Monday, March 31, 2008

सातवीं कहानी - छोटे नवाब, बड़े नवाब

आखिर फैसला हो ही गया। हालांकि इससे न छोटा खुश है, न बड़ा। बड़े को लग रहा है-छोटे का इतना नहीं बनता था। ज्यादा हथिया लिया है उसने। छोटा भुनभुना रहा है-बड़े ने सारी मलाई अपने लिए रख ली है। मुझे तो टुकड़ा भर देकर टरका दिया है, लेकिन मैं भी चुप नहीं बैठूंगा। अपना हक लेकर रहूंगा।
छोटा भारी मन से उठा, ''चलता हूं बड़े। वह इंतज़ार कर रही होगी।''
''नहीं छोटे। इस तरह मत जा।'' बड़े ने समझाया, ''घर चल। सब इकट्ठे बैठेंगे। खाना वहीं खा लेना। फोन कर दे उसे। वहीं आ जाएगी। होटल से चिकन वगैरह लेते चलेंगे।''
छोटा मान गया है।

फोन उठाते ही छोटे की बीवी ने पूछा, ''क्या-क्या मिला? कहीं बाउजी के लिए तो हां नहीं कर दी है?''
''तुमने मुझे इतना पागल समझ रखा है क्या?'' छोटा आवाज दबा कर बोला। साथ वाली मेज पर बड़ा दूसरे फोन पर अपनी बीवी से बात कर रहा है।
''मैं माना ही बिज्जी को रखने की शर्त पर।'' छोटे ने बताया।
''नकद भी मिलेगा कुछ?''
''हां, मुझे सिर्फ तीन देगा बड़ा। उसके पास फिर भी बीस लाख से ऊपर है नकद अभी भी।'' छोटा फिर भुनभुनाया।
''तो ज्यादा क्यों नहीं मांगा तुमने? और क्या-क्या मिलेगा?'' छोटे की बीवी फोन पर ही पूरी रिपोर्ट चाहती है।
''अभी बड़े के घर आ ही रही हो। सब बता दूंगा।'' और छोटे ने फोन रख दिया।
उधर बड़े की बीवी उसकी तेल मालिश कर रही है फोन पर ही, ''आपकी तो, पता नहीं अक्ल मारी गई है। हां कर दी है बाउजी के लिए। आपका क्या है, संभालना तो मुझे पड़ता है। एक मिनट चैन नहीं लेने देते। अब आप ही दुकान पर बिठाया करना सारा दिन।''
''समझा करो भई। बिज्जी को रखने की शर्त पर ही छोटा इतने कम पर माना है।'' बड़े ने तर्क दिया, ''वरना वह तो...''
''और क्या-क्या दे दिया है उसे? कहीं पालम वाला फार्म हाउस तो नहीं दे दिया? आपका कोई भरोसा नहीं।''
''नहीं दिया बाबा वह फार्म हाउस। अभी आ ही रहे हैं। सब बता दूंगा।'' कहकर बड़े ने फोन रख दिया और पसीना पोंछा।
दोनों ने घर पहुंचते ही अपनी-अपनी बीवी को फैसले की संक्षिप्त रिपोर्ट दे दी है। दोनों औरतें कुछ और पूछना चाहती हैं, लेकिन उनके हाथ और अपनी आंख दबाकर दोनों ने इशारा कर दिया है-''अभी नहीं।''
दोनों समझदार हैं। मान गई हैं, लेकिन जितनी खबर मिल चुकी है, उसे भी अपने भीतर रखना उन्हें मुश्किल लग रहा है। किसी को बतानी ही पड़ेगी। उन्होंने बच्चों के कान खाली देखकर बात वहां उंड़ेल दी है। बच्चे तो बच्चे ठहरे। सीधे दादा-दादी के कमरे की तरफ लपके। खबर प्रसारित कर आये।
बड़े ने इंपोर्टेड व्हिस्की निकाल ली है - चलो पिंड छूटा। जब से इसे पार्टनर बनाया था, तब से चख-चख से दु:खी कर रखा था। तब पार्टनर बनने की जल्दी थी और अब चार साल में ही अलग होने के लिए कूद-फांद रहा था। पिछले कितने दिनों से तो रोज़ फैसले हो रहे थे, लेकिन दोनों ही रोज़ अपनी बीवियों के कहने में आकर रात के फैसले से मुकर जाते थे। फिर वहीं पंजे लड़ाना, फूं-फां करना...। आज निपटा ही दिया आखिर। बड़ा मन-ही-मन खुश है।
