Monday, July 28, 2008

18वीं कहानी - दिव्या, तुम कहाँ हो?

सपना देख रहा हूं क्या? या सब कुछ मेरे सामने घट रहा है। मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। न मैं पूरी तरह होश में हूं न बेहोशी में। मैं जागने और नींद के बीच इधर से उधर झूल रहा हूं। हिचकोले खा रहा हूं। सरकस के एक्रोबैट्स की तरह। ऊपर से हवा में लटके एक तरफ के डण्डे से झूलते हुए दूसरी तरफ के डण्डे को थाम लेना। इधर होता हूं तो सब कुछ साफ होता है। रोशनी, कमरा... बिस्तर पर लेटा हुआ मैं, लेकिन उधर की तरफ का डण्डा थामते ही जैसे नींद की गहरी अंधेरी सुंग में उतर जाता हूं। सब कुछ गायब हो जाता है। एकदम अंधेरा। सन्नाटा। कई बार खुद को बीच अधर में पाता हूं। कुछ भी थामे बिना। रोशनी और अंधेरे की झिलमिल में वहां से तेजी से गिरने को होता हूं कि एकदम आंख खुल जाती है। थोड़ी देर बाद फिर वही कलाबाजियां। पता नहीं कितनी देर से चल रहा है यह सब। नींद की लहरों पर डूबना-उतराना।
तेज प्यास लगी है। आसपास देखता हूं। कोई भी नहीं है। किसी को पुकारना चाहता हूं। आवाज ही नहीं निकलती। कौन-सी जगह है यह? यह मेरा कमरा तो नहीं? हवा में दवाओं की गंध है। यानी अस्पताल में हूं। यहां कैसे आ गया मैं? क्या हुआ है मुझे? याद करने के लिए दिमाग पर ज़ोर डालता हूं। दर्द की एक तेज लहर से माथे की नसें तड़कने लगती हैं। याद आता है - आधी रात को सिर दर्द उठा था। भयंकर। जैसे पूरा कपाल भीतर तक खदबदा रहा हो। उलटी-सी भी आने को हो रही थी। पेनकिलर, बाम, नींद की गोलियां, सभी तो आजमाये थे। पता नहीं कितनी देर छटपटाता रहा था। दर्द की सुइयां और बारीक होती चली गयी थीं। अजीब तरीके से दिमाग चुनचुना रहा था। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। याद नहीं आ रहा, फिर क्या हुआ होगा? हो सकता है उठकर किसी पड़ोसी की जगाया हो, वही मुझे यहां छोड़ गया हो। अकेले तो नहीं आया होऊंगा। क्या कहा होगा डॉक्टर ने? इलाज शुरू हो गया क्या? कोई सीरियस बात होगी तभी तो अस्पताल में हूं। सिर अभी भी भारी लग रहा है। ऊपर से यह नींद आने उचटने की हालत।
उठकर बैठने की कोशिश करता हूं। दर्द की एक धारदार छुरी पूरे कपाल को चीरती चली जाती है। फिर लेट जाता हूँ। साइड टेबल की तरफ निगाह जाती है। ढेर सारी दवाएं। मेडिकल रिपोर्ट। तो इसका मतलब... इलाज शुरू हो चुका है। टेस्ट भी हो चुके। कब से हूं यहाँ? दर्द तो... याद नहीं आता... कब उठा था...। आज कितनी तारीख है? कैलेण्डर तो सामने लगा है। सितम्बर 1992। लेकिन इसमें दिखाई दे रही तीस तारीखों में से आज कौन-सी है? उस दिन कौन-सी तारीख थी... नहीं याद आता। आंखें बंद कर लेता हूं। क्या हुआ है मुझे? कहीं... कोई... खतरनाक...बी... मा... री...। मेडिकल रिपोर्ट तो यहीं रखी है। देखूँ, क्या कहती है। फाइल उठाता हूं। कई रिपोर्टें हैं इसमें तो। इसका मतलब कई टेस्ट हुए हैं। हर रिपोर्ट के नीचे लाल स्याही में टाइप की हुई इबारतें पढ़ने की कोशिश करता हूं।
ओह गॉड! यह... क्या... हो... गया...। फाइल मेरे हाथ से छूट कर नीचे गिर गयी है। निढाल-सा पड़ गया हूं। सांस सकदम तेज हो गयी है। जैसे मीलों दौड़कर आया हूं। गले में कांटे उग आये हैं। पानी रखा है, पर उठकर पीने को हिम्मत नहीं है। पथराई आंखों से खिड़की के बाहर का अंधेरा देखता हूं। यह अंधेरा धीरे-धीरे कमरे के भीतर आ रहा है। मेरे चारों तरफ इस अंधेरे ने एक घेरा बना लिया है। अब यह मेरे भीतर उतरेगा और फिर... सब कुछ... खत्म...।
मैं... मुझे... मुझे... ब्रेन ट्यूमर हो गया है। कैंसर के जीवाणु लिये। कोई इलाज नहीं। निश्चित मौत। छ: महीने से दो साल के बीच। कभी भी। जब आखिरी बाद दर्द उठेगा तो चौबीस घंटे की मोहलत भी नहीं मिलेगी। उससे पहले कष्टदायक बीमारी झेलते हुए जीना। खर्चीला इलाज... ऑपरेशन... तकलीफ... तकलीफ... तकलीफ... इलाज से मौत थोड़ा पीछे खिसक सकती है। टलेगी नहीं। आंखों के आगे अंधेरा छा रहा है... अरे कोई है... मुझे बचाओ... किसी को बुलाने के लिए आवाज देना चाहता हूं। आवाज ही नहीं गले में... पानी... पा... नी... कोई है... पानी।
तो... ? खत्म हो गया मैं। सिर्फ़ चौंतीस साल की उम्र... आधी... अधूरी ज़िंदगी... सब कुछ यहीं छूट जायेगा। पैक अप कर लूं? खाली हाथ जाने के लिए पैक अप! यह घर-बार... दिव्या, मां-पिताजी, भाई-बहन, ऑफिस, सुख-दुख, दोस्त, खुशियां सब यहीं... रह जायेंगे... । सब कुछ चलता रहेगा। मैं ही नहीं रहूंगा। कहीं मज़ाक तो नहीं है? डॉक्टरों ने मुझे डराने के लिए, मुझसे पैसा ऐंठने के लिए यह सब लिख दिया हो। आजकल खूब चल रहा है इस लाइन में। कब हुए थे सब टेस्ट? मुझे होश में क्यों नही लाया गया? मुझसे पूछा क्यों नहीं गया?
दिमाग सुन्न हो रहा है। एकदम अंधेरा। बाहर-भीतर, दोनों जगह। मुझे मरना होगा... उससे पहले तिल-तिल कर जीना। हर सांस अनिश्चित। मेरी रुलाई फूट पड़ी है। मैंने क्या कसूर किया था, अधबीच ऊपर बुला लिया जाऊंगा। वह भी इतनी घातक बीमारी से? दिव्या, तुम कहां हो? देखो मैं कितना लाचार पड़ा हूं यहां। अपनी मौत का परवाना लिये! अपना ख्याल रखना दिव्या! ओ मेरी मां, मुझे बचाओ। मैं इतनी जल्दी मरना नहीं चाहता। बहुत डर लग रहा है मां, मैं क्या करूं।
एक चीख निकलती है, लेकिन उसकी आवाज भीतर ही भीतर घुटी रह गई है। किसी तरह उठ कर पानी पीता हूं। थकान होने लगी है। फिर लेटता हूं। कौन है यहाँ? यह कैसा अस्पताल है? कोई पूछने क्यों नहीं आता? इतने सीरियस मरीज को भी ये लोग अकेला छोड़ देते हैं। मुझे अभी कुछ हो जाये तो? सिर में अभी भी करेंट उठ रहे हैं। कया करूं? पता तो चले कौन लाया मुझे? डॉक्टर कया कहते हैं? दवाएं? इलाज? क्या यहां इलाज हो पायेगा? या मुम्बई जाना होगा? वहां बेहतर सुविधाएं हैं? मौत को पीछे सरकाने की। अमेरिका में और बेहतर हैं। लेकिन पैसे?
