस लाइन में आने से पहले इंजीनियरिंग पढ़ाता रहा हूं।<br />– तो इस लाइन में कैसे आ गये<br />– आप जैसे लोगों की सेवा करने के लिए। तो जनाब हम फाइनल समझें?<br />– ठीक है। तो यही सही। जहां मकान ने सवा लाख का घाटा दिया है वहां डेढ़ लाख का सही।<br />– तो कब? कितने बजे?<br />– तीन बजे ठीक रहेगा।<br />– ठीक है तीन बजे आपके पास राजू अपनी टीम ले कर पहुंच जायेगा। अपना पता और फोन नम्बर दे दीजिये। वैसे उसकी दुल्हन कहां है?<br />– क्यों, वहीं पर ही है।<br />– तो आप एक और काम कीजिये, अपने किसी दोस्त की बीबी को भी बुलवा लीजिये, पूरे परिवार से घर खाली कराने के मामले में जरा संभल कर रहना पड़ता है। जस्ट फार सेफर साइड।<br />– हो जायेगा।<br />– पेमेंट अभी कर रहे हैं या राजू के हाथ भिजवा देंगे।<br />– पेमेंट की चिंता न करें। आप तक पहुंच जायेगी। तो मैं चलता हूं। - - ओके।<br />– ओके।<br /><br />और हम बाहर आ गये हैं।<br /><br />महेश पूछ रहा है मुझसे – क्या ख्याल है ये आदमी काम करवा देगा।<br />– यार लग तो मुझे भी रहा है कि इस आदमी की बात में दम है और ये काम करवा भी देगा।<br />– चलो एक कोशिश और सही।<br />और हम लौट आये हैं महेश के मकान के नीचे। हमने पास ही रहने वाले एक दोस्त और उसकी बीवी को भी बुलवा लिया है।<br /><br />इस समय बिल्डिंग के नीचे महेश, दो–तीन लड़के, हमारे दो तीन दोस्त, एक की बीवी वगैरह खड़े हैं। बिल्डिंग का बूढ़ा सा सेक्रेटरी और कुछ तमाशबीन भी आ जुटे हैं।<br /><br />महेश सेक्रेटरी से पूछ रहा है – अब क्या कहता है पुरी साहब वो सेक्रेटरी – देखिये महेशजी, मैं अभी अभी उससे बात करके आया हूं और वह अब कल सुबह तक की मोहलत मांग रहा है। अभी भी दोस्त के रिश्तेदार के मरने वाला किस्सा दोहरा रहा है कि इसीलिए चाबी नहीं ला पाया।<br /><br />बीच में किसी ने टांग अड़ायी है – मतलब ही नहीं है जी मोहलत देने की। साले ने बिल्डिंग में कब से गंद मचा रखा है।<br /><br />अब दूसरे को भी हिम्मत आ गयी है। सबको लग रहा है आज जो ड्रामा यहां होगा, उसे देखे बिना कैसे चलेगा।<br /><br />अब दूसरा बोल रहा है – मैंने भी उसे एक मकान दिखाया था, सिर्फ आठ हजार भाड़े पर और डिपाजिट भी सिर्फ बीस हजार। ये बंदा उसके लिए भी राजी नहीं।<br />– अरे जब मुफ्त में हनीमून मनाने के लिए इतना बड़ा फ्लैट मिला हुआ है तो वह क्यों जायेगा कहीं और।<br />– साले ने बिल्डिंग में रंडीखाना खोल रखा है। पता नहीं ये भी बीवी है या नहीं, बेचने के लिए लाया होगा। देखा नहीं कितनी छोटी है इससे और डरी हुई भी थी।<br /><br />ये बातें हो ही रही हैं कि तभी मोटरसाइकिल पर छः फुट तीन इंच का जवान आया है। पूछ रहा है<br />– यहां आप में से महेशजी कौन हैं?<br />महेश आगे बढ़ कर बता रहा है<br />– मैं ही हूं जी<br /><br />वह गर्मजोशी से हाथ मिलाता है<br />– मेरा नाम राजू है। कहां है वो आपका किरायेदार?<br />– लेकिन आपकी टीम राजू <br />– कौन सी टीम, अरे हम वन मैन आर्मी हैं। हमारे साथ सिर्फ मां भवानी चलती है। दिखाइये कहां है वो चूहा, बस मुझे सिर्फ दो–तीन आदमी दे दीजिये सामान बाहर निकालने के लिए और मुझे बिलकुल भी भीड़ नहीं चाहिये। ओके।<br /><br />सब लोग हैरानी से इस देवदूत सरीखे आदमी को देख रहे हैं और उसे लिए रास्ता छोड़ दिया है। हम भी हैरान है कि ये कैसा आदमी है जो अकेले के बलबूते पर घर खाली कराने चला है। आज तो न देखा न सुना। अगर घर खाली कराना इसके लिए इतना आसान है तो शहर में इसकी कितनी मांग रहती होगी।<br /><br />वह हमारे साथ सीधे ही ऊपर चला आया है और उसी ने फ्लैट की घंटी बजायी है। दरवाजा गोपालन ने ही खोला है। इससे पहले कि वह कुछ कह सके, राजू ने दरवाजा पूरा खोल दिया है और सोफा बाहर की तरफ खिसकाना शुरू कर दिया है। <br /><br />गोपालन को इसकी उम्मीद नहीं है कि ऐसा भी हो सकता है<br />– ये क्या करता है आप साब, आप कौन है, हम महेशजी से बात करेंगे। - महेशजी इसे रोको। मैं आपसे बोला ना हमको कल सुब्बू तक का टाइम मांगता है। हम कल सुबे ही मकान खाली कर देंगी।<br />– वो तो आप पिछले चार महीने से बोल रहे हैं गोपालन जी, मैं थक गया हूं आपके वायदे सुनते सुनते।<br /><br />गोपालन गुस्से में राजू को रोकने की कोशिश कर रहा है – आप इस तरह से मेरे घर में घुस के मेरे सामान को हाथ नहीं लगा सकता। मैं तुमको बोला ना ये शरीफ आदमी का घर है। हमारा वाइफ क्या सोचेंगा, उसको अभी यहां आया एक दिन भी नहीं हुआ है और आप . . . <br />हम सब तमाशबीन बने देख रहे हैं।<br />राजू ने उसे परे हटा दिया है – ओये हट पीछे . . . बड़ा आया शरीफ का चाचा। क्या कर लेगा तू ओये ओये। राजू एकदम गोपालन के सीने पर सवार होने लगा है और उसने अपनी कमीज की बाहें ऊपर कर ली हैं – बोल। तब तेरी शराफत कहां गयी थी जब मकान दबा कर बैठ गया है।<br />गोपालन अब वाकई घबरा गया है और महेश की तरफ मुड़ा है – महेशजी, महेशजी इस आदमी को हटाओ, ये मुझे मार डालेंगा। ये गुंडा मवाली . . . <br />ये सुनते ही राजू ने उसका गला पकड़ लिया है – ओये, मवाली किसे बोला ओये, किसे बोला तू मवाली, मां भवानी की कसम। मैं तेरा खून पी जाऊंगा।<br />अब गोपालन को भी गुस्सा आ रहा है – तुम . . . तुम मेरे घर में घुस कर मुझे नहीं मार सकता। मैं मर जायेंगा तो तुमको पुलिस पकड़ कर ले जायेंगी। मैं मैं . . .<br />अब सेक्रेटरी वगैरह राजू को पकड़ कर पीछे कर रहे हैं कि कहीं वाकई कुछ हो न जाये लेकिन राजू पर जैसे खून सवार है। वह बार बार आगे आ रहा है।<br />दोनों में अभी भी गाली गलौज हो रहा है – देख लूंगा। देख लूंगा कर रहे हैं दोनों।<br />गोपालन ने आखरी कोशिश की है – महेशजी, यू गिव मी सम टाइम टू थिंक। जस्ट टेन मिनट्स। ऐ जैंटलमन रिक्वेस्ट। प्लीज। रिक्वेस्ट।<br />महेश – ठीक है। आपको हम दस मिनट दे रहे हैं। उसके बाद आपको कोई भी नहीं बचा पायेगा।<br />गोपालन मान गया है। शायद अपना आखरी दांव चलना चाहता होगा। हम सब वहीं ड्राइंगरूम में ही घेरा डाल कर बैठ गये हैं। पता नहीं कौन सबके लिए कोल्ड ड्रिंक ले कर आ गया है। वैसे इसकी जरूरत भी थी। सभी का तो खून खौल रहा है।<br />गोपालन कह रहा है – ओ के। प्लीज। प्लीज . . . <br />तभी हमारी निगाह सामने बेडरूम के दरवाजे के पीछे से सहमी हुई सी उसकी बीवी पर पड़ती है। उसके चेहरे पर भयातुर हिरणी जैसे भाव हैं। उसने अपने सीने से एक छोटा सा कुत्ता दबा रखा है। औरत बेहद डरी हुई है। वह जिस तरह से सारा नज़ारा देख रही है उससे मैं अचानक सकपका गया हूं। मैंने अपनी पूरी जिंदगी में किसी औरत की आंखों में इतना डर नहीं देखा होगा। उफ् . . . मैं उसकी तरफ देखने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाता।<br />मैं अपने हाथ की कोल्ड ड्रिंक की बोतल वहीं एक कोने में रख कर बाहर आ गया हूं। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था आंखों में इतने डर की।<br />हमारे साथ आयी कपूर की बीवी ने भी शायद उसकी आंखों में तैर रहे डर को पढ़ लिया है। उसने गोपालन की बीवी के पास जा कर उसके कंधे पर हाथ रखा है<br />– डोंट वरी। घबराओ नहीं, कुछ नहीं होगा। वह उसका कंधा थपथपा रही है। मुझे राहत मिली है कि मैं अकेला नहीं हूं जिस तरह उन डरी हुई आंखों का संदेश पहुंचा है।<br />इस बीच गोपालन ने तीन चार जगह फोन किये हैं। कहीं मलयालम में तो कहीं टूटी फूटी हिन्दी अंग्रेजी और मलयालम में। बता रहा है कि उसे अभी घर खाली करना है। वह सब जगह से आखरी मदद मांग रहा है लेकिन उसके चेहरे से लगता नहीं कि कहीं से भी उसे सही जवाब मिला होगा। उसने फोन रख दिया है और सिर झुकाकर बैठ गया है और अपने बालों को पकड़ कर खींच रहा है। सब लोग इंतजार कर रहे हैं कि अब क्या होगा।<br />महेश ने उसके पास जा कर बहुत ही ठंडे और ठहरे हुए लहजे में कहा है – अब आपके दस मिनट पूरे हो गये हैं मिस्टर गोपालन।<br />गोपालन कह रहा है – प्लीज, ट्राइ टू अंडरस्टैंड।<br />– मिस्टर गोपालन आपके पास और कोई बात हो तो बताओ। आपका टाइम पूरा हो चुका है।<br />गोपालन – मुझे कल सुबह तक का टाइम चाहिये। मैं जिदर सामान . .. <br />– दैट इज नॉट माइ प्राब्लम। ओके<br />– आप सुनेगा नहीं तो हम बात कैसे करेंगे। जस्ट वन डे।<br />राजू बीच में टपक पड़ा है – नहीं मिलेगा। और कुछ?<br />गोपालन – देखिये मिस्टर मैं महेशजी से बात कर रहा हूं। मुझे बात करने दें आप। महेशजी आप आप इसे बोलो, हम हार्ट पेशेंट हैं। हमको कुछ हो गया तो हमारा . . . <br />राजू अब गुस्से में आ गया है – मैं तेरे किसी नाटक में आने वाला नहीं । हटो जी, उतारो सामान। बहुत हो गया साले का ड्रामा।<br />गोपालन अब रुआंसा हो गया है – हम ड्रामा करता है? हैं हैं हम ड्रामा करता है। आप क्या बोल रहा है कि हम ड्रामा करता है।<br />राजू ने उसकी नकल उतारी है – हां ड्रामा करता है। और इतना कहते ही उसने सामान उठा कर दरवाजे के बाहर ले जाना शुरू कर दिया है।<br />हम सब तमाशबीनों की तरह खड़े देख रहे हैं। अब कोई भी बीच में नहीं आ रहा। सबको पता है, बीच बचाव कराने की घड़ी जा चुकी। इस बीच काफी चीजें बाहर ले जायी जा चुकी हैं। अब सबने मिल कर सामान निकालने में मदद करनी शुरू कर दी है। मैं अभी भी गोपालन की बीवी की सहमी सहमी आंखों पर के बारे में सोच रहा हूं। मुझे लग रहा है उस बेचारी के साथ गलत हो रहा है। उसे तो बंबई आये चौबीस घंटे भी नहीं हुए। शादी भी दो तीन दिन पहले ही हुई होगी। पता नहीं क्या–क्या सपने ले कर आयी होगी और क्या–क्या सब्ज बाज दिखाये गये होंगे उसे। लेकिन सच्चाई तो वही है जो वह अपनी डरी डरी आंखों से देख रही है।<br />वह अब रसोई के दरवाजे पर आ गयी है। मैं कनखियों से देखता हूं, उसकी आंखों से धारोधार आंसू बह रहे हैं<br />गोपालन कह रहा है – वन मोर चांस प्लीज। जस्ट वन फोन प्लीज।<br />महेश ने इजाजत दे दी है – ओके एक और फोन कर ले।<br />गोपालन एक और फोन कर रहा है। वह फोन पर गिड़गिड़ा रहा है। इस बीच राजू ओर दूसरे लड़कों ने रसोई में जा कर सामान समेटना शुरू कर दिया है।<br />गोपालन ने फोन नीचे रख दिया है और फिर सिर पकड़ कर बैठ गया है। वह अब अपने आप से बोल रहा है। वह अपने आप से बातें कर रहा है – माय बैड लक। क्या क्या ड्रीम्स ले कर आया था। वाइफ को बोला तुम्हें अक्खा मुंबई घुमायेगा। एन्जाय करायेगा। अभी जर्नी का थकान भी नहीं उतरा और ये लोक मेरा सारा सामान सड़क पर डाल दिया है। इन्सानियत मर गया है। इन्सान का अब कोई भरोसा नहीं रहा। मैं कितना रिक्वस्ट किया लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है। ये शहर डैड लोगों का शहर है। आदमी मर जायेंगा तो भी कोई पूछने के वास्ते नहीं आयेंगा। हम अपनी लाइफ का क्रीम इस शहर को दिया। आज हमारा ये हालत है कि हमारा सारा सामान सड़क पर है। हमारा वाइफ क्या सोचता होयेंगा कि हमारा अक्खा इस शहर में एक भी फ्रेंड नहीं है। लोक हमारा कितना रिस्पेक्ट करता था। हम किस किस का मदत नहीं किया। आज जब हमको मदत का जरूरत है वो कोई नहीं हैं। कोई नहीं, ओह गॉड आइ एम अलोन। हेल्प मी गॉड। माइ लाइफ माई ड्रीम्स . . . माई कैरियर गॉन। माइ गॉड। उसने अचानक रोना शुरू कर दिया है। तय है उसका कोई इंतजाम नहीं हो पाया है।<br />मैं एक किनारे खड़ा देख रहा हूं कि इस बीच सारा सामान नीचे उतार दिया गया है। गोपालन अपनी वाइफ का हाथ पकड़ कर नीचे आ रहा है और धीरे धीरे चलते हुए सामान के ढेर पर बैठ गया है। उसकी वाइफ अभी भी बहुत डरी हुई है और सहमी हुई निगाह से चारों तरफ देख रही है।<br />मैं अपने आप से पूछता हूं – ये सब क्या हो रहा है। हमने ये सब तो नहीं चाहा था। मैं सोच भी नहीं पा रहा कि इस सब में मेरी क्या भूमिका है। मैं नीचे आ गया हूं और मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा। गोपालन की बीवी की आंखों में पसरे डर ने पता नहीं मुझ पर क्या असर कर दिया है। बाकी सब लोग अभी भी ऊपर ही हैं।<br />धीरे धीरे अंधेरा घिर रहा है। गोपालन सड़क पर रखे अपने सामान पर बैठा हुआ है। अचानक उसने अपना सीना दबाना शुरू कर दिया है। उसे शायद सीने में दर्द महसूस हो रहा है। उसने अपने ड्राइवर को इशारा किया है। वह दौड़ कर पास की दुकान से उसके लिए सोडा ले कर आया है। वह सीना दबाये सोडा पी रहा है। उसकी बीवी और ज्यादा डर गयी है। उसने कुत्ते को नीचे उतार दिया है और पति के पास आ कर उसके कंधे पर हाथ रख कर खड़ी हो गयी है।<br />मेरी निगाह ऊपर की तरफ जाती है। वहां बालकनी में खड़े राजू, महेश और उनके दोस्त खुशियां मनाते हुए बीयर पी रहे हैं।<br />मैं समझ नहीं पा रहा कि मुझे महेश का मकान खाली होने के लिए खुश होना चाहिये या गोपालन और उसकी नयी ब्याहता बीवी के इस तरह सड़क पर आ जाने के कारण उसके कंधे पर हाथ रख कर उससे सहानुभूति के दो बोल बोलने चाहिये।<br /><br />उसकी बीवी अभी भी डरी सहमी खड़ी है।सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-56269702407917306122008-08-11T11:48:00.001+05:302008-08-11T11:50:58.284+05:30बीसवीं कहानी - करोड़पतिइस समय भी वह लिफ्ट के पास खड़ा इशारे से किसी न किसी को अपनी तरफ बुला रहा होगा या फिर कैंटीन में बैठा अपनी ताजा रचना जोर - जोर से पढ़ रहा होगा। जिसने भी उससे आंख मिलायी, उसी की तरफ उंगली से इशारा करके अपनी तरफ बुलायेगा और भर्राई हुई आवाज़ में कहेगा, '' मैं आपको एक शब्द दूंगा। आप उसका मतलब किताबों में ढूंढना। किसी पढ़े लिखे आदमी से पूछना। मैं आपसे सच कहता हूं, उस शब्द से यह ऑफिस, यह शहर, यह दुनिया सब बदल जायेंगे, बेहतर हो जायेंगे। आप मुझे मिलना। अगर आपके पास वक्त न हो।'' यहां आते - आते उसकी सांस बुरी तरह फूल चुकी होगी और वह हांफने लगेगा। वहीं बैठ जायेगा। सांस ठीक होते ही फिर से उसका यह रिकॉर्ड चालू हो जायेगा। सामने कोई हो, न हो। तब तक बोलता रहेगा जब तक दरबान उसे खदेड क़र बाहर न कर दे, या भीतर न धकेल दे।<br /><br />यह करोडपति है। असली नाम पुरुषोत्तम लाल। चपरासी है। आज कल सनक गया है। कभी खूब पैसे वाल हुआ करता था। खेती - बाड़ी थी। दो - तीन घर थे। शहर के कई चौराहों पर पान के खोखे थे। आजकल खाने तक को मोहताज है। अपने अच्छे दिनों में उसने सबकी मदद की। बेरोजगार रिश्तेदारों को काम धन्धे से लगाया। इसी चक्कर में सब कुछ लुटता चला गया। कुछ रिश्तेदारों ने लूटा और कुछ ऑफिस के साथियों ने निचोड़ा। अपने पैसों को वसूलने के लिये करोड़पति सबके आगे गिड़ग़िडाता फिरा। नतीजा यह हुआ कि वह सनक गया। बहकी - बहकी बातें करने लगा। जब पी लेता है तो और भी बुरी हालत हो जाती है। कभी गाने लगता है तो कभी जोर - जोर से बोलने लगता है।<br />भगवान जाने कितना सच है या न जाने लोगों की उडाई हुई है। एक दिन इसी सनक के चलते एक दिन ऑफिस के बाद घर जाते समय एक थैले में ढेर सारी चीजें, पेपरवेट, पंचिंग मशीन, कागज़, पैन - पैन्सिल जो भी मेजों पर पड़ा नजर आया, थैले में ठूंस लिया। शायद दिन में किसी से कहा - सुनी हो गयी होगी। उसी को जोर - जोर से कोसता हुआ बाहर निकला तो दरबान ने यूं ही पूछ लिया - थैले में क्या ले जा रहे हो करोड़पति? तो उसी से उलझ गया। ऊंच - नीच बोलने लगा। दरबान ने उसे वहीं रोक लिया और रिपोर्ट कर दी। करोड़पति सामान चोरी करके ले जा रहा है।<br />करोड़पति पकडा गया। सुरक्षा अधिकारी ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की कि उसके खिलाफ मामला न बने, बेचारा पहले ही दुनिया भर का सताया हुआ है। लेकिन पता चला कि करोड़पति अव्वल तो पिये हुए है और दूसरे, ढंग से बात करने को तैयार नहीं है। कभी कहे कि ये सामान फलां साहब ने अपने घर पर मंगवाया है, तो कभी कहे कि - वह ऑफिस की नौकरी छोड़ रहा है। अब इसी सामान की दुकान खोलेगा। उसने अपने आप को यह कह कर और भी फंसा लिया कि - यह तो कुछ भी नहीं है, वह तो अरसे से थैले भर - भर कर सामान ले जाता रहा है।<br />उसके खिलाफ मामला बना और उसे सस्पैण्ड कर दिया गया। तबसे और सनक गया है।<br />मैले कुचैले कपडे, एकदम लाल आंखें, नंगे पैर, हाथ में पांच सात कागज़, दाढ़ी बढ़ी हुई। तब से रोज सुबह लिफ्ट के पास खड़ा सबको पुकारता रहता है। कोई उसके सामने नहीं पड़ना चाहता। वे तो बिलकुल भी नहीं जिन्होंने उसकी सारी पूंजी लूट कर उसकी यह हालत बना दी है।<br />उसकी सबसे बड़ी तकलीफ यह है कि वह घर और बाहर दोनों ही जगह से फालतू हो गया है। घरवालों की बला से वह कल मरता है तो आज मरे। कम से कम उसकी जगह परिवार में किसी को तो नौकरी मिलेगी। उनके लिये तो वह अब बोझ ही है। ऑफिस में उसकी परवाह किसे है? वहां वह अकेला पागल ही तो नहीं। एक से एक पागल भरे पड़े हैं। कुछ हैं और कुछ बने हुए हैं। जो नहीं भी हैं वो सबको पागल बनाये हुए हैं।<br />कोई भी करोड़पति से बात नहीं करना चाहता। उसे देखते ही सब दायें - बायें होने लगते हैं। दुर - दुर करते हैं। कौन इस पागल के मुंह लगे। अगर कोई धैर्यपूर्वक उसकी बात सुने, उससे सहानुभूति जताये तो शायद उसके सीने का बोझ कुछ तो उतरे। लेकिन किसे फुर्सत? <br />जब उसकी इन्क्वायरी के लिये तारीख तय हुई तो यूनियन से उसका डिफेन्स तय करने के लिये कहा गया। यूनियन को भला ऐसे कंगले में क्या दिलचस्पी हो सकती थी। उन्होंने भी टालमटोल करना शुरु कर दिया। जब करोड़पति को उनके रुख का पता चला तो वह वहां भी गाली - गलौज कर आया - मुझे आपकी मदद की कोई जरूरत नहीं। मैं अपना केस खुद लड़ लूंगा। गुस्से में आकर उसने यूनियन से ही इस्तीफा दे दिया - चूंकि पुरषोत्तम लाल यूनियन का मेम्बर नहीं है, अत: यूनियन की तरफ से डिफेन्स उपलब्ध कराना संभव नहीं है।<br />मजबूरन ऑफिस ने ही उसके लिये डिफेन्स जुटाया और केस आगे बढ़ाना शुरु किया। लेकिन करोड़पति अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारने को तैयार हो तो कोई क्या करे! कभी इनक्वायरी में नहीं आयेगा। आयेगा भी तो बात करने लायक हालत में नहीं रहेगा। अगर सारी स्थितियां उसके पक्ष में हों, वह आये, बात करने लायक हो, तो भी वह वहां कुछ ऐसा उलटा सीधा बोल आयेगा कि बात आगे बढ़ने के बजाय पीछे चली जाये - मैं एक - एक को देख लूंगा। सब मेरे दुश्मन हैं। मेरी बात ध्यान से नोट कर लो। मैं बाद में फिर आऊंगा। इस तरह की ऊटपटांग बातें करके लौट आयेगा।<br />इसी तरह ही चल रहा है करोड़पति। पता नहीं, खाना कहां से खाता है, पीना कहां से जुटाता है। इन दिनों उसे आधी पगार मिलती है जो पगार वाले दिन उसकी बीवी ले जाती है। कम से कम बच्चे तो भूखे न मरें। इस पागल का क्या!<br />संस्थान ने उसकी हालत पर तरस खा कर फिर से बहाल कर दिया है, अलबत्ता उसकी चार वेतन वृध्दियां कम कर दी हैं। उसे नौकरी में वापिस लिये जाने की एक वजह यह भी रही कि उसका ढंग से इलाज हो सके और एक परिवार बेवक्त उजड़ने से बच जाये। लेकिन हुआ इसका उलटा ही है। करोड़पति की हालत पहले से भी ज्यादा खराब हो गयी है। काम करने लायक तो वह पहले कभी नहीं था, इधर उसने दो तीन नये रोग पाल लिये हैं। आजकल वह बात - बात पर इस्तीफा दे देता है। कभी उसे गाने का शौक रहा होगा, कुछेक फिल्मी गीत याद भी रहे होंगे। उन्हीं में से कुछ शब्द आगे पीछे करके ले आता है। टाइपिस्ट सीट पर बैठे भी नहीं होते हैं कि सिर पर आ धमकता है - '' इसे टाइप कर दो। अभी किशोर कुमार इसे गाने वाले हैं। वे स्टूडियो में इसकी राह देख रहे हैं। वे नहीं गायेंगे तो मैं खुद गाऊंगा।'' और वह वहीं शुरु हो जाता है। भर्राये हुए गले से करोड़पति गा रहा होता है और सब खी - खी हंस रहे होते हैं। पिछले हफ्ते उसे सस्पैन्शन की अवधि की बकाया रकम मिली है। उसी पैसे से पी जा रही दारू का नतीजा है यह।<br />अगर टाइपिस्ट यह तुकबन्दी टाइप करने से मना कर दे, कैन्टीन से चाय मिलने में तीन मिनट से ज्यादा लग जायें, कोई बिल एक ही दिन में पास न किया जाय तो वह तुरन्त इस्तीफा दे देता है। बेशक अगले दिन उसके बारे में भूल जाये और किसी और बात पर कोई नया इस्तीफा दे दे। कई बार उसके पांच - सात इस्तीफे जमा हो जाते हैं जिन्हें डायरी क्लर्क एक किनारे जमा करती रहती है। जहां तक उसके इलाज का सवाल है, करोड़पति को डॉक्टर के पास ले जाया जाता है, उसकी तकलीफ बतायी जाती है, दवा भी मिलती है, लेकिन खाने के लिये तो करोड़पति को एक और जनम लेना पडेग़ा।<br />• <br />करोड़पति लापता है। पिछले कई दिनों से न घर पहुंचा है और न ऑफिस ही। वैसे तो पहले भी वह कई बार दो - दो, चार - चार दिनों के लिये गायब हो जाता था, लेकिन जल्द ही मैले - कुचैले कपड़ों में लौट आता था। इस बार उसे गायब हुए महीना भर होने को आया है। उसका कहीं पता नहीं चल पाया है। इस बार पगार वाले दिन उसकी बीवी उसे ढूंढते हुए ऑफिस आई, तभी सबको याद आया कि कई दिन से करोड़पति को नहीं देखा। कई दिन से वह घर भी नहीं पहुंचा था। वैसे तो कभी भी किसी ने उसकी परवाह नहीं की थी, न घर पर न दफ्तर में। अब अचानक सबको करोड़पति याद आ गया था। बीवी को पगार वाले दिन उसकी याद आई थी, बल्कि जरूरत पड़ी थी कि आधी - अधूरी जितनी भी पगार है, करोड़पति से हस्ताक्षर करवा कर ले जाये। अगली पगार तक करोड़पति अपने दिन कैसे काटता था, क्या करता था यह उसकी सिरदर्दी नहीं थी। बेशक कर्जे वसूलने वाले भी पगार के आस - पास मंडराते रहते थे कि उसके हाथ में लिफाफा आते ही अपना हिस्सा छीन लें। लेकिन उसकी बीवी की मौजूदगी में कुछ भी वसूल नहीं कर पाते थे। अलबत्ता बीवी को ही डरा धमका कर सौ - पचास निकलवा पायें यही बहुत होता था। वे भी अब परेशान दिखने लगे थे। करोड़पति नहीं है अब क्या वसूलें और किससे वसूलें।<br />अब अचानक सबको याद आने लगा है कि - किसने करोड़पति को आखिरी बार कहां देखा था! किसी को हफ्ता भर पहले स्टेशन पर पूरी - भाजी खाते नजर आया था तो किसी ने उसे सब्जी मण्डी में मैले कुचैले कपड़े पहने भटकते देखा था। किसी का ख्याल था कि वह या बिलकुल वैसा ही एक आदमी थैला लिये शहर से बाहर जाने वाली एक बस में चढ़ रहा था। जितने भी लोग थे करोड़पति के बारे में अपने कयास भिड़ा रहे थे, कोई भी यकीन के साथ बताने को तैयार नहीं था। बल्कि कुछ लोग तो इतनी दूर की कौड़ी ख़ोज कर लाये थे कि तय करना मुश्किल था कि किसके कयास में ज्यादा वजन है। एक चपरासी को तो पूरा यकीन था कि पिछले हफ्ते रेलवे पुल के पास भिखारी जैसे किसी आदमी की जो लाश मिली थी, हो न हो वह करोड़पति की ही रही होगी। अलबत्ता यह खबर देने वाले के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि अगर वह करोड़पति की ही लाश थी तो उसने पहले खबर क्यों नहीं दी? ये और इस तरह की कई अफवाहें अचानक हवा में उठीं और गायब भी हो गयीं।<br />ऑफिस में तो उसकी मौजूदगी - गैर मौजूदगी महसूस ही नहीं की गई थी, लेकिन उसकी बीवी वाकई चिन्ता में पड़ गयी है। उसकी चिन्ता करोड़पति की पगार को लेकर है, जो उसे बिना करोड़पति के हस्ताक्षर के नहीं मिल सकती है। उसने ऑफिस से करोड़पति की गैर हाजिरी का प्रमाणपत्र ले लिया है और थाने में उसके गुमशुदा होने के बारे में रिपोर्ट लिखवा दी है। किसी तरह रोते - पीटते अपनी गरीबी की दुहाई देते हुए उसके गुमशुदा होने का प्रसारण भी दूरदर्शन पर करवा दिया है। लेकिन इस बीच न करोड़पति लौटा है न उसके बारे में कोई खबर ही मिली है।<br />तीन महीने तक इंतजार करने के बाद ऑफिस ने हर तरह की कागजी कार्रवाई पूरी करने के बाद संस्थान का मकान खाली करने का आदेश उसकी बीवी को दे दिया है। उसकी बीवी की सारी कोशिशों और अनुरोधों के बावजूद ऑफिस से करोड़पति का एक पैसा भी उसे नहीं मिल पाया है। इस बीच उसने करोड़पति की जगह नौकरी के लिये भी एप्लाई कर दिया है जिसे ऑफिस ने ठण्डे बस्ते में डाल दिया है।<br />करोड़पति की जगह नौकरी पाने के लिये उसे या तो करोड़पति का मृत्यु प्रमाणपत्र लाना पड़ेगा या उसके गुमशुदा होने की तारीख से कम से कम सात साल तक इंतजार करना पड़ेगा।सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-38790620120713006212008-08-04T10:45:00.000+05:302008-08-04T10:47:01.289+05:3019वीं कहानी - मातमपुर्सीइस बार भी घर पहुंचने से पहले ही बाउजी ने मेरे लिए मिलने जुलने वालों की एक लम्बी फेहरिस्त बना रखी है। इस सूची में कुछ नामों के आगे उन्होंने ख़ास निशान लगा रखे हैं, जिसका मतलब है, मुझे उनसे तो ज़रूर ही मिलना है। <br />इस शहर को हमेशा के लिए छोड़ने के बाद अब यहां से मेरा नाता सिर्फ़ इतना ही रहा है कि साल छ: महीने में हफ्ते दस दिन की छुट्टी पर मेहमानों की तरह आता हूं और अपने खास खास दोस्तों से मिल कर या फिर मां बाप के साथ भरपूर वक्त गुज़ार कर लौट जाता हूं। रिश्तेदारों के यहां जाना कभी कभार ही हो पाता है। हर बार यही सोच कर आता हूं कि इस बार सब से मिलूंगा, सब की नाराज़गी दूर करूंगा, लेकिन यह कभी भी संभव नहीं हो पाया है। हर बार मुझसे नाराज़ होने वाले मित्रों की संख्या बढ़ती रहती है और मैं हर बार समय की कमी का रोना रोते हुए लौट जाता हूं। <br />लेकिन बाउजी की इस फेहरिस्त में सबसे पहला नाम देखते ही मैं चौंका हूं। उस पर उन्होंने दोहरा निशान लगा रखा है। मैंने उनकी तरफ सवालिया निगाह से देखा है। उन्होंने हौले से कहा है - मैंने तुझे लिखा भी था कि मेहता की वाइफ गुज़र गयी है। मैंने तुझे अफ़सोस की चिट्ठी लिखने के लिए भी लिखा था। अभी बेचारा बीवी के सदमे से उबरा भी नहीं था कि अब महीना भर पहले संदीप भी नहीं रहा। मैं अवाक रह गया - अरे .. संदीप.. क्या हुआ था उसे? वह तो भला चंगा था, बल्कि उसकी शादी तो साल भी पहले. ही हुई थी। मैंने उसे कार्ड भी भेजा था।<br />आगे की बात मां ने पूरी की है - शांति बेचारी ज़िदगी भर खटती रही और अकेले बच्चों को पढ़ाती लिखाती रही। तेरे अंकल तो नौकरी के चक्कर में हमेशा दौरों पर रहे और उसी ने बच्चों को पढ़ाया लिखाया। जब आराम करने का वक्त आया तो कैंसर उसे खा गया। मां का गला भर आया है।<br />मां बता रही है कि संदीप कानपुर से एक मैच खेल कर लौट रहा था। रास्ते में किसी बस अड्डे पर कुछ खा लिया होगा उसने जिससे फूड पाइज़निंग हो गयी और यहां तक तो पहुंचते पहुंचते तो उसकी यह हालत हो गयी थी कि वहीं बस अड्डे से दो एक लोग उसे अस्पताल ले गये। जब तक घर में खबर पहुंचती, वह तो खतम हो चुका था। पता भी नहीं चल पाया कि उसने किस शहर के बस अड्डे पर क्या खाया था। अभी बेचारी शांति की राख भी ठण्डी नहीं हुई थी कि .. .. ..<br />मेरे सामने दोहरी दुविधा है। मैं संदीप की बीवी से पहली ही बार और वह भी कैसे दुखद मौके पर मिल रहा हूं। पता चला था संदीप की पत्नी बहुत ही खूबसूरत और साथ ही स्मार्ट भी है। शांति आंटी और अंकल भी हमेशा उसकी तारीफ करते रहते थे। मैं कल्पना भी नहीं कर पा रहा हूं कि इतनी अच्छी लड़की को शादी के सिर्फ़ साल भर के भीतर विधवा हो जाना पड़ा। क्या सोचती होगी वह भी कि पहले सास गयी और अब खुद का सुहाग ही उजड़ गया।<br />मेरा संकट है, मैं ऐसे मौकों पर बहुत ज्यादा नर्वस हो जाता हूं। मातमपुर्सी के लिए मेरे मुंह से लफ्ज़ ही नहीं निकलते। मुझे समझ ही नहीं आता कि क्या कहा जाये और कैसे कहा जाये। घबरा रहा हूं कि मैं उन लोगों का सामना कैसे करूंगा। एक तरफ अंकल हैं जो मुझे बहुत मानते हैं और इन दो महीनों में ही पत्नी और जवान बेटा खो चुके हैं और दूसरी तरफ़ संदीप की पत्नी है जिससे मैं पहली बार मिल रहा हूं। <br />इससे पहले कि मैं झुक कर अंकल के पैर छूता, अंकल ने बीच में ही रोक कर मुझे गले से लगा लिया है। शिकवा कर रहे हें कि मैं कितनी बार यहां आया और घर पर एक बार भी नहीं आया। मेरे पास कोई जवाब नहीं है और मैं झेंपी हुई हसीं हंस कर रह जाता हूं। देखता हूं इस बीच वे पहले की तुलना में बहुत कमज़ोर लग रहे हैं। आखिर दो मौतों का ग़म झेलना कोई हंसीं खेल नहीं। मैं संदीप या आंटी के बारे में कुछ कहने को होता हूं कि वे मुझसे पूछ रहे हैं बंबई के हालचाल और बाल बच्चों के बारे में। मैंने एक सवाल का जवाब दिया नहीं होता कि वे दूसरा सवाल दाग देते हैं। मैं खुद किसी तरह से बातचीत का सिरा उस तरफ मोड़ना चाहता हूं ताकि अफसोस के दो शब्द तो कह सकूं। बाउजी ने एकाध बार बात घुमाने की कोशिश भी की लेकिन मेहता अंकल हैं कि हंस-हंस कर इधर उधर की बातें कर रहे हैं। ठहाके लगा रहे हैं। तभी पारूल पानी की ट्रे ले कर आयी है। मैं उठ कर उसे हेलो कहता हूं। वह हौले से जवाब देती है। बेहद सौम्य और खूबसूरत लड़की। चेहरे पर ग़ज़ब का आत्मविश्वास। लेकिन हाल ही के दोहरे सदमे ने उसके चेहरे का सारा रस और नूर छीन लिया है। शादी के साल भर के भीतर उसकी जिंदगी क्या से क्या हो गयी। इतने अरसे में तो पति पत्नी एक दूजे को ढंग से पहचान भी नहीं पाते और .. .. ..। <br />तय नहीं कर पा रहा हूं बातचीत किस तरह से शुरू करूं। और कोई मौका होता तो कोई भी हलकी फुलकी बात कही जा सकती थी लेकिन इस मौके पर.. ..। तभी अंकल ने उसे फरमान सुना दिया है - अरे भई, दीपक को कुछ चाय नाश्ता कराओ। बरसों बाद हमारे घर आया है। और वे गाने लगे हैं - बंबई से आया मेरा दोस्त। <br />पारूल चाय का इंतज़ाम करने चली गयी है। अंकल ने बातचीत को अलग ही दिशा में मोड़ दिया है। वे कोई पुराना किस्सा सुनाने लगे हैं। मैं फिर संदीप के बारे में बात करना ही चाहता हूं कि पारुल चाय ले कर आ गयी और मेरा वाक्य अनकहा ही रह गया।<br />चाय पारुल ने खुद बना कर सबको दी है। अचानक सब खामोश हो गये हैं और कुछ देर तक सिर्फ़ चाय की चुस्कियों की ही आवाज़ आती रही। चाय खत्म हुई ही है कि पारुल ने अगला फरमान सुना दिया है - आप लोग खाना खा कर ही जायेंगे। पारुल ने जिस अपनेपन और अधिकार के साथ कहा है, उसमें मना करने की गुंजाइश ही नहीं है।<br />पारुल के चले जाने के बाद भी मैं देर तक बातचीत के ऐसे सूत्र तलाशता रहा कि किसी भी बहाने से सही, कम से कम दो शब्द अफसोस के कह ही दूं। दो एक बार आंटी और संदीप का ज़िक्र भी आया लेधिक बातचीत आये-गये तरीके से आये बढ़ गयी। में हैरान हो रहा हूं कि अभी तो आंटी और संदीप को गुज़रे महीना भर ही हुआ है, और अंकल ने उन्हें अपनी यादों तक से उतार दिया है।<br />अब बाउजी और मेहता अंकल की बातचीत अपनी निर्धारित गति से अपनी पुरानी लकीर पर चल पड़ी है और मैं उसमें कहीं नहीं हूं। <br />मैं मौका देख कर कमरे से बाहर आ गया हूं और कुछ सोच कर रसोई में चला गया हूं जहां पारुल खाना बनाने की तैयारी कर रही है। मुझे देखते ही पारुल ने उदासी भरी मुस्कुराहट के साथ मेरा स्वागत किया है। मैं यहां भी बातचीत शुरू करने के लिए सूत्र तलाश रहा हूं। हम दोनों ही चुप हैं। <br />पारूल ने ही उबारा है मुझे - बंबई से कब आये आप?<br />आज सुबह ही। आते ही संदीप का पता चला तो.. .. .. ..।<br />मैंने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया है। पारूल भी चुप है। मैं ही बात का सिलसिला आगे बढ़ाता हूं - दरअसल, मैं आप लोगों की शादी में नहीं आ पाया था इसलिए आपसे नहीं मिल पाया था लेकिन संदीप के साथ मेरी खूब जमती थी। मैं आपसे मिल भी रहा हूं तो इस हाल में। मेरी आवाज भर्रा गयी है।<br />पारुल की आंखें भर आयी हैं। थोड़ी देर बाद उसी ने बातचीत का सिरा थामा है - मैं आपसे पहली बार मिल रही हूं लेकिन आप के बारे में काफी कुछ जानती हूं। पापा और संदीप अक्सर आपकी बातें करते रहते थे।<br />पारूल ने शायद जानबूझ कर बात का विषय बदला है।<br />मैंने भी बात को मोड़ देने की नीयत से कहा - मैं कुछ मदद करुं क्या? <br />मुझे लगा, यहां उसके साथ कुछ और वक्त बिताया जाना चाहिये।<br />-नहीं, बस सब कुछ तैयार ही है।<br />-आपने बेकार में तकलीफ़ की।<br />-इसमें तकलीफ़ की क्या बात, मुझे खाना तो बनाना ही था। और फिर मेरे घर तो आप पहली ही बार आये हैं। संदीप होते तो भी आप खाना खाते ही। उसकी आवाज़ भर्रा गयी है।<br />-नहीं यह बात नहीं है। दरअसल.. .... .. .. ।<br />उसने कोई जवाब नहीं दिया है।<br />-अब क्या करने का इरादा है। मैंने बातचीत को भविष्य की तरफ मोड़ दिया है।<br />-सोच रही हूं घर पर ही रह कर कमर्शियल आर्ट का अपना पुराना काम शुरू करूं। संदीप कब से पीछे पड़े थे कि सारा दिन घर पर बैठी रहती हो, कुछ काम ही कर लो। पहले मम्मी जी की बीमारी थी फिर ये दोहरे हादसे। मैं तो एकदम अकेली पड़ गयी हूं। मुझे क्या पता था कि जब संदीप की बात मानने का वक्त आयेगा, तब वही नहीं होगा .. .. .. ..।<br />-मेरी मदद की जरूरत हो तो बताना।<br />-बताऊंगी, अभी कब तक रहेंगे यहां?<br />-दसेक दिन तो हूं ही। आऊंगा फिर मिलने। बल्कि आप का उस तरफ आना हो तो..।<br />-घर से निकलना नहीं हो पाता। फिर भी आऊंगी किसी दिन।<br />तभी अंकल की आवाज आयी है - अरे भई, यहां भी कोई आपका इंतज़ार कर रहा है। थोड़ी सी कम्पनी हमें भी दे दो। मैं पारुल को वहीं छोड़ कर ड्राइंग रूम में वापिस आता हूं। <br />देखता हूं - अंकल ने बोतल और तीन गिलास सजा रखे हैं।<br />मुझे देखते ही उन्होंने पूछा है- अभी भी अपने बाप से छुप कर पीते हो या उसके साथ भी पीनी शुरू कर दी है ? <br />और उन्होंने एक ज़ोरदार ठहाका लगाया है। <br />-आओ बरखुरदार. तुम्हारी इस विजिट को सेलिब्रेट करें।<br />मुझे समझ में नहीं आ रहा, पैंसठ साल का यह बूढ़ा और कमज़ोर आदमी दोहरी मौतों के दुख से सचमुच उबर चुका है या इन ठहाकों, हंसी मज़ाक और शराब के गिलासों के पीछे अपना दुख जबरन हमसे छुपा रहा है। बाउजी इस वक्त खिड़की के बाहर देख रहे हैं।सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-57941707948853763322008-07-28T09:40:00.000+05:302008-07-28T09:42:49.800+05:3018वीं कहानी - दिव्या, तुम कहाँ हो?सपना देख रहा हूं क्या? या सब कुछ मेरे सामने घट रहा है। मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। न मैं पूरी तरह होश में हूं न बेहोशी में। मैं जागने और नींद के बीच इधर से उधर झूल रहा हूं। हिचकोले खा रहा हूं। सरकस के एक्रोबैट्स की तरह। ऊपर से हवा में लटके एक तरफ के डण्डे से झूलते हुए दूसरी तरफ के डण्डे को थाम लेना। इधर होता हूं तो सब कुछ साफ होता है। रोशनी, कमरा... बिस्तर पर लेटा हुआ मैं, लेकिन उधर की तरफ का डण्डा थामते ही जैसे नींद की गहरी अंधेरी सुंग में उतर जाता हूं। सब कुछ गायब हो जाता है। एकदम अंधेरा। सन्नाटा। कई बार खुद को बीच अधर में पाता हूं। कुछ भी थामे बिना। रोशनी और अंधेरे की झिलमिल में वहां से तेजी से गिरने को होता हूं कि एकदम आंख खुल जाती है। थोड़ी देर बाद फिर वही कलाबाजियां। पता नहीं कितनी देर से चल रहा है यह सब। नींद की लहरों पर डूबना-उतराना।<br /> तेज प्यास लगी है। आसपास देखता हूं। कोई भी नहीं है। किसी को पुकारना चाहता हूं। आवाज ही नहीं निकलती। कौन-सी जगह है यह? यह मेरा कमरा तो नहीं? हवा में दवाओं की गंध है। यानी अस्पताल में हूं। यहां कैसे आ गया मैं? क्या हुआ है मुझे? याद करने के लिए दिमाग पर ज़ोर डालता हूं। दर्द की एक तेज लहर से माथे की नसें तड़कने लगती हैं। याद आता है - आधी रात को सिर दर्द उठा था। भयंकर। जैसे पूरा कपाल भीतर तक खदबदा रहा हो। उलटी-सी भी आने को हो रही थी। पेनकिलर, बाम, नींद की गोलियां, सभी तो आजमाये थे। पता नहीं कितनी देर छटपटाता रहा था। दर्द की सुइयां और बारीक होती चली गयी थीं। अजीब तरीके से दिमाग चुनचुना रहा था। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। याद नहीं आ रहा, फिर क्या हुआ होगा? हो सकता है उठकर किसी पड़ोसी की जगाया हो, वही मुझे यहां छोड़ गया हो। अकेले तो नहीं आया होऊंगा। क्या कहा होगा डॉक्टर ने? इलाज शुरू हो गया क्या? कोई सीरियस बात होगी तभी तो अस्पताल में हूं। सिर अभी भी भारी लग रहा है। ऊपर से यह नींद आने उचटने की हालत।<br /> उठकर बैठने की कोशिश करता हूं। दर्द की एक धारदार छुरी पूरे कपाल को चीरती चली जाती है। फिर लेट जाता हूँ। साइड टेबल की तरफ निगाह जाती है। ढेर सारी दवाएं। मेडिकल रिपोर्ट। तो इसका मतलब... इलाज शुरू हो चुका है। टेस्ट भी हो चुके। कब से हूं यहाँ? दर्द तो... याद नहीं आता... कब उठा था...। आज कितनी तारीख है? कैलेण्डर तो सामने लगा है। सितम्बर 1992। लेकिन इसमें दिखाई दे रही तीस तारीखों में से आज कौन-सी है? उस दिन कौन-सी तारीख थी... नहीं याद आता। आंखें बंद कर लेता हूं। क्या हुआ है मुझे? कहीं... कोई... खतरनाक...बी... मा... री...। मेडिकल रिपोर्ट तो यहीं रखी है। देखूँ, क्या कहती है। फाइल उठाता हूं। कई रिपोर्टें हैं इसमें तो। इसका मतलब कई टेस्ट हुए हैं। हर रिपोर्ट के नीचे लाल स्याही में टाइप की हुई इबारतें पढ़ने की कोशिश करता हूं।<br /> ओह गॉड! यह... क्या... हो... गया...। फाइल मेरे हाथ से छूट कर नीचे गिर गयी है। निढाल-सा पड़ गया हूं। सांस सकदम तेज हो गयी है। जैसे मीलों दौड़कर आया हूं। गले में कांटे उग आये हैं। पानी रखा है, पर उठकर पीने को हिम्मत नहीं है। पथराई आंखों से खिड़की के बाहर का अंधेरा देखता हूं। यह अंधेरा धीरे-धीरे कमरे के भीतर आ रहा है। मेरे चारों तरफ इस अंधेरे ने एक घेरा बना लिया है। अब यह मेरे भीतर उतरेगा और फिर... सब कुछ... खत्म...।<br /> मैं... मुझे... मुझे... ब्रेन ट्यूमर हो गया है। कैंसर के जीवाणु लिये। कोई इलाज नहीं। निश्चित मौत। छ: महीने से दो साल के बीच। कभी भी। जब आखिरी बाद दर्द उठेगा तो चौबीस घंटे की मोहलत भी नहीं मिलेगी। उससे पहले कष्टदायक बीमारी झेलते हुए जीना। खर्चीला इलाज... ऑपरेशन... तकलीफ... तकलीफ... तकलीफ... इलाज से मौत थोड़ा पीछे खिसक सकती है। टलेगी नहीं। आंखों के आगे अंधेरा छा रहा है... अरे कोई है... मुझे बचाओ... किसी को बुलाने के लिए आवाज देना चाहता हूं। आवाज ही नहीं गले में... पानी... पा... नी... कोई है... पानी।<br /> तो... ? खत्म हो गया मैं। सिर्फ़ चौंतीस साल की उम्र... आधी... अधूरी ज़िंदगी... सब कुछ यहीं छूट जायेगा। पैक अप कर लूं? खाली हाथ जाने के लिए पैक अप! यह घर-बार... दिव्या, मां-पिताजी, भाई-बहन, ऑफिस, सुख-दुख, दोस्त, खुशियां सब यहीं... रह जायेंगे... । सब कुछ चलता रहेगा। मैं ही नहीं रहूंगा। कहीं मज़ाक तो नहीं है? डॉक्टरों ने मुझे डराने के लिए, मुझसे पैसा ऐंठने के लिए यह सब लिख दिया हो। आजकल खूब चल रहा है इस लाइन में। कब हुए थे सब टेस्ट? मुझे होश में क्यों नही लाया गया? मुझसे पूछा क्यों नहीं गया?<br /> दिमाग सुन्न हो रहा है। एकदम अंधेरा। बाहर-भीतर, दोनों जगह। मुझे मरना होगा... उससे पहले तिल-तिल कर जीना। हर सांस अनिश्चित। मेरी रुलाई फूट पड़ी है। मैंने क्या कसूर किया था, अधबीच ऊपर बुला लिया जाऊंगा। वह भी इतनी घातक बीमारी से? दिव्या, तुम कहां हो? देखो मैं कितना लाचार पड़ा हूं यहां। अपनी मौत का परवाना लिये! अपना ख्याल रखना दिव्या! ओ मेरी मां, मुझे बचाओ। मैं इतनी जल्दी मरना नहीं चाहता। बहुत डर लग रहा है मां, मैं क्या करूं।<br /> एक चीख निकलती है, लेकिन उसकी आवाज भीतर ही भीतर घुटी रह गई है। किसी तरह उठ कर पानी पीता हूं। थकान होने लगी है। फिर लेटता हूं। कौन है यहाँ? यह कैसा अस्पताल है? कोई पूछने क्यों नहीं आता? इतने सीरियस मरीज को भी ये लोग अकेला छोड़ देते हैं। मुझे अभी कुछ हो जाये तो? सिर में अभी भी करेंट उठ रहे हैं। कया करूं? पता तो चले कौन लाया मुझे? डॉक्टर कया कहते हैं? दवाएं? इलाज? क्या यहां इलाज हो पायेगा? या मुम्बई जाना होगा? वहां बेहतर सुविधाएं हैं? मौत को पीछे सरकाने की। अमेरिका में और बेहतर हैं। लेकिन पैसे?<br /> पता नहीं ऑफिस वालों को खबर है या नहीं? अस्पताल का खर्च कौन देगा? दवाएं, ऑपरेशन? कहां से करूंगा इतना इंतज़ाम? पता नहीं कितनी तारीख है? घर पर तो दो-चार सौ भी नहीं होंगे। बैंक में जितने पैसे थे, दिव्या पहले ही ले जा चुकी है। कोई एडवांस बाकी नहीं है। कौन करेगा देखभाल मेरी। उधर दिव्या एक नये प्राणी के स्वागत में व्यस्त है और इधर मैं अपनी बची-खुची ज़िंदगी का लेखा-जोखा तैयार कर रहा हूं। वह तो पता चलते ही रो-रो कर जान दे देगी। मेरे बच्चे का आना और मेरा जाना। कैसा अभागा जन्मेगा! कहीं मैं ही तो अपने बच्चे का रूप धर कर नहीं लौट रहा! सोच... सोचकर कलेजा मुंह को आ रहा है।<br />कभी सोचा भी नहीं था, अपनी मौत को खबर बरस-दो बरस पहले मिल जायेगी मुझे। और फिर मरने के पल तक लगातार इस अहसास को जीते रहना - कोई भी पल मेरे लिए आखिरी हो सकता है। वैसे तो मौत किसी को भी कभी भी आ सकती है, रोज सैकड़ों-हजारों दुर्घटनाओं में, भूकंप से, दंगों, लड़ाइयों में मरते ही हैं, लेकिन वह मौत तो एकदम अचानक होती है। पल भर पहले भी पता नहीं होता, पिछली सांस, पिछला बोला गया संवाद, मिलाया गया हाथ, लिया गया चुम्बन आखिरी था। अगली सांस गायब। बल्ब फ्जूज हो जाने की तरह। एकदम अंधेरा। मेरे साथ भी वही होता। मरने से पहले की यह पीड़ा, ये चिंताएं तो न होतीं। एकदम मुक्त हो जाता। जो जहां है, जैसा है, वैसा ही छोड़कर। लेकिन मुझे तो खराब चोक वाली ट्यूब लाइट की तरह न जाने कब तक भक...भक... जलना-बुझना है। सबकी आंखों में चुभते हुए। मरना सिर्फ मुझे होगा, लेकिन झेलना सबको पड़ेगा।<br /> आंखें बंद करता हूं। अपनी मौत को हर वक्त पास आते महसूस कर रहा हूं। क़ॉरीडोर में उसके कदमों की आहट आ रही है। दरवाजे पर आकर ठिठक गयी है। नॉक किया है उसने। मैं दम साधे पड़ा हूं। उसकी आवाज न सुनने का नाटक करता हूं। मौत मुस्कुराती है-घबरा रहे हो? पहले से पता हो तो सबके साथ ऐसा ही होता है। चलो। थोड़ा और जी लो। लेकिन ज्यादा नहीं। मैं यहीं बाहर इंतज़ार कर रही हूं।<br /> देख रहा हूं - सब लगे हैं मेरी सेवा में। खुद को और मुझे झूठी तसल्ली देते हुए। मेरे सामने कोई नहीं रोता। सब आंसू पोंछकर आते हैं। जबरदस्ती रुलाई रोके हुए। लेकिन मेरे सामने से जाते ही इतनी देर से रोकी गयी रुलाई और नहीं रोक पाते। संवाद खत्म हो गये हैं। हर आदमी सूनी-सूनी आंखों से मेरी तरफ बैठा देखता रहता है। फिर हाथ दबाकर, सिर पर हाथ फेर कर चला जाता है। हिन्दी फिल्मों के नायक की तरह `सब ठीक हो जाएगा' का मंत्र दोहराता हुआ। सब परिचितों की दिनचर्या में एक और काम जुड़ जायेगा। मुझे देखने आना। मुझे और मेरे परिवार को लगातार याद दिलाया जायेगा कि मैं बस चंद दिनों का मेहमान हूं। यह अवधि जितनी कम होती चली जायेगी, सबकी चिंता का ग्राफ ऊपर उठता रहेगा। इतना ऊपर कि एक दिन मैं ही उस ग्राफ की सीमा से बाहर निकल जाऊंगा।<br /> मेरी सांस फिर फूल गयी है। क्या है यह सब? कोई है क्यों नहीं मेरे पास? किसे बुलाऊं? किसका हाथ थामूं? दिव्या? कब आओगी दिव्या? लेकिन वह तो मायके में है? नन्हें-नन्हें स्वेटर, मोजे बुन रही होगी! खूबसूरत सपनों में जी रही होगी। और मैं?<br /> लेकिन मुझे इतना घबराना नहीं चाहिए। हो सकता है, इनीशियल स्टेज ही हो। या डॉक्टरों की गलती भी तो हो सकती है। फिर से टेस्ट कराये जा सकते हैं। इतनी जल्दी तो नहीं मरा जा रहा। अस्पताल में तो हूं ही। देखभाल हो ही रही होगी। घबराने से क्या होगा? आखिर ऊपर वाले से छीना-झपटी तो नहीं की जा सकती। हिस्से में होगा तो बेहतर इलाज से ठीक भी तो हो सकता हूं। मुझे हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। ठण्डे दिमाग से सोचना चाहिए। अभी तो मेरे पास वक्त है। इसे जीना चाहिए।<br /> कौन था वह? हां, आनन्द फिल्म का नायक। राजेश खन्ना। उसे भी तो कोई ऐसा ही रोग था। कितना हंसता-हंसाता था। लेकिन वह तो एक्टिंग कर रहा था। जब मरने का वक्त आया तो कितना चिल्लाता था, `बचा लो मुझे। मैं मरना नहीं चाहता। ज़िंदगी के नाटक का अंतिम सीन करते-करते कितना रोता था। लेकिन वह भी तो एक्टिंग ही थी। यहां तो सचमुच का रोल है। जीवन्त मंच। जीवंत अभिनय। मैं अकेला पात्र, कोई संवाद नहीं। बस दम साधे पड़े रहो। एक पूरा नाटक समाप्त। इस अभिनय के लिए तालियां, आंसू, शाबाशी, रोना-धोना कुछ नहीं पहुंचेगा मुझ तक।<br /> फीकी हंसी आती है। राजेश खन्ना को अगर सचमुच ब्रेन ट्यूमर हो जाये तो कर पायेगा आनन्द फिल्म की तरह हंसना-हंसाना। कहीं रोता-छटपटाता पड़ा रहेगा। कर पाऊंगा मैं भी उसी की तरह मौत का सामना! या बाकी सारा समय रोते-कलपते बीतेगा? अपनी ज़िंदगी का नायक बनकर जीना। जीना-मरना ऊपर वाले के हाथ... हम तो सिर्फ कठपुतलियां...।<br /> खुद पर काबू पाने की कोशिश करता हूं। अभी तो नहीं मर रहा हूं। जब तक वक्त है मेरे पास, हाथ-पांव और दिमाग चलते हैं, चीजें व्यवस्थित कर लूं। अपनी अधूरी हसरतें पूरी कर लूं। जितना है जी लूं। यह सोचकर तनाव थोड़ा कम हो गया है। उठता हूं। पानी पीता हूं।<br /> अभी भी याद नहीं आ रहा, यहां कैसे पहुंचा? कब आया अस्पताल! नर्स आयेगी तो पूछूंगा। सारे टेस्ट हो गये हैं या नहीं! मुझे पता क्यों नहीं चला। आंखें बंद कर लेता हूं। अब क्या फर्क पड़ता है। अस्पताल तो पहुंच ही गया हूं। सुबह कोई तो आयेगा। ऑफिस या कॉलोनी से। हो सकता है, किसी ने पता ढूंढ़कर दिव्या या पिताजी को भी खबर भेज दी हो।<br /> किसी को तो बुलवाना ही होगा। डॉक्टर भी अकेले रहने की सलाह नहीं देंगे। दिव्या तो डिलीवरी के बाद ही आयेगी। उसका अभी आना ठीक नहीं होगा। उसे खुद देखभाल की ज़रूरत है। लेकिन एक बार पता चल जाये तो रुक पायेगी क्या... रो...रोकर बुरा हाल कर लेगी। कौन करेगा उसकी देखभाल यहां?<br /> मेरी तो पुकार हो गयी। वह कैसे निभायेगी? छोटा बच्चा? अकेली कहां रहेगी? फ्लैट भी तो छोड़ना पड़ेगा। अपना मकान अभी अधूरा खड़ा है। पता नहीं कब पैसे होंगे और कब पूरा होगा। कब तक भागदौड़ करेगी बेचारी। कैसे कर पायेगी। किस-किस के आगे हाथ जोड़े जायेंगे? वैसे भी खुद्दार है, आसानी से उसके हाथ नहीं जुड़ते।<br /> इलाज...ऑपरेशन... कहां से आयेगा खर्च। कहां कहां भटकना होगा दिमाग का यह रोग लिये? रोज़-रोज़ नयी दवाएं, टेस्ट... मोटे-मोटे मेडिकल बिल... लम्बी मेडिकल लीव... फिर हाफ पे... फिर विदआउट पे और आखिर में... एक्सपायर्ड... इस घर, परिवार, ऑफिस से, इस दुनिया से एक और आदमी चला जायेगा। बिना कुछ हासिल किये। कुछ दिन अल्बम में, लोगों की याद में बना रहूंगा। फिर धीरे-धीरे पूरी तरह भुला दिया जाऊंगा। कहां याद करते हैं हम अपने पूर्वजों को। अपने गुजरे साथियों को। एक आदमी से एक याद और उस याद के भी धुंधला जाने के दौर से मुझे भी गुजरना होगा। मेरा सब कुछ मेरे साथ खत्म हो जायेगा।<br /> लेकिन इस तरह खत्म होने से पहले की ज़िंदगी मैं कैसे गुज़ारूंगा? अकेले तो कत्तई नहीं रह पाऊंगा। किसी को तो घर से बुलाना पड़ेगा। दौड़-धूप... डॉक्टरों, अस्पतालों के चक्कर। हो सकता है, डॉक्टर बंबई जाने के लिए कहें। किसे बुलाऊं। सुनील भाई साहब, परेश भाई साहब या फिर छोटा सुदीप। लेकिन जो भी आयेगा, काम-धंधा छोड़कर आयेगा। काम का हर्जा होगा। पता नहीं कितने दिन रहना पड़े। और फिर सभी को तो पचीसों तकलीफें हैं। सुनील भाई साहब खुद ढीले रहते हैं। आये दिन चारपाई पकड़े रहते हैं। परेश जी तो पैसों की तंगी की वजह से छुट़टी तक नहीं ले पाते। प्राइवेट नौकरी। जो भी आयेगा, मेरी इस महंगी बीमारी में न चाहते हुए भी उस पर बोझ पड़ेगा। न भी खर्च करने दूं मैं, बीसियों बार डॉक्टरों, कैमिस्टों के चक्कर लगेंगे। पता नहीं कितने दिन अस्पताल में रहना पड़े।<br /> पिताजी को बुलवाऊं। लेकिन कहां कर पायेंगे इतनी भागदौड़। बेशक पता चलते ही तुंत चल पड़ेंगे। इस उम्र में भी सबसे ज्यादा मददगार और सहारा देने वाले साबित होंगे। सब कुछ छोड़कर आ जायेंगे। मां की भी परवाह नहीं करेंगे, जो अभी भी पूरी तरह ठीक नहीं हुई है। उसे तो हर वक्त किसी के सहारे की ज़रूरत होती है। मां को किसके भरोसे छोड़ेंगे। पिताजी को बुलवाऊं भी किस मुंह से। कई-कई महीने बीत जाते हैं उन्हें मनीऑर्डर भेजे हुए। हर बार उन्हीं का मनीऑर्डर टल जाता है। उनकी मामूली-सी पेंशन। मां का इलाज। बीसियों दूसरे खर्चे। पूरी रिश्तेदारी। पैंसठ साल की उम्र में भी वे अपनी बूढ़ी हड्डियों को आराम नहीं देना चाहते। कहीं न कहीं खटते रहते हैं। न किसी से कुछ मांगते हैं, न हममें से कोई आगे बढ़कर उनकी बूढ़ी हथेली पर कुछ रखने की सोचता है। हर बार यही होता है। हम सब भाई यही मान लेते हैं, इस बार दूसरे ने भेज दिया होगा। सामने कोई नहीं आता।<br /> आये भी कैसे? सबके पीछे बीवियां हैं, जो दरवाजे की ओट में खड़ी देखती रहती हैं। कहीं उनका पति आगे बढ़कर कोई फालतू जिम्मेवारी तो नहीं उठा रहा। ताने मारती रहती हैं। उनकी तेज आंखें पति की पीठ पर चिपकी उन्हें कोंचती रहती हैं। बहुत कर लिया है इस घर के लिए। सारी उम्र का ठेका थोड़े ले रखा है।<br /> अगर पिताजी आते भी हैं तो भी मां की ही पोटलियां खुलवायेंगे। गनीमत होगी उनमें भी अगर किराये भर के पैसे निकल आयें। वैसे भी मेरी बीमारी का सुनकर एकदम टूट जायेंगे। उन्हें ही कुछ हो गया तो...? मां के एक्सीडेंट के समय इस बुढ़ाने में भी ज़ार-ज़ार रोते थे। इस उम्र में अकेले रह जाने का डर उनकी जान खाये जा रहा था। उन्हें पता था, हम सब बच्चों के होते हुए भी वे एकदम अकेले और अलग-थलग पड़ जायेंगे। नहीं, उन्हें तकलीफ होगी यहां आकर। फिर मां भी तो है। उनकी कौन करेगा?<br /> मैं भी कैसा पागल हूं। लगता है दिमागी फोड़े ने अपना असर दिखाना खुरू कर दिया है। यह कैसे हो सकता है कि मैं किसी एक को बुलवाऊं और उसे जब यहां आकर असलियत का पता चले और वह औरों को न बताये। दो-तीन दिन में ही पूरा कुनबा यहां आ पहुंचेगा। कैसे भी करके। आयेंगे सब। बिना बुलाये ही। बस पता लगने भर की देर होगी। मुझे एक दिन भी यहां अकेले नहीं रहने दिया जायेगा। कहीं भी शिफ्ट कर दिया जायेगा। हर तरह का संभव, असंभव इलाज आजमाया जायेगा।<br /> मां के एक्सीडेंट के समय देख चुका हूं। पता लगते ही पास-दूर के सब रिश्तेदार आ जुटे थे। हर आदमी अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराना चाहता था। हर तरह की मदद के लिए तैयार था। मां को चौथे दिन होश आया था, वह याददाश्त खो बैठी थी। फिर भी सबकी चाह रहती, मां उन्हें कम-से-कम एक बार तो पहचान ले। मां कोशिश करती। कुछ बुदबुदाती। दिमाग पर ज़ोर पड़ता। वह दर्द से कराहती। लेकिन कोई भी मां की आंखों में पहचान दर्ज करवाये बिना जाना नहीं चाहता था।<br /> तो... तो... इसका यही मतलब हुआ, किसी को भी बुलवाया जाये, आयेंगे सब। जो भी पहले आयेगा, पहला काम यही करेगा सबको फोन, तार, चिट्ठी से खबर करेगा। यहां अकेला हूं। अस्पताल में पड़ा हूं। दिव्या मायके में। सब आ गये तो कैसे होगा? कौन करेगा सबके लिए? दिव्या लौट भी आये तो मेरी देखभाल करेगी, खुद को संभालेगी या आया-गया देखेगी। मेरे बीमार होने से सब पेट पर पट़टी बांधकर नहीं आयेंगे। फिर इलाज? खर्च?