बड़े ने बाउजी को भी बुलवा लिया है। उन्हें यह सौभाग्य कभी-कभी ही नसीब होता है। सिर्फ एक या दो पैग। आज वे समझ नहीं पा रहे - यह दावत खुशियां मनाने के लिए है या ग़म गलत करने के लिए। अलबत्ता, वे अपने हिसाब से उदास हो गए हैं,''प्रॉपर्टी के साथ-साथ मां-बाप का भी बंटवारा। अब तक तो दोनों घर अपने थे। कभी यहां तो कभी वहां। कभी वे इधर तो कभी बिज्जी उधर। कोई रोक-टोक नहीं थे। उठाई साइकिल और चल दिए। कहीं कोई तकलीफ नहीं, लेकिन... लेकिन... अब मुझे यहीं रहना होगा। अकेले। बिज्जी उधर अलग। सारे दिन इस बड़े की बीवी के ज़हर बुझे तीर झेलने होंगे। कैसे रहेंगी बिज्जी अकेली! बेशक ऑपरेशन के बाद कोई खतरा नहीं रहा। फिर भी कैंसर है। कोई छोटी-मोटी बीमारी नहीं। कौन बचता है इससे! दोनों कहीं भी रह लेते। आखिर हम दोनों का खर्चा ही कितना होगा। कुकी के ट्यूटर से भी कम। उदिता की पॉकेट मनी भी ज्यादा होगी हम दोनों के खर्चे से!''
बाउजी बिना घूंट भरे, गिलास हाथ में लिये ऊभ-चूभ हो रहे हैं - कहें भी तो किससे! इस घर में मेरी सुनता ही कौन है! कहते-सुनाते सब हैं। बड़ों की देखा-देखी छोटे भी। बस, फैसला कर दिया और कहलवाया भी किसके हाथ? बच्चों के। मैं तो एकदम फालतू हूं। घर के पुराने सामान से भी गया-बीता? पड़े रहो एक कोने में। क्या मतलब है इस ज़िंदगी का!
बाउजी ने अपने हाथ में पकड़ा व्हिस्की का गिलास देखा - ग्यारह सौ की आयी थी यह बोतल और इस बुड्ढे-बुढ़िया का महीने भर का खर्च!
तभी उन्हें कहीं दूर से आती बड़े की आवाज सुनाई दी। सिर उठाया - सामने ही तो खड़ा है वह। छोटे का कंधा थामे। कह रहा है, ''छोटे, हम दोनों ने अपना बिजनेस अलग कर लिया है, रिश्ते नहीं। हम आगे भी एक-दूसरे को मान देते रहेंगे। हमारे घरों का, दिलों का बंटवारा नहीं हुआ है छोटे।''
छोटा भावुक हो गया है, ''हां बड़े। यह घर मेरा ही है और वह घर तुम्हारा है। हम पहले की तरह एक - दूसरे के सुख-दु:ख में खड़े होंगे।''
''देख छोटे, तू मां को ले जा तो रहा है, लेकिन याद रखना, वह पहले मेरी मां है। तू उसे कोई तकलीफ नहीं देगा।''
''नहीं दूंगा बड़े। वह मेरी भी तो मां है।''
''छोटे, तू उससे कोई काम नहीं करवाएगा। उसकी सेवा करेगा। उसके इलाज पर पूरा ध्यान देगा।'' बड़े ने अपना गिलास दोबारा भरा।
''हां बड़े, उसकी पूरी सेवा करूंगा।'' छोटे ने भी अपना गिलास खाली किया।
''बिज्जी को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए छोटे। उसे ज़रा-सा भी कुछ हो तो तू सबसे पहले मुझे खबर करेगा।'' बड़े ने फिश कटलेट का टुकड़ा मुंह में डाला।
''वादा करता हूं बड़े।'' छोटे ने सलाद चखी।