पता नहीं ऑफिस वालों को खबर है या नहीं? अस्पताल का खर्च कौन देगा? दवाएं, ऑपरेशन? कहां से करूंगा इतना इंतज़ाम? पता नहीं कितनी तारीख है? घर पर तो दो-चार सौ भी नहीं होंगे। बैंक में जितने पैसे थे, दिव्या पहले ही ले जा चुकी है। कोई एडवांस बाकी नहीं है। कौन करेगा देखभाल मेरी। उधर दिव्या एक नये प्राणी के स्वागत में व्यस्त है और इधर मैं अपनी बची-खुची ज़िंदगी का लेखा-जोखा तैयार कर रहा हूं। वह तो पता चलते ही रो-रो कर जान दे देगी। मेरे बच्चे का आना और मेरा जाना। कैसा अभागा जन्मेगा! कहीं मैं ही तो अपने बच्चे का रूप धर कर नहीं लौट रहा! सोच... सोचकर कलेजा मुंह को आ रहा है।
कभी सोचा भी नहीं था, अपनी मौत को खबर बरस-दो बरस पहले मिल जायेगी मुझे। और फिर मरने के पल तक लगातार इस अहसास को जीते रहना - कोई भी पल मेरे लिए आखिरी हो सकता है। वैसे तो मौत किसी को भी कभी भी आ सकती है, रोज सैकड़ों-हजारों दुर्घटनाओं में, भूकंप से, दंगों, लड़ाइयों में मरते ही हैं, लेकिन वह मौत तो एकदम अचानक होती है। पल भर पहले भी पता नहीं होता, पिछली सांस, पिछला बोला गया संवाद, मिलाया गया हाथ, लिया गया चुम्बन आखिरी था। अगली सांस गायब। बल्ब फ्जूज हो जाने की तरह। एकदम अंधेरा। मेरे साथ भी वही होता। मरने से पहले की यह पीड़ा, ये चिंताएं तो न होतीं। एकदम मुक्त हो जाता। जो जहां है, जैसा है, वैसा ही छोड़कर। लेकिन मुझे तो खराब चोक वाली ट्यूब लाइट की तरह न जाने कब तक भक...भक... जलना-बुझना है। सबकी आंखों में चुभते हुए। मरना सिर्फ मुझे होगा, लेकिन झेलना सबको पड़ेगा।
आंखें बंद करता हूं। अपनी मौत को हर वक्त पास आते महसूस कर रहा हूं। क़ॉरीडोर में उसके कदमों की आहट आ रही है। दरवाजे पर आकर ठिठक गयी है। नॉक किया है उसने। मैं दम साधे पड़ा हूं। उसकी आवाज न सुनने का नाटक करता हूं। मौत मुस्कुराती है-घबरा रहे हो? पहले से पता हो तो सबके साथ ऐसा ही होता है। चलो। थोड़ा और जी लो। लेकिन ज्यादा नहीं। मैं यहीं बाहर इंतज़ार कर रही हूं।
देख रहा हूं - सब लगे हैं मेरी सेवा में। खुद को और मुझे झूठी तसल्ली देते हुए। मेरे सामने कोई नहीं रोता। सब आंसू पोंछकर आते हैं। जबरदस्ती रुलाई रोके हुए। लेकिन मेरे सामने से जाते ही इतनी देर से रोकी गयी रुलाई और नहीं रोक पाते। संवाद खत्म हो गये हैं। हर आदमी सूनी-सूनी आंखों से मेरी तरफ बैठा देखता रहता है। फिर हाथ दबाकर, सिर पर हाथ फेर कर चला जाता है। हिन्दी फिल्मों के नायक की तरह `सब ठीक हो जाएगा' का मंत्र दोहराता हुआ। सब परिचितों की दिनचर्या में एक और काम जुड़ जायेगा। मुझे देखने आना। मुझे और मेरे परिवार को लगातार याद दिलाया जायेगा कि मैं बस चंद दिनों का मेहमान हूं। यह अवधि जितनी कम होती चली जायेगी, सबकी चिंता का ग्राफ ऊपर उठता रहेगा। इतना ऊपर कि एक दिन मैं ही उस ग्राफ की सीमा से बाहर निकल जाऊंगा।
मेरी सांस फिर फूल गयी है। क्या है यह सब? कोई है क्यों नहीं मेरे पास? किसे बुलाऊं? किसका हाथ थामूं? दिव्या? कब आओगी दिव्या? लेकिन वह तो मायके में है? नन्हें-नन्हें स्वेटर, मोजे बुन रही होगी! खूबसूरत सपनों में जी रही होगी। और मैं?
लेकिन मुझे इतना घबराना नहीं चाहिए। हो सकता है, इनीशियल स्टेज ही हो। या डॉक्टरों की गलती भी तो हो सकती है। फिर से टेस्ट कराये जा सकते हैं। इतनी जल्दी तो नहीं मरा जा रहा। अस्पताल में तो हूं ही। देखभाल हो ही रही होगी। घबराने से क्या होगा? आखिर ऊपर वाले से छीना-झपटी तो नहीं की जा सकती। हिस्से में होगा तो बेहतर इलाज से ठीक भी तो हो सकता हूं। मुझे हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। ठण्डे दिमाग से सोचना चाहिए। अभी तो मेरे पास वक्त है। इसे जीना चाहिए।
कौन था वह? हां, आनन्द फिल्म का नायक। राजेश खन्ना। उसे भी तो कोई ऐसा ही रोग था। कितना हंसता-हंसाता था। लेकिन वह तो एक्टिंग कर रहा था। जब मरने का वक्त आया तो कितना चिल्लाता था, `बचा लो मुझे। मैं मरना नहीं चाहता। ज़िंदगी के नाटक का अंतिम सीन करते-करते कितना रोता था। लेकिन वह भी तो एक्टिंग ही थी। यहां तो सचमुच का रोल है। जीवन्त मंच। जीवंत अभिनय। मैं अकेला पात्र, कोई संवाद नहीं। बस दम साधे पड़े रहो। एक पूरा नाटक समाप्त। इस अभिनय के लिए तालियां, आंसू, शाबाशी, रोना-धोना कुछ नहीं पहुंचेगा मुझ तक।
फीकी हंसी आती है। राजेश खन्ना को अगर सचमुच ब्रेन ट्यूमर हो जाये तो कर पायेगा आनन्द फिल्म की तरह हंसना-हंसाना। कहीं रोता-छटपटाता पड़ा रहेगा। कर पाऊंगा मैं भी उसी की तरह मौत का सामना! या बाकी सारा समय रोते-कलपते बीतेगा? अपनी ज़िंदगी का नायक बनकर जीना। जीना-मरना ऊपर वाले के हाथ... हम तो सिर्फ कठपुतलियां...।
खुद पर काबू पाने की कोशिश करता हूं। अभी तो नहीं मर रहा हूं। जब तक वक्त है मेरे पास, हाथ-पांव और दिमाग चलते हैं, चीजें व्यवस्थित कर लूं। अपनी अधूरी हसरतें पूरी कर लूं। जितना है जी लूं। यह सोचकर तनाव थोड़ा कम हो गया है। उठता हूं। पानी पीता हूं।
अभी भी याद नहीं आ रहा, यहां कैसे पहुंचा? कब आया अस्पताल! नर्स आयेगी तो पूछूंगा। सारे टेस्ट हो गये हैं या नहीं! मुझे पता क्यों नहीं चला। आंखें बंद कर लेता हूं। अब क्या फर्क पड़ता है। अस्पताल तो पहुंच ही गया हूं। सुबह कोई तो आयेगा। ऑफिस या कॉलोनी से। हो सकता है, किसी ने पता ढूंढ़कर दिव्या या पिताजी को भी खबर भेज दी हो।
किसी को तो बुलवाना ही होगा। डॉक्टर भी अकेले रहने की सलाह नहीं देंगे। दिव्या तो डिलीवरी के बाद ही आयेगी। उसका अभी आना ठीक नहीं होगा। उसे खुद देखभाल की ज़रूरत है। लेकिन एक बार पता चल जाये तो रुक पायेगी क्या... रो...रोकर बुरा हाल कर लेगी। कौन करेगा उसकी देखभाल यहां?