<br /> कहां से आयेगा यह रुपया। इलाज के लिए? घर खर्च के लिए। इधर-उधर से कर्ज उठाये जायेंगे। कौन लेगा? मेरे बाद चुकाना भी तो होगा। तय है जो लेगा उसी को चुकाना पड़ेगा। कौन आयेगा सामने। बात पांच-सात हजार की हो तो कोई सोचे भी। अंधे कुएं में पता नहीं कितना डालना पड़े। न वापसी की गारंटी, न मेरे ठीक होने की।<br /> याद करने की कोशिश करता हूं, क्या लेना-देना है। कहां से लिया जा सकता है लोन? उस दिन इन्कम टैक्स के लिए हिसाब लगाया तो था। नकद बचत तो दिव्या ले गयी है। थोड़े-बहुत सेविंग सर्टिफिकेट्स हैं। दो पॉलिसियां। और कर्ज़-डेढ़ लाख हाउसिंग लोन के, सात हजार स्कूटर लोन के। चार हजार कन्ज्यूमर लोन के, सत्रह हजार क्रेडिट सोसाइटी के। क्रेडिट सोसाइटी से लोन रिन्यू करा के तीन हजार मिलेंगे और एमरजेंसी लोन पांच हजार। ये आठ हजार तो डॉक्टर चरणामृत के रूप में ही ले लेंगे। बाकी?<br /> ख्याल आता है, अगर मुझे कुछ हो जाये तो? पैसों के अभाव में ढंग का इलाज न मिल पाने के कारण अगर मुझे कुछ हो जाता है तो? जीते जी मुझे कर्ज़ चुकाने हैं, इलाज के लिए पैसे नहीं हैं, लेकिन मरने के बाद सारे कर्ज़ चुकाकर भी कम से कम ढाई लाख रुपये दिव्या को मिलेंगे। साठ हजार फंड के। नब्बे हजार ग्रुप इंशोरेंस, पन्द्रह हजार स्पेशल ग्रेच्यूटी, साठ हजार ग्रेच्यूटी। सर्टिफिकेट्स वगैरह के। और छोटी-मोटी रकमें, दो लाख बीमे के। अजीब मज़ाक है। ज़िंदा हाथी खाक का, मरा सवा लाख का। इलाज के बिना मरूं और मरने पर पैसे ही पैसे। किसे? दिव्या को ही तो। वही तो नॉमिनी है। <br /> कम से कम इस फ्रंट पर तो मुझे ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए। कभी न कभी मकान भी पूरा हो जायेगा। हो सकता है, मेरे सामने हो जाये। फिर मेरी जगह दिव्या को नौकरी भी तो मिलेगी। ग्रेजुएट है। क्लर्की ही सही। आगे तरक्की कर सकती है। पर ये सारे पैसे दिव्या को मिलें, नौकरी भी उसे मिले, मकान भी उसी के नाम रहे और मां-पिताजी उन्हीं ग्यारह सौ की पेंशन में गुजारा करते रहें? अब तो फिर भी कुछ न कुछ देता हूं, बाद में तो वह भी बंद हो जायेगा। उन्हें इन पैसों में से कुछ नहीं मिलेगा, क्या किसी एकाध जगह नॉमिनी बदला नहीं जा सकता। पूछना पड़ेगा। अगर दिव्या नौकरी करेगी तो उसे यहीं रहना होगा और मां-पिताजी अपना घर छोड़कर यहां आयेंगे नहीं?<br /> फिर ख्याल आता है, क्यों सोच रहा हूं मैं यह सब? अभी तो पता नहीं, इलाज शुरू भी हुआ है या नहीं। अभी तो नहीं मर रहा। क्या पता एकदम ठीक हो जाऊं। इन रिपोर्टों में भी जिस शब्दावली में मेरा रोग और निदान लिखा है, मुझे समझ कहां आयी है। मुझे सोच-सोचकर अपना खून नहीं जलाना चाहिए।<br /> आंखें बंद करता हूं, फिर वही ख्याल... अपने-पराये... मरना... दिमाग में टूटे-फूटे वाक्य बन-बिगड़ रहे हैं। मानस पटल पर सबके चेहरे आ-जा रहे हैं। मां... दिव्या... पिताजी... अपने होने वाले बच्चे का चेहरा... कैसा होगा... यार-दोस्त...। सिर झटकता हूं। उठकर पानी पीता हूं। यह क्या हो रहा है मुझे... मैं... मैं... मुझे आराम क्यों नहीं मिल रहा... कोई है... मुझसे बात करो... मेरी सारी बातें नोट करे कोई... मैं... अकेला नहीं रह सकता... मुझे कोई... बोलने वाला... सुनने वाला चाहिए... अरे... कोई है...? कहां है... नर्स... कितने बजे हैं... कौन-सी तारीख है... महीना... साल... डॉक्टर कब आयेगा मां... मां... मैं यहां हूं मां... मुझे कुछ दिखायी क्यों नहीं दे रहा... किसकी चिट्ठी है... कौन आया है... कौन-कौन आ रहा है... जो भी आये... जल्दी आये... तुंत... मैं सबसे मिलना चाहता हूं। गले मिलना... पिताजी आ रहे हैं... लेकिन मां उन्हें अकेले... नहीं आने देगी... वह भी आयेगी... लेकिन मां तो सब कुछ भूल जाती है... मुझे पहचानेगी क्या या गुमसुम बैठी रहेगी... दोनों आयेंगे। पेंशन के चैक के बदले किसी से उधार लेकर...। भाई आयेंगे... भाभियां आयेंगी... कुछ भी हो... मुझसे स्नेह रखती हैं... सब...। बहनें आयेंगी... सारी तकलीफों के बावजूद... कब से नहीं मिला हूं उनसे। दीपा... उसका पति अजय... उनकी नन्हीं-सी बच्ची... क्या नाम है... करिश्मा... और संध्या... उसका गोल-मटोल गोपू... लेकिन अब उसे उठाकर ऊपर... उछाल नहीं पाऊंगा... सब दोस्त आयेंगे... उमेश, देशी, गामा, फिर... मामा आयेगा... सबके सुख-दुख में सबसे पहले पहुंचता है... दिव्या तुम... तो यहीं हो न... मेरे सिरहाने... कहीं जाना नहीं दिव्या... नहीं मुझे दवा नहीं चाहिए... तुम यहीं मेरे पास बैठकर...स्वेटर और ख्वाब... बुनती रहो... अनन्त काल तक... मुझे... कुछ नहीं होगा... इस घड़ी में अभी... बहुत चाभी बाकी है... अभी तो मेरा बच्चा... उसका नामकरण... बर्थ डे पार्टी... तालियां...।<br /> दिमाग को एक तेज झटका लगता है। मैं यह सब क्या देख रहा था? आस-पास देखता हूं। अभी भी रात है। नर्स अभी तक नहीं आयी। दवा...पानी... फाइल अभी भी फर्श पर गिरी पड़ी है... उठाऊं। उठने की कोशिश करता हूं। टाल जाता हूं। उसमें लिखा बदल थोड़े ही गया होगा।<br /> लेकिन अगर मैं किसी को भी न बुलवाऊं तो...? अस्पताल में तो देखभाल हो ही जायेगी। यहां हमेशा तो नहीं रहना होगा... और फिर दर्द हर समय तो नहीं उठेगा? इलाज तो चलता रह सकता है। मैं सबको प्यार करता हूं। सबको इस तरह परेशान करने का मुझे क्या हक है। मेरी मरने के बाद सबके हिस्से में जो दु:ख लिखा है, वे उसे झेलेंगे ही। जीते-जी सबको क्यों रुलाऊं। जो भी आयेगा, काम-धंधा छोड़कर आयेगा। मेरी हालत देख-देखकर रोता रहेगा। जो नहीं आयेंगे, उनकी जान वहीं सूखी रहेगी। हर वक्त तार या फोन का खटका लगा रहेगा।<br /> जो भी झेलना है, मुझे ही झेलना है। सबको अपने साथ क्यों मारूं। सबका मोह सिर्फ मेरे लिए ही तो नहीं। मैं भी तो सबको खुश देखना चाहता हूं। सबको क्यों परेशान करूं। सबसे मिलना है, तो फिर आखिरी बार मैं ही क्यों न जाऊं सबसे मिलने? सबके पास रहूं। तब किसी को पता भी नहीं चलेगा, यह हमारी आखिरी मुलाकात है। अभी तो मेरी मौत मुझे इतना समय देगी कि सबसे मिल-जुल लूं। कुछ जी लूं। मां-बाप के पास रह लूं। दिव्या को उसके कठिन वक्त में साथ दूं। अपने होने वाले बच्चे का इंतजार करूं। उसका स्वागत करूं। खिलाऊं। उसकी मुस्कान में खुद को देखूं।<br /> ब्रेन ट्यूमर का क्या है। किसी को बताया न जाये तो उसे पता भी न चलेगा। कहीं ज्यादा तकलीफ हुई तो कह दूंगा - मामूली सिर दर्द है। ठीक हो जायेगा। दवाएं लेता रहूंगा। लेकिन महंगा इलाज, ऑपरेशन नहीं कराऊंगा। क्या होगा उससे? मौत सिर्फ सरकेगी। टलेगी नहीं। पैसे कहां हैं इलाज के लिए? अगर हो भी जायें तो उनसे दूसरे काम निपटाऊंगा।<br /> सोचकर अच्छा लग रहा है। लेकिन कर पाऊंगा यह सब? आनन्द की तरह जीना? या जीने का नाटक करना... किसी को पता भी न चले... और जब पता चले तो बहुत देर हो चुके... इतनी देर कि इलाज... खर्च... रोना... धोना... और फुलस्टॉप... कुछ भी मायने न रखें।<br /> दिमाग फिर थकने लगा है। दर्द की लहरें फिर माथे से टकरा रही हैं। आंखें बंद कर लेता हूं। धीरे... धीरे... नींद...।<br />•सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-65464232226830868542008-07-17T17:19:00.000+05:302008-07-17T17:20:43.921+05:30सत्रहवीं कहानी - डरशारदा काम पर लौट आयी है। गोद में महीने भर का बच्चा लिये। दरवाजा मिसेज रस्तोगी ने खोला। उसे देखते ही खुश हो गयीं, ''बधाई हो शारदा। अच्छा हुआ तू आ गयी। तू जो ल़ड़की लगा गयी थी थी, वह तो एकदम चोट्टी थी। नागे भी कितने करती थी। देखूं तो सही, कैसा है तेरा बेटा?''<br /> उन्होंने देखा, शारदा जचगी के बाद और निखर आयी है। वैसे देखने में एकदम बदसूरत और काली है, लेकिन उसकी चमकती आंखें, मेहनती, कसा हुआ शरीर और मस्त चाल देखने के बाद उसकी बदसूरती पर ध्यान नहीं जाता।<br /> इससे पहले कि शारदा अंदर आकर कप़ड़े में लिपटे अपने बच्चे का मुंह मिसेज रस्तोगी को दिखाए, उन्होंने उसे टोका, ''ठहर जरा, खाली हाथ बच्चे का मुंह नहीं देखते। पहले कुछ शगुन ले आऊं।'' कहती हुई वे भीतर चली गयीं। ड्राइंग रूम में उनके लौटने तक शारदा ने बच्चे को कालीन पर लिटा दिया है और स्टीरियो पर फड़कते गानों का एक कैसेट चढ़ा दिया है। पूछ रही है-''साहब कैसे हैं, प्रिया मेम साब कैसी हैं, संदीप बाबू कैसे हैं, आपके घुटनों का दर्द कैसा है अब?'' बच्चे को गुदगुदाते हुए शारदा पिछले डेढ़-दो महीने का हिसाब-किताब ले-दे रही है।<br /> ज्यों ही मिसेज रस्तोगी ने बच्चे का मुंह देखा, सकपका कर एकदम पीछे हट गयीं,''यह कैसे हो सकता है!'' सांस एकदम तेज हो गयी। माथे पर पसीना आ गया। उन्होंने शारदा की तरफ देखा, वह अपने बच्चे में मस्त है। सोफे का सहारा लेकर वे वहीं बैठ गयीं। मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। ''यह क्या हो गया! कैसे हो गया! शारदा का बच्चा और...'' उनके दिल को कुछ-कुछ होने लगा। ''भला इस बच्चे की शक्ल संदीप से कैसे मिल रही है? वही गोल चेहरा, नीली आंखें, चिबक पर काला मस्सा!'' शारदा तो एकदम काली-कलूटी है और उसके पहले दो बच्चे भी शक्ल में अपनी मां पर गए हैं। उसके मरद को भी देखा है उन्होंने, शारदा से उन्नीस-बीस ही है! तो... तो... फिर क्या यह बच्चा उनका अपना पोता है? शारदा से... इस काली-कलूटी नौकरानी से? शादीशुदा, दो बच्चों की मां से... जो घर-घर जूठे बर्तन मांजती फिरती है उससे... वे आगे सोच नहीं पायीं। एक बार फिर शारदा की तरफ देखा। उसका ध्यान अभी भी बच्चे की तरफ है। अपने राजा मुन्ना की बातें बताऐ जा रही है। वे वहां और बैठ नहीं पायीं। बच्चे के ऊपर शगुन के पैसे रखकर बधाई के शब्द बुदबुदा कर भीतर चली गयीं। यह क्या हो गया? संदीप तो... संदीप तो... उन्हें कैसे पता नहीं चला संदीप इस नौकरानी से... उन्हें कभी शक भी नहीं हुआ और मामला इतना आगे... उनका सिर घूमने लगा है।<br /> शारदा घर भर में घूमती फिर रही है। कह रही है-''उस लड़की ने तो घर बहुत गंदा कर छोड़ा है। मैं चार दिन में ही इसे पहले जैसा चमका दूंगी।'' चाय बनायी है उसने। एक कप उनके आगे रख दिया है। वे तेज नज़रों से शारदा की तरफ देखती हैं। नये मातृत्व से उसका चेहरा दिपदिपा रहा है। पूछना चाहती हैं - शब्द होठों तक आकर साथ छोड़ देते हैं। शारदा लगातार बोले जा रही है, ''मेरा राजा मुन्ना तो लाखों में एक है। मैं इसे बहुत बड़ा आदमी बनाऊंगी। बिलकुल तंग नहीं करता। पहले वाले बच्चों ने कित्ता सताया था मुझे।'' मिसेज रस्तोगी को कुछ सुनाई नहीं दे रहा। शारदा के शब्द हथौड़े की ठक...ठक... की तरह बज रहे हैं दिमाग पर। पथराई आंखों से देख रही हैं वे। उन्होंने एकाध बार शारदा को हाथ के इशारे से चुप करना चाहा, लेकिन ऐसा भी नहीं कर पायीं।<br /> शारदा रसोई में चाय के बर्तन धोने गयी तो वे चुपके से जाकर एक बार फिर बच्चे को देख आयीं ''शक की कोई गुंजाइश नहीं है। उसकी नीली आंखें और गोरा रंग सारा किस्सा बयान कर रहे हैं।'' वे एक पल उसे देखती रह गयीं। हाथ आगे भी बढ़े उसे गोद में उठाने के लिए - आखिर अपना खून है - लेकिन सकपका कर पीछे खींच लिये। तेजी से अपने कमरे में लौट आयीं। उन्हें हल्की सी झलक मिली - शारदा संदीप के कमरे में उसकी फोटो के आगे खड़ी है। तो क्या...शारदा कहीं इस बच्चे को लेकर इस घर में घुसने का ख्वाब तो नहीं देख रही? क्या कर डाला है संदीप तूने! कुछ तो आगा-पीछा सोचा होता! हाथ-पांव ढीले पड़ने लगे हैं उनके। वे इंतज़ार करने लगीं-शारदा जल्दी चली जाए। उनकी रुलाई रोके नहीं रुक रही।<br /> चाय पीकर चली गयी है शारदा, ''काम करने कल से आऊंगी। अभी तो बाकी घरों में भी बताना है। सभी तो कंटाल गए हैं उस लड़की से।''<br /> तो इसका यह मतलब हुआ, अभी घंटे भर में पूरी कॉलोनी को खबर हो जाएगी कि शारदा जिस तीसरे बच्चे को गोद में लिये घर-घर बधाइयां बटोरती फिर रही है, वह प्रोफेसर वीडी रस्तोगी के होनहार सपूत संदीप रस्तोगी का है। कॉलोनी के जिस घर में भी वह जाएगी, वहीं बच्चे के कुल-वंश का पन्ना खुलकर सबके सामने आ जाएगा। सभी उसकी जन्म-पत्री बांचने लगेंगी। क्या करें, प्रोफेसर साहब को फोन करें। लेकिन वे तो तीन बजे तक ही आ पाएंगे। प्रिया को फोन पर बताएं! वह बेचारी घबरा जाएगी सुनकर। क्या करें! वे बौराई-सी घर भर के चक्कर काटती फिर रही हैं। क्या कर डाला संदीप ने। कहीं का न छोड़ा। अब कॉलोनी में बात फैलने में घंटा भर भी न लगेगा। सब थू-थू करेंगे। रिश्तेदारी है। कैंपस है। प्रिया का ऑफिस है। बातें बिना परों के सब जगह पहुंच जाएंगी। नासपीटी को यही घर मिला था बरबाद करने के लिए ! मुझे क्या पता था, इतनी बड़ी आफत पाल रही हूं। हाय-हाय करतीं वे रोये जा रही हैं।<br />• <br />प्रोफेसर साहब के आते ही मिसेज रस्तोगी ने अपने सीने पर रखा पत्थर उठा कर उनके सीने पर रख दिया। सन्न रह गए वे। छी: इतनी घटिया पसंद संदीप की। ऐसी कौन-सी आग लगी हुई थी जवानी को। मुंह से बोलते तो सही जनाब। प्रिया के लिए रिश्ता ढूंढ़ने से पहले उसी के लिए लड़की देखते। जल्दी ही कुछ करना होगा। बात प्रिया की होने वाली ससुराल तक भी पहुंच सकती है। अभी तो बात भी पक्की नहीं हुई है। वे भी परेशानी की चादर ओढ़कर बैठ गए हैं। सोच रहे हैं-क्या करें। अगर यह सब सच है तो संदीप के कानपुर लौटने से पहले कुछ करना होगा। शारदा को ही यहां से हटाना होगा। उसका क्या है। कहीं भी झोपड़ी खड़ी कर लेगी। चार पैसे कमा लेगी। लेकिन यहां तो जो भी शारदा की गोद में इस बच्चे को देखेगा, हमारे खानदान पर हंसेगा। इतने बरसों में जो इज्ज़त बनायी है, उसकी गठरी उठाए - उठाए शारदा घर-घर घूमती फिरेगी। मुंह पर कोई कुछ नहीं कहेगा, लेकिन सब मज़े लेंगे। क्या करें!<br /> पूछा उन्होंने, ''क्या कहती हो, कुछ पैसे-वैसे लेकर वह यहां से चली जाएगी क्या? क्या करता है उसका मरद?''<br /> ''करता क्या है। सारा दिन दारू पी के पड़ा रहता है। जब वह काम पर जाती है तो पीछे बच्चों को संभालता है। सुना है कहीं माली-वाली है। पता नहीं यहां से जाने के लिए तैयार होगी भी या नहीं।'' तभी मिसेज रस्तोगी ने पूछा,''क्या यह नहीं हो सकता, आजकल ही में उससे बच्चा लेकर दूर किसी अनाथालय में रखवा दिया जाए। पर उसके लिए भी पता नहीं मानती है या नहीं?''<br /> ''कैसा था उसका रुख?''<br /> ''बहुत इतरा रही थी। सबके हाल-चाल पूछ रही थी, जैसे सबकी सगी वही हो। भीतर संदीप के कमरे में उसकी फोटो के आगे खड़ी थी। सुनो जी, मुझे तो एक और भी डर लगा रहा है,'' उन्होंने शंका जताई,''उसके लक्षण तो ठीक नहीं लगते। कहीं घर की मालकिन बनने के ख्वाब न देख रही हो?''<br /> ''तुम इतनी दूर की मत सोचो। इतना आसान नहीं है घर में घुस जाना। क्या तुम्हें पूरा विश्वास है, बच्चे की शक्ल संदीप से मिलती है!'' उन्होंने फिर आश्वस्त होना चाहा।<br /> ''अब मैं आपको क्या बताऊं, कल खुद देख लेना अपनी आंखों से'' वे फिर बिसूरने लगीं, ''लेकिन जो भी करना है, जल्दी करो।''<br />• <br />तीनों रात भर सो नहीं पाए। मिसेज रस्तोगी को तो रात भर खटका लगता रहा। वह आ गई है, एक हाथ में बच्चा और दूसरे हाथ में कपड़ों की पोटली लिये। उसने जबरदस्ती संदीप के कमरे पर कब्जा कर लिया है। उन्हें घर से बाहर धकेल दिया है। प्रिया पर भी वह हुक्म चला रही है। खुद मालकिन बनकर वह घर भर को सता रही है। संदीप भी हाथ बांधे एक तरफ खड़ा है। रात भर उन्हें बुरे-बुरे ख्याल आते रहे। सभी कॉलोनी वाले बधाई देने आ रहे हैं। खूब हंस रहे हैं, मज़ाक कर रहे हैं। हिजड़ों की फौज आ गयी है दरवाजे पर नाचने के लिए। बख्शीश लिये बिना टल नहीं रही। वे रात भर उठती-बैठती रोती-कलपती रहीं।<br /> उधर प्रोफेसर रस्तोगी रात भर करवटें बदलते रहे। ज़िंदगी में बहुत उतार-चढ़ाव देखे थे। लेकिन आज तक ऐसा नहीं हुआ था कि पूरे खानदान की इज्ज़त ही दांव पर लग गयी हो, और वे कुछ न कर पा रहे हों।<br /> प्रिया तो सोच-सोचकर जैसे पागल हुई जा रही है। कैसे सामना करेगी सबकी निगाह का। बात ससुराल भी पहुंचेगी ही। ज़िंदगी भर के लिए उनके पीहर को नीचा दिखाने के लिए उन लोगों को एक बहाना मिल जाएगा। फिर ऑफिस है, लोग हैं। सभी कुरेदेंगे। जैसे-तैसे सुबह हुई। वह आयी। उसी आत्मविश्वास के साथ लापरवाही वाला अंदाज़ लिये। बच्चा गोद में। उसके आते ही सबका रक्त चाप बढ़ गया। सभी खुद को पूरी तरह व्यस्त दिखाने लगे। प्रिया एक किताब लेकर बैठ गयी। प्रोफेसर साहब कुछ फाइलें लेकर स्टडी में घुस गए। मिसेज रस्तोगी अपने जोड़ों के दर्द को लेकर हाय, हाय करती बेडरूम में जा लेटीं।<br /> पहले तो उसके लिए दरवाजा खोलने के लिए भी कोई नहीं आया। दो-तीन बार उसने लगातार बेल बजायी तो प्रिया उठी। दोनों की आंखें मिलीं। शारदा मुस्कराईं-''कैसी हैं मेम साब!'' प्रिया बिना कुछ बोले एक तरफ हो गयी। कुछ कह ही न पायी। शारदा धड़धड़ाती हुई अंदर चली आयी। बच्चे को कालीन पर लिटाया। स्टीरियो चलाया। ए.सी. ऑन कर दिया। फिर चाय बनाने रसोई की तरफ बढ़ गयी। इतनी देर सबकी सांस थमी रही। किसी की हिम्मत न हुई, उसे रोके-टोके। जैसे सब उसी की गिरफ्त में हों। प्रिया उस पर सबसे ज्यादा चिल्लाया करती थी। कोई उसकी चीज़ों को, खास कर स्टीरियो को हाथ लगाए - वह कत्तई बरदाश्त नहीं कर सकती थी। आज प्रिया बेबस-सी देख रही है। और शारदा के पीछे-पीछे कामों में मीनमेख निकालती घूमने वाली श्रीमती रस्तोगी - वे भी बिलकुल शांत हैं। तीनों दम साधे व्यस्तता का नाटक कर रहे हैं। घर भर में स्टीरियो की आवाज गूंज रही है। किसी की हिम्मत नहीं हो रही, उसको बंद कर दे।<br /> बड़ी तेजी से काम निपटाए जा रही है शारदा। बीच-बीच में आकर अपने राजा मुन्ने को भी देख लेती है। घर के कामों के साथ-साथ उसे दूध पिलाना, उसके पोतड़े बदलना सब कुछ चल रहा है। जब वह गुसलखाने में कपड़े धोने गयी तो मिसेज रस्तोगी लपककर उठीं और प्रिया और प्रोफेसर साहब को ड्राइंग रूम में ले आयीं।<br /> ''ओह! यह तो सचमुच संदीप पर गया है। बहुत प्यारा बच्चा है।'' प्रोफेसर साहब के हाथ भी उसे उठाने के लिए कसमसाने लगे। बड़ी मुश्किल से खुद को रोका उन्होंने। प्रिया की रुलाई फूट पड़ी। मिसेज रस्तोगी को चक्कर आ गया। वे वहीं लुढ़क गयीं। दोनों किसी तरह उन्हें उठा कर बेडरूम तक ले गए।<br /> जब तक वह घर में रही, सिर्फ उसी की मौजूदगी महसूस की जाती रही। बाकी तीनों काठ बने रहे। एकदम चुप। गुमसुम। मातमी उदासी ओढ़े बैठे रहे। आज प्रिया ने भी महसूस किया, उसकी निगाहें बार-बार संदीप के कमरे की तरफ उठ रही हैं। उसने संदीप का कमरा खूब अच्छी तरह झाड़ा-पोंछा। सबसे ज्यादा वक्त उसने उसी कमरे में लगाया। प्रिया ने खुद को मन-ही-मन इसके लिए तैयार भी कर लिया कि अगर शारदा संदीप के बारे में कुछ पूछती है, तो वह उसे तुंत घेर लेगी। लेकिन शारदा ने ऐसी कोई उतावली नहीं दिखायी। ढाई-तीन घंटे तक इन तीनों को बंधक बनाए रखने के बाद वह छम... छम... करती चली गयी।<br /> उसके जाते ही तीनों सिर जोड़कर बैठ गए हैं। पहली समस्या तो यही है कि उससे कुबूलवाया कैसे जाए। संदीप से तो बाद में भी निपट लेंगे। पहले इसका जल्दी कुछ किया जाए। अब तक तो पूरी कॉलोनी को खबर हो चुकी होगी। यह तो तय कर ही लिया गया है कि फिलहाल संदीप को कानपुर में ही कुछ दिन रहने के लिए फोन कर दिया जाए। संदीप का आना इसलिए भी ठीक नहीं है कि कहीं उसी ने शारदा का पक्ष ले लिया तो ग़ज़ब हो जाएगा। उसे फोन पर इस बारे में कुछ भी न बताया जाए।<br /> अगर शारदा कबूल नहीं भी करती, तो भी पहले तो यही करना है, उसे कुछ दे-दिलाकर यहां से हमेशा से चले जाने के लिए कहा जाए - आज या कल में ही। नहीं आती तो उससे बच्चा लेकर किसी अनाथालय में देने की कोशिश की जाए। कोई तीसरी तरकीब वे नहीं सोच पाए। हां, अगर वह घर में घुसने की कोई कोशिश करती है, तब तो साफ जाहिर हो जाएगा कि उसकी पहले से ही यही नियत थी और इसलिए उसने संदीप को फंसाया। उस हालत में तो उससे निपटना आसान हो जाएगा। जनमत उन्हीं की तरफ होगा।<br /> बात अटक गई है - फिलहाल कॉलोनी वालों की निगाह का सामना कैसे करें? बाहर आना-जाना कम ही किया जा सकता है, एकदम बंद तो नहीं। लोगों को कुछ बात रकने को मसाला चाहिए। चटकारे लेंगे। थू-थू करेंगे। अगर सब कुछ ऐसे ही चलने दिया गया तो बच्चा कल बड़ा होगा, इन्हीं गली-मोहल्लों में खेलेगा। किस-किस का मुंह बंद करते फिरेंगे?<br />• <br />शाम तक वे तीनों सिर्फ सोचते रहे, कुछ भी तय नहीं कर पाए। अब सीधे-सीधे तो शारदा से यह नहीं कहा जा सकता - देख, तूने हमारे संदीप के साथ रंग-रेलियां मनायीं। मौज की। किसने किसकों फंसाया, भूल जा। लेकिन तुम दोनों की बेवकूफियों का नतीजा अब सामने है। देखो, हम ठहरे इज्ज़तदार आदमी। बेशक यह हमारे बेटे से हुआ है लेकिन इस बच्चे की यहां मौजूदगी से हमारी इज्ज़त को बट्टा लग रहा है, इसलिए तू इसे अपने बसे-बसाए जीवन और रोजी-रोटी के आसरे को लेकर यहां से हमेशा के लिए दफा हो जा।<br /> कौन कहता यह सब? उनकी तो शारदा के सामने आने की हिम्मत नहीं हुई, उसकी मस्ती और लापरवाही को भी वे झेल नहीं पा रहे।<br /> शाम को वह फिर आयी। सबको फिर लकवा मार गया। दिन की सारी योजनाएंं धरी रह गईं। बच्चे को उसी तरह कालीन पर लिटाना, स्टीरियो चलाना, घर भर में गुनगुनाते घूमना, बच्चे की ढेरों बातें बताना, उसे दूध पिलाना, किसी न किसी बहाने संदीप के कमरे में जाना सब कुछ चलता रहा। एक नाटक की तरह वह अकेली अपना पार्ट अदा करती रही। बाकी तीनों मूक दर्शक बने रहे। न उसने संदीप के बारे में पूछा, न किसी को बात करने का मौका मिला।<br /> एक बार फिर वह हाथ से निकल गयी। उसके जाते ही फिर तीनों के सिर जुड़ गए - आखिर चाहती क्या है? एक तरफ तो इस घर को अपना घर समझ कर घर भर की चीज़ें इस्तेमाल करने लगी है तो दूसरी तरफ किसी किस्म की कोई मांग नहीं। जिक्र नहीं। घर भर को एक जकड़न में बांध रखा है उसने। काम छुड़वाने के लिए भी कैसे कहा जाए। बात करने का कोई सिरा तो हाथ लगे। दोनों बार उससे किसी ने बात नहीं की, लेकिन उसे परवाह ही नहीं। वह अपने बच्चे में ही मस्त है।<br /> कॉलोनी में सुगबुगाहट शुरू हो गयी है। दो-एक औरतें बहाने से घर भी आयीं। शारदा का जिक्र भी छेड़ा। उसके वापस आने से आराम हो गया है, लेकिन वही बात नहीं कही, जिसके लिए आयीं थीं। कुछेक औरतों ने सीधे ही शारदा को कुरेदने की कोशिश की, लेकिन उसने साफ इनक़ार कर दिया है। लोग हंसते हैं - उसके मना करने से क्या है, कोई भी बता सकता है-उसकी रगों में किसका खून दौड़ रहा है। वह किसी के भी मज़ाक का जवाब नहीं देती। टाल जाती है।<br /> अब वह पहले की तरह गंदे कपड़ों में नहीं आती। बच्चे को एकदम साफ रखती है। अपनी हैसियत से महंगे कपड़े पहनाती है। उसके पहले दोनों बच्चे उसके साथ कभी नहीं देखे गए, लेकिन तीसरा हरदम उसकी गोद में रहता है। कुछ घरों में उसे बच्चे के लिए पुराने कपड़े देने की कोशिश की गई तो उसने लेने से सफ इनकार कर दिया। पहले यही शारदा अपने लिए और बच्चों के लिए सब कुछ मांग लिया करती थी।<br />• <br />तीसरे दिन सुबह जाकर कुछ बात बनी। बनी नहीं बिगड़ गयी। उस समय प्रोफेसर साहब घर पर नहीं थे। वह आयी। बच्चे को कालीन पर लिटाया। ज्यों ही स्टीरियो चलाने के लिए मुड़ी, प्रिया एकदम बरस पड़ी-''हटा इसे यहां से। रोज़-रोज़ कालीन पर लिटा देती है। खराब होता है यह।''<br /> इससे पहले कि शारदा पलट कर कुछ कहे, प्रिया ने एक और फरमान जारी कर दिया,''और खबरदार जो आज से मेरे स्टीरियो को हाथ लगाया। ढंग से काम करना है तो कर वरना और कोई घर देख।'<br /> शारदा एकदम ठिठकी खड़ी रह गर्यी। उसे शायद इसकी उम्मीद नहीं थी। उसने बच्चे को उठाया और एक कोने में बैठ गयी। मौका सही लगा मिसेज रस्तोगी को भी। वे भी मैदान में आ गयीं-''बता कब से फंसा रख है तूने संदीप को? बोल!''<br /> ''क्या मतलब?'' शारदा बमकी, ''किसने किसको फंसा रखा है?''<br /> ''तो फिर तेरे इस छोकरे की शक्ल संदीप से कैसे मिल रही है?'' बहुत रोकने पर भी उनकी आवाज भर्रा ही गयी है।<br /> ''मुझे क्या पता?'' शारदा ने लापरवाही से कहा।<br /> ''तुझे पता नहीं तो फिर किसे पता होगा? पता नहीं कहां-कहां मुंह मारती फिरती है। हमारे सीधे-सादे लड़के को फंसा लिया है। हमें कहीं का न छोड़ा।''<br /> शारदा एकदम खड़ी हो गयी - ''खबरदार मेमसाब, जो मेरे चरित्तर के बारे में कुछ ऐसा-वैसा कहा तो, इत्ती देर से मैं चुपचाप सुन रही हूं और आप बोले जा रही हैं। मैं अपने काम से काम रखती हूं। फालतू लफड़ों में नहीं पड़ती।''<br /> ''फालतू लफड़ों में नहीं पड़ती तो बता तू कि बच्चों की शक्ल यूं ही किसी से कैसे मिल जाती है?'' अब कमान प्रिया ने संभाल ली है।<br /> ''मुझे क्या पता। आपको काम छुड़वाना हो तो वैसे बोल देयो। मैं अभी छोड़के चली जाती। पर मेरे कू फालतू बोलने का नईं।'' यह कहते हुए उसने बच्चे को उठाया और एकदम बाहर निकल गई।<br /> एक पल को तो मां-बेटी दोनों सकते में आ गयीं। यह क्या हो गया? फिर राहत की सांस भी ली। अब कम-से-कम हर वक्त छाती पर तो सवार नहीं रहेगी। एक दुविधा जरूर खड़ी हो गयी है। उससे संवाद की जो स्थिति पैदा हुई थी, वह एकदम हाथ से निकल गयी। इतनी मुश्किल से हाथ आया मौका दोनों ने खो दिया। अब न तो उससे यह ही कहा जा सकता है कि कॉलोनी छोड़ के चली जा और न ही उससे बच्चा मांगा जा सकता है। उसके तेवर देखकर तो यही लगता है -आसानी से हाथ धरने नहीं देगी। अलबत्ता, यह साफ हो गया कि इस घर में घुसपैठ करने का उसका कोई इरादा नहीं है।<br /> जब प्रोफेसर साहब को पूरी बात पता चली तो वे झल्लाए, ''तुम लोगों को ज़रा-सा भी सब्र नहीं था? जान-बूझकर पूरी बाजी उलट दी है। उसने अगर अपनी मर्ज़ी से काम पर आना बंद कर दिया तो उसे कुछ कहने-सुनने का हमारा कोई हक ही नहीं रहेगा।''<br /> शारदा ने वाकई काम पर आना बंद कर दिया है। बाकी घरों में उसी मुस्तैदी से बच्चे को लिये-लिये घूम रही है। भीतर-ही-भीतर चल रही सुगबुगाहट अब और मुखर हो गयी है। लोगों को अब पूरा विश्वास होने लगा है।<br /> बहुत सोच-समझकर और अपने आप को हर तरह से तैयार करके प्रोफेसर रस्तोगी रात के अंधेरे में शारदा की झोंपड़ी में गए हैं। इतने पैसे ले कर, जितने शारदा दस सालों में भी न कमा सके। लेकिन शारदा पैसे देखते ही भड़क गयी, ''किस बात के पैसे? जब काम करती थी, पैसे लेती थी। मेहनत-मजूरी करती हूं। करती रहूंगी। मैं क्यों जाऊं यहां से? कहां जाऊं?''<br /> प्रोफसर साहब ने जब उसके तेवर देखे तो एक और चारा डाला - इतने पैसे और ले लो और यह बच्चा हमें दे दो। हमेशा के लिए। यह सुनते ही शारदा इतने ज़ोर से चिल्लायी कि सारी बस्ती सुन ले-''साफ-साफ सुन लो साब - यह बच्चा मेरा है। सिर्फ मेरा। मैं इसे किसी कीमत पर नहीं दूंगी। समझे। अगर आप लोगों को शक है कि यह संदीप बाबू का है तो आप जाकर उन्हीं से क्यों नहीं पूछते? कहां छुपा रखा है उन्हें?'' दनदनाती हुई वह अपनी झोंपड़ी में घुस गयी।<br /> प्रोफेसर साहब पूरी तरह टूटे हुए, अंधेरे में ठोकरें खाते हुए वापस लौट रहे हैं। सोच रहे हैं - कल-परसों में ही घर बदलकर किसी और कॉलोनी में रहने चले जाएंगे।<br /><br /> *****सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-10335116328275569792008-06-19T11:43:00.000+05:302008-06-19T11:50:30.343+05:30सोलहवीं कहानी - सही पते परआज का सारा शेड्यूल बिगड़ गया। एक तो गाड़ी आठ घंटे लेट और ऊपर से मद्रास बंद। स्टेशन पर कोई ऑटो, टैक्सी नहीं। ऑफिस की गाड़ी आकर कब की चली गयी होगी। किस्मत से सहयात्री मिलीटरी वाला है। उसी की जीप में लिफ्ट लेकर होटल तक पहुंच पाया हूं।<br /> अब एक पूरा बेकार, खाली-सा दिन मेरे सामने पसरा पड़ा है। बाहर जा नहीं सकता। इन बंद वालों को बस आज ही का दिन मिला था। पहले पता होता तो आता ही नहीं आज। पर अब क्या करूं। आज शनि है। कल रवि। यानी सोमवार तक मुझे यूं ही वक्त गुजारना है। समझ में नहीं आ रहा - क्या करूं।<br /> कुछेक फोन ही कर लिये जायें। टेलीफोन डाइरेक्टरी मंगवाता हूं। लोकल ऑफिस के मैनेजर के घर फोन करके अपनी पहुंच की खबर देता हूं। बताते हैं वे, ड्राइवर तीन-चार घंटे इंतजार करता रहा स्टेशन पर। फिर बंद वालों ने भगा दिया। उन्हें यह जानकर तसल्ली होती है, होटल में ठीक-ठाक पहुंच गया हूं। अपने कामकाज के सिलसिले में पूछता हूं। बताया जाता है मुझे - आज तो कोई मिलने भी नहीं आ पायेगा। अलबत्ता, कल सुबह ही वे किसी के साथ गाड़ी भिजवा देंगे, घूमने-फिरने के लिए।<br /> अब! फिर वही सवाल। इस अजनबी शहर में, `बंदोत्सव' में मैं करूं तो क्या करूं। याद आया, अरे, बनानी से भी तो मिलना है। मन एकदम रोमांचित हो आया। सारे रास्ते तो उसके ख्यालों ने व्यस्त रखा लेकिन मेरा सारा रोमांच क्षण भर में गायब हो गया। इस समय तीन बजे हैं। वैसे भी जब पूरा मद्रास बंद है तो युनिवर्सिटी भी तो बंद होगी। उसके घर का पता कहां है मेरे पास। डाइरेक्टरी देखता हूं। युनिवर्सिटी के नम्बरों में न तो अंग्रेजी विभाग का डाइरेक्ट नम्बर है, न ही विभाग के हेड का नाम या उसका रेसिडेंशियल नम्बर। बनानी के नम्बर का तो सवाल ही नहीं उठता। काश! उससे आज मुलाकात हो जाती तो कितने अच्छे कट जाते ये दो दिन।<br /> अब तो परसों तक इंतज़ार करना पड़ेगा, ``कैसे तलाशा जाये आपको इस महानगरी में मिस बनानी चक्रवर्ती? किसी को भी तो नहीं जानते हम इस अजनबी शहर में मैडम। आपको खोज भी लेते हम, लेकिन यह ''बंद'।''<br /> यूं ही डाइरेक्टरी के पन्ने पलटता हूं- ''सी' और ''सी' में चक्रवर्ती। अचानक सूझता है मुझे - थोड़ी-सी मेहनत की जाये तो बनानी को आज और अभी भी ढूंढ़ा जा सकता है। आज पता भर चल जाये तो मुलाकात कल भी की जा सकती है। है तो बेवकूफी भरा तरीका, लेकिन किसी को पता थोड़े ही चलेगा, इस तरफ कौन है। ऐसा हो ही नहीं सकता, यहां का बंगाली समुदाय और उनमें से भी चक्रवर्ती, बनानी को न जानते हों। आखिर कितनी होंगी ऐसी बंगाली लड़कियां मद्रास में, जो युनिवर्सिटी में अंग्रेजी पढ़ाती हों और बंगला में लिखती हों। हिसाब लगाता हूं - पूरे मद्रास में पच्चीस तीस हजार के करीब बंगाली होंगे। उनमें भी चक्रवर्ती होंगे, हजार से भी कम। और टेलीफोन डाइरेक्टरी बताती है - कुल 42 चक्रवर्तियों के पास फोन हैं। इन्हीं से पूछकर देखा जाये तो। न भी मिले, कुछ वक्त तो गुजरेगा। तीस-चालीस रुपये में यहीं बैठे-बैठे बनानी का पता चल जाये तो उससे बढ़कर क्या हो सकता है आज के दिन। हो सकता है, इन्हीं में से किसी परिवार में ही हो वह। वैसे डाइरेक्टरी में कोई बनानी चक्रवर्ती नहीं है। तो यह शरारत भी करके देख ली जाये।<br /> पहले चक्रवर्ती से शुरू किया है। एक... तीन... पंद्रह... सत्ताइस... पैंतीस... और ये बयालीस। कुल पचास मिनट लगे और पैंतीस जगह बात हुई बाकी नम्बर दुकानों, ऑफिसों के हैं या लाइन नहीं मिली। हंसी आ रही है खुद पर-हर तरह की आवाजें, प्रतिक्रियाएं, गालियां, हंसी। फोन पटके गये। होल्ड कराया गया, पागल करार दिया गया मुझे। बेहद भले लोग, लेकिन नतीजा जीरो। ''हां, नाम सुना तो है, देखा भी है, पन किधर रहती, मालूम नहीं। आर यू क्रेजी, इज इट द वे टू लोकेट ए गर्ल, नो... नो... नो... ऑवर बनानी इज ओनली एट ईयर्स ओल्ड... यहां बनानी है, बट वह हमारा वाइफ है। वह कभी टीचर नहीं थी। हू आर यू... यू मैड मैन... विच बनानी चक्रवर्ती? यू मीन दैट गर्ल...डॉटर ऑफ प्रोताश चक्रवर्ती, बट शी इज टीचर इन प्राइमरी स्कूल...''.<br /> मज़ा आ रहा है मुझे। कल तक पूरे शहर के बंग समाज में यह खबर फैल जायेगी - कोई सिरफिरा बम्बई से आया है और किसी बनानी चक्रवर्ती को खोज रहा है। एक - एक घर में फोन करके। क्रेजी फैलो। डाइरेक्टरी एक किनारे रख दी है। तो इन सब चक्रवर्तियों में हमारी वाली बनानी को कोई नहीं जानता। नहीं जानता का यह मतलब तो नहीं कि वह है ही नहीं। हो सकता है जो नम्बर नहीं मिले, वहीं हो। कुल मिलाकर एक मज़ेदार एक्सरसाइज हो गयी। न सही आज मुलाकात, परसों युनिवर्सिटी तो खुलेगी। उसे बताऊंगा इस बारे में कितना हंसेगी।<br />• <br />अजीब गोरख धंधा है इस युनिवर्सिटी का भी। दस जगह फोन करके भी कुछ पता नहीं चल पाया है बनानी का... कहीं कोई तमिल भाषी बैठा होता है तो कहीं कोई कुछ बताये बिना ही फोन रख देता है। हार कर अपने स्थानीय साथी से अनुरोध करता हूं-अंग्रेज़ी विभाग की बनानी चक्रवर्ती से बता करा दें जरा। वे भी कई जगह फोन करते है। अधिकतर तमिल में ही बात करते हैं। बताते हैं - युनिवर्सिटी गर्मियों की छुट्टियों की वजह से बंद है और दूसरे, अंग्रेजी विभाग में इस नाम की लेक्चरर नहीं है। ''अरे, तो फिर कहां गयी बनानी, राघवेन्द्र ने तो सिर्फ यहीं का पता दिया था। अब वह वहां है नहीं। पता नहीं मद्रास में भी है या नहीं। कैसे पता लगाया जाये। उसकी शक्ल, सूरत, पता-ठिकाना, घर-परिवार कुछ भी तो पता नहीं।''<br /> सोच रहा हूं - यूनिवर्सिटी छोड़कर कहां गयी होगी। फिर उसका यह पता भी तो तीन साल पुराना है। बता तो रहा था राघवेन्द्र, तीनेक साल से सम्पर्क छूटा हुआ है। हो सकता है इस बीच कलकत्ता लौट गयी हो या शादी कर ली हो। कुछ तो पता चले। अगर यहीं है तो मिलने की कोशिश की जाये और नहीं है तो किस्सा ही खत्म। अपने साथी से फिर अनुरोध करता हूं - ज़रा फिर फोन करके अंग्रेज़ी के हेड का नाम, पता और फोन नम्बर पुछवा दें। वे ही शायद बता सकें, बनानी अब कहां है। वे फिर दो-चार बार नम्बर घुमाते हैं। आखिर हेड का नाम, पता लोकेट कर ही लेते हैं - डॉ. वाणी कुंचितपादम। अब मैं उनके घर का नम्बर मिलाता हूं। इंगेज आ रहा है लगातार। असिस्टेंस सर्विस की मदद लेता हूं - फिर भी नहीं मिलता। लगता है फोन खराब है। सोचता हूं, खुद ही उनके घर की तरफ निकल जाऊं। वैसे भी यहां शाम को कुछ करने-धरने को नहीं है।<br />• <br />मज़ेदार किस्सा बन गया है बनानी का। सिर्फ छ: शब्दों के तीन साल पुराने पते के सहारे उसकी तलाश कर रहा हूं इतने बड़े शहर में। न मुझे जानती है, न मैं उसे जानता हूं। दो दिन पहले तक नाम भी नहीं सुना था उसका। कभी राघवेन्द्र को मिली थी। ऑथर्स गिल्ड की कॉन्फ्रेंस में। तीन-चार साल हुए। तभी दोनों का परिचय हुआ था। बातें हुई थीं। किताबों का आदान-प्रदान हुआ था। पांच-सात पत्र भी आये-गये, फिर नौकरियां बदलने के चक्कर में दोनों का सम्पर्क लगभग छूट गया था। अब मेरी मद्रास ट्रिप से राघवेन्द्र को बनानी की याद ताजा हो आयी। चलते वक्त कहा था राघवेन्द्र ने - तुझसे झूठ नहीं कह रहा हूं शेखर, बहुत ही जहीन और मैच्योर लड़की थी यार। ब्रेन एण्ड ब्यूटी का अद्भुत ब्लैण्ड। उस लड़की में गज़ब का आकर्षण था कि आप उसे इग्नोर कर ही न सकें। अगर तुम्हारी मुलाकात हो जाये तो तुम्हारी यात्रा सार्थक हो जायेगी।<br /> अब जैसे-जैसे उससे मुलाकात में देर हो रही है, या मिलने की संभावना कम हो रही है, उससे मिलने की ललक उतनी ही बढ़ने लगी है। कल बाजार में घूमते हुए, किताबों की दुकान में वक्त गुजारते हुए और शाम को मरीना बीच पर अकेले टहलते हुए एक सुखद-सा ख्याल आता रहा। हो सकता है, वह भी यहीं कहीं, आस-पास हो। कोई उसे उसके नाम से पुकारे और...फिर तेजी से ख्याल झटक दिया - मैं भी फिल्मी स्टाइल में सोचने लगा हूं। पहले दिन तो फोन करके उसे तलाशने की बेवकूफी करता रहा और अब उसे सड़कों, चौराहों पर खोज रहा हूं।<br />• <br />डॉ. वाणी कुंचितपादम का घर ढूंढ़ने में खासी परेशानी हुई। ''मैडम घर पर नहीं हैं। आधे घंटे में आ जायेंगी, आप बैठिए।'' उनके पति बताते हैं। मेरे पास इतनी दूर आकर इंतज़ार करने के अलावा कोई उपाय नहीं है। वे दो-चार बार कुरेदते हैं, लेकिन मैं टाल जाता हूं, मैडम से ही काम है। वे ड्राइंगरूम में मुझे अकेला छोड़कर गायब हो गये हैं। टिपिकल तमिल साज-सज्जा, तस्वीरें, तमिल पुस्तकें, पत्रिकाएं, लगता ही नहीं, इंग्लिश की हेड के घर बैठा हूं।<br /> वे आयीं। सामान से लदी-फंदीं। मुझे देखकर चौंकती हैं। आने का कारण जानकर राहत की सांस लेती हैं। बताता हूं। फोन पर ही पूछना चाहता था, पर... हां, फोन कई दिन से खराब पड़ा है। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा, एक अनजान लड़की का पता लगाने के लिए कोई इतनी मेहनत कर सकता है। बताती हैं - अब वह युनिवर्सिटी में नहीं पढ़ाती। दो साल से भी ज्यादा हो गये। यहां वह लीव रिज़र्व थी। एक और सदमा मेरे लिए। ''बता सकती हैं कहां होंगी आजकल? '' एक आखिरी कोशिश। ''हां, हां, क्यों नहीं।'' वे बताती हैं, बनानी मद्रास में ही है। सेंट जेवियर्स आर्ट्स कॉलेज में पढ़ाती है। वहां वह कन्फर्म हो गयी है। अरे, तो बनानी अभी भी संभावना है। मैं हल्का-सा खुश हो गया हूं। यहां आना बेकार नहीं गया, लेकिन वे बनानी के घर का पता नहीं बता पातीं। अलबत्ता, सेंट जेवियर्स का पता बता देती हैं। वहां इकॉनोमिक्स के हेड हैं मिस्टर पद्मनाभन, उनसे मिलने की सलाह देती हैं। वहीं कॉलेज क्वार्टर्स में रहते हैं।<br /> उनसे विदा लेता हूं। वे अभी भी मुझे अविश्वास से देख रही हैं - एक अपरिचित लड़की के लिए... इतनी भागदौड़... दरवाजे पर आकर हाथ जोड़कर विदा करती है। <br />होटल वापस आते-आते रात हो गयी है। तय करता हूं, कल किसी वक्त जाऊंगा। आज सात में से तीन दिन बीत चुके हैं।<br /> जितना वक्त बीतता जा रहा है, उतना ही यह सवाल मैं खुद से बार-बार पूछने लगा हूं - क्यों मिला चाहता हूं उससे! क्यों एक अनजान लड़की के लिए इतनी भागदौड़ कर रहा हूं। एक ऐसी लड़की के लिए, जो मुझे जानती तक नहीं और जान भी ले तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि यह पहचान परिचय तक भी पहुंचेगी या नहीं। माना, बनानी एक संवेदनशील रचनाकार है, मैच्योर है, पढ़ी-लिखी है, उससे बात करना अच्छा लगेगा, लेकिन उस जैसी तो सैकड़ों हैं, हज़ारों हैं, तो क्या सबसे... फिर पूछता हूं खुद से। इतनी-इतनी तो मित्र हैं पहले से, फिर एक और की तलाश क्यों, क्या एक शादीशुदा, सुन्दर व पढ़ी-लिखी बीवी के पति, दस साल की बच्ची के पिता, एक छोटे-मोटे अफसर और छोटे-मोटे लेखक को यह शोभा देता है कि वह एक मित्र के कहने भर से उसकी मित्र की तलाश में मारा-मारा फिरे। जितना सोचता हूं, उलझन बढ़ती ही जाती है।<br /> अगर उससे पहले ही दिन मुलाकात हो जाती तो राघवेन्द्र का पत्र देकर छुट्टी पा लेता। वह फिर मिलना चाहती तो मिल भी लेता, लेकिन उसने न मिलने से जो यह उत्सुकता और बढ़ती जा रही है उससे मिलने की, उससे मेरी दुविधा ही बढ़ रही है और फिर राघवेन्द्र ने चिट्ठी भी तो इतनी आत्मीयता से लिखी है कि मन करने लगा है - इस लड़की से मुलाकात होनी ही चाहिए। उस कवि-मन अनदेखी युवती के प्रति एक अनचीन्हा-सा अनुराग जागने लगा है। फिर राघवेन्द्र की उसके नाम लिखी चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगा हूं:<br /><br />बम्बई, 29 मई<br /><br />प्रिय बनानी,<br /> बहुत लम्बे अरसे से तुमसे मेरा पत्राचार छूट गया है, पर तुम्हारे भीतर के संवेदनशील रचनाकार की छवि मेरे मन में अभी भी वैसी ही है। मन है, तुमसे मिलना हो, खूब बातें हों और लम्बे अन्तराल की उपलब्धियों की पोटलियां खोली, दिखायी जायें। मन खुशियों से सराबोर हो जाये। प्रिय शेखर मेरे अभिन्न मित्र, भाई और प्रखर संभावनाशील कथाकार हैं। और उससे भी कहीं अधिक एक प्यारे भाई, अंतरंग और मेरे सहचर। उनकी रचनाएं ज़रूर तुम्हारी नज़रों से गुज़री होंगी। अचानक पता चला कि मद्रास जा रहे हैं तो तुम्हारी याद आना बहुत स्वाभाविक है। इनके साथ तुम्हारे सुख-दु:ख की पहचान मेरे पास वैसे ही पहुंच जायेगी, जैसे कि तुम इनसे मिलोगी। शायद नये शहर में तुम्हारा संवेदनशील व्यक्तित्व इन्हें बहुत अपनत्व देगा।<br /> मेरे नाम खत लिखना और शेखर के हाथ भेज देना। मैं लगातार नौकरियों के चक्कर में भटकता रहा। जल्दी ही तुम्हें अपना पता लिखूंगा। बहुत भाग दौड़ के कारण ही पत्राचार में तुमसे पिछड़ गया। बाकी, तुम्हारी उपलब्धियों को बहुत पास से देखते का मन है।<br /> और क्या लिख रही हो। क्या कर रही हो। आगे क्या इरादा है। कलकत्ता में परिवार कैसा है। पत्र दोगी और ढेरों बातें लिखोगी। सकुशल होगी। नमस्कार।<br />सस्नेह तुम्हारा<br />राघवेन्द्र<br /><br /> इस पत्र के एक-एक शब्द के पीछे एक खूबसूरत, शालीन चेहरा झिलमिलाता दिख रहा है। अलौकिक सौन्दर्य से दिपदिपाता। संवेदनशील व्यक्तित्व। इस पत्र के ज़रिये और जो कुछ राघवेन्द्र ने बताया था, उसके आधार पर मैंने बनानी के रूप, सौन्दर्य, व्यक्तित्व, स्वभाव और यहां तक कि उसकी बौद्धिकता और कलात्मक अभिरुचि की भी एक तस्वीर-सी बना ली है। मन है, जब भी उससे मिलूं, अपनी कल्पना के अनुरूप पाऊं।<br />• <br />सेंट जैवियर्स में पहुंचने पर पता चला है, पद्मनाभन जी नहीं हैं। सपरिवार कुल्लू-मनाली गये हैं। अगले हफ्ते आयेंगे। पता नहीं क्यों, बहुत अधिक निराश नहीं करती यह खबर। शायद पूरी स्थितियां ऐसी बनती चली जायेंगी कि बनानी से मुलाकात नहीं ही होगी। या तो मैं अधबीच कोशिश छोड़ दूंगा, या कोई और कारण आ निकलेगा। वहां से लौटने को हूं कि वहीं कोई और प्राध्यापक मिल गये हैं। बताते हैं-बनानी यहीं पढ़ाती हैं। पक्का तो पता नहीं, लेकिन शायद एग्मोर में वाइ.डब्ल्यू.सी.ए. के हॉस्टल में रहती हैं। वहीं एक बार पता करके देख लें। उनका बहुत-बहुत आभार मानता हूं।<br /> तो! अब! सड़क पर खड़ा सोच रहा हूं-तो मिस बनानी चक्रवर्ती, आप हमें मिले बिना जाने नहीं देंगी। घड़ी देखता हूं-साढ़े आठ। वहां पहुंचते-पहुंचते नौ बज जायेंगे। क्या एक शरीफ लड़की से पहली बार उसके हॉस्टल में मिलने जाने का वक्त है यह। क्या पता, स्टाफ ही न मिलने दे। लेकिन अब जब पता चल गया है उसका, तो मिल ही लिया जाये। जो भी होना है, आज ही हो ले। मिले या न मिले। आज ही निपटा दिया जाये यह मामला। वैसे भी वापसी में सिर्फ तीन दिन बचे हैं।<br />• <br />वहां अगला सदमा मेरा इंतज़ार कर रहा है। इस नाम की कोई लड़की यहां नहीं रहती। मुझे अजीब-सा महसूस होने लगा है। एकदम तेज प्यास लग आयी है। यह क्या मज़ाक है। बीच-बीच में अचानक यह क्या हो जाता है कि वह एक जगह होती है और दूसरी जगह से गायब हो जाती है। फिर अगली जगह फिर प्रकट हो जाती है। क्लर्क से पूछता हूं-जरा अच्छी तरह देखकर बताएं - शायद कुछ अरसा पहले तक रहती रही हो। वह मुझे अजीब निगाहों से घूरता है। मैं उसकी परवाह नहीं करता। यह आखिरी पड़ाव है जहां बनानी को होना चाहिए। अगर वह यहां नहीं है तो फिर कहीं नहीं है। वह रजिस्टर के पन्ने पलट कर मना कर रहा है - इन्द पोन इंगे इरकरदिल्ले... यहां नहीं रहती यह लड़की।<br /> अब मैं इस हॉस्टल के रिसेप्शन में रुकने-न रुकने की हालत में खड़ा हूं। क्लर्क फूट लिया है। हो सकता है, बनानी यहीं रहती आयी हो, अब न रहती हो। इन गर्ल्स हॉस्टलों के नियम भी तो कुछ ऐसे ही होते हैं। ज्यादा-से-ज्यादा एक साल, दो साल। क्लर्क ने भी तो यही कहा है, नहीं रहती। अगर रहती थी तो अब कहां गयी। कुछ तो पता चले। लेकिन पूछूं किससे। इतने में मुझे दुविधा में देख एक लड़की खुद आगे आयी है - किसे पूछ रहे हैं सर?<br /> उसी के सामने पूरा किस्सा बयान करता हूं। यह भी पूछता हूं कि इसी संस्था का और कोई भी हॉस्टल है क्या आस-पास। बताती है लड़की - हॉस्टल तो यही है अलबत्ता, बनानी... दो-एक लड़कियां और जुट आयी हैं। वहीं रिसेप्शन में इंतज़ार करने के लिए कहती हैं - अभी पता करके बतायेंगी, पुरानी हॉस्टलर्स से, आया से, वॉचमैन से।<br /> मैं अजीब-सी हालत में वहीं बैठा हूं। यह मैं क्या कर रहा हूं। यह कौन-सा तरीका है किसी को खोजने का? दिमाग खराब हो गया है क्या? मिल भी गयी वह तो कौन-सी क्रांति हो जायेगी। मैं ही तो सारे कामकाज छोड़कर उससे मिलने के लिए मारा-मारा फिर रहा हूं। अगर मिल भी गयी और उसने ''ओह, थैंक्स, सो नाइस ऑफ यू। आप आये, बहुत अच्छा लगा'' कहकर संबंध पर, मुलाकात पर वहीं फुल स्टॉप लगा दिया तो। क्या कर लूंगा मैं तब?<br /> मैं एक झटके से उठ खड़ा होता हूं। नहीं मिलना मुझे उससे। अब और बेवकूफी नहीं करूंगा। चलने को ही हूं कि एक लड़की भागती हुई आयी है - सर आप ही... मिस बनानी से... मैं उसकी तरफ देखता हूं - तो... क्या... यह लड़की... बनानी... ''सर, वह मेरी रूममेट थी। अब यहां नहीं रहती। उसके एक अंकल ट्रंसफर होकर आये थे, दो-तीन महीने पहले। अब वह उन्हीं के साथ रहती है, मइलापुर में।''<br /> लो। एक और पता। लम्बी सांस लेता हूं। चलो यही सही। उससे पता पूछता हूं, पता उसके पास नहीं है। सिर्फ उसे छोड़ने गयी थी टैक्सी में। तभी देखा था उसके अंकल का फ्लैट। हां, लोकेशन बता सकती है। वह कागज पर ड्रा करके लोकेशन बताती है। सेंथोम चर्च। उसके ठीक सामने एक तिमंजिली इमारत। बिलकुल सफेद रंग की। ग्राउण्ड फ्लोर पर बायीं तरफ का पहला फ्लैट। दरवाजे पर पीतल की नेम प्लेट। अंकल का नाम याद नहीं, लेकिन वे भी चक्रवर्ती। काफी है मेरे लिए। जाऊं या न जाऊं, बाद की बात है।<br />• <br />अब वापसी में सिर्फ दो दिन बचे हैं। फिर दुविधा में पड़ गया हूं। जाऊं या नहीं। कल दोबारा उन्हीं स्थानीय लेखक मित्रों से मिलने चला गया, जिनसे तीन दिन पहले ही मिला था। वही-वही समस्याएं, वही-वही रोना कि यहां सबसे अलग-थलग बैठे हैं, हमारे लिखे को कोई नोटिस नहीं लेता। और रचनाओं के नाम पर सब कुछ बासी पुराना-पुराना-सा। आज खाली हूं। फिर बनानी के ख्याल आ रहे हैं। अब भी मिलने नहीं गया तो अफ़सोस होता रहेगा। इतनी कोशिश की, भागदौड़ की और मंज़िल का पता पूछकर लौट आया। फिर राघवेन्द्र सुनेगा तो हंसेगा।<br /> दूसरा मन कहता है - अब बचे ही सिर्फ दो दिन हैं। अगर इन दो दिनों में दो बार भी मुलाकात हो जाये तो गनीमत। अब तो घर-परिवार में है। पता नहीं कैसे लोग हों, घर पर कौन-कौन हों? लेकिन एक आखिरी कोशिश करके देख लेने में हर्ज क्या है? तय कर लेता हूं, जाना ही चाहिए।<br />• <br />घर बिलकुल आसानी से मिल गया है। दरवाजे पर साफ-सुथरी चमकती हुई पीतल की नेम प्लेट लगी है-डॉ.चंदन चक्रवर्ती। घंटी पर हल्के से हाथ रखता हूं। थोड़ा इंतज़ार। अब यहां पहुंचकर भी वह पहले वाली ऊहापोह नहीं रही है, जो चार-पांच दिन पहले तक थी। इतना तो भटका दिया है इस लड़की ने कि मिलने न मिलने के बीच का अंतराल ही मिट गया है।<br /> दरवाजा एक महिला ने खोला है, निश्चय ही आंटी होंगी, नमस्कार करके बतलाता हूं - बम्बई से आया हूं, बनानी और मेरे एक कॉमन फ्रेण्ड हैं राघवेन्द्र। यहां आ रहा था तो उन्हीं ने पता दिया था बनानी का। पूछते-पूछते यहां तक आ पहुंचा हूं।<br /> वे बड़े प्यार से अंदर बुलाती हैं। बिठाती हैं। दो-एक घरेलू नाम पुकारती हैं। पल भर में उनके पति और दो लड़कियां ड्राइंग रूम में आ जुटे हैं। लड़कियों को देखकर सोचता हूं-कौन-सी होनी चाहिए बनानी इनमें से। एक लम्बी-पतली-सी है, घने बाल, आंखों पर चश्मा, हाथ में किताब, दूसरी गाउन में है। शायद रसोई का काम छोड़कर चली आयी है। थोड़ी सांवली, दूसरी से बड़ी, खूबसूरत चेहरा-मोहरा, पहली ही नज़र में जहीन होने का सुबूत देता हुआ।<br /> महिला उन्हें मेरे बारे में बताती है, सबको आश्चर्य होता है मेरा इतना सोमांचकारी खोज अभियान सुनकर। मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी है - बताया क्यों नहीं जा रहा - इनमें से बनानी कौन-सी है। वैसे मेरी ख्याल से गाउन वाली ही होनी चाहिए। या क्या पता, इन दोनों में से हो ही नहीं।<br /> आंटी पहले बंगला में शुरू करके, फिर हिन्दी में बताती हैं - बनानी कलकत्ता गयी हुई है। उसकी मां का ऑपरेशन हुआ था, उसके लिए गयी थी। इसी सण्डे रात को वापस आ रही है। आप मण्डे आयेंगे तो ज़रूर मुलाकात हो जायेगी, आप ज़रूर आना।<br /> ''तो मिस बनानी चक्रवती।' मैं आखिरी झटके से उबरने की कोशिश करता हूं - आप नहीं ही मिलीं। मन-ही-मन मुस्कराता हूं। अब इन लोगों को कैसे बताऊं कि मेरी गाड़ी के जाने का वक्त भी लगभग वही है, जो बनानी के आने का है।<br /> चलने के लिए उठता हूं, लेकिन आदेश सुना दिया गया है - डिनर के बिना नहीं जाने दिया जायेगा। बनानी नहीं है तो क्या हुआ, घर तो उसी का है।<br /> बैठ जाता हूं। अब सबसे परिचय कराया जाता है। छोटी वाली बरखा बी.ए. में, बड़ी वाली श्यामली एम.ए.में। दोनों बनानी दी की जबरदस्त फैन। श्यामली भी लिखती है। छपी भी हैं उसकी रचनाएं। ये लोग कई साल इलाहाबाद रहे हैं, इसलिए कई लेखकों से परिचय रहा है।<br /> शुरू-शुरू में अटपटा महसूस करता रहा, लेकिन जब पूरा चक्रवर्ती परिवार इतने सहज, आत्मीय और खुलेपन के साथ बात करने लगा तो मेरी भीतरी गांठें खुलने लगीं। मैंने देखा, उन लोगों की हर तीसरी बात में बनानी का ज़िक्र ज़रूर आता था। मैं बार-बार खुद को कोसने लगा - ऐसे वक्त क्यों आया! एक तो पूरे शहर की परिक्रमा करके उसके घर तक पहुंचा और यहां... उससे मिलना कितना सुखद होता।<br /> उस परिवार में दो-तीन घंटे बैठा रहा। अत्यन्त शालीन, सुसंस्कृत लोग। बेहद आत्मीय। जब चलने के लिए इजाज़त चाही तो आग्रह किया गया, एक बार फिर आऊं। उनके साथ एक और शाम बिताऊं। मैं हंसकर रह जाता हूं। फिर पूछा जाता है - बनानी के लिए कोई मैसेज देना चाहेंगे। एक इच्छा होती है-राघवेन्द्र के पत्र के साथ अपनी तरफ से दो लाइनें खिकर दे दूं, लेकिन टाल जाता हूं। दरवाजे से बाहर आते-आते अचानक पूछ बैठता हूं - क्या मैं बनानी का कमरा देख सकता हूं।<br />•सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-7963408847121275782008-05-30T12:19:00.000+05:302008-05-30T12:22:19.449+05:30पन्द्रहवीं कहानी - क्या आप ग्रेसी राफेल से मिलना चाहेंगे?