अब बड़ा भी भावुक हो गया है। उसने एक लंबा घूंट भरा, ''छोटे, मुझे गलत मत समझना। हम लोगों ने दूसरों के कहने में आकर यह बंटवारा तो कर लिया है, लेकिन हम दोनों सगे भाई हैं। आगे भी बने रहेंगे।''
बाउजी से और नहीं बैठा जाता। अपना बिन पिया गिलास वहीं छोड़कर लंबे-लंबे डग भरते हुए अपने कमरे में चले आए। आज की रात तो थोड़ी देर बिज्जी के पास बैठ लें। कुछ कह-सुन लें। कल तो उसे छोटा ले जाएगा। इतनी देर से रोकी गई भड़ास और नहीं रोकी जाती। फट पड़ते हैं, ''लानत है ऐसी औलाद पर, ऐसी ज़िंदगी पर। कभी अपनी मां के कमरे में झांककर नहीं देखते। जीती है या मरती है। खुद मुझे कोई दो कौड़ी को नहीं पूछता, नौकर से भी बदतर। और ये दोनों लाल घोड़ी पर चढ़े बड़ी-बड़ी बातें बना रहे हैं।''
पछता रहे हैं बाउजी, ''बहुत बड़ी गलती की थी यहां आकर। वहीं अच्छे थे। अपना घर-बार तो था। इन लोगों के झांसे में आकर सब कुछ बेच-बाच डाला। तब बड़े सगे बनते थे हमारे! अब सब कुछ इन्हें देकर इन्हीं के दर पर भिखारी हो गए हैं। जब अपनी ही औलाद के हाथों दुर्गत लिखी थी तो दोष भी किसे दें। इससे तो गरीब ही अच्छे थे हम। न मोह, न शिकायत! जैसे थे, सुखी थे।''
उनकी बड़बड़ाहट सुनकर बिज्जी की आंख खुल गई। पूछती हैं, ''कहां गए थे? अब किसे कोस रहे हो?''
''कोस कहां रहा हूं। मैं तो...'' गुस्से की मक्खी अभी भी बाउजी की नाक पर बैठी है, ''वो अंदर पार्टी चल रही है। जश्न मना रहे हैं दोनों। प्रॉपर्टी के साथ हमारा भी बंटवारा हो गया है। उसी खुशी में...''
''छोटा आया है क्या? इधर तो झांकने नहीं आया?'' बिज्जी उदास हो गई है।
''फिकर मत कर। कल से रोज आएगा झांकने तेरे कमरे में। तू उसी के हिस्से में गई है।'' बाउजी की आवाज में अभी भी तिलमिलाहट है।
बिज्जी ने सुनकर भी नहीं सुना। जब से बिस्तर पर पड़ी हैं, किसी भी बात की भलाई-बुराई से परे चली गई हैं। बाउजी की तरफ देखती हैं। उन्हें समझाती हैं, ''अपना ख्याल रखना। बहुत लापरवाह हो। ज्यादा टोका-टोकी मत करना। बड़ा और उसकी वो तो तुमसे वैसे ही ज्यादा चिढ़ते हैं।''
''हां, चिढ़ते हैं। सब चिढ़ते हैं मुझसे। हरामखोर हूं मैं तो। घर पर रहूं तो पिसता रहूं। दुकान पर बैठूं तो बेगार करूं। मुझसे तो दुकान का नौकर बंसी अच्छा है। महीने की दस तारीख को गिनकर पूरी तनखा तो ले जाता है, जबकि काम मैं भी उतना ही करता हूं। ग्राहकों को चाय पिलाता हूं। उनके जूठे गिलास धोता हूं। दुकान की सफाई करता हूं। साइकिल पर कितनी-कितनी दूर जाता हूं और क्या उम्मीद करते हैं मुझसे! अब इन सत्तर साल की बूढ़ी हड्डियों से जितना बन पड़ता है, खटता तो हूं।'' बाउजी की दु:खती रग दब गई है। वे फिर शुरू हो गए हैं, ''इन साहबजादों के लिए जमा-जमाया घर छोड़कर आए थे। सब कुछ इन्हें दे दिया। हमारी क्या है, कट जाएगी। अब इन दोनों ने महल खड़े कर लिये हैं, लाखों-करोड़ों में खेल रहे हैं और यहां...''