मेरी तो पुकार हो गयी। वह कैसे निभायेगी? छोटा बच्चा? अकेली कहां रहेगी? फ्लैट भी तो छोड़ना पड़ेगा। अपना मकान अभी अधूरा खड़ा है। पता नहीं कब पैसे होंगे और कब पूरा होगा। कब तक भागदौड़ करेगी बेचारी। कैसे कर पायेगी। किस-किस के आगे हाथ जोड़े जायेंगे? वैसे भी खुद्दार है, आसानी से उसके हाथ नहीं जुड़ते।
इलाज...ऑपरेशन... कहां से आयेगा खर्च। कहां कहां भटकना होगा दिमाग का यह रोग लिये? रोज़-रोज़ नयी दवाएं, टेस्ट... मोटे-मोटे मेडिकल बिल... लम्बी मेडिकल लीव... फिर हाफ पे... फिर विदआउट पे और आखिर में... एक्सपायर्ड... इस घर, परिवार, ऑफिस से, इस दुनिया से एक और आदमी चला जायेगा। बिना कुछ हासिल किये। कुछ दिन अल्बम में, लोगों की याद में बना रहूंगा। फिर धीरे-धीरे पूरी तरह भुला दिया जाऊंगा। कहां याद करते हैं हम अपने पूर्वजों को। अपने गुजरे साथियों को। एक आदमी से एक याद और उस याद के भी धुंधला जाने के दौर से मुझे भी गुजरना होगा। मेरा सब कुछ मेरे साथ खत्म हो जायेगा।
लेकिन इस तरह खत्म होने से पहले की ज़िंदगी मैं कैसे गुज़ारूंगा? अकेले तो कत्तई नहीं रह पाऊंगा। किसी को तो घर से बुलाना पड़ेगा। दौड़-धूप... डॉक्टरों, अस्पतालों के चक्कर। हो सकता है, डॉक्टर बंबई जाने के लिए कहें। किसे बुलाऊं। सुनील भाई साहब, परेश भाई साहब या फिर छोटा सुदीप। लेकिन जो भी आयेगा, काम-धंधा छोड़कर आयेगा। काम का हर्जा होगा। पता नहीं कितने दिन रहना पड़े। और फिर सभी को तो पचीसों तकलीफें हैं। सुनील भाई साहब खुद ढीले रहते हैं। आये दिन चारपाई पकड़े रहते हैं। परेश जी तो पैसों की तंगी की वजह से छुट़टी तक नहीं ले पाते। प्राइवेट नौकरी। जो भी आयेगा, मेरी इस महंगी बीमारी में न चाहते हुए भी उस पर बोझ पड़ेगा। न भी खर्च करने दूं मैं, बीसियों बार डॉक्टरों, कैमिस्टों के चक्कर लगेंगे। पता नहीं कितने दिन अस्पताल में रहना पड़े।
पिताजी को बुलवाऊं। लेकिन कहां कर पायेंगे इतनी भागदौड़। बेशक पता चलते ही तुंत चल पड़ेंगे। इस उम्र में भी सबसे ज्यादा मददगार और सहारा देने वाले साबित होंगे। सब कुछ छोड़कर आ जायेंगे। मां की भी परवाह नहीं करेंगे, जो अभी भी पूरी तरह ठीक नहीं हुई है। उसे तो हर वक्त किसी के सहारे की ज़रूरत होती है। मां को किसके भरोसे छोड़ेंगे। पिताजी को बुलवाऊं भी किस मुंह से। कई-कई महीने बीत जाते हैं उन्हें मनीऑर्डर भेजे हुए। हर बार उन्हीं का मनीऑर्डर टल जाता है। उनकी मामूली-सी पेंशन। मां का इलाज। बीसियों दूसरे खर्चे। पूरी रिश्तेदारी। पैंसठ साल की उम्र में भी वे अपनी बूढ़ी हड्डियों को आराम नहीं देना चाहते। कहीं न कहीं खटते रहते हैं। न किसी से कुछ मांगते हैं, न हममें से कोई आगे बढ़कर उनकी बूढ़ी हथेली पर कुछ रखने की सोचता है। हर बार यही होता है। हम सब भाई यही मान लेते हैं, इस बार दूसरे ने भेज दिया होगा। सामने कोई नहीं आता।
आये भी कैसे? सबके पीछे बीवियां हैं, जो दरवाजे की ओट में खड़ी देखती रहती हैं। कहीं उनका पति आगे बढ़कर कोई फालतू जिम्मेवारी तो नहीं उठा रहा। ताने मारती रहती हैं। उनकी तेज आंखें पति की पीठ पर चिपकी उन्हें कोंचती रहती हैं। बहुत कर लिया है इस घर के लिए। सारी उम्र का ठेका थोड़े ले रखा है।
अगर पिताजी आते भी हैं तो भी मां की ही पोटलियां खुलवायेंगे। गनीमत होगी उनमें भी अगर किराये भर के पैसे निकल आयें। वैसे भी मेरी बीमारी का सुनकर एकदम टूट जायेंगे। उन्हें ही कुछ हो गया तो...? मां के एक्सीडेंट के समय इस बुढ़ाने में भी ज़ार-ज़ार रोते थे। इस उम्र में अकेले रह जाने का डर उनकी जान खाये जा रहा था। उन्हें पता था, हम सब बच्चों के होते हुए भी वे एकदम अकेले और अलग-थलग पड़ जायेंगे। नहीं, उन्हें तकलीफ होगी यहां आकर। फिर मां भी तो है। उनकी कौन करेगा?
मैं भी कैसा पागल हूं। लगता है दिमागी फोड़े ने अपना असर दिखाना खुरू कर दिया है। यह कैसे हो सकता है कि मैं किसी एक को बुलवाऊं और उसे जब यहां आकर असलियत का पता चले और वह औरों को न बताये। दो-तीन दिन में ही पूरा कुनबा यहां आ पहुंचेगा। कैसे भी करके। आयेंगे सब। बिना बुलाये ही। बस पता लगने भर की देर होगी। मुझे एक दिन भी यहां अकेले नहीं रहने दिया जायेगा। कहीं भी शिफ्ट कर दिया जायेगा। हर तरह का संभव, असंभव इलाज आजमाया जायेगा।
मां के एक्सीडेंट के समय देख चुका हूं। पता लगते ही पास-दूर के सब रिश्तेदार आ जुटे थे। हर आदमी अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराना चाहता था। हर तरह की मदद के लिए तैयार था। मां को चौथे दिन होश आया था, वह याददाश्त खो बैठी थी। फिर भी सबकी चाह रहती, मां उन्हें कम-से-कम एक बार तो पहचान ले। मां कोशिश करती। कुछ बुदबुदाती। दिमाग पर ज़ोर पड़ता। वह दर्द से कराहती। लेकिन कोई भी मां की आंखों में पहचान दर्ज करवाये बिना जाना नहीं चाहता था।
तो... तो... इसका यही मतलब हुआ, किसी को भी बुलवाया जाये, आयेंगे सब। जो भी पहले आयेगा, पहला काम यही करेगा सबको फोन, तार, चिट्ठी से खबर करेगा। यहां अकेला हूं। अस्पताल में पड़ा हूं। दिव्या मायके में। सब आ गये तो कैसे होगा? कौन करेगा सबके लिए? दिव्या लौट भी आये तो मेरी देखभाल करेगी, खुद को संभालेगी या आया-गया देखेगी। मेरे बीमार होने से सब पेट पर पट़टी बांधकर नहीं आयेंगे। फिर इलाज? खर्च?