चर्चगेट। मुंबई में पश्चिमी रेलवे में उपनगरीय ट्रेनों का अंतिम पड़ाव। आप जब वहां पहुंचेंगे तो स्टेशन के अहाते से बाहर निकलने के लिए तीन तरफ के लिए तीन चार रास्ते मिलेंगे। दायीं तरफ, बायीं तरफ और सामने, नाक की सीध में। सीधे चलने पर बायीं तरफ खुलने वाला रास्ता पश्चिमी रेलवे के मुख्यालय और फांउटेन की तरफ जाता है। वहीं एक तरफ कैमिस्ट की दुकान है, और स्टेशन के अहाते से बाहर आने के लिए तीन चार चौड़ी सीढ़ियां उतरनी पड़ती हैं। वहीं वे आपको नज़र आयेंगी। उम्र पचपन के आस पास। बिखरे हुए, खिचड़ी बाल। रंग गोरा और चेहरा साफ। कभी वे बहुत खूबसूरत रही होंगी लेकिन अब उनके चेहरे पर और पूरे शरीर पर लम्बी थकान की भुतैली छाया है। साड़ी पुरानी और अक्सर थिगलियां लगी हुई। पैरों में प्लास्टिक की चप्पलें। सामान के नाम पर उनके पास दो बड़े बड़े झोले हैं जिनमें पता नहीं क्या क्या अल्लम गल्लम भरा हुआ है। पास में एक मोटा सा सोंटा। कुत्ते भगाने के लिए। यही उनकी पूरी गृहस्थी है। पिछले बीस बरस से। और यही उनका ठीया भी है। इतने ही बरस से। सर्दी गरमी, बरसात, कोई भी मौसम हो, कोई भी समय रहा हो, दिन रात, आप उन्हें यहीं पर, हमेशा यहीं पर पायेंगे। अगर वे वहां नहीं भी होंती तो भी उनकी खाली जगह देख कर साफ महसूस होता है कि वे कहीं आस आस पास ही हैं और दो चार मिनट में ही लौट आयेंगी। अपने ठीये पर। वैसे भी उन्हें कहीं नहीं जाना होता। कहीं भी तो नहीं। कई बार हमारी गैर मौजूदगी ही हमारी मौजूदगी की चुगली खाने लगती है। हम किसी बंद दरवाजे की घंटी बजाते हैं तो घंटी की आवाज हमारे पास जस की तस लौट आती है और हम समझ जाते हैं कि घर में कोई भी नहीं है। और कई बार ऐसा भी होता है कि हम घंटी बजाते ही समझ जाते हैं कि अभी थ़ेडी ही देर में कोई जरूर ही दरवाजे तक आयेगा और हमारे लिए दरवाजा खोलेगा। कई बार ऐसा भी होता है कि हम किसी मरीज से तीसरी चौथी बार मिलने के लिए अस्पताल जाते हैं और उसका खाली, साफ सुथरा बिस्तर देख कर एक पल के लिए चौंक जाते हैं और तय नहीं कर पाते कि हमारा मरीज चंगा हो कर अस्पताल से रिलीव हो गया है या इस दुनिया से ही कूच कर गया है। हमारी असमंजस की हालत देख कर साथ वाले बिस्तर पर लेटा मरीज हमें संकट से उबारता है कि चिंता न करें, मरीज घर ही गया है। हमारी सांस में सांस आती है और हम वहां से लौट आते हैं।<br /> तो मैं बात कर रहा था मिसेज ग्रेसी राफेल की। मिसेज ग्रेसी राफेल लगभग बीस बरस पहले जब पागल खाने से छूट कर आयीं थीं तो उनके सामने पूरी दुनिया थी लेकिन ऐसी कोई भी जगह नहीं थी जिसे वे अपना घर कह कर साधिकार जा सकतीं। रही भी होंगी ऐसी जगहें कभी, तो वे भी उनकी अपनी नहीं रही थीं। उनके दिमाग से सब नाम, रिश्ते, घर, मकान, शहर धुल पुंछ चुके थे और जो बाकी बचे भी थे, वहां उन्हें जाना नहीं था। आखिर वहीं से तो वे पागल खानों में भेजी गयी थीं। पता नहीं, वे भी बचे था या नहीं। अब उनके सामने पूरी दुनिया थी और अपना कहने को कोई भी नहीं था।<br /> पागल खाने से बाहर आयी ठीक ठाक औरत कहां जाती और किसके पास जाती। सचमुच पागल होती तो सोचने की जरूरत ही नहीं थी, लेकिन वे पूरे होशो हवास में थीं और जानती थीं कि वे औरत हैं, अकेली हैं, अभी जवान हैं और बेसहारा है। शुरू शुरू में सुरक्षित और स्थायी ठीये की तलाश में इधर उधर भटकती रहीं। उस समय उनकी उम्र पैंतीस के आस पास थी। अलग अलग पागल खानों में सात आठ बरस गुजारने के बाद और तथाकथित रूप से पागल करार दिये जाने के बावजूद उनमें इतनी समझ बाकी थी कि वे कहीं भी रहें, दिन तो कैसे भी करके गुज़ारा जा सकता था लेकिन लावारिस, अकेली और जवान औरत के लिए घर से बाहर कहीं भी, खाली जगह में और सार्वजनिक जगह पर रात गुजारना कितना मुश्किल और संकटों से भरा और असुरक्षित हो सकता है, वे इस बारे में सतर्क और सचेत होने के बावजूद भटकती रही थीं। सब जगह एक ही डर था। वे कहीं भी सुरक्षित नहीं थीं। जुबान तो वे कब से खो चुकीं थीं। वे अकेले के बल बूते पर इस मोर्चे पर कुछ भी नहीं कर सकती थीं। वे कई दिन तक इधर उधर डरी सहमी बिल्ली की तरह भटकती रही थीं। अलग अलग ठिकानों पर गयी थीं। धर्मशालाओं में, स्टेशनों के प्लेटफार्मों पर लेकिन कहीं भी वे अपने आपको सुरक्षित नहीं पा सकी थीं। सब जगह देह नोचने और फाड़ खाने वाले ही तो थे। मौका मिलते ही अपने और उनके कपड़े उतारने लगते थे। ऐसे लोगों के लिए पागल, गरीब, बीमारी, बच्ची, बूढ़ी किसी में तब तक फर्क नहीं था जब तक वह मादा हो और नरपशु को तथाकथित यौन सुख देने की स्थिति में हो। पागल और भूखी मादा तो उनके लिए और भी बेहतर थी क्योंकि उसका विरोध का स्वर उसे दो रोटी दे कर बंद किया जा सकता था। जहां लोग बीमार, अपने तन की हालत से बेसुध नंगी घूम रही पागल औरतों तक को नहीं बख्शते थे और दो रोटी के लालच में उनके साथ पशुवत कुकर्म करके उन्हें गर्भवती तक बना डालते थे, मिसेज राफेल तो फिर भी जवान और खूबसूरत थीं। लोग उनके पीछे कुत्तों की तरह जीभ लपलपाते घूमते रहते। वे सुरक्षित नहीं थीं। कहीं भी नहीं। औरतों में बेशक एक प्राकृतिक जन्मजात गुण होता है कि किसी भी तरह के शारीरिक यौन हमले के संकेत उन्हें पहले से ही मिलने शुरू हो जाते हैं और वे सतर्क हो जाती हैं। पागल की सी हालत में होने के बावजूद सबसे बड़ी खिलाफ सबसे बड़ी बात यह थी कि वे औरत थीं, जवान थीं, अकेली थीं और हर समय घर से बाहर थीं, असहाय थीं, और इन सारी चीजों के चलते यह मान लिया जाता था कि वे पुलिसवालों के लिए, चोर उचक्कों के लिए, प्लेटफार्मों पर सोने वालों के लिए, कुलियों, उठाईगीरों के लिए, और निट्ठलों के लिए सर्वसुलभ थीं। वे रात रात भर सहमी सहमी गठरी बनीं जगती रहतीं और एक जगह से दूसरी जगह, शहर दर शहर भटकतीं फिरी थीं। <br />और आखिर उन्हें यही जगह सबसे मुफीद लगी थी। इसका कारण यह था कि चर्चगेट स्टेशन लगभग रात एक डेढ़ बजे तक जागता रहता था और दो ढाई घंटे की कच्ची पक्की नींद ले कर साढ़े तीन बजे तक सवेरे की सवारियां उठाने के लिए फिर जाग जाता और अपने काम धाम पर लग जाता था। वे अपने आपको यहां काफी हद तक महफूज समझ सकती थीं। बेशक शुरू शुरू में कई बरस तक वे यहां भी लगातार डरी हुई हालत में रात भर दुबकी बैठी रहती थीं। उस पर भी उन्हें चैन न लेने दिया जाता। वहीं खुले आसमान तले रहने को अभिशप्त बूट पालिश वाले, निठल्ले सारी रात उन्हें परेशान करते, उनका सामान बिखेर देते, लालच देते, धमकियां देते, मारते, उन पर पानी गिरा देते, उनका सारा का सारा सामान कई कई बार गायब कर देते, इधर उधर फैंक आते, रेलवे रिजर्व पुलिस वाले उन्हें बचाने के बजाये आये दिन उन्हें वहां से खद़ेड देते, या थाने ले जाने के बहाने उन्हें अंधेरे कोनों में ले जाने की फिराक में रहते ताकि बहती गंगा में खुद भी हाथ धो सकें। वे अपना सारा का सारा ताम झाम उठाये अपने आपको बचाने की हर चंद कोशिशें करतीं। उन्हें गालियां देतीं, शोर मचातीं और उनके आगे हाथ पैर जोड़तीं। सुनवायी कहीं नहीं थी। पुलिस वालों के जाते ही हौले हौले वहीं आ बैठतीं। शुरू शुरू में उन्हें सताने के आलम यह था कि उठाईगीरे उनका सामान उठा न लें जायें इस डर से उन्हें स्टेशन पर ही बने बाथरूम तक जाने के लिए दो चार मिनट के लिए ही सही, अपना सारा सामान अपने साथ ढो कर बाथरूम तक ले जाना पड़ता। बेशक वे खुद भी नहीं ही जानती होंगी कि इन बड़े बड़े थैलों में क्या भरा हुआ है और कब से भरा हुआ है। काम का है भी या नहीं, लेकिन अब ये सब उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुका है।<br /> बाद में बाथरूम की भंगिनों ने जब उन्हें पहचान लिया और उनके अस्तित्व को वहां स्वीकार भी कर लिया तभी जा कर उनकी समस्याएं कुछ हद तक कम हुई थीं। <br /> और इस बात में ही कई बरस बीत गये थे कि उन्हें चर्चगेट पर स्थायी रूप से रहने वाले लोगों के बीच नागरिकता दे दी गयी थी और लोग बाग उनकी मौजूदगी को सहज रूप से स्वीकार कर पाये थे। कई बार हमें पूरी उम्र लग जाती है अपने अस्तित्व को स्वीकार करवाने में। हम मौजूद होते हैं लेकिन देखने, जानने और महसूस करने के बावजूद हमारी मौजूदगी को हमेशा नज़रअंदाज़ किया जाता है। हम हैं या नहीं हैं लोग इस बात को अपनी सुविधा के अनुसार तय करते हैं। हमारी सारी कोशिशों के बावजूद। <br /> वैसे तो वे हर समय ही फुर्सत में होती हैं। कभी बैठी होती हैं तो कभी लेटी, और कई बार सचमुच सो भी रही होती हैं। लेकिन जब वे अच्छे मूड में होती हैं, खास कर शाम के वक्त तो आप उन्हें किसी भी सुघड़ गृहिणी की तरह, अपने खुद के धोये कपड़ों की तह लगाते, हौले हौले कुछ गुनगुनाते देख सकते हैं। उनके सारे काम, दिनचर्या के सारे के सारे काम स्टेशन पर, यहीं पर पूरे होते हैं। वे वहीं नहाती धोती, खाती पीती, सोती जागती और अपने नित्यकर्म निपटाती हैं। इसके अलावा तो उन्हें और कोई काम होता ही नहीं है। <br /> यह मुंबई की ही खासियत है कि यहां सारी चीजें एक बार तय हो जायें तो हमेशा वैसे ही चलती रहती है। बिना किसी व्यवधान के। बरसों बरस। भीख या दान या खैरात देने वाले और लेने वाले भी तय हैं। लोग बरसों बरस उन्हीं भिखारियों को या जरूरतमंदों को भीख देते चले आते हैं। लगभग उसी समय के आस पास आते हैं, सवेरे ऑफिस जाते समय या वापिस आते समय वे रुकते हैं, या गाड़ी रोकते हैं, और अपने तयशुदा भिखारी या जरूरतमंद को खाने के पैकेट, बिस्किट के पैकेट, वड़ा पाव या कुछ और चुप चाप दे कर आगे बढ़ जाते हैं। बिना कुछ भी बोले। ऐसा अरसे तक चलता ही रहता है। <br /> ग्रेसी राफेल का गुज़ारा भी इसी तरह से चलता है। उन्हें चाय पिलाने वाले तय हैं। खाना खिलाने वाले तय हैं और उन्हें कपड़े लत्ते देने वाले भी तय हैं। कुछ लोग उन्हें नकद पैसे भी दे जाते हैं। वे बरसों से वहां हैं। लाखों लोग स्टेशन से रोजाना दोनों वक्त गुजरते हैं, उन्हें वहां देखते हैं। बिना आंखें मिलाये या बात किये भी उनकी मौजूदगी को स्वीकार करते हैं तो यह अहसास पनपने लगता है कि हम चीजों को एक समय के बाद जस का तस स्वीकार कर लेते हैं। ऑफिस जाने वाली महिलाएं जाते समय पुरानी साड़ियों, पुराने कपड़ों, शालों, या अंडर गार्मेंट्स के पैकेट उन्हें चुपचाप थमा कर आगे बढ़ जाती हैं। कोई उनके जीवन में नहीं झांकता और न ही किसी किस्म का सवाल ही पूछा जाता है। बस, मौन की भाषा और इतना सा लेनदेन। यही सिलसिला शाम के वक्त भी चलता है। महिलाएं अक्सर उन्हें त्यौहार के दिनों में कोई पकवान या खाने की दूसरी चीजें भी दे जाती हैं। वे ये सारी चीजें चुपचाप अपने पास रख लेती हैं और देने वाले की तरफ देखती भी नहीं। किसी किस्म की कोई प्रतिक्रिया नहीं। कई बार देर रात तक उनके ठीये के पास पाव भाजी के स्टाल लगाने वाले भी उन्हें पाव भाजी या वड़ा पाव वगैरह दे देते हैं या कोई ग्राहक ही उनके लिए पाव भाजी खरीद देता है और वे खा लेती हैं। लेकिन वे न तो किसी से कुछ मांगती हैं और न ही किसी की दी हुई चीज को ठुकराती ही हैं।<br />और इसी तरह से चल रही है जिंदगी ग्रेसी राफेल की। अरसे से, निरुद्देश्य, अर्थहीन। खाली खाली दिन, खाली खाली रातें, किसी से कोई भी संवाद नहीं, सम्पर्क नहीं, लेन देन नहीं, कहीं आना जाना नहीं, कोई काम नहीं। शायद ही वे कभी किसी से बात करती हों, या कोई उनसे संवाद करता हो। वे किसी के सुख दुख में शामिल नहीं हैं और उनके दुख? वे तो किसी ने जाने ही नहीं। वे कहीं भी किसी की जिंदगी में नहीं हैं और न ही उनकी ज़िंदगी में ही कोई बचा है। वे बीस बरस से इसी तरह का जीवन जीती चली आ रही हैं। आगे भी इसी तरह का निचाट जीवन उन्हें जीते जाना है। बेकार सा, बेमतलब सा और बेरौनक सा। उनकी स्मृति में कुछ भी बाकी नहीं बचा है। न अच्छा न बुरा। जो था भी, उसे वे कब का भुला चुकी हैं। वे सिर्फ वर्तमान में जी रही हैं। वर्तमान भी कैसा? जिसे न ढोया जा सकता है न त्यागा। कितनी अजीब बात है कि दुनिया में करोड़ों लोग बेकार की, बेमतलब की और कई बार बेहद तकलीफ भरी ज़िंदगी जीते चले जाते हैं लेकिन जीना छोड़ता कोई भी नहीं। जो जैसा चल रहा है, चलने दो, जब तक चलता है चलने दो। भविष्य कैसा है ये तो वे पिछले बीस बरसे से देख ही रही हैं। जो है, उसमें बेहतरी की गुंजाइश ही कहां बची है। <br />उन्हें पता है कि किसी सुबह वे यहीं इसी ठीये पर मरी हुई पायी जायेंगी। बेशक उनके ठीक पास से लाखों लोग रोजाना गुज़रते हैं, काफी देर तक लोगों को पता ही नहीं चलेगा कि लेटी नहीं, वे यहां से हमेशा के लिए जा चुकी है। उन्हें पता है उन्हें लावारिस मौत मरना है। और लावारिस मरने वालों का न कोई नाम होता है न धर्म या जाति ही। बीस बरस से उन्होंने जो जगह घेर रखी है, वह जरूर खाली हो जायेगी। शुरू शुरू में आने जाने वालों को अजीब लगेगा लेकिन कुछ दिन बाद वह जगह खाली देखने की लोगों को आदत पड़ जायेगी।<br /> लेकिन वे हमेशा से ऐसी नहीं थीं। उनका भी घर बार था, उनकी ज़िंदगी में भी कई लोग थे और वे भी कई रिश्ते जी रही थीं। पत्नी, मां, बेटी, बहन सब के सब रिश्ते उन्होंने भी जीये हैं। और खूब जीये हैं। वे भी एक सम्मानजनक जीवन जी रही थीं और उनका भी अच्छा खासा घर-बार था, सामाजिक दायरा था और वे एक सुघड़ गृहणी के रूप में, एक सफल पत्नी के रूप में और एक आदर्श मां के रूप में पूरे सात आठ बरस तक रहीं थीं। उनका नाम था, अपना सर्किल था और पहचान थी। ये सब आगे भी बने रहते अगऱ . . . । अगर . . . बहुत सारे अगर मगर हैं। कहां तक गिनायें। एक कारण से दूसरा जुड़ता चला गया और वे अकेली, असहाय और निरुपाय होती चली गयीं। काश, उनके पिता की असमय मौत न हुई होती, काश, उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में न छोड़नी पड़ती। काश, उन्हें हैदराबाद न जाना पड़ता, न उन्होंने टाइपिंग सीखी होती और न उन्हें मिस्टर राफेल के ऑफिस में नौकरी करनी पड़ती और न ही मिस्टर राफेल पसंद करके ब्याह करके घर ले आते और न ही वे मिस्टर राफेल के शक की शिकार न हो गयी होतीं। इस शक ने एक हंसता खेलता परिवार हमेशा हमेशा के लिए खत्म कर दिया था और वे अपना घर बार होते हुए भी न केवल बेघर बार हो गयीं थीं बल्कि एक ऐसा अभिशप्त जीवन जीने के लिए मजबूर हो गयीं थीं जिसके बारे में वे कभी सोच भी नहीं सकतीं थीं कि चेरियन परिवार की यह होनहार लड़की एक दिन चर्चगेट स्टेशन पर इस हालत में बीस बरस के लम्बे अरसे तक रहने को मजबूर होगी और उससे पहले उसे सात आठ बरस बिना पागल हुए भी पागल बन कर दूसरी पगली औरतों के बीच अलग अलग पागल खानों में गुजारने पड़ेंगे। कब सोचा था उन्होंने कि उनके लिए पूरी दुनिया ही अपरिचित हो जायेगी और उनका किसी से भी, यहां तक कि अपने बच्चों से भी हमेशा हमेशा के लिए नाता टूट जायेगा। वे एक ऐसी गुमनाम और बेरहम जिंदगी जीने को अभिशप्त हो जायेंगी जिसमें कभी किसी से भी एक भी संवाद की गुंजाइश ही न बचे। पता नहीं, उन्हेंने आखिरी बार किससे, कब और क्या बात की होगी। <br /> आज की ग्रेसी राफेल तब ग्रेसी चेरियन हुआ करती थीं। वे कई बार अपने स्कूल की बेस्ट स्टूडेंट का खिताब पा चुकी थीं और स्कूल के स्पोर्ट्स डे पर सबसे ज्यादा ईनाम बटोर कर लाना उनके लिए बायें हाथ का खेल था। वे स्कूल की शान थीं और तय था, अपने घर में, रिश्तेदारी में और अपने समाज में उन्हें हमेशा एक ऐसी लड़की के रूप में देखा और सराहा जाता था जो चेरियन परिवार का नाम खूब रौशन करेगी। वे कर ही रही थीं और आगे भी तरक्की की और सीढ़ियां चढ़तीं। बचपन में वे खूब हंसती थीं। खुद भी हंसती और सारे घर में हंसी बिखेरती रहतीं। उनकी हंसने की आदत का यह आलम था कि बात बेबात पर जब देखो खिड़खिड़ कर रही हैं। घर वाले उनकी हंसी से परेशान हो कर कोसते कि जब ससुराल जायेगी तो सारी हंसी धरी की धरी रह जायेगी। वे जवाब देतीं कि तब की तब देखी जायेगी। कई बार मज़ाक में कही गयी बातें भी किस तरह से भविष्यवाणियां बन जाया करती है। उनकी हंसी पर भी नज़र लग गयी और वह हमेशा के लिए थम गयी।<br /> अभी वे ग्यारहवीं में ही पढ़ रही थीं कि उनके पिता को व्यापार में घाटा होने लगा। घर का आर्थिक ग्राफ एकदम नीचे आ गया और घर में खाने के भी लाले पड़ने लगे। एक दिन अचानक उनके पिता नींद में ही चल बसे और किसी को कुछ करने या सोचने का मौका ही न मिला। ग्रेसी भाई बहनों में सबसे बड़ी थी इसलिए उसी को अपनी पढ़ाई अधबीच में ही छोड़ देनी पड़ी। एक बसा-बसाया घर देखते ही देखते भुखमरी के कगार पर आ गया। <br /> घर में कोई भी कमाने वाला नहीं बचा था। नारियल और रबड़ की थोड़ी बहुत खेती थी लेकिन उससे न तो कर्ज पट सकते थे और न ही घर का खर्च ही चल सकता था। जैसे-तैसे घर की गाड़ी खींची जा रही थीं। कुछ दिन वे हैदराबाद में अपनी चचेरी बहन के पास भी रही थीं। उनकी चचेरी बहन और जीजा दोनों ही एक सरकारी संस्थान में काम करते थे और उनकी बहन की डिलीवरी होने वाली थी। डिलीवरी से पहले बहन की सेवा करने और बाद में नवजात बच्चे की देखभाल करने के लिए किसी की जरूरत थी। ग्रेसी की पढ़ाई वैसे भी छूट चुकी थी और यही उचित समझा गया कि उन्हें वहां भेज दिया जाये। उनका दिल भी लगा रहेगा और वे कुछ न कुछ सीख कर ही लौटेंगी। निश्चित ही इसके पीछे आर्थिक समीकरण भी काम कर ही रहे थे। और इस तरह ग्रेसी को हैदराबाद भेज दिया गया था। उस समय उनकी उम्र मात्र सत्रह बरस थी और हैदराबाद जाने के साथ ही उनका घर हमेशा के लिए छूट गया था। <br /> हैदराबाद में दीदी के घर रहते हुए ही उन्होंने टाइपिंग सीखी थी और जीजा जी ने उन्हें अपने एक परिचित मिस्टर राफेल के ऑफिस में टाइपिस्ट की नौकरी दिलवा दी थी। ग्रेसी ने अपनी मेहनत के बल पर ऑफिस में एक खास जगह बना ली थी और वे खासी लोकप्रिय हो गयी थीं। और यही मेहनत और लोकप्रियता उनके लिए जी का जंजाल बन गयी थी। आर्थिक मोर्चे पर आत्म निर्भर हो जाने के बाद उनका आत्म विश्वास भी बढ़ा था और वे घर पर भी पैसे भेजने लगीं थीं ताकि भाई बहनों की पढ़ाई का कोई सिलसिला बन सके। <br />कम्पनी के मैनेजर मिस्टर के टी राफेल अक्सर उन्हें अपने केबिन में बुलवाने लगे थे और ऑफिस के बाद भी उन्हें देर तक किसी न किसी काम में उलझाये रहते। इधर उधर की बातें करते और किसी न किसी बहाने ग्रेसी के पहनावे की, काम की और खूबसूरती की तारीफें किया करते। वे इन तारीफों का मतलब खूब समझती थीं और उनकी आंखों में लपलपाती काम वासना को साफ साफ पढ़ सकती थीं। वे शर्म से लाल हो जातीं लेकिन जानते बूझते हुए भी कुछ न कह पातीं। एक तो वे अपने खुद के घर पर नहीं थीं और दूसरे कम्पनी के मैनेजर उनके जीजा के दोस्त थे। वे किसी को भी नाराज़ करने की स्थिति में नहीं थीं और कुल मिला कर उनकी उम्र अभी उन्नीस बरस भी नहीं हुई थी, जबकि राफेल कम से कम पैंतीस बरस के थे। वे उनके और उनकी पारिवारिक स्थिति के बारे में कुछ भी नहीं जानती थीं। वे अपना काम खत्म करके जितनी जल्दी हो सके, केबिन से बाहर आने की कोशिश करतीं।<br />तभी एक दिन मिस्टर राफेल ने खुद उनके घर आ कर ग्रेसी के जीजा जी से ग्रेसी का हाथ मांग लिया था। भला जीजा को क्या एतराज हो सकता था। उन्होंने अपनी ड्यूटी पूरी कर दी थी। ग्रेसी को काम धंधे से लगा ही दिया था। ग्रेसी की मम्मी से औपचारिक सहमति ले ली गयी थी और इस तरह ग्रेसी चेरियन स्टार एंटरप्राइजेज की मामूली टाइपिस्ट से रातों रात मैनेजर की ब्याहता बन गयी थीं। <br />वे समझ नहीं पायी थीं कि उन्हें इस तरक्की पर खुश होना चाहिये या अफसोस मनाना चाहिये। उनके बस में है ही क्या कि चीजों का विरोध कर सकें। उनका बस चलता तो वे खूब पढ़ना चाहतीं, राष्ट्रीय स्तर की एथलीट बनना चाहतीं और एक शानदार ज़िंदगी जीना चाहतीं। अब उनके हिस्से में अपनी पसंद का कुछ भी नहीं रहा था। हंसना तो वे कम से भूल चुकी थीं अब तक बोलना भी छूटने लगा था। घर छूट चुका था और वे अब वही कुछ स्वीकार करने को मजबूर थीं जो दूसरे उनके लिए तय करें। <br />उन्होंने इस शादी के लिए एक ही शर्त रखी कि उन्हें कुछ दिन तक अपनी पगार का कुछ हिस्सा घर पर भेजने की अनुमति दी जाये ताकि भाई बहन तो अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें। बाकी जो जैसा हो रहा है होने दो। लेकिन इस वायदे का भी कुछ मतलब नहीं रहा था क्योंकि जल्दी ही उनकी नौकरी छुड़वा दी गयी थी। लड़ने का सबसे बड़ा हथियार आर्थिक आधार होता है और इसी मामले में उन्हें कमजोर कर दिया गया था। <br />शादी के बाद ही उन्हें पता चला था कि उनके पति हद दरजे के शराबी आदमी हैं और चरित्र के भी कमजोर हैं। उनकी जिंदगी में अक्सर लड़कियां आती जाती रहती हैं। ग्रेसी ने तब यही सोचा था कि शादी से पहले वे जैसे भी भी रहें हों, अब तो घर बार बस जाने के बाद उनकी जीवन शैली बदलेगा ही और उनका भटकाव कम होगा। लेकिन ये उनका भ्रम था। शादी के बाद भी उनकी जीवन शैली में कोई भी फर्क नहीं आया था। वे खूब पीते थे और कोई शाम ऐसी नहीं गुजरती थी जब वे धुत्त होने के स्तर तक न पी लेते हों। शुरू शुरू के कुछ दिन तक तो वे बिलकुल ठीक रहे और वक्त पर घर आते रहे लेकिन जल्दी ही वे अपने रंग में आ गये थे। वे बाहर से भी पी कर आते थे और घर पर फिर से बोतल खोल कर बैठ जाते। अकेले ही। बेशक ग्रेसी की अब तक खूब तारीफ करते रहे थे और उन्हें खुद पसंद करके लाये थे फिर भी कुछ ऐसा था कि जिसे भीतरी खुशी नहीं कहा जा सकता था। कोई उमंग नहीं, खुशी नहीं और नयापन नहीं। जैसे वे ग्रेसी को घर लाने के बाद उन्हें भूल ही गये थे। घर में लाये किसी भी सामान की तरह। नौकरी तो उनकी तुंत ही छुड़वा दी गयी थी। ग्रेसी उनकी शराब की आदत को ले कर या देर रात घर आने को ले कर कुछ कहना चाहतीं तो वे झिड़क देते कि मुझे किसी की भी कोई भी बात सुनने की आदत नहीं है। मैं अपना काम कर रहा हूं और तुम अपना काम करो। घर संभालो।<br />ग्रेसी सारा दिन खाली बैठी बैठी बोर होतीं। दीदी जीजा भी ऑफिस गये होते इसलिए उनके घर जाने का भी मतलब न होता। उन्होंने अपने आपको पूरी तरह घर के लिए समर्पित कर दिया था लेकिन घर की जरुरतें इतनी कम थीं कि उनके पास सारा दिन बोर होने के अलावा कुछ भी न होता। उन्होंने एक बार दबी जबान में राफेल से कहा था कि वे आगे पढ़ना चाहती हैं और हो सके तो काम भी करना चाहती हैं लेकिन राफेल को दोनों ही बातें मंजूर नहीं थीं। एक बार फिर झिड़क कर मना कर दिया। वे कट कर रह गयीं। ऐसी भी शादी क्या कि पति से कोई संवाद ही नहीं। वे कब जाते हैं, कब आते हैं और कितना घर पर रहते हैं और जब घर पर रहते हैं तो बीवी से कितनी देर बात करते हैं इस बारे में ग्रेसी को न कुछ कहने का हक था न सवाल करने का। कई बार वे सोचतीं कि इससे तो अच्छा वे कुंवारी ही थीं। कम के कम जीवन अपने तरीके से जीने का हक तो था। यहां तो वे उनकी कीमत राफेल के घर में एक सामान से ज्यादा नहीं थी। बस, राफेल की जरूरतें पूरी करते रहो और घर में सारा दिन बंद हो कर घुटते हो। बेकार दिन गुजारने के बाद बेकार रातों का इंतजार करो। <br />इस बीच उनके दो बच्चे हुए थे। दोनों लड़के। सिर्फ दो बरस के अंतराल पर। तेइस बरस की उम्र में वे दो छोटे छोटे बच्चों की मां बन चुकी थी। इससे उनके जीवन में बदलाव भी आया था और ठहराव भी। समय भी बेहतर गुजरने लगा था। सारा दिन बच्चों की देखभाल में कब गुजर जाता, पता ही न चलता। <br />तभी राफेल का दिल्ली ट्रंसफर हो गया था। ग्रेसी को लगा था कि शायद यहां आ कर उनके जीवन में बदलाव आयेगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था, बल्कि वे पहले की तुलना में और अकेली हो गयी थीं। हैदराबाद में कम से कम आसपास मलयालम या अंग्रेजी बोलने समझने वाले कुछ तो लोग थे, कुछ रिश्तेदार और दीदी जीजा वगैरह तो थे ही, यहां वे बिल्कुल अकेली पड़ गयी थीं। कोई बात करने वाला ही नहीं था। दिल्ली आने के बाद राफेल की दिनचर्या और व्यस्त हो गयी थी और उनका समय और ज्यादा बाहर गुजरने लगा था। वे सारा दिन अपने आपको बच्चों में उलझाये रहतीं। बहुत हुआ तो कभी बाल्कनी में आ कर खड़ी हो जातीं और नीचे सड़क पर चल रहे ट्रैफिक को देखती रहतीं। <br />तभी उन्होंने पाया था कि जब भी वे बाल्कनी में खड़ी होती हैं, उनके ठीक सामने वाले घर में खिड़की में परदे के पीछे से एक चेहरा छुप कर उन्हें देखता रहता है। स्मार्ट सा, गोरा चिट्टा आदमी। उम्र चालीस के आस पास। वे लज्जावश अंदर आ जातीं और जब वे दोबारा किसी काम से या यूं ही वहां खड़े होने के मकसद से बाल्कनी में जातीं तो पातीं कि वह तब भी उन्हीं की तरफ देख रहा होता। वे समझ न पातीं कि वह लगातार उन्हीं के घर की तरफ क्यों देखता रहता है। एक बार निगाह में आ जाने के बाद तो जब वे देखती, उस शख्स को अपनी तरफ ही देखता पातीं। वे हैरान होतीं इस आदमी को और कोई काम भी है या नहीं, जब देखो, खिड़की पर ही टंगा रहता है। पहले तो वह उन्हें देखता ही रहता, अब कुछ दिन से उन्हें देख कर मुस्कुराने भी लगा था। <br />डर के मारे उन्होंने बाल्कनी में जाना ही कम कर दिया था लेकिन वे अपने कमरे के भीतर से छुप कर भी देखतीं तो उस आदमी को अपने घर की तरफ ही देखता पातीं। वे बहुत डर गयी थीं। कहीं राफेल ने उसे देख लिया तो उन्हें कच्चा चबा ही जायेगा, सामने वाले को भी जिंदा नहीं छोड़ेगा। वैसे उन्हें यह देख कर मन ही मन अच्छा भी अच्छा भी लगता कि कोई तो है भले ही अनजान, अपरिचित ही सही, उनकी तरफ तारीफ भरी निगाह से देखता तो है। राफेल ने तो शादी के छ: बरसों में कभी भूले से भी उनकी तारीफ नहीं की थी। सोचा था ग्रेसी ने, कुछ मांगता थोड़े ही है, बस, इस तरफ देखता ही रहता है। देखने दो। उस खिड़की में उनके अलावा और कोई चेहरा कभी भी नजर नहीं आता था।<br />लेकिन यहीं उनसे चूक हो गयी थी। हालांकि अब वे उस चेहरे की तरफ से उदासीन हो गयी थीं और पहले की तरह बाल्कनी में जाने लगी थीं, लेकिन यह इतना आसान नहीं था। उस तरफ न देखते हुए भी वे जानती थीं कि खुली खिड़की में से या परदे के पीछे से एक जोड़ी आंखें उन्हीं की तरफ लगी हुई हैं। <br /> एकाध दिन ऐसे ही चला था। वे बाल्कनी में जातीं, उस तरफ देखती भी नहीं और लगातार महसूस करती रहतीं कि उन आंखों की आंच बिन देखे भी उन तक पहुंच रही है। तभी अचानक उस तरफ निगाह घुमाने पर उन्होंने पाया था कि खिड़की तो बंद है। <br /> पहले तो उन्होंने इसकी तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन जब दिन में कई बार देखने पर भी जब उन्होंने खिड़की को बंद ही पाया तो वे परेशान हो उठीं। कहां चला गया वो शख्स। बेशक कुछ कहता नहीं था लेकिन उसकी मौजूदगी ही एक सुखद सा अहसास देने लगी थी। बेशक वे उसे जानती नहीं थी, कौन है, क्या करता है, उसके घर में और कौन कौन है, उन्हें कुछ भी नहीं मालूम था फिर भी एक नामालूम सा खालीपन उन्हें महसूस होने लगा था। <br /> खिड़की पूरे सात दिन तब बंद रही थी। इस बीच ग्रेसी ने सैकड़ों बार बाल्कनी में आ कर उस तरफ देखा होगा लेकिन हर बार खिड़की के पल्ले बंद पा कर उनके दिल में एक हूक सी उठती। पता नहीं कहां गया वो आदमी। कहीं बीमार वीमार तो नहीं हो गया। <br /> आठवें दिन ग्यारह बजे के आसपास का समय होगा। वे घर के कामकाज निपटा कर गीले कपड़े धूप में डालने के लिए बाल्कनी में आयी ही थीं कि उन्होंने बिल्डिंग के नीचे एक टैक्सी को रुकते देखा। तभी उन्होंने देखा कि टैक्सी वाला एक आदमी को सहारा दे कर टैक्सी से बाहर निकाल रहा है और हौले हौले सहारा देता हुआ इमारत के अंदर ला रहा है। उस आदमी ने ऊपर उनके घर की तरफ देखा। वे देख <br />कर हैरान रह गयीं। वही आदमी था। बीमार, थका हुआ और एकदम कमजोर। चलने में भी उसे तकलीफ हो रही थी। लेकिन उनसे अंाखें मिलते ही उसके चेहरे पर फीकी सी हंसी आयी थी। <br /> वे लपक कर भीतर आ गयी थीं। इसका मतलब उनका शक सही निकला। वह आदमी जरूर बीमार रहा होगा तभी तो टैक्सी वाला उसे सहारा दे कर भीतर ला रहा था। <br /> काफी देर तक बाल्कनी में जाने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। उन्हें धुकधुकी लगी हुई थी मानो उन्हें ही कुछ हो गया हो। टैक्सी जा चुकी थी। <br /> काफी देर के बाद जब वे बाल्कनी में गयी थीं तो खिड़की हमेशा की तरह खुली हुई थी और वह वहां खड़ा था। बेहद कमजोर, दाढ़ी बढ़ी हुई और चेहरे पर थकान। वह उन्हें देखते ही मुस्कुराया। वे एक दम चौंक गयीं। वह उन्हें इशारा करके बुला रहा था। उनकी सांस फूल गयी और वे अचानक तय नहीं कर पायीं कि वे कैसे रिएक्ट करें। यह आदमी तो शराफत की सारी सीमाएंं लांघ रहा है। दिन दहाड़े उन्हें अपने घर में बुला रहा है। बीमार है तो क्या हुआ, आदमी को शर्म लिहाज तो होनी चाहिये, न जान न पहचान, अपने घर में इस तरह से इशारे करके बुलाने का क्या मतलब। <br /> वे बाल्कनी से वापिस लौट आयीं और कमरे में आ कर लेट गयीं। लेकिन भीतर आने के बाद भी उन्हें चैन नहीं था। लगता, बेचारा बीमार है, अस्पताल वगैरह से आया होगा, घर में खाने को कुछ नहीं होगा या दवा वगैरह की ही जरूरत हो सकती है। जा कर देखने में कोई हर्ज नहीं है। वे काफी देर तक इसी उथल पुथल में अंदर बाहर होती रहीं कि क्या करें। लेकिन हिम्मत न जुटा पायीं। वे फिर बाहर बाल्कनी में आयीं तो देखा, खिड़की बंद हो चुकी थी और फिर वह शाम तीन चार बजे तक न खुली। अब ग्रेसी की बेचैनी बहुत ब़ढ़ गयी कि वे करें तो क्या करें। वहां जाने की हिम्मत तो नहीं ही थी उनकी लेकिन चैन भी नहीं आ रहा था कि शायद बेचारे को दवा की ही जरूरत होगी इसीलिए बुलवा रहा होगा। अकेला ही रहता है। पता नहीं घर में पीने का पानी भी हो या नहीं। <br /> जब दोपहर के वक्त काम वाला बाई आयी तो तभी उन्हें सूझा कि इसे भेज कर सही बात का पता लगाया जा सकता है। लेकिन इसे विश्वास में कैसे लिया जाये। कैसे बताया जाये कि सामने की बाल्कनी वाला आदमी आज बीमारी की हालत में अस्पताल से वापिस आया है और उसे मदद की जरूरत है। काफी उधेड़बुन के बाद जब उनसे रहा नहीं गया तो आखिर उन्हें बाई को विश्वास में लेना ही पड़ा। एक मनगढ़ंत किस्सा बताया कि जब टैक्सी वाला उन्हें ऊपर छोड़ कर वापिस आ रहा था तो वे उस वक्त बाजार से लौट रही थीं। टैक्सी वाला किसी को बता रहा था कि साहब बहुत बीमार हैं और उनकी देखभाल करने वाला कोई भी नहीं है। तू जा कर देख कर आ ना बेचारे को, शायद दवा वगैरह की जरूरत हो। बाकी बात बाई ने खुद ही संभाल ली - हमें मालूम है मेमसाब, वो बहुत ही शरीफ आदमी है। कई दिन से बहुत बीमार है बेचारा। अकेला रहता है। कोई नहीं है दुनिया में उसका। खाना भी होटल में खाता है। मैं जा के देखती हूं। <br />जब तक बाई वहां से वापिस नहीं आ गयी, ग्रेसी का मन तरह तरह की आशंकाओं से घिरा रहा। वे लगातार अंदर बाहर होती रहीं। बाई जब वापिस आयी तो उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। हाथ में कुछ कागज और पैसे थे। बताने लगी - 'साब की हालत तो बहुत खराब है। डाक्टर ने पता नहीं क्यों अस्पताल से घर भेज दिया। न कोई देखने वाला, न दवा देने वाला। घर में खाने को भी कुछ नहीं। ये पैसे दिये हैं दवा और कुछ संतरे वगैरह लाने को। मेम साब क्या करूं मैं। मुझे तो पता नहीं, कौन सी दवा लानी है और कितनी लानी है। इत्ते सारे कागज दे दिये मुझे।<br /> - दरवाजा खुला था क्या।<br />- नहीं, बड़ी मुश्किल से दरवाजे तक चल के आये।<br />- फिर<br />- मैंने फिर सहारा दे कर बिस्तर पर लिटाया, पानी पिलाया और तब वो बोले कि किसने भेजा है।<br />- तो क्या बोली तू <br />- क्या बोलती मैं, मैं यही बोली कि टैक्सी वाले ने बताया था कि आपको दवा ला के देनी है।<br />- ठीक किया तूने। चल एक काम करती हूं। मैं तेरे साथ चल कर ये दवाएं दिलवा देती हूं। तू जा कर दे देना और पूछ भी लेना अगर उन्हें और कोई काम हो या किसी काम वाली बाई की जरूरत हो तो।<br />- मैं पूछूंगी।<br /> <br />तब ग्रेसी बाई के साथ कैमिस्ट के पास गयी थी। जब सारी दवाएं मिल गयीं तो पैसे देते समय ग्रेसी ने कैमिस्ट से यूं ही पूछ लिया था कि ये सब किस बीमारी की दवाएं हैं।<br />- कैंसर की। क्यों, आप दवा लेने आयी हैं और आप ही को पता नहीं।<br /> ग्रेसी का कलेजा एकदम मुंह को आ गया था। वे बड़ी मुश्किल से अपनी भावनाओं को बाई और कैमिस्ट से छुपा पायी थीं।<br /> उस दिन बेशक बाई ही जा कर दवाएं दे आयी थी और कमरा वगैरह भी साफ कर आयी थी, उसका बिस्तर ठीक से लगा आयी थी लेकिन घर आते आते ग्रेसी की बुरी हालत हो गयी थी। अब उन्हें समझ में आ रहा था कि वे अब तक एक बीमार, मरते हुए आदमी की हंसी ही देखती आ रही थीं। चुक रहे आदमी की हंसी, जिसका मन की खुशी से कोई नाता नहीं होता। <br /> ग्रेसी की बाई ने ही वहां का काम हाथ में ले लिया था। सफाई, खाना बनाना और जूस वगैरह बना देना, पीने के लिए पानी उबाल देना, दवा दे देना, और जरूरत पड़ने पर दूसरे काम कर देना। उस आदमी ने अपने घर की एक चाबी बाई को ही दे दी थी ताकि उसे बार बार उठने की जहमत न उठानी पड़े। बाई चूंकि ग्रेसी के घर काम करने के बाद वहां जाती इसलिए चाबी उसने ग्रेसी के पास ही रखवा दी थी। बताती थी बाई ग्रेसी को उसके बारे में - साब बहोत शरीफ है। सारा दिन लेटा रहता है। किताबें पढ़ता रहता है। मुझे इतने पैसे दे देता है कि कहीं और काम करने की जरूरत ही न पड़े। कहता है, आज तक उसकी किसी ने इतनी सेवा नहीं की है जितनी मैं करती हूं। <br /> अब खिड़की खुलती तो थी, लेकिन वह चेहरा नजर नहीं आता था। अब ग्रेसी के घर की तरफ कोई नहीं देखता था लेकिन ग्रेसी जानती थीं कि वह शख्स सारा दिन लेटे लेटे जरूर उनका इंतजार करता होगा। लेकिन वे सब कुछ जानते हुए भी वहां जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं। एकाध बार उनके मन में आया कि मिस्टर राफेल को बाई के हवाले से उस आदमी की बीमारी के बारे में बतायें और उन्हें वहां जा कर उसे देख आने के लिए कहें लेकिन वे राफेल को जानती थीं। किसी भी बात का गलत अर्थ लगाने में उन्हें जरा भी देर न लगती और मुसीबत उन्हीं की होती। बेशक बाई से उसकी सेहत के बारे में, दिनचर्या के बारे में जानने को बेचैन रहतीं। बाई भी बिला नागा उसकी सेहत का बुलेटिन प्रसारित कर जाती।<br />उस दिन बाई काफी देर तक नहीं आयी थी। रोजाना आठ बजे आ कर पहले उसके नाश्ते पानी का इंतजाम करती और बाद में ग्रेसी के घर का काम करती। ग्रेसी ने अपने घर का काम तो निपटा लिया था लेकिन उन्हें लगातार इस बात की चिंता लगी हुई थी कि उसने अब तक नाश्ता भी नहीं किया होगा, पता नहीं, खाली पेट दवा कैसे लेगा। ग्रेसी का मन बहुत बेचैन था लेकिन कुछ भी सूझ नहीं रहा था कि वे क्या करें। बच्चे स्कूल जा चुके थे नहीं तो उनके हाथ ही कुछ खाने के लिए भिजवा देतीं। बच्चे दो बजे लौटते थे और अभी सिर्फ ग्यारह ही बजे थे। बेचारा सुबह से भूखा होगा। पता नहीं बाई को भी आज क्या हो गया। <br />जब ग्रेसी से और नहीं रहा गया तो उन्होंने एक गिलास गाजर का जूस तैयार किया, हलका सा नाश्ता बनाया, हिम्मत करके चाबी उठायी और चल दीं - जो भी होगा देखा जायेगा। आखिर किसी के जीवन मरण का प्रश्न है। सिर्फ खाने की बात नहीं है, दवा की भी बात है। वे मन कड़ा करके उसके दरवाजे पर पहुंचीं, दरवाजे में चाबी घुमायी और हलके से दरवाजा धकेला। <br />वह सामने ही लेटा हुआ था। आंखें बंद। दाढ़ी कई दिन से बढ़ी हुई और चेहरा एकदम निस्तेज। बहुत कमजोर हो गया था वह। दरवाजा खुलने की आवाज से उसकी नींद खुली और उसने मुड़ कर देखा - उन्हें देख कर चेहरे पर फीकी चमक आयी। कुछ कहना चाहा उसने लेकिन खुश्क होंठों से कोई शब्द बाहर नहीं आये। और वह सूनी आंखों से अपने मेहमान को देखता रह गया। उसने जीभ अपने पपड़ाये होंठों पर फिरायी। ग्रेसी समझ गयी कि उसे प्यास लगी है। <br />ग्रेसी ने सामान एक तिपाई पर रखा और एक गिलास पानी भर कर उसके पास लायीं। उसने उठने की कोशिश की, लेकिन उठ नहीं पाया। ग्रेसी थोड़ी देकर संकोच में खड़ी रहीं फिर सहारा दे कर उसे बिठाया, पानी पिलाया और तौलिये से उसका मुंह पोंछा। <br />पानी पीकर उसे थोड़ी राहत मिली। दोनों की आंखें मिलीं। उसकी आंखों में बहुत डरावना सन्नाटा था जिसे देख कर ग्रेसी एक बारगी तो डर ही गयी थीं। वे एक मरते हुए आदमी की आंखें थीं जिनमें बेपनाह मुहब्बत की भीख थी। <br /> उसे नाश्ता पानी कराके, दवा दे कर और पानी का गिलास सिरहाने रख कर जब ग्रेसी लौटने लगीं तो उस आदमी की निगाहों में जो चमक ग्रेसी ने देखी तो उन्हें लगा उन्हें बहुत पहले उसके पास आना चाहिये था और कुछ दिन उसकी सेवा करनी चाहिये थी। <br /> जब वे लौटीं तो उन्हें बहुत संतोष था। अपनी जिदंगी में उन्होंने पहली बार कई चीजें एक साथ देखी थीं। तिल तिल मरता हुआ आदमी, उन मरती हुई आंखों में भी बेपनाह मुहब्बत थी और शायद पहली बार हो रहा था कि किसी अनजान आदमी की पहली ही मुलाकात में उन्होंने इतनी सेवा की थी और संतोष का अनुभव किया था। बेशक दोनों में एक भी संवाद का आदान प्रदान नहीं हुआ था और दोनों ही एक दूसरे का नाम भी नहीं जानते थे। वे खुद उसके लिए दवाएं लायी थीं लेकिन पर्ची पर उसका नाम देखने की जरूरत महसूस नहीं हुई थी उन्हें।<br />उसके बाद भी वे कई बार उसके कमरे पर गयी थीं। उसे चुपचाप खाना खिलाया था, दवा दी थी और . . . और धीरे धीरे उसे ठीक होते देखा था। संवाद अभी भी दोनों ओर से एक बार भी नहीं हुआ था। <br /> तभी एक दिन हंगामा हो गया था। मिस्टर राफेल ने उन्हें उसकी दहलीज से बाहर निकलते देख लिया था। उनके हाथ में खाने के बरतन थे। वे उसे खाना खिला कर आ रही थीं। घर पहुंचते ही कड़े स्वर में पूछा था राफेल ने - कब से चल रहा है ये चक्कर<br />- कौन सा चक्कर, मिसेज राफेल ने पलट कर पूछा था। <br />- ये ही रंगरेलियां मनाने का चक्कर और कौन सा चक्कर, साली बदजात, एक तो दिन दहाड़े अपने यार से मिलने उसके घर पर जाती है और पूछती है कौन सा चक्कर<br />- आप ये क्या कह रहे हैं। ग्रेसी ने दबी जबान में विरोध किया था - उसे कैंसर है और उसे दवा देने वाला भी कोई नहीं हैं। बेचारा . . राफेल ने उन्हें बात भी पूरी नहीं करने दी थी और बिना सोचे समझे उन पर लात घूंसों की बरसात शुरू कर दी थी। ग्रेसी को मालूम था, एक न एक दिन ये नौबत आनी ही थी, इसलिए वे बिना उफ भी किये पिटती रहीं। उन्हें पिटते हुए भी इस बात का संतोष था कि वे किसी के काम आ सकीं थीं। वे गालियां बके जा रहे थे और उन पर ऐसे ऐसे आरोप लगा रहे थे जिनके बारे में वे कभी सोच भी नहीं सकती थीं। उन्हें पता था, विरोध का एक भी शब्द राफेल के गुस्से को और बढ़ायेगा और उनकी और ज्यादा पिटायी होगी। <br /> लेकिन ग्रेसी ने भी जिद ठान ली थी कि जब तक वह आदमी पूरी तरह से चंगा नहीं हो जाता, वे उसकी जितनी भी हो सके, देख भाल करती रहेंगी। राफेल से पिटने के बावजूद। राफेल से इसी बात पर कई बार उन्हें पीटा था। बच्चों के सामने और एक बार तो रात के वक्त घर से बाहर भी निकाल दिया था। वे अब उनकी पूरी तरह से जासूसी करने लगे थे और पता नहीं कहां कहां के पुराने बखेड़े ले कर बैठ गये थे। मिस्टर राफेल ने एक बार भी इस बात की जरूरत नहीं समझी कि जिस आदमी के शक में वे इतने दिनों से अपनी बीवी को पीटे जा रहे हैं और उसका जीना मुहाल किये हुए हैं, कम से कम एक बार जा कर देख तो लें कि उसकी ऐसी हालत है भी या नहीं जिसके साथ रंगरेलियां मनायी जा सकें। लेकिन राफेल अपना गुस्सा ग्रेसी पर ही उतारते रहे। पता नहीं कितने दिनों का और किस किस बात की गुस्सा था कि खत्म होने में ही नहीं आता था। वे इन दिनों जैसे पागलपन के दौर में थे और बात बेबात ग्रेसी पर बरस पड़ते। घर पर ताला लगा कर जाते और उन्हें भूखा रखते। इतने पर भी संतोष न होता तो घर से निकालने की धमकियां देते। ग्रेसी छटपटातीं। उस बीमार आदमी को देखने के लिए। काश, वे उस मरते हुए आदमी के लिए कुछ कर पातीं और उसे बचा पातीं।<br /> इस बीच राफेल ने अपने हिसाब से उन्हें एक बार फिर रंगे हाथों पकड़ा। बाई ने उन्हें दवा की पर्ची और पैसे ला कर दिये थे कि वे बाजार से दवा लाकर रख लें, वह दोपहर को दे आयेगी। वे उसके लिए बाजार से दवा ला रही थीं कि रास्ते में राफेल मिल गये थे और यह पता चलने पर कि वे उस आदमी के लिए दवा ला रहीं हैं, उनके साथ वहीं सड़क पर ही पागलों जैसा व्यवहार करने लगे थे। दवा छीन कर उन्होंने नाली में फेंक दी थी और कागज और बिल वगैरह फाड़ दिये थे। वे बहुत तिलमिलायीं थीं कि इससे ज्यादा पागलपन क्या हो सकता है कि एक मरते हुए आदमी की दवा तक छीन कर नाली में फेंक दी जाये। उन्हें बहुत गुस्सा आया था लेकिन वे खून के घूंट पी कर रह गयी थीं। राफेल के सामने विरोध करने का कोई मतलब नहीं था। <br /> ये कई बरसों के बाद हो रहा था कि आजकल राफेल रोज शाम को ही आ कर घर में जम जाते और कई बार आफिस ही न जाते। सिर्फ जासूसी करने के लिए। <br /> तभी बाई से उन्हें पता चला था कि उसकी तबीयत और खराब हो गयी थी। बाई ने उसके पड़ोसियों को खबर कर दी थी कि उसकी हालत खराब है और वह दर्द से बेहाल है। <br /> ग्रेसी को पता नहीं चल पाया था कि उस आदमी को एक सुबह कहां ले जाया गया था और क्यों ले जाया गया था। बाई बता रही थी कि जब वह हमेशा की तरह काम करने गयी थी तो वहां ताला लगा हुआ था और किसी को पूरी तरह से पता नहीं था कि उन्हें किधर ले जाया गया था। उसके बाद उन्हें उसकी कभी भी कोई भी खबर नहीं मिल पायी थी। वे उसे आखरी बाद देख भी नहीं पायीं थीं और उसकी दवाएं उस तक न पहुंचाने का मलाल उन्हें कई दिन तक सालता रहा था। <br /> ग्रेसी ने तब सोचा था कि जितनी भी हो सकी, उन्होंने अपनी तरफ से उसकी सेवा की थी और अब राफेल को कम से कम शक की आग में और नहीं जलना पड़ेगा। ये कैसा नेह था जो ग्रेसी ने उस अनजान आदमी को दिया था। न उसका नाम पूछा था न अपना नाम बताया था। वह क्या था जिसने उन दोनों को जोड़ा था बिना एक भी संवाद बोले और उस मरते हुए आदमी की आंखों में कुछ पलों के लिए उम्मीदों के चिराग जल उठे थे। ग्रेसी ने उस अरसे में एक भरपूर जीवन जी लिया था। बेशक वे उसके जीवन में कुछ जोड़ नहीं पायीं थीं फिर भी यह अहसास तो था ही कि कुछ तो दिया ही था। <br />तब राफेल ने एक दूसरा खेल शुरू कर दिया था। पता नहीं इसमें बदले की भावना काम कर रही थी या वे सचमुच उस छोकरी से प्यार करने लगे थे। जब राफेल ने देखा कि वह आदमी अब यहां से जा चुका तो फिर से उन्होंने देर से आना शुरू कर दिया था। ग्रेसी को कुछ लोगों ने बताया था कि आजकल उनका अपने ऑफिस की किसी लड़की से अफेयर चल रहा है। ग्रेसी इन सारी बातों की कभी भी परवाह नहीं करती थीं। इस तरह के अफेयर उनके अक्सर चलते ही रहते थे। उनके हिस्से में उनका पूरा पति आज तक आया ही नहीं था कि उसे खोने से डरतीं। संकट तब शुरू हुआ जब उसे ले कर वे घर आने लगे और ग्रेसी से उम्मीद करने लगे कि वे उसकी सेवा करें। वह अति साधारण लड़की थी और पता नहीं किस लालच में राफेल से चिपकी हुई थी। सब कुछ जानते बूझते हुए भी। ग्रेसी ने इस बात को भी स्वीकार कर लिया था। अगर उनके पति को ही अपने बच्चों और अपनी बीवी का, अपने अड़ोसियों पड़ोसियों की आंखों का लिहाज नहीं है, तो उन्हें क्या पड़ी है। मरने दो। वैसे भी कौन सा सुख दे रहे थे जो छिन जाता और इस दुख के लिए शिकायत करतीं।<br />लेकिन हद तो तब हो गयी जब वे उसे सीधे ही बेडरूम में ले जाने लगे और ग्रेसी से नौकरानी का सा व्यवहार करने लगे। यह उन्हें नागवार गुजरा था। अब तक तो सब सहती आयीं थीं, ये उनसे सहन नहीं हुआ। बेडरूम का दरवाजा खुला रहता, बच्चे आस पास मंडराते रहते और राफेल कमरे में सारी सीमाएं लांघते नज़र आते। ग्रेसी ने जब इसका दबे स्वरों में विरोध किया तो उन्हीं पर गुर्राने लगे कि अब इस घर में तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। या तो खुद घर छोड़ कर चली जाओ या मैं ही घर से निकाल दूंगा। अपने दिन भूल गयी जब दिन दहाड़े अपने यार से मिलने जाती थी। तुझे जाना हो तो जा अपने यार के पास। <br />उस रात पहली बार ग्रेसी अपने पति पर भड़की थीं। बहुत देर तक शोर मचाती रहीं थीं। इतना कि राफेल दंग रह गये थे कि इस औरत में इतना ताप है। ग्रेसी अपना आपा खो बैठी थीं। पता नहीं कब से घुटती आ रही थीं और अब मौका मिल गया था अपनी बात कहने का। बदहवासी में उन्होंने अपने कपड़े फाड़ डाले थे और सारा सामान बिखेर दिया था। उन्होंने बच्चों की भी परवाह नहीं की थी और सारा घर सिर पर उठा लिया था। कहा था राफेल से - मैं भी देखती हूं कि कैसे वह च़ुड़ैल इस घर में आती है। बच्चे पहली बार मां के इस रूप को देख रहे थे। वे डरे सहमे कोने में दुबके खड़े थे। <br />लेकिन आखिर हार ग्रेसी की ही हुई थी। राफेल उस लड़की को अगले दिन से हमेशा हमेशा के लिए घर पर ले आये थे और ग्रेसी से साफ साफ कह दिया कि इस घर में रहना है तो इसे स्वीकार करना होगा। आखिर बच्चों को अपने घर को और अपनी दुनिया को छोड़ कर कहां जातीं। ग्रेसी बिस्तर पर पड़ गयी थीं और गहरे डिप्रेशन में चली गयीं थीं। डॉक्टर लगातार आता रहा था और इंजेक्शन देता रहा था। कुछ दिन के बाद बेशक ग्रेसी ठीक हो गयीं थी लेकिन उस लड़की को देखते ही उन पर हिस्टीरिया के दौरे पड़ने लगते और फिर से उनकी तबीयत खराब होने लगती। इंजेक्शनों और दवाओं के असर में वे घंटों सोयी रहतीं और घर कम सारे काम वैसे ही पड़े रहते। राफेल इस बात पर बिगड़ते और नित नये झगड़े होते। ग्रेसी समझ नहीं पा रही थीं कि दवा लेते ही उन्हें क्या हो जाता है। लेकिन जो कुछ सामने देखतीं उसे भी सहन करने की ताकत नहीं बची थीं उनमें। राफेल ने तो उनसे बात करना भी बंद कर दिया था। उन्हें अपना होश भी न रहता। बच्चे क्या खाते हैं, कोई उन्हें खाना देने वाला भी है या नहीं, या स्कूल जाते हैं या नहीं, उन्हें पता न रहता। जब तबीयत ठीक होती तो थोड़ा बहुत काम कर लेतीं वरना लेटी रहती और अपनी किस्मत को कोसती रहतीं। धीरे धीरे उनकी सेहत खराब होती चली गयी थीं और एक दिन राफेल के डॉक्टरों की सलाह पर उन्हें पागल खाने पहुंचा दिया गया था। <br />वैसे देखा जाये तो वे पागल कहां हुई थीं। उनके सामने हालात ही ऐसे बना दिये गये थे कि भला चंगा आदमी पागल हो जाये। उन्होंने तो फिर भी पूरे छ: महीने तक सारी स्थितियों को सहन किया था और चूं तक नहीं की थी और उस लड़की को वे पूरे छ: महीने तक अपनी छाती पर झेलती रहीं। जब भी उन्होंने विरेध किया या करने की कोशिश की, हिस्से में मार ही आयी और आखिर पागल बना कर उन्हें घर से निकाल ही दिया गया। <br />उन्हें नहीं पता कि वे कितने अरसे पागलखानों में रहीं और कहां कहां भटकती रहीं। एक बार जब वे ठीक हो कर बाहर आयीं भी, तो उस वक्त तक राफेल दिल्ली छोड़ कर जा चुके थे। उनके लिए अतीत के सारे दरवाजे बंद हो चुके थे। वे बहुत छटपटायीं थीं अपने बच्चों से मिलने के लिए। पागलों की हालत में एक शहर से दूसरे शहर में भटकती रहीं थीं लेकिन उनके शरीर पर दवाओं को इतना गहरा असर था कि बहुत कोशिश करने पर भी पिछली बातें याद न आतीं। शहर याद आता तो कॉलोनी भूल जातीं और कॉलोनी याद आने पर घर का पता भूल चुकी होतीं। थक हार कर उन्होंने कोशिश ही छोड़ दी थी और भटकते भटकते आखिर मुंबई पहुंची थीं और यहां, चर्चगेट के इस कोने में अपना डेरा डाल दिया था। तब से यही उनका स्थायी पता है। ऐसा पता, जिस पर न कोई आता है न आना चाहेगा। <br />आज अगर वे अपने परिवार में होतीं तो उनका बड़ा बेटा 33 बरस का और छोटा बेटा लगभग 31 बरस का होता। वो तो अब भी इसी उम्र के होंगे, बस, उन्हें ही नहीं पता, कहां होंगे वे। राफेल को गुज़रे अरसा हो गया है। <br />कोई बड़ी बात नहीं, उनके दोनों बेटे यहीं मुंबई में ही हों और रोजाना अपने काम पर यहीं से गुज़र कर जाते हों। होने को तो यह भी हो सकता है कि रोजाना सवेरे दस बजे के करीब एक लम्बी सी कार में वह जो सांवला सा आदमी आ कर खाने का पैकेट उन्हें दे जाता है और कभी कभी कपड़े भी दे जाता है, मिसेज ग्रेसी राफेल का ही बड़ा या छोटा बेटा हो और अपने परिवार के डर से उन्हें घर ले जाने की हिम्मत न जुटा पाता हो। होने को तो बहुत कुछ हो सकता है मेरे प्रिय पाठक, लेकिन अगर आप कभी चर्चगेट से गुज़रें और आपको मिसेज राफेल से बात करने की इच्छा हो और मौका भी मिल जाये तो वे आपको यही बतायेंगी कि उन्हें कुछ भी याद नहीं है कि उनका कोई बेटा भी था या उनका कभी कोई घर बार भी था। <br />निश्चित ही वे अपने अतीत के बारे में कोई भी बात नहीं करना चाहतीं। <br />वे आपसे इस बारे में कोई बात नहीं करेंगी। <br />*****सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-56955223649045236362008-05-19T13:36:00.000+05:302008-05-19T13:41:22.653+05:30चौदहवीं कहानी - फैसलेबद्रीप्रसाद वापिस लौट रहे हैं। एकदम हताश। टूटे हुए। अपने ही घर से बेगाने होकर। अपनों द्वारा ही ठुकराए जा कर। यह ठुकराया जाना नहीं है तो क्या है? क्या इसी दिन को देखने के लिए इतने बरस इंतज़ार किया था उन्होंने! एकदम ठूंठ-से दिन गुज़ारे। तनहा रहे। जैसे ज़िंदगी न जी रहे हों अब तक, बल्कि ज़िंदगी का इंतज़ार कर रहे हों। क्या-क्या तो सोचा था! कितनी मुश्किलों से तो आज का दिन देखना नसीब हुआ है! ज़िंदगी के सबसे अनमोल, बेशकीमती तेरह साल एकदम बर्बाद करने के बाद। अकेलेपन के कड़वे धुं में सुलग-सुलग कर राख हो जाने के बाद क्या हाथ लगा है? कुछ भी तो नहीं!<br /> पूरे तेरह साल के इंतज़ार के बाद अब वह घड़ी आयी थी कि वे अपने टूटे-बिखरे परिवार को एक छत के नीचे ला सकते और इत्मीनान से दिन गुज़ारते। ज़िंदगी का जो वक्त गुज़र गया तो गुज़र गया। उसे लौटाना किसके बस की बात है। जो बाकी है, आगे है, उसी को बेहतर बनाने की दिशा में कुछ करने और बच्चों के सिर पर हाथ फेरने का जब वक्त आया है, तो उन्हें यह खरा-सा जवाब सुना दिया गया है, ``हम नहीं जाएंगे तुम्हारे साथ बंबई अपनी यह नौकरी छोड़कर। सब ठीक तो चल रहा है अब तक। आगे भी चलता ही रहेगा।'' सुनकर वे एकदम सकते में आ गए थे। सहसा विश्वास नहीं हुआ था, उमा यह क्या कह रही है! इतने साल कम नहीं होते जो उन्होंने अलग-अलग रह कर काटे हैं। कितनी मुश्किलों से तो यह संयोग बना है कि उमा और बच्चों को अपने पास बंबई ले जा सकें और वह है कि सिर्फ नौकरी के लिए अपने पति का साथ तक छोड़ने को तैयार बैठी है।<br /> उन्होंने समझाने की बहुत कोशिश की, ``लेकिन नौकरी तो तुम्हें वहां भी मिल सकती है। न भी मिले तो अब तक हमें जो दो घरों पर दुगुना खर्च करना पड़ रहा है, एक साथ एक ही जगह रहने पर थोड़े कम पैसों में भी गुजर हो ही जायेगी। फिर इस मकान का किराया भी तो बच जायेगा,'' पर वह शायद पहले से सब कुछ तय किए बैठी है,``आप समझते क्यों नही! अगले सैशन में मेरे हेड बनने के पूरे चांस हैं। मैं ऐसे वक्त यह लेक्चररशिप कत्तई नहीं छोड़ सकती और न ही लम्बी छुट्टी लेकर यह चांस गंवाना चाहती हूं। जैसे अब तक हर महीने-पंद्रह दिन में आते रहे हैं, आगे भी आते रहिए।'' बिल्कुल ठण्डे स्वर में उसका जवाब मिला, ``हां, छुट्टियों की बात दूसरी है। हम वहीं आ जाया करेंगे आपके पास।''