''अब बस भी करो। तुम्हारा तो बस रिकाड हर समय बजता ही रहता है। कोई सुने, न सुने। जब तुम्हारा टाइम था तो तुम्हारी चलती थी। गलत बातें भी सही मानी जाती थीं। हैं कि नहीं। अब वक्त से समझौता कर लो। सही-गलत...''
''तू सही-गलत की बात कर रही है, यहां तो कोई बात करने को तैयार नहीं...''
बिज्जी ने नहीं सुना। वे अपनी रौ में बोल रही हैं, ''मुझे यहां से भेजकर भूल मत जाना। कभी-कभी आ जाया करना। फोन कर लिया करना। मैं तो क्या ही आऊंगी वापस अब...बची ही कितनी है...।''
बाउजी एकदम सकते में आ गए। सहमे से बिज्जी को देखते रह गए - क्या सचमुच हमेशा के लिए जा रही है बिज्जी यहां से? यह बीमार, कमज़ोर औरत, जिसके चेहरे पर हर वक्त मौत की परछाईं नज़र आती है, अब कितने दिन और जिएगी इस तरह? दवा-दारू से तो वह पहले ही दूर जा चुकी है। अब इन आखिरी दिनों में तो दोनों बच्चों के कुटुंब को एक साथ हंसता-खेलता देख लेती। आराम से मर सकती। न सही औलाद का सुख, हम दोनों को तो एक साथ रह लेने देते। उनसे और कुछ तो नहीं मांगते। जीते-जी तो मत मारो हमें...लेकिन सुनेगा कौन! यहां जितना हो सकता था, इसकी देखभाल कर ही रहा था। वहां तो कोई पानी को भी नहीं पूछेगा। कैसे जिएगी ये... और कैसे जिऊंगा मैं...''
''कहां खो गए?'' बिज्जी इतनी देर से जवाब का इंतजार कर रही हैं। बाउजी उठकर बिज्जी की चारपाई के पास आए। वहीं बैठ गए। उनका हाथ थामा, ''भागवंती, हमारी औलाद तो ऊपर वाले से भी जालिम निकली। वह भी इतना निर्दयी नहीं होगा। जब भी बुलावा भेजेगा, आगे-पीछे चले जाएंगे। वहां तो अलग-अलग ही जाना होता है ना! यहां तो जीते-जी अलग कर रही है हमारी अपनी कोखजायी औलाद।'' बाउजी का गला रुंध गया है। बिज्जी ने जवाब में कुछ नहीं कहा। कितनी-कितनी बार तो सुन चुकी है उनके ये दुखड़े। बिज्जी ने हाथ बढ़ाकर बाउजी की आंखों में चमक आए मोती अपनी उंगलियों पर उतार लिये।

उधर बड़े-छोटे के संवाद जारी हैं। अब दोनों नहीं बोल रहे, दोनों के भीतर एक ही बोतल की इंपोर्टेड व्हिस्की बोल रही है, जिसे कभी छोटा खोलता है तो कभी बड़ा।
इस बार पैग छोटे ने बनाए, ''बड़े, मुझे माफ करना, बड़े। मैंने अपनी वाइफ के बहकावे में आकर अपने देवता जैसे भाई का दिल दुखाया। उससे अपना हिस्सा... मांगा।'' वह रोने को है।
''छोटे, तू चाहे अलग रहे, अलग काम करे, तू इस घर का सबसे बड़ा मेंबर है।'' बड़ा फिर भावुक हो गया है, ''मार्च में उदिता की शादी है, सब काम तुझे ही करने हैं।''
''फिकर मत कर बड़े। मैं इस घर के सारे फर्ज अदा करूंगा। उदिता की शादी का सारा इंतज़ाम मैं देखूंगा।'' छोटे के भीतर बड़े के बराबर ही शराब गयी है।