कहां से आयेगा यह रुपया। इलाज के लिए? घर खर्च के लिए। इधर-उधर से कर्ज उठाये जायेंगे। कौन लेगा? मेरे बाद चुकाना भी तो होगा। तय है जो लेगा उसी को चुकाना पड़ेगा। कौन आयेगा सामने। बात पांच-सात हजार की हो तो कोई सोचे भी। अंधे कुएं में पता नहीं कितना डालना पड़े। न वापसी की गारंटी, न मेरे ठीक होने की।
याद करने की कोशिश करता हूं, क्या लेना-देना है। कहां से लिया जा सकता है लोन? उस दिन इन्कम टैक्स के लिए हिसाब लगाया तो था। नकद बचत तो दिव्या ले गयी है। थोड़े-बहुत सेविंग सर्टिफिकेट्स हैं। दो पॉलिसियां। और कर्ज़-डेढ़ लाख हाउसिंग लोन के, सात हजार स्कूटर लोन के। चार हजार कन्ज्यूमर लोन के, सत्रह हजार क्रेडिट सोसाइटी के। क्रेडिट सोसाइटी से लोन रिन्यू करा के तीन हजार मिलेंगे और एमरजेंसी लोन पांच हजार। ये आठ हजार तो डॉक्टर चरणामृत के रूप में ही ले लेंगे। बाकी?
ख्याल आता है, अगर मुझे कुछ हो जाये तो? पैसों के अभाव में ढंग का इलाज न मिल पाने के कारण अगर मुझे कुछ हो जाता है तो? जीते जी मुझे कर्ज़ चुकाने हैं, इलाज के लिए पैसे नहीं हैं, लेकिन मरने के बाद सारे कर्ज़ चुकाकर भी कम से कम ढाई लाख रुपये दिव्या को मिलेंगे। साठ हजार फंड के। नब्बे हजार ग्रुप इंशोरेंस, पन्द्रह हजार स्पेशल ग्रेच्यूटी, साठ हजार ग्रेच्यूटी। सर्टिफिकेट्स वगैरह के। और छोटी-मोटी रकमें, दो लाख बीमे के। अजीब मज़ाक है। ज़िंदा हाथी खाक का, मरा सवा लाख का। इलाज के बिना मरूं और मरने पर पैसे ही पैसे। किसे? दिव्या को ही तो। वही तो नॉमिनी है।
कम से कम इस फ्रंट पर तो मुझे ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए। कभी न कभी मकान भी पूरा हो जायेगा। हो सकता है, मेरे सामने हो जाये। फिर मेरी जगह दिव्या को नौकरी भी तो मिलेगी। ग्रेजुएट है। क्लर्की ही सही। आगे तरक्की कर सकती है। पर ये सारे पैसे दिव्या को मिलें, नौकरी भी उसे मिले, मकान भी उसी के नाम रहे और मां-पिताजी उन्हीं ग्यारह सौ की पेंशन में गुजारा करते रहें? अब तो फिर भी कुछ न कुछ देता हूं, बाद में तो वह भी बंद हो जायेगा। उन्हें इन पैसों में से कुछ नहीं मिलेगा, क्या किसी एकाध जगह नॉमिनी बदला नहीं जा सकता। पूछना पड़ेगा। अगर दिव्या नौकरी करेगी तो उसे यहीं रहना होगा और मां-पिताजी अपना घर छोड़कर यहां आयेंगे नहीं?
फिर ख्याल आता है, क्यों सोच रहा हूं मैं यह सब? अभी तो पता नहीं, इलाज शुरू भी हुआ है या नहीं। अभी तो नहीं मर रहा। क्या पता एकदम ठीक हो जाऊं। इन रिपोर्टों में भी जिस शब्दावली में मेरा रोग और निदान लिखा है, मुझे समझ कहां आयी है। मुझे सोच-सोचकर अपना खून नहीं जलाना चाहिए।
आंखें बंद करता हूं, फिर वही ख्याल... अपने-पराये... मरना... दिमाग में टूटे-फूटे वाक्य बन-बिगड़ रहे हैं। मानस पटल पर सबके चेहरे आ-जा रहे हैं। मां... दिव्या... पिताजी... अपने होने वाले बच्चे का चेहरा... कैसा होगा... यार-दोस्त...। सिर झटकता हूं। उठकर पानी पीता हूं। यह क्या हो रहा है मुझे... मैं... मैं... मुझे आराम क्यों नहीं मिल रहा... कोई है... मुझसे बात करो... मेरी सारी बातें नोट करे कोई... मैं... अकेला नहीं रह सकता... मुझे कोई... बोलने वाला... सुनने वाला चाहिए... अरे... कोई है...? कहां है... नर्स... कितने बजे हैं... कौन-सी तारीख है... महीना... साल... डॉक्टर कब आयेगा मां... मां... मैं यहां हूं मां... मुझे कुछ दिखायी क्यों नहीं दे रहा... किसकी चिट्ठी है... कौन आया है... कौन-कौन आ रहा है... जो भी आये... जल्दी आये... तुंत... मैं सबसे मिलना चाहता हूं। गले मिलना... पिताजी आ रहे हैं... लेकिन मां उन्हें अकेले... नहीं आने देगी... वह भी आयेगी... लेकिन मां तो सब कुछ भूल जाती है... मुझे पहचानेगी क्या या गुमसुम बैठी रहेगी... दोनों आयेंगे। पेंशन के चैक के बदले किसी से उधार लेकर...। भाई आयेंगे... भाभियां आयेंगी... कुछ भी हो... मुझसे स्नेह रखती हैं... सब...। बहनें आयेंगी... सारी तकलीफों के बावजूद... कब से नहीं मिला हूं उनसे। दीपा... उसका पति अजय... उनकी नन्हीं-सी बच्ची... क्या नाम है... करिश्मा... और संध्या... उसका गोल-मटोल गोपू... लेकिन अब उसे उठाकर ऊपर... उछाल नहीं पाऊंगा... सब दोस्त आयेंगे... उमेश, देशी, गामा, फिर... मामा आयेगा... सबके सुख-दुख में सबसे पहले पहुंचता है... दिव्या तुम... तो यहीं हो न... मेरे सिरहाने... कहीं जाना नहीं दिव्या... नहीं मुझे दवा नहीं चाहिए... तुम यहीं मेरे पास बैठकर...स्वेटर और ख्वाब... बुनती रहो... अनन्त काल तक... मुझे... कुछ नहीं होगा... इस घड़ी में अभी... बहुत चाभी बाकी है... अभी तो मेरा बच्चा... उसका नामकरण... बर्थ डे पार्टी... तालियां...।