<br /> अचानक सामने आयी इस स्थिति में क्या करें, वे तय नहीं कर पा रहे। उमा को धमकाएं? जबरदस्ती उसकी नौकरी छुड़वाएं या कोई और उपाय करें? पर उससे तो स्थितियां और बिगड़ेंगी। फिर से प्यार से उसे नफा-नुकसान समझाएं? या कहें कि वे अकेले रहते-रहते थक गए हैं। ढाबों में और खाना खाने की उनकी हिम्मत नहीं रही है। उसके पास तो फिर भी गुड्डू, अक्कू हैं। वे कैसे बताएं अब उम्र के इस दौर में सचमुच उन्हें परिवार की कितनी ज़रूरत है।<br /> पर बद्रीप्रसाद के हर तरह से समझाने से भी वह टस-से-मस नहीं हुई हैं उमा। अक्कू, गुड्डू भी मां की तरफ ज्यादा निकले। वे पिता की तरफ हो भी कैसे सकते हैं? सोलह साल के गुड्डू को वे तब छोड़कर गए थे जब वह सिर्फ तीन बरस का था। और अक्कू तो उनके बंबई जाने के बाद ही पैदा हुआ है। इन तेरह बरसों में वे कुल मिलाकर तेरह महीने भी तो उनके पास नहीं रहे हैं। वे हर समय आस-पास बनी रहने वाली मां की तुलना में मेहमान सरीखे आने वाले पिता का पक्ष ले भी कैसे सकते हैं? इसमें बच्चों का भी क्या कुसूर! वे खुद ही तो इन सारी स्थितियों के लिए दोषी हैं। न बंबई वाली यह नौकरी स्वीकार करते, न ही आज यह दिन देखना पड़ता।<br /> वे तब यहीं, इसी शहर में एक छोटी-सी प्राइवेट नौकरी किया करते थे। किसी तरह गुजारा हो ही रहा था। शादी हो चुकी थी और वे किसी बेहतर नौकरी की तलाश में थे। तभी मुम्बई वाली इस नौकरी के लिए उनका चयन हो गया था। उम्मीद से कहीं अधिक अच्छी। आगे तरक्की के भी खूब अवसर थे। बस एक ही दिक्कत थी। मकान की। कम्पनी ने साफ-साफ कह दिया था, ``कम्पनी की तरफ से फिलहाल मकान नहीं दिया जा सकता। भविष्य में कभी हो सका तो ज़रूर देंगे। कब? कह नहीं सकते।''<br /> बहुत सोचा था उन्होंने। वैसे भी सरकारी नौकरी का आखिरी चांस था। वे ओवर एज ब्रैकेट के एकदम पास थे। उमा ने भी यह सलाह दी थी, ``ज्वाइन तो कर ही लो। कहीं एक कमरा किराए पर लेकर शुरू तो करो। आखिर कभी तो कम्पनी मकान देगी ही। नहीं जमा तो लौट आना। यहां वाली नौकरी तो है ही।'' उमा ने भरोसा दिलाया था, ``हमारी चिंता मत करना। कैरियर पहले है। हम गुड्डू के साथ रह लेंगी।'' और वे बंबई चले आए थे।<br /> उन्हें बंबई आकर ही पता चला था कि कितनी मुसीबतों की पोटली है यह मायानगरी। सबसे पहले तो उन्हें ढंग की जगह तलाशने में ही एड़ी-चोटी का दम लगाना पड़ गया था। महीनों अपना बोरिया-बिस्तर उठाए एक ठिकाने से दूसरे ठिकाने भटकते रहे। बिना डिपाजिट के कोई एक कमरा तक किराए पर देने को तैयार नहीं होता था। इतना डिपाजिट कहां से लाते। कभी किसी की बालकनी में चारपाई भर की जगह लेकर रहे तो कभी किसी गेस्ट हाउस में। कभी दो-चार मित्रों के साथ मिलकर कहीं कमरे का जुगाड़ किया तो कभी सायन-कोलीवाड़ा की सरकारी कॉलोनी में रहे। अरसे तक पेइंग गेस्ट भी बने रहे अलग-अलग घरों में।<br /> लाख तरह की मुसीबतें सही, लेकिन उन्होंने तय कर लिया था, यहां से लौटकर नहीं जाना है। इसी शहर में अपने लिए जगह बनानी है। आज नहीं तो कल, वे अपने और अपने परिवार के लायक एक छत ढूंढ ही लेंगे। उन्होंने देख लिया था, यह शहर काम और काम करने वाले, दोनों की कद्र करता है। वे काम करने आए थे, लौटने का सवाल ही नहीं उठता था।<br /> हर महीने बिला नागा घर जाते रहे और उमा को ज़रूरत भर पैसे देते रहे। इधर बंबई में मकान की तलाश जारी रही। उमा हिम्मत दिलाए रहती, ``डटे रहो। हम बिल्कुल ठीक हैं'' इस बीच उमा ने एक-दो ट्यूशनें कर लीं और साथ ही एम.ए. ज्वाइन कर लिया। इधर बद्री प्रसाद ने भी अपनी शामों का अकेलापन काटने की नीयत से शाम की क्लास में एल.एल.बी में दाखिला ले लिया।<br /> किस्मत अच्छी थी उमा की कि प्रथम श्रेणी में एम.ए. करते ही एक स्थानीय कॉलेज में पहले अस्थायी और फिर स्थायी लेक्चरशिप मिल गयी। हालांकि बद्री प्रसाद उमा की इस नौकरी से बहुत खुश नहीं थे, पर एक तसल्ली भी हुई थी कि अब वे घर पर ज्यादा पैसे भेजने के बजाय मकान के लिए पैसे जमा कर पाएंगे।<br /> इधर उन्होंने एल.एल.बी के बाद जर्नलिज्म ज्वाइन कर लिया ताकि वक्त तो ढंग से गुज़रता रहे। इस कोर्स का उन्हें एक और फायदा हुआ था। वे कोर्स के दौरान और बाद में भी विज्ञापन एजेंसियों और फीचर एजेंसियों के लिए काम करने लगे। वक्त तो गुजरता ही था कुछ अतिरिक्त आमदनी भी हो जाती।<br /> अपने बंबई प्रवास के पहले पांच साल में वे अपने परिवार को सिर्फ दो-तीन बार एक-एक सप्ताह के लिए बंबई ला पाए थे। वह भी तब, जब उनके दोस्त अपने परिवारों के साथ बाहर गए होते और वे उनके फ्लैट की चाबी एकाध हफ्ते के लिए मांग लेते। उमा को बंबई कतई पसंद नहीं थी। दड़बे जैसे घर, चारों तरफ गंदगी और हर समय भागम भाग। बद्री प्रसाद ने तब यही समझा था, दूसरे के घर में रहने की वजह से उमा व्यवस्थित महसूस नहीं कर रही है। अपना घर होते ही सब ठीक हो जाएगा।<br /> एक जगह से दूसरी जगह, एक ठीए से दूसरे ठीए तक आठ साल तक धक्के खाने के बाद पहली बार वे एक फ्लैट का जुगाड़ कर पाए थे। दूर-दराज के कल्याण स्टेशन से भी दो किलोमीटर पर एक गंदी बस्ती में। मकान मालिक चलास हजार डिपाजिट मांग रहा था, जो उन्हें मकान छोड़ते समय लौटा दिए जाते। किराया पांच सौ रुपये।<br /> उन्होंने बड़ी मुश्किल से ये पैसे जुटाए थे। अपनी और उमा की सारी बचत। यार-दोस्तों से उधार और कम्पनी की क्रेडिट सोसाइटी से कर्ज। वे उस घर को पाकर बेहद खुश थे। आखिर मिला तो सही। एक छत तो है सिर पर। बेशक छोटी जगह सही। उनके परिवार के लिए काफी है।<br /> वे गर्मी की छुट्टियों में परिवार को ले आए थे। लेकिन आस-पास का इलाका देखकर उमा ने यहां रहने से साफ इनकार कर दिया था। ``हम इस सड़ी हुई जगह में कत्तई नहीं रहेंगी''। पूरी छुट्टियां बड़ी मुश्किल से उसने वहां गुज़ारी थी। बद्री प्रसाद ने बहुत समझाया था, ``लोग तो इससे भी खराब जगहों में रहते हैं। वे इससे अच्छी जगह की तलाश करते रहेंगे। और फिर, फ्लैट भीतर से तो साफ-सुथरा है।'' लेकिन उमा नहीं मानी थी और बच्चों को लेकर लौट गयी थी।<br /> वे बीच-बीच में महसूस करते रहे हैं कि उमा बंबई के नाम से कभी उत्साहित नहीं रही। वह अपनी नौकरी और बच्चों में इतनी मगन रहती है कि जब वे यहां आते हैं तो उनकी तरफ भी ज्यादा ध्यान नहीं देती। उन्हें लगता है कि अब वे अपने ही घर में अपनी जगह खो चुके हैं। बच्चों के लिए उनके मन में कितना भी प्यार क्यों न हो, बच्चे उनसे हर वक्त कटे-कटे रहते हैं। कई बार उन्होंने महसूस किया है कि ज्यादा दिन रुकने पर बच्चे उनकी वापसी का इंतज़ार करने लगते हैं। कहीं उमा भी तो... नहीं, नहीं, इससे आगे वे नहीं सोचना चाहते और सिर थाम लेते हैं। सोचते हैं, बद्री प्रसाद, इस बंबई की नौकरी के चक्कर में उन्होंने कितना कुछ खो दिया है। अपने बच्चों तक के लिए अजनबी बन गए हैं। अपनी पत्नी से कितनी दूर जा चुके हैं। अब यहां लौट भी तो नहीं सकते। चालीस के होने को आए। अब कौन देगा इतनी पगार वाली नौकरी। यह रुतबा।<br /> उन्हें समझ में नहीं आ रहा, उमा बार-बार बंबई जाने से क्यों मना कर दती है। कभी वह बच्चों की पढ़ाई का रोना लेकर बैठ जाती है तो कभी कहती है कि बंबई की आबोहवा उसे सूट नहीं करती। अब जब कम्पनी ने इतने खूबसूरत इलाके में काफी बड़ा फ्लैट उन्हें दे लिया है तो हैडशिप का नया बखेड़ा शुरू कर दिया है उसने। वह किसी तरह बंबई जाने से बचना चाहती है। वे उसे हर तरह से मनाकर, समझाकर हार चुके हैं। पिछले छह महीनों में यह उनका सातवां चक्कर है और इस बार भी वे अकेले वापस लौट रहे हैं। बिना किसी उम्मीद के। बिना किसी आश्वासन के।<br /> कई बार उन्हें लगता है कि उमा के इस लगातार इनकार के पीछे कोई और वजह भी होगी। नहीं, वे उसके चरित्र पर शक नहीं करते। मेरी उमा ऐसी नहीं है। तो फिर! क्यों नहीं आना चाहती वह? उन्हें लगता है, शायद इतने बरस तक अकेले रहते-रहते उमा ने स्वतंत्र रूप से रहने, अपने फैसले खुद लेने की जो आदत बना ली है, उसे छोड़ना नहीं चाहती। शायद उसे यह डर लगता हो कि यहां जो सोसायटी में, कॉलेज में उसने अपनी पहचान बनायी है, वह एकदम खो जाएगी और बंबई में उसे नये सिरे से सब कुछ संवारना पड़ेगा। शायद कोई और बात हो। वे सोच नहीं पाते। वे तय नहीं कर पाते, क्या करें। क्या यूं ही सब कुछ चलने दें। रहते रहें अकेले? हारे हुए? टूटे हुए? लेकिन कब तक? या फिर लौटें उसे मनाने के लिए?<br /> नहीं। उमा इस तरह से नहीं मानेगी। कब से तो प्यार से, मनुहार से मना रहे हैं। अब वे और अकेले नहीं रह सकते। उमा और बच्चों को भले ही उनकी ज़रूरत न हो, उन्हें अपने बीवी-बच्चों की सख्त ज़रूरत है। अब परिवार के बिना और नहीं रह सकते। कोई न कोई फैसला करना ही होगा। चाहे सख्ती करनी पड़े। वे तय कर लेते हैं। <br />बंबई पहुंचते ही उमा को एक कड़ा पत्र लिखेंगे, ``नौकरी से त्यागपत्र देकर आ जाए वरना... वरना तलाक के लिए तैयार रहे।<br />मेरी लघुकथाओं और अन्य रचनाओं के लिए देखें kathaakar.blogspot.comसूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-63327788289239146032008-05-12T10:03:00.001+05:302008-05-12T10:05:31.861+05:30तेरहवीं कहानी - शिब्बूहमने उस वक्त तक दौड़ में मिल्खा सिंह का ही नाम सुना था। हमें तब तक पता नहीं था कि बड़ी रेसों में दौड़ने के लिए खास तरह के जूतों की और तकनीक की ज़रूरत होती है। हमें यह भी पता नहीं था तब तक कि किसी भी दौड़ में अव्वल आने के लिए समय की गणना के लिए सेकेंड के हिस्से भी मायने रखते हैं और हम ये भी नहीं जानते थे कि ऐसी दौड़ों में दो चार सेंटीमीटर से भी पिछड़ जाने का क्या मतलब होता है। ये सारी बातें हमें बहुत देर बाद पता चली थीं। लेकिन उस सारे अरसे के दौरान हम एक बात अच्छी तरह से जानते थे कि हमारे स्कूल में और हमारे ही साथ, हमारी ही कक्षा में पढ़ने वाला शिव प्रसाद पंत किसी भी मिल्खा सिहं से कम नहीं है। बेशक उसके पास जूते, कपड़े और दूसरे तामझाम नहीं थे फिर भी उसमें बला की चुस्ती, फुर्ती और गति थी। वह जब दौड़ता था तो हमें चीते से भी तेज़ दौड़ता नज़र आता था और उसके साथ दौड़ने वाले उससे कोसों पीछे छूट जाते थे। वह हमेशा अव्वल था और हमारे लिए वही मिल्खा था। छोटे कद और गठीले बदन वाला हमारा शिव प्रसाद पंत हमारा हीरो था। हमें उस पर नाज़ था। वह हमारा अपना धावक था और उसका साथ हमें गर्व से भर देता था। <br />शिव प्रसाद पंत। लेकिन हम सबका शिब्बू। उससे मेरी दोस्ती लगातार पांच-छ: बरस तक रही। सातवीं से ले कर ग्यारहवीं तक। हम दोनों की दांत-काटी दोस्ती थी। वह बेशक हमारे घर से बहुत दूर रहता था, फिर भी छुट्टी के दिन भी हमारी मुलाकात हो ही जाती थी। हम दोनों को रोजाना मिले बिना चैन न पड़ता। वह चला आता या मैं ही उससे मिलने चला जाता। <br />शिब्बू हमारे स्कूल की शान था और मैं इस बात से फूला नहीं समाता था कि वह मेरा पक्का याड़ी है। दूसरे लड़के उससे दोस्ती करने के लिए तरसते और मुझे उसका हर समय का साथ यूं ही मिला रहता। शिब्बू बहुत कम बोलता था और हम दोनों लगातार कई कई घंटे एक साथ बिताने के बावजूद बहुत कम बातें करते, बस साथ साथ रहते, घूमते और शरारतें करते।<br />स्कूल का शायद ही कोई ऐसा बच्चा हो जिसकी कभी न कभी बात बे बात पर पिटाई न होती हो। कभी होमवर्क न करके लाने के कारण या यूनिफार्म न पहन कर आने के कारण या किसी और वज़ह से लेकिन पूरे स्कूल में शिब्बू ही ऐसा लड़का था जिसकी कभी भी पिटाई नहीं होती थी। पढ़ाई में वह साधारण ही था और होम वर्क भी अक्सर ही उसका अधूरा रहता और हम सब मिल-मिला कर उसकी कापियां दिखाने लायक बना दिया करते थे। यूनिफार्म भी उसके पास एक ही थी जिसे वह रोज़ रात को धो कर सुबह पहन कर आया करता था। जिस दिन यूनिफार्म सूख न पाती, उस दिन वह बिना यूनिफार्म के, कमीज और धारीदार पायजामे में ही चला आता और ऐसा हफ्ते में दो-तीन बार तो हो ही जाता था लेकिन उसके लिए सब माफ था।<br />शिब्बू हमारे स्कूल का बेहतरीन धावक था। न केवल स्कूल का, बल्कि शहर और पूरे प्रांत में किसी भी स्कूल में उसका सानी नहीं था। वह हमेशा नंगे पैर ही दौड़ता था और मज़ाल है किसी भी रेस में कोई उससे आगे निकल जाये। स्कूल में वार्षिक उत्सव पर हमारी याद में पांच-सात बरसों में जितनी भी खेलकूद प्रतियोगिताएंं हुई थीं, सौ मीटर से ले कर पांच हज़ार मीटर तक और ऊंची कूद से ले कर लम्बी कूद तक, सब में वह लगातार अव्वल रहा था। स्कूल की नाक होने के पीछे यही वजह थी कि वह लगातार स्कूल द्वारा जीती जाने वाली चल वैजयंतियों की संख्या बढ़ा रहा था। प्रतियोगिता कहीं भी हो, किसी भी स्तर की हो और किसी भी रेस की हो, स्कूल से पहला नाम उसी का जाता था और ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि वह पहले स्थान की शील्ड लिये बिना वापिस आया हो। उसके साथ जाने वाले हमारे स्पोर्ट्स टीचर हमेशा आश्वस्त ही रहते कि शिब्बू के होते भला किसकी मज़ाल कि शील्ड ले जाये। <br />हमारे अपने स्कूल के वार्षिक उत्सव में तो उसका रंग देखने लायक होता। सारी की सारी प्रतियोगिताओं के पहले पुरस्कार उसकी झोली में होते। उसे पुरस्कार देने का क्रम सबसे आखिर में रखा जाता और पूरा पांडाल लगातार तालियों की गड़गड़ाहट से देर तक गूंजता रहता और वह एक के बाद एक पुरस्कार लेने के लिए मंच पर आता रहता। हम मंच के नीचे बैठे उसके हाथ से ट्राफियां लेते रहते और वह मंच पर वापिस जा जा कर ट्राफियां बटोरता रहता। <br />स्पोर्ट्स डे वाले दिन तो ये हालत होती कि खेलकूदों में हिस्सा लेने वाले बाकी सारे होशियार लड़के, भूपेन्द्र और वीरेन्द्र मैसन, देवेन्द्र भसीन, नंदू, अवतार सिहं, शम्सुद्दीन, मेहर अली, नानू दीन, शशि मोहन पंछी, पवन बिष्ट वगैरह सब के सब उसके आगे हाथ जोड़ते कि भइया, एक आध प्रतियोगिता तो हमारे लिए भी छोड़ दो, ये सर्टिफिकेट हमारे बहुत काम आयेंगे। तुम्हारे पास तो सैकड़ों की संख्या में जमा हो रहे हैं। जवाब में वह हंस देता,``मैंने कब मना किया है तुम्हें। आओ आगे और ले जाओ पहला स्थान।'' लेकिन पहला स्थान शिब्बू के रहते बाकी के लिए सपना ही रहता। <br />शिब्बू बेहद गरीब घर का लड़का था। वे लोग पांच भाई बहन थे और उसके पिता बिजली के दफ्तर में काम करने वाले एक ठेकेदार के यहां काम करते थे और उनकी आमदनी एकदम मामूली थी। बेशक उसकी फीस माफ थी लेकिन कुछ न कुछ खर्च तो पढ़ाई के सिलसिले में हो ही जाता था, उसके लिए ये चीज़ें जुटाना भी मुश्किल पड़ जाता था। शायद यही वज़ह रही होगी कि उसने प्रिंसिपल साहब से एक बार कहा था कि उसे स्कूल से मिलने वाली इतनी ज्यादा शील्डें और कप वगैरह न दिये जायें और बदले में, हो सके तो नकद पैसे या कुछ काम की च़ाजें दे दी जाया करें। उसके पास इन बरसों में इतनी ज्यादा शील्डें हो गयी थीं कि एक ही कमरे के उसके घर में रखने की जगह नहीं रही थी और न ही उसके या उसके परिवार के लिए उनकी कोई उपयोगिता ही थी। उसने स्पोर्ट्स टीचर के जरिये ये भी कहलवाया था कि अगर वे चाहें तो मंच पर से दिये जाने के लिए वह अपनी पुरानी शील्डों और कपों में से कुछ को धो-पोंछ कर, चमका कर उठा लाया करेगा और मुख्य अतिथि के हाथों उन्हीं को ले लिया करेगा, बस, इन पर खर्च होने वाली राशि उसे नकद दे दी जाया करे। एकाध बार शायद ऐसा किया भी गया था लेकिन ये सिलसिला ज्यादा नहीं चल पाया था।<br /> ऐसा नहीं था कि उसे शील्ड वगैरह लेना अच्छा न लगता हो लेकिन उसके घर की हालत वाकई खराब थी। उसे इतनी कम उम्र में पिता की मामूली आमदनी में हाथ बंटाने के लिए तरह तरह के ध्ंाधे करने पड़ते। दुकानों में देर रात तक काम करने के अलावा वह और उसके भाई बहन मिल कर पुरानी कापियों से लिफाफे बना कर दुकानदारों के पास बेचते तो कभी वह घर के पास की टाल में लकड़ियां चीरने जैसा मुश्किल और हाड़-तोड़ काम करके दो एक रुपये अपने लिए जुटाता। लेकिन एक बात थी। वह कुछ भी काम कर रहा हो किसी को हवा तक नहीं लगने देता था कि उसे अपनी पढ़ाई जारी रखने लिए किन किन धंधों में खटना पड़ता है और न ही वह किसी को यह ही पता ही चलने देता कि उसने कल रात से कुछ नहीं खाया है। वह हमारे घर भी कभी भी खाने के वक्त न आता। <br />स्कूल में भी खाने की छुट्टी में वह चुपके से किसी भी तरफ सरक लेता ताकि उसे कोई दोस्त अपना टिफिन शेयर करने के लिए न बुला ले। हां, उसे इतना सहारा ज़रूर रहता कि हमें स्कूल की तरफ से मिड डे मील के नाम पर हफ्ते में तीन दिन बिस्किट, दो दिन केले और शनिवार के दिन भुने हुए चने मिला करते थे। सुबह हाज़री के बाद हर कक्षा के मानीटर को स्पोर्ट्स टीचर के कमरे में जा कर बताना पड़ता था कि आज कक्षा में कितने बच्चे आये हैं और फिर लंच की घंटी बजने से पांच मिनट पहले वहां जा कर मिड डे मील की ट्रे लानी पड़ती थी। मानीटर हमेशा बेईमानी करते और अनुपस्थित बच्चों की संख्या भी लिख आते और इस तरह से रोज़ाना तीन-चार बच्चों का अतिरिक्त नाश्ता ले आते और अपने खास-खास दोस्तों को दो-दो केले या बिस्किट दे देते या खाली ट्रे वापिस ले जाते समय रास्ते में आपस में बांट लेते। पूरी कक्षा में एक अलिखित समझौता-सा था कि जो बच्चे टिफिन नहीं ला पाते या आधी छुट्टी में घर नहीं जा पाते, उन्हें अतिरिक्त नाश्ता दिया जाता था और ऐसे लड़कों में शिब्बू भी रहता। बेशक इसके लिए न तो उसने कभी हाथ फैलाया और न ही इसे हक मांग कर ही लिया। <br />इधर-उधर के काम धंधों के चक्कर में कई बार उसका स्कूल भी मिस हो जाता और वह पढ़ाई में और पिछड़ जाता। शहर का सबसे बढ़िया एथलीट होने के बावजूद उसके पास न तो जूते थे और न ही दूसरे शहरों में जाने लायक दो जोड़ी कपड़े ही। स्कूल में तो वह नंगे पैर ही चला आता लेकिन दूसरे शहरों में जाता तो अपने लिए उसने एक ज़ोड़ी किरमिच के जूते रख छोड़े थे और उन्हें बहुत ही एहतियात से पहनता। बेशक उसके पास एक दो जोड़ी मामूली कपड़े ही थे फिर भी वह हमेशा साफ-सुथरा रहता। <br />जब हम ग्यारहवीं में थे तो हम दोनों के साथ ही ऐसे हादसे हो गये कि हम दोनों की ज़िंदगी की दिशा ही बदल गयी। हम दोनों ही ग्यारहवीं में फेल हो गये थे। बेशक दोनों के फेल होने की वज़हें अलग-अलग थीं। <br />मैं अति विश्वास के चक्कर में लुढ़क गया था। उस बरस सिर्फ मैं ही नहीं, हम चारों भाई बहन अपनी-अपनी कक्षा में फेल हो गये थे। दोनों बड़े भाई बारहवीं में, मैं ग्यारहवीं में और छोटी बहन सातवीं में। दो बरस पहले मुझसे बड़े भाई को दसवीं में गणित में पिचासी प्रतिशत अंक मिले थे और उनके कुल अंक 58 प्रतिशत थे। उनका नाम विशेष योग्यता पाने वाले छात्रों की सूची में प्रधानाचार्य के कमरे के बाहर लगे बोर्ड पर दर्ज किया गया था। इसके बावजूद वे ग्यारहवीं में बहुत मुश्किल से गणित खींच पाये थे और बारहवीं के गणित ने उनकी हवा ढीली कर रखी थी। और जब दसवीं में मैं भी गणित में पिचहतर प्रतिशत अंक ले कर पहली श्रेणी में पास हुआ तो मैं जैसे सातवें आसमान पर था। बड़े भाई के लाख समझाने पर कि दसवीं के गणित में तो कोई भी सौ में से सौ अंक भी ला सकता है और कि बारहवीं का गणित सबके बस का नहीं, गणित मत लो और साइंस के बजाय कला या वाणिज्य में दाखिला ले लो, मैं बिलकुल भी नहीं माना था और ज़िद करके विज्ञान और गणित विषय ही लिये थे। नतीजा सामने था। बड़े भाई का बारहवीं का बोर्ड का परिणाम तो बाद में आया था लेकिन मैं ग्यारहवीं में हिन्दी और अंग्रेजी को छोड़ कर गणित, भौतिक विज्ञान और रसायन शास्त्र में बुरी तरह से लुढ़का हुआ था। बीस प्रतिशत अंक भी नहीं जुटा पाया था इन विषयों में। <br />हम सब भाई-बहनों के एक साथ फेल हो जाने से हमारे माता-पिता को बहुत झटका लगा था। आर्थिक भी और मानसिक भी और मेरी पढ़ाई बंद कर दी गयी थी। अब मैं सिर्फ सत्रह बरस की उम्र में स्कूल से बाहर था और मेरे सामने एक पूरी तरह से अंधेरी दुनिया थी। <br />उधर शिब्बू के फेल होने की वज़हें बिलकुल अलग थीं। ये जनवरी या फरवरी के आस-पास की बात थी। शिब्बू प्रांतीय स्तर पर होने वाली स्कूली खेलकूद प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए लखनऊ गया हुआ था। पूरे पद्रह दिन का कार्यक्रम था और वहां पर उसने 100 मीटर, 200 मीटर और 500 मीटर, तीनों में बेहतरीन समय निकाला था। अपना भी और प्रांतीय प्रतियोगिताएां में भी अब तक का सब से अच्छा समय। इस बात की पूरी उम्मीद थी कि आगे चल कर उसे राष्ट्रीय स्तर पर चुन लिया जायेगा और उसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में भाग लेने का मौका मिलेगा। अभी उसकी उम्र ही क्या थी, सत्रह के आस-पास। लेकिन उसकी गति, टाइमिंग और शैली गजब की थीं। बेशक उसने इन सारी चीज़ों की विधिवत तालीम नहीं पायी थी, न उसकी खुराक का ठिकाना था और न कपड़ों और जूतों का लेकिन सही मार्ग दर्शन मिलने पर वह और बेहतर परिणाम दिखा सकता था। <br />अभी वह लखनऊ में ही था कि उसे खबर मिली कि उसके पिता हाई वोल्टेज बिजली का झटका लगने के कारण बुरी तरह से घायल हो गये हैं। उनके शरीर का दायां हिस्सा बुरी तरह से जल गया था। जिस दिन शिब्बू को लखनऊ में ये खबर मिली, थोड़ी देर पहले ही उसने पांच हज़ार मीटर की दौड़ जीती थी और अपने टीचर के साथ अपने घर तथा स्कूल के लिए तार भेजने के लिए निकला ही था। खबर पा कर वह जिस हाल में था, वापिस निकल पड़ा। पुरस्कार वितरण समारोह अगले दिन था और उसकी अध्यक्षता राज्यपाल करने वाले थे लेकिन शिब्बू अपने पिता के साथ हुए हादसे की खबर सुनने के बाद वहां रुक ही नहीं सका और लौट आया। आते ही पिता के पास अस्पताल पहुंचा था। वे बोलने, शरीर को हिला-डुला पाने की शक्ति खो चुके थे और लुंज-पुंज से पड़े हुए थे। शिब्बू को आया देख कर भी वे उसे सूनी आंखों से देखते रह गये थे। शिब्बू के पास उन्हें सुनाने के लिए अपने जीवन की सबसे अच्छी खबरें थीं लेकिन अब सब कुछ खत्म हो चुका था। वे सुख-दुख, सुनने और सुनाने की सीमा रेखा पर गुमसुम पड़े थे। <br />जीवन और मौत के बीच पूरे तीन महीने के तक झूलने और परिवार पर अच्छा-खासा आर्थिक बोझ डाल कर वे चल बसे थे। इस बीच इस हादसे से पहले शिब्बू इन दिनों कई और हादसे झेल चुका था। राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली स्पर्धाओं में अपने प्रांत की तरफ से उसे चुन लिया गया था लेकिन अंतिम चयन के लिए वह पटियाला नहीं जा पाया था। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने जलवे दिखाने के मौके उसके हाथ से जाते रहे थे। बेशक उसने ग्यारहवीं की परीक्षा दी थी लेकिन उसके लिए कोई तैयारी नहीं कर पाया था और बुरी तरह से फेल हो गया था। अगर एकाध विषय में दो चार नम्बर कम भी होते तो उसे ग्रेस मार्क दे कर पास कर दिया जाता लेकिन वह इन तीन चार महीनों में पढ़ पाना तो दूर, कायदे से स्कूल ही नहीं आ पाया था। वह इस हालत में ही नहीं था कि स्कूल की तरफ चक्कर ही काट पाता। पिछले तीन महीने से वह अस्पताल और घर के बीच ही चक्कर काटता रहा था। एक तरफ पिता थे जो सांस-सांस के लिए अस्पताल में लड़ रहे थे और दूसरी तरफ पूरी तरह से चरमरा गयी घर की हालत थी। पिता के इलाज के लिए पैसे कहीं से भी नहीं जुटाये जा सके थे। होने को दिल्ली में उन्हें ले जाने पर बेहतर इलाज की उम्मीद बंधती लेकिन उन्हें वहां तक ले जा पाने लायक हालत में नहीं था वह। अब घर में सबसे बड़ा वही था और घर की गाड़ी चलाने की जिम्मेवारी भी उस पर आ पड़ी थी। इस दौरान उसकी सारी शील्डें, पदक और कप वगैरह कबाड़ी बाजार के जरिये घर से औने पौने दामों में विदा हो चुके थे।<br />हम दोनों के लिए ही ये बेहद मुश्किल भरे दिन थे। मेरे घर की भी हालत ऐसी नहीं थी कि हम चारों भाई बहनों को फिर से उन्हीं कक्षाओं में पढ़ाया जाता। सबसे बड़े भाई पढ़ाई को हमेशा के लिए जय राम जी की कह की एक दुकान में मामूली से वेतन पर काम करने लगे थे। मुझसे बड़े भाई ने तो शर्म के मारे शहर ही छोड़ दिया था और दूसरे शहर में एक चाचा के पास रहते हुए बाटा की दुकान में हेल्परी की नौकरी पकड़ ली थी। उनकी नौकरी वैसे भी उसी दुकान पर पक्की थी। अगर बारहवीं पास कर लेते तो सीधे ही सेल्समैन बन जाते। लेकिन अब हेल्पर बन कर ही रह गये थे और उम्मीद कर रहे थे कि अगली बार विषय बदल कर बारहवीं की परीक्षा प्राइवेट छात्र के रूप में देंगे। <br />छोटी बहन की भी उम्र और छोटी कक्षा को देखते हुए उसकी पढ़ाई जारी रखी गयी थी। अब बचा था सिर्फ मैं। दसवीं में प्रथम श्रेणी और ग्यारहवीं में फेल। उम्र सिर्फ सत्रह बरस और चार महीने। वे मेरे लिए बेहद तनाव भरे दिन थे और कुछ नहीं सूझता था कि क्या किया जाये। बारहवीं की परीक्षा प्राइवेट तौर पर दी जा सकती थी लेकिन उसके लिए भी बोर्ड के नियमों के अनुसार ग्यारहवीं में फेल होने के बाद एक बरस का ब्रेक जरूरी था। अब मेरे सामने इस बात के अलावा कोई उपाय नहीं था कि पूरे डेढ़-दो बरस तक इंतजार करूं और उसके बाद ही बारहवीं की परीक्षा दूं। फिलहाल इस दौरान मेरे पास करने धरने को कुछ भी नहीं था। मेरे सब दोस्त स्कूल चले जाते और मैं मारा-मारा फिरता या घर पर रह कर मां बाप की डांट सुनता रहता। इतनी कम उम्र में नौकरी मिलने का सवाल ही नहीं था और ग्यारहवीं फेल को अपने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने भी कौन देता। दो एक परिवारों ने तरस खा कर प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेवारी दे दी थी लेकिन इन ट्यूशनों से पैसे इतने कम मिलते थे कि टाइपिंग सीखने की फीस का जुगाड़ भी न हो पाता। सिर्फ वक्त कटी का बहाना था। वक्त गुज़ारने और घर वालों की निगाह में एक दम नाकारा न बने रहने की वजह से टाइपिंग क्लास में दाखिला ले लिया था। कई बार दुकानों पर भी बैठ कर काम किया लेकिन कहीं भी टिक नहीं पाता था। शर्म आती और हर आदमी जैसे मुफ्त में हमालगिरी कराने की फिराक में रहता। उन दिनों नौकरी मिलना बहुत मुश्किल काम था और अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे लड़के रोज़गार दफ्तर के चक्कर काटते रहते और किसी भी तरह की नौकरी से चिपक जाने के लिए तैयार हो जाते। मेरी मुश्किल ये थी कि अट्ठारह बरस का होने से पहले रोज़गार दफ्तर में नाम भी नहीं लिखवा सकता था।<br />उधर शिब्बू को भी घर की हालत देखते हुए पढ़ाई जारी रख पाना मुश्किल लग रहा था। बेशक स्कूल ने अपने लालच के चलते उसे प्रवेश दे रखा था ताकि बाहर होने वाली प्रतिस्पर्धाओं में भेजे जाने के लिए कहने मात्र के लिए वह स्कूल का छात्र बना रहे। अलबत्ता, उसे सभी प्रतिस्पर्धाओं में पहले ही की तरह भेजा जाता रहा। कक्षाओं में वह शायद ही कभी आ पाता, क्योंकि पिता के मरने के बाद पूरा घर चलाने की जिम्मेवारी उस पर ही आ पड़ी थी। अब हमारी मुलाकातें भी पहले की तुलना में कम हो गयी थीं। मेरे पास टाइम ही टाइम था और उसके पास सबसे दुर्लभ वक्त ही था। सारी चीज़ें एकदम उसके खिलाफ हो गयी थीं। <br />अट्ठारह बरस पूरे होते ही हम दोनों ने एक साथ रोज़गार दफ्तर में नाम लिखवा लिया था और अब हम एक बेकार सी उम्मीद करने लगे थे कि किसी दिन हमारे लिए भी नौकरी के लिए काल लैटर आयेगा और हमें भी कोई अच्छी-सी नौकरी मिलेगी। शिब्बू और मैं, दोनों ही अपने-अपने तरीके से अच्छी नौकरी के लिए खुद को दावेदार मानते। शिब्बू के पास सैकड़ों की संख्या में स्पोर्ट्स के प्रमाण पत्र थे और वह प्रांतीय स्तर का धावक था जबकि मेरे पक्ष में हाई स्कूल की प्रथम श्रेणी और टाइपिंग की अच्छी स्पीड थी। जबकि सच हम जानते थे कि रोज़गार दफ्तर में हमसे पहले भी हजारों की तादाद में हमसे ज्यादा पढ़े लिखे लड़कों ने अपने नाम दर्ज करवा रखे थे और किसी भी नौकरी पर हमसे पहले उनका हक बनता था। लेकिन रिक्तियां इतनी कम निकलतीं कि एक एक पद के लिए पचास लोगों को काल लैटर भेजना मामूली बात थी। <br />और तभी सर्वे के दफ्तर में असिस्टेंट केयर टेकर की रिक्ति आयी थी। एक ही पद था और संयोग से मुझे भी कॉल लैटर आ गया था। दरअसल मुझे इतनी जल्दी कॉल लैटर मिलने के पीछे का किस्सा ये था कि जो आदमी रोज़गार दफ्तर में कॉल लेटर निकालता था, वह हमारे बड़े मामा जी यानी नानी के भाई की राशन की दुकान से राशन उधार लिया करता था। वह अक्सर बड़े मामा जी की दुकान पर आता था। मामाजी को मेरी हालत के बारे में पता था और ये भी पता था कि मैं टाइपिंग वगैरह सीख रहा हूं। उन्हेंने ही मुझसे मेरा एक्सचेंज के कार्ड नम्बर मांग रखा था कि मौका लगने पर उसे दे देंगे। अब सर्वे की पास्ट आने पर उससे कह कर मामा जी ने मेरा कार्ड निकलवा दिया था। बड़ी अजीब सी थी ये पोस्ट। न क्लास थ्री में और न क्लास फोर में। बीच का पद था ये। क्लास फोर में इसलिए नहीं था कि इस पद पर आदमी को चपरासियों की तरह वर्दी नहीं पहननी पड़ती थी और क्लास थ्री में इसलिए नहीं था कि इस पद से बाकी क्लर्कों की तरह यूडीसी वगैरह में प्रोमोशेन नहीं था। अलबत्ता, इस पद के साथ कुछेक फायदे जुड़े हुए थे। मसलन इस्टेट में रहने को मकान और बिजली पानी भी फ्री। मामाजी का ये मानना था कि किसी तरह से इस पोस्ट से एक बार चिपक तो जाओ, बाद में पढ़ाई भी करते रहना और दूसरी भर्तियां होने पर डिपार्टमेंटल केंडीकेट के नाते हर बार एग्जाम देते रहना। तब अपना आदमी एक्सचेंज में रहे न रहे, क्या गारंटी। इस समय तो उसने खुद ही कार्ड निकाल कर दिया है। किसी तरह घुस जाओ सर्वे में। <br />मैं अजीब दुविधा में था। हाइ स्कूल में फर्स्ट क्लास और काम घर-घर जा कर लीक करते नलके और बिजली की फिटिंग चेक करना। चार घंटे सुबह ड्यूटी और चार घंटे शाम। रहने के लिए क्लास फोर कालोनी में ही मकान। वहां पर रहना जरूरी। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं। घर वालों का भी यही मानना था कि आगे की पढ़ाई तो वैसे भी प्राइवेट करनी है तो क्या दिक्क्त। और फिर छोटा-सा ही सही, बिना किराये का मकान भी तो मिल रहा है साथ में। वर्दी तो पहननी नहीं है कि चपरासी कहलाओ। वैसे भी ये पद चपरासी का तो है भी नहीं। <br />पता नहीं कैसे हुआ था कि पिताजी के कोई परिचित सर्वे में निकल आये थे जिन्होंने मुझे वहां पर फिट कराने की जिम्मेवारी ले ली थी। मैं अपने आने वाले जीवन को ले कर बेहद परेशान था कि क्या होगा और कैसे होगा। ये तय था कि मुझे अभी और आगे पढ़ना था लेकिन जो हालात मेरे चल रहे थे उसमें तो मुझे बारहवीं का फार्म भरने के लिए भी पैसे घर से ही मांगने पड़ते। <br />इसी परेशानी के आलम में मैं शिब्बू के पास गया था और उसे सारी बात बतायी थी। वह काफी देर तक मेरी बात सुनता रहा था और सिर्फ हां हूं करता रहा था। कहा कुछ भी नहीं था उसने। <br />ये तो लिखित परीक्षा वाले हॉल में जा कर ही पता चला था मुझे कि शिब्बू भी उसी पद के लिए एक केंडीडेट है। मैं इस बात को ले कर हैरान हो रहा था कि मैं तो उसके घर पर जाकर अपने बारे में बात कर के आया था और उसने इस बात का ज़िक्र तक नहीं किया था। लेकिन अब उसे देख कर मैं सचमुच चाहने लगा था कि उसका ही चयन हो जाये। उसकी जरूरत मेरी जरूरत से ज्यादा बड़ी थी। <br />लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के आधार जो सूची बनी थी उसमें मैं पहले स्थान पर और शिब्बू का नाम दूसरे स्थान पर था। पिताजी के परिचित ने अपना वायदा निभाया था। अभी भी मैं चाह रहा था कि ये पद शिब्बू को ही मिले तो बेहतर। और जब नियुक्ति पत्र शिब्बू के नाम आया तो मुझे कोई हैरानी नहीं हुई थी। बाद में पिताजी के उस परिचित से ही पता चला था कि शिब्बू के कोई चाचा उसकी मां को ले कर चयन समिति के अध्यक्ष से मिले थे और शिब्बू की उपलब्धियों और जरूरत के आधार पर शिब्बू के लिए ये नौकरी दिये जाने की सिफारिश की थी। चयन समिति के अध्यक्ष से कोई नजदीकी रिश्तेदारी भी निकाल ली गयी थी। इस बात का शिब्बू को भी बहुत बाद में पता चला था। मुझे पता था, वह अपनी ओर से इस तरह से कभी भी न जाता। <br />शिब्बू ने वहां ज्वाइन कर लिया था। मैं उसे बधाई देने गया था और इस बात का बिल्कुल भी ज़िक्र नहीं किया था कि उसने इस बारे में मुझसे सारी बातें छुपायी क्यों। बल्कि मैं अब चयन न हो पाने की वजह से राहत ही महसूस कर रहा था कि अब मेरे पास पढ़ाई जारी रखने का कम से कम बहाना तो बना रहेगा। मैंने तय कर लिया था कि जैसे भी हो, अब जम कर पढ़ाई करनी ही है। <br />अब हमारी मुलाकातें कम होतीं। उसकी नौकरी के घंटे ही उसे इस बात की इजाज़त न देते कि वह कहीं आ जा सके। घर मिल जाने से उसका परिवार सड़क पर आ जाने से बच गया था और उसके भाई बहनों की पढ़ाई का ठीक ठाक सिलसिला बन गया था। <br />नौकरी में आ जाने के कारण उसका स्कूल लगभग छूट चुका था। वैसे कहने का अभी भी उसका नाम कटा नहीं था लेकिन नौकरी के चक्कर में अब वह स्थानीय प्रतिस्पर्धाओं में भी हिस्सा नहीं ले पाता था। अब उसका सारा समय टूटे नलके ठीक कराने और बंद नालियां साफ करवाने में जाने लगा था। <br />तब तक मैंने भी खूब मेहनत करके कला विषय ले कर बारहवीं की परीक्षा अच्छी सेकेंड डिवीजन में पास कर ली थी। अब मेरे पास कुछ अच्छी ट्यूशनें भी थीं और एक काम चलाऊ नौकरी भी। आगे पढ़ने की अपनी ललक को जारी रखते हुए मैंने मार्निंग क्लास में बीए में दाखिला ले लिया था। अब शिब्बू से मेरी मुलाकातें और भी कम हो पातीं। मैं सुबह छ: बजे ही निकल जाता। नौ बजे तक कॉलेज एटेंड करता और सीधे नौकरी पर भागता। नौकरी से छूटते ही ट्यूशन के लिए लपकता। बहुत ज्यादा न मिल पाने के बावजूद हमें एक दूसरे की पूरी खबर रहती थी। हम जब भी मिलते, पहले की-सी गर्मजोशी से ही मिलते थे। <br />मेरी किस्मत अच्छी थी कि बीए करते ही मुझे स्टाफ सेलेक्शन के जरिये दिल्ली में शिक्षा मंत्रालय में असिस्टैंट की नौकरी मिल गयी थी। दिल्ली जाने से पहले मैं दो बार उससे मिलने गया था लेकिन वह दोनों ही बार इस्टेट आफिसर के साथ कालोनी की अपनी रूटीन विजिट पर गया हुआ था और उसे आने में कम से कम दो घंटे लगते। मैं उसके नाम चिट्ठी छोड़ कर आ गया था। <br />दिल्ली आ कर भी मैं टिक कर नहीं बैठा था और लगातार पढ़ाई करता और परीक्षाओं में बैठता रहा था। मेरे भाग्य का सितारा बुलंदी पर चल रहा था और तीसरे प्रयास में मैं आइएएस में आ गया था। मेरे लिए ये बहुत ऊंची छलांग थी। सिर्फ दस बरस मे ही ये कमाल हो गया था कि मैं ग्यारहवीं फेल निट्ठले से काम का आदमी बन गया था। मैं हालांकि ट्रेनिंग पर मसूरी में ही था लेकिन कई बार अपने घर देहरादून आने के बाद भी मैं शिब्बू से मिलने नहीं जा पाया था। हालांकि हमेशा मिलना चाहता रहा। हां, उससे बीच बीच में पत्राचार होता रहा था जो वक्त के साथ साथ कम होते हुए बाद में बंद ही हो गया था। शिब्बू की शादी हो गयी थी और वह अपने परिवार और ड्यूटी में पूरी तरह से रम गया था। इस बीच मैं भी अपने परिवार और कैरियर में रम गया था। लगातार अलग-अलग शहरों में पोस्टिंग के चक्कर में और दूसरी व्यस्तताओं के चक्कर में उससे कई बरस तक मिलने जाना नहीं हो पाया था। <br /> मैं तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता हुआ संयुक्त सचिव के वरिष्ठ पद तक पहुंच गया था। <br />कोई बीस बरस बाद मैं एक बार फिर अपने शहर में था। छुट्टी का दिन था और मैं खाली था। कोई और काम न होने के कारण मैं शिब्बू से मिलने चला गया था। <br />इस बार मैं पूछता-पाछता शिब्बू के घर ही चला गया था। पता चला था कि वह ऑफिस में ही है। उसके बीवी बच्चों से मैं कभी नहीं मिला था इसलिए परिचय देने की कोई तुक नहीं थी। उसके ऑफिस में जा कर पता चला कि वह अपने किसी सीनियर अफसर के साथ इस्टेट विजिट पर गया हुआ था। इस बार भी मैं उससे नहीं मिल पाया था। <br />बस, इस बीच एक ही फर्क मैं देख पा रहा था। अब उसकी मेज पर जो नेम प्लेट रखी हुई थी, उस पर असिस्टैंट केयर टैकर के बजाय केयर टेकर लिखा हुआ था। उसे बीस बरस में एक पदोन्नति मिली थी। काम शायद वह अभी भी वही कर रहा था। <br />वापिस आते समय मैं सोच रहा था कि ये भी तो हो सकता था कि इस नेम प्लेट पर शिव प्रसाद पंत की जगह मेरा नाम होता। <br />होने को तो ये भी हो सकता था कि शिव प्रसाद पंत तब राष्ट्रीय चयन शिविर में जा पाता और उसका वहां पर चयन हो गया होता। <br />सूरज प्रकाश<br />मेरी लघु कथाएं और रचनाएं पढ़ने के लिए कृपया मेरा दूसरा kathaakar.bllogspot.com देखेंसूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-71887517395509935582008-05-05T11:06:00.001+05:302008-05-05T11:08:19.675+05:30बारहवीं कहानी - रंग–बदरंगउन्हें दूसरे पैग से नशा होने लगा है। दिमाग में हल्की–हल्की सी झनझनाहट शुरू हो गयी है। कुछ भी सिलसिलेवार नहीं सोच पा रहे हैं। `ऑन द राक्स' व्हिस्की के गिलास पर बार–बार पानी की बूँदें जम जाती हैं। वे उन बूँदों को बड़ा होते और गिलास के पैंदे की तरफ तेजी से बढ़ते देखते हैं और अपने माथे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछते हैं। सोचते हैं–गिलास भीतर से भी ठण्डा है और बाहर से भी। परन्तु उनका माथा! भीतर से किसी भट्टी के मानिन्द तप रहा है और बाहर से सारा बदन पसीने से तर–बतर है। वे एक लम्बा घूँट भरते हैं।<br /> जैसे–जैसे उसके आने का वक्त नजदीक आ रहा है, उनकी घबड़ाहट बढ़ती जा रही है। पता नहीं कौन होगी! देखने में कैसी होगी! किस तरह से पेश आएगी! वेटर तो यही बता रहा था, कहीं नर्सिंग का कोर्स कर रही है। हर रोज या हर तरह के ग्राहक नहीं लेती। उनके लिए खास तौर से शाम फ्री रखी है उसने। वे घड़ी देखते हैं – सात पैंतीस। अभी पूरे पचपन मिनट बाकी हैं उसके आने में। एक घूँट भरते हैं वे। उठकर कमरे की खिड़की पर आ खड़े हुए हैं और कमरे में बज रहे संगीत की लहरियों के साथ ताल देने लगे हैं। अपनी टाँगों में कँपकँपाहट महसूस करते हैं। डर अभी भी उन्हें घेरे हुए है। कहीं ऐन वक्त पर कुछ ऐसा–वैसा न कर बैठें। इसीलिए खुद को नशे में पूरी तरह खो देना चाहते हैं। कहीं पढ़ा था, आप जो कुछ पूरे होशो–हवास में नहीं कर सकते, नशे की आड़ में आराम से कर सकते हैं। परन्तु उन्हें लगता है नशा उनकी घबड़ाहट भी बढ़ा रहा है। <br />वे खुद उस लड़की से कैसे पेश आएँगे! वह सब कुछ कर भी पाएँगे, जिसके लिए अपने शहर से सैकड़ों मील दूर इस शहर में एकान्त होटल में गलत नाम से टिके हुए हैं। कितनी तो मुश्किलों से यह सब करने के लिए यहाँ आ पाए हैं। वेटर से सब कुछ तय करने में ही उसकी आधी जान सूख गयी थी।<br /> वे हौले–हौले चलकर सोफे तक आते हैं। साँस फूल गयी है। धम्म से बैठकर आँखें मूँद लेते हैं। नशा पोर–पोर तक पहुँच गया। काफी देर तक यूँ ही बैठे रहते हैं, आँखें बन्द किए। अचानक दरवाजे पर खटका हुआ है। एकदम चौंककर आँखें खोलते हैं–आ गयी शायद। उनके दिल की धड़कन फिर तेज हो गयी है। रक्तचाप तेजी से बढ़ता प्रतीत होता है। उठते हैं। हाथ से ही मुँह पोंछते हैं और कदमों को सन्तुलित करते हुए दरवाजे तक जाते हैं। रूम सर्विस वाला वेटर है। <br />`सर, और कुछ चाहिए?' वह बहुत नम्रता से पूछता है। वे राहत की साँस लेते हैं। अच्छा ही हुआ, अभी नहीं आयी। वे खुद को उसके लिए पूरी तरह तैयार ही कहाँ कर पाए हैं। वेटर को मना कर देते हैं, `नहीं कुछ नहीं चाहिए।' दरवाजा बन्द करके बिस्तर पर आ बैठते हैं। दोनों तकिये की पाटी पर टिकाकर अधलेटे हो गए और आँखें मूँद लीं।<br /> वे फिर से उस लड़की के बारे में सोचना चहते हैं। बन्द आँखों में उसकी छवि बनाना चाहते हैं ताकि जब वह आए तो उसे अपनी कल्पना के अनुरूप पाएँ। किसी अजनबी खूबसूरत चेहरे का अक्स आँखों में बने, इससे पहले ही पत्नी का खयाल आ जाता है। एकदम उठ बैठते हैं। मूड़ बदमजा हो गया। बड़बड़ाते हैं, `कम्बख्त से जितना बचना चाहता हूँ, उतना ही पीछा करती है। कम–से–कम यहाँ तो पिण्ड छोड़े।' वे फिर बेचैन हो गए हैं। कमरे में तेजी से टहलने लगे हैं। एक नया पैग बनाते हैं और गिलास को दोनों हाथों में थामकर एक लम्बा घूँट भरते हैं।<br /> उसी की वजह से तो मेरी यह हालत हो गयी है, वे सोचते हैं। कितने साल हो गए, इस तरह से असहज, तनावग्रस्त अधूरा जीवन जीते हुए। एक पूर्ण पुरूष से घटते–घटते वे कितने अधूरे–अधूरे से हो गए हैं। कहीं भी तो उन्हें अपने पूरेपन का अहसास नहीं मिल पाता। न पिता के रूप में, न पति के रूप में। न घर में, न दफ्तर में। हर वक्त जैसे कुछ झरता रहता है उनके व्यक्तित्व से। कच्ची ईंटों के मकान की तरह। एक भरे–पूरे घर से घटते–घटते वे एक चलता–िफरता खण्डहर रह गए हैं। वे यकायक उदास हो गए हैं। फिर सोफे पर आ बैठते हैं।<br /> कमरे में अँधेरा पूरी तरह पसर गया है। सब कुछ अब सुरमई दिखाई दे रहा है। उठकर बत्ती जलाना चाहते हैं, नहीं उठ पाते। बैठे रहते हैं। थोड़ा सहज होने पर अपने हाथों के सफेद चकते देखने लगते हैं। निर्विकार भाव से देखते रहते हैं। उँगली की पोर से बायीं बाँह के एक चकते को सहलाते हैं। कुछ भी महसूस नहीं होता। उँगली फिराते–िफराते हाथ के उस हिस्से पर लाते हैं जहाँ दाग नहीं है। वहाँ भी कुछ महसूस नहीं होता। बारी–बारी से दोनों हथेलियों को निहारते हैं। तर्जनी से अँगूठे को कई बार छूते हैं। कोई चिपचिपाहट नहीं। कोई लेसदार द्रव नहीं है वहाँ। कहीं कुछ भी ऐसा नहीं जिससे उन्हें वितृष्णा हो। सब कुछ ठीक–ठाक तो है। तो फिर क्यों इतने वर्षों से इन चकतों ने, सफेद दागों ने उनके जीवन में जहर घोल रखा है। क्यों उन्हें हर समय यह अहसास कराया जाता है कि वे बीमार हैं। सामान्य नहीं हैं। उनके मन में गहरे तक यह बात बिठा दी गयी है कि इन सफद दागों की वजह से, ल्यूकोडर्मा की वजह से उन्हें कभी शांति से जीने नहीं दिया जाएगा। इसी अहसास को ढोते–ढोते उन्होंने कितने बरस गुजार दिए हैं, तिल–तिल कर जीते हुए। खुद को जबरदस्ती बीमार मानकर। इस बीमारी को ढोते हुए। खुद उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान, निरादर, क्या–क्या नहीं झेलना पड़ा है उन्हें इनकी खातिर! वे खुद से पूछना चाहते हैं, क्या कुसूर था मेरा! कौन से कर्मों की सजा भोग रहा हूँ मैं। न मन का चैन है, न तन का आराम।<br /> वे याद करते हैं अपने बचपन के दिन। युवावस्था के दिन। अभावों के बावजूद पिता ने उन्हें कभी यह महसूस न होने दिया कि उनके लिए, उनकी पढ़ाई के लिए कहीं कोई कमी है। पिता ने उन्हें महत्वाकांक्षी होना सिखाया था। ऊपर, और ऊपर उठना। अपने बलबूते पर सब कुछ हासिल करना। वे सचमुच खुद को पिता की इच्छाओं के अनुरूप ढालने लगे थे। पिता गर्व में सीना फुलाते थे, `मेरा बचवा जरूर एक दिन बड़ा आदमी बनेगा।' लेकिन शायद पिता यह भूल गए थे कि आदमी का केवल महत्वाकांक्षी होना ही काफी नहीं होता। अपने सपनों को साकार करने के लिए, अपने वजूद की लड़ाई लड़ने का माद्दा होना भी जरूरी होता है। उन्हें पिता ने यह तो सिखाया था कि अपनी रोटी ईमानदारी से कैसे हासिल की जाए लेकिन यह दाँवपेंच नहीं सिखाया था कि अगर कोई तुम्हारे हाथ की रोटी छीन ले तो क्या करना चाहिए। आज की दुनिया पटकनी देने वालों की ही दुनिया है, यह उनके पिता ने नहीं बताया था और यहीं वे चूक गए थे। जिन्दगी में बहुत कुछ हासिल किया था उन्होंने अपने बलबूते पर। अपनी काबलियत और योग्यता के बल पर। लेकिन जो कुछ पाया था, उससे और अधिक पाने की कोशिश में वह सब भी गँवा बैठे थे। एक बार जो फिसले हैं, उससे कभी उबर नहीं पाए हैं। नीचे, और नीचे गिरते चले गए हैं। इतना नीचे कि अब ऊपर उठना तो दूर, इज्जत से खड़े हो पाना भी दूभर हो गया है उनके लिए।<br /> बहुत ही कम उम्र में वे कैरियर के उस मुकाम पर पहुँच गए थे, जहाँ लोग अक्सर रिटायरमेंट के आसपास पहुँचते हैं। अच्छी नौकरी, पढ़ी–लिखी बीवी, अच्छा घर–बार। सब कुछ तो जुटा लिया था उन्होंने । अब उनका लक्ष्य अपने विभाग का अध्यक्ष बनना था। उसी के लिए जुटे हुए थे। पद साक्षात्कार द्वारा भरा जाना था और इसके लिए गिने–चुने उम्मीदवार थे। वे ही सबसे योग्य, अनुभवी और वरिष्ठ थे। उन्हीं का पलड़ा भारी होना चाहिए था। उन्हें पूरा विश्वास था, वहाँ तक पहुँचने में उन्हें कोई नहीं रोक सकता। लेकिन यहीं वे गच्चा खा गए थे। उनसे बहुत ही कनिष्ठ, कम योग्य और उन्हीं के अधीन काम कर रहे एक जूनियर ने राजनीति का सहारा लेकर गोटियाँ अपने पक्ष में करनी शुरू कर दी थीं। उन्हें इस तरह के खेलों का अनुभव नहीं था। हमेशा खुद की काबलियत के सहारे आगे बढ़े थे, समझ नहीं पा रहे थे, क्या करें। सिर्फ भाग्य के भरोसे रहना अब सम्भव नहीं था। अभी इस ऊहापोह से उबरे नहीं थे कि घर से पिता की बीमारी का तार आ गया। हाथ–पाँव फूल गए थे उनके। क्या करें! किसे छोड़ें।<br /> बड़ी विकट स्थिति थी। एक तरफ कैरियर था। दूसरी तरफ दम तोड़ते पिता। तार से सिर्फ इतना ही संकेत मिला था कि पिता की हालत नाजुक है। उन्हें अचानक क्या हुआ है, इसकी बाबत कुछ नहीं लिखा था। अगर वे रात की गाड़ी पकड़ लें तो भी कल दोपहर से पहले गाँव नहीं पहुँच पाएँगे और फिर पता नहीं वहाँ कितने दिन रूकना पड़े। साक्षात्कार भी दो दिन बाद है, जिसे किसी भी हालत में स्थगित नहीं किया जा सकता। यह पद उनका कितना पुराना सपना था, उसके लिए एकमात्र अवसर कैसे छोड़ सकते थे। जूनियर की राजनीति से पहले ही परेशान थे, पिता की बीमारी के समाचार ने हालत और पतली कर दी थी। कुछ भी तय नहीं कर पा रहे थे। पिता के लिए उनके मन में गहरा सम्मान था। एक वे ही तो थे जिनकी वजह से वे आज यहाँ तक पहुँच पाए थे। अब उन्हीं की बीमारी ने उन्हें दुविधा में डाल दिया है। अजीब साँसत में फँसे थे वे।<br /> बहुत सोचने–समझने के बाद उन्होंने साक्षात्कार दिया था और सीधे वहीं से गाँव के लिए रवाना हो गए थे। दुर्भाग्य की पहली किस्त वहाँ उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। पिता दम तोड़ चुके थे। अगर उन्हें थोड़ी देर हो जाती तो पिता को मुखाग्नि देना भी नसीब न होता उन्हें। पत्नी और बेटी तो तीसरे दिन ही पहुँच पाए थे। चूक गए थे वे। उन्हें यही लगता रहा, उनके प्रेरणा स्तम्भ पिता उनकी इस सफलता का समाचार सुनकर ही मरेंगे। इसीलिए वे साक्षात्कार देकर आए थे।<br /> भारी मन से अन्तिम रस्में अदा की थीं। पिता की थोड़ी बहुत संपत्ति की कामचलाऊ व्यवस्था करने लौट आए थे। पूरी तरह टूटे हुए। यहाँ दूसरा सदमा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। उस कनिष्ठ अधिकारी का चयन कर लिया गया था। वे यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाए थे। गहरी पीड़ा और तनाव लिए वे अपने कमरे में बन्द हो गए थे। रात भर छटपटाते, रोते रहे थे। दुर्भाग्य ने अभी अपनी पूरी गठरी नहीं खोली थी। उन्हें अभी बहुत कुछ झेलना था।<br /> रातों–रात काया–कल्प हो गया था और सबेरे जब वे उठे थे तो भाग्य एक और खेल दिखा चुका था। वे ल्यूकोडर्मा के शिकार हो गए थे। एक साथ इतने सदमे! वे बदहवास हो गए थे और अपने बाल, कपड़े नोचने लगे थे। बहुत भाग–दौड़ की गयी। हर तरह का इलाज आजमाया गया। न सफेद दाग गए और न वे तनाव–मुक्त हो पाए। हर दिन बीतने के साथ दोनों बढ़ते रहे। डाक्टरों का कहना था, यह सब इनके सदमों के कारण हुआ है। अगर मरीज साथ दे और तनाव भूल कर सहज हो जाए तो दवाएँ असर कर सकती हैं। परन्तु उनके लिए सब कुछ भूल पाना इतना आसान न था। वे रोग बढ़ाते रहे। तनाव झेलते रहे।<br /> सबने उम्मीद छोड़ दी थी। वे खुद पूरी तरह हताश, निराश थे। लम्बे अरसे तक छुट्टी पर रहने के बाद जब वे आफिस गए तो सभी महत्वपूर्ण पोर्टफोलियों उनसे लिए जा चुके थे। उनके पर कतर दिये जाने से उनके ठीक होने की रही–सही उम्मीदों भी खत्म हो गयी थीं। वे बेहद कमजोर, असहाय और अकेले रह गए थे।<br /> ऐसे में पत्नी ही थी, जिसके पास वे जा सकते। दुनिया भर से बटोरा हुआ दुख–दर्द जिसके आँचल में उढ़ेल कर हलके हो सकते। परन्तु दुर्भाग्य ने इस दरवाजे पर भी दस्तक दे दी थी। सबसे पहले पत्नी ने ही उन्हें यह अहसास कराया कि वे अब वह नहीं रहे। उनकी जगह, मर्यादाएँ, सम्बन्ध सब कुछ एक ही झटके में बाँध दी गयीं। उसका सहारा था, उसी ने हाथ खींच लिया। बीमारी ने, आघातों ने उन्हें लाचार कर दिया था, बीवी की बेरूखी ने उन्हें बेचारा बना दिया।<br /> काश! पत्नी ने एक बार तो कहा होता, `नहीं, यह कोई असाध्य रोग नहीं। आप चिन्ता न करें, मैं आपके साथ हूँ। आपकी हर तरह से सेवा करके आपको चंगा कर दूँगी?' लेकिन नहीं। सबसे पहली लक्ष्मण रेखा उसी ने तो खींची थी। जब उनके शरीर पर ये चकते उभरने शुरू हुए थे और लाइलाज लगने लगे थे तो उसी ने एक दूरी बनाए रखना शुरू कर दिया था। अपना बिस्तर अलग कर लिया था। वे रात भर करवटें बदलते रहते। बहुत जिद करने पर ही पास आती। मुँह से कुछ न कहती पर जो कुछ जतलाया जाता उससे उनका सारा उत्साह मर जाता। पत्नी के ठण्डे शरीर से कब तक उलझते। लौट आते अपने बिस्तर पर। पस्त, टूटे हुए। मन पर एक दाग और लिए हुए। उन्हें लगने लगता, ये दाग सिर्फ सफेद दाग नहीं हैं, इनमें कीड़े रेंग रहे हैं, जो उन्हें समूचा कुतर रहे हैं। धीरे–धीरे। हर वक्त।<br /> धीरे–धीरे दोनों के बीच खाई बढ़ती गयी थी। दोनों चिड़चिड़ाये रहते। संवाद उस बिन्दु पर आकर ठहर गए थे जहाँ कहने न कहने से कोई अंतर नहीं पड़ता। केवल शब्दों के जरिए रिश्ते कब तक जिये जाते। वे तनहा होते चले गए थे। हर रात उन्हें जलती चिता पर आत्मदाह करने जैसी लगती। इसी आग में वे कब से तप रहे हैं। ज्वालामुखी भरता चला गया है।<br /> इस लम्बी तनहाई में वे अपनी बिटिया को बहुत पीछ़े छोड़ आए हैं। पाँच बरस की थी जब उन्हें यह रोग लगा था। पूछती थी भोलेपन से, `पापा आपके बदन पर ये दाग कैसे? आप ठीक तो हो जाएँगे न पापा', हम बड़े होकर डाक्टर बनेंगे पापा और आपका इलाज करेंगे।' ऐसे ही ढेरों सवाल हर वक्त उनके हौंसले को बढ़ाते। वे क्या जवाब देते। टाल जाते सवालों को। फिर धीरे–धीरे वह बड़ी होने लगी थी। मम्मी की देखादेखी दूर होती चली गयी थी। पत्नी ने सिर्फ तनहाई दी थी, बिटिया खालीपन छोड़ रही थी उनकी जिन्दगी में। कहाँ तो हर वक्त लाड़ लड़ाती, दुनिया भर की चीजें माँगती और कहाँ अब कन्नी काटने लगी थी। वे सब समझ रहे थे। भीतर–ही–भीतर रोते थे, लेकिन जब उसकी तरफ बढ़ाए हुए उनके हाथ खाली रह जाते, तो चुपचाप अपने कमरे में चले जाते, जहाँ रात भर घुटते रहते। <br />पल–पल सीने पर पर हजार–हजार हथौड़ों के बार सहते कितने बरस गुजार दिए हैं। कब से बिटिया के सिर पर हाथ नहीं फेरा है, उससे लाड़ नहीं लड़ाया है। अब तो वह सत्रह की हो गयी है। इन्टर में है, उन्हें तो यह भी पता नहीं होता कौन–कौन से विषय पढ़ती है। क्या खाती–पीती है। नहीं पता उन्हें कि वह इन बारह वर्षों में कहां की कहां पहुँच गयी है। वे तो अभी भी उसे पाँच बरस की बच्ची की तरह दुलराना चाहते हैं। उफ! अब तो सब कुछ इतिहास हो गया है।