इससे पहले कि इसके जवाब में बड़ा कुछ कहे या आज का फैसला अपनी बीवी की सलाह लिये बिना बदले, उसकी बीवी ने आकर फरमान सुनाया, ''अब बहुत... हो गयी है। चलो, खाना लग गया है।''
बड़े ने अपना गिलास खत्म करके छोटे का हाथ थामा और उसे लिये-लिये डाइनिंग रूम में आ गया।
वहां बाउजी, बिज्जी को न पाकर उसने उदिता से कहा, ''जाओ बेटे, बाउजी, बिज्जी को भी बुला लाओ।''
जवाब बड़े की बीवी ने दिया, ''उन लोगों ने अपने कमरे में ही खा लिया है। आप लोग शुरू करो।''
खाना खाने के बाद बड़ा-छोटा और उनकी बीवियां, चारों लोग बाउजी-बिज्जी के कमरे में गए। बिज्जी सो गई है। बाउजी अधलेटे आंखें बंद किए पड़े हैं।
''चलते हैं बाउजी।'' यह छोटे की बीवी है। उसने बाउजी के आगे सिर झुकाया। वह जब भी बाउजी, बिज्जी से विदा लेती है, ऐसा ही करती है। छोटा भी उसके साथ-साथ ही झुक गया। बाउजी ने रजाई से हाथ निकाला, ऊपर किया, कुछ बुदबुदाए और हाथ रजाई में वापस चला जाने दिया। छोटा और उसकी बीवी यही दोहराने के लिए बिज्जी की चारपाई के पास गए, लेकिन बाउजी ने इशारे से रोक दिया, ''सो गई है। जगाओ मत।''
जाते-जाते बड़े ने पूछा है, ''बत्ती बंद कर दूं क्या? बाउजी की ''आं' को उसने ''हां' समझ कर लाइट बुझा दी है।

छोटे के कार स्टार्ट करने तक यह तय हो गया है कि बड़ा कल ही छोटे को उसके हिस्से में आयी प्रॉपर्टी के कागजात वगैरह और पैसे दे देगा। छोटे की बीवी परसों आकर बिज्जी को और उनका सामान लिवा ले जाएगी।

रात में छोटे और बड़े की अपनी-अपनी बीवी के दरबार में पेशी हुई। एक बार फिर लंबी बहसें चलीं और दोनों की ब्रेन वाशिंग कर दी गयी और उन्हें जतला दिया गया-उन्हें फैसले करना नहीं आता। दोनों का नशा सुबह तक बिलकुल उतर चुका था। दोनों ने ही सुबह-सुबह महसूस किया - दूसरे ने ठग लिया है। इधर बड़ा सुबह-सुबह हिसाब लगाने बैठ गया, ''छोटे के हिस्से में कितना निकल जाएगा।'' उधर छोटा कॉपी-पेंसिल लेकर बैठ गया, ''उसे देने के बाद बड़े के पास कितना रह...जायेगा।''
दोनों को हिसाब में भारी गड़बड़ी लगी। बड़े को शक हुआ, ''छोटे ने ज़रूर कुछ प्रॉपर्टीज अलग से खरीदी-बेची होंगी। इतना सीधा तो नहीं है वह। दुकान पर जाते ही सारे कागजात देखने होंगे। क्या पता छोटे ने पहले ही कागजात पार कर लिये हों।''
उधर छोटे को पूरा विश्वास है, बड़े के पास कम-से-कम तीस लाख तो नकद होना ही चाहिए। पिछली तीन-चार डील्स में काफी पैसे नकद लिये गये थे। कहां गए वे सारे पैसे! फिर उसने मार्केट रेट से हिसाब लगाया, उसके हिस्से में कुल चौदह-पंद्रह लाख ही आ रहे हैं, जबकि बड़े ने अपने पास जो प्रॉपर्टीज रखी हैं, उनकी कीमत एक करोड़ से ज्यादा है। नकद अलग। तो इसका मतलब हुआ, बड़े ने उसे दसवें हिस्से में ही बाहर का रास्ता दिखा दिया है। छोटे ने खुद को लुटा-पिटा महसूस किया।