दिमाग को एक तेज झटका लगता है। मैं यह सब क्या देख रहा था? आस-पास देखता हूं। अभी भी रात है। नर्स अभी तक नहीं आयी। दवा...पानी... फाइल अभी भी फर्श पर गिरी पड़ी है... उठाऊं। उठने की कोशिश करता हूं। टाल जाता हूं। उसमें लिखा बदल थोड़े ही गया होगा।
लेकिन अगर मैं किसी को भी न बुलवाऊं तो...? अस्पताल में तो देखभाल हो ही जायेगी। यहां हमेशा तो नहीं रहना होगा... और फिर दर्द हर समय तो नहीं उठेगा? इलाज तो चलता रह सकता है। मैं सबको प्यार करता हूं। सबको इस तरह परेशान करने का मुझे क्या हक है। मेरी मरने के बाद सबके हिस्से में जो दु:ख लिखा है, वे उसे झेलेंगे ही। जीते-जी सबको क्यों रुलाऊं। जो भी आयेगा, काम-धंधा छोड़कर आयेगा। मेरी हालत देख-देखकर रोता रहेगा। जो नहीं आयेंगे, उनकी जान वहीं सूखी रहेगी। हर वक्त तार या फोन का खटका लगा रहेगा।
जो भी झेलना है, मुझे ही झेलना है। सबको अपने साथ क्यों मारूं। सबका मोह सिर्फ मेरे लिए ही तो नहीं। मैं भी तो सबको खुश देखना चाहता हूं। सबको क्यों परेशान करूं। सबसे मिलना है, तो फिर आखिरी बार मैं ही क्यों न जाऊं सबसे मिलने? सबके पास रहूं। तब किसी को पता भी नहीं चलेगा, यह हमारी आखिरी मुलाकात है। अभी तो मेरी मौत मुझे इतना समय देगी कि सबसे मिल-जुल लूं। कुछ जी लूं। मां-बाप के पास रह लूं। दिव्या को उसके कठिन वक्त में साथ दूं। अपने होने वाले बच्चे का इंतजार करूं। उसका स्वागत करूं। खिलाऊं। उसकी मुस्कान में खुद को देखूं।
ब्रेन ट्यूमर का क्या है। किसी को बताया न जाये तो उसे पता भी न चलेगा। कहीं ज्यादा तकलीफ हुई तो कह दूंगा - मामूली सिर दर्द है। ठीक हो जायेगा। दवाएं लेता रहूंगा। लेकिन महंगा इलाज, ऑपरेशन नहीं कराऊंगा। क्या होगा उससे? मौत सिर्फ सरकेगी। टलेगी नहीं। पैसे कहां हैं इलाज के लिए? अगर हो भी जायें तो उनसे दूसरे काम निपटाऊंगा।
सोचकर अच्छा लग रहा है। लेकिन कर पाऊंगा यह सब? आनन्द की तरह जीना? या जीने का नाटक करना... किसी को पता भी न चले... और जब पता चले तो बहुत देर हो चुके... इतनी देर कि इलाज... खर्च... रोना... धोना... और फुलस्टॉप... कुछ भी मायने न रखें।
दिमाग फिर थकने लगा है। दर्द की लहरें फिर माथे से टकरा रही हैं। आंखें बंद कर लेता हूं। धीरे... धीरे... नींद...।

Thursday, July 17, 2008

सत्रहवीं कहानी - डर

शारदा काम पर लौट आयी है। गोद में महीने भर का बच्चा लिये। दरवाजा मिसेज रस्तोगी ने खोला। उसे देखते ही खुश हो गयीं, ''बधाई हो शारदा। अच्छा हुआ तू आ गयी। तू जो ल़ड़की लगा गयी थी थी, वह तो एकदम चोट्टी थी। नागे भी कितने करती थी। देखूं तो सही, कैसा है तेरा बेटा?''
उन्होंने देखा, शारदा जचगी के बाद और निखर आयी है। वैसे देखने में एकदम बदसूरत और काली है, लेकिन उसकी चमकती आंखें, मेहनती, कसा हुआ शरीर और मस्त चाल देखने के बाद उसकी बदसूरती पर ध्यान नहीं जाता।
इससे पहले कि शारदा अंदर आकर कप़ड़े में लिपटे अपने बच्चे का मुंह मिसेज रस्तोगी को दिखाए, उन्होंने उसे टोका, ''ठहर जरा, खाली हाथ बच्चे का मुंह नहीं देखते। पहले कुछ शगुन ले आऊं।'' कहती हुई वे भीतर चली गयीं। ड्राइंग रूम में उनके लौटने तक शारदा ने बच्चे को कालीन पर लिटा दिया है और स्टीरियो पर फड़कते गानों का एक कैसेट चढ़ा दिया है। पूछ रही है-''साहब कैसे हैं, प्रिया मेम साब कैसी हैं, संदीप बाबू कैसे हैं, आपके घुटनों का दर्द कैसा है अब?'' बच्चे को गुदगुदाते हुए शारदा पिछले डेढ़-दो महीने का हिसाब-किताब ले-दे रही है।
ज्यों ही मिसेज रस्तोगी ने बच्चे का मुंह देखा, सकपका कर एकदम पीछे हट गयीं,''यह कैसे हो सकता है!'' सांस एकदम तेज हो गयी। माथे पर पसीना आ गया। उन्होंने शारदा की तरफ देखा, वह अपने बच्चे में मस्त है। सोफे का सहारा लेकर वे वहीं बैठ गयीं। मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। ''यह क्या हो गया! कैसे हो गया! शारदा का बच्चा और...'' उनके दिल को कुछ-कुछ होने लगा। ''भला इस बच्चे की शक्ल संदीप से कैसे मिल रही है? वही गोल चेहरा, नीली आंखें, चिबक पर काला मस्सा!'' शारदा तो एकदम काली-कलूटी है और उसके पहले दो बच्चे भी शक्ल में अपनी मां पर गए हैं। उसके मरद को भी देखा है उन्होंने, शारदा से उन्नीस-बीस ही है! तो... तो... फिर क्या यह बच्चा उनका अपना पोता है? शारदा से... इस काली-कलूटी नौकरानी से? शादीशुदा, दो बच्चों की मां से... जो घर-घर जूठे बर्तन मांजती फिरती है उससे... वे आगे सोच नहीं पायीं। एक बार फिर शारदा की तरफ देखा। उसका ध्यान अभी भी बच्चे की तरफ है। अपने राजा मुन्ना की बातें बताऐ जा रही है। वे वहां और बैठ नहीं पायीं। बच्चे के ऊपर शगुन के पैसे रखकर बधाई के शब्द बुदबुदा कर भीतर चली गयीं। यह क्या हो गया? संदीप तो... संदीप तो... उन्हें कैसे पता नहीं चला संदीप इस नौकरानी से... उन्हें कभी शक भी नहीं हुआ और मामला इतना आगे... उनका सिर घूमने लगा है।