<br /> क्या कुछ नहीं किया उन्होंने इस रोग से निजात पाने के लिए–देसी, विदेशी दवाएँ, धूप–स्नान, रबड़ और प्लास्टिक से परहेज, कॉफी, मसालों से तौबा। जिसने भी जो इलाज सुझाया, आजमा कर देखा। ठीक नहीं होना था, नहीं हुए। बल्कि दाग बढ़ते गए। कभी लगता, कुछ दाग गायब हो रहे हैं, पर अगली बार वहाँ पहले से बड़े चकते उभर आते। भीतर–ही–भीतर हताश होने लगे थे वे उन दिनों। लगातार बढ़ता रोग, पत्नी की बेरूखी, रिश्तेदारों की मुँह जवानी सहानुभूति, यारों–दोस्तों के व्यवहार में उभरता ठण्डापन। अब पीठ पीछे उनका उपहास उड़ाया जाने लगा था। लोग उन्हें पीठ पीछे बदरंग शास्त्री के नाम से पुकारने लगे थे। वे निरीह से सब कुछ देखते। कई बार लोग उनके सामने भी कुछ ऐसा–वैसा कह देते, जिससे वे तिलमिला जाते, लेकिन खुद पर खीझ उतारने के अलावा कुछ न कर पाते।<br /> धीरे–धीरे उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ने लगा था। सारे दबाव झेलते–झेलते वे शायद विद्रोह करने लगे थे। उनकी हरकतें अजीब होने लगीं थी। एक बार अड़ गए, उनकी स्टेनों की मेज उनके केबिन में लगायी जाए। पूरे ऑफिर में हंगामा मच गया। उन्हें समझाया गया, `यह उनके पद, गरिमा के खिलाफ है, लेकिन नहीं माने थे वे। सबसे लड़ते रहे। जी.एम. तक बात पहुँची। डॉक्टर बुलवाया गया, जिसने उन्हें आराम करने की सलाह देकर घर भेज दिया। तब से उनके लिए पुरूष स्टैनो ही रखे गए हैं। वे छोटी–छोटी चीजों जैसे पेंसिल, रिफिल या राइटिंग पैड के लिए पूरा ऑफिस सिर पर उठा लेते। एक ही कागज दसियों बार टाइप कराते। उन्हें हमेशा शिकायत रहती उनका स्टाफ काम नहीं करता। नया स्टाफ दिए जाने पर कहते, `इससे तो पहले वाला अच्छा था, वही वापिस दिया जाए। हर समय बड़बड़ाते रहते। लोग कभी छेड़ते, कभी सहानुभूति दर्शाते। एक बार उन्होंने एक अखिल भारतीय संघ बनाने की घोषणा कर डाली थी जो देश में हर तरह की ज्यादतियों, भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ लड़ेगा। उनके अनुसार देश के राष्ट्रपति इस संघ के संरक्षक और वे खुद मानद अध्यक्ष बनने वाले थे। कई दिन तक वे इसी में उलझे रहे। सबसे सदस्य बनने के लिए कहते फिरे।<br /> एक और आदत पड़ गयी थी उनकी। वे बहुत कंजूस हो गए थे। इतने बड़े पद पर होने के बावजूद ट्रेन में सेकेंड क्लास में आते। बस की लाइन में कोई परिचित चेहरा तलाशते जो उनके लिए भी अठन्नी का टिकट खरीद ले। उन्होंने बैठकों आदि में पैड या दूसरों के फोल्डरों से पैन आदि निकालने शुरू कर दिए थे। काफी दिनों तक उनकी यही हालत रही। जिन्दगी के हर मुकाम पर वे नीचे गिरते जा रहे थे। अपनी इज्जत खुद गँवा रहे थे। उनमें सेल्फ रिस्पेक्ट बची ही न थी। हर समय दीनता की मूर्ति बने रहते। सहानुभूति बटोरते रहते। बात शुरू करने की देर होती, कुछ भी अनर्गल बातें शुरू कर देते। बैठकों में एक बार बोलना शुरू करते, तो पूरा समय बोलते ही रहते। उन्हें हाथ पकड़कर बिठाना पड़ता। एक बार तो किसी सेमिनार में वे मुख्य अतिथि का परिचय कराने खड़े हुए, पचपन मिनट तक बोलते रहे। मुख्य अतिथि के लिए सिर्फ पाँच मिनट बचे थे।<br /> वे साफ–साफ महसूस करते हैं कि लोग उनसे हाथ तक मिलाने से कतराते हैं। कभी कोई उनका आगे बढ़ा हुआ हाथ थाम भी लेता है तो यह बात उनकी नजरों से छुपी नहीं रहती कि उनसे हाथ मिलाकर लोग अपना हाथ पैंट से पोंछ लेते हैं। मानो उनके हाथों से कोई लिसलिसा पदार्थ निकलकर सामने वाले के हाथ पर लग गया हो, लड़कियाँ तो दूर, लड़के भी उनके सैक्शन में काम नहीं करना चाहते। बाकी अफसरों के केबिनों में आफिस की लड़कियों की हाहा हूहू हर वक्त गूँजती रहती है। एक उन्हीं का केबिन है, कोई पास तक नहीं फटकता। लोग बुलाने पर भी नहीं आते। वे बेशक किसी की बाट नहीं जोहते, पर बार–बार जानबूझ कर दुत्कारे जाने की सी हालत में भी वे खुद पर काबू पाने की कोशिश करते हैं। हर वक्त भीतर से खौलते रहते हैं, तिल–ितल कर अपमानित होते रहते हैं, पर इन कमबख्त सफेद दागों ने न केवल उनसे उनका व्यक्तित्व छीन लिया है, उनका आत्मविश्वास बिल्कुल चुक गया है। वे जहाँ भी होते है, वहीं अन्वांटेड समझ लिए जाते हैं। लोग उनसे मिलने से पूर्व ही उनके बारे में पूर्व धारणाएँ बना लेते हैं। कोई उनसे खुलकर बात नहीं करता। उनके साथ ठहाके नहीं लगता।<br /> उन्हें हर वक्त, हर तरह से याद दिलाया जाता है, उनका शरीर ही नहीं, उनका व्यक्तित्व, उनका पुरूष, उनका मान–सम्मान सब कुछ दागदार है। उन्हें ढंग से जीने, लोगों के साथ हँस–बोल कर बात करने का कोई अधिकार नहीं है। शरीर का हर दाग उन्हें आइसबर्ग की तरह लगता है। शरीर के भीतर दस गुना बड़ा। और जितना कष्ट ये दाग बाहर से देते हैं, उससे कई गुना दर्द वे भी भीतर–ही–भीतर झेलते रहते हैं हर वक्त।<br /> सोचते–सोचते उन्हें पता ही नहीं चला कि वे कब रोने लगे। उनका पूरा चेहरा आँसुओं से तर–ब–तर हो गया है। उन्होंने चौंक कर आस–पास देखा। नहीं कोई नहीं है इस अँधेरे कमरे में। अकेले हैं वे। हाथ में कब से खाली गिलास पकड़े बैठे हैं। हौले से गिलास रखते हैं। उठ कर बत्ती जलाकर बाथरूम तक जाते हैं। मुँह पर पानी के छींटे मारते हैं। मुँह पोंछते वक्त शीशे में अपना अक्स देखते हैं। बाल ढलती उम्र की गवाही दे रहे हैं। पूरा माथा, बायीं आँख का हिस्सा, दोनों गाल और मुँह के आस–पास का हिस्सा एकदम सफेद हैं। बाकी रंगत गेहुआँ है। देर तक खुद को यूँ ही देखते रहते हैं। याद करने की कोशिश करते हैं, कैसा लगता था तब उनका चेहरा। धुँधली–सी याद ही बची है। जो कुछ अपना था, सब कुछ तो खत्म हो गया है। वे तो अब किसी अभिशप्त की लाश ढो रहे हैं। जिन्दा लाश, लोगों की निगाह में जिसकी कोई इच्छाएँ नहीं होतीं। जो न हँसने में साथ दे सकता है न गाने में। वे प्यार करने के तो काबिल ही नहीं रहे हैं। अपनी बच्ची को भी नहीं। कितना तरसते हैं, बच्ची को जी भर कर प्यार करने के लिए। वे तो बस चाबी भरा बबुआ मात्र हैं जो दिन भर खटते रहते हैं। सब की जरूरतें पूरी करने के लिए। उनके भीतर के कौर–कौन से कोने खाली पड़े हैं, कब से टल रही हैं, उनकी मूलभूत जरूरतें, किसके पास फुर्सत है जानने की!<br /> वे कमरे में लौट आए हैं। घड़ी पर निगाह डालते हैं। आठ दस। बीस मिनट और। फिर वे कम–से–कम इस जरूरत को तो पूरा कर पाएँगे। बेशक किराये की खुशियाँ सही, वे खुद का वह अधूरापन तो बांट पाएँगे, जो अरसे से सीने पर जमा है। पौरूषत्व की कसौटी पर खुद को खरा तो सिद्ध कर पाएँगे। कितना तो अरसा हो गया है इस रिश्ते को ढंग से जीये हुए। पत्नी, नहीं! नहीं अब वे उसे याद नहीं करेंगे। वे सिर झटक देते हैं। नया पैग बनाते हैं और खिड़की पर जा खड़े होते हैं। साढ़े आठ बजते–बजते आधी बोतल खत्म कर चुके हैं आज तक इतनी कभी भी नहीं पी थी उन्होंने। नशा फिर तारी होने लगा है। बेचैन होने लगे हैं। उसके आने का वक्त हो रहा है। चहल कदमी करने लगते है। कभी बैठते हैं तो कभी उठ कर परदे सरकाने लगते हैं।<br /> अचानक खटका हुआ। वे एकदम सतर्क हो गए। रक्तचाप तेज हो गया। उन्होंने अपने कपड़े ठीक किए और कदम साधते हुए दरवाजे तक आए। वही थी। सँवलाया चेहरा। तीखे नैन नक्श। करीने से पहनी साड़ी। आँखें झुकी। कहीं से भी उसके हाव–भाव से यह नहीं लगता कि वह धंधे वाली है और यहाँ इसी मकसद से आयी है। उनकी साँस फिर फूलने लगी है। उसे अन्दर आने के लिए कहने के लिए देर तक उन्हें शब्द नहीं सूझे, तो उसके लिए रास्ता छोड़ दिया। वह कमरे में आकर एक किनारे खड़ी हो गयी। उन्होंने हौले से दरवाजा बन्द किया और उसे बैठने का इशारा किया। वे खुद दूसरी तरफ पड़ी आराम कुर्सी में आ धँसे। उन्हें थकान सी महसूस हुई, मानो मीलों लम्बा सफर तय करके आ रहे हों।<br /> उन्होंने सोच रखा था, जैसे ही वह आएगी वे एकदम दरवाजा बन्द कर देंगे और कमरे की सारी बत्तियाँ जला देंगे। खुद भी निर्वस्त्र हो जाएँगे और एक–एक करके उसके वस्त्र उतारेंगे। जिन सफेद दागों की वजह से वे बरसों से पत्नी के साथ सहज, पूर्ण सहवास से वंचित हैं, जिन दागों की वजह से पत्नी उन्हें पूरे समर्पण भाव से स्पर्श तक नहीं करती या बत्ती नहीं जलाती, आज इन्हीं दागों को पूरी तरह प्रदर्शित करते हुए वे भरपूर शारीरिक सुख भोगेंगे। कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ेंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी कर पाने में वे खुद को असहाय पा रहे हैं। कहाँ से और क्या शुरू करें, समझ नहीं पा रहे। उन्हें अपनी अनुभवहीनता की वजह से पछतावा–सा हो रहा है।<br /> उन्होंने कनखियों से उसकी तरफ देखा। वह उन्हीं की तरफ देख रही थी। वह हौले से मुस्कराई। वे सकपका गए। उन्हें लगा, लड़की ने उन्हें नंगा देख लिया है और उनका मजाक उड़ा रही है। वे हिम्मत करके उठे और अपने लिए पैग बनाने लगे। अचानक उन्हें लगा, लड़की से भी पूछ लेना चाहिए। शायद पीती हो। वे गिलास लेकर उसके पास आए, लेकिन पूछने की हिम्मत नहीं हुई। उनके मुँह से आवाज ही नहीं निकल रही थी। लड़की ने खुद ही मना कर दिया, `नहीं, मैं नहीं पीती।' वे बातचीत का सिलसिला जोड़ना चाहते हैं, परन्तु ऐसी स्थिति में उनका सामना पहली बार हो रहा है। उन्हें कुछ सूझ ही नहीं रहा। कहाँ से शुरू करें। उन्होंने उसका नाम पूछना चाहा, परन्तु शब्द होठों ही में फुसफुसा कर रह गए। लड़की उनकी हालत समझ रही है, वह देख चुकी है, शौकिया नहीं है उसका आज का ग्राहक। यह बुजुर्ग आदमी बेहद थका हुआ, टूटा हुआ संस्कारग्रस्त आदमी है। वह न कुछ कर पाएगा न कह पाएगा।<br /> वे फिर खिड़की के पास आकर खड़े हो गए हैं। अब भी हालाँकि सुरूर बाकी है, लेकिन इतना होश है कि अपनी बेचारगी को महसूस कर सकें। एकांत जगह, आधी बोतल का नशा, खूबसूरत जवान लड़की। हल्की रोशनी और बरसों से पूर्ण सेक्स से वंचित वे। सब कुछ तो सही है, फिर भी क्यों नहीं वे शुरूआत कर पा रहे। कहाँ धरा रह गया उनका पुरूषत्व! क्यों नहीं लपक कर दबोच लेते है लड़की को। आखिर पूरी रात के पैसे देने हैं। यूँ ही कब तक पसोपेश में खड़े रहेंगे! वे आगे बढ़े। दो–तीन बत्तियाँ और जला दीं। उन्होंने लड़की की तरफ देखा, फिर पलँग की तरफ। अपनी दमित इच्छाएँ उन्हें सिर उठाती हुई प्रतीत हुई। एक बार उन्होंने अपने हाथों की तरफ देखा और लड़की को फिर से निहारा। मासूम चेहरा। भरी–भरी आँखें। उम्र का अन्दाजा नहीं लगा पाए वे। बीस या पच्चीस। वह अभी भी खड़ी उनके अगले आदेश की प्रतीक्षा कर रही है। किसी तरह कह पाए वे, `आपको खाने के लिए जो कुछ मँगाना हो, फोन पर आर्डर दे दीजिये।' लड़की ने सिर हिलाकर मना कर दिया, `नहीं कुछ नहीं चाहिए।' बातचीत का सिलसिला फिर टूट गया। वे कितनी बार कोशिश करके देख चुके हैं, लेकिन सूत्र हर बार टूट जाते हैं।<br /> उन्होंने वक्त देखा, नौ पाँच हो रहे हैं। उन्होंने आधा घंटा यूँ ही बरबाद कर दिया है। अभी तक उसका नाम भी नहीं पूछ पाए हैं। उन्हें फिर खुद पर ग्लानि होने लगी। इस तरह तो कर चुके मौज मजा! भोग चुके नारी देह! फिर से हिम्मत जुटाई और इस बार अपने अटैची केस में से अपना गाउन निकाल कर उसे दे दिया। वह गाउन लेकर बाथरूम में चली गई। उन्होंने फिर से सारी बत्तियाँ बन्द कर दीं। साइड लैम्प की हल्की रोशनी में एक कोने में खड़े होकर उसका इन्तजार करने लगे।<br /> जब वह बाथरूम से निकली तो हल्की रोशनी में वह उन्हें बहुत अच्छी लगी। उन्हें लगा उसका बदन दहक रहा है। उसके बदन से तेज आग निकल रही है। वे उसमें पिघल जाएँगे। वे उत्तेजित होने लगे। मुट्ठियाँ भींच ली उन्होंने। वे काफी देर तक यूँ ही मुट्ठियाँ भींचे खड़े रहे। उनके कदमों ने जैसे उनका साथ देने से इनकार कर दिया था। उन्हें अपने पूरे शरीर में तेज झनझनाहट महसूस हो रही है, लेकिन शक्ति चुक गई सी लगती है। वे फिर से पस्त हों इससे पहले ही अचानक लड़की उनके समीप आई। उनका हाथ थामा और पलँग पर लिटाया और उनका माथा सहलाने लगी। वे एकदम ढीले पड़ गए। लड़की का मृदु स्पर्श उन्हें बहुत भला लगा। आँखें मूँद लीं उन्होंने। अरसे बाद स्नेहिल, अपनत्व भरा स्पर्श उन्हें मिला था। भीतर तक सुख से भर गए। आँखें बन्द किए देर तक भीगते रहे उस स्पर्श सुख से।<br /> अचानक नशे ने फिर जोर मारा। वे एकदम चौंक कर उठ बैठे। नहीं, वे इस सब के लिए थोड़े ही आए हैं। और यह लड़की न तो उनकी नर्स है और न वे उसके मरीज। इस समय तो वे यहाँ किसी और रिश्ते के लिए आए हैं। उन्हें नहीं चाहिए यह ममत्व भरा चोंचला।<br /> उन्होंने सहम कर खड़ी हुई लड़की को अपनी और खींचा। लड़की कटे पेड़–सी आ गिरी उन पर। लड़की का स्पर्श पाकर वे फिर से पिघलने लगे। सारा शरीर शिथिल हो गया। जाने क्या हुआ, वे लड़की की पीठ पर हाथ धरे सुबकने लगे।सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-28349541451121391882008-04-28T11:48:00.000+05:302008-04-28T11:52:27.521+05:30ग्यारहवीं कहानी - आँख मिचौलीआँख मिचौली<br />कैंप डायरी <br />पहला दिन<br /><br />जिस जगह हमने कैंप लगाया है, वह समतल जमीन का एक छोटा–सा टुकड़ा है। नीचे की तरफ पहाड़ी नाला और ऊपर की तरफ सड़क। आसपास ऊबड़–खाबड़ जमीन है जिस पर बेतरतीबी से जंगली झाड़ियाँ उगी हुई हैं। हालाँकि हमें यहाँ सिर्फ सात दिन रहना है, फिर भी सारे टैंट कैंप प्लान के हिसाब से ही लगाए गए हैं। एक सिरे पर मेरा टैंट, उसके बाद सहायक कैंप अधिकारी घंटसाल का टैंट, फिर सर्वेयरों के, दो–दो सर्वेयरों के लिए एक–एक। कैंप के दूसरे सिरे पर अर्दलियों, खानसामों वगैरह के टैंट हैं। मैं अपने टैंट में बैठा–बैठा पूरे कैंप की गतिविधियों पर निगाह रख सकता हूँ।<br /> आज का सारा दिन शिफ्टिंग में निकल गया है। हैडक्वार्टर से सत्तर किलोमीटर की यात्रा, सामान से भरे चार फाइव टनर तथा तीन जीपें। सामान उतारते–उतारते और कैंप लगाते–लगाते शाम हो गयी थी। हालाँकि हमने गाँव के पटेल से कहा भी था कि बोझा उठा सकने वाले हट्टे–कट्टे आदमियों का ही इन्तजाम करें, लेकिन उसने जो आदमी भेजे थे, वह बहुत ही मरियल किस्म के थे। अधनंगे, देखने में इतने कमजोर कि बरसों से कुछ खाया न हो। आँखों में याचक के से भाव। मैं साफ देख रहा था, लारियों से सामान उतारते–उतारते वे हाँफने लगते थे, लेकिन पता नहीं कौन–सी ताकत थी जो उनसे काम करवा रही थी। सचमुच पेट की आग बहुत अजीब होती है। आदमी से क्या कुछ नहीं करवा लेती! सोचता हूँ–पूरी कैंप अवधि के दौरान ऐसे ही मजदूर मिलते रहे तो खासी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा।<br /> खाना खाने के बाद मैंने घंटसाल जी और ग्रुप सर्वेयरों को बुलाकर कल की पूरी डिटेलिंग कर ली है। हमें कितना एरिया कवर करना है और किस–िकस के कंट्रोल में सर्वे पार्टियाँ जायेंगी, उन्हें समझा दिया है। कैंप आफिसर के रूप में काम करने का आज मेरा पहला दिन है। इलाका भी मेरे लिए नया है। पहले कभी नहीं आया हूँ इस तरफ। वैसे यह सर्वे ज्यादा मुश्किल नहीं है। पिछले सर्वे के जो नक्शे हमारे पास हैं, उन्हीं का वेरिफिकेशन करना है। आठ जगह कैंप लगाने हैं और कुल 1500 वर्ग कि.मी. का एरिया कवर करना है। कुल मिलाकर चार महीने तक कैंप चलेगा। मुझे बीच–बीच में अलग–अलग टीमों का निरीक्षण करने के लिए जाना होगा। ज्यादातर दिन मुझे बेस कैंप में ही बिताने हैं। पचासों तरह के काम होंगे।<br /> इस समय कैंप में सन्नाटा है। चारों तरफ पसरा अँधेरा वातावरण को और डरावना बना रहा है। साढ़े ग्यारह हो चुके हैं। आज का पन्ना यहीं खत्म करता हूँ।<br /><br />दूसरा दिन<br /><br /> आज हम जिस इलाके में सर्वे करने गए, वह बहुत ही कठिन इलाका था। ऊबड़–खाबड़ रास्ते। बीच–बीच में पगडंडी भी खो जाती थी। कुल मिलाकर सात लोग थे हम। शुरू–शुरू में वैसे भी तकलीफ होती ही है। जो अर्दली थियोडोलाइट, पी.टी.स्टैंड और दूसरे सामान लेकर चल रहे थे, उनका पसीने के मारे बुरा हाल था। दोपहर के खाने के वक्त बहुत अजीब वाक्या हुआ।<br /> उस वक्त तक पानी का हमारा सारा स्टॉक खत्म हो चुका था। खाने के समय न तो हमारे पास पानी बचा था और न ही कोई ढंग की जगह मिली जहाँ बैठकर हम ढंग से खाना खा सकें। अर्दली दूर–दूर तक पानी और छायादार जगह की तलाश में भटककर आ चुके थे। बहुत खोजने पर एक इकलौता पेड़ मिला। पास ही एक बावड़ी थी जिसमें पानी था। लेकिन बुरी तरह से सड़ाँध भरा। पेड़ के नीचे थी एक टूटी–फूटी कब्र। इस सुनसान जगह पर कब्र देखकर हम बहुत हैरान हुए थे। उसी कब्र पर बैठकर हमने खाना खाया। एक अर्दली बेचारा उस बदबूदार पानी को किसी तरह छानकर लाया। पानी मुँह के पास लाते ही उबकाई आने लगती, पर कोई चारा नहीं था उस वक्त।<br /> फील्ड में पहले दिन का सारा रोमांच हवा हो चुका था हमारा। अभी तो यह पहला दिन था। पूरे चार महीने इसी तरह, कई बार इससे भी बदतर स्थितियों में काटने हैं। कैंप से हम लोग कम–से–कम आठ कि.मी. दूर थे उस वक्त। कैंप पहुँचकर ही हम ढंग से चाय–पानी पी सके थे।<br /> लौटते–लौटते साँझ ढल आई थी। नहा–धोकर मैं यूँ ही आस–पास का एक चक्कर लगाने की नीयत से निकला था। अपने कैंप से थोड़ी ही दूर मैंने कुछ लोगों को देखा। पाँच–सात मर्द; लगभग उतनी ही औरतें और एक–दो बच्चे। वे बाँसों और चटाइयों की झोंपड़ियाँ खड़ी कर रहे थे। मैं बहुत हैरान हुआ, उन्हें इस तरह वहाँ पर घर बसाते देख। क्या प्रयोजन हो सकता है उनका यहाँ? सामान के नाम पर मुझे वहाँ गठरियों और बोरियों में भरे बर्तनों वगैरह के सिवा कुछ नजर नहीं आ रहा था। मेरी जानकारी के अनुसार वहाँ से निकटतम गाँव भी चार कि.मी.दूर था। मुझे खुद पर कोफ्त हुई स्थानीय भाषा न समझ पाने की वजह से। हिन्दी यहाँ के लोगों को उतनी ही समझ में आती है, जितनी मुझे यहाँ की भाषा। दो–चार काम चलाऊ शब्द। मैं दिमाग में कई प्रश्न लिए लौटा और सीधे घंटसाल जी के टैंट में गया। शायद वे कुछ बता सकें।<br /> मेरा अंदाज सही था। जब मैंने उन्हें आस–पास हो रही गतिविधियों के बारे में बताया तो वे हौले से मुस्करा दिए, "तो वे लोग आ गए हैं।”<br /> "कौन लोग हैं वे? ” मुझे हैरानी हुई थी। वे उनके बारे में पहले से जानते थे और उनके आने के बारे में भी उन्हें पता था।<br /> "आप खुद ही देख लेंगे सर।” उन्होंने टालने के अन्दाज में कहा था। <br /> "मुझे साफ–साफ बताइए घंटसाल जी, कौन हैं वे लोग और यहाँ निर्जन में बसने की क्या वजह हो सकती है?” मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी।<br /> घंटसाल जी ने बहुत जोर देने पर भी कुछ नहीं बताया था। यही कहते रहे, "आप खुद ही जान जायेंगे एक–आध दिन में।” अपने टैंट में लौटकर भी मुझे चैन नहीं आया। मैं उनकी मौजूदगी के बारे में अपनी तसल्ली कर लेना चाहता था। तभी मुझे याद आया, मेरा खानसामा भी तो लोकल है। वह पहले भी आ चुका है यहाँ के कैंपों में। वह भी जानता होगा इनके बारे में। रात को जब वह खाना लेकर आया तो उसी से पूछा था मैंने।<br /> पहले तो वह बताने को तैयार ही नहीं हुआ था। बहुत जोर देने पर और जरा धमकाने पर उसने जो कुछ बताया, वह सचमुच चौंकाने वाला था। वे धन्धा करने वाली औरतें थीं और उनके साथ के लोग भाई, रिश्तेदार या घरवाले, जो उन्हीं की दलाली करते हैं। खानसामा ने बताया था कि इस पूरे इलाके में बहुत गरीबी है। पेट भरना ही बहुत मुश्किल होता है। पानी न होने की वजह से ज्यादा खेती–बाड़ी होती नहीं। काम न होने से आदमी और भी नाकारा हो गए हैं। एक–दो रूपए मिल जाएँ कहीं से तो उसकी भी दारू पी लेते हैं। पेट की आग ही उन्हें यहाँ खींच लाई है। अब आगे–आगे हमारा कैंप होगा और पीछे पीछे उनका कैंप। हर साल ऐसा ही होता है, साब। <br />मेरा सर घूमने लगा था खानसामा की बात सुनकर। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। कहीं ऐसा भी हो सकता है। खानसामा की बातों पर यकीन करने को जी नहीं चाह रहा था।<br /> मेरे यह पूछने पर कि उनके पास जाते कौन लोग हैं, तो उसने बताया था कि कैंप में पचास के करीब अर्दली, मैसेंजर, खानसामें और मजदूर वगैरह हैं। उन्हीं लोगों के सहारे चलेगी इनकी रोजी–रोटी अगले चार महीने तक। फिर उसने खुद ही बताया था कि कई चपरासी और खानसामे वगैरह इनके पक्के ग्राहक हैं। कई धंधेवालियाँ हर साल आती हैं और…वह कहते–कहते रूक गया था।<br /> "और क्या?” जब मैंने पूछा था तो उसने सकुचाते हुए बताया कि कई अर्दलियों की उनके पास उधारी चलती है। कई–कई साल के पैसे बकाया हैं कुछेक लोगों पर। मैं दंग रह गया था। सपने में भी नहीं सोच सकता था कि इस धंधे में भी उधारी चलती होगी! खाता रखा जाता होगा! मैं और सुनने की स्थिति में नहीं था। खानसामा को जाने को कहकर यह डायरी लिखने बैठ गया था।<br /> मुझे यहाँ का अर्थशास्त्र समझ में नहीं आ रहा है। यह तो मुझे पता था कि इस इलाके में गरीबी बहुत है, आय के कोई निश्चित साधन नहीं है। यहाँ के लोग हर साल लगने वाले कैंपों की बेसब्री से बाट जोहते हैं ताकि चार महीने तक तो जुगाड़ बना रहे दो वक्त की रोटी का। जिस गाँव के पास भी हमारा कैंप लगता है, वह गाँव मजदूरों, सब्जी, अंडे, दूध बगैरह की हमारी जरूरतें पूरी करता है। मुझे यह भी पता चला था कि हम जो मजदूरी यहाँ के मजदूरों को देते हैं, या जो खानसामें स्थानीय आधार पर रखते हैं, उन्हें भी पूरे पैसे नहीं मिल पाते। कुछ सर्वेयर या कैंप आफिसर खा जाते हैं और कुछ गाँव का पटेल हिस्सा मार लेता है। इस दोहरी मार की खबर तो थी। लेकिन शोषण के इस रूप का पता मुझे आज ही चला है।<br /> मेरी समझ में नहीं आ रहा कि ये धंधेवालियाँ महीनों के लिए अपने घर–बार से बिछड़े जंगलों में पड़े इन चपरासियों वगैरह की शारीरिक भूख शांत करके उन पर अहसान कर रही हैं या ये लोग इन रंडियों को दो–दो, चार–चार रूपए देकर, उन्हें जिन्दा रहने लायक पैसे देकर उन पर अहसान कर रहे हैं। यह सब सोचते–सोचते मेरे माथे की नसें तड़कने लगी हैं। डायरी लिखना भारी पड़ रहा है।<br /><br />तीसरा दिन<br /> आज दिन भर व्यस्त रहा। टैंट से निकलने की फुर्सत ही नहीं मिली। शाम को थोड़ी देर के लिए टहलने के लिए निकल गया था। जानबूझकर उस तरफ नहीं गया। मैं उनके बारे में सोचना भी नहीं चाहता। मुझे सुबह ही रिपोर्ट मिल गई थी कि कल रात देर तक वहाँ जश्न होता रहा।<br /> मैंने शाम को घंटसाल जी से बात की थी। उन्हें जब पता चला कि मुझे सब कुछ पता चल चुका है तो निश्चिंतता के भाव उनके चेहरे पर नजर आए। शायद वे मुझे कुछ बताने के धर्मसंकट से उबर गए थे। जब मैंने उनसे पूछा कि क्या इन लोगों को हमारे कैंप के आस–पास बने रहना गलत नहीं है तो उन्होंने कहा कि जब तक सब कुछ चुपचाप लचता रहता है। कोई कुछ नहीं कहता। कोई जतलाता भी नहीं कि किसे किस–िकस के बारे में खबर है। जब कोई दारू पीकर दंगा करता है तभी कैंप आफिसर को सख्ती से काम लेना पड़ता है। मैं साफ–साफ देख रहा था कि घंटसाल जी सारी स्थितियों को बहुत सहजता से ले रहे थे। मैं इस बात को जितनी गंभीरता से ले रहा था, वे उतनी ही उदासीनता दिखा रहे थे। जब मैंने उनसे कहा कि कुछ भी हो, यह सब गलत है। इसे इसी तरह कैसे चलने दिया जा सकता है। आखिर एक–दो दिन की बात नहीं। पूरे चार महीने वे इसी तरह हमारे पीछे लगे रहेंगे। अगर यह समांतर कैंप यूँ ही हमारे साथ लगा रहा तो हमारे स्टाफ पर बुरा असर पड़ेगा। मैं यह कहते–कहते उत्तेजित हो गया था। आखिर मैं कैंप लीडर हूँ। अपने कैंप के स्टाफ के प्रति मेरा भी कोई नैतिक दायित्व है।<br /> लेकिन घंटसाल जी ने जरा भी उत्तेजित हुए बिना कहा, "सर कैंप कोई छोटे बच्चों का एनसीसी का कैंप नहीं है। सभी लोग कई–कई सालों से कैंप लाइफ जी रहे हैं। उन्हें अपने भले–बुरे का पता है। ज्यादातर लोग शादीशुदा हैं, और फिर यह सब कुछ पहली बार तो नहीं हो रहा है”, यह कहकर घंटसाल जी चले गए थे। मेरे सामने प्रश्नों का एक और पुलिंदा छोड़ के।<br /> आज नींद नहीं आ रही है, अजीब उलझन है, सब कुछ गलत लग रहा है, पर स्थितियों पर मेरा बस नहीं है।<br /> <br />चौथा दिन<br /> आज बेस कैंप चला गया था। मूड बुरी तरह उखड़ गया था। बात ही कुछ ऐसी थी, कल रात दो सर्वेयर वहाँ जाते देखे गए थे। दोनों फ्रेशर हैं, पहली बार कैंप आए हैं। काफी देर तक कशमकश में रहा, उन्हें बुलाकर कहूँ – कुछ तो अपनी पोजीशन का, हैसियत का ख्याल किया होता, वहीं मुँह मारने चले गए, जहाँ तुम्हारे अर्दली और रसोइये जा रहे हैं। पर हिम्मत नहीं जुटा पाया। जब कुछ नहीं सूझा तो जीप लेकर बेस कैंप चला गया था। जब चीफ सर्वेयर मिस्टर मल्होत्रा को मैंने यह सब बताया तो वे ठहाका लगाकर हँसे। मैं भौंचक–सा उनका मुँह देखता रह गया। उन्होंने जो कुछ बताया उससे मेरी उलझन और बढ़ गई। वे बोले थे – हर साल यह समस्या हमारे सामने आती है, हम कुछ नहीं कर पाते। पहली बात तो यह है कि आप अर्दलियों, मजदूरों से कुछ कह भी दें, अपने कलीग अफसरों का पानी तो नहीं उतार सकते। अब जब आते हैं तो जाएँ। अपना भला–बुरा उन्हें खुद सोचना है। आप ही को अपना सुधारात्मक रवैया बदलना पड़ेगा। हाँ, अगर कोई पी–पाकर हंगामा खड़ा करे तो आप कान खींच सकते हैं उसके।<br /> बेस कैंप जाकर मेरी उलझन बढ़ी ही थी। लौटकर अजीब–सा अजनबीपन महसूस कर रहा हूँ। लग रहा है किसी गलत जगह आ गया हूँ। मैं इस माहौल के लायक नहीं हूँ। मेरे संस्कार बार–बार मुझे टहोका दे रहे हैं–रोवूँ यह सब, यह गलत है, इसे हटाया जाना चाहिए। पर इस गलत समीकरण को हटाने के लिए कौन–सा सही समीकरण मेरे पास है, इसका उत्तर मुझे नहीं सूझता। फिर सोचता हूँ–चलने दो सब कुछ। जब सभी को यही मंजूर है तो मैं क्यों सिर खपाऊँ अपना इस सबमें। लेकिन मन इसे भी मानने के लिए तैयार नहीं।<br /> <br />छठा दिन<br /> कल डायरी भी नहीं लिख पाया, फील्ड में एक सर्वेयर का पाँव पथरीली ढलान पर रपट गया था। फ्रैक्चर की आशंका थी। उसे किसी तरह से लादकर कैंप तक लाया गया। कैंप में मैं ही अकेला आफिसर मौजूद था, सो उसे जीप में पास के शहर लेकर गया, एक्सरे, प्लास्टर और अस्पताल में भरती करने के चक्कर में रात हो गयी थी। कैंप में देर रात को लौटा था।<br /> आज सुबह सैर के लिए जाते समय नाले के बहाव के साथ–साथ काफी दूर तक निकल गया था। वापसी में कैंप से थोड़ी दूर उन लोगों को नहाते, कपड़े धोते देखा। मैं एकदम उनके सामने पड़ गया था। मुझे आता देख वे सकपका गयी थीं। मैंने पहली बार उन्हें इतने नजदीक से देखा था। साधारण चेहरे मोहरे जो घटिया किस्म के मेकअप के कारण बहुत अजीब लग रहे थे। कपड़े भड़कीले लेकिन सस्ते और आधे–अधूरे। उनके चेहरों पर व्यवसायजनित बेशर्मी के हावभावों के बावजूद गरीबी सार्वजनिक रूप से घोषणा कर रही थी। मेरा मन वितृष्णा से भर गया था। रास्ता बदलकर चला आया।<br /> आज एक और बात पता चली है मुझे। कैंप के कई लोग वहाँ जाते हैं, लेकिन हर आदमी की कोशिश रहती है कि उसे वहाँ आता–जाता कोई देखे नहीं। हर आदमी पूरी प्रायवेसी बनाए रखने की कोशिश करता है। यह भी पता चला है कि कैंप में शराब भी पहुँच गयी है, कौन लाया है और कौन–कौन पी रहे हैं, यह पता नहीं चल पाया है, वैसे अभी किसी ने हुड़दंग नहीं मचाया है, सवेरा होते ही सब बिलकुल चुस्त–दुरूस्त होकर निकल पड़ते हैं।<br /> इस सबके बावजूद मैं अभी भी लगातार यही सोच रहा हूँ–गलत हो रहा है यह। इसे रोका जाना चाहिए। कहीं कुछ अप्रिय घट गया तो मैं खुद को माफ नहीं कर पाऊँगा।<br /><br />सातवाँ दिन<br /> कल यहाँ से शिफ्ट करना है। नया कैंप यहाँ से 16 किमी. उत्तर में है। वहाँ हम पाँच दिन रहेंगे। यह हफ्ता किसी तरह बीत गया है। उस प्रसंग को छोड़ दें तो कैंप आमतौर पर ठीक रहा है, कोई बड़ी समस्या नहीं आयी है। हमने अपने निर्धारित लक्ष्य पूरे कर लिए हैं। इलाके की तकलीफों के बावजूद टीम स्पिरिट बनी हुई है। जिस सर्वेयर के पैर में फ्रैक्चर हुआ था उसे तीन सप्ताह तक प्लास्टर लगाए बेस कैंप में रहना होगा। कल उसकी जगह एक और सर्वेयर ने ज्वाइन कर लिया है।<br /><br />आठवाँ दिन<br /> आज कैंप नम्बर दो में आ गए हैं। पहले से खुली और अच्छी जगह है। गाँव भी ज्यादा दूर नहीं है। अतः छोटी–मोटी चीजों के लिए मैसेंजर को बेस कैंप नहीं दौड़ना पड़ेगा। सब्जियों और दूध, अंडों की सुविधा हो गयी है। पिछला पूरा हफ्ता पाउडर की चाय पीते बीता है। कुछ साथियों ने टैंट खड़े करने के बाँसों के सहाने नेट लगाकर वॉलीबाल खेलने का इंतजाम कर लिया है। देर तक खेलते रहे। अच्छा लगा। कैंप की जिंदगी ऐसी ही होती है। दिन बीतने के साथ–साथ लोग एक दूसरे के नजदीक आते हैं। सभी अपने लायक साथी ढूँढ़ लेते हैं। फिर टैंटों में शतरंज या ताश की बाजियाँ चलती हैं। कुछ लोग गाते–बजाते रहते हैं।<br /> आज एक सर्वेयर का जन्मदिन था। जंगल में मंगल मनाया गया। सभी अफसरों का खाना एक साथ बना। काफी देर तक महफिल जमी रही। बहुत दिनों बाद आज मेरा मूड सँभला, शायद इस वजह से भी कि आज आसपास उनका कैंप नहीं है।<br /><br />नौंवाँ दिन<br /> आज उनका कैंप भी आ पहुँचा। एक दो वुँ वारी वेश्याएँ और आ जुड़ी हैं उनके कैंप में। जी चाहता है चौकीदार को भेजकर तहस–नहस करवा दूँ उनके झोंपड़े या ड्राइवर से कह दूँ–दूर छोड़ आए उन्हें ट्रक में बिठाकर। मन ही मन भुनभुना रहा हूँ। क्या हमारे कैंप के लोगों ने ही ठेका ले रखा है उनका! कोई और जरिया क्यों नहीं ढूँढते? आखिर हमने आसपास के गाँवों के लोगों को काम पर लगाया ही है। अच्छे पैसे भी दे रहे हैं। वे निठल्ले लोग भी तो हमारे पास काम माँगने आ सकते थे। क्या यही तरीका रह गया है? कल का दिन कितना सुकून भरा था, आज फिर वही तनाव दिमाग की नसों पर आ बैठा है।<br /> घंटसाल जी से फिर इस बारे में बहस हुई आज। वे अभी भी अपने पुराने तर्कों पर अड़े हुए हैं। उनकी गरीबी, मजबूरी की बात करते रहे। मुझे यहाँ का अर्थशास्त्र समझाने लगे। जब मैंने उनसे यह पूछा कि तुम्हारे शोषित वर्ग के निठल्ले या दलाल पति अपनी ही बीवियों, बहनों से धंधा कराके क्या उनका शोषण नहीं कर रहे हैं, तो इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था। मुझे तो लगता है कहीं घंटसाल जी खुद भी तो…<br /><br />तेरहवाँ दिन<br /> वही हुआ जिसकी बहुत पहले आशंका थी। कल डायरी लिखकर लेटा ही था कि यकायक कुछ शोर सुनायी दिया। कुछ अस्पष्ट आवाजें आ रही थीं। झगड़े, गाली गलौज की। चौकीदार को आवाजों की दिशा में दौड़ाया। तब तक कुछ और लोग भी जाग गए थे और उसी दिशा में टार्चें चमका रहे थे। मैं साफ–साफ समझ पा रहा था कि कोई कैंपवाला दारू पीकर वहाँ पहुँच गया होगा। वहाँ पैसों के लेन–देन या ऐसी ही किसी बात को लेकर जो कुछ हुआ होगा, उसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं था।<br /> थोड़ी ही देर में चौकीदार और दूसरे लोग एक अर्दली को थामे हुए मेरे टैंट में लाए। वह बुरी तरह नशे में था। सिर पर गहरी चोट के निशान। कपड़े खून से लथपथ। इसके बावजूद वह अंट शंट बक रहा था। चौकीदार ने कुछ बताना चाहा लेकिन मैंने मना कर दिया। मैं जानता था, क्या हुआ होगा। उसे फर्स्ट एड बाक्स देकर अर्दली की मरहम पट्टी करने के लिए कह सबको विदा किया।<br /> इससे पहले कि वह सवेरे माथे पर पट्टियाँ बाँधे हाथ–पैर जोड़ने मेरे पास आता, मैंने उसे तत्काल बेस कैंप और वहाँ से हैड–क्वार्टर वापिस भिजवाने के लिए रवानगी आदेश तैयार करवा लिया था।<br /><br />चौदहवाँ दिन<br /> आज हमें कैंप 2 से कैंप 3 में शिफ्ट करना था। करीब 15 किमी. उत्तर में। दस दिन में इस कैंप में कुछ अतिरिक्त सर्वे करने थे। सुबह जब सारा सामान ट्रकों और जीपों के ट्रेलरों में लादा जा चुका और सभी लोग गाड़ियों में बैठ गए तो मैंने आदेश दिया – हम इस समय कैंप 3 में न जाकर कैंप 8 में 55 किमी. दूर जा रहे हैं। कैंप नं.3 सबसे आखिर में लगाया जाएगा। और इस तरह हम यहाँ कैंप 8 में आ गए हैं।<br /> मुझे सुकून है कि हमारे यहाँ आने की बात उन्हें मालूम नहीं हैं।सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-22151771440229530292008-04-21T10:39:00.002+05:302008-12-09T04:35:34.098+05:30दसवीं कहानी – फ़र्क<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMbQSLv4sy5cdLxFabo7GYf4dNYeOHInFFGwKLiLDu4zXMwl8Wcazd6tsSfchpdOoaZ1xuO5NbqIgLIG9O46D6pr9mEGsgbqTMl5zY6nl1t6XwJK08y0yeOyzveqj86CbB8CVVnPnP81nu/s1600-h/PICT0133.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMbQSLv4sy5cdLxFabo7GYf4dNYeOHInFFGwKLiLDu4zXMwl8Wcazd6tsSfchpdOoaZ1xuO5NbqIgLIG9O46D6pr9mEGsgbqTMl5zY6nl1t6XwJK08y0yeOyzveqj86CbB8CVVnPnP81nu/s320/PICT0133.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5191562340163172034" /></a><br /><br /><br />कुंदन आज बहुत खुश है। आज का दिन उसे मनमाफिक तरीके से मनाने के लिए मिला है। खूब घुमायेगा बच्चों को। पार्क, सिनेमा, चिड़ियाघर। किसी अच्छे होटल में खाना खिलायेगा। आज उसे मारुति वैन चलाते हुए अजब-सा रोमांच हो रहा है। रोज यही वैन चलाता है वह, पर रोज के चलाने और आज के चलाने में फ़र्क महसूस हो रहा है उसे। रोज वह ड्राइवर होता है। हर वक्त सतर्क, सहमा हुआ-सा। बैक व्यू मिरर पर एक आंख रखे। पता नहीं सेठजी कब क्या कह दें, पूछ लें। लेकिन आज के दिन तो वह मालिक बना बैठा है। सेठ जी ने खुद उसे दिन भर के लिए गाड़ी दी है। ``जाओ कुंदन। एक बार तुम कह रहे थे न, कभी बच्चों को घुमाने के लिए गाड़ी चाहिए। ले जाओ। बच्चों को घुमा-फिरा लाओ।'' दो सौ रुपये भी दिये हैं उसे। सेठ कितने अच्छे हैं। आज बेशक एक दिन के लिए सही, उस ज़िंदगी को जी कर देखेगा, जो उसका सपना थी। उसके भीतर का सहमा-सा, हर वक्त बुझा-बुझा रहने वाला मामूली वर्दी-कैप धारी ड्राइवर न जाने कहां फुर्र से उड़ गया है। आज वह सफारी सूट पहने बैठा है।<br /> उसका मन गुनगुनाने को हो रहा है। स्टीरियो चला दिया है उसने। कोई बहुत पुराना गाना। उसके स्कूल के दिनों बहुत बजने वाला। वह मुस्कुराया। डैश बोर्ड पर लगी घड़ी में वक्त देखा। दस बजने को हैं। अब तक सब तैयार हो चुके होंगे, उसने सोचा। कल रात जब उसे सेठजी ने ग़ाड़ी ले जाने के लिए कहा था, तभी उसने कुंती से कह दिया था, दस बजे तक तैयार रखना बच्चों को। सुबह गाड़ी लेने जाते समय फिर से ताकीद कर गया था। एकदम अपटूडेट। सेठ के बच्चों के माफिक। अभी पांच मिनट में वह घर के दरवाजे पर होगा।<br /> गाड़ी के गली में पहुंचते ही, वहां हर वक्त खेलने वाले बच्चों ने गाड़ी को घेर लिया और ज़ोर-ज़ोर से हो-हो करने लगे। दो-एक खिड़कियों में से उत्सुक चेहरे भी टंग गये। आज वह पहली बार गाड़ी घर पर लाया है। शोर सुनकर गप्पू, संजय और पिंकी बाहर निकल आये। वे अभी भी तैयार हो रहे हैं। गप्पू ने स्कूल यूनिफार्म पहनी हुई है और मुचड़ी हुई टाई उसके हाथ में है। संजय ने अपना इकलौता सफ़ारी सूट डाटा हुआ है और पैरों में हैं हवाई चम्पलें। तीनों उसे देखते ही चिल्लाये, ``मम्मी, मम्मी, पापा आ गये, पापा आ गये। अहा, कितनी अच्छी है, पापा की मारुति।'' गप्पू टाई हाथ में लिये-लिये सीधा वैन तक जा पहुंचा और बच्चों को धकियाने लगा, ``हटो, हटो, हमारी कार है यह। पापा आ गये, पापा देखो, संजय मुझे पहले कंघी नहीं करने दे रहा है।'' लगा, जैसे वे पहले से ही लड़ रहे थे। पिंकी बहुत ही शोख रंग की फ्राक पहने हुए है। उसे कुंती पर गुस्सा आया। ``इस औरत को कभी अक्कल नहीं आयेगी। बच्चों को ढंग से तैयार भी नहीं कर सकती।'' बच्चों को एक किनारे ठेल कर वह घर के भीतर वाले हिस्से में आया, जहां रसोई में एक दीवार की आड़ में बने गुसलखाने में कुंती की खटपट सुनायी दे रही है। वह वहीं से चिल्लाया, ``यह क्या तमाशा है, न खुद तैयार हुई हो, न बच्चों को तैयार किया है। अब मैं क्या सारा दिन दरवाजे पर ही टंगा रहूंगा?'' वह वहीं से बोली, ``क्या करती मैं। पानी ही नहीं आया। अभी तक बैठी थी, पानी के इंतज़ार में। नहीं आया तो राजो की मां से मांग कर लायी हूं दो बाल्टी।'' यह कहते-कहते कुंती केवल ब्रेसरी और पेटीकोट पहने, हाथ में गीला तौलिया लिये सामने आ गयी। हालांकि उसका गुसलखाने से बाहर आने का यह रोज़ का तरीका है, लेकिन कुंदन ने कभी इस तरफ ध्यान ही न दिया था। आज उसे इस हालत में देख कर कुंदन के सौन्दर्य बोध को बेतरह ठेस लगी। वह फिर फट पड़ा, ``यह क्या बेहूदगी है, जरा भी शऊर नहीं है तुम्हें?'' कुंती ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया और पास ही खड़ी गीले बात तौलिये से फटकारने लगी। कुंदन ने फिर चोर नज़रों से बीवी की तरफ देखा, जो बालों को सुखाने के बाद दोनों हाथ आगे किये हुए ब्लाउज पहन रही थी। कुंदन की निगाह अचानक उसकी बगल के गीले बालों की तरफ चली गयी। उसने मुंह बिचकाया और बाहर वाले कमरे में आ गया।<br /> कमरें में आकर उसे समझ में नहीं आया, क्या करे। थोड़ी देर अजनबियों की तरह जेब में हाथ डाले खड़ा रहा। जैसे वह किसी और के घर में मजबूरी में खड़ा हो। तभी गप्पू उससे लिपटता हुआ बोला, ``पापा, मैं तैयार हो गया। गाड़ी में बैठ जाऊं?'' कुंदन ने उसकी तरफ देख लिया। कहा कुछ नहीं। संजय और पिंकी अभी भी बहस कर रहे हैं। कुंदन को लगा, उसका मूड उखड़ रहा है। वह आते समय यही मान कर चल रहा था कि बच्चे बिल्कुल तैयार होंगे। साफ-सुथरे, करीने से कपड़े पहने और यहां...।<br /> वह दरवाजे पर आ खड़ा हुआ। सिगरेट सुलगाई और चाबियों का छल्ला घुमाते हुए गली का एक चक्कर लगाने की नीयत से चल पड़ा। गली के बच्चे अभी भी वैन के आस-पास डटे हुए हैं।<br />• <br />जब कुंती बच्चों को लेकर वैन में सवार होने के लिए आयी, तो कुंदन को चारों कार्टून नजर आये। गप्पू ने यूनिफार्म उतार दी है और नेकर-बुश्शर्ट पहन लिये हैं। नेकर-बुश्शर्ट के रंगों का कोई मेल नहीं है। एक हरी, एक लाल। पिंकी ने खूब कस कर बालों की चुटिया बनायी है। चेहरा एकदम खिंचा-खिंचा सा लग रहा है उसका। संजय सफारी में किसी कम्पनी एक्सक्यूटिव की तरह तना-तनाया खड़ा है, लेकिन हवाई चप्पल उसकी सारी हेकड़ी निकाल रहे हैं। उसने एक नज़र कुंती पर डाली। शायद उसने अपनी सबसे भड़कीली साड़ी पहनी है। तेल चुपड़े बाल, मांग में ढेर सारा सिंदूर और कहीं से भी मैच न करती लिपस्टिक। वह कुंती से फिर कोई कड़वी बात कहना चाहता है, लेकिन कुछ कहे बिना ही उसने अपने चेहरे के भावों से मन की बात कह ही दी।<br /> बच्चे वैन के दरवाजे खुलने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। तीनों बच्चे पीछे हुड खोलकर वहां बैठने के चक्कर में हैं और पिछले दरवाजे पर खड़े एक-दूसरे को धकिया रहे हैं। गली के बच्चे अब भी थोबड़े लटकाये, मुंह में गंदी उंगलियां ठूंसे इन्हें बड़ी ईर्ष्यालु निगाहों से देख रहे हैं। कुंदन झल्लाया बच्चों पर, हटो परे, सब पिछली सीट पर बैठेंगे। हुड नहीं खुलेगा। बच्चों के चेहरे उतर गये।<br /> कुंदन उन्हें इस तरह पीछे हुड खोल कर बिठा तो देता, लेकिन बेमेल और गंदे कपड़े देखते हुए उसकी हिम्मत नहीं हुई कि खुले हुड से सबको पता चले कि ये गाड़ी के मालिक के नहीं ड्राइवर के बच्चे हैं। तीनों बच्चे लपक कर चढ़ गये। कुंती ने सलीके से साड़ी का पल्लू संभाला और बड़ी ठसक के साथ बगल वाली सीट पर आ विराजी।<br /> वैन के चलते ही बच्चे धमाचौकड़ी करने लगे। कुंदन ने अचानक ही ब्रेक लगायी। सभी चौंके, पता नहीं क्या हुआ। कुंदन ने कुंती की तरफ झुक कर दरवाजा ठीक से बंद किया और गाड़ी गियर में डाली। कुंदन का मूड अभी भी ठिकाने नहीं है। उसे लगातार इस बात की कोफ्त हो रही है कि उसने नाहक ही सेठजी का अहसान लिया। ये बच्चे इस लायक नहीं हैं कि गाड़ियों में घूम सकें। अब खुद सेठ की तरह गाड़ी चलाने, बीवी-बचों को सेठ के बच्चों की तरह ऐश करवाने का उसका कत्तई मन नहीं है।<br />• <br />कभी जिंदगी में उनका भी सपना था, एक बड़ा आदमी बनने का। खूब सारी अच्छी-अच्छी चीज़ें खरीदने, अमीर आदमियों की तरह एकदम बढ़िया कपड़े पहने होटलों में जाने का। एकदम लापरवाही का अंदाज लिये ज़िंदगी जीने का। शुरू-शुरू में उसकी बहुत इच्छा हुआ करती थी कि उसकी बीवी बहुत ही खूबसूरत हो और बच्चे एकदम फर्स्ट क्लास। तमीजदार। फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलने वाले। बचपन उसका बहुत अभावों में बीता था। सुख-सुविधाएं तो दूर, ज़रूरी चीज़ों तक से वंचित।<br /> और सपना भी उसका कहां पूरा हो पाया था। आधी-अधूरी छोड़ी हुई पढ़ाई। दसियों तरह के धंधे। साधारण-सी औरत से शादी और कहीं से भी विशिष्ट न बन सकने या लग सकने वाले बच्चे। चाह कर भी वह उनको मनमाफिक ज़िंदगी नहीं दे पाया था। कुछ अरसे से इस सेठ की मारुति वैन चलाने का काम मिल गया है। `उस तरफ की दुनिया' की हसरतें फिर ज़ोर मारने लगी थीं और उसने सेठजी से कह दिया था, एक दिन के लिए गाड़ी देने के लिए।<br /> उसके ख्यालों की शृंखला टूट गयी। पिछली सीट से उसके कंधे पर उचक आया गप्पू उससे कार स्टीरियो चलाने के लिए कह रहा है। वह फिर लौट आया अपने खराब मूड में। नहीं चलाया उसने स्टीरियो। गप्पू ने फिर कहा, तो कुंती भी बोली, ``चला दीजिए न'। कुंदन ने भरपूर नज़र से कुंती की तरफ देखा और एक झटके से स्टीरियो ऑन कर दिया। बच्चे गाने की धुन के साथ-साथ उछलने लगे।<br /> कुंदन ने फिर डपटा, ``शांति से नहीं बैठ सकते क्या?'' दरअसल इस समय वह कत्तई इस मूड में नहीं है कि ज़रा-सा भी शोर हो। वह उन्हें पुराने दिनों के ख्वाबों में खोया रहना चाहता है। लेकिन सब कुछ उसके खिलाफ चल रहा है। कुंती सब देख रही है। वह साफ महसूस कर रही है कि आज का कुंदन रोज़ वाला कुंदन नहीं है। बार-बार उसे और बच्चों को ऐसे डपट रहा है जैसे उन्हें कभी इस रूप में देखा ही न हो। उसे क्या पता नहीं, बच्चों के पास कैसे और कौन-से कपड़े हैं। य सोच-सोच कर अपना खून जला रहा है कि उसके बच्चे सेठ के बच्चों जैसे क्यों नहीं हैं। कुंती अनमनी-सी सड़क की तरफ देखने लगी।<br /> वैन जू के गेट पर रुकी। बच्चे अभी सहमे हुए हैं। वे कुंदन से आंखें चुरा रहे हैं। उसने दरवाजे खोले तो डरते-डरते उतरे। कुंदन को लगा, उससे कुछ ज्यादती हो गयी है। गाड़ी पार्क करके उसने टिकट लिये और बच्चों को धौल-धप्पा करके दौड़ा दिया। बच्चे फिर किलकारियां भरते पिंजरों की तरफ भागे।<br /> कुंदन और कुंती धीरे-धीरे चलने लगे। कुंदन ने गॉगल्स पहन लिये और चाबियों का छल्ला घुमाने लगा। दोनों में से कोई कुछ नहीं बोल रहा है। आज छुट्टी का दिन नहीं है, फिर भी चिड़ियाघर में चहल-पहल है। बच्चे थक जाते हैं तो रुक कर इन दोनों का इंतज़ार करने लगते हैं। उन्होंने जब बताया कि प्यास लगी है तो कुंदन ने सबको कोल्ड ड्रिंक्स पिलवाये।<br /> जू दिखाने के बाद कुंदन उन्हें हैंगिंग गार्डेन ले गया। वहां तेजी से रपटते हुए पिंकी गिरी और अपने घुटने, कोहनियां छिलवायी। फ्रॉक खराब हुई सो अलग। बजाय बच्चे को संभालने, पुचकारने के, कुंदन फिर बड़बड़ाने लगा, ``ढंग से चल भी नहीं सकते। जब देखो गंदे बच्चों की तरह कूदते-फांदते रहेंगे।'' कुंती ने तुरन्त पिंकी को संभाला और कुंदन पर बरस पड़ी, ``अब ये तो नहीं कि बच्ची गिर गयी है, उसे संभालें, पुचकारें, बस तब से लट्ठ लेकर पीछे पड़े हैं,'' उसने पिंकी को दुलारते हुए अपनी गोद में उठाया और उसकी चोटें सहलाने लगी। कुंदन पिंकी के नज़दीक ही था, जब वह गिरी, लेकिन अपना सफ़ारी खराब होने के चक्कर में उसे नहीं उठाया उसने।<br /> हैंगिंग गार्डन से चौपाटी आते समय सब एकदम चुप हैं। तीनों बच्चों को भूख लगी है। सामने स्टाल भी है, लेकिन हिम्मत नहीं हुई कुछ मांगें। बस ललचाई निगाहों से वे खाने-पीने का सामान देखते रहे। कुंदन आगे-आगे चलता रहा। बिना इस बात की परवाह किये कि उन्हें कुछ दिलवा दे।<br /> मछली घर देखते-देखते तीनों बच्चे भूख और थकान से निढाल हो रहे हैं। सुबह जो कुछ खाकर चले थे, तब से एक-एक कोल्ड ड्रिंक पिया है, सबने। यहां भी कुंदन का ध्यान इस ओर कत्तई नहीं है कि बच्चों को कुछ दिलवा दे। कुंती समझ नहीं पा रही, कुंदन ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है। कल तक तो भला-चंगा था। कल रात कितना उत्साहित था, बच्चों को घुमाने के लिए। और आज सुबह से उसके और बच्चों के पीछे पड़ा है। ``कपड़े गंदे क्यों हैं?'' ``ढंग से तैयार क्यों नहीं हुए?'' ``शऊर नहीं है, कुछ खाने का, जैसे कुछ देखा नहीं है, नदीदे कहीं के।'' अरे तुमने ज़िंदगी में कुछ दिखाया होता तो देखा होता। कभी इस तन को पहने हुए जोड़े के अलावा दूसरा ढंग को जोड़ा नसीब नहीं हुआ, और कहता है, ``ढंग के कपड़े क्यों नहीं पहने। मैं ही जानती हूं, जैसे-तैसे लाज रखे हुए हूं। घर की गाड़ी खींच रही हूं। माना, आज एक दिन के लिए सेठ ने तुम्हें गाड़ी दे दी है, हमें घुमाने-फिराने के लिए पर इसका ये मतलब तो नहीं कि तुम लाट साहब हो गये, गाड़ी चलाते-चलाते और हम फटीचर ही रह गये। कुंती कुढ़े जा रही है, अब ड्राइवर के बच्चे सेठ के बच्चे तो नहीं बन सकते न, अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने वाले कि एक बार में मान जायें। आखिर बच्चे ही तो हैं। पहली बार घूमने निकले हैं। थोड़ा बिगड़-बिफर गये तो क्या? बेकार ही आये, अगर पहले पता होता कि कुंदन यह हाल करेगा तो...।''<br /> बच्चे अलग कुढ़ रहे हैं। आज पहली बार गाड़ी लाये हैं और रौब मार रहे हैं दुनिया भर का। अब कभी नहीं बैठेंगे पापा की गाड़ी में। तीनों रुआंसे-से बैठे हुए हैं। अबकी बार संजय को चपत लगी है, अपनी चप्पलों से सीट खराब करने के चक्कर में। वही सबसे ज्यादा उत्साहित था सुबह और इस समय वहीं सबसे अधिक उखड़ा हुआ बैठा है।<br /> सबको बहुत हैरानी हुई जब कुंदन ने एक एयरकंडीशंड और अच्छे रेस्तरां के आगे गाड़ी रोकी। शायद वह दिन भर की कसर यहीं पूरी करना चाहता है। बच्चे, चमत्कृत होकर भीतर की सज्जा देखने लगे। कुंती भरसक प्रयास करने लगी, सहज दिखने की, जैसे यहां आना उनके लिए कत्तई नयी बात न हो। कुंदन खुद ऐसा ही दिखाने की कोशिश कर रहा है जैसे इस तरह की जगहों में उसका रोज़ का आना-जाना हो, लेकिन साफ लग रहा है, वह खुद पहली बार आया है यहां। आस-पास की मेजों पर खूब शोर है। लोग खुल कर ठहाके लगा रहे हैं, लेकिन ये सब बिल्कुल काना-फूसी के स्वर में बातें कर रहे हैं। गप्पू, पिंकी और संजय आपस में खुसुर-पुसुर करके माहौल से परिचय पा रहे हैं।<br /> मीनू देखते ही कुंदन चकरा गया है। चीजों के दाम उसकी उम्मीद से बहुत अधिक हैं। दूसरी परेशानी यह है कि उसे पता नहीं चल पा रहा कि ये चीजें हैं क्या? कभी नाम भी नहीं सुने थे, ऐसे व्यंजनों से भरा पड़ा है मीनू। टाईधारी स्टुअर्ट ऑर्डर लेने के लिए सिर पर आ खड़ा हुआ। कुंदन ने थोड़ा समय मांगने की गरज से उसे टरकाया और कुंती से फुसफुसा कर कहा, ``यहां तो चीजें बहुत महंगी हैं, क्या करें?'' कुंती ने उसे सलाह दी, ``दो-तीन दाल-सब्जियां मंगा लो किसी तरह मिल-बांट कर खा लेंगे।'' कुंदन ने किसी तरह हकलाते हुए सबसे कम कीमत वाली दाल-सब्जियों का ऑर्डर दिया और राहत की सांस ली। ए.सी. रेस्तरां में भी उसे पसीना आ रहा है। वेटर छुरी-कांटे सजा गया है। बच्चे उन्हें उलट-पुलट कर देख रहे हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा, इनसे कैसे खाना खायेंगे।<br /> सुबह से यह पहली बार है कि कुंदन बीवी-बच्चों से आंखें चुरा रहा है। वह खुद को इस माहौल में एडजस्ट नहीं कर पा रहा। बार-बार पसीना पोंछता, यही कहता रहा है, बहुत गर्मी है। सबने मुश्किल से खाना खाया है। हौले-हौले। चुपचाप। अभी भी वे अजनबियों की तरह व्यवहार कर रहे हैं। खाने के बाद जब वेटर फिंगर वाउल लाया, तो किसी को समझ नहीं आया, इनका क्या करना है। गुनगुना पानी और उसमें तैरते नीबू के कतरे। सबने कुंदन की तरफ देखा। वह खुद सकपका रहा है, क्या करे इसका। संजय ने कुछ सोचा, झट से नीबू निचोड़ा और गटक कर पानी पी गया। गप्पू और पिंकी भी यही करने वाले थे, तभी पास खड़े वेटर ने उन्हें बताया, यह पानी पीने के लिए नहीं, उंगलियों पर लगा तेल, घी, हटाने और धोने के लिए हैं। कुन्दन का चेहरा विद्रूपता से एकदम काला होने लगा। उसे लगा, भरे बाज़ार में उसे नंगा कर दिया गया है। उससे भी अदने आदमी द्वारा आज उसे उसकी औकात दिखा दी गयी है। उसने सिर ऊपर उठाये बिना हाथ धोये और बिल लाने के लिए कहा।<br /> खाना खाकर बाहर निकलते समय सबके मूड उखड़े हुए हैं। गप्पू चिंहुक रहा है, क्योंकि आइसक्रीम न दिलवाये जाने के कारण वह बुक्का फाड़ कर रो पड़ा था और कुंदन ने बिना देर किये उसे एक चांटा रसीद कर दिया। कुंती की शिकायत है, ऐसे होटल में क्यों लाये जहां पैसे तो ढेर सारे लगे, खाने में जरा भी मज़ा नहीं आया। इसी बात पर कुंदन फिर भड़क गया है, ``जैसे मैं यह सब अपने लिए कर रहा हूं। तुम्हीं लोगों को घुमाने-फिराने के लिए सेठ का अहसान लिया और यहां यह हाल है...''<br /> ``हमें पता होता कि इस तरह गाड़ी का रौब मार कर हमारी पत उतारोगे तो आते ही नहीं। देखो तो ज़रा, कितने ज़रा-ज़रा से मुंह निकल आये हैं बेचारों के।'' गप्पू अब आगे आया है, मां की गोद में, ``अगर एक आइसक्रीम दिलवा देते उसे तो क्या घट जाता?'' कुंती गप्पू को चुप कर रही है।<br /> ``हां दिलवा देता आइसक्रीम, देखा नहीं कितनी महंगी थी आइसक्रीम और बाकी चीजें। बाहर आकर मांग लेता, दिलवा भी देता, वह तो वहीं चिल्लाने लगा, नदीदों की तरह। अरे कोई देखे तो कया समझे?''<br /> ``हां कोई देखे तो यही समझे कि कोई बड़े लाट साहब अपने ड्राइवर के गलीज बच्चों को घुमा रहे हैं शहर में। अरे इतना ही शौक था किसी बालकटी बीवी का और टीम टाम वाले बच्चों का, तो क्यों नहीं कह दिया सेठ को अपने, लौंडिया ब्याह दी होती अपनी। हमारी जान के पीछे क्यों पड़े हो। जाहिल हैं, गंवार हैं हम तो। हमें तो गाड़ियों में घूमने का न तो शऊर है और न ही शौक। कहीं नहीं जाना अब हमें। छोड़ दो घर पर। बहुत हो गया।'' कुंती का पारा भी चढ़ गया है।<br /> बात तू-तू मैं-मैं से हाथा पाई तक पहुंचती, इससे पहले कुंदन ने इसी में खैरियत समझी कि उन्हें घर पर छोड़े। गाड़ी सेठ के हवाले करे और कहीं बैठ दारू पिये। अभी सिर्फ तीन ही बजे हैं और गाड़ी उसने सात-आठ बजे तक लौटाने के लिए कह रखा है।<br />• <br />सेठजी कुंदन को देखते ही चौंके, ``क्या बात है, इतनी जल्दी लौट आये। अच्छी तरह घूमा-फिरा दिया न बच्चों को?'' इससे पहले कि कुंदन कुछ कह पाता, अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आया; बोले, ``ऐसा करो, घर चले जाओ। मेम साहब की बहनें आयी हुई हैं, बच्चों के साथ। सब लोग उनकी कार में नहीं आ पायेंगे। तुम वैन ले जाओ और वे जहां कहें, घुमा लाओ सबको। मैं फोन कर देता हूं, ठीक।''