क्या करूं, क्या करूं, जपता हुआ वह अपनी कोठी के लॉन में टहलने लगा। भीतर से उसकी बीवी ने उसे इस तरह से बेचैन देखा तो उसे अच्छा लगा। रात की मालिश असर दिखा रही थी। थोड़ी देर इसी तरह बेचैनी में टहलने के बाद वह सीधे टेलीफोन की तरफ लपका।
उधर बड़े के साथ सुबह से यही कुछ हो यहा था। वह भी उसी समय टेलीफोन की तरफ लपका था। जब तक पहुंचता, फोन घनघनाने लगा।
''बड़े नमस्कार। मैं छोटा बोल रहा हूं।''
''नमस्ते। बोल छोटे। सुबह-सुबह! रात ठीक से पहुंच गए थे?'' बड़े ने सोचा, पहले छोटे की ही सुन ली जाए।
''बाकी तो ठीक है बड़े लेकिन मेरे साथ ज्यादती हो गई है। कुछ भी तो नहीं दिया है तुमने मुझे।''
''क्या बकवास है? इधर मैंने हिसाब लगाया है कि जब से तू पार्टनरशिप में आया है, हम दोनों ने मिलकर भी इतना नहीं कमाया है, जितना तू अकेले बटोर कर ले जा रहा है।''
''रहने दे बड़े, मेरे पास भी सारा हिसाब है...।''
''क्या हिसाब है? चार साल पहले जब तू नौकरी छोड़कर दुकान पर आया था, तो घर समेत तेरी कुल पूंजी चार लाख भी नहीं थी। डेढ़ लाख तूने नकद लगाए थे और ढाई लाख का तेरा घर था। अब सिर्फ चार साल में तुझे चार के बीस लाख मिल रहे हैं। चार साल में पांच गुना! और क्या चाहता है?'' बड़े को ताव आ रहा है।
''कहां बीस लाख बड़े। मुश्किल से दस-ग्यारह, जबकि तुम्हारे पास कम-से-कम एक करोड़ की प्रॉपर्टी निकलती है। नकद अलग।''
''देख छोटे,'' बड़ा गुर्राया, ''सुबह-सुबह तू अगर यह हिसाब लगाने बैठा है कि मेरे पास क्या बच रहा है तो कान खोलकर सुन ले। तुझे हिस्सेदार बनाने से पहले भी मेरे पास बहुत कुछ था। तुझसे दस गुना। अब तू उस पर तो अपना हक जमा नहीं सकता।'' बड़ा थोड़ा रुका। फिर टोन बदली, ''तुझे मैंने तेरे हक से कहीं ज्यादा पहले ही दे दिया है। मैं कह ही चुका हूं, इन चार-पांच सालों में हमने चार-पांच गुना तो कतई नहीं कमाया। रही एक करोड़ की बात, तो यह बिलकुल गलत है। बच्चू, मैं इस लाइन में कब से एड़ियां घिस रहा हूं। तब जाकर आज चालीस-पचास लाख के आस-पास हूं। एक करोड़ तो कतई नहीं।''
''नहीं बड़े।''
''नहीं छोटे।''
''नहीं बड़े।''
''नहीं छोटे।''
''तो सुन लो बड़े। मैं ज्ञानचंद नहीं हूं, जिसे तुम यूं ही टरका दोगे। मैंने भी उसी मां का दूध पिया है। इन चार सालों में हमने जितनी डील्स की है, सबकी फोटो कॉपी मेरे पास है। मुझे उन सबमें पूरा हिस्सा चाहिए, चाहे दस बनता हो या पचास। मैं पूरा लिये बिना नहीं मानूंगा।'' छोटे ने इस धमकी के साथ ही फोन काट दिया।
जब तक बड़े और छोटे फोन से निपटते, ताजे समाचार जानने की नीयत से उनकी बीवियां गरम चाय लेकर हाजिर हो गईं। बड़े की बीवी ने खूबसूरत बोन चाइना के प्याले में उन्हें चाय थमाते हुए भोलेपन से पूछा, ''किसका फोन था?''