शारदा घर भर में घूमती फिर रही है। कह रही है-''उस लड़की ने तो घर बहुत गंदा कर छोड़ा है। मैं चार दिन में ही इसे पहले जैसा चमका दूंगी।'' चाय बनायी है उसने। एक कप उनके आगे रख दिया है। वे तेज नज़रों से शारदा की तरफ देखती हैं। नये मातृत्व से उसका चेहरा दिपदिपा रहा है। पूछना चाहती हैं - शब्द होठों तक आकर साथ छोड़ देते हैं। शारदा लगातार बोले जा रही है, ''मेरा राजा मुन्ना तो लाखों में एक है। मैं इसे बहुत बड़ा आदमी बनाऊंगी। बिलकुल तंग नहीं करता। पहले वाले बच्चों ने कित्ता सताया था मुझे।'' मिसेज रस्तोगी को कुछ सुनाई नहीं दे रहा। शारदा के शब्द हथौड़े की ठक...ठक... की तरह बज रहे हैं दिमाग पर। पथराई आंखों से देख रही हैं वे। उन्होंने एकाध बार शारदा को हाथ के इशारे से चुप करना चाहा, लेकिन ऐसा भी नहीं कर पायीं।
शारदा रसोई में चाय के बर्तन धोने गयी तो वे चुपके से जाकर एक बार फिर बच्चे को देख आयीं ''शक की कोई गुंजाइश नहीं है। उसकी नीली आंखें और गोरा रंग सारा किस्सा बयान कर रहे हैं।'' वे एक पल उसे देखती रह गयीं। हाथ आगे भी बढ़े उसे गोद में उठाने के लिए - आखिर अपना खून है - लेकिन सकपका कर पीछे खींच लिये। तेजी से अपने कमरे में लौट आयीं। उन्हें हल्की सी झलक मिली - शारदा संदीप के कमरे में उसकी फोटो के आगे खड़ी है। तो क्या...शारदा कहीं इस बच्चे को लेकर इस घर में घुसने का ख्वाब तो नहीं देख रही? क्या कर डाला है संदीप तूने! कुछ तो आगा-पीछा सोचा होता! हाथ-पांव ढीले पड़ने लगे हैं उनके। वे इंतज़ार करने लगीं-शारदा जल्दी चली जाए। उनकी रुलाई रोके नहीं रुक रही।
चाय पीकर चली गयी है शारदा, ''काम करने कल से आऊंगी। अभी तो बाकी घरों में भी बताना है। सभी तो कंटाल गए हैं उस लड़की से।''
तो इसका यह मतलब हुआ, अभी घंटे भर में पूरी कॉलोनी को खबर हो जाएगी कि शारदा जिस तीसरे बच्चे को गोद में लिये घर-घर बधाइयां बटोरती फिर रही है, वह प्रोफेसर वीडी रस्तोगी के होनहार सपूत संदीप रस्तोगी का है। कॉलोनी के जिस घर में भी वह जाएगी, वहीं बच्चे के कुल-वंश का पन्ना खुलकर सबके सामने आ जाएगा। सभी उसकी जन्म-पत्री बांचने लगेंगी। क्या करें, प्रोफेसर साहब को फोन करें। लेकिन वे तो तीन बजे तक ही आ पाएंगे। प्रिया को फोन पर बताएं! वह बेचारी घबरा जाएगी सुनकर। क्या करें! वे बौराई-सी घर भर के चक्कर काटती फिर रही हैं। क्या कर डाला संदीप ने। कहीं का न छोड़ा। अब कॉलोनी में बात फैलने में घंटा भर भी न लगेगा। सब थू-थू करेंगे। रिश्तेदारी है। कैंपस है। प्रिया का ऑफिस है। बातें बिना परों के सब जगह पहुंच जाएंगी। नासपीटी को यही घर मिला था बरबाद करने के लिए ! मुझे क्या पता था, इतनी बड़ी आफत पाल रही हूं। हाय-हाय करतीं वे रोये जा रही हैं।

प्रोफेसर साहब के आते ही मिसेज रस्तोगी ने अपने सीने पर रखा पत्थर उठा कर उनके सीने पर रख दिया। सन्न रह गए वे। छी: इतनी घटिया पसंद संदीप की। ऐसी कौन-सी आग लगी हुई थी जवानी को। मुंह से बोलते तो सही जनाब। प्रिया के लिए रिश्ता ढूंढ़ने से पहले उसी के लिए लड़की देखते। जल्दी ही कुछ करना होगा। बात प्रिया की होने वाली ससुराल तक भी पहुंच सकती है। अभी तो बात भी पक्की नहीं हुई है। वे भी परेशानी की चादर ओढ़कर बैठ गए हैं। सोच रहे हैं-क्या करें। अगर यह सब सच है तो संदीप के कानपुर लौटने से पहले कुछ करना होगा। शारदा को ही यहां से हटाना होगा। उसका क्या है। कहीं भी झोपड़ी खड़ी कर लेगी। चार पैसे कमा लेगी। लेकिन यहां तो जो भी शारदा की गोद में इस बच्चे को देखेगा, हमारे खानदान पर हंसेगा। इतने बरसों में जो इज्ज़त बनायी है, उसकी गठरी उठाए - उठाए शारदा घर-घर घूमती फिरेगी। मुंह पर कोई कुछ नहीं कहेगा, लेकिन सब मज़े लेंगे। क्या करें!
पूछा उन्होंने, ''क्या कहती हो, कुछ पैसे-वैसे लेकर वह यहां से चली जाएगी क्या? क्या करता है उसका मरद?''
''करता क्या है। सारा दिन दारू पी के पड़ा रहता है। जब वह काम पर जाती है तो पीछे बच्चों को संभालता है। सुना है कहीं माली-वाली है। पता नहीं यहां से जाने के लिए तैयार होगी भी या नहीं।'' तभी मिसेज रस्तोगी ने पूछा,''क्या यह नहीं हो सकता, आजकल ही में उससे बच्चा लेकर दूर किसी अनाथालय में रखवा दिया जाए। पर उसके लिए भी पता नहीं मानती है या नहीं?''
''कैसा था उसका रुख?''
''बहुत इतरा रही थी। सबके हाल-चाल पूछ रही थी, जैसे सबकी सगी वही हो। भीतर संदीप के कमरे में उसकी फोटो के आगे खड़ी थी। सुनो जी, मुझे तो एक और भी डर लगा रहा है,'' उन्होंने शंका जताई,''उसके लक्षण तो ठीक नहीं लगते। कहीं घर की मालकिन बनने के ख्वाब न देख रही हो?''