<br /> कुंदन अब फिर ड्राइवर बन चुका है। ``यस सर'' कहकर बाहर आ गया। मूड अब भी संवरा नहीं है। कहां तो सोच रहा था, दारू पियेगा कहीं आराम से बैठ कर, और यहां फिर ड्यूटी लग गयी, शहर भर के चक्कर काटने की। बेकार ही यहां आया, सोचा उसने, ``गाड़ी लौटाने शाम को ही आना चाहिए था।''<br /> सेठजी के घर पहुंचा तो कोई तैयार नहीं था वहां। अपने आने की खबर दे कर वापिस वैन में आ गया। वहीं बैठा लगातार सिगरेट फूंकता रहा। कोई घंटे भर बाद सब लोग नीचे आये। तीन महिलाएं, एक पुरुष, ढेर सारे बच्चे। शायद सात-आठ। एक बड़ी लड़की। कुंदन ने सबको नमस्कार किया, जिसका उसे कोई जवाब नहीं मिला। एस्टीम मेम साहब ने खुद निकाली। उनकी बहनें, जवान लड़की, दो बड़े लड़के उसी में बैठे। वैन की तरफ सभी बच्चे लपके। तीनों दरवाजे भड़भड़ा कर खोले गये और सारे बच्चे पीछे हुड खोलकर वहां बैठने के लिए झगड़ने लगे। कुंदन अपनी सीट छोड़ कर नीचे आया। उसने देखा, सभी बच्चों ने रंग-बिरंगे कपड़े पहने हुए हैं। किसी की नेकर कहीं जा रही है, तो किसी की टी शर्ट झूल रही है। सभी बच्चे पीछे बैठने के लिए उतावले हैं। आखिर उन सज्जन ने किसी तरह समझौता करवाया उनमें कि जो बच्चे जाते समय पीछे बैठेंगे, वापसी में वे आगे बैठेंगे।<br /> कुंदन किनारे पर खड़ा सब देख रहा है। अचानक उसकी निगाह वैन के अन्दर गयी। सभी बच्चों ने गंदे जूते-चप्पलों से सीटें बुरी तरह खराब कर दी हैं। उसकी मुट्ठियां तनने लगीं, लेकिन जब उसके कानों ने ``चलो ड्राइवर'' का आदेश सुना तो चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गया और एस्टीम के आगे निकलने का इन्तज़ार करने लगा। आदेश हुआ, ``पहले हैगिंग गार्डन चलो।'' वे सज्जन उसकी बगल वाली सीट पर बैठ गये। बच्चे अभी गुलगपाड़ा मचाए हुए हैं। वैन के चलते ही किसी बच्चे ने उसे एकदम रूखी आवाज में आदेश दिया, ``ड्राइवर, स्टीरियो ऑन करो'' उसने पीछे मुड़ कर देखा, आदेश देने वाला लड़का गप्पू की उम्र का ही रहा होगा सींकिया-सा। अचानक उसे सुबह गप्पू का कहा वाक्य याद आया, कैसे मिमिया कर कह रहा था, ``पापा स्टीरियो बजाओ ना,'' लड़के की आवाज फिर गूंजी, ``सुना नहीं ड्राइवर, स्टीरियो चलाओ।'' वह तिलमिलाया। चुपचाप स्टीरियो चला दिया। सभी बच्चे चिल्लाने लगे। उसने कनखियों से साथ वाली सीट पर बैठे साहब को देखा। उन पर बच्चे की टोन का कोई असर नहीं हुआ है। हैंगिग गार्डन तक पहुंचते-पहुंचते बच्चों ने शोर मचा-मचा कर, गंदी जुबान में बातें करते हुए उसकी नाक में दम कर दिया। वह किसी तरह खुद पर नियंत्रण रखे हुए है। बार-बार उसका जी चाह रहा है, गले पकड़ कर धुनाई कर दे सब बच्चों की अभी। ज़रा भी तमीज नहीं है। मां-बाप कुछ भी नहीं सिखाते इन्हें। देखो तो, कैसे शह दे रहे हैं अपने बच्चों को।<br /> हैंगिंग गार्डन पहुंचते ही सब बच्चे कूदते-फांदते भाग निकले, सेठानी और उनके मेहमान टहलते हुए उनके पीछे चले। उसका मूड फिर उखड़ गया है। अचानक उसे ख्याल आया, पिछली सीट बहुत गंदी कर दी है बच्चों ने। वह एक कपड़ा गीला करके लाया और रगड़ -रगड़ कर सीटें पोंछने लगा। उसे याद आया, उसके अपने बच्चे भी तो तीन-चार घंटे बैठे रहे हैं इसी गाड़ी में तब तो एक दाग भी नहीं लगा था सीटों पर। संजय को सीट पर सिर्फ चप्पल रखने पर भी डांटा था उसने। सीटें साफ करते समय उसने सोचा, नाहक ही इतनी मेहनत कर रहा है। थोड़ी देर बाद बच्चों ने इनका फिर यही हाल कर देना है।<br /> जब सब लोग हैंगिंग गार्डेन से निकले तो एक बच्चे के कपड़े बुरी तरह गंदे हैं और घुटने छिले हुए हैं। कहीं गिर-गिरा गया होगा, कुंदन ने सोचा। उसे उस सज्जन ने गोद में उठा रखा है और बार-बार पुचकार रहे हैं। गाड़ियों में सवार होने से पहले सारा काफिला रेस्तरां की तरफ बढ़ गया।<br /> हैंगिंग गार्डेन से सब लोग चौपाटी की तरफ चले। इस बार वह लड़की वैन में आ गयी है। बड़े अजीब-से कपड़े हैं उसके। घुटनों तक टी शर्ट। बहुत ही मैली चीकट जींस और बाथरूम स्लीपर्स। वह बार-बार आंखें मिचमिचा रही है और बबलगम चुभला रही है। कुंदन को बबलगम से बहुत चिढ़ है। खास कर ये बच्चे जब बबलगम मुंह में फुलाकर पच्च की आवाज करते हुए फोड़ देते हैं। उसे बराबर यह डर बना रहा कि यह लड़की बबलगम कहीं गाड़ी में न चिपका दे।<br /> कुंदन का डर सही निकला। चौपाटी पर उतरते समय लड़की के मुंह में चुंइगम नहीं हैं। सबके दूर जाते ही उसने तुंत गाड़ी की पिछली सीटों वाली जगह पर देखा। चुंगम दरवाजे की फोम पर टिकुली-सा चिपका हुआ है। कुंदन की आंखों में अजीब रंग आने-जाने लगे। जी में आया, ईंट का टुकड़ा उठा कर सिर पर दे मारे उसके। ``ये बच्चे तो सचमुच ही मेरे बच्चों से भी गये-गुज़रे हैं। मैं फालतू में ही सारा दिन अपने बच्चों के पीछे पड़ा रहा कि उन्हें मैनर्स नहीं है।''<br /> उसे अपने आप पर बहुत शर्मिंदगी होने लगी। चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गया और शीशा चढ़ा दिया। एकदम उदास हो गया। कितने बड़े भ्रम में था वह अब तक। उस तरफ की दुनिया। ऊहं!!<br /> उसने तय किया कि रात को घर जाते समय बच्चों के लिए खाने की ढेर सारी चीज़ें और खिलौने ले जायेगा।<br />......सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-83793820397802153002008-04-15T09:35:00.000+05:302008-04-15T09:38:30.620+05:30नौवीं कहानी - टैंकरलुधियाना से जब करतारा ने टैंकर हाइवे पर लगाया तो रात के ग्यारह बज चुके थे। दिसम्बर की सर्द रात, सत्तर और अस्सी के बीच रेंगती स्पीडोमीटर की सुई और पूरी बोतल ठर्रा चढ़ाए व्हील पर बैठा करतारा। उसकी सीट के पीछे वाली लम्बी बर्थ पर दो-दो कम्बलों में खुद को सर्दी से बचाते हुए लेटे-लेटे मुझे तरह-तरह के ख्याल आ रहे हैं। बीच-बीच में सामने से आते किसी ट्रक की बत्तियों की चौंधियाहट आँखों पर पड़ती है तो थोड़ी देर के लिए एक अजीब-सा ख्याल जेहन में उभरता है - हम एक सर्द दोपहर में छायादार वृक्षों से घिरी किसी सड़क पर चल रहे हों और बीच-बीच में यह रोशनी न होकर धूप का टुकड़ा आ जाता हो। साइड से ट्रक के गुजरते ही यह अहसास मर जाता है और मैं फिर उस अँधेरी बर्थ पर अपने टूटते-जुड़ते ख्यालों के सिरों को तरबीब देने लगता हूँ।<br /> कभी सोचा भी न था, मुझे इस तरह रात-बेरात, वक्त-बेवक्त शहर-दर-शहर भटकने वाली नौकरी करनी पड़ेगी। एक बेईमान व्यापारी की ईमानदार नौकरी। किसलिए-सिर्फ पाँच-सौ रुपये के लिए ही तो। हाँ, पाँच सौ रुपये की यह नौकरी जो मुझे बी.एससी. करने के बाद पूरे तीन साल तक बेरोजगार रहने के बाद मिली थी और जिसके लिए मुझे किस हद तक जलालत-भरी स्थितियों से गुजरना पड़ा था। बी.एससी. की पढ़ाई करते समय कुछ सपने पालने शुरू कर दिए थे, लेकिन इस नौकरी ने उन सारे सपनों की धज्जियाँ उड़ा दी थीं। अब मुझे सपने नहीं आते, बस हरदम एक कशमकश चलती रहती है। किसीं तरह इस सबसे छुटकारा पाना है।<br /> इस समय लुधियाना से सत्तर हजार की नकद वसूली करके दिल्ली लौट रहा हूँ। करतारा गाड़ी दौड़ाता अपने में मगन है। बीच-बीच में स्टियरिंग पर ताल देता गाने लगता है-`नइयों लगदा दिल मेरा'! सर्दी से कँपकँपी छूट रही है। ट्रक की सारी खिड़कियाँ बंद होने के बावजूद झिर्रियों से आती हवा मानो चीर रही है। हम यहाँ आधी रात को ठंड में मर रहे हैं और हमारा सेठ इस समय साउथ दिल्ली में अपने आलीशान बँगले में बैठा एक के बाद एक पटियाला पैग खाली कर रहा होगा। सेठ का ख्याल आते ही मुझे उबकाई-सी आने लगी। उसे जोर से गाली देने का मन हुआ, पर उसे इर तरह सरेआम गाली नहीं दे सकता। फिर से बेरोजगार हो जाऊँगा।<br /> दरअसल मैं जिस फर्म में काम करता हूँ उसका नाम है-जय अंबे ऑयल कम्पनी। इसके मालिक हैं सेठ मुरलीधर। पाँच टैंकर हैं इस फर्म के पास जो यू.पी., पंजाब, हरियाणा के शहरों, कस्बों में डीजल, फर्नेस ऑयल, एच.एस.डी., मिट्टी के तेल वगैरह की सप्लाई करते हैं।<br /> ये सप्लाई आमतौर पर दो नंबर पर होती है। रसीद वगैरह या तो होती नहीं, या जाली बनाई जाती है। देखने में सेठ जी बहुत ही भले और धार्मिक प्रवृत्ति के लगते हैं, तभी तो उन्होंने अपनी फर्म का नाम भी ऐसा रखा है। बहुत प्यार से, धीरे-धीरे बात करते हैं। आवाज में इतना अपनापन झलकता है और चेहरे से इतने भले लगते हैं कि शुरू-शुरू में कई बार मेरे मन में यह बेवकूफी भरा ख्याल आया कि मैं रोज सुबह उन्हें नमस्ते सेठजी न कहकर उनके पैर छू लिया करूँ। परन्तु यह उन दिनों की बात है जब मुझे उनके और उनके धंधे के बारे में कुछ भी मालूम न था।<br /> हुआ यह था कि इस फर्म के लिए जो आदमी वसूली करके लाया करता था, वह चालीस हजार रुपये लेकर भाग गया। उसके घर-बार पर निगाह रखने और पुलिस को इत्तला दिए जाने के बावजूद उसका कुछ पता न चल पाया। चालीस हजार का चूना लग जाने के बाद सेठ सतर्क हो गए थे। इसलिए इस बार वे एक ऐसा आदमी चाहते थे जिसका पता-ठिकाना, घर-बार सब कुछ आँखों के सामने हो।<br /> और इसी चूना लगने की घटना के बाद मैं इस फर्म से जुड़ा। यह सब-कुछ इतना आसान न था। उन दिनों मैं दो-एक ट्यूशनें करके गुजारा कर रहा था। मेहता साहब को, जिनके बच्चों को मैं पढ़ाता था, कहीं अच्छी-सी नौकरी का जुगाड़ बिठाने के लिए मैंने कह रखा था। उनकी सेठ से जान-पहचान थी। जब सेठ ने उन्हें अपनी फर्म के लिए एक ईमानदार लड़के की तलाश के लिए कहा तो उन्होंने मेरा नाम सुझाया। नाम सुझाना ही काफी नहीं था, सेठ ने व्यावहारिक बुद्धि और जीवन भर के अनुभव के आधार पर मुझसे उलटे-सीधे सवाल पूछे। एक बेहूदा सवाल यह भी पूछा कि कहीं मुझे मिर्गी वगैरह तो नहीं आती। कहीं ऐसा न हो कि मैं दस-बीस हजार रुपये की वसूली करके आ रहा होऊँ और रास्ते में मुझे मिर्गी आ जाए और कोई सारी रकम लेकर गायब हो जाए। ऐसे बेहूदा सवालों पर गुस्सा तो बहुत आया, सोचा भाड़ में जाए ऐसी नौकरी, लेकिन नौकरी की बेहद जरूरत और अपनी मध्यवर्गीय दब्बू प्रवृत्ति के कारण सारे सवालों का सही जवाब देता रहा। सेठ ने पाँच-सौ रुपये पर नौकरी पक्की कर दी, और अगले दिन से आने के लिए कह दिया। लेकिन सेठ बहुत काइयां था, वह अपने पिछले अनुभव को दोहराना नहीं चाहता था। रात को अपनी गाड़ी में मेहता साहब को लेकर पिताजी से मिलने के बहाने हमारे घर आया। घर में रखे सामान वगैरह का जायजा लिया। पिताजी से बातें-बातों में पूछ लिया कि मकान अपना ही है और कि घर में मेरे अलावा कितने बेटे-बेटियों की शादी होनी बाकी है। हम सब कुछ समझ रहे थे, परन्तु अपनी जरूरत के आगे चुप थे। आत्मसम्मान पर लगती हर चोट को किसी तरह झेलते रहे। एक बात और भी थी, हम यही मानकर तसल्ली करते रहे कि ये सारी बातें एहतियाती तौर पर जरूरी हैं। लेकिन बाद में जब मुझे भीतर की सारी बातों का पता चला तो इस बात पर गुस्सा आने के बजाय हँसी आयी कि मेरे सेठ को बेईमानी की कमाई वसूल करके लाने के लिए एक ईमानदार आदमी की जरूरत थी और उसने मुझे किस तरह से जलील सवाल पूछने के बाद ईमानदार पाया था।<br /> यह तो ड्ऱाइवरों और क्लीनरों के साथ टैंकरों पर आ-जाकर या कई बार माल की डिलीवरी देने के दौरान मुझे पता चला कि ग्राहकों के साथ कितने स्तरों पर और कितनी बारीकियों से धोखा किया जाता था। एक पूरा सिस्टम था बेईमानी का। अगर एक जगह चूक हो जाए तो दूसरी तरकीब हाजिर, लेकिन क्या मजाल जो पूरा माल ईमानदारी से सप्लाई हो जाए। सबसे पहली हेराफेरी टैंकर भरवाते समय ही शुरू हो जाती। पेट्रोल के टैंकर में डीजल की मिलावट, डीजल में मिट्टी के तेल की और इस तरह हर माल मिलावटी भरवाया जाता। कम से कम 100 लीटर माल घटिया होता। उसके बाद जो गड़बड़ की जाती थी उसके बारे में मैं आज तक नहीं समझ सहा हूँ कि वह सेठ और ड्राइवरों, क्लीनरों की मिलीभगत थी या सिर्फ ड्राइवरों की ईजाद की हुई तरकीब। किया यह गया था कि टैंकर के तल की पूरी लम्बाई-चौड़ाई में एक नकली फर्श बनाया गया था। उसके नीचे 100-150 लीटर माल आ जाता था। होता यह था कि कई बार पार्टी चेक कर लेती कि तेल, टैंकर में ढाई-ढाई हजार के चारों कम्पार्टमेंटों में ऊपर निशान तक भरा हुआ है या नहीं, चेक कर लेने पर कि माल पूरा है, वह ड्राइवर को टैंकर में लगे नलकों से पाइपों के जरिये अंडर ग्राउंड टैंकर में तेल डालने के लिए कह देती। नतीजा यह होता कि उन नलकों से केवल ऊपरी फर्श के लेबल तक का तेल ही बाहर आता, नलके के लेबल से नीचे के तहखाने का तेल टेंकर में ही रह जाता। बाद में ड्राइवर वगैरह अपने ईजाद किए गए तरीके से तेल पीपों में भर लेते और लौटते हुए दूसरे शहर में पूरे या औने-पौने दामों पर बेच देते। यह कमाई केवल उनकी होती या सेठ की भी, इसका मुझे पता न चल सका। वैसे भी मैं जब टैंकर के साथ जाता तो ड्राइवर वगैरह मुझे सेठ का आदमी समझ कर मुझसे ज्यादा न खुलते। सब काम मेरे सामने होता पर मुझे उसमें राज़दार न बनाते। अलबत्ता, इस कमाई में से जब वे हाइवे पर किसी ढाबे पर अपने लिए बोतल खोलते तो मुझ सूफी के लिए भी चिकन वगैरह का आर्डर देते।<br /> एक अन्य टैंकर की बनावट में जो दूसरी तरह की हेराफेरी की गयी थी, वह थी कि टैंकर के चारों कम्पार्टमेंटों की भीतर की दीवारों में नीचे की तरफ चवन्नी-भर का एक छेद था। इससे होता यह था कि जब टैंकर का एक कम्पार्टमेंट खाली किया जाता तो उस छेद के जरिए दूसरे कम्पार्टमेंट में से तेल आना शुरू हो जाता। फिर तीसरे में से दूसरे व पहले में और फिर चौथे में से बाकी तीन कम्पार्टमेंटों में तेल आता रहता। जब तक घंटे-भर में टैंकर खाली होता, चारों खानों में से सौ-डेढ़ सौ लीटर तेल आराम से फैल चुका होता।<br /> इस तरीके में भी यही होता कि पार्टी द्वारा टैंकर में मौजूद तेल की मात्रा का सत्यापन कर लिए जाने के बावजूद उसे बेवकूफ बना दिया जाता। ये तो वे तरीके थे जो मैं देख पाया था या जो मुझसे छुपे नहीं रहे थे, और न जाने कितने तिलिस्म रहे होंगे टैंकरों मैं। इसके अलावा, टैंकर में माल की पैमाइश करने के लिए डिप रॉड में भी हेराफेरी की गयी थी। इसमें निशान तो पाँच फट तक के बने हुए थे, लेकिन नाप में कम से कम तीन इंच का फर्क था। उस तीन इंच के फर्क से पूरे टैंक में 100 लीटर का फर्क पड़ जाता था। मुझे पता चला था कि कुछ दूसरी कम्पनियों के टैंकरों में भरा तो नकली या मिलावटी माल जाता था, लेकिन टैंकर की ऊँचाई में ढक्कन के नीचे एक पाइप फिट था, जिसमें असली माल होता था, दिखावे भर के लिए।<br /> सबका हिस्सा बंधा हुआ था। पुलिस को बंधी-बधाई सकम पहुँचा दी जाती। डिप रॉड का कैलिब्रेशन करने वाले का हिस्सा हेराफेरी की मात्रा के साथ-साथ घटता-बढ़ता रहता। चुंगी और नाके वालों का फी ट्रक हिस्सा बंधा हुआ था। उनका हिस्सा उन्हें मिल जाए तो उसके बाद उन्हें कोई मतलब नहीं कि टैंकर में तेल जा रहा है या शराब।<br /> इन सब पर तुर्रा यह कि ज्यादातर माल की सप्लाई दो नंबर से होती थी। यानि नो रसीद बिजनेस। और इसीलिए बैंक खुला होने के बावजूद मुझे भुगतान नकद लाना पड़ता। बहुत कम मौकों पर मुझे टैंकर के साथ भेजा जाता। कई बार तो ऑफिस जाकर ही पता चलता कि कहाँ जाना है। कई मौकों पर रात भी बाहर या यात्रा में ही काटनी पड़ी।<br /> पहली बार जब वसूली के लिए दिल्ली से चला तो बहुत डर लग रहा था। बुलंदशहर की किसी पार्टी से सात हजार रुपये लाने थे। मुझे राह खर्च के लिए सौ रुपये तथा पार्टी का पता दे दिया और कहा गया कि वहाँ अपना परिचय देकर पैसे ले हूँ, हम फोन कर रहे हैं। जब मैं बुलंदशहर पहुँचा तो शाम के सात बज रहे थे। अगर वापसी के लिए आठ बजे की बस भी मिलती तो दिल्ली में सेठ के घर पहुँचने तक रात का एक बज ही जाता। मैंने पार्टी से कहा कि मैं रात किसी धर्मशाला वगैरह में काट लेता हूँ, पैसे सुबह उनके घर से ही लेकर चला जाऊँगा। सबेरे जब मैंने सात हजार रुपये लिए तो मेरा दिल धकधक कर रहा था। मैंने अपनी जिंदगी में इतने सारे रुपये पहली बार अपने हाथों में लिए थे। सात हजार तो दूर, कभी एक हजार रुपये भी आए हों, याद नहीं पड़ता। रुपये अच्छी तरह संभाल लेने के बावजूद रास्ते भर खटका लगा रहा, कहीं रास्ते में डाका न पड़ जाए, कोई चोर-उचक्का पीछे न लग जाए, डर के मारे चाय पीने के लिए भी नीचे नहीं उतरा। दिल्ली आकर सेठ को पैसे देने के बाद जान में जान आई। सेठ ने सारा हिसाब पूछा, मैंने ईमानदारी से बता दिया। उसने मुझे दो दिन के जेब खर्च के लिए बीस रुपये और दिए। तबीयत प्रसन्न हो गयी। अगर इसी तरह जेबखर्च भी मिलता रहे तो कोई दिक्कत नहीं है। कम से कम पूरी तनख्वाह तो घर पर दे सकूँगा।<br /> धीरे-धीरे मुझमें आत्मविश्वास आने लगा। पहले रकम दस हजार से कम ही होती थी। धीरे-धीरे मुझे बड़ी वसूलियों के लिए भेजा जाने लगा। पैसे संभाल कर लाने के नये-नये तरीके मैंने ढूँढ़ लिए। कभी जूते वाले डिब्बे में तीस-चालीस हजार रुपये तक रख देता और फिर डिब्बा आराम से बगल में दबा लेता, मानो नये जूते खरीद कर ला रहा होऊँ, कभी रुपये टिफिन बाक्स में रखकर लाता तो कभी डालडा के खाली डिब्बे में। इस तरह पैसे रखकर खूद को पूरी तरह संतुलित और सामान्य बनाए रखने की कोशिश करता। मैंने देखा कि रुपये इस तरह लेकर चलने में कभी कोई तकलीफ नहीं हुई। इस दौरान मैंने एक बात और सीख ली थी-किस तरह से ज्यादा-से-ज्यादा पैसे बचाए जाएँ, मसलन बस से यात्रा करना और ऑटो रिक्शा के पैसे हिसाब में लिखना, होटल में न ठहरकर धर्मशाला में ठहरना या खाना घर से ले जाना और होटल में खाने के पैसे लिख लेना। और जब किसी रिश्तेदारी वाले शहर में जाना हो तो खाना, रहना दोनों फ्री और पूरे पैसे बचा लेना। इस तरह दिल्ली से बाहर जाने वाले दिनों में कई बार तीस-चालीस रुपये ऊपर से बना लेता। हाँ, इस बात का ख्याल जरूर रखता कि हिसाब बिल्कुल सच्चा लगे। कहीं ऐसा न हो, दो-चार रुपये के चक्कर में पाँच-सौ रुपये शुद्ध और तीनेक सौ रुपये ऊपर वाली नौकरी से हाथ धोना पड़े। सेठ भले ही बहुत काइयाँ था, पर मुझ पर विश्वास करने लगा था, एक बात और भी थी कि चूँकि मैं उसके काफी सारे राज़ जान गया था, अत: हिसाब में ज्यादा मीनमेख न निकालता।<br /> इन्हीं सब बातों को सोचते-सोचते न जाने कब मेरी आँख लग गयी। सुबह जब मेरी आँख खुली तो हम दिल्ली में प्रवेश कर चुके थे। यह ख्याल आते ही कि आज रविवार है, मन को तसल्ली हुई। कई दिन से कुछ काम टल रहे थे, दर्जी को कपड़े देने हैं सोचा आज फुर्सत से सब काम निपटाएँगे।<br /> करतारा ने टैंकर का रुख सेठ के घर की तरफ कर दिया। वहाँ सेठ को रकम सौंपनी है। उसके बाद करतारा और क्लीनर टैंकर को ले जाकर आफिस के पास खड़ा कर देंगे। फिर उनकी भी अगली याञा तक के लिए छुट्टी।<br /> अभी नहा कर निकला ही था कि पता चला फर्म का मुंशी आया हुआ है। वह बहुत घबराया हुआ है। उसने बताया कि टैंकर ब्लास्ट हो गया है। सेठ कहीं बाहर चले गए हैं, सो मुझे इत्तला देने आ गया है। फटाफट तैयार होकर मैं उसके साथ लपका। अभी-अभी तो हम टैंकर छोड़ कर आए हैं। ये अचानक क्या हो गया। रास्ते में मुंशी ने बताया कि टैंकर में से बचा-खुचा तेल निकालने वालों की वजह से ऐसा हुआ है। एक के तो बिल्कुल चीथड़े उड़ गए हैं। <br />-ओ गॉड, मैं चौंका, <br />- कैसे? मुंशी बताने लगा - करतारा के टैंकर खड़ा करते ही आस-पास गैराजों में काम करने वाले दो छोकरे पीपा और पाइप लेकर आ गए। हमेशा की तरह करतारा ने उनसे दस रुपये लेकर टैंकर में से बचा-खुचा तेल निकलने की इजाजत दे दी और अपने घर चला गया। छोकरों को इस बार टैंकर से ज्यादा तेल नहीं मिला। अमूमन वे पाँच-सात लीटर तेल मुँह में पाइप लगा कर टैंकर में से खींच लेते हैं। चूँकि इस टैंकर से पेट्रोल की डिलीवरी हुई थी इसलिए उन्होंने सोचा होगा कि शायद सर्दी की वजह से पेट्रोल नीचे जम गया है और निकल नहीं रहा है। पैट्रोल के लालच में उनमें से एक लड़के ने बहुत बड़ी बेवकूफी की। उसने तेल से भीगा एक कपड़ा एक लकड़ी पर लपेटा और उसमें आग लगाकर टैंकर पर चढ़ गया। उसने सोचा कि शायद आग की गर्मी से पैट्रोल पिघल जाएगा लेकिन टैंकर का ढक्कन खोलते ही टैंकर में जमा हो गयी गैस की वजह से जोर का धमाका हुआ और टैंकर फट गया। टैंकर अब अंजर-पंजर रह गया है। सारी बात सुन कर मेरा दिमाग भन्ना गया - न जाने कौन थे वे छोकरे! वहीं मर-वर न गए हों।<br /> जब हम वहाँ पहुँचे तो भीड़ लगी हुई है। नौ-दस साल की उम्र के दो मासूम छोकरे वहाँ पड़े बुरी तरह तड़प रहे हैं। पुलिस के डर से उन्हें अब तक कोई अस्पताल नहीं ले गया है। हमारे पहुँचते ही करतार और क्लीनर भी आ गए। दोनों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही हैं। उन्हीं की वजह से यह सब हुआ है। छोकरे गए सो गए, सेठ को तीन लाख के टैंकर के लिए क्या जवाब देंगे।<br /> हमने उन दोनों को किसी तरह एक टैम्पो पर चढ़ाया और अस्पताल ले गए। वहाँ डॉक्टरों ने कहा - यह पुलिस केस है, पहले पुलिस को आ जाने दो, तभी भर्ती किया जाएगा। बहुत-बहुत मिन्नतें करने और लड़कों की हालत की दुहाई देने पर उन्हें भर्ती किया गया। पुलिस को खबर कर दी गयी। जो लड़का टैंकर पर च़ढ़ा था, उसके बचने की उम्मीद कम ही थी। उन्हें अस्पताल में मैं, मुंशी, क्लीनर और दुकान का एक अन्य नौकर छोड़ने आए हैं। पुलिस के आने से पहले ही मुंशी ने कहा - हम तो इस लफड़े में नहीं पड़ेंगे। अस्पताल पहुँचा दिया, अब उनका बचना न बचना ऊपर वाले के हाथ में है। उम्र भर के लिए पुलिस और अदालतों के चक्कर में कौन पड़े। और उसने सहमति माँगने की गरज से क्लीनर और दूसरे नौकर की तरफ देखा। वह बेचारा पहले ही घबराया हुआ था, क्या कहता, तीनों मुझे छोड़कर चले गए। मैंने उन छोकरों को इस तरह छोड़ना उचित नहीं समझा। टैंकर तो गया ही, उसका बीमा भी हो रखा होगा, पैसे मिल जाएँगे; लेकिन इन बेचारों का क्या होगा। तभी मैंने सोचा फोन करके सेठ को पूछ लूँ शायद आ गए हों। पर वह तब तक नहीं आए थे।<br /> एमरजेन्सी वार्ड के बाहर बैठे मुझे तरह-तरह के ख्याल आ रहे हैं। वे किसके बच्चे हैं; कहाँ के रहने वाले हैं? उन्हें कुछ हो गया तो किसे इत्तला करूँगा। मैं यह भी सोच रहा हूँ कि मैं यहाँ क्यों बैठा हूँ उनकी इस हालत के लिए मैं तो कहीं जिम्मेवार नहीं हूँ। क्यों मैं सुबह से बिना एक चाय पिए यहाँ बैठा हूँ? अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तीन-चार लड़के इधर आए। उनके चेहरे उतरे हुए हैं। उनमें से एक ने मुझे बताया कि वो लड़का जो ज्यादा जल गया है शिब्बू एक गैराज में था, -साहब वो बच जाएगा ना? वह पूछ रहा है, मैं उसे क्या जवाब दूँ। उस बारह-तेरह साल के लड़के पर एकाएक कितनी बड़ी जिम्मेवारी आ गयी है। मैं उन्हें वहीं बैठ जाने का इशारा करता हूँ।<br /> तभी पुलिस वाले आ गए हैं। दोनों छोकरे अभी एमरजेन्सी वार्ड में बेहोश पड़े हैं और बयान देने की स्थिति में नहीं हैं। मेरा बयान लिया गया है। मुझे जितना बताया गया था, मैंने बता दिया है। वे सेठ और ड्राइवर आदि के पते लेकर, फिर आने के लिए कह कर चले गए हैं।<br /> मुझे बहुत जोर की चाय की तलब लगी है, भूख भी लगने लगी है, परन्तु वहाँ से उठने की हिम्मत नहीं बटोर पा रहा। वहाँ बैठे हुए भी मुझे हर वक्त यही लग रहा है कि अभी डाक्टर या नर्स बाहर आकर कहेगी, वो लड़का क्या नाम है उसका, हाँ...उसे बचाया नहीं जा सका, और वह सिर झुका कर वापिस चली जाएगी। तब हम उठेंगे और...<br /> और हुआ भी यही। कोई तीन घंटे तक हमारे वहाँ बैठे रहने के बाद एक डाक्टर ने वार्ड से बाहर आकर बताया कि उस लड़के को नहीं बचाया जा सका। शिब्बू का भाई सिसकने लगा है। उसके साथ आए लड़के बुरी तरह सहम गए हैं। मैं एकाएक खालीपन महसूस करने लगा हूँ। मैंने शिब्बू के भाई के कंधे पर हाथ रखा। मेरे हाथ का स्पर्श पाते ही वह फफक पड़ा। मैंने उसे रोने दिया। थोड़ी देर बाद जब उसका रोना कुछ थमा तो उससे पूछा-अब क्या करोगे, कहाँ घर है तुम्हारा-उसने बताया, यहाँ हमारा कोई नहीं है। दोनों होटल में ही सोते थे। घर बहादुरगढ़ में है! आप ही बताइए - क्या करूँ साहब! मैं चिंतित हो गया। वह अबोध लड़का कैसे कर पाएगा यह सब। मैं खुद अपने आपको इतना उदास थका-थका और खाली महसूस कर रहा हूँ कि साथ जाना संभव नहीं है, मैंने उसे यही सलाह दी कि मैं एक टैक्सी कर देता हूँ, वह शिब्बू की लाश को लेकर गाँव चला जाए। उसने हामी भर ली है। लाश मिलने और पुलिस की कागजी खाना पूरी करने में शाम के चार बज गए हैं। मैंने सारी कार्रवाई पूरी की। लाश मिलने पर बहुत मुश्किल से एक टैक्सी वाला लाश लेकर सौ रुपये में जाने के लिए तैयार हुआ है। बाकी लड़के भी उसके साथ जा रहे हैं। मैंने सेठ के पैसों में से सौ रुपये टैक्सी वाले को और दो सौ रुपये शिब्बू के भाई को दिए।<br /> उन्हें विदा करके मैं सीधा सेठ के घर गया। वे अब तक नहीं आए हैं। सुबह फिर आने को कहकर मैं वापिस घर आ गया। बुरी तरह थक गया हूँ। सुबह से कुछ खाया भी नहीं है, हालांकि इन सारी घटनाओं के पीछे मैं कहीं भी दोषी नहीं हूँ, फिर भी न जाने क्यों एक अपराध-बोध सा मुझे कचोट रहा है।<br /> अगले दिन जब मैं आफिस पहुँचा तो सेठ जी करतारा को बहुत ऊँची आवाज में गालियाँ दे रहे हैं। आम तौर पर वे बहुत धीमे-धीमे बोलते हैं, पर इस समय वे अपनी पंजाबी पर उतर आए हैं। माँ-बहन की गालियाँ मैं उनके मुँह से पहली बार सुन रहा हूँ। वे इस सारी दुर्घटना के लिए करतारा को दोषी ठहरा रहे हैं। करतारा इस बात से बिल्कुल इनकार कर रहा है कि उसने उन छोकरों को टैंकर से तेल निकालने की इजाजत दी थी। बल्कि उसका कहना है कि उसने उन्हें कभी देखा भी न था। अब कोई भी आकर उसके पीछे से चोरी करे तो उसका क्या कुसूर।<br /> शायद रात पुलिस भी सेठ के घर पर आई हो। मैं वहीं एक कोने में खड़ा हूँ। इतने में उनकी निगाह मुझ पर पड़ी, एकदम भड़के, ये सब क्या लफड़ा है? किस चक्कर में फँसा दिया तुम लोगों ने हमें? क्या हुआ उन छोकरों का? एक तो मर गया है न? और हाँ! पेमेंट लाए क्या? कहाँ है?'' इतने सारे सवालों के जवाब में मैंने यही कहा, जी, मैं आपको बताने आया था, पर आप थे नहीं, मैंने उसकी लाश उसके भाई को दिलवा दी और, सोचा पैसों की बात भी उन्हें बता दूँ, आखिर उन्हीं के पैसे खर्च किए हैं, मैंने, वे तारीफ ही करेंगे कि चलो कुछ तो किया उनके लिए, जी और पेमेंट ले आया था और उसमें से लाश गाँव ले जाने के लिए टैक्सी वाले को सौ रुपये और क्रिया-कर्म के लिए भाई को दो सौ रुपये दे दिए थे।<br /> क्या? सेठ जी चौंके - किससे पूछ कर आपने उस हरामी के पिल्ले पर तीन सौ रुपये खर्च कर दिए, लाट साहब जी, एक तो यहाँ तीन लाख का टैंकर उड़ गया, बीमा कम्पनी से पता नहीं हर्जाना भी मिलेगा या नहीं और आप हैं कि तीन सौ का चूना और लगा आए! उनकी आवाज फिर ऊपर उठने लगी है, मैं पूछता हूँ - वो मेरा दामाद लगता था कि उसकी लाश को टैक्सी से ले जाने के लिए सौ रुपये खर्च कर दिए हैं। सेठजी बड़बड़ाने लगे, एक तो वो हमारे टैंकर से तेल चोरी कर रहा था और हमारा तीन लाख का टैंकर ले डूबा। अचानक उन्होंने बात रोक कर मुंशी जी को आवाज दी- ऐ मुंशी जी, ये तीन सौ रुपये लिख दो सतपाल जी के नाम। हमारी इतनी हैसियत नहीं है कि दया-धर्म दिखलाते फिरें। मैं भौंचक रह गया। मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि बीस-पचीस लाख की मिल्कियत वाला यह सेठ इन तीन सौ रुपयों के लिए इस हद तक उतर आएगा। दो पल पशोपेश में रहा - मार दूँ ऐसी नौकरी पर लात, थू है ऐसी कमाई पर, पर अगले ही पल नौकरी छोड़ने वाली सारी घटनाएँ तेजी से दिमाग में घूम गयीं। नहीं, छोड़ना सरासर मूर्खता होगी। तय कर लिया है और चुपचाप बाहर आ गया हूं। अब मुझे यही फैसला करना है कि अपनी ईमानदारी में और कितने प्रतिशत की कटौती करूँ।सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-83700869177830009222008-04-07T09:28:00.000+05:302008-04-07T09:29:13.784+05:30आठवीं कहानीखो जाते हैं घर<br />बब्बू क्लिनिक से रिलीव हो गया है और मिसेज राय उसे अपने साथ ले जा रही हैं। उन्होंने क्लिनिक का पूरा पेमेंट कर दिया है। <br />- ओ के डाक्टर, तो फिर मै इसे ले जा रही हूं। कोई भी बात होगी तो मैं आपको फोन पर बता दूंगी। वे चलते समय डॉक्टर की अनुमति लेती हैं।<br />डॉक्टर ने उन्हें निश्चिंत किया है - ठीक है मैडम, आप इसे दवाएं देती रहें। कुछ ही दिनों में बिलकुल ठीक हो जायेगा। ओ के बब्बू , बाय। आंटी को परेशान नहीं करना।<br />बब्बू ने कमज़ोर आवाज़ में कहा है - नहीं करूंगा।<br />डॉक्टर ने बब्बू के गाल सहला कर उसे गुड बाय कहा है।<br />वे एक बार फिर डॉक्टर को याद दिला रही हैं - अगर वो आदमी आये इस बच्चे के बारे में पूछने तो मुझे तुंत खबर करें। प्लीज़।<br />डॉक्टर ने उन्हें आश्वस्त किया है - श्योर, श्योर, हालांकि अब इतने दिन बीत जाने के बाद उसके आने की बाद उम्मीद कम ही है, लेकिन जैसे ही वो आया, मैं आपको तुंत खबर कर दूंगा। मुझे अभी भी यही लग रहा है कि उसने इस बच्चे को कहीं बुखार में तड़पते देख लिया होगा और खुद इसका इलाज कराने की हैसियत नहीं रही होगी इसलिए इसे यहां छोड़ गया। <br />- मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है। उसका अपना बच्चा होता कि कैसे भी करके एक बार तो ज़रूर ही मिलने आता ही। लेकिन बीच बीच में ये दूसरे बच्चों की कहानियां सुनाता रहा है, उससे मामला और उलझ गया है। मिसेज राय ने अपनी आशंका व्यक्त की है।<br />-मेरे ख्याल से बच्चे के पूरी तरह से ठीक हो जाने के बाद ही सारी बातों के बारे में बेहतर ढंग से पता चल सकेगा।<br />- हां मेरा भी यही ख्याल है कि बच्चा अभी भी सारी बातें सिलसिलेवार नहीं बता पा रहा है। कुछ दिन तो इंतजार करना ही पड़ेगा। <br />मिसेज राय ने ड्राइवर से सारा सामान उठाने के लिए कहा है और वार्ड बॉय को इशारा किया है बच्चे को कार में बिठा देने के लिए।<br />बब्बू को कार में आराम से बिठा देने के बाद वे खुद कार में आयी हैं।<br />बब्बू जिंदगी में पहली बार किसी कार में बैठा है और हेरानी से सारी चीजें देख रहा है। बहुत ज्यादा आरामदायक सीटें, ठंडी ठंडी हवा, बहुत हौल हौले बजता संगीत और पानी पर चलती सी कार। वह शीशे से आंखें सटा कर बाहर का नजारा देखना चाहता है। <br />मिसेज राय उसे आराम से बिठा कर खिड़की के नजदीक सरका देती हैं। <br />वह अचानक कार में से अनुपस्थित हो गया है और बाहर भागती दौड़ती दुनिया में शामिल हो गया है। मिसेज राय उसके सिर पर हौले हौले उंगलियां फिरा रही हैं। वे अपनी तरफ से कुछ कह कर या पूछ कर बच्चे और उसकी दुनिया में बाधक नहीं बनना चाहतीं। उन्हें कोई जल्दी नहीं है। <br />बब्बू थोड़ी ही देर में कार के भीतर की दुनिया में लौटता है और उनसे आंखें मिलाता है। <br />वे मुस्कुराती हैं। <br />बब्बू भी उनकी मुस्कुराहट के बदले अपने चेहरे पर कीमती मुस्कुराहट लाने की कोशिश करता है। <br />उसका गाल सहलाते हुए पूछती हैं वे - बेटे, अब कैसा लग रहा है?<br />वह हौले से कहता है - ठीक।<br />बदले में वह उनसे पूछता है - हम कहां जा रहे हैं?<br />-घर, क्यों?<br />-किसके घर?<br />- अपने घर और किसके घर?<br />-आपका घर कहां है?<br />-लोखंड वाला में।<br />बब्बू चुप हो गया है। उसे सूझ नहीं रहा कि बात को आगे कैसे बढ़ाये। कभी किसी से उसने इतनी और इस तरह की बातें की ही नहीं हैं।<br />वह कुछ सोच कर अपने आप ही कहने लगता है - मेरा घर तो बहुत दूर है।<br />- कहां है तुम्हारा घर मेरे बच्चे? उन्हें उम्मीद की कुछ किरणें नज़र आयी हैं।<br />-पता नहीं। बच्चे ने एक बार फिर उन्हें मझधार में छोड़ दिया है।<br />- अच्छा वो आदमी कौन था जो तुम्हें अस्पताल में छोड़ गया था?<br />- मुझे नहीं पता।<br />- अच्छा इतना तो पता होगा कि तुम कहां रहते थे और किसके साथ रहते थे?<br />- दोस्तों के साथ।<br />- कहां ?<br />- पुल के नीचे।<br />-जगह याद है?<br />- नहीं।<br />- कोई खास बात याद है उस पुल के बारे मे?<br />- उधर मच्छर बहुत थे। रात भर काटते रहते थे।<br />- बंबई आये कितने दिन हुए होंगे तुम्हें?<br />- पता नहीं।<br />- खाना कहां खाते थे?<br />- कहीं भी खा लेते थे।<br />- सारा दिन क्या करते रहते थे?<br />- कुछ भी नहीं ।<br />- तुम्हारे वो दोस्त कहां मिल गये थे जिन्हें तुम्हें रोज याद करते थे?<br />- वहीं पुल के नीचे।<br />- क्या करते थे वो लोग?<br />- सब अलग अलग काम करते थे।<br />- तो तुम्हारा ख्याल कौन रखता था?<br />- सब रखते थे।<br />- खाना पीना?<br />- सब मिल कर खाते थे।<br />- तो तुम क्या करते थे?<br />- कुछ नहीं, मैं तो बहुत छोटा हूं ना.. ..।<br />-लेकिन हो उस्ताद। छोटू उस्ताद।<br />- मैं उस्ताद थोड़ी हूं।<br />-अच्छा, अपने घर की याद है तुम्हें? <br />-हां।<br />- कौन कौन हैं तुम्हारे घर में ?<br />-बाबू, अम्मा, दीदी.. भाई..।<br />- तुम बंबई में कैसे आ गये ?<br />- ट्रेन में।<br />- कब की बात है ?<br />- पता नहीं ।<br />- तुम लोग बंबई क्या करने आ रहे थे?<br />- शादी में।<br />- और कौन थे साथ में?<br />- सब थे।<br />- तो तुम उनसे अलग कैसे हो गये?<br />- पता नहीं।<br />- तुम्हारे मां बाप तुम्हें ट्रेन में छोड़ गये थे क्या?<br />- मुझे क्या पता।<br />- तुम कितने भाई -बहन हो?<br />- चार।<br />- अच्छा .. ..। तो तुम्हें बिलकुल याद नहीं है कि कहां पर है तुम्हारा घर ?<br />- बहुत दूर।<br />- लेकिन कहां?<br />- गांव में।<br />- गांव का नाम याद है?<br />- ज्वालापुर।<br />- और स्कूल का ?<br />- आदर्श स्कूल।<br />- और पिता जी का नाम?<br />- बाबू ।<br />- और मां का ?<br />- पता नहीं ।<br />- बाबू क्या करते हैं?<br />- दुकान है।<br />- तुम्हें तो बेटे कुछ भी अच्छी तरह याद नहीं या पता नहीं। ऐसे में अपने घर कैसे जाओटगे? <br />- पता नहीं।<br />- अपने बाबू अम्मा से कैसे मिलोगे?<br />- पता नहीं। <br />बब्बू इतने सारे सवालों से थक गया है। और फिर उसे अपने घर की भी याद आने लगी है। उसने अपनी अंाखें मूंद ली हैं। मिसेज राय भी समझ रही है कि उससे इतने सारे सवाल एक साथ नहीं पूछने चाहिये थे। <br />वे उसे चुप ही रहने देती हैं।<br />अचानक बब्बू ने आंखें खोली हैं - आंटी आप क्या करती हैं?<br />- क्यों बेटे?<br />- वैसे ही पूछा, आपकी गाड़ी बहुत अच्छी है। ठंडी ठंडी।<br />- तुम्हें अच्छी लगी?<br />- हां, आप भी।<br />- अरे बाप रे, हम भी तुम्हें अच्छे लगे, भला क्यूं ?<br />- आप रोज आती थी हमसे मिलने। इत्ती सारी चीजें लाती थीं और मारती भी नहीं थी।<br />- मैं क्यूं मारने लगी तुम्हें मेरे बच्चे ? तुम तो इतने प्यारे, इतने अच्छे बच्चे हे, भला कोई तुम्हें क्यों मारने लगा ?<br />- बाबू नहीं मारते थे। अम्मा मारती थी, दीदी, भइया मारते थे।<br />- बहुत खराब थे वो लोग। तुम्हें तो कोई मार ही नहीं सकता।<br />तभी उन्होंने ड्राइवर से कहा है - ड्राइवर, जरा सामने रेडीमेड कपड़ों की दुकान के आगे गाड़ी तो रोकना। अपने राजा बाबू के लिए कुछ कपड़े तो ले लें।<br />- मैं क्या करूंगा कपड़े? बब्बू ने अपना जिक्र सुन कर पूछा है।<br />- क्यों कपड़ों का क्या करते हैं?<br />- पहनते हैं। मैंने भी तो पहने हुए हैं।<br />- तुम इतने दिन से अस्पताल में थे ना, अब घर जा रहे हो इसलिए अच्छे कपड़े तो चाहिये ही ना। और खिलौने भी। बोलो कौन सा खिलौना पसंद है?<br />- हम घर पर खिलौनें से थोड़े ही खेलते थे।<br />- तो किस चीज से खेलते थे मेरे बच्चे ?<br />- वैसे ही खेलते रहते थे। <br />- बहुत भोले हो तुम बेटे, बच्चें के तो खिलौनों से खेलना ही चाहिये। है ना ? <br />गाड़ी एक स्टोर के सामने रुकी है। मिसेज राय बच्चे को ड्राइवर के साथ वहीं कार में ही छोड़ कर भीतर जा कर बच्चे के लिए ढेर सारे कपड़े और खिलौने ले कर आयी हैं।<br />कार में आते ही उन्होंने ड्राइवर से कहा है - अब सीधे घर चलें। हमारे बेटे को भी आराम करना चाहिये। है ना मुन्ना? वे उसकी तरफ देख कर पूछती हैं।<br />वह सिर हिलाता है।<br />गाड़ी लोखंड वाला कॉम्पलैक्स में एक बहुत ही बड़ी और भव्य इमारत के आगे रुकी है। वे बच्चे को आराम से नीचे उतारती हैं। दोनें लिफ्ट तक आते हैं। बच्चा हैरानी से सारी भव्यता देख रहा है। उसके लिए ये दुनिया बिलकुल अनजानी और अनदेखी है। <br />लिफ्ट आने पर दोनों भीतर आये हैं।<br />बच्चा लिफ्ट में पहली बार आ रहा है और हैरानी से पूछता है - आंटी, ये कमरा क्या है ? <br />वे हंस कर बताती हैं - बच्चे ये कमरा नहीं है। ये लिफ्ट है। इससे ऊपर जाते हैं।<br />- अच्छा ये लिफ्ट है। टीवी पर एक बार पिक्चर में देखी थी।<br />वे अपनी मंजिल पर पहुंच गये हैं। <br />वे एक दरवाजे की घंटी बजाती हैं। दरवाजा बाइ ने खोला है। वे उसे ले कर भीतर गयी हैं।<br />नौकरानी ने उनके हाथ से सामान ले लिया है और बच्चे को देख कर कहती है - हाय, किती छान मुलगा आहे। किसका है मेमसाहब?<br />वे गर्व से बताती हैं - हमारा मेहमान है। अभी हमारे साथ ही रहेगा और सुनो, ये बाबा बीमार है। इसके लिए हलका खाना बनाना। पूरा ख्याल रखना इसका। ठीक ..।<br />- ठीक है मेमसाहब। उसके हाथ बच्चे के गाल सहलाने के लिए मचलते हैं लेकिन वह खुद पर कंट्रोल करती है। बहुत मौके आयेंगे इसके। वह चुपचाप भीतर सामान रखने चली गयी है।<br />अपने कमरे में जाते ही उन्होंने बच्चे को भींच कर अपने सीने से लगा लिया है। वे ज़ोर ज़ोर से रोने जा रही हैं। वे उसे भींचे भींचे - मेरे लाल, मेरे लाल कहे जा रही हैं। उन्हें रोते देख बच्चा घबरा गया है और वह भी रोने लगा है।<br />- आंटी आप रो क्यों रही हो?<br />- अरे पागल, मैं रो कहां रही हूं, ये तो .. ये तो.. खुशी के आंसू हैं।<br />- आंटी, खुशी के आंसू कैसे होते हैं। <br />- बहुत सवाल करता है रे। आदमी जब बहुत खुश होता है ना, तब भी रोता है।<br />- मैं तो जब भी रोता हूं तो खुशी के आंसू थोड़े ही आते हैं। जब गिर जाता हूं या भूख लगती है तो मैं तो सचमुच रोता हूं। आंटी, आपको चोट लगती है तो आप रोती हैं क्या?<br />- पगले, बड़ों को जब चोट लगती है ना.. तो वो चोट नजर नहीं आती। बस, पता चल जाता है कि चोट लग गयी है। समझे बुद्धू राम ..।<br />- नहीं।<br />- तू नहीं समझेगा मेरे लाल। आ मैं तुझे समझाती हूं।<br />उसे ले कर एक तस्वीर के सामने ले कर आती हैं, लगभग पांच साल के एक गदबदे बच्चे की तस्वीर है। मुस्कुराते हुए बच्चे की तस्वीर।<br />- आंटी, ये किसकी तस्वीर है?<br />- बेटे, ये मेरे पोते की तस्वीर है।<br />- पोता क्या होता है? <br />- अरे बाप रे, कैसे बताऊं कि पोता क्या होता है। अच्छा देख। तू बेटा तो समझता है ना। जैसे तू अपने बाबू का बेटा है।<br />- हां।<br />- तो जो तेरा बेटा होगा ना वो तेरे बाबू का पोता होगा।<br />- मेरा बेटा कैसे होगा? मैं तो इतना छोटा सा हूं।<br />- अरे जब तेरी शादी होगी तब तेरा बेटा होगा ना वो तेरे बाबू का पोता होगा। समझे?<br />- नहीं समझा।<br />- कोई बात नहीं। ये मेरे पोते की तस्वीर है। <br />- क्या नाम है आपके पोते का?<br />- मेरे पोते का नाम है रिक।<br />- आंटी ये कैसा नाम है रिक?<br />- बेटे, जहां वह रहता है वहां ऐसे ही नाम होते हैं।<br />- कहां रहता है वह?<br />- फ्लोरिडा में।<br />- ये कहां है?<br />- बहुत दूर। सात समंदर पार।<br />- आंटी समंदर क्या होता है?<br />- समंदर माने, समंदर माने.. चलो, एक काम करते हैं, तुझे शाम को समंदर दिखाने ले चलेंगे। अपने आप देख लेना। <br />- आप उसे अपने पास क्यों नहीं रखतीं आंटी?<br />वे फिर से रोने लगी हैं - पगले मैंने उसे आज तक देखा ही नहीं है। कितनी अभागी हूं। मेरा पोता पांच साल का हो गया और आज तक मैंने उसे देखा ही नहीं। पास रखने का बात तो दूर है। कभी कभी फोन पर उसकी आवाज सुन लेती हूं तो मेरे कलेजे में ठंडक आ जाती है। <br />- आपने उसे देखा क्यों नहीं है आंटी?<br />- मेरा बेटा कभी उसे यहां ले कर आया ही नहीं।<br />- क्यों ?<br />- उसके पस टाइम ही नहीं है। वह खुद भी अब यहां नहीं आता।<br />- क्यों नहीं आता?<br />- इन सारे सवालों का जवाब मेरे पास नहीं है बेटे। होता तो क्या तुझे अपने सीने से लगा कर रोती पगले।<br />बच्चा समझ नहीं पाता इतनी सारी बातें और उनके बंधन से अपने आप को मुक्त कर लेता है। अब अलग होने के बाद उसका ध्यान घर पर, वहां रखे इतने सारे सामान पर और शानो शौकत पर गया है। उसने पूरे घर का एक चक्कर लगाया है और लौट कर उनके पास वापिस आया है। <br />- आंटी इतने बड़े घर में आप अकेली रहती हैं?<br />सिर हिला कर बताती हैं - हां।<br />- आपको डर नहीं लगता?<br />- लगता है।<br />- किससे ?<br />- बेटे, एक डर हो तो बताऊं। कभी अपने आपसे डर लगता है तो कभी अपने अकेलेपन से डर लगता है। कभी अपने बुढ़ापे से डर लगने लगता है। बोल तू मेरे साथ यहां रहेगा मेरा डर दूर करने के लिए?<br />- मेरे रहने से आपका डर दूर हो जायेगा आंटी?<br />- तू नहीं जानता मेरे बेटे तू कितना प्यारा है तेरे यहां रहने से इस घर का सारा अंधेरा दूर हे जायेगा।<br />- आंटी आप जोक मारती हैं। घर में अंधेरा कहां है। इतनी रोशनी है।<br />- हां बेटे, बाहर से ही तो रोशनी नजर आती है। भीतर का अंधेरा ऐसे ही थोड़ी नजर आता है। बोल ना रहेगा मेरे पास। मैं तुझे खूब पढ़ाऊंगी। अच्छे स्कूल में तेरा एडमिशन कराऊंगी। तू खूब पढ़ लिख कर फिर मेरी मदद करना। मेरा डर दूर करना। करेगा? <br />- लेकिन मेरे दोस्त ?<br />- दोस्त तो ठीक हैं बेटे लेकिन हम उन्हें ढूंढें कहां ? तुम्हें सिर्फ पुल के अलावा कुछ भी तो याद नहीं? कितना अच्छा होता तुम्हारे मां बाप भी मिल जाते।<br />- लेकिन मैं दोस्तों के पास ही जाऊंगा।<br />- अच्छा एक काम करते हैं। तुम जरा ठीक हो जाओ तो बंबई में जितने भी पुल है हम सब जगह जायेंगे और तुम्हारे दोस्तों का पता लगायेंगे। चलोगे न हमारे साथ?<br />- चलूंगा। आंटी कबीरा मेरा बहुत ख्याल रखता है। और फिर मोती भी तो है। मैं आपको सबसे मिलवाउंगा।<br />-ये मोती कौन है? <br />- आंटी मोती हमारा कुत्ता है। बहुत सयाना है। झट से बता देता है कि दोस्त कौन है और दुश्मन कौन।<br />- अरे वाह कैसे बता देता है भाई ?<br />- आंटी, वे जब किसी को देख कर सिर हिलाये तो इसका मतलब है कि वो दोस्त है और जब किसी को देख कर भौंकना शुरू कर दे तो इसका मतलब है कि सामने वाला दुश्मन है।<br />- अरे वाह, ये तो बहुत मजेदार बात है। हमें मिलवायेगा तू मोती से?<br />- हां आंटी और एक गप्पू भी है हमारे साथ। हर समय उसकी निकर नीचे उतरती रहती है। खूब मजा आता है।<br />- अरे वाह, चल बेटे अब तू आराम कर ले जरा। मैं भी कुछ काम धाम निपटा लूं। जब भूख लगे तो मुझ्टा या माया आंटी को बता देना। ठीक है। लो इस कमरे में आराम करो, ठीक है। बाद में बात करेंगे। <br />- अच्छा आंटी।<br />- अब से तुम इसी कमरे में रहोगे।<br />- ये इत्ता बड़ा कमरा मेरे अकेले के लिए?<br />- क्यों? डर लगता है क्या?<br />- नहीं। ठीक है आंटी।<br />मुन्ना लेट तो गया है लेकिन उसे नींद नहीं आ रही। ये सारी चीजें, यहां का माहौल और तामझाम उसकी कल्पना से परे हैं। वह उठ बैठा है। वह पूरे घर में घूम घूम कर देख रहा है। सारी चीजें उसके लिए नई हैं और उसने पहले कभी नहीं देखी हैं। वह कभी स्टीरियो देखता है तो कभी रंगीन टैलिफोन। कभी कभी तस्वीरें देखता है और मूर्तियां। जब चारों तरफ की चीजें देख चुका तो वह आंटी के दिये खिलौने अकेले खेलने लगा। वह देर तक अकेले बैठे उन सारे खिलौनों को उलटता पलटता रहा। उसकी दिक्कत ये है कि ज्यादातर खिलौने या तो बैटरी वाले हैं या उन्हें चलाना उसके बस में नहीं। थक हार कर उसने सारी चीजें एक तरफ सरका दी हैं।<br />**<br />मिसेज राय बच्चे को जुहू घुमा कर लायी हैं। उसने अपनी ज़िंदगी में पहली बार समुद्र देखा है। बेशक वह तीन महीने से मुंबई में भटक रहा था लेकिन पता नहीं कैसे वह समुद्र तक पहुंच नहीं पाया। उसे कोई भी उस तरफ नहीं ले कर गया। वह समुद्र से मिल कर बहुत खुश हुआ और पानी में खूब अठखेलियां की उसने। बेशक मिसेज राय डर रहीं थी कि बच्चा अभी ही तो बीमारी से उठा है, कहीं समुद्र की ठंडी हवा उस पर कोई असर न कर दे, लेकिन बच्चा मस्त हो कर पानी से खूब खेलता रहा। वह कभी लहरों से दूर भागता तो कभी पानी के एकदम पास जाना चाहता। मिसेज राय ने खुद भी उसके साथ झूले में बैठीं, घोड़ा गाड़ी की सवारी की और गुब्बारे ले कर उसे साथ साथ गीली रेत पर दौड़ती रहीं। उन्होंने अरसे बाद अपने आप को पूरी तरह से भूल कर, बच्चे के साथ बच्चा बन कर एक नया अनुभव लिया। <br />घर पहुंच कर बच्चा बिफर गया है। उसे अपने दोस्तों की याद आ गयी है। वह रुआंसा हो गया है - आंटी, मुझे कबीरा के पास जाना है।<br />मिसेज राय की परेशानी बढ़ गयी है - देखो बेटे, अभी तुम्हारी तबीयत पूरी तरह से ठीक नहीं हुई है। अभी तो कुछ दिन तुम्हें दवा खानी है। हम तुम्हें इस तरह से बाहर नहीं भेज सकते। एक काम करते हैं हम। कल हम गाड़ी में जा कर पूरे शहर में कबीरा को खोज निकालेंगे। तब हम उसे कहेंगे कि तुमसे रोज मिलने आया करे या हम ड्राइवर से कह देंगे वह कबीरा को ले आया करेगा।<br />बच्चे को आशा की किरण दिखी है - मोती को भी लायेगा?<br />बच्चे को इतनी आसानी से मान जाते देख मिसेज राय सहज हो गयी हैं। लपक कर आश्वस्त किया है उसे - ठीक है मोती को भी लायेंगे। बस, अब तुम आराम करो बेटे। इतनी देर पानी में खेले तुम। <br />लेकिन बच्चे की लिस्ट अभी पूरी नहीं हुई है - गप्पू को भी ?<br />मिसेज राय को यह शर्त भी महंगी नहीं लगी- ठीक है गप्पू को भी, हम भी देखें कि उसकी नेकर कैसे नीचे उतरती है। चलो अब आप आराम करो। आपकी दवा का भी टाइम हो रहा है।<br />अब बच्च अपने सवालों की दुनिया में वापिस आ गया है। पूरी शाम जुहू पर जो सवाल पूछता रहा, फिर से उसके ध्यान में आ गये हैं - आंटी, समुद्र में इतना पानी कहां से आता है?<br />मिसेज राय ने उसे समझाने की कोशिश कर रही हैं - अरे बेटा, तुम अभी भी वहीं अटके हो। देखो ऐसा है कि समुद्र में पहले से ही इत्ता सारा पानी है।<br />- आंटी, समुद्र सब जगह क्यों नहीं होता?<br />- अगर समुद्र सब जगह होगा मेरे भोले बेटे तो हम रहेंगे कहां?<br />- सब जगह पानी रहेगा तो कित्ता मजा आयेगा, पानी में खेलते रहेंगे हम।<br />- तो स्कूल कब जायेंगे, काम कब करेंगे और दवा कब खायेंगे नटखट राम जी?<br />- हम दवा नहीं खायेंगे, कड़वी लगती है।<br />- दवा नहीं खाओगे तो ठीक कैसे होवोगे, बोलो, तब कबीरा और गप्पू के साथ कैसे खेलोगे। उन्होंने उसे ब्लैकमेल किया है।<br />- ठीक है खाऊंगा। वह अपने ही फंदे में फंस गया है। <br />**<br />सवेरे का समय है। वह सो रहा है। मिसेज राय ऑफिस जाने की तैयारी कर रही हैं। उसके पास आ कर प्यार से वे उसे चूमती हैं। <br />नौकरानी को आवाज देती हैं - माया, सुनो, हमें शाम को वापिस आने में देर हो जायेगी। बच्चे का पूरा ख्याल रखना। मैं बीच बीच में फोन करती रहूंगी। <br />- ठीक है मेम साहब<br />- जब बच्चा जग जाये तो उसे गरम पानी से नहला देना। उसे अपने आप खेलने देना। खाना वक्त पर खिला देना। <br />- अच्छा मेम साहब<br />- बच्चे को टाइम पर दवा दे देना। मालूम है ना कौन सी गोली देनी है।<br />- मालूम। <br />मिसेज राय एक बार फिर बच्चे के गाल चूम कर जाती हैं।<br />**<br />बच्चे ने जागने के बाद सबसे पहले पूरे घर में आंटी को ढूंढा है।<br />कहीं नहीं मिलीं उसे। रुआंसा हो गया है वह। उसे रसोई में माया नजर आयी हैं। अब वह उसे भी पहचानने लगा है – आंटी कहां है?<br />- काम पे गयी मेम साब।<br />- कहां ?<br />- आपिस।<br />- आपिस क्या होता है?<br />- आपिस माने कचेरी।<br />- कचेरी क्या होता है?<br />- वो सब हमको मालूम नईं। मेमसाब रोज जाता आपिस। शाम कू आता। बाबा, तुम दूध पीयेंगा अब्भी। फिर तुम नहा कर खेलना।<br />- आज कबीरा आयेगा?<br />- हां, मेमसाहब बेला कि ड्राइवर जा के कबीरा को खोजेंगा और फिर मुन्ना बाबा और कबीरा एक साथ खेलेंगा।<br />बच्चा खुश हो गया है। अब उसे आंटी नहीं चाहिये - मोती भी आयेगा ना?<br />- हां मोती भी आयेगा।<br />लेकिन माया के आश्वासन के बावजूद कबीरा नहीं आया है। वह कई बार बाल्कनी में, बड़े वाले कमरे में और पूरे घर में टहलते हुए अपने दोस्तों का इंतजार कर रहा है। ड्राइवर भी अब तक वापिस नहीं आया है। उसे बेशक स्नान कर लिया है, दूध पी पी लिया है, दवा भी खा ली है लेकिन उसका ध्याल लगातार दरवाजे पर ही लगा रहा है और एक पल के लिए भी वह आराम नहीं कर पाया है। माया के बार बार कहने के बावजूद वह सोने के लिए तैयार नहीं हुआ है। कहीं ऐसा न हो कि कबीरा वगैरह आयें और उसे सोया पा कर लौट जायें।<br />वह अकेले बोर हो रहा है। सारे कमरे में खिलौने बिखरे पड़े हैं। वह कभी बालकनी में जा रहा है और कभी भीतर आ रहा है। उसका मूड बुरी तरह से उखड़ा हुआ है। वह इस बीच कई बार रो चुका है। उसे समझ में ही नहीं आ रहा कि क्या करे।<br />तभी फोन की घंटी बजी है। उसे समझ नहीं आता कि फोन की आवाज सुन कर क्या करे। उसे फोन उठाना नहीं आता। तभी लपकती हुई माया आयी है और उसने फोन उठाया है। वह फोन सुनते हुए लगातार हा हा कर रही है। फिर उसने उसे बुलाया है - बाबा मेमसाहब का फोन है। आप से बात करेंगा। <br />बच्चा फोन लेता है लेकिन समझ में नहीं आता उसे कि कैसे पकड़ना है। माया उसे बताती है और कहती है - हैलो बोलने का।<br />- हैलो, आंटी आप जल्दी आओ। कबीरा नहीं आया। <br />मिसेज राय उसे बताती हैं - हम जल्दी आयेंगे बेटा। तुम आराम करो। ठीक है। <br />- ठीक है। फोन माया को लौटा देता है।<br />**<br />बच्चे का मूड बुरी तरह बिगड़ा हुआ है। वह ज़ोर ज़ोर से रोये जा रहा है। माया उसे कभी गोद में उठा कर चुप कराने की कोशिश करती है तो कभी खिलौने दे कर बहलाना चाहती है लेकिन बच्चा है कि एकदम बिफर गया है और किसी भी तरह से काबू में नहीं आ रहा है। माया इस बीच कई बार कोशिश कर चुकी है कि मेमसाहब को फोन पर बताये कि बच्चा किसी भी तरह से काबू में नहीं आ रहा है, वह करे तो क्या करे लेकिन वे किसी मीटिंग में हैं और उन तक वह कैसे भी करके संदेश नहीं दे पा रही। आज तक उसके सामने ऐसी स्थिति नहीं आयी थी। उसने कभी अपनी तरफ से मेम साहब को फोन ही नहीं किया है।