''उसी का था। धमकी देता है, मेरा हिस्सा पचास लाख का बनता है।'' उसने मुंह बिचकाया, ''एक करोड़ का नहीं बनता। अपना भाई है, अच्छी हालत में नहीं है, यही सोचकर मैंने इसे पार्टनर बना लिया था। इसी के चक्कर में ज्ञानचंद जैसे काम के आदमी को अलग किया। उस पर झूठी तोहमत लगाई।'' बड़े की बीवी ध्यान से सुन रही है, ''अगर मैं इसे न रखता तो ज्ञानचंद अभी भी चार-पांच हजार में काम करता रहता। अब जो छोटा पंद्रह-बीस लाख की चपत लगाने के बाद भी उचक-उचक कर बोलियां लगा रहा है, वे तो बचते।''
बड़े की बीवी ने तुरंत कुरेदा, ''तो अब क्या करोगे? ज्ञानचंद को फिर बुलाओगे क्या? अकेले कैसे संभालोगे दुकान की इतनी भाग-दौड़?''
''बुलाने को तो बुला लूं। अब भी बेचारा खाली ही घूम रहा है। कभी एक बेटे के पास जाता है तो कभी दूसरे के पास, लेकिन पता नहीं अब सिर्फ सैलरी पर आएगा या नहीं। एक बार तो उसे धोखे में रखा। हर बार थोड़े ही झांसे में आएगा?''
''क्यों, उसे एक फ्लैट दिया तो था, सरिता विहार वाला?'' बीवी ने अपनी याददाश्त का सहारा लिया।
बड़ा हंसने लगा,''वह तो मुकदमेबाजी वाला फ्लैट था। बेचारा ज्ञानचंद आज तक तारीखें भुगत रहा है। सुना है डीडीए में पंद्रह हजार खिलाए भी थे उसने कि फ्लैट उसके नाम रिलीज हो जाए। वे भी डूब गए।''
''तो कोई नया आदमी रखोगे क्या?''
''रखना तो पड़ेगा, लेकिन ज्ञानचंद जैसा मेहनती और ईमानदार आदमी आजकल मिलता कहां है। सच बताऊं, आज जो हमारे ये ठाठ-बाट हैं, सब उसी की प्लैनिंग और मेहनत का नतीजा है। उसी की खरीदी हुई कई प्रॉपर्टीज हमने बाद में बेचकर कम-से-कम पचास लाख कमाए होंगे।''
''एक काम क्यों नहीं करते। उदिता की शादी के लिए उसे बुलाओगे ही न? तब बात कर लेना।''
''वो तो ठीक है। फोन करने पर आज ही चला आएगा, लेकिन दिक्कत यही है कि यही छोटा उसकी सिफारिश लाया था। इसी छोटे ने उसे निकलवाया और अब इसी की वजह से उसे फिर बुलवाना पड़ेगा।''
''अब तो जो भी करना है, सोच-समझकर करना।'' बड़े की बीवी ने चाय के खाली प्याले उठाए।

अगले दिन जब छोटा अपना हिस्सा लेने गया तो बड़े ने उतना भी देने से इनकार कर दिया, जितने की बात हुई थी। छोटे ने बहुत हाय-तौबा की। चीखा-चिल्लाया, जब कोई भी तरकीब बड़े को डिगा न सकी तो मिन्नतें करने लगा - चलो जितना देते हो, दे दो। आखिर दो-एक रिश्तेदारों को बीच में डालकर ही छोटा अपना हिस्सा निकाल पाया। इतना पाकर उसे बिलकुल भी चैन नहीं है। उसके प्राण तो बड़े की तिजोरी में अटके पड़े हैं। अभी उसे कोई ढंग की दुकान नहीं मिली है, इसलिए कोठी के बाहर ही `प्रॉपर्टी डीलर'' का बोर्ड टंगवा कर उसने घर पर ही ऑफिस खोल लिया है। भाग-दौड़ कर रहा है। अभी कोई सौदा नहीं हुआ है, लेकिन उसे उम्मीद है, जल्द ही उसके भाग जागेंगे और वह भी करोड़ों में खेलने लगेगा।