''तुम इतनी दूर की मत सोचो। इतना आसान नहीं है घर में घुस जाना। क्या तुम्हें पूरा विश्वास है, बच्चे की शक्ल संदीप से मिलती है!'' उन्होंने फिर आश्वस्त होना चाहा।
''अब मैं आपको क्या बताऊं, कल खुद देख लेना अपनी आंखों से'' वे फिर बिसूरने लगीं, ''लेकिन जो भी करना है, जल्दी करो।''

तीनों रात भर सो नहीं पाए। मिसेज रस्तोगी को तो रात भर खटका लगता रहा। वह आ गई है, एक हाथ में बच्चा और दूसरे हाथ में कपड़ों की पोटली लिये। उसने जबरदस्ती संदीप के कमरे पर कब्जा कर लिया है। उन्हें घर से बाहर धकेल दिया है। प्रिया पर भी वह हुक्म चला रही है। खुद मालकिन बनकर वह घर भर को सता रही है। संदीप भी हाथ बांधे एक तरफ खड़ा है। रात भर उन्हें बुरे-बुरे ख्याल आते रहे। सभी कॉलोनी वाले बधाई देने आ रहे हैं। खूब हंस रहे हैं, मज़ाक कर रहे हैं। हिजड़ों की फौज आ गयी है दरवाजे पर नाचने के लिए। बख्शीश लिये बिना टल नहीं रही। वे रात भर उठती-बैठती रोती-कलपती रहीं।
उधर प्रोफेसर रस्तोगी रात भर करवटें बदलते रहे। ज़िंदगी में बहुत उतार-चढ़ाव देखे थे। लेकिन आज तक ऐसा नहीं हुआ था कि पूरे खानदान की इज्ज़त ही दांव पर लग गयी हो, और वे कुछ न कर पा रहे हों।
प्रिया तो सोच-सोचकर जैसे पागल हुई जा रही है। कैसे सामना करेगी सबकी निगाह का। बात ससुराल भी पहुंचेगी ही। ज़िंदगी भर के लिए उनके पीहर को नीचा दिखाने के लिए उन लोगों को एक बहाना मिल जाएगा। फिर ऑफिस है, लोग हैं। सभी कुरेदेंगे। जैसे-तैसे सुबह हुई। वह आयी। उसी आत्मविश्वास के साथ लापरवाही वाला अंदाज़ लिये। बच्चा गोद में। उसके आते ही सबका रक्त चाप बढ़ गया। सभी खुद को पूरी तरह व्यस्त दिखाने लगे। प्रिया एक किताब लेकर बैठ गयी। प्रोफेसर साहब कुछ फाइलें लेकर स्टडी में घुस गए। मिसेज रस्तोगी अपने जोड़ों के दर्द को लेकर हाय, हाय करती बेडरूम में जा लेटीं।
पहले तो उसके लिए दरवाजा खोलने के लिए भी कोई नहीं आया। दो-तीन बार उसने लगातार बेल बजायी तो प्रिया उठी। दोनों की आंखें मिलीं। शारदा मुस्कराईं-''कैसी हैं मेम साब!'' प्रिया बिना कुछ बोले एक तरफ हो गयी। कुछ कह ही न पायी। शारदा धड़धड़ाती हुई अंदर चली आयी। बच्चे को कालीन पर लिटाया। स्टीरियो चलाया। ए.सी. ऑन कर दिया। फिर चाय बनाने रसोई की तरफ बढ़ गयी। इतनी देर सबकी सांस थमी रही। किसी की हिम्मत न हुई, उसे रोके-टोके। जैसे सब उसी की गिरफ्त में हों। प्रिया उस पर सबसे ज्यादा चिल्लाया करती थी। कोई उसकी चीज़ों को, खास कर स्टीरियो को हाथ लगाए - वह कत्तई बरदाश्त नहीं कर सकती थी। आज प्रिया बेबस-सी देख रही है। और शारदा के पीछे-पीछे कामों में मीनमेख निकालती घूमने वाली श्रीमती रस्तोगी - वे भी बिलकुल शांत हैं। तीनों दम साधे व्यस्तता का नाटक कर रहे हैं। घर भर में स्टीरियो की आवाज गूंज रही है। किसी की हिम्मत नहीं हो रही, उसको बंद कर दे।
बड़ी तेजी से काम निपटाए जा रही है शारदा। बीच-बीच में आकर अपने राजा मुन्ने को भी देख लेती है। घर के कामों के साथ-साथ उसे दूध पिलाना, उसके पोतड़े बदलना सब कुछ चल रहा है। जब वह गुसलखाने में कपड़े धोने गयी तो मिसेज रस्तोगी लपककर उठीं और प्रिया और प्रोफेसर साहब को ड्राइंग रूम में ले आयीं।
''ओह! यह तो सचमुच संदीप पर गया है। बहुत प्यारा बच्चा है।'' प्रोफेसर साहब के हाथ भी उसे उठाने के लिए कसमसाने लगे। बड़ी मुश्किल से खुद को रोका उन्होंने। प्रिया की रुलाई फूट पड़ी। मिसेज रस्तोगी को चक्कर आ गया। वे वहीं लुढ़क गयीं। दोनों किसी तरह उन्हें उठा कर बेडरूम तक ले गए।
जब तक वह घर में रही, सिर्फ उसी की मौजूदगी महसूस की जाती रही। बाकी तीनों काठ बने रहे। एकदम चुप। गुमसुम। मातमी उदासी ओढ़े बैठे रहे। आज प्रिया ने भी महसूस किया, उसकी निगाहें बार-बार संदीप के कमरे की तरफ उठ रही हैं। उसने संदीप का कमरा खूब अच्छी तरह झाड़ा-पोंछा। सबसे ज्यादा वक्त उसने उसी कमरे में लगाया। प्रिया ने खुद को मन-ही-मन इसके लिए तैयार भी कर लिया कि अगर शारदा संदीप के बारे में कुछ पूछती है, तो वह उसे तुंत घेर लेगी। लेकिन शारदा ने ऐसी कोई उतावली नहीं दिखायी। ढाई-तीन घंटे तक इन तीनों को बंधक बनाए रखने के बाद वह छम... छम... करती चली गयी।
उसके जाते ही तीनों सिर जोड़कर बैठ गए हैं। पहली समस्या तो यही है कि उससे कुबूलवाया कैसे जाए। संदीप से तो बाद में भी निपट लेंगे। पहले इसका जल्दी कुछ किया जाए। अब तक तो पूरी कॉलोनी को खबर हो चुकी होगी। यह तो तय कर ही लिया गया है कि फिलहाल संदीप को कानपुर में ही कुछ दिन रहने के लिए फोन कर दिया जाए। संदीप का आना इसलिए भी ठीक नहीं है कि कहीं उसी ने शारदा का पक्ष ले लिया तो ग़ज़ब हो जाएगा। उसे फोन पर इस बारे में कुछ भी न बताया जाए।
अगर शारदा कबूल नहीं भी करती, तो भी पहले तो यही करना है, उसे कुछ दे-दिलाकर यहां से हमेशा से चले जाने के लिए कहा जाए - आज या कल में ही। नहीं आती तो उससे बच्चा लेकर किसी अनाथालय में देने की कोशिश की जाए। कोई तीसरी तरकीब वे नहीं सोच पाए। हां, अगर वह घर में घुसने की कोई कोशिश करती है, तब तो साफ जाहिर हो जाएगा कि उसकी पहले से ही यही नियत थी और इसलिए उसने संदीप को फंसाया। उस हालत में तो उससे निपटना आसान हो जाएगा। जनमत उन्हीं की तरफ होगा।
बात अटक गई है - फिलहाल कॉलोनी वालों की निगाह का सामना कैसे करें? बाहर आना-जाना कम ही किया जा सकता है, एकदम बंद तो नहीं। लोगों को कुछ बात रकने को मसाला चाहिए। चटकारे लेंगे। थू-थू करेंगे। अगर सब कुछ ऐसे ही चलने दिया गया तो बच्चा कल बड़ा होगा, इन्हीं गली-मोहल्लों में खेलेगा। किस-किस का मुंह बंद करते फिरेंगे?