<br /> माया उसे बहलाने की कोशिशें कर रही है लेकिन उसे समझ में नहीं आता कि क्या करें। तभी माया ने उसे पैंसिल और कागज ला कर दिया है। बच्चा उस पर आड़ी तिरछी रेखायें खींचने लगा है। कुछ देर के लिए वह बहल गया है। ये देख कर माया की जान में जान आयी है। वह रेखाएं खींच रहा है। कभी गोल, कभी सीधी। उसका मन बहल गया है और वह अब उसी में मस्त है। कागज रंगते रंगते उसे नींद नींद आ गयी है और वह वहीं सो गया है। <br />**<br />वह बालकनी में खड़ा है। नीचे पार्क में बच्चे खेल रहे हैं। वह थोड़ी देर उन्हें खेलते देखता रहता है। फिर माया से पूछता है - मैं नीचे खेलने जाऊं।<br />- जाओ बाबा, लेकिन जल्दी आ जाना।<br />माया उसके कपड़े बदलती है और जूते पहनाती है और उसके लिए दरवाजा खोल देती है।<br />माया को नहीं मालूम कि यह बच्चा इस दुनिया का नहीं है। वह जहां से आया है, वहां लिफ्ट, बहुमंजिला इमारतें, चिल्डर्न पार्क और ये सारे ताम झाम नहीं होते। वह बच्चा इस दुनिया में खुद नहीं आया, बल्कि लाया गया है और उसे कई सारी चीजों के बारे में बिलकुल भी नहीं पता। <br />माया ने तो ये देखा कि बच्चा घर में बैठे बैठे बोर हो रहा है तो थोड़ी देर नीचे खेल कर लौट आयेगा। माया को ये बात सूझ ही नहीं सकती कि बच्चे को खुद नीचे ले जाये और अपने सामने थोड़ी देर तक खिला कर वापिस ले आये।<br />**<br />वह थोड़ी देर तक लिफ्ट के आगे खड़ा रहता है लेकिन उसे समझ में नहीं आता कि इसे कैसे खोले। इधर माया ने भी दरवाजा बंद कर दिया है। उसे डोर बैल के बारे में पता है लेकिन उस तक उसका हाथ नहीं पहुंचता। वह तीन चार बार हौल हौले से दरवाजा थपकाता है लेकिन भीतर काम कर रही माया तक आवाज नहीं पहुंचती।<br />वह धीरे धीरे सीढ़ियां उतरने लगता है। <br />वह बच्चों के पार्क में पहुंच गया है और उन्हें खेलता हुआ टुकुर टुकुर देख रहा है। वैसे भी वह उन बच्चों के सामने अपने आपको बौना महसूस कर रहा है। धीरे धीरे वह सामने आता है लेकिन तय नहीं कर पाता कि कौन सा खेल खेले या किस खेल में शामिल हो जाये। अचानक एक गेंद लुढ़कती हुई उसके पैरों के पास आती है और वह उसे उठा कर एक लड़के को दे देता है। पता नहीं कैसे होता है कि वह भी उनके खेल में शामिल हो जाता है। उसे अपना लिया गया है और उसे अच्छा लगने लगता है। वह सब कुछ भूल कर खूब मस्ती से खेल रहा है।<br />काफी देर तक वह उनके साथ खेलता रहता है। <br />इस बीच अंधेरा घिरने लगा है और सारे बच्चे अकेले वापिस जा रहे हैं या अपनी अपनी आयाओं, बहनों, माताओं के साथ लौट रहे हैं। <br />वह भी खेल कर थक गया है और वापिस लौटना चाहता है। <br />वह कदम बढ़ाता है, लेकिन उसे याद ही नहीं आता कि वह किस बिल्डिंग में से निकल कर आया था। कभी एक बिल्डिंग की तरफ जाता है और कभी दूसरी की तरफ। वह लड़खड़ा रहा है, और घबरा कर रोने लगा है। वह अपना घर भूल गया है। वह रोते रोते भटक रहा है और अपनी इमारत से काफी दूर आ गया है। <br />अंधेरा पूरी तरह घिर चुका है।<br />सड़क पर रोता हुआ अकेला बच्चा चला जा रहा है।<br />बच्चा वापिस सड़क पर आ गया है।<br />*****<br />सूरज प्रकाशसूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-27371553988891667962008-03-31T09:18:00.001+05:302008-03-31T09:22:27.116+05:30सातवीं कहानी - छोटे नवाब, बड़े नवाबआखिर फैसला हो ही गया। हालांकि इससे न छोटा खुश है, न बड़ा। बड़े को लग रहा है-छोटे का इतना नहीं बनता था। ज्यादा हथिया लिया है उसने। छोटा भुनभुना रहा है-बड़े ने सारी मलाई अपने लिए रख ली है। मुझे तो टुकड़ा भर देकर टरका दिया है, लेकिन मैं भी चुप नहीं बैठूंगा। अपना हक लेकर रहूंगा।<br /> छोटा भारी मन से उठा, ''चलता हूं बड़े। वह इंतज़ार कर रही होगी।''<br /> ''नहीं छोटे। इस तरह मत जा।'' बड़े ने समझाया, ''घर चल। सब इकट्ठे बैठेंगे। खाना वहीं खा लेना। फोन कर दे उसे। वहीं आ जाएगी। होटल से चिकन वगैरह लेते चलेंगे।''<br /> छोटा मान गया है।<br />• <br />फोन उठाते ही छोटे की बीवी ने पूछा, ''क्या-क्या मिला? कहीं बाउजी के लिए तो हां नहीं कर दी है?''<br /> ''तुमने मुझे इतना पागल समझ रखा है क्या?'' छोटा आवाज दबा कर बोला। साथ वाली मेज पर बड़ा दूसरे फोन पर अपनी बीवी से बात कर रहा है।<br /> ''मैं माना ही बिज्जी को रखने की शर्त पर।'' छोटे ने बताया।<br /> ''नकद भी मिलेगा कुछ?''<br /> ''हां, मुझे सिर्फ तीन देगा बड़ा। उसके पास फिर भी बीस लाख से ऊपर है नकद अभी भी।'' छोटा फिर भुनभुनाया।<br /> ''तो ज्यादा क्यों नहीं मांगा तुमने? और क्या-क्या मिलेगा?'' छोटे की बीवी फोन पर ही पूरी रिपोर्ट चाहती है।<br /> ''अभी बड़े के घर आ ही रही हो। सब बता दूंगा।'' और छोटे ने फोन रख दिया।<br /> उधर बड़े की बीवी उसकी तेल मालिश कर रही है फोन पर ही, ''आपकी तो, पता नहीं अक्ल मारी गई है। हां कर दी है बाउजी के लिए। आपका क्या है, संभालना तो मुझे पड़ता है। एक मिनट चैन नहीं लेने देते। अब आप ही दुकान पर बिठाया करना सारा दिन।''<br /> ''समझा करो भई। बिज्जी को रखने की शर्त पर ही छोटा इतने कम पर माना है।'' बड़े ने तर्क दिया, ''वरना वह तो...''<br /> ''और क्या-क्या दे दिया है उसे? कहीं पालम वाला फार्म हाउस तो नहीं दे दिया? आपका कोई भरोसा नहीं।''<br /> ''नहीं दिया बाबा वह फार्म हाउस। अभी आ ही रहे हैं। सब बता दूंगा।'' कहकर बड़े ने फोन रख दिया और पसीना पोंछा।<br /> दोनों ने घर पहुंचते ही अपनी-अपनी बीवी को फैसले की संक्षिप्त रिपोर्ट दे दी है। दोनों औरतें कुछ और पूछना चाहती हैं, लेकिन उनके हाथ और अपनी आंख दबाकर दोनों ने इशारा कर दिया है-''अभी नहीं।'' <br />दोनों समझदार हैं। मान गई हैं, लेकिन जितनी खबर मिल चुकी है, उसे भी अपने भीतर रखना उन्हें मुश्किल लग रहा है। किसी को बतानी ही पड़ेगी। उन्होंने बच्चों के कान खाली देखकर बात वहां उंड़ेल दी है। बच्चे तो बच्चे ठहरे। सीधे दादा-दादी के कमरे की तरफ लपके। खबर प्रसारित कर आये।<br /> बड़े ने इंपोर्टेड व्हिस्की निकाल ली है - चलो पिंड छूटा। जब से इसे पार्टनर बनाया था, तब से चख-चख से दु:खी कर रखा था। तब पार्टनर बनने की जल्दी थी और अब चार साल में ही अलग होने के लिए कूद-फांद रहा था। पिछले कितने दिनों से तो रोज़ फैसले हो रहे थे, लेकिन दोनों ही रोज़ अपनी बीवियों के कहने में आकर रात के फैसले से मुकर जाते थे। फिर वहीं पंजे लड़ाना, फूं-फां करना...। आज निपटा ही दिया आखिर। बड़ा मन-ही-मन खुश है।<br /> बड़े ने बाउजी को भी बुलवा लिया है। उन्हें यह सौभाग्य कभी-कभी ही नसीब होता है। सिर्फ एक या दो पैग। आज वे समझ नहीं पा रहे - यह दावत खुशियां मनाने के लिए है या ग़म गलत करने के लिए। अलबत्ता, वे अपने हिसाब से उदास हो गए हैं,''प्रॉपर्टी के साथ-साथ मां-बाप का भी बंटवारा। अब तक तो दोनों घर अपने थे। कभी यहां तो कभी वहां। कभी वे इधर तो कभी बिज्जी उधर। कोई रोक-टोक नहीं थे। उठाई साइकिल और चल दिए। कहीं कोई तकलीफ नहीं, लेकिन... लेकिन... अब मुझे यहीं रहना होगा। अकेले। बिज्जी उधर अलग। सारे दिन इस बड़े की बीवी के ज़हर बुझे तीर झेलने होंगे। कैसे रहेंगी बिज्जी अकेली! बेशक ऑपरेशन के बाद कोई खतरा नहीं रहा। फिर भी कैंसर है। कोई छोटी-मोटी बीमारी नहीं। कौन बचता है इससे! दोनों कहीं भी रह लेते। आखिर हम दोनों का खर्चा ही कितना होगा। कुकी के ट्यूटर से भी कम। उदिता की पॉकेट मनी भी ज्यादा होगी हम दोनों के खर्चे से!''<br /> बाउजी बिना घूंट भरे, गिलास हाथ में लिये ऊभ-चूभ हो रहे हैं - कहें भी तो किससे! इस घर में मेरी सुनता ही कौन है! कहते-सुनाते सब हैं। बड़ों की देखा-देखी छोटे भी। बस, फैसला कर दिया और कहलवाया भी किसके हाथ? बच्चों के। मैं तो एकदम फालतू हूं। घर के पुराने सामान से भी गया-बीता? पड़े रहो एक कोने में। क्या मतलब है इस ज़िंदगी का! <br />बाउजी ने अपने हाथ में पकड़ा व्हिस्की का गिलास देखा - ग्यारह सौ की आयी थी यह बोतल और इस बुड्ढे-बुढ़िया का महीने भर का खर्च!<br /> तभी उन्हें कहीं दूर से आती बड़े की आवाज सुनाई दी। सिर उठाया - सामने ही तो खड़ा है वह। छोटे का कंधा थामे। कह रहा है, ''छोटे, हम दोनों ने अपना बिजनेस अलग कर लिया है, रिश्ते नहीं। हम आगे भी एक-दूसरे को मान देते रहेंगे। हमारे घरों का, दिलों का बंटवारा नहीं हुआ है छोटे।''<br /> छोटा भावुक हो गया है, ''हां बड़े। यह घर मेरा ही है और वह घर तुम्हारा है। हम पहले की तरह एक - दूसरे के सुख-दु:ख में खड़े होंगे।''<br /> ''देख छोटे, तू मां को ले जा तो रहा है, लेकिन याद रखना, वह पहले मेरी मां है। तू उसे कोई तकलीफ नहीं देगा।''<br /> ''नहीं दूंगा बड़े। वह मेरी भी तो मां है।''<br /> ''छोटे, तू उससे कोई काम नहीं करवाएगा। उसकी सेवा करेगा। उसके इलाज पर पूरा ध्यान देगा।'' बड़े ने अपना गिलास दोबारा भरा।<br /> ''हां बड़े, उसकी पूरी सेवा करूंगा।'' छोटे ने भी अपना गिलास खाली किया। <br /> ''बिज्जी को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए छोटे। उसे ज़रा-सा भी कुछ हो तो तू सबसे पहले मुझे खबर करेगा।'' बड़े ने फिश कटलेट का टुकड़ा मुंह में डाला।<br /> ''वादा करता हूं बड़े।'' छोटे ने सलाद चखी।<br /> अब बड़ा भी भावुक हो गया है। उसने एक लंबा घूंट भरा, ''छोटे, मुझे गलत मत समझना। हम लोगों ने दूसरों के कहने में आकर यह बंटवारा तो कर लिया है, लेकिन हम दोनों सगे भाई हैं। आगे भी बने रहेंगे।''<br /> बाउजी से और नहीं बैठा जाता। अपना बिन पिया गिलास वहीं छोड़कर लंबे-लंबे डग भरते हुए अपने कमरे में चले आए। आज की रात तो थोड़ी देर बिज्जी के पास बैठ लें। कुछ कह-सुन लें। कल तो उसे छोटा ले जाएगा। इतनी देर से रोकी गई भड़ास और नहीं रोकी जाती। फट पड़ते हैं, ''लानत है ऐसी औलाद पर, ऐसी ज़िंदगी पर। कभी अपनी मां के कमरे में झांककर नहीं देखते। जीती है या मरती है। खुद मुझे कोई दो कौड़ी को नहीं पूछता, नौकर से भी बदतर। और ये दोनों लाल घोड़ी पर चढ़े बड़ी-बड़ी बातें बना रहे हैं।'' <br />पछता रहे हैं बाउजी, ''बहुत बड़ी गलती की थी यहां आकर। वहीं अच्छे थे। अपना घर-बार तो था। इन लोगों के झांसे में आकर सब कुछ बेच-बाच डाला। तब बड़े सगे बनते थे हमारे! अब सब कुछ इन्हें देकर इन्हीं के दर पर भिखारी हो गए हैं। जब अपनी ही औलाद के हाथों दुर्गत लिखी थी तो दोष भी किसे दें। इससे तो गरीब ही अच्छे थे हम। न मोह, न शिकायत! जैसे थे, सुखी थे।''<br /> उनकी बड़बड़ाहट सुनकर बिज्जी की आंख खुल गई। पूछती हैं, ''कहां गए थे? अब किसे कोस रहे हो?''<br /> ''कोस कहां रहा हूं। मैं तो...'' गुस्से की मक्खी अभी भी बाउजी की नाक पर बैठी है, ''वो अंदर पार्टी चल रही है। जश्न मना रहे हैं दोनों। प्रॉपर्टी के साथ हमारा भी बंटवारा हो गया है। उसी खुशी में...''<br /> ''छोटा आया है क्या? इधर तो झांकने नहीं आया?'' बिज्जी उदास हो गई है।<br /> ''फिकर मत कर। कल से रोज आएगा झांकने तेरे कमरे में। तू उसी के हिस्से में गई है।'' बाउजी की आवाज में अभी भी तिलमिलाहट है।<br /> बिज्जी ने सुनकर भी नहीं सुना। जब से बिस्तर पर पड़ी हैं, किसी भी बात की भलाई-बुराई से परे चली गई हैं। बाउजी की तरफ देखती हैं। उन्हें समझाती हैं, ''अपना ख्याल रखना। बहुत लापरवाह हो। ज्यादा टोका-टोकी मत करना। बड़ा और उसकी वो तो तुमसे वैसे ही ज्यादा चिढ़ते हैं।''<br /> ''हां, चिढ़ते हैं। सब चिढ़ते हैं मुझसे। हरामखोर हूं मैं तो। घर पर रहूं तो पिसता रहूं। दुकान पर बैठूं तो बेगार करूं। मुझसे तो दुकान का नौकर बंसी अच्छा है। महीने की दस तारीख को गिनकर पूरी तनखा तो ले जाता है, जबकि काम मैं भी उतना ही करता हूं। ग्राहकों को चाय पिलाता हूं। उनके जूठे गिलास धोता हूं। दुकान की सफाई करता हूं। साइकिल पर कितनी-कितनी दूर जाता हूं और क्या उम्मीद करते हैं मुझसे! अब इन सत्तर साल की बूढ़ी हड्डियों से जितना बन पड़ता है, खटता तो हूं।'' बाउजी की दु:खती रग दब गई है। वे फिर शुरू हो गए हैं, ''इन साहबजादों के लिए जमा-जमाया घर छोड़कर आए थे। सब कुछ इन्हें दे दिया। हमारी क्या है, कट जाएगी। अब इन दोनों ने महल खड़े कर लिये हैं, लाखों-करोड़ों में खेल रहे हैं और यहां...''<br /> ''अब बस भी करो। तुम्हारा तो बस रिकाड हर समय बजता ही रहता है। कोई सुने, न सुने। जब तुम्हारा टाइम था तो तुम्हारी चलती थी। गलत बातें भी सही मानी जाती थीं। हैं कि नहीं। अब वक्त से समझौता कर लो। सही-गलत...''<br /> ''तू सही-गलत की बात कर रही है, यहां तो कोई बात करने को तैयार नहीं...''<br /> बिज्जी ने नहीं सुना। वे अपनी रौ में बोल रही हैं, ''मुझे यहां से भेजकर भूल मत जाना। कभी-कभी आ जाया करना। फोन कर लिया करना। मैं तो क्या ही आऊंगी वापस अब...बची ही कितनी है...।''<br /> बाउजी एकदम सकते में आ गए। सहमे से बिज्जी को देखते रह गए - क्या सचमुच हमेशा के लिए जा रही है बिज्जी यहां से? यह बीमार, कमज़ोर औरत, जिसके चेहरे पर हर वक्त मौत की परछाईं नज़र आती है, अब कितने दिन और जिएगी इस तरह? दवा-दारू से तो वह पहले ही दूर जा चुकी है। अब इन आखिरी दिनों में तो दोनों बच्चों के कुटुंब को एक साथ हंसता-खेलता देख लेती। आराम से मर सकती। न सही औलाद का सुख, हम दोनों को तो एक साथ रह लेने देते। उनसे और कुछ तो नहीं मांगते। जीते-जी तो मत मारो हमें...लेकिन सुनेगा कौन! यहां जितना हो सकता था, इसकी देखभाल कर ही रहा था। वहां तो कोई पानी को भी नहीं पूछेगा। कैसे जिएगी ये... और कैसे जिऊंगा मैं...''<br /> ''कहां खो गए?'' बिज्जी इतनी देर से जवाब का इंतजार कर रही हैं। बाउजी उठकर बिज्जी की चारपाई के पास आए। वहीं बैठ गए। उनका हाथ थामा, ''भागवंती, हमारी औलाद तो ऊपर वाले से भी जालिम निकली। वह भी इतना निर्दयी नहीं होगा। जब भी बुलावा भेजेगा, आगे-पीछे चले जाएंगे। वहां तो अलग-अलग ही जाना होता है ना! यहां तो जीते-जी अलग कर रही है हमारी अपनी कोखजायी औलाद।'' बाउजी का गला रुंध गया है। बिज्जी ने जवाब में कुछ नहीं कहा। कितनी-कितनी बार तो सुन चुकी है उनके ये दुखड़े। बिज्जी ने हाथ बढ़ाकर बाउजी की आंखों में चमक आए मोती अपनी उंगलियों पर उतार लिये।<br />• <br />उधर बड़े-छोटे के संवाद जारी हैं। अब दोनों नहीं बोल रहे, दोनों के भीतर एक ही बोतल की इंपोर्टेड व्हिस्की बोल रही है, जिसे कभी छोटा खोलता है तो कभी बड़ा।<br /> इस बार पैग छोटे ने बनाए, ''बड़े, मुझे माफ करना, बड़े। मैंने अपनी वाइफ के बहकावे में आकर अपने देवता जैसे भाई का दिल दुखाया। उससे अपना हिस्सा... मांगा।'' वह रोने को है।<br /> ''छोटे, तू चाहे अलग रहे, अलग काम करे, तू इस घर का सबसे बड़ा मेंबर है।'' बड़ा फिर भावुक हो गया है, ''मार्च में उदिता की शादी है, सब काम तुझे ही करने हैं।''<br /> ''फिकर मत कर बड़े। मैं इस घर के सारे फर्ज अदा करूंगा। उदिता की शादी का सारा इंतज़ाम मैं देखूंगा।'' छोटे के भीतर बड़े के बराबर ही शराब गयी है।<br /> इससे पहले कि इसके जवाब में बड़ा कुछ कहे या आज का फैसला अपनी बीवी की सलाह लिये बिना बदले, उसकी बीवी ने आकर फरमान सुनाया, ''अब बहुत... हो गयी है। चलो, खाना लग गया है।''<br /> बड़े ने अपना गिलास खत्म करके छोटे का हाथ थामा और उसे लिये-लिये डाइनिंग रूम में आ गया।<br /> वहां बाउजी, बिज्जी को न पाकर उसने उदिता से कहा, ''जाओ बेटे, बाउजी, बिज्जी को भी बुला लाओ।''<br /> जवाब बड़े की बीवी ने दिया, ''उन लोगों ने अपने कमरे में ही खा लिया है। आप लोग शुरू करो।''<br /> खाना खाने के बाद बड़ा-छोटा और उनकी बीवियां, चारों लोग बाउजी-बिज्जी के कमरे में गए। बिज्जी सो गई है। बाउजी अधलेटे आंखें बंद किए पड़े हैं।<br /> ''चलते हैं बाउजी।'' यह छोटे की बीवी है। उसने बाउजी के आगे सिर झुकाया। वह जब भी बाउजी, बिज्जी से विदा लेती है, ऐसा ही करती है। छोटा भी उसके साथ-साथ ही झुक गया। बाउजी ने रजाई से हाथ निकाला, ऊपर किया, कुछ बुदबुदाए और हाथ रजाई में वापस चला जाने दिया। छोटा और उसकी बीवी यही दोहराने के लिए बिज्जी की चारपाई के पास गए, लेकिन बाउजी ने इशारे से रोक दिया, ''सो गई है। जगाओ मत।''<br /> जाते-जाते बड़े ने पूछा है, ''बत्ती बंद कर दूं क्या? बाउजी की ''आं' को उसने ''हां' समझ कर लाइट बुझा दी है।<br />• <br />छोटे के कार स्टार्ट करने तक यह तय हो गया है कि बड़ा कल ही छोटे को उसके हिस्से में आयी प्रॉपर्टी के कागजात वगैरह और पैसे दे देगा। छोटे की बीवी परसों आकर बिज्जी को और उनका सामान लिवा ले जाएगी।<br />• <br />रात में छोटे और बड़े की अपनी-अपनी बीवी के दरबार में पेशी हुई। एक बार फिर लंबी बहसें चलीं और दोनों की ब्रेन वाशिंग कर दी गयी और उन्हें जतला दिया गया-उन्हें फैसले करना नहीं आता। दोनों का नशा सुबह तक बिलकुल उतर चुका था। दोनों ने ही सुबह-सुबह महसूस किया - दूसरे ने ठग लिया है। इधर बड़ा सुबह-सुबह हिसाब लगाने बैठ गया, ''छोटे के हिस्से में कितना निकल जाएगा।'' उधर छोटा कॉपी-पेंसिल लेकर बैठ गया, ''उसे देने के बाद बड़े के पास कितना रह...जायेगा।''<br /> दोनों को हिसाब में भारी गड़बड़ी लगी। बड़े को शक हुआ, ''छोटे ने ज़रूर कुछ प्रॉपर्टीज अलग से खरीदी-बेची होंगी। इतना सीधा तो नहीं है वह। दुकान पर जाते ही सारे कागजात देखने होंगे। क्या पता छोटे ने पहले ही कागजात पार कर लिये हों।''<br /> उधर छोटे को पूरा विश्वास है, बड़े के पास कम-से-कम तीस लाख तो नकद होना ही चाहिए। पिछली तीन-चार डील्स में काफी पैसे नकद लिये गये थे। कहां गए वे सारे पैसे! फिर उसने मार्केट रेट से हिसाब लगाया, उसके हिस्से में कुल चौदह-पंद्रह लाख ही आ रहे हैं, जबकि बड़े ने अपने पास जो प्रॉपर्टीज रखी हैं, उनकी कीमत एक करोड़ से ज्यादा है। नकद अलग। तो इसका मतलब हुआ, बड़े ने उसे दसवें हिस्से में ही बाहर का रास्ता दिखा दिया है। छोटे ने खुद को लुटा-पिटा महसूस किया।<br /> क्या करूं, क्या करूं, जपता हुआ वह अपनी कोठी के लॉन में टहलने लगा। भीतर से उसकी बीवी ने उसे इस तरह से बेचैन देखा तो उसे अच्छा लगा। रात की मालिश असर दिखा रही थी। थोड़ी देर इसी तरह बेचैनी में टहलने के बाद वह सीधे टेलीफोन की तरफ लपका।<br /> उधर बड़े के साथ सुबह से यही कुछ हो यहा था। वह भी उसी समय टेलीफोन की तरफ लपका था। जब तक पहुंचता, फोन घनघनाने लगा।<br /> ''बड़े नमस्कार। मैं छोटा बोल रहा हूं।''<br /> ''नमस्ते। बोल छोटे। सुबह-सुबह! रात ठीक से पहुंच गए थे?'' बड़े ने सोचा, पहले छोटे की ही सुन ली जाए।<br /> ''बाकी तो ठीक है बड़े लेकिन मेरे साथ ज्यादती हो गई है। कुछ भी तो नहीं दिया है तुमने मुझे।''<br /> ''क्या बकवास है? इधर मैंने हिसाब लगाया है कि जब से तू पार्टनरशिप में आया है, हम दोनों ने मिलकर भी इतना नहीं कमाया है, जितना तू अकेले बटोर कर ले जा रहा है।''<br /> ''रहने दे बड़े, मेरे पास भी सारा हिसाब है...।''<br /> ''क्या हिसाब है? चार साल पहले जब तू नौकरी छोड़कर दुकान पर आया था, तो घर समेत तेरी कुल पूंजी चार लाख भी नहीं थी। डेढ़ लाख तूने नकद लगाए थे और ढाई लाख का तेरा घर था। अब सिर्फ चार साल में तुझे चार के बीस लाख मिल रहे हैं। चार साल में पांच गुना! और क्या चाहता है?'' बड़े को ताव आ रहा है।<br /> ''कहां बीस लाख बड़े। मुश्किल से दस-ग्यारह, जबकि तुम्हारे पास कम-से-कम एक करोड़ की प्रॉपर्टी निकलती है। नकद अलग।''<br /> ''देख छोटे,'' बड़ा गुर्राया, ''सुबह-सुबह तू अगर यह हिसाब लगाने बैठा है कि मेरे पास क्या बच रहा है तो कान खोलकर सुन ले। तुझे हिस्सेदार बनाने से पहले भी मेरे पास बहुत कुछ था। तुझसे दस गुना। अब तू उस पर तो अपना हक जमा नहीं सकता।'' बड़ा थोड़ा रुका। फिर टोन बदली, ''तुझे मैंने तेरे हक से कहीं ज्यादा पहले ही दे दिया है। मैं कह ही चुका हूं, इन चार-पांच सालों में हमने चार-पांच गुना तो कतई नहीं कमाया। रही एक करोड़ की बात, तो यह बिलकुल गलत है। बच्चू, मैं इस लाइन में कब से एड़ियां घिस रहा हूं। तब जाकर आज चालीस-पचास लाख के आस-पास हूं। एक करोड़ तो कतई नहीं।''<br /> ''नहीं बड़े।''<br /> ''नहीं छोटे।''<br /> ''नहीं बड़े।''<br /> ''नहीं छोटे।''<br /> ''तो सुन लो बड़े। मैं ज्ञानचंद नहीं हूं, जिसे तुम यूं ही टरका दोगे। मैंने भी उसी मां का दूध पिया है। इन चार सालों में हमने जितनी डील्स की है, सबकी फोटो कॉपी मेरे पास है। मुझे उन सबमें पूरा हिस्सा चाहिए, चाहे दस बनता हो या पचास। मैं पूरा लिये बिना नहीं मानूंगा।'' छोटे ने इस धमकी के साथ ही फोन काट दिया।<br /> जब तक बड़े और छोटे फोन से निपटते, ताजे समाचार जानने की नीयत से उनकी बीवियां गरम चाय लेकर हाजिर हो गईं। बड़े की बीवी ने खूबसूरत बोन चाइना के प्याले में उन्हें चाय थमाते हुए भोलेपन से पूछा, ''किसका फोन था?''<br /> ''उसी का था। धमकी देता है, मेरा हिस्सा पचास लाख का बनता है।'' उसने मुंह बिचकाया, ''एक करोड़ का नहीं बनता। अपना भाई है, अच्छी हालत में नहीं है, यही सोचकर मैंने इसे पार्टनर बना लिया था। इसी के चक्कर में ज्ञानचंद जैसे काम के आदमी को अलग किया। उस पर झूठी तोहमत लगाई।'' बड़े की बीवी ध्यान से सुन रही है, ''अगर मैं इसे न रखता तो ज्ञानचंद अभी भी चार-पांच हजार में काम करता रहता। अब जो छोटा पंद्रह-बीस लाख की चपत लगाने के बाद भी उचक-उचक कर बोलियां लगा रहा है, वे तो बचते।''<br />बड़े की बीवी ने तुरंत कुरेदा, ''तो अब क्या करोगे? ज्ञानचंद को फिर बुलाओगे क्या? अकेले कैसे संभालोगे दुकान की इतनी भाग-दौड़?''<br /> ''बुलाने को तो बुला लूं। अब भी बेचारा खाली ही घूम रहा है। कभी एक बेटे के पास जाता है तो कभी दूसरे के पास, लेकिन पता नहीं अब सिर्फ सैलरी पर आएगा या नहीं। एक बार तो उसे धोखे में रखा। हर बार थोड़े ही झांसे में आएगा?''<br /> ''क्यों, उसे एक फ्लैट दिया तो था, सरिता विहार वाला?'' बीवी ने अपनी याददाश्त का सहारा लिया।<br /> बड़ा हंसने लगा,''वह तो मुकदमेबाजी वाला फ्लैट था। बेचारा ज्ञानचंद आज तक तारीखें भुगत रहा है। सुना है डीडीए में पंद्रह हजार खिलाए भी थे उसने कि फ्लैट उसके नाम रिलीज हो जाए। वे भी डूब गए।''<br /> ''तो कोई नया आदमी रखोगे क्या?''<br /> ''रखना तो पड़ेगा, लेकिन ज्ञानचंद जैसा मेहनती और ईमानदार आदमी आजकल मिलता कहां है। सच बताऊं, आज जो हमारे ये ठाठ-बाट हैं, सब उसी की प्लैनिंग और मेहनत का नतीजा है। उसी की खरीदी हुई कई प्रॉपर्टीज हमने बाद में बेचकर कम-से-कम पचास लाख कमाए होंगे।''<br /> ''एक काम क्यों नहीं करते। उदिता की शादी के लिए उसे बुलाओगे ही न? तब बात कर लेना।''<br /> ''वो तो ठीक है। फोन करने पर आज ही चला आएगा, लेकिन दिक्कत यही है कि यही छोटा उसकी सिफारिश लाया था। इसी छोटे ने उसे निकलवाया और अब इसी की वजह से उसे फिर बुलवाना पड़ेगा।''<br /> ''अब तो जो भी करना है, सोच-समझकर करना।'' बड़े की बीवी ने चाय के खाली प्याले उठाए।<br />• <br />अगले दिन जब छोटा अपना हिस्सा लेने गया तो बड़े ने उतना भी देने से इनकार कर दिया, जितने की बात हुई थी। छोटे ने बहुत हाय-तौबा की। चीखा-चिल्लाया, जब कोई भी तरकीब बड़े को डिगा न सकी तो मिन्नतें करने लगा - चलो जितना देते हो, दे दो। आखिर दो-एक रिश्तेदारों को बीच में डालकर ही छोटा अपना हिस्सा निकाल पाया। इतना पाकर उसे बिलकुल भी चैन नहीं है। उसके प्राण तो बड़े की तिजोरी में अटके पड़े हैं। अभी उसे कोई ढंग की दुकान नहीं मिली है, इसलिए कोठी के बाहर ही `प्रॉपर्टी डीलर'' का बोर्ड टंगवा कर उसने घर पर ही ऑफिस खोल लिया है। भाग-दौड़ कर रहा है। अभी कोई सौदा नहीं हुआ है, लेकिन उसे उम्मीद है, जल्द ही उसके भाग जागेंगे और वह भी करोड़ों में खेलने लगेगा।<br />• <br />उदिता की शादी का न्यौता देने बड़ा, उसकी बीवी और उदिता खुद आये। उदिता की इच्छा है, दादी कुछ दिन उन्हीं के पास रहे। चाचा-चाची भी पापा से अपना झगड़ा भूलकर भतीजी की शादी के दिनों में वहीं रहें, अपना फर्ज निभाएं। उदिता की शादी को एक विशेष मामला मानते हुए छोटे ने कुछ दिनों के लिए बिज्जी को बड़े के घर पर भेज दिया है। खुद भी दोनों हर रोज वहां जाने लगे हैं। छोटे ने उस दिन नशे में बड़े से किया वादा निभाया है और उदिता की शादी की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली है। बिज्जी और बाउजी को अच्छा लगा है कि छोटा मनमुटाव भुला कर बड़े के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा है।<br /> शादी बहुत अच्छी हो गई है। ''सब कर्मों का फल'' कहते हुए सबने ऊपर वाले के आगे हाथ जोड़े हैं। शादी में बड़े ने छोटे को एक पैसा भी खर्च नहीं करने दिया है। कहा, ''अभी तो तेरे पास काम भी नहीं है, यह क्या कम है कि तू आया। इतनी मेहनत की।'' छोटा सिर्फ मुस्कुरा दिया है। उसने अपनी प्यारी भतीजी को एक लाख रुपये नकद का शगुन और उसकी बीवी ने पचास हजार का ज़ड़ाऊ हार दिया है, बड़े और उसकी बीवी के बहुत मना करने के बावजूद। सबकी आंखें खुली रह गयी हैं।<br /> उदिता की विदाई होते ही छोटे ने अपनी पुरानी वाली पोजीशन ले ली है। बिज्जी को वह अगले दिन ही ले आया और फिर वापस मुड़कर नहीं देखा। बड़े ने छोटे का आभार ही माना कि कम-से-कम शादी में तो इज्ज़त रख ली छोटे ने।<br />• <br />छोटे ने उस दिन नशे में बड़े को किया एक और वादा निभाया है। उसने बिज्जी को कोई तकलीफ नहीं होने दी है। न उसने मां की वजह से नौकरानी को निकाला, न उससे घर के काम करवाए। जितनी बन पड़ी, सेवा की। उनका इलाज जारी रखा। अब इस बात का उसके पास कोई जवाब नहीं है कि बिज्जी दिन भर रोती रहती हैं। बाउजी को, बड़े को, उसके बच्चों को याद करती हैं।<br /> वैसे बिज्जी को कोई तकलीफ नहीं है। छोटा उनके कमरे में झांकता है। उनके हालचाल पूछता है, बात करता है। कार में कभी-कभी मंदिर भी ले जाता है। उसकी बीवी भी बड़े की तुलना में कम ताने मारती है। खाना भी ठीक और वक्त पर देती है। पर बिज्जी को जो चाहिए वह न मांग सकती है, न कोई देने को तैयार है।<br /> बाउजी बीच-बीच में चले आते हैं। चुपचाप बिज्जी के सिरहाने बैठे रहते हैं। खुद भी रोते हैं, उसे भी रुलाते हैं। उसके छोटे-मोटे काम कर जाते हैं। हर बार कुछ-न-कुछ लाते हैं उसके लिए। नहीं आ पाते तो फोन कर लेते हैं। इन दिनों वे खुद भी बीमार रहने लगे हैं। इतनी दूर साइकिल पर आना-जाना भारी पड़ता है।<br /> बहुत चिंता रहती है उन्हें बिज्जी की। उसके लिए तड़पते-छटपटाते रहते हैं। उनके खुद के पास तो घर और बाहर दोनों हैं। कहीं भी उठ-बैठ लेते हैं। बिज्जी बेचारी सारा दिन अकेली कमरे में पड़ी रहती हैं। कोई तकलीफ न होने पर भी अकेलेपन और बुढ़ापे से, कमजोरी और बीमारी से वह हर रोज उसे लड़ते देखते हैं। असहाय से उसका हाथ थामे बैठे रहते हैं घंटों।<br /> इस बीच दो बार बिज्जी की तबीयत खराब हुई। पहली बार तो दो दिन में ही अस्पताल से घर आ गयी। तब छोटे ने किसी को भी खबर नहीं दी। न बड़े को, न बाउजी को। खुद दोनों ही भाग-दौड़ करते रहे।<br /> लेकिन, दूसरी बार की खबर बाउजी के जरिये बड़े तक पहुंच ही गई। बड़ा बहुत नाराज़ हुआ। लेकिन छोटा उसकी नाराज़गी टाल गया। बिज्जी महीना भर अस्पताल में रहीं। बाउजी लगातार वहीं रहे। अपने आपको पूरी तरह भूलकर। बिज्जी के घर वापस आ जाने पर बाउजी ने बड़े और छोटे के आगे हाथ जोड़े, उन्हें अब तो बिज्जी के साथ रहने दिया जाए और इस तरह वे अस्थायी तौर पर छोटे के घर आ गए हैं। शुरू-शुरू में बड़ा बिज्जी को देखने लगातार आता रहा। फिर धीरे-धीरे एकदम कम कर दिया।...<br />• <br />आधी रात के वक्त बड़े के घर फोन की घंटी बजी है। बड़े ने वक्त देखा-पौने दो। इस वक्त कौन? फोन उठाया।<br /> ''बड़े, मैं छोटा बोल रहा हूं। पहले मेरी पूरी बात सुन लो, तभी फोन रखना...'' बड़ा घबराया, छोटा इस वक्त क्या कहना चाहता है।...<br /> ''अभी थोड़ी देर पहले बिज्जी चल बसीं। अंतिम संस्कार... कल सुबह ग्यारह बजे होगा। आप बिज्जी के अंतिम दर्शन तभी कर पाएंंगे जब आप... प्रॉपर्टी में मेरे हिस्से के... पचास लाख के पेपर्स... लेकर आएंगे।'' और फोन कट गया।<br />•सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-69968676447833720922008-03-24T11:22:00.000+05:302008-03-24T11:23:51.662+05:30छठी कहानी - बाबू भाई पंड्याबाबू भाई पंड्या से मेरी मुलाकात डॉक्टर भाटिया ने करायी थी। उन दिनों मेरी पोस्टिंग अहमदाबाद में थी और डॉक्टर भाटिया सिविल अस्पताल के बर्न्स विभाग मे काम कर रहे थे। डॉक्टर भाटिया की पत्नी पारुल मेरी दोस्त थी और उसी ने भाटिया को मेरे लेखन के सिलसिले में बताया था। एक दिन डॉक्टर भाटिया ने बातों ही बातों में मुझसे पूछा था कि मैं अपनी कहानियों के लिए पात्र कहाँ से लाता हूँ तो मैंने हँसते हुए जवाब दिया था कि कहानियों के पात्र न तो तय करके कहीं से लाये जा सकते हैं और न ही लाकर तय ही किये जा सकते हैं। बहुत सारी बातें होती हैं जो पात्रों के चयन का फैसला करती हैं।<br />"लेकिन किसी न किसी तरह से पात्र का चयन तो करते होंगे आप लोग?" उन्होंने ज़ोर देकर पूछा था।<br />मैंने कहा था उनसे कि कौन व्यक्ति कब और कैसे हमारी किसी रचना का पात्र बनता चला जाता है और हमें पता भी नहीं चलता, बल्कि ये कहना भी बहुत मुश्किल होता है कि जो व्यक्ति हमारी किसी रचना का पात्र बना है, वह हू-ब-हू वैसा ही हमारी कहानी में उतरेगा भी या नहीं। कई-कई बार एक ही पात्र रचने के लिए हम बीसियों व्यक्तियों के जीवन की घटनाएँ उठाते हैं तो कई बार एक ही व्यक्ति के इतने रूप हमारे सामने खुलते हैं कि जितनी मर्जी कहानियाँ लिख लो।<br />"लेकिन कुछ न कुछ तो ऐसा होता होगा सामने वाले व्यक्ति में कि उसमें से आप लोग कहानी तलाश कर लेते हों।"<br />"होता भी है और नहीं भी होता। दरअसल, पहले से कुछ भी तय नहीं किया जा सकता कि सामने वाला व्यक्ति हमें सारी सम्भावना के बावजूद कोई कहानी देकर जायेगा ही।" <br />"और अगर मैं आपको कहानी की असीम सम्भावनाओं वाले पात्र से मिलवाऊं तो?" वे अभी भी अपनी जिद पर अड़े थे।<br />"मैंने कहा ना कि जरूरी नहीं कि मुझे उसमें कहानी की सम्भावनाएँ नजर आयें ही। हो सकता है उस पर कहानी तो क्या लतीफा भी न कहा जा सके और ऐसा भी हो सकता है कि वह पात्र मुझे इतना हांट करे और पूरा उपन्यास लिखवा कर ही मेरा पीछा छोड़े। लेकिन ये सारी बातें तो आपके पात्र से मिलने के बाद ही तय हो सकती हैं। किस बाँस से बाँसुरी बनेगी, ये तो बाँस देखकर ही तय किया जा सकता है।<br />"आप एक काम करें। कल बारह बजे के करीब मेरे डिपार्टमेंट में आ जायें। वहीं आपको मैं एक ऐसी ही शख्सियत से मिलवाऊंगा जिसे आप हमेशा याद रखेंगे। कहानी तो आप उस पर लिखेंगे ही, ये मैं आपको अभी से लिखकर दे सकता हूँ।"<br />"जरूर लिखूँगा कहानी, अगर वो खुद लिखवा ले जाये।"<br />"आप लिखें या न लिखें वह खुद लिखवा ले जायेगा।"<br />और इस तरह से बाबू भाई पंड्या से मुलाकात हुई थी मेरी।<br />मैं ठीक बारह बजे डॉक्टर भाटिया के पास पहुँच गया था। हम दोनों अभी चाय पी ही रहे थे कि केबिन का दरवाजा खुला और एक बहुत ही बूढ़ा सा आदमी अन्दर आया और बोला, "नमस्कार डॉक्टर साहब।"<br />डॉक्टर ने उसके नमस्ते का जवाब दिया और उसके हाल-चाल पूछे। तभी उस बूढ़े आदमी ने एक लिफाफा मेज पर रखते हुए कहा, "डॉक्टर साहब, ये आपका टेलिफोन का बिल जमा करा दिया है और ये आपने अपने भाई के लिए जो फार्म मँगवाये थे, वो भी लाया हूँ, भगवान उसे भी खूब तरक्की दे।"<br />"ठीक है बाबू भाई। और कुछ?" डॉक्टर भाटिया ने उससे पूछा था और मेरी तरफ इशारा किया था कि यही है वो आदमी जिससे मिलवाने के लिए मैं आपको यहाँ लाया हूँ और जिस पर आपको कहानी लिखनी है। <br />मैंने तब गौर से उस बूढ़े व्यक्ति को देखा था। उम्र होगी पिचहत्तर से अस्सी के बीच, नाटा कद, गंजा सिर लेकिन चेहरे पर गजब का आत्मविश्वास और एक तरह की ऐसी चमक जो जीवन से जूझ रहे लोगों के चेहरे पर सहज ही आ जाया करती है। वे सीधे और तनकर खड़े थे और कहीं से ये आभास नहीं देते थे कि लगे, उम्र के इतने पड़ाव पार कर चुके हैं।<br />बाबू भाई पंड्या डॉक्टर भाटिया से कह रहे थे, "डॉक्टर साब, बाकी तो सब ठीक है, बस जरा एक मेहरबानी चाहिए थी।"<br />"बोलो ना बाबू भाई।"<br />"वो जो चार नम्बर वार्ड में तेरह नम्बर का मरीज है उसे रात भर नींद नहीं आती। बेचारा कमजोर बहुत हो गया है। मैंने डॉक्टर भट्ट से कहा भी था कि उसके लिए कोई स्पेशल खुराक लिख दें तो बेचारा ठीक होकर काम पे जावे। बहुत ईमानदार आदमी है बेचारा। लेकिन क्या करे। अस्पताल में पड़ा है। घर में अकेला कमाने वाला। ठीक हो के जायेगा तो बच्चों के लिए कमाकर कुछ लायेगा। आपको दुआएँ देगा।"<br />"ठीक है बाबू भाई। उसके केस पेपर्स मेरे पास ले आना। मैं कर दूँगा। और कुछ बाबू भाई?"<br />"बस इतनी मेहरबानी हो जावे तो एक गरीब परिवार आपको दुआएँ देगा।"<br />और इससे पहले कि बाबू भाई हाथ जोड़ कर बाहर जाते, डॉक्टर भाटिया ने उन्हें रोकते हुए कहा था, "बाबू भाई ये मेरे दोस्त हैं चन्दर रावल। एक बड़ी कम्पनी में काम करते हैं और खूब अच्छी कहानियाँ लिखते हैं।"<br />बाबू भाई पंड्या ने मेरी तरफ देखते हुए तुरन्त हाथ जोड़ दिये थे और कहा था, "भगवान आपको लम्बी उमर दे साब। राइटर तो साब, भगवान के दूत होते हैं।" और उन्होंने अपने कन्धे पर लटके थैले में से कुछ पोस्टकार्ड निकालकर मुझे थमा दिये थे, "आप लोग तो दुनिया जहान की बातें अपनी कहानियों में लिखते होंगे। आपके पास तो बहुत सारी मैगजीनें भी आती होंगी। ये मेरे पते लिखे कुछ कार्ड हैं। जब भी आपके पास या किसी मेल-जोल वाले के पास पुरानी मैगजीनों की पास्ती होवे ना तो उसे बेचने का नहीं, मुझे ये कार्ड डाल देना, मैं आकर ले जाऊँगा।"<br />मैं हैरान रह गया था। कभी कोई पुरानी पत्रिकाएँ भी इतने आग्रह से माँग सकता है और अस्पताल में पुरानी पत्रिकाएँ भी उपयोग में लायी जा सकती हैं, मैं सोच भी नहीं सकता था।<br />पोस्टकार्ड पर पाने वाले के पते की जगह पर उनके पते की मुहर लगी हुई थी। <br />"आप पुरानी पत्रिकाओं का क्या करेंगे बाबू भाई?" मैं उनके मुँह से ही सुनना चाहता था।<br />"देखो साब, ऐसा है कि जो लोग दर्दी से मिलने कू आवे ना तो खाली बैठा-बैठा दूसरे को गाली देता रहता है, सास होगी तो बैठी-बैठी बहू की बुराई करेगी और क्लर्क होगा तो बॉस की बुराई करेगा। इससे दर्दी को बहुत तकलीफ होती है। वो बेचारा अपने मुलाकाती को तो कुछ कह नहीं सकता। सो इस वास्ते मैं सबसे बोलता हूँ पुरानी चोपड़ियो होवे तो बाबू भाई पंड्या के पास मोकलो। मैं इदर दर्दी और उसके मुलाकाती को दे देता हूँ, पढ़ो और कुछ अच्छी बातें गुनो। मैं सब लोग से इस वास्ते बोलता हूँ कि पास्ती वाला तो दो रुपये किलो लेवेगा, पर यहाँ सब लोग उन्हें पढ़ेंगे तो उनका टाइम भी पास होवेगा और कुछ ज्ञान-ध्यान की बातें भी सीखेंगे। मेरे पास एक कपाट है। साब लोगों की मेहरबानी से मिल गया है। उसी में रखवा देता हूँ और रोज सुबे राउंड पर निकलता हूँ तो सबको दे देता हूँ।"<br />वाह..कितनी नयी कल्पना है। इतने बरसों से सैकड़ों की तादाद में पत्रिकाएँ आती रही हैं मेरे पास। खरीदी हुई भी और वैसे भी, लेकिन आज तक मेरी पत्रिकाओं को मेरे अलावा कभी कोई दूसरा पाठक नसीब नहीं हुआ होगा। कहाँ थे बाबू भाई आप अब तक। मैं मन ही मन सोचता हूं।<br />"जरूर दूँगा पत्रिकाएँ आपको बाबू भाई, और कोई सेवा हो तो बोलिए।"<br />"बस साहब जी, आप लोगों की मेहरबानी बनी रहे।"<br />और वे हाथ जोड़कर चले गये थे। मैं उस शख्स को देखता रह गया था। डॉक्टर भाटिया बता रहे थे, "यही है आपकी अगली कहानी का पात्र। रिटायर्ड सीआइडी इन्स्पैक्टर बाबू भाई पंड्या। उम्र लगभग अस्सी साल। एक पुरानी सी मोपेड है इनके पास, उस पर रोजाना प्रगति नगर से आते हैं और दिन भर यहाँ मरीजों की सेवा करते रहते हैं। सारे डिपार्टमेन्ट्स के मरीज और उनके सगे वाले ही इनके असली परिवार है।" <br />"लेकिन वे तो आपके फोन बिल जमा करके आये थे वो ..?"<br />"दरअसल वे किसी का कोई भी अहसान नहीं लेना चाहते। हम लोगों के छोटे-मोटे काम कर देते हैं और बदले में मरीजों के लिए कुछ न कुछ माँग लेते हैं।"<br />"यार, ये तो अद्भुत कैरेक्टर है। इस व्यक्ति को गहराई से जानने की जरूरत है ताकि पता चले कि कौन सी शक्ति है जो इसे इस उम्र में भी इस तरह की अनूठी सेवा से जोड़े हुए है। घर में और कौन-कौन है इसके?"<br />"मेरे खयाल से तो सब हैं। बच्चे अफसर वगैरह हैं।"<br />"और बीवी?" <br />"बाबू भाई पंड्या के साथ बस, एक ही दिक्कत है कि वे अपने बारे में बात भी नहीं करते। आप उनसे मरीजों के बारे में, उनकी तकलीफों के बारे में और उनकी जरूरतों के बारे में घंटों बात कर लीजिए, लेकिन उनके बारे में यकीनी तौर पर किसी को कुछ भी नहीं मालूम। सब सुनी सुनायी बातें करते हैं। कोई कहता है कि बीवी के मरने पर वैरागी हो गये और सेवा से जुड़ गये तो कोई बताता है कि अरसा पहले इनकी कस्टडी में एक बेकसूर कैदी की मौत हो गयी थी। कुछ इन्क्वायरी वगैरह भी चली थी। उसकी मौत ने इन्हें भीतर तक हिला दिया और तब से मरीजों की सेवा में अपने आपको लगा दिया है। ये सब सुनी-सुनायी बाते हैं। अब राइटर महोदय, ये आप पर है कि कोई नयी थ्योरी लेकर आयें तो सारे रहस्यों पर से परदा उठे।"<br />"लेकिन ये होगा कैसे?" मैं पूछता हूँ।<br />"आप एक काम करो यार। दो-चार दिन इसके साथ गुजारो तो ही इसे जान पाओगे या एक और तरीका है। पुरानी मैगजीनों के बहाने उसे बुलाओ अपने यहाँ और तब इसकी भीतरी परतें खोलने की कोशिश करो। मैंने बताया था ना। शानदार कैरेक्टर।"<br />"न केवल शानदार बल्कि ऐसा कि आज के जमाने में उस जैसा बनने की सोच पाना भी मुश्किल।"<br />यह मेरी पहली मुलाकात थी बाबू भाई पंड्या से। मैं सचमुच विचलित हो गया था उनसे मिलकर और डॉक्टर भाटिया की बतायी बातों को सुनकर। जीवन कितना विचित्र होता है। एक अस्सी साल का बूढ़ा आदमी, जिसे अरसा पहले जीवन की आपा-धापी से रिटायर होकर आराम से अपना वक्त भजन पूजा में गुजारना चाहिए था, इस तरह से दीन दुखियों की सेवा में लगा हुआ है।<br />और अगली बार मैं एक दिन सुबह-सुबह ही अस्पताल पहुँच गया था। हाथ में ढेर सारी पत्रिकाओं के बंडल लिये। डॉक्टर भाटिया ने बताया था कि वे आठ बजे ही पहुँच जाते हैं ताकि डॉक्टरों के राउंड से पहले ही एक राउंड लगाकर मरीजों की समस्याओं के बारे में जान सकें और उनके लिए डॉक्टरों से सिफारिश कर सकें। मैं बाबू भाई पंड्या की दिनचर्या का पूरा एक दिन अपनी आँखों से देखना चाहता था। कुछेक दिन उनके साथ गुजारना चाहता था ताकि मैं इस चरित्र को नजदीक से जान सकूँ।<br />मेरे कई बरस के लेखन में यह पहली बार हो रहा था कि कहानी का जीता जागता पात्र मेरे सामने था और मुझे इस तरह से अपने आपसे जोड़ रहा था। वैसे अभी उसके बारे में कुछ भी साफ नहीं था कि ये चरित्र आगे जाकर क्या मोड़ लेगा और अपने बारे में क्या-क्या कुछ लिखवा ले जायेगा। <br />मैं आठ बजे ही अस्पताल में पहुँच गया था और अस्पताल के बाहर बेंच पर बाबू भाई पंड्या का इन्तजार करने लगा। मैंने अपने आने के बारे में डॉक्टर भाटिया को भी नहीं बताया था। मैं अपनी खुद की कोशिशों से इस व्यक्ति के भीतरी संसार में उतरना चाहता था और सब कुछ अपनी निगाहों से देखना चाहता था। <br />सवेरे के वक्त सिविल अस्पताल में जिस तरह की गहमा-गहमी होती है मैं देख रहा था। मरीज आ रहे थे, भाग-दौड़ कर रहे थे। चारों तरफ कराहें, तकलीफों और दर्द का राज्य। अस्पताल के नाम से ही मुझे हमेशा से दहशत होती है। चाहे अपने लिए अस्पताल जाना पड़े या किसी और के लिए, यहाँ दर्द की लगातार बहती नदी को पार करना मेरे लिए हमेशा मुश्किल रहा है। <br />तभी बाबू भाई पंड्या आ पहुँचे। अपनी मोपेड से मैगजीनों के भारी बंडल उतारने लगे। थैले वाकई भारी थे और उनके लिए ढोकर लाना मुश्किल। यही मौका था जब मैं जाकर उनसे बातचीत की शुरुआत कर सकता था और उनका विश्वास जीत सकता था।<br />"नमस्ते बाबू भाई। कैसे हैं?" मैंने उनके हाथ से थैला लेते हुए कहा।<br />"अरे आप हैं। राइटर साहब। नमस्ते। आप क्यों तकलीफ करते हैं। मैं ले जाऊँगा। पास ही तो है।" उन्होंने मेरा हाथ रोका।<br />"रहने दीजिए बाबू भाई। आप सबके लिए इतनी तकलीफ उठाते हैं और सबका कितना खयाल रखते हैं। मैं क्या आपकी इतनी भी मदद नहीं कर सकता।" <br />बाबू भाई पंड्या का जवाब था, "देखो साब, अगर हम सब एक दूसरे का खयाल रखें तो ये जीवन कितना सुखी हो जावे। पर हम सब दूसरे की कहाँ सोचते हैं। हम अगर किसी को खाना नहीं खिला सकते तो ना सही, लेकिन पानी तो पिला ही सकते हैं। उसके पास दो घड़ी बैठ सकते हैं। कैसे आना हुआ सुबह-सुबह, कोई मरीज है क्या इधर?"<br />"नहीं बाबू भाई। यूँ ही इधर से जा रहा था। सोचा आपसे भी मिल लूँगा और आपको थोड़ी मैगजीनें भी दे दूँगा।"<br />"बहुत अच्छा किया आपने। बहुत पुण्य का काम होता है किसी के काम आना। मैं तो सबसे यही कहता हूँ कि जो चीज आपके आप अपनी उमर पूरी कर चुकी है और अब आपके किसी काम की नहीं है, तो उसे दूसरों के पास जाने दो। उस आदमी के पास उसका कोई न कोई इस्तेमाल निकल ही आयेगा। वह चीज फिर से पहले जैसी काम की हो जायेगी। एक नया जीवन मिलेगा उसे।"<br />मैं उनकी सीधी-सादी फिलासफी पर मुग्ध हो गया। कितनी सहजता से वे बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं। कहीं कोई आडम्बर नहीं, कोई टीम टाम नहीं। <br />हम दोनों ने उनकी अलमारी में मैगजीनों के बंडल रखवाये। उनकी अलमारी में अद्धुत खजाना भरा हुआ था। किताबें और पत्रिकाएँ तो थीं ही, बच्चों के लिए पुराने खिलौने, प्लास्टिक की नलियाँ, गिलास, मिठाई की गोलियाँ वगैरह भी थीं। वे ये सारी चीजें एक थैले में भरने लगे।<br />"तो चलूँ अपने राउंड पर?" वे मेरी तरफ देखकर पूछने लगे। <br />"अगर मैं भी आपके साथ चलूँ तो आपको कोई एतराज तो नहीं होगा", मैंने संकोच के साथ पूछा। बाबू भाई को उनके काम के जरिये ही जाना जा सकता था।<br />"हाँ चलो ना, इसमें क्या।"<br />और हम दोनों राउंड पर निकल पड़े। सबसे पहले वे बच्चों के वार्ड की तरफ गये। सारे बच्चे उन्हें देखते ही आवाजें लगाने लगे, "बाबू भाई आये मिठाई लाये..बाबू भाई आये गोली लाये।" और उन्होंने अपने थैले में से पुराने ग्रीटिंग कार्ड, मिठाई की गोलियाँ और छोटे-छोटे लट्टू जैसे खिलौने निकालकर बच्चों में बाँटना शुरू कर दिया।<br />"केम छो बाबा, लो तेरे वास्ते ये अपनी करिश्मा कपूर ने कार्ड भेजा है कि बच्चा जल्दी से अच्छा हो जावे तो मैं उसको मिलने को आवेगी। मेरे को फोन करके बोली कि क्या नाम है उसका ..हाँ..हाँ..अपने सुन्दर का..उसका खयाल रखना। मैंने डॉक्टर से कह दिया है। आके तपास कर जावेगा।" वे बच्चे के गाल पर हाथ फिरा देते। <br />वे फिर एक और बच्चे के पास गये। <br />बच्चा उन्हें देखते ही मुस्कुराया, बाबू भाई न टउसे छेड़ा, "क्यों रे मास्तर, रात को नींद आयी<br />थी या तारे गिनता रहा।<br />बच्चा खुलकर हँसा, "आयी थी।"<br />बच्चे की माँ उन्हें बच्चे के बारे में बताती है।<br />"फिकिर नहीं करो बेन। सब ठीक हो जायेगा और बच्चा पहले की तरह खेलने लगेगा।" एक और बच्चे के पास जाकर वे उसकी नब्ज देखते हैं। बच्चे की माँ बताती है कि दर्द के मारे बच्चे को बहुत परेशानी हो रही है।<br />"कोई बात नहीं। ये तो एकदम फरिश्ता लड़का है। वेरी स्वीट बॉय। अभी देखना हम इसे देखने के लिए अस्पताल के सबसे बड़े डॉक्टर को लेकर आते हैं। ये तो बहुत लवली बॉय है। मैं इसे एक मीठी गोली देता हूँ। खा लो बच्चे। इससे दाँत भी खराब नहीं होते और भूख भी नहीं लगती। ले लो। स्पेशल लन्दन से मँगवायी है मैंने बच्चों के लिए। अभी तुम एकदम अच्छे हो जाओगे और फिर से फुटबाल खेल सकते हो।"<br />मैं देख रहा था उनका राउंड लेना ठीक बड़े डॉक्टर के राउंड लेने जैसा ही है। लोग उनके आते ही खड़े हो जाते। ठीक वैसे ही प्रणाम करते जैसा डॉक्टरों को किया जाता है। <br />मरीज के साथ वाले उन्हें अपने मरीज के बारे में बता रहे थे और वे कोई न कोई आश्वासन जरूर दे रहे थे। मैंने पाया कि उनके प्रति सभी में अपार श्रद्धा है और अगाध प्रेम है उनके मन में अपने मरीजों के प्रति। कहीं कोई दिखावा या आडम्बर नहीं।<br />एक दूसरे वार्ड में एक आदमी पानी पीने के वास्ते उठ नहीं पा रहा था। वे उसके पास जा के पानी पिलाते हैं और थैले में से प्लास्टिक की नली निकालकर उसे देते हैं, "जब भी प्यास लगे तो इस नली को मुँह से लगा लेना और लेटे-लेटे पानी पी लेना। कोई तकलीफ नहीं होवेगी।"<br />वह आदमी करुणापूरित नयनों से उन्हें देखता रह गया। दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम किया उसने बाबा को।<br />एक अन्य वार्ड में बाबू भाई ने मैगजीनें, फल और दूसरी चीजें बाँटी। हाल-चाल पूछे।<br />एक मरीज उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करता है। <br />"भाई केम छो?" बदले में बाबू भाई पंड्या उसके कन्धे पर हाथ रखकर पूछते हैं, "तू अपनी कह, कैसा है। ले तेरे लिए मिनिस्टर साहब ने सन्तरे भिजवाये हैं, बोला है कि टाइम मिलते ही आऊँगा मिलने।"<br />हम पूरे अस्पताल का ही राउंड लगा रहे थे। डॉक्टरों के तो वार्ड बँधे होते हैं। बच्चों के डॉक्टर बच्चों के वार्ड में और हड्डियों के डॉक्टर अपने वार्ड में लेकिन बाबू भाई का कोई तय वार्ड नहीं था। सारे वार्ड उनके थे। सारे मरीज उनके थे। वे सबके सगे थे और सब उनके सगे। वे सबको प्रणाम कर रहे थे और सब उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे थे।<br />बाबू भाई पंड्या को देखते ही एक जवान लड़का उनके पैर छूकर प्रणाम करने लगा। बाबू भाई पंड्या उसे उठाते हैं, "बेटा मेरे पैर नहीं पकड़ो। ऊपर वाले की मेहरबानी है कि वक्त पर तुम्हारे बापू को मदद मिल गयी और उनकी जान बच गयी।"<br />लड़का अभी भी हाथ बाँधे खड़ा था। एकदम रोने को हो आया, "आप न होते तो उन्हें तो कोई अन्दर नहीं आने दे रहा था। आप ही की वजह से.." उसने दोनों हाथों से बाबू भाई पंड्या के हाथ पकड़ लिये हैं, "मैं कैसे आपका अहसान चुकाऊँगा।"<br />बाबू भाई पंड्या उसे दिलासा देते हैं, "मुझे कुछ नहीं चाहिए बेटा। अगर तुम कुछ करने की हालत में हो तो एक काम करो। एक दुखी परिवार तुम्हें दुआएँ देगा।"<br />लड़का कहने लगा, "आप हुकुम करो बाबू भाई।"<br />बाबू भाई पंड्या उसे बता रहे हैं, "वार्ड नम्बर तीन में बिस्तर नम्बर सोलह पर एक दर्दी है। उसे आज रिलीव करने वाले हैं। उसके घर से कोई लेने वाला आया नहीं है। अस्पताल वाले तो उसे वरांडे में डाल देंगे। बेचारा फिर से बीमार हो जायेगा। तुम एक काम करो। उसे उसके घर तक भिजवाने का इन्तजाम करा दो तो समझो तुम्हारे बप्पा का काम हुआ है। जय श्री कृष्ण।"<br />लड़का खुश हो गया था, "हो जायेगा। और कुछ बाबू भाई?" <br />बाबू भाई पंड्या ने उसके कन्धे पर हाथ रखा, "बस, एक बात और, अपने माँ-बाप की खूब सेवा करो। उनकी सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं। बूढ़े लोग दो बात कड़वी भी बोलें तो नीम के पत्ते समझ के ले लो। फायदा ही करेंगे।"<br />लड़के ने एक बार फिर से बाबू भाई के पैर छूए और चला गया।<br /> हम पूरा राउंड लगाकर वापस आ गये।<br />बात आगे बढ़ाने की गरज से मैंने पूछा, "बाबू भाई आप रहते कहाँ हैं ?"<br />बाबू भाई बताने लगे, "थोड़ी दूर है घर मेरा। प्रगति नगर में।"<br />मैं आगे पूछता हूँ, "आप यहाँ रोज आते हैं?"<br />"हाँ भाई। अब तो रोज ही आता हूँ। सुबे आठ बजे तक आ जाता हूँ और रात को ही जाता हूँ।"<br />"और आपका घर बार, आपका काम?"<br />"भाई ये काम ही तो कर रहा हूँ मैं। ईश्वर के बन्दों का काम। देखो साहब, यहाँ तरह-तरह के दर्दी आते हैं। किसी-किसी वार्ड में तो महीना-महीना भी रहना पड़ता है। तो ऐसे दर्दी के साथ उसके घर वाले काम-धन्धा तो छोड़ के नहीं बैठ सकते ना। और फिर छोटे-छोटे बच्चे होते हैं, गरीब लोग होते हैं, जिनका कोई नहीं होता। बूढ़े होते हैं जिनसे कोई बात करने वाला नहीं होता। फिर अस्पताल का स्टाफ बेचारा किस-किसकी सुने। वे भी बेचारे थक जाते हैं। गर्दी इतनी है, तो ये बाबू भाई पंड्या है ना, इसे घर पर तो कोई काम है नहीं, सो आ जाता है।"<br />"लेकिन आप ये सब करते हैं इसके लिए तो ढेर सारे पैसे चाहिए ना।" <br />"ना ना.. पैसा तो आप सबका है, मेरे तो बस ये दो हाथ हैं, वही काम करते हैं। पैसा तो ऊपर वाला भेजता ही रहता है। चलिए साहब, जरा गेट तक हो आयें। कुछ फल आये होंगे, मरीजों के लिए। ले आवें।"<br />मैं हैरान हो गया-किसने भेजे होंगे।<br />"बहुत लोग हैं। भेजते रहते हैं। एक एमएलए साब हैं। वे हर दिन एक टोकरा फल भिजवाते हैं। एक और साहब हैं, वे बच्चों के लिए खुराक भिजवा देते हैं। और भी कई लोग हैं जो अलग-अलग सामान भिजवाते रहते हैं। मैं आगे दे देता हूँ। बस.. मैं तो बस डाकिया हूँ ऊपर वाले का .."<br />"आप कब से ये काम कर रहे हैं?"<br />"बीस बरस तो हो ही गये होंगे। रिटायरमेंट के बाद से ही सेवा के इस काम से जुड़ गया था।"<br />"आप क्या करते थे?"<br />"पुलिस में सीआइडी इन्सपेक्टर था। तब किसी न किसी केस के लिए अस्पताल के चक्कर काटने पड़ते थे। मैं गरीब मरीजों को देखता। बेचारे राह देखते, कोई उनकी सेवा के लिए आये। एक गिलास पानी पिलाये। तब मैं सिर्फ छुट्टी के दिन आया करता था। रिटायर होने के बाद तो मैंने अपने जीवन का यही मिशन बना लिया है। अब तो जीना-मरना यहीं है।"<br />"बाबू भाई, आप बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। मैं देख रहा हूँ कि लोग यहाँ इतने परेशान हैं कि कोई सुनता ही नहीं है उनकी। गरीब आदमी की तो कोई सुनवाई ही नहीं है यहाँ।"<br />मैं महसूस कर पा रहा था कि वे अपने बारे में बातें करते हुए सहज नहीं थे और बड़ी बेचैनी महसूस कर रहे थे। जो कुछ भी उन्होंने बताया, ऊपरी तौर पर मोटी-मोटी बातें ही बतायीं। मैंने उन्हें ज्यादा नहीं सताया। डॉक्टर भाटिया इशारा कर ही चुके थे। <br />"ठीक कहते हैं आप।" वे बात आगे बढ़ाते हैं, "देश में गरीब आदमी की कहीं भी सुनवायी नहीं है। उस बेचारे को तो अपनी बात कहने का हक ही नहीं है। अब मुझसे जितना हो पाता है, मैं करता हूँ और रात को जब सोता हूँ तो तसल्ली होती है कि आज का दिन बेकार नहीं गया।"<br />हम गेट पर पहुँचे। वहाँ दो टोकरे सन्तरे और केले वगैरह पान की दुकान के बाहर रखे थे। <br />बाबू भाई को देखते ही पान वाला कहने लगा, "बाबू भाई, अभी कोई आदमी आपके लिए ये लिफाफा छोड़ गया है। बोल रहा था, बाद में मिलने आयेगा।" <br />बाबू भाई ने लिफाफा खोलकर देखा। ढेर सारे पुराने ग्रीटिंग कार्ड थे। वे खुश हो गये, "चलो अच्छा हुआ। कार्ड खतम भी हो रहे थे।"