शाम तक वे तीनों सिर्फ सोचते रहे, कुछ भी तय नहीं कर पाए। अब सीधे-सीधे तो शारदा से यह नहीं कहा जा सकता - देख, तूने हमारे संदीप के साथ रंग-रेलियां मनायीं। मौज की। किसने किसकों फंसाया, भूल जा। लेकिन तुम दोनों की बेवकूफियों का नतीजा अब सामने है। देखो, हम ठहरे इज्ज़तदार आदमी। बेशक यह हमारे बेटे से हुआ है लेकिन इस बच्चे की यहां मौजूदगी से हमारी इज्ज़त को बट्टा लग रहा है, इसलिए तू इसे अपने बसे-बसाए जीवन और रोजी-रोटी के आसरे को लेकर यहां से हमेशा के लिए दफा हो जा।
कौन कहता यह सब? उनकी तो शारदा के सामने आने की हिम्मत नहीं हुई, उसकी मस्ती और लापरवाही को भी वे झेल नहीं पा रहे।
शाम को वह फिर आयी। सबको फिर लकवा मार गया। दिन की सारी योजनाएंं धरी रह गईं। बच्चे को उसी तरह कालीन पर लिटाना, स्टीरियो चलाना, घर भर में गुनगुनाते घूमना, बच्चे की ढेरों बातें बताना, उसे दूध पिलाना, किसी न किसी बहाने संदीप के कमरे में जाना सब कुछ चलता रहा। एक नाटक की तरह वह अकेली अपना पार्ट अदा करती रही। बाकी तीनों मूक दर्शक बने रहे। न उसने संदीप के बारे में पूछा, न किसी को बात करने का मौका मिला।
एक बार फिर वह हाथ से निकल गयी। उसके जाते ही फिर तीनों के सिर जुड़ गए - आखिर चाहती क्या है? एक तरफ तो इस घर को अपना घर समझ कर घर भर की चीज़ें इस्तेमाल करने लगी है तो दूसरी तरफ किसी किस्म की कोई मांग नहीं। जिक्र नहीं। घर भर को एक जकड़न में बांध रखा है उसने। काम छुड़वाने के लिए भी कैसे कहा जाए। बात करने का कोई सिरा तो हाथ लगे। दोनों बार उससे किसी ने बात नहीं की, लेकिन उसे परवाह ही नहीं। वह अपने बच्चे में ही मस्त है।
कॉलोनी में सुगबुगाहट शुरू हो गयी है। दो-एक औरतें बहाने से घर भी आयीं। शारदा का जिक्र भी छेड़ा। उसके वापस आने से आराम हो गया है, लेकिन वही बात नहीं कही, जिसके लिए आयीं थीं। कुछेक औरतों ने सीधे ही शारदा को कुरेदने की कोशिश की, लेकिन उसने साफ इनक़ार कर दिया है। लोग हंसते हैं - उसके मना करने से क्या है, कोई भी बता सकता है-उसकी रगों में किसका खून दौड़ रहा है। वह किसी के भी मज़ाक का जवाब नहीं देती। टाल जाती है।
अब वह पहले की तरह गंदे कपड़ों में नहीं आती। बच्चे को एकदम साफ रखती है। अपनी हैसियत से महंगे कपड़े पहनाती है। उसके पहले दोनों बच्चे उसके साथ कभी नहीं देखे गए, लेकिन तीसरा हरदम उसकी गोद में रहता है। कुछ घरों में उसे बच्चे के लिए पुराने कपड़े देने की कोशिश की गई तो उसने लेने से सफ इनकार कर दिया। पहले यही शारदा अपने लिए और बच्चों के लिए सब कुछ मांग लिया करती थी।

तीसरे दिन सुबह जाकर कुछ बात बनी। बनी नहीं बिगड़ गयी। उस समय प्रोफेसर साहब घर पर नहीं थे। वह आयी। बच्चे को कालीन पर लिटाया। ज्यों ही स्टीरियो चलाने के लिए मुड़ी, प्रिया एकदम बरस पड़ी-''हटा इसे यहां से। रोज़-रोज़ कालीन पर लिटा देती है। खराब होता है यह।''
इससे पहले कि शारदा पलट कर कुछ कहे, प्रिया ने एक और फरमान जारी कर दिया,''और खबरदार जो आज से मेरे स्टीरियो को हाथ लगाया। ढंग से काम करना है तो कर वरना और कोई घर देख।'
शारदा एकदम ठिठकी खड़ी रह गर्यी। उसे शायद इसकी उम्मीद नहीं थी। उसने बच्चे को उठाया और एक कोने में बैठ गयी। मौका सही लगा मिसेज रस्तोगी को भी। वे भी मैदान में आ गयीं-''बता कब से फंसा रख है तूने संदीप को? बोल!''
''क्या मतलब?'' शारदा बमकी, ''किसने किसको फंसा रखा है?''
''तो फिर तेरे इस छोकरे की शक्ल संदीप से कैसे मिल रही है?'' बहुत रोकने पर भी उनकी आवाज भर्रा ही गयी है।
''मुझे क्या पता?'' शारदा ने लापरवाही से कहा।
''तुझे पता नहीं तो फिर किसे पता होगा? पता नहीं कहां-कहां मुंह मारती फिरती है। हमारे सीधे-सादे लड़के को फंसा लिया है। हमें कहीं का न छोड़ा।''
शारदा एकदम खड़ी हो गयी - ''खबरदार मेमसाब, जो मेरे चरित्तर के बारे में कुछ ऐसा-वैसा कहा तो, इत्ती देर से मैं चुपचाप सुन रही हूं और आप बोले जा रही हैं। मैं अपने काम से काम रखती हूं। फालतू लफड़ों में नहीं पड़ती।''
''फालतू लफड़ों में नहीं पड़ती तो बता तू कि बच्चों की शक्ल यूं ही किसी से कैसे मिल जाती है?'' अब कमान प्रिया ने संभाल ली है।
''मुझे क्या पता। आपको काम छुड़वाना हो तो वैसे बोल देयो। मैं अभी छोड़के चली जाती। पर मेरे कू फालतू बोलने का नईं।'' यह कहते हुए उसने बच्चे को उठाया और एकदम बाहर निकल गई।
एक पल को तो मां-बेटी दोनों सकते में आ गयीं। यह क्या हो गया? फिर राहत की सांस भी ली। अब कम-से-कम हर वक्त छाती पर तो सवार नहीं रहेगी। एक दुविधा जरूर खड़ी हो गयी है। उससे संवाद की जो स्थिति पैदा हुई थी, वह एकदम हाथ से निकल गयी। इतनी मुश्किल से हाथ आया मौका दोनों ने खो दिया। अब न तो उससे यह ही कहा जा सकता है कि कॉलोनी छोड़ के चली जा और न ही उससे बच्चा मांगा जा सकता है। उसके तेवर देखकर तो यही लगता है -आसानी से हाथ धरने नहीं देगी। अलबत्ता, यह साफ हो गया कि इस घर में घुसपैठ करने का उसका कोई इरादा नहीं है।
जब प्रोफेसर साहब को पूरी बात पता चली तो वे झल्लाए, ''तुम लोगों को ज़रा-सा भी सब्र नहीं था? जान-बूझकर पूरी बाजी उलट दी है। उसने अगर अपनी मर्ज़ी से काम पर आना बंद कर दिया तो उसे कुछ कहने-सुनने का हमारा कोई हक ही नहीं रहेगा।''
शारदा ने वाकई काम पर आना बंद कर दिया है। बाकी घरों में उसी मुस्तैदी से बच्चे को लिये-लिये घूम रही है। भीतर-ही-भीतर चल रही सुगबुगाहट अब और मुखर हो गयी है। लोगों को अब पूरा विश्वास होने लगा है।
बहुत सोच-समझकर और अपने आप को हर तरह से तैयार करके प्रोफेसर रस्तोगी रात के अंधेरे में शारदा की झोंपड़ी में गए हैं। इतने पैसे ले कर, जितने शारदा दस सालों में भी न कमा सके। लेकिन शारदा पैसे देखते ही भड़क गयी, ''किस बात के पैसे? जब काम करती थी, पैसे लेती थी। मेहनत-मजूरी करती हूं। करती रहूंगी। मैं क्यों जाऊं यहां से? कहां जाऊं?''
प्रोफसर साहब ने जब उसके तेवर देखे तो एक और चारा डाला - इतने पैसे और ले लो और यह बच्चा हमें दे दो। हमेशा के लिए। यह सुनते ही शारदा इतने ज़ोर से चिल्लायी कि सारी बस्ती सुन ले-''साफ-साफ सुन लो साब - यह बच्चा मेरा है। सिर्फ मेरा। मैं इसे किसी कीमत पर नहीं दूंगी। समझे। अगर आप लोगों को शक है कि यह संदीप बाबू का है तो आप जाकर उन्हीं से क्यों नहीं पूछते? कहां छुपा रखा है उन्हें?'' दनदनाती हुई वह अपनी झोंपड़ी में घुस गयी।
प्रोफेसर साहब पूरी तरह टूटे हुए, अंधेरे में ठोकरें खाते हुए वापस लौट रहे हैं। सोच रहे हैं - कल-परसों में ही घर बदलकर किसी और कॉलोनी में रहने चले जाएंगे।

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