<br />मैं अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाता, "आप बच्चों को ये पुराने कार्ड क्यों देते हैं?"<br />"इन गरीब बच्चों को नये कार्ड कौन भेजेगा और क्यों भेजेगा? तो मैं लोगों से कहता हूँ कि भई पुराने कार्ड फाड़ कर फेंकने के बजाये मुझे दे दो। बच्चों को बहलाता रहूँगा कि माधुरी दीक्षित ने भेजा है और शाह रुख खान ने भेजा है। बच्चे खुश हो जाते हैं। और हमें क्या चाहिए। बच्चे के चेहरे की मुस्कराहट से ज्यादा कीमती चीज दूसरी नहीं होती साहब। हम बस यही काम नहीं करते, भूल जाते हैं। बच्चे कोई सोना-चाँदी नहीं माँगते, जमीन जायदाद नहीं माँगते, उनके गाल पर प्यार से हाथ फेर दो और दुनिया के सबसे खूबसूरत फूल खिलते हुए देख लो। आइए मैं आपको दिखाऊँ।"<br />बाबू भाई मेरा हाथ पकड़कर एक बच्चे के पास लेकर जाते हैं। बच्चे के पैर पर पलस्तर लगा हुआ था। उन्हें देखते ही बच्चा खुश हो गया। हाथ जोड़कर नमस्ते की। बाबू भाई उसके सिर पर हाथ फेरते हैं और उसके सामने सौ रुपये का एक नोट, फूलों वाला एक खूबसूरत कार्ड और एक टॉफी रखते हैं, "लो बेटा, कोई एक चीज चुन लो" <br />बच्चा भोलेपन से पूछता है, "मैं ये कार्ड ले लूँ। और ये टाफी भी...?" <br />बाबू भाई, "ले लो बेटे...दोनों ले लो।" बच्चा कार्ड पाकर बेहद खुश हो गया था।<br />पूछा था बच्चे ने, "मेरे लिए है ये?"<br />"हाँ बेटा तेरे लिए ही है। अपनी वो तब्बू है ना, वो कल रात आयी थी इधर। तू तो सो रहा था तो मेरे पास आयी और बोली कि अभी मैं जाती हूँ। मेरी तरफ से ये कार्ड मुन्ना राजा को दे देना।"<br />हम देख रहे थे कि बच्चा कार्ड पाकर बेहद खुश हो गया है। <br />बाबू भाई बताने लगे, "देखा? बच्चे के चेहरे के बदलते हुए रंग को? बच्चों को खुश करना कितना आसान होता है। बस मैं यही तो करता हूँ।"<br />मैं भावुक होने लगा था। पता नहीं कैसे ये ख्याल मन में आ रहा था कि इस देवता के पैर छूकर उसे प्रणाम करूँ और कहूँ - मुझे भी अपने साथ जोड़ लीजिए। मैं पता नहीं क्यों कागज काले करते हुए ये मोह पाले हुए हूँ कि इससे क्रान्ति आ जायेगी, मेरे लिखे से समाज का भला हो जायेगा या सब लोग सुखी हो जायेंगे। <br />मैं देख रहा था कि असली मानव सेवा तो ये अस्सी बरस का बूढ़ा कर रहा है और बदले में किसी से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता। कुछ भी तो नहीं। जो कुछ माँगता है इन मरीजों के लिए ही माँगता है। हे देव, प्रणाम है तुम्हें। मैं तो तुम्हारे पासंग खड़े होने लायक काम भी नहीं करता। दावे बेशक इतने बड़े-बड़े करता होऊँ।<br />भावुक होकर कहा था मैंने, "बाबू भाई एक बात बोलूँ।"<br />बाबू भाई मेरे कन्धे पर हाथ रखकर बोले, "बोलिए ना साब। आप तो खुद इतना बड़ा काम कर रहे हो। लिखने का। समाज में जो भी अच्छा बुरा है उसको सामने लाने का काम तो बहुत बड़ा होता है साहब।"<br />"मैं कभी-कभी आकर आपके साथ काम कर सकता हूँ क्या, ये छोटे-छोटे काम। अगर कुछ और नहीं तो टाइम तो दे ही सकता हूँ।" हालांकि मैं जानता हूँ कि संवाद मेरे भीतर से नहीं आ रहा। श्मशान वैराग्य है ये। घर जाते ही मैं दुनियावी धन्धों में फँस जाऊँगा। मैं दो बार भी आकर इनके साथ राउंड लगा लूँ तो भी बहुत बड़ी बात होगी। मुझसे हो ही नहीं पायेगा। लेकिन फिर भी कह तो दिया ही था मैंने।<br />"आप जरूर आना। ये अस्पताल एक तरह से बहुत बड़ा स्कूल है। जीवन का स्कूल। यहाँ आपको हजार तरह के आदमी मिलेंगे। अच्छे भी बुरे भी। यहाँ जीवन को आप बहुत नजदीक से देखेंगे। असली जीवन तो यहीं है साब। दुख, तकलीफ, फिर भी चेहरे पर हँसी। एक दूसरे के लिए कुछ करने की इच्छा। और क्या होता है जीवन में साहब। दो मीठे बोल बोले और सब कुछ पा लिया। अब चलूँ मैं साहब। आप चाहें तो अपने डॉक्टर दोस्त के पास बैठें। मैं जरा अपने पुराने मरीजों की नहाने-धोने में मदद करूँ। नर्स बेचारी भी कितने मरीजों की सेवा करे। थक जाती हैं वे भी तो।"<br />और वे मुझे लम्बे गलियारे के बीच में ही छोड़कर चले गये थे।<br />*** <br />मैं एक ही हफ्ते बाद ही जब अस्पताल पहुँचा था तो पता चला, बाबू भाई कहीं गये हुए हैं। बस आते ही होंगे। मैं वहीं बेंच पर बैठ कर इन्तजार करने लगा था। मेरे पास ही बेंच पर कुछ बच्चे बैठे हुए थे। उनमें एक बच्चे के पैर में सूजन थी। मैं उनके इतने नजदीक बैठा था कि उनकी पूरी बात सुन पा रहा था।<br />"मैं तुझे बोला था ना .. वो हड्डी जोड़ने वाले बंगाली के पास लेकर जाते और वो फटाक से हड्डी जोड़ देता पर तुम लोग माने ही नहीं। यहाँ ले के आ गये।" उनमें से एक कह रहा था।<br />ये सुनते ही सूजे पैर वाला लड़का रोने लगा।<br />दूसरा उसे चुप करा रहा था। "तू क्यों रो रहा है रे मुन्ना। ये हमारी सिरदर्दी है कि तेरा इलाज होना चाहिए। रो नहीं। कोई न कोई रास्ता निकल आयेगा।"<br />सूजे पैर वाला वही लड़का कह रहा था, "मैं हमेशा तुम लोगों को तंग करता रहता हूँ।"<br />बड़ा लड़का जवाब में बोला, "तो क्या हुआ? हम तेरे दोस्त ही तो हैं।"<br />वही लड़का, "इतने पैसे कहाँ से लाओगे?"<br />बड़ा लड़का, "वो सोचना तेरा काम नहीं है। कुछ न कुछ करेंगे।"<br />वही लड़का, "देख कबीरा। इसे ऐसे ही रहने दें। अपने आप ठीक हो जायेगा। वह उठने की कोशिश कर रहा था।<br />कबीरा, "तू चुप चाप बैठ और हमें सोचने दे।"<br />लड़के फुटपाथ पर काम करने वाले लग रहे थे। ऐसे मरीजों की अस्पताल में क्या हालत होती है, हर कोई जानता है। अस्पताल में ही क्यों, कहीं भी।<br />काश.. हर अस्पताल में दस-बीस बाबू भाई पंड्या होते। कोई तो इनके हक की बात करने वाला होता। आसपास जितने भी मरीज नजर आ रहे थे, सारा दिन यहाँ से वहाँ तक धकियाये जायेंगे और शाम ढलने पर अस्पताल में होने के बावजूद सबकी तकलीफ बढ़ चुकी होगी।<br />मैं उन बच्चों की गतिविधियाँ देख ही रहा था कि तभी हमारी ही बेंच पर बैठे एक आदमी ने पूछा बच्चों से, "क्या बात है। क्यों परेशान हो?"<br />बड़े लड़के ने बताया, "ये हमारा दोस्त है। सड़क पार करते समय गिर गया। डॉक्टर पहले बोला कि इक्सरे कराओ और अब बोलता है पिलस्टर लगेगा। दवा बाज़ार से लाने के वास्ते बोला है।"<br />वह आदमी पूछने लगा, "पैसे नहीं है क्या?"<br />लड़के ने सिर हिलाया, "नहीं हैं।"<br />वह आदमी दिलासा देने लगा, "तो घाबरने का नई। बाबू भाई पंड्या के पास जाओ। वोई काम करा देगा।"<br />अब मुझे पूरे मामले में दिलचस्पी होने लगी कि देखें क्या होता है और ये बच्चे क्या करते हैं।<br />लड़का हैरानी से पूछ रहा था, "ये बाबू भाई पंड्या कौन है?"<br />वह आदमी बताने लगा, "है एक भला आदमी। उसी को ढूँढो। मिल जावे तो उसे अपनी बात बोलो। मदद करेगा। भगवान है वो। उसके दर से कोई खाली नहीं जाता।"<br />वह लड़का आगे पूछ रहा था, "किदर मिलेगा वो?"<br />उस आदमी ने तब बताया, "कहीं भी देखो उसे। किसी न किसी दर्दी के पास मिल जायेगा।"<br />उस लड़के के चेहरे पर चमक आ गयी थी, "तुम लोग यहीं ठहरो। मैं उसे देख के आता है। चल सत्ते तू भी चल।"<br />मैं जानता था, बाबू भाई पंड्या अभी नहीं आये हैं। चाहता तो इन बच्चों को बता भी सकता था और उनके आने पर उनसे मिलवा भी सकता था। मदद के लिए अलबत्ता उनसे कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती। अपने-आप ही मिल जाती लेकिन मैं देखना चाहता था कि इन बच्चों से उनका संवाद कैसे होता है?<br />कबीरा नाम का वह बड़ा लड़का कई लोगों से बाबू भाई पंड्या के बारे में पूछ रहा था। लोग उसे कभी दायें तो कभी बायें भेज रहे थे। एक आदमी ने तो उसे बाहर की तरफ ही भेज दिया। बाकी लड़के भी परेशान से पूरे अस्पताल में बाबू भाई को खोज रहे थे।<br />उस दिन मेरी बाबू भाई से मुलाकात हो नहीं पायी थी। मैं काफी देर तक बैठकर लौट गया था।<br />इसके बाद भी दो बार और ऐसा हुआ कि बाबू भाई पंड्या से मिल नहीं पाया। अलबत्ता, उन बच्चों से जरूर मुलाकात हो गयी। जिस बच्चे के पैर में सूजन थी, वह बच्चों के वार्ड में भर्ती हो चुका था और उसके पैर में पलस्तर चढ़ा हुआ था। उसके साथ के तीनों लड़के उसके पास ही बैठे थे।<br />मैं उन बच्चों के पास चला गया और पूछने लगा, "मैंने तुम लोगों को दो तीन दिन पहले बाबू भाई को खोजते हुए देखा था। क्या उन्हीं की मदद से ये भर्ती हो पाया है?"<br />"हाँ साब, अपने को भगवान मिल गया साहब, अगर वो न होते तो हमारे इस दोस्त को पलस्तर तो क्या साहब, कोई पट्टी तक बाँधने को तैयार नहीं था।"<br />क्या करते हो तुम लोग? पूछा मैंने।<br />"मेरा नाम कबीरा है। ये सत्ते और ये गप्पू। हम लोग बूट पालिश करते हैं। मुन्ना हमारा दोस्त है, ये अभी सीख रहा है काम करना। हमारा ध्यान नहीं था। अचानक सड़क की तरफ दौड़ा और एक स्कूटर से टकरा कर गिर गया। पैर की हड्डी टूट गयी। अगर बाबू भाई न मिलते तो.. हमारे पास तो दवा के पैसे.. भी नहीं थे।"<br />अब दूसरा लड़का बताने लगा, "जब हम बाबू भाई के पास गये तो वो आये और बोले, "कोई बात नहीं। ये तो एकदम फरिश्ता लड़का है। ये एकदम अच्छा हो जायेगा और फिर से फुटबाल खेलने लगेगा। अभी देखना हम इसे अस्पताल के सबसे अच्छे वार्ड में भर्ती कराते हैं, चलो मेरे साथ। ये तो बहुत लवली बॉय है।" वे खुद हमारे साथ दो-तीन डॉक्टरों के पास लेकर गये साहब। डॉक्टर लोग को पूरी बात बतायी और फिर एक ट्राली लेकर आये और मुन्ना को प्लास्तर वाले कमरे में ले गये।"<br />अब तीसरा लड़का बता रहा था, "हमें रोना आ रहा था साहब, तो बाबू भाई बोले, "रोते नहीं.. रोते नहीं। रोने से आँखें दुखेंगी और फिर दवा के लिए और पैसों की जरूरत पड़ेगी। फिर तुम बाबू भाई पंड्या को खोजोगे। ऐसा काम नहीं करो कि दवा कि जरूरत पड़े। हाँ तो तुम लोक फिकिर नहीं करना.. बच्चे अगर फिकर करें तो कैसे चलेगा भई.. अभी मैं बड़े साहब से बोल के इदर दो दिन रहने के वास्ते वार्ड में तुम्हारे दोस्त को जगा दिला देता हूँ। खाने का भी ठिकाना हो जायेगा। जब खाना देने वाला बॉय आये तो बोलना बाबू भाई पंड्या के आदमी हैं, थोड़ा जास्ती खाना दे देगा। मिल बाँट के खा लेना। मैं भी बोलकर रखूँगा।"<br />बच्चे अभिभूत थे और उनके पास बाबू भाई की तारीफ के लिए शब्द नहीं थे। उनके गले रुँधे हुए थे और समझ में नहीं आ रहा कि उनकी इतनी सारी बातें कैसे बतायें।<br />मैंने पूछा, "यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं है।"<br />कबीरा नाम का लड़का बताने लगा, "नहीं साहब, बाबू भाई ने सबको कह दिया है कि बच्चे का खयाल रखें। कोई तकलीफ नहीं है साहब।"<br />अब दूसरा लड़का मुझे बता रहा था, "साहब यहाँ अस्पताल में हर आदमी उनको सलाम मारता है, वो किसी भी डॉक्टर के कमरे में चले जाते हैं और काम करा के आते हैं। कोई भी उससे ऊँची आवाज में बात नहीं करता।" <br />अब तीसरा लड़का बताने लगा, "इदर सरकार ने उसे रखा होयेंगा कि गरीब लोक की मदद करो करके।"<br />तो कबीरा ने उसे टोका, "अबे ये तो सरकारी हस्पताल है रे तो सबको सरकार ही रखी होयेगी ना .."<br />सत्ते - "जो भी हो एक बात माननी पड़ेगी, आदमी हीरा है, कितना बुड्ढा है फिर भी सबके काम करता रहता है।" <br />अब बच्चे मेरी उपस्थिति भूलकर आपस में ही बात करने लगे थे। एक तरह से अच्छा ही था। बच्चे उनके बारे में क्या राय रखते हैं, उन्हीं की जबानी सुनने में क्या हर्ज है।<br />सत्ते- "कितने बरस उमर होगी रे उनकी?"<br />कबीरा - "अस्सी साल के तो होयेंगे रे।"<br />तेंडया - "अस्सी साल तो भोत होते हैं।"<br />कबीरा - "तो क्या हुआ। काम करने वाले कभी उमर देखकर थोड़े ही काम करते हैं।"<br />कबीरा - "यार मैं तो दंग हूँ इस आदमी की हिम्मत देखकर। अस्सी साल की उमर में भी इतनी हिम्मत। आदमी नहीं फरिश्ता है ये।"<br />सत्ते -"अगर ये न होते तो मुन्ना का पिलस्तर तो क्या पट्टी भी न लग पाती, जब वो डॉक्टर से कह रहे थे इसके बारे में तो मैं सोचता था इस तरह से तो कोई अपने मरीज के लिए भी नहीं कहता।<br />तभी साथ वाले मरीज के पास बैठा आदमी बीच में ही कहने लगा, "तुम लोग बाबू भाई पंड्या की बात कर रहे हो क्या?<br />कबीरा - "हाँ क्यों?"<br />मरीज- "वो वाकई फरिश्ता है। पता नहीं किस-किस मरीज की सेवा करके इसने उन्हें ठीक ठाक वापस भिजवाया है। इसकी सेवा से ही हजारों आदमी मौत के मुँह से वापस आये होंगे।"<br />उसकी देखा देखी एक और आदमी भी बातचीत में शामिल हो गया, "इस बेचारे ने जिन्दगी भर तो सेवा की ही है, मरने के बाद भी अपना पूरा शरीर अस्पताल को दान कर दिया है, ताकि डॉक्टरी पढ़ने वाले बच्चों के काम आ सके।" <br />पहले वाले ने जानकारी बढ़ायी, "मैंने सुना है अपनी पूरी पेंशन भी यहीं खर्च कर देता है।"<br />दूसरे ने आगे बताया, "मैंने तो ये भी सुना है कि इसके बच्चे बड़े-बड़े अफसर हैं। अपनी गाड़ियाँ हैं उनकी।" <br />अब पहला बता रहा था, "मुझे तो ऐसा लगता है कि अपने घर पर इसकी कद्र नहीं होती होगी इसलिए दूसरों के बीच अपन वक्त बाँटता रहता है।"<br />अब दूसरे ने फैसला सुना दिया, "जो भी हो, हमें उससे मतलब नहीं। हम तो ये जानते हैं कि वे एक आदमी नहीं देवता हैं।"<br />मैं बच्चों के साथ थोड़ा वक्त गुजारकर लौटकर आया था। वापस आते समय सोच रहा था कि ये आदमी तो वाकई देवता है। किसी आम आदमी के बस में नहीं होता ये सब करना। और वो भी आज के युग में। मैंने मन ही मन बाबू भाई पंड्या को प्रणाम किया था। ये तीसरी बार था कि मैं उनसे बिना मिले लौट रहा था। गये होंगे किसी मरीज को उसके घर पहुँचाने या किसी डॉक्टर के व्यक्तिगत काम निपटाने।<br />***<br />अगली बार अस्पताल जाने पर मुझे उनके एक और ही रूप के दर्शन हुए। मैं अस्पताल पहुँचा ही था कि बाबू भाई पर मेरी नजर पड़ी। वे एक तरफ एक डेड बॉडी को अकेले ही कपड़े में लपेट रहे थे। वहीं पास ही बैठी एक अकेली औरत रो रही थी और बाबू भाई निष्काम भाव से अपने काम में लगे हुए थे। आस-पास खड़े कई लोग देख रहे थे लेकिन कोई भी उनकी मदद के लिए आगे नहीं आ रहा था। बाबू भाई पंड्या ने अपना काम खतम करके एक टैक्सी बुलवायी और डेड बॉडी को टैक्सी की छत पर बँधवा दिया। रो रही अकेली औरत को सहारा देकर उन्होंने टैक्सी में बिठाया और जेब से कुछ पैसे निकालकर उस औरत को दे दिये और हाथ जोड़कर उसे विदा कर दिया। मैं देख पा रहा था कि उस औरत के हाथ दूर जाती टैक्सी से देर तक नजर आते रहे थे। <br />इस बार भी मैं हिम्मत नहीं जुटा पाया था कि उनके सामने भी पड़ सकूँ। मैं इस बार भी उनसे मिले बिना मन ही मन देव तुल्य प्रतिमा को प्रणाम करके लौट आया था।<br />अगली बार जब मैं उनसे मिलने गया तो वे एक आदमी को अस्पताल से विदा कर रहे थे। वह आदमी जोर-जोर से रोये जा रहा था और बाबू भाई उसे चुप करा रहे थे, "रोते नहीं बेटा, तुम किस्मत वाले हो। तुम अपनी बीवी को इतना प्यार करते हो। सारे काम छोड़कर इतनी दूर से उससे मिलने आते हो। उसका पूरा खयाल रखते हो। ऊपर वाले पर भरोसा रखो, उसे कुछ नहीं होगा। वो एकदम ठीक होकर अपने पैरों पर चलकर तुम्हारे साथ वापस जायेगी।"<br />वह आदमी बार बार, "बाबू भाई" ही कह पा रहा था। वे उसके कन्धे पर हाथ रखकर हँस रहे थे, "सात फेरों की याद है न .. वैसे ही वो अपने पैरों से चलेगी जैसे चलकर तुम्हारे घर आयी थी और तुम देखोगे बेटा। उसे बहुत प्यार से रखना बेटा। बहुत अच्छी लड़की है।"<br />"बापू आप न होते तो .."<br />"मैंने तो अपनी तरफ से कुछ नहीं किया बेटा। ऊपर वाले का आर्डर हुआ कि यहाँ मदद चाहिए तो आ गया। अच्छा लगता है कि तुम एक दूसरे के बारे में सोचते हो। जरा उनकी सोचो कि जिनके पास कोई नहीं आता। जाओ। जो भी काम करना, ईमानदारी से करना और जो भी कमाओ उसमें से थोड़ा दूसरों के लिए भी रखना। हम इसलिए न रोयें कि हमारे पास जूते नहीं हैं। हम उनकी भी सोचें जिनके पैर ही नहीं होते, जाओ बेटा। छत और छतरी के फर्क को कभी मत भूलना बेटा। जाओ, अपना खयाल रखना।"<br />वह आदमी कह रहा था, "आप बहुत भले आदमी हैं बाबा। आजकल के ज़माने में दूसरों के लिए कौन इतना करता है।"<br />बाबू भाई, "बेटे, हम अच्छे तो सब अच्छे। हम बुरे तो सब बुरे हो जाते हैं। हमारी अच्छाई ही हमारा साथ देगी बेटा। सेवा में ही मेवा है। भगवान गवाह है इस सेवा के अलावा जिन्दगी में और कोई भी चीज इतनी पवित्र और खूबसूरत नहीं है बेटा। कोई भी ऐसा काम न करो कि सामने वाले को अपनी आँखें पोंछनी पड़ें। सबके चेहरे पर हँसी लाओ। वही जीवन को जीने लायक बनाती है। जीते रहो बेटा।"<br />वह आदमी बाबू भाई के पैर छू रहा था। जाते समय उसके दोनों हाथ जुड़े हुए थे। आँखों में आँसू की दो बूँदे अटकी हुई थीं।<br />इस बीच मैं बाबू भाई से पचासों बार मिला। उनके साथ अस्पताल के कई वार्डों के चक्कर काटे। कई पत्रिकाएँ और किताबें उनके लिए जुटायीं और उनके साथ घन्टों बैठकर मरीजों के हाल-चाल बाँटे, लेकिन इसके बावजूद मैं डॉक्टर भाटिया से किया गया वायदा पूरा नहीं कर पाया था। लिख ही नहीं सकता था।<br />इस बीच बाबू भाई भी कई बार मुझसे मिलने आये। वे कभी हमारे ऑफिस पत्रिकाएँ लेने आ जाते। पोस्टकार्ड डाल देने भर से वे आ जाते। मैंने उनके पोस्टकार्ड कई दोस्तों को दिये और इस बात का इन्तजाम कर दिया था कि हर महीने उनके पास काफी मात्रा में पत्रिकाएँ पहुँचती रहें। वे आते, थोड़ी देर बैठते और पत्रिकाएँ बाँधना शुरू कर देते। वे उतनी ही देर रुकते जितनी देर में वे बंडल बाँधें और गेट पास बनकर आये, लेकिन वे कभी भी रुककर एक गिलास पानी भी नहीं पीते। अपने बारे में तो वे कभी बात भी नहीं करते। बहुत कुरेदने पर भी नहीं। यहाँ तक कि इस विषय को ही टालते। मैं भी उन्हें नाराज करके कुछ जानना नहीं चाहता था। हालाँकि उनके बारे में मुझे और भी बहुत सी जानकारी मिली थी और डॉक्टर भाटिया भी अकसर उनके बारे में नयी-नयी बातें बताते रहते, लेकिन मैं चाहकर भी उनके बारे में लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था।<br />जब भी उन पर कहानी लिखने की सोचता, वे इतने विराट और दयालुता की प्रतिमा हो जाते कि मेरी लेखनी छोटी पड़ जाती और कुछ भी लिखने से इनकार कर देती। शब्द मेरा साथ छोड़ देते।<br />यह भी पहली बार हो रहा था कि कहानी के लिए पात्र साक्षात मेरे सामने था और मैं नहीं लिख पा रहा था। लिखना चाहता था मैं लेकिन हो ही नहीं पाता था। एक साक्षात जीवन चरित को शब्दों में बाँध पाने में मैं अपने आपको असमर्थ पा रहा था। <br />इस बीच अहमदाबाद छूट गया। वहाँ से आये मुझे छह बरस तो हो ही गये होंगे। मैं अहमदाबाद छोड़ने से पहले आखिरी बार उनसे मिलना चाहता था। पैंकिंग के बाद ढेर सारी पत्रिकाएँ भी निकल आयी थीं, वे भी उन्हें देना चाह रहा था लेकिन मिलना हो नहीं पाया था। दो एक बार गया था तो वे मिले नहीं थे और पोस्टकार्ड डालने पर आये नहीं थे। हो सकता है बीमार वगैरह हो गये हों या कोई और बात हो। मन में एक कसक सी थी कि पता नहीं फिर कब मिलना हो .. लेकिन शायद ऐसा ही होना था। मैं उनसे बिना मिले चला आया था। शायद कुछ और कोशिश करता या उनके दिये पते पर ही चला जाता तो हाल-चाल तो मिल जाते लेकिन शहर छोड़ने की गहमागहमी और दोस्तों की विदाई दावतों के बीच बाबू भाई पंड्या जरूरी कामों की सूची में कहीं नीचे चले गये थे।<br />बेशक मैं अहमदाबाद से मन पर बहुत बोझ लेकर आया था। इस शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया था और बहुत कुछ सीखा था मैंने वहाँ लेकिन बाबू भाई पंड्या से मिलना इन सबसे ज्यादा कीमती सौगात थी मेरे लिए।<br />***<br />अहमदाबाद से डॉक्टर भाटिया आये हुए हैं। बरसों बाद उनसे भेंट हुई है। वे उसी अस्पताल में अपने विभाग के हैड हो गये हैं। बातों ही बातों में बाबू भाई पंड्या का जिक्र आया। <br />उन्होंने जो कुछ बताया है उससे मैं दहल गया हूं। मैं सोच भी नहीं सकता था कि बाबू भाई पंड्या के साथ भी ऐसा हो सकता है।<br />डॉक्टर भाटिया बता रहे हैं, "बाबू भाई को उनकी बहू ने घर से निकाल दिया है। वे खुद बता रहे थे कि बहू उनके आने-जाने के टाइम से और घर में किसी भी किस्म की दिलचस्पी न लेने के कारण उनसे चिढ़ी रहती थी। एक वजह पेंशन भी थी जिसे वे अपने चहेते मरीजों पर ही खर्च कर डालते थे।"<br />"अरे ये तो बहुत बुरा हुआ। इस उम्र में और ऐसे देवता आदमी की ऐसी दुर्गत। कहाँ रह रहे हैं वो अब?<br />"रहना कहाँ? अब तो हमारे अस्पताल में ही आ गये हैं। वे पिछले पच्चीस बरस से अपना सारा वक्त वहीं तो दे रहे थे। एक किनारे अपना थोड़ा सा सामान लेकर टिक गये हैं। इतना बड़ा अस्पताल है, किसी को क्या फर्क पड़ना है।"<br />ये बताते हुए डॉक्टर भाटिया अपनी गीली आँखें पोंछ रहे हैं। मेरी आँखें भी भर आयी हैं। किसी तरह भरे गले से पूछता हूँ, "तो क्या उनकी दिनचर्या अब भी वही है। अब तो उमर भी बहुत हो गयी होगी।"<br />"हाँ, उमर तो बहुत हो गयी है और अब उतना कर भी नहीं पाते लेकिन अब भी सारा दिन मरीजों के पास जाकर बैठते हैं। उनके साथ बातें करते हैं। थोड़ी-बहुत मदद तो कर ही देते हैं।"<br />"एक बार कोई बता रहा था कि उन्होंने अपना शरीर भी अस्पताल के नाम डोनेट कर रखा है" मैं पूछता हूँ ।<br />"हाँ, यह सही है, उन्होंने अपनी आँखें और अपना पूरा शरीर अस्पताल को डोनेट कर रखा है। मैं आपको बता नहीं सकता, उनके रहने से हम डॉक्टरों को, अस्पताल के स्टाफ को और मरीजों को कितना सहारा रहता है। सबसे बड़ी बात है कि वे मरीज में विश्वास जगाये रहते हैं जिससे हमारे लिए इलाज करना बहुत आसान हो जाता है।"<br />"यार, अपनी जिन्दगी में मैंने इतने जीवट वाला आदमी नहीं देखा जो जीते जी तो इतना कर ही रहा है, मरने के लिए पहले से तैयार होकर वहीं आ गया है कि उसके मरने के बाद उसके शरीर को भी किसी मकसद के लिए इस्तेमाल किया जा सके।"<br />"कहते हैं बाबू भाई कि अपना शरीर तो दान कर ही रखा है। मरने के बाद यहाँ लाने में सबको तकलीफ ही होगी मैं खुद ही आ गया हूँ जब भी मेरी आखिरी साँस का नम्बर आये तो आप लोग मेरी पर्ची काट देना। मेरे केस की फाइल बन्द कर देना। आप लोगों को आसानी होगी।"<br />"क्या अब भी सारे वार्डों के वैसे ही चक्कर लगाते हैं और बच्चों बूढ़ों को कार्ड, मैगजीनें और दूसरी चीजें देते रहते हैं?"<br />"नहीं, अब तो वो सब जगह जा नहीं पाते। हमारे पास भी कम ही आते हैं। हम ही बीच बीच में उन्हें देख आते हैं और उन्हें पुराने कार्ड वगैरह दे आते हैं और उनसे मजाक में कहते हैं, "लो बाबू भाई पंड्या। अपनी करीना कपूर ने आपके लिए ये कार्ड भेजा है। कह रही थी बाबू भाई से किसी दिन जरूर मिलने आऊँगी।"<br /> हँसते हैं तब बाबू भाई। कहते हैं, "हाँ भई अब तो मेरी ही बारी है। देखना किसी दिन खुद भी आयेगी बाबू भाई पंड्या से मिलने के वास्ते।"<br />"आपकी बात बिलकुल सही है, लेकिन दिक्कत यही है कि बाबू भाई पंड्या जैसे लोगों की नियति यही होती है।"<br />"मुझे तो डर है कि पिचासी साल की उमर में अगर उन्हें कुछ हो गया तो पता नहीं, अस्पताल के अहाते में रहते हुए भी उन्हें दवा की आखिरी खुराक भी मिलेगी या नहीं।"<br />मैं डॉक्टर भाटिया की बात सुनकर चुप रह गया हूँ। कई बार शब्द भी तो साथ नहीं देते।<br />***<br />शायद बाबू भाई पंड्या जैसे आदमी पर कहानी लिखी ही नहीं जा सकती। ऐसे लोग तो खुद जीती-जागती कहानियाँ रचते हैं। <br />उन्हें सिर्फ प्रणाम किया जा सकता है।<br />************सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5913688233422255937.post-39037936909380799922008-03-17T08:45:00.000+05:302008-03-17T08:49:57.893+05:30पांचवीं कहानी - पत्थर दिलशिरीष,<br /> कैसे हो! फोटो से तो यही लगता है, आगे के सारे बाल झड़ गये हैं। शायद चांद भी निकल आयी हो। चश्मे का नम्बर तो पता नहीं बदला या नहीं, पर इस फोटो में तुमने जो चश्मा लगा रखा है, तुम पर जंच रहा है। वह पहले वाला लापरवाही का-सा अंदाज शायद अभी भी छोड़ा नहीं तुमने! बधाई लो।<br /> तुम हैरान हो रहे होगे, कौन पाठिका है जो इतनी बेतकल्लुफी से लिख रही है। जानती है क्या मुझे! हां शिरीष, जानती हूं तुम्हें, तभी तो लिख रही हूं। तुम भी शायद मुझे भूले नहीं होगे। आज ही एक पत्रिका में तुम्हारी ताज़ा कहानी देखी और साथ में सचित्र परिचय तो लिखने का मन हो आया। नहीं, इतना लम्बा पत्र तुम्हारी कहानी की तारीफ में नहीं लिख रही हूं। मेरे जैसी नासमझ पाठिका तुम्हारी कहानी का कहां मूल्यांकन कर सकती है भला। हां, आज मैं खुद तुम्हें एक कहानी लिख रही हूं। पर वचन दो इसे कहीं छपवाओगे नहीं। बस, सिर्फ पढ़ना और इसे अपने तक ही सीमित रखना। <br />तुम्हें मुझसे शिकायत रहती थी ना, मैं बहुत कम बालती हूं। एक-एक, दो-दो शब्द के वाक्य, तो लो, आज ढेर सारे शब्दों में अपनी बात कर रही हूं। पिछली सारी कमी पूरी हो जायेगी।<br /> मैं श्रीपर्णा हूं। याद आया? नहीं! श्रीपर्णा मेहरा, रोल नं. तरेपन, बी.ए. सेकिण्ड ईयर। तुम्हारा रोल नम्बर तो बावन था। मैं ये सब यूं लिख रही हूँ, जैसे सचमुच रोल नम्बर के जरिये ही हम एक दूसरे को पहचानते हों। दरअसल मेरा रोल नम्बर आते ही तुम मेरा ''यस सर,'' सुनने के लिए एकदम तैयार होकर बैठ जाते थे। इसलिए याद रह गया। आज इतने बरसों बाद अचानक मेरा खत पाकर हैरानी हो रही है ना! हैरानी तो तुम्हें उस दिन भी बहुत हुई होगी, जब मैं अचानक गायब हो गई थी। बारह-मार्च थी उस दिन, सन् चौहत्तर। डॉ.मिश्रा का पीरियड चल रहा था। इतिहास का। तभी चपरासी मुझे बुलाने आया था, ऑफिस में मेरे लिए एक ज़रूरी फोन था। फोन एटैंड करते ही मैं तुरन्त क्लास में आई थी। सर से अनुमति ली थी और फिर लौटकर कॉलेज में कभी नहीं आई थी। मुझे बाद में पता चला था, तुमने बहुत कोशिश की थी, पता लगाने कि मैं अचानक कहां गायब हो गयी, पर तुम्हें कोई कुछ नहीं बता पाया था। बताता भी क्या। बताने लायक कुछ होता तो सबसे पहले मैं ही तुम्हें बताती। मेरे घर जाने की हिम्मत तो तुम नहीं ही जुटा पाये होगे। हो सकता है, तुमने मेरा बहुत-बहुत इंतज़ार भी किया हो, तुम्हारे कुछ नोट्स भी मेरे पास थे, शायद उन्हीं के लिए याद किया हो और बाद में उम्मीद छोड़ दी हो। यह भी हो सकता है, तुम्हें सारी बात का पता चल गया हो और तुमने मेरे लिए बहुत अफ़सोस जाहिर किया हो। खैर, ये तो मेरे ख्याल ही हैं। सच क्या था, वही सब आज तुम्हें लिखने जा रही हूं।<br /> घर पहुंचते ही पता चला था, जचगी में दीदी की डैथ हो गयी है, जयपुर में। मेरे तो हाथ-पांव ही सुन्न हो गये थे सुनकर। मां वहीं गयी हुई थी उसके पास। पापा, वीनू भइया और मैं लगातार दस घंटे ड्राइव करके पहुंचे थे वहां। बस, हमारा ही इंतज़ार किया जा रहा था। दीदी सबको बिलखता हुआ छोड़ गयी थी। अपने नन्हें से बेटे का मुंह भी नहीं देख पायी थी बेचारी। उसे दूध पिलाने की तो नौबत ही नहीं आ पायी।<br /> सारे घर में कोहराम मचा हुआ था। क्या होगा, इन छोटे-छोटे बच्चों का! कैसा अभागा जन्मा कि मां का दूध तक नसीब नहीं हुआ! कैसे संभालेंगे रंजीत इन्हें! नौ साल का शेखर तो फिर भी थोड़ा समझदार था। तीन साल की प्रियंका को समझ में नहीं आ रहा था, यह सब रोना-धोना क्यों मचा हुआ है। उधर जीजाजी सदमे की वजह से एकदम चुप हो गये थे। बस, पथराई आंखों से सबको देख रहे थे। जब रोते हुए शेखर ने चिता में आग दी तो वे अचानक फूट-फूट कर रो पड़े थे और शेखर को सीने में भींच लिया था।<br /> मुझे वहां जाते ही बच्चों की देखभाल में व्यस्त हो जाना पड़ा था। मैं खुद रोती और नन्हां शंतनु मेरी गोद में रोता रहता। मेरे सीने में मुंह घुसेड़ता, पर कहां से उसे कुछ मिलता। मेरा प्यार, दुलार, स्नेह उसके लिए काफी न होते। उसे मां का-सा स्पर्श तो दे सकती थी, दूध कहां से देती। बोतल का दूध उसे पच नहीं रहा था। मेरा कलेजा मुंह में आने को होता। मैं मां के गले लगकर रोती और वह मेरे गले लग कर। समझ में नहीं आता था, आगे क्या होगा!<br /> दसेक दिन इसी तरह से बीत गये थे। उदास, परेशान और फीके-फीके। तेरहवीं की रस्म तक सभी लोग लौट चुके थे। मम्मी, डैडी, वीनू, मैं, रंजीत और उनके घर के लोग ही बचे थे। सबकी आंखों में एक बहुत बड़ा प्रश्न तैर रहा था। हर कोई सामने वाले की आंखों में इस प्रश्न को आसानी से पढ़ रकता था, पर जवाब किसी के पास नहीं था। रंजीत अभी भी पूरी तरह सहज नहीं हो पाये थे। एकदम गुमसुम बैठे रहते।<br />• <br />एक रात मम्मी, डैडी, रंजीत, उनके माता-पिता तथा दो-एक रिश्तेदार सिर जोड़कर एक बन्द कमरे में बैठे थे और जब वे दो-ढाई घंटे बाद बार निकले थे तो इस विराट प्रश्न का उत्तर खोज लिया गया था। मम्मी बाहर आते ही मेरे गले से लिपट कर रोने लगी थी, और उसके मुंह से मेरी बच्ची, मेरी बच्ची के सिवाय कोई शब्द नहीं निकल रहा था। मैं समझ नहीं पा रही थी, अचानक सब मुझे बेचारगी से क्यों देख रहे हैं! एकदम ठण्डी आवाज में मुझे बताया गया था, ''हमारे पास हर तरह से इससे अधिक स्वीकार्य कोई विकल्प नहीं है कि रंजीत से तुम्हारी शादी कर दी जाये। उसके टूट गये परिवार को सहारा देने के लिए यह बहुत ज़रूरी है।'' मैं एक शब्द भी नहीं कह पायी थी, बच्चों से लिपट कर देर तक रोती रही थी।<br /> आज सोचती हूं, किसके लिए और किस विकल्प की तलाश कर रहे थे सब! मेरे बारे में फैसला कर रहे थे और मुझसे पूछा तक नहीं गया था। सिर्फ फैसला सुना दिया गया था। रंजीत का परिवार टूटने से बच जाये, इसलिए किसी न किसी को बलिदान करना ही था। मैं एकदम सामने पड़ गई थी सबके। किसी को भी विकल्प की तलाश की ज़रूरत ही नहीं रही थी। काश, मेरे बारे में इतना बड़ा फैसला करने से पहले मेरी राय तो ली जाती! अब तो यही सोच कर तसल्ली कर जाती हूं कि अगर मुझसे पूछा भी जाता, तो मैं भी तो यही करती न। माया, ममता और सहानुभूति की भेंट वे न भी चढ़ाते, शायद, मैं खुद चढ़ जाती बिना एक शब्द भी बोले।<br /> मेरी शादी विशुद्ध रूप से सहानुभूति, जज़्बात, जल्दीबाजी और तथाकथित इन्सानी मूल्यों के नाम पर एक भावुकता भरा कदम थी। दीदी और बच्चों के प्रति मेरे पेम को यह मान लिया गया था कि मैं बड़ा से बड़ा त्याग करने में भी हिचकूंगी नहीं। उनके सामने मैं थी ही। इतने दिनों से बच्चों के पीछे खुद को भी भूली हुई थी, बस इसे स्थायी व्यवस्था की भूमिका मान लिया गया। इस शादी को मज़बूरी, ज़रूरत या सुविधा का नाम भी दिया जा सकता है। कई बार ख्याल आता है, रंजीत नये सिरे से, किसी नयी लड़की से विवाह करते तो क्या आज उन्हें उन आवरणों की ज़रूरत पड़ती, जिसमें वे खुद को वर्षों से कैद किए हुए हैं। न ही किसी से त्याग की उम्मीद की जाती और न ही बेहतर या कमतर विकल्प की बात उठती! लेकिन मैं ये भी सोचती हूं कि हगर मेरी शादी यहां न हुई होती तो मैं उतनी सुखी या दुखी होती, जितनी आज हूं। क्या मेरी पसंद के आदमी से शादी होने पर मुझे उससे वे सब शिकायतें न होतीं जो आज रंजीत से हैं। लेकिन यह सब तो होता, तब की बात थी।<br /> और इस तरह से हमारी शादी हो गई। महज औपचारिक शादी। दीदी की मृत्यु के ठीक सत्रह दिन बाद। उस समय मैं इक्कीस की भी नहीं हुई थी। रंजीत छत्तीस पूरे कर चुके थे। दीदी से उनकी शादी के वक्त मैं सिर्फ ग्यारह साल की थी, जिसे रंजीत जीजाजी टॉफी और आइसक्रीम से बहलाया करते थे। अब मैं उनकी पत्नी थी। उनके तीन बच्चों की मां।<br /> हमारी शादी में शादी जैसा कुछ था भी नहीं। न हंसी मज़ाक, न सहेलियां, न डोली, न बारात और न ही विधिवत कन्यादान। बेहद बोझिल वातावरण में बस पंडितजी की उपस्थिति में दो-चार मंत्र पढ़े गए थे और मैं शादी का जोड़ा पहनाकर ब्याह दी गई थी। तब मुझे समझ नहीं आ रहा था, मेरी लगातार रुलाई किसलिए थी। समझ तो आज तक नहीं पायी हूं कि मैं तब क्यों रो रही थी?<br /> तुम्हें हंसी आयेगी, हमारी पहली रात भी हमारे बीच नन्हां, सत्रह दिन का दूध पीता शंतनु सो रहा था और मुझे दो-तीन बार उसके पोतड़े बदलने के लिए उठना पड़ा था। अब उसकी मां जो थी मैं।<br /><br />दीदी की स्मृतियां दिमाग पर बुरी तरह हावी थीं। उस सदमे से कोई भी उबर नहीं पाया था। गहरे पशोपेश में थी। बिल्कुल समझ में नहीं आता था, क्या हो गया ज़िंदगी का। बच्चों और रंजीत की तरफ देखती तो उनके लिए प्यार और तरस के भाव उपजते, खुद का सोचती तो रोना आता। क्या कुछ तो चाहा था, पढ़ना, कैरियर बनाना, खूब ऊपर उठना। जिस व्यक्ति को कल तक जीजाजी का आदर भरा सम्बोधन देती थी, कब सोचा था, वे ही अचानक एक दिन, बिना किसी भूमिका के मेरे पति हो जायेंगे। उनके जीवन में जहां-जहां मेरी दीदी थीं, वे सारी जगहें मुझे भरनी होंगी। शुरू-शुरू में समझ नहीं पाती थी, मुझे खुद अपनी ज़िन्दगी जीनी है, या दीदी बनकर, दीदी के बच्चों की मम्मी बनकर, दीदी के पति की पत्नी बनकर, दीदी द्वारा खाली की गयी जगह भरनी है! सब कुछ पूर्ववत् चलता रहे, इसकी कोशिश करनी है या हर जगह से दीदी का नाम धो-पोंछ कर खुद अपनी जगह बनानी है। तुम्हें मैं कैसे बताऊं शिरीष, कितना-कितना रोती थी मैं उन दिनों। एक भूमिका निभाना शुरू करती तो दूसरी भूल जाती। दूसरी में मन रमाने की कोशिश करती तो तीसरे में कन्फ्यूज हो जाती। खुद अपने आपको कहां रखना है, तय नहीं कर पाती।<br /> रंजीत के हाथ मेरी तरफ न बढ़ते। वह संकोच के मारे बेडरूम में न आते। हमने कई रातें यूं ही अलग-अलग काटीं। वह अगर मुझे छूते भी तो कई बार चौंक कर अपना हाथ खींच लेते। मैं भी संकोच में रहती। अरसे तक हम पति-पत्नी के सम्बन्ध को सहजता से नहीं जी पाये थे। बार-बार लगता, दीदी कहीं आसपास ही हैं और उन्हें सब पता चल गया है। अभी परदा हटाकर अचानक कमरे में आ जायेंगी और मुझे जीजाजी के साथ इस तरह रंगरेलियां मनाते देख, मेरी चुटिया पकड़, अपने घर से बाहर निकाल देंगी। मैं खुद को लाख समझाती, अब कुछ बदल चुका है। रिश्तों के अर्थ हमारे लिए बदल गये हैं, फिर भी मन आशंकित रहता। इस सबके बावजूद खुद सहज रहते हुए उन्हें भी सहज रखने की कोशिश करती, पर वह न जाने मौन के किस अंधे कुएं में उतर गए थे, आज तक, सोलह साल बीत जाने पर भी उससे बाहर नहीं आ पाये हैं।<br /> जब पहले दीदी के घर जाती थी तो बच्चे लाड़ लड़ाते हुए मेरे पास सोने की ज़िद करते। मुझसे बहुत हिले हुए थे। अब मैं उनकी मां बनकर आ गई थी तो वे मुझे अविश्वास से देखने लगे थे। इस बदले हुए, थोपे हुए रिश्ते को स्वीकार नहीं कर रहे थे। हर समय सहमे-सहमे रहते। मम्मी के न रहने से परेशान वैसे ही थे। शेखर को तो खैर इतनी समझ थी, प्रियंका महीनों तक मम्मी के पीछे पागल रही। उसने मम्मी को अस्पताल जाते हुए देखा था, वापिस तो वह आयी ही नहीं थी, सो प्रियंका अक्सर दरवाजे पर खड़ी मम्मी की राह देखा करती। मम्मी संबोधन तो खैर मुझे शंतनु के बोलना सीखने के बाद से ही मिलना शुरू हुआ था।<br /> अरसे तक हम दोनों का संवाद नपे-तुले शब्दों तक सीमित रहा। हम ज़रूरत भर बात करते। घर पर हर वक्त मनहूस-सा सन्नाटा पसरा पहता। खाना खा लीजिए, चाय पी लीलिए। आपके कपड़े रख दिए हैं, नहा लीजिए, जैसी निहायत ज़रूरी सूचनाएंं। सम्बोधन तो हमारे पास अरसे तक नहीं रहा। नाम से बुला न पाती। अभ्यासवश मुंह से जीजाजी ही निकलता। वह दीदी को अपर्णा न कहकर रिन्नी कहकर पुकारते थे। मेरा घर का नाम पर्णा था। वह अक्सर मुझे भी रिन्नी कहकर पुकार बैठते। अपनी गलती का अहसास होने पर हम देर तक नज़रें चुराते रहते।<br /> दीदी की पहली पुण्यतिथि पर मैंने उनका विधिवत् श्राद्ध किया था। दान-पुण्य करके उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की थी। दीदी की पहली पुण्यतिथि के ठीक सत्रह दिन बाद हमारी शादी की पहली वर्षगांठ थी। हालांकि उस शादी में कुछ भी ऐसा नहीं था, जिसे याद रखा जाता, यहां तक कि उस मौके पर कोई तस्वीर भी नहीं खींची गई थी, लेकिन शादी तो फिर भी शादी थी। बेशक उनके लिए दूसरी हो, मेरे लिए तो पहली थी। वैसे भी दीदी को गुज़रे साल से ऊपर गुजर चुका था, और हम सबने नयी परिस्थितियों में, नये रिश्तों को स्वीकार करके जीना शुरू कर दिया था।<br /> रंजीत को हमारी शादी की पहली वर्षगांठ याद नहीं रही थी। अरसे तक याद नहीं आई थी। जीवन उनका ढर्रे पर चलने लगा था। लगता था, उन्होंने अपनी जीवन से सभी अच्छी-अच्छी तारीखें, चीज़ें मिटा दी थीं और अब जो कुछ बचा था, उनकी दृष्टि में उसमें सेलिब्रेट करने जैसा कुछ नहीं था। मैं चुप रह गई थी। याद नहीं दिलाया था उन्हें। यही सही।<br /> शादी के बाद जब पहला जन्मदिन आया था तो दीदी को गुज़रे ज्यादा अरसा नहीं हुआ था। मैं उनकी स्थिति समझ सकती थी! लेकिन जब शादी के बाद मेरा दूसरा जन्मदिन भी उन्हें याद नहीं आया तो मैं बहुत-बहुत रोयी थी। भला ऐसी भी क्या रुग्ण आसक्ति कि जो अब नहीं है, उनके लिए आप हर समय उदास ग़मगीन बने रहें और जो है, जिन्होंने आपके और आपके परिवार के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया, वह कहीं नहीं है! जब मैं उनकी साली थी तो हर साल कोई न कोई तोहफा जरूर भेजते थे। कैमरा तक दिया था उन्होंने मुझे और अब पत्नी बन जाने पर इतनी बड़ी सज़ा!<br /> ऐसा भी नहीं था कि हमने इस दौरान बच्चों के जन्मदिन न मनाये हों। बेशक छोटे पैमाने पर सही, बच्चों को उनकी इस छोटी-सी खुशी से मैंने कभी वंचित नहीं किया था। खुद रंजीत के जन्मदिन पर मैंने उन्हें एक बढ़िया रेडीमेड शर्ट दी थी। केक बनाया था। उन्हें सरप्राइज दिया था कि आज उनका जन्मदिन है।<br /> अपने जन्मदिन के प्रति मैं शुरू से ही बहुत सेंसेटिव हूं। इसे इस तरह गुज़रते देख मैं बहुत रोयी थी। छटपटाई थी। दूसरी बार यह हो रहा था। मम्मी-पापा ने भी शायद मुझे विदा कर देने के बाद यह तारीख याद रखने की ज़रूरत नहीं समझी थी। केवल वीनू भैया का खूबसूरत कार्ड आया था जिसे मैंने तुरन्त छिपा दिया था। मानो उसकी खबर पाकर हंगामा मच जाएगा।<br /> ऐसा भी नहीं था कि अब तक रंजीत मुझे मानसिक और शारीरिक तौर पर स्वीकार न कर पाए हों। अपने अन्तरंग क्षणों में उन्होंने कई बार कहा था, पर्णा तुम न आती तो मैं तो बिल्कुल टूट जाता। क्या होता इन बच्चों का और मेरा! और वह मुझे बेहद प्यार करने लगते। लेकिन सुबह होते ही बिल्कुल बदले हुए इन्सान होते। एकदम रिज़र्व, अपने आप में गुमसुम।<br /> मैं उन्हें अक्सर कहती ''चलिए, कहीं घूम आयें। चेंज हो जाएगा।' लेकिन वह टाल जाते। ''मन नहीं करता'' कहकर घर से भी न निकलते। शहर से बाहर तो दूर, दोस्तों-परिचितों तक के घर भी वह जाने से कतराते। एक बार ऑफिस से आने के बाद अगली सुबह ही बाहर निकलते। उन्होंने शायद यह धारणा-सी बना ली थी कि श्रीपर्णा की तो कोई इच्छा ही नहीं है। सारा दिन घर और बच्चों के साथ मारा-मारी करके उसकी भी तो घर से बाहर निकलने की इच्छा हो सकती है, यह जानने-मानने की जैसे ज़रूरत ही नहीं थी उन्हें।<br /> जब दीदी थीं तो वे लोग हर साल कहीं न कहीं घूमने निकलते थे। मेरी शादी के चार साल तक रंजीत ने एक बार भी नहीं कहा कि चलो अब बहुत हो गया, कहीं घुमा लायें तुम्हें। इन वर्षों में हम केवल दो बार उनके घर कानपुर गये और एक बार मैं मायके आयी, वह भी इसलिए कि वीनू भैया की शादी थी और जाना ज़रूरी था।<br /> बाहर जाना तो दूर, वह कभी भूल से भी नहीं कहते, ''चलो पर्णा, आज कहीं होटल में खाना खाते हैं या चलो तुम्हें एक नयी साड़ी ही दिलवा दें।'' बीसियों बार टूर पर जाते हैं। बच्चों के लिए कुछ न कुछ लाते हैं। चाहे अपनी मर्जी से, या उनकी मांगें पूरी करने के लिए। उन्हें कभी सूझता ही नहीं, पर्णा के लिए भी कुछ ले जाया जा सकता है। उसकी भी कभी इच्छा हो सकती है, कोई गिफ्ट मिले। हर बार मुझे ही कहना, मांगना पड़ता है। अगर शिकायत करो तो बिना खिसियाए कहेंगे, ''तुम भी कह सकती थीं, मांग सकती थीं। न ला कर देता, तब कहती।'' अरसे से कुछ भी मांगना, कहना छोड़ दिया है। अपनी शॉपिंग खुद ही करती हूं।<br /> हां, याद आया, मेरी शादी के वक्त मम्मी बाजार से पांच-सात सोबर-सी लगने वाली साड़ियां ले आई थी। घर से तो हम दो-चार जोड़े ही लेकर चले थे। बेशक मम्मी ने मेरे लिए अच्छा-खासा दहेज जुटा रखा था, वह सब वहीं रह गया था। जब मैंने देशा कि रंजीत तो एक साड़ी भी कभी नहीं दिलवायेंगे, तो मम्मी से कहकर, एक-एक करके सारे कपड़े मैंने मंगवा लिये थे।<br /> दीदी की अलमारियां एक से एक बेहतरीन साड़ियों, ड्रेसों से अटी पड़ी थीं, लेकिन उन्हें मैं कभी नहीं पहन पाई थी। एक बार एक साड़ी बहुत अच्छी लगने पर मैंने पहन ली थी तो सारे घर में रोना-धोना मच गया था। रंजीत और बच्चों को दीदी की याद आ गयी थी और सब रोने लगे थे। मेरे लिए उसके बाद अलमारी कभी नहीं खुली थी। सारे कपड़े मैंने इधर-उधर दे डाले थे।<br /> कई बार अपनी उम्र के हिसाब से सुन्दर और आकर्षक कपड़े पहनने का मन करता। मेक अप करने की इच्छा होती, लेकिन रंजीत की हद दरजे की उदासीनता से कुछ न कर पाती। वह सारी शामें, सारी छुट्टियां घर पर लेटे रहकर गुज़ारते। मेरा दम घुटता, छटपटाहट महसूस होती। लेकिन रंजीत न जाने किस मिट्टी के बने हुए हैं। उन्हें कुछ महसूस ही न होता। ज़िंदगी के प्रति कोई उत्साह नहीं। कुछ नया, कुछ उमंग भरा करने की कोई ललक नहीं, बस हर वक्त सुस्ता रहे हैं।<br /> मैं उनके इस रूखे व्यवहार की वजह समझ न पाती और रोती रहती। समझ न आता क्या हो रहा है और वह ऐसा क्यों कर रहे हैं! उनसे पूछती, गिड़गिड़ाती, अपने मन की बात क्यों नहीं कह कर हल्के हो जाते ! क्यों तिल-तिल कर मर रहे हैं? आखिर मेरी गलती, मेरा कसूर तो पता चले कि यह सज़ा क्यों दी जा रही है मुझे, पर शायद रंजीत को मुझसे कोई शिकायत नहीं थी, खुद से ही थी। हर बार यही कह कर टाल जाते, सब ठीक तो है। तुम्हें बेकार वहम हो रहा है।<br />• <br />इसी दौर में तीन-चार घटनाएंं एक साथ घटीं। शादी के चौथे-पांचवे साल में। हमारा बेटा हुआ। परेश। मैंने बी.ए. का फार्म भरा। शेखर हॉस्टल में चला गया और, और रंजीत को किडनी स्टोन की शिकायत हुई। इन सारी घटनाओं ने हमारे परिवार के सारे समीकरण बदल दिए। यह एक ऐसा दौर था, जब मुझ पर अपनी सार्थकता, अपनी अहमियत को सिद्ध करने का जुनून-सा सवार हो गया था। मैं खुद को बच्चों की पढ़ाई, घर-बार की बेहतरी और अपना खुद का सर्किल बनाने में पूरी तरह व्यस्त रख कर तसल्ली ढूंढ़ने लगी थी। पिछले पांच सालों से घुटन भरे माहौल से एकदम विद्रोह करने की-सी मानसिकता थी मेरी। ऐसा नहीं था कि मैंने रंजीत की तरफ ध्यान देना कम कर दिया हो, वह खुद को किसी तरह इस सबसे बाहर रखने की कोशिश करते। उन्हें सब लल्लो-चप्पो लगता।<br /> किडनी स्टोन की बीमारी रंजीत को इस तरह एक वरदान की तरह मिली थी। वह बड़ी सफाई से हर तरफ की मुसीबतों, जिम्मेदारियों और औपचारिकताओं से मुक्त हो गए थे। कई बार मुझे लगता है, अगर उन्हें पथरी की शिकायत न होती तो और कोई बीमारी हो जाती, कोई ऐसी बीमारी जो ज्यादा तकलीफ दिए बिना अरसे तक आपके साथ चल सके। जब आप चाहें कह दें, अब ठीक हूं, और जब आप चाहें उसकी आड़ लेकर बिस्तर पर पड़ जायें। यह बीमारी एक ऐसा अंधेरा कमरा थी जिसमें वह जब चाहें छुप जाते थे, आराम से खुद को हम सबसे काट सकते थे। जब देखते, अब सब कुछ ठीक है, तो हौले से बाहर आ जाते, लुका-छिपी के खेल की तरह। तब से आज तक मुझसे उनका लुका-छिपी का खेल जारी है।<br /> कई बार मुझे लगता है, मैं इतने सालों से किसी सिविल अस्पताल में रह रही हूं। चारों तरफ दवाओं की गंध है। जिस चीज को भी छुओ, किसी न किसी टेबलेट की गंध उसमें बसी हुई है। हवा यहां की इतनी भारी है कि अब सांस लेने में भी तकलीफ होती है। हमारा बेडरूम तो कब से पेशेंट रूम में बदल चुका है। मुझे कुछ नहीं हुआ है, फिर भी हर वक्त खुद को बीमार महसूस करती हूं। इस सिविल अस्पताल में मेरी भूमिका क्या है, मुझे नहीं मालूम। बस यहां एक अदद मरीज है और इस घर का कारोबार घर उसी की सुविधा, ज़रूरत, इच्छा या जिद के हिसाब से चलता है। उसे जो खाना चाहिए सबके लिए वही बनेगा। उसे घर में ही पड़े रहना है तो कोई बाहर नहीं जाएगा। कोई किसी को तंग नहीं करेगा। यह मरीज किसी से कुछ नहीं कहता, किसी को मन मर्जी करने से रोकता भी नहीं, परन्तु इतने बरसों से कुछ न कहने के अभ्यास से उसने घर भर को अपनी इतनी जबरदस्त गिरफ्त में ले रखा है, कि कोई ऊंचे स्वर में बात नहीं कर पाता। असली दिक्कत ही यही है कि वह कुछ कहता नहीं। कहे और एक ही बार में सब कुछ खत्म हो गया तो वह क्या करेगा! कई बार लगता है, हम सब मरीज हैं, जिन्हें इस घर का दमघोंटू सन्नाटा हर वक्त कुतर-कुतर कर खा रहा है। हम असहाय से देख रहे हैं।<br /> यह मरीज सारा दिन अपनी दवाइयों की दुकान सजाए रहता है। कभी वह होम्योपैथी का इलाज करवा रहा होता है, तो कभी ऐलोपैथी, यूनानी या आयुर्वेदिक का। पता भी नहीं चलने देता कब इलाज बदल दिया। उसे शहर भर के किडनी स्टोन के डॉक्टरों और मरीजों की पूरी जानकारी है और वह अपनी बीमारी पर घंटों बात कर सकता है। सच तो यह है कि अब वह सिर्फ अपनी बीमारी पर ही बात कर सकता है। हमारे घर मेहमान हमसे बोलने-बतियाने या खाने-पीने नहीं आते। उसका राग-पत्थरी सुनने आते हैं, जिसे वह पिछले दस-ग्यारह साल से अनवरत गाए जा रहा है।<br /> उसे बच्चों के जन्मदिन की तारीखें, शादी की वर्षगांठ की तारीखें भले ही याद न रहती हों, पिछले दस सालों से किस-किस डॉक्टर ने किस-किस तारीख को उसका इलाज किया है, उसे उंगलियों पर याद हैं। मज़े की बात तो यह है कि लोगों का किडनी स्टोन एकाध ऑपरेशन से या यूं ही पेशाब के साथ निकल जाता है, लेकिन रंजीत का स्टोन पता नहीं किस पेड़ पर लगता है, जब देखो, अपनी मौजूदगी को अहसास कराता रहता है। जब देखो, उसे शूल उठते ही रहते हैं। कोई बड़ी बात नहीं, स्टोन की उसकी बीमारी तो कब की ठीक हो चुकी हो। बस, उसे ही नहीं पता।<br /> उसने बच्चों को कभी पास बिठाकर बेशक कभी होमवर्क न करवाया हो, किडनी स्टोन पर छपने वाला हर आर्टिकल ज़रूर पढ़ा होगा। कई बार वह बिल्कुल ठीक होता है। एक-एक, दो-दो साल, लेकिन कतई जाहिर नहीं करता वह। उसे एक कवच की तरह ओढ़े रहता है, सामने नहीं आता, सहज होकर।<br /> कितनी बड़ी यंत्रणा है, शिरीष, हम पति-पत्नी और हमारे चार बच्चे कभी भी एक साथ बैठकर ठहाके नहीं लगाते। कहीं घूमने-फिरने नहीं जाते। काफी अरसा लग गया था मुझे बच्चों को यह विश्वास दिलाने में कि अब मैं ही उनकी मां हूं। अब तो स्थिति यह हो गई है कि मैं सगी मां तो कब की बन चुकी हूं लेकिन रंजीत ही सगे पिता नहीं रह गए हैं। पता नहीं इस घर में पेइंग गेस्ट रंजीत हैं, या हम बाकी लोग।<br /> तुम हैरान-परेशान हो रहे होंगे, शिरीष कि मैंने तुम्हें यह सब क्यों लिखा। मुझे तुम्हारी सहानुभूति नहीं चाहिए। वह तो इस ज़िंदगी में इतनी मिल चुकी है, अब और नहीं सही जाएगी। दरअसल किसी ऐसे आदमी से कुछ कहने के लिए मैं कब से तड़प रही थी जो मुझे सिर्फ सुने, कोई प्रश्न न करे। मुझे कोई भी तो ऐसा नहीं मिला, जिससे मैं अपनी बात कह पाती, अपने मन का कुछ बोझ हल्का कर पाती, और पूछ पाती, ''यह सब मुझे ही क्यों मिला! क्या मुझे अपने तरीके से अपनी ज़िन्दगी का यह स्वरूप सौंप दिया गया था, क्या उसे संवारने-सजाने में रंजीत की कोई भूमिका नहीं थी, हमारी शादी की यह शर्त तो कतई नहीं थी कि वह सब कुछ मुझे सौंप कर, एक आया, नर्स, नौकरानी या हाउस-सर्वेन्ट बनाकर अपने ही बच्चों से दूर जाकर खड़े हो जायेंगे। मैं पूछना चाहती थी शिरीष, मैंने इस घर के लिए इतना सब कुछ किया, नहीं, उसे त्याग का नाम नहीं दूंगी, उसके बदले में मुझे अपने ही पति से इतना क्रूर ठण्डापन क्यों मिल रहा है? आज उनका परिवार एक ठोस आधार पर खड़ा है। शेखर आर्मी में कैप्टन है, प्रियंका डॉक्टरी कर रही है, शांतनु और परेश अच्छे अंक ला रहे हैं और मैं एम.ए., बी.एड. होने के बावजूद नौकरी नहीं कर रही क्योंकि मैं अभी भी मानती हूं, रंजीत, बच्चों और इस घर को मेरा पूरा समय मिलना ही चाहिए। मैं आज की नहीं सोचती, आने वाले समय की सोचकर मेरे माथे की नसें तड़कने लगती हैं। पांच-छ: साल बाद रंजीत रिटायर हो जायेंगे। तब तक बाकी बच्चे भी अपने कैरियर में लग ही चुके होंगे। तब चालीस-इकतालीस साल की उम्र से शुरू होने वाला हम दोनों के बीच का ठंडापन मुझे कब तक भोगना होगा, यह सोच-सोचकर मरी जाती हूं। <br />ऐसा नहीं है कि मैंने रंजीत को इस अंधे कुएंं से निकलने की कोशिश न की हो। प्यार, मनुहार, रूठना, गुस्सा होना, उन पर कोई असर नहीं करते। वह अभी भी बेडरूम में लेटे लिथोट्रिप्सी पर कोई लेख पढ़ रहे हैं। मुझे पता है वह सचमुच बीमार हैं तो लिथोट्रिप्सी ट्रीटमेंट से एकदम ठीक हो जायेंगे। लेकिन वह ठीक ही कहां होना चाहते हैं। दरअसल, उन्हें कोई रोग है ही नहीं। उन्हें रोग होने का वहम भर है। और वहमों के इलाज नहीं हुआ करते। वे हाइपोकौन्ड्रियाक हैं।<br /> ये सारी बातें थीं, किसी से कहना चाहती थी। आज तुम्हारी कहानी देखकर, लगा तुम्हीं सही व्यक्ति हो, जिससे मैं अपने मन की बात कह सकती हूं। हम दोनों एक-दूसरे को जानते-समझते थे। अपने प्रति तुम्हारी भावनाओं को मैं समझती थी, तुम मुझे अच्छे लगते थे और, मुझे पता है तुम्हारी उन दिनों की सारी कहानियों, कविताओं की नायिका मैं ही हुआ करती थी। शायद आगे चलकर हमारे सम्बन्ध और प्रगाढ़ होते, लेकिन ये सब तो तब होता जब होता, हुआ तो वही जो आज मेरे सामने है। तुम यह भी सोच सकते हो, ये बातें मैं तुम्हें पहले भी तो लिख सकती थीं, तुम्हारी कहानियां उपन्यास पहले भी खूब छपे ही हैं, पर हर बार मैं खुद को एक मौका और देती थी। शायद कहीं कुछ हो जाए। स्थितियां बदल जायें। लेकिन शायद बदलाव शब्द मेरे हिस्से में नहीं लिखा है।<br /> मैं अपना पता जानबूझ कर नहीं लिख रही हूं। नहीं चाहती तुम मुझे ढूंढ़ते हुए आओ और अब जब सब कुछ खत्म होने को है, तुम आकर मेरी और अपनी परेशानियां बढ़ाओ। तुम्हारे लेखन के बारे में तो खूब जानती हूं, कामना करती हूं और ऊपर उठो, तुम्हारे परिवार के बारे में जानना चाहती थी, पर उसके लिए पता लिखना पड़ेगा। तुम मुझे पत्र लिखो, यह मैं नही चाहती। <br />एक बात और, यह सब पढ़कर मेरे लिए अफसोस मत जाहिर करना, न ही यह सोचना कि तुम मेरे लिए कुछ नहीं कर पाए। उसकी ज़रूरत नहीं। हां, कहीं भूल से अगर मुलाकात हो जाए, तो यही जतलाना, तुम मझे नहीं जानते, न ही तुम्हें यह सब पता है।<br /> फिर से वचन दो, इसे कहीं छपवाओगे नहीं।<br /> बस, खत्म करती हूं।<br /> श्री...<br />•सूरज प्रकाश का रचना संसारhttp://www.blogger.com/profile/03298796278677102563noreply@blogger.com0