उदिता की शादी का न्यौता देने बड़ा, उसकी बीवी और उदिता खुद आये। उदिता की इच्छा है, दादी कुछ दिन उन्हीं के पास रहे। चाचा-चाची भी पापा से अपना झगड़ा भूलकर भतीजी की शादी के दिनों में वहीं रहें, अपना फर्ज निभाएं। उदिता की शादी को एक विशेष मामला मानते हुए छोटे ने कुछ दिनों के लिए बिज्जी को बड़े के घर पर भेज दिया है। खुद भी दोनों हर रोज वहां जाने लगे हैं। छोटे ने उस दिन नशे में बड़े से किया वादा निभाया है और उदिता की शादी की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली है। बिज्जी और बाउजी को अच्छा लगा है कि छोटा मनमुटाव भुला कर बड़े के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा है।
शादी बहुत अच्छी हो गई है। ''सब कर्मों का फल'' कहते हुए सबने ऊपर वाले के आगे हाथ जोड़े हैं। शादी में बड़े ने छोटे को एक पैसा भी खर्च नहीं करने दिया है। कहा, ''अभी तो तेरे पास काम भी नहीं है, यह क्या कम है कि तू आया। इतनी मेहनत की।'' छोटा सिर्फ मुस्कुरा दिया है। उसने अपनी प्यारी भतीजी को एक लाख रुपये नकद का शगुन और उसकी बीवी ने पचास हजार का ज़ड़ाऊ हार दिया है, बड़े और उसकी बीवी के बहुत मना करने के बावजूद। सबकी आंखें खुली रह गयी हैं।
उदिता की विदाई होते ही छोटे ने अपनी पुरानी वाली पोजीशन ले ली है। बिज्जी को वह अगले दिन ही ले आया और फिर वापस मुड़कर नहीं देखा। बड़े ने छोटे का आभार ही माना कि कम-से-कम शादी में तो इज्ज़त रख ली छोटे ने।

छोटे ने उस दिन नशे में बड़े को किया एक और वादा निभाया है। उसने बिज्जी को कोई तकलीफ नहीं होने दी है। न उसने मां की वजह से नौकरानी को निकाला, न उससे घर के काम करवाए। जितनी बन पड़ी, सेवा की। उनका इलाज जारी रखा। अब इस बात का उसके पास कोई जवाब नहीं है कि बिज्जी दिन भर रोती रहती हैं। बाउजी को, बड़े को, उसके बच्चों को याद करती हैं।
वैसे बिज्जी को कोई तकलीफ नहीं है। छोटा उनके कमरे में झांकता है। उनके हालचाल पूछता है, बात करता है। कार में कभी-कभी मंदिर भी ले जाता है। उसकी बीवी भी बड़े की तुलना में कम ताने मारती है। खाना भी ठीक और वक्त पर देती है। पर बिज्जी को जो चाहिए वह न मांग सकती है, न कोई देने को तैयार है।
बाउजी बीच-बीच में चले आते हैं। चुपचाप बिज्जी के सिरहाने बैठे रहते हैं। खुद भी रोते हैं, उसे भी रुलाते हैं। उसके छोटे-मोटे काम कर जाते हैं। हर बार कुछ-न-कुछ लाते हैं उसके लिए। नहीं आ पाते तो फोन कर लेते हैं। इन दिनों वे खुद भी बीमार रहने लगे हैं। इतनी दूर साइकिल पर आना-जाना भारी पड़ता है।
बहुत चिंता रहती है उन्हें बिज्जी की। उसके लिए तड़पते-छटपटाते रहते हैं। उनके खुद के पास तो घर और बाहर दोनों हैं। कहीं भी उठ-बैठ लेते हैं। बिज्जी बेचारी सारा दिन अकेली कमरे में पड़ी रहती हैं। कोई तकलीफ न होने पर भी अकेलेपन और बुढ़ापे से, कमजोरी और बीमारी से वह हर रोज उसे लड़ते देखते हैं। असहाय से उसका हाथ थामे बैठे रहते हैं घंटों।
इस बीच दो बार बिज्जी की तबीयत खराब हुई। पहली बार तो दो दिन में ही अस्पताल से घर आ गयी। तब छोटे ने किसी को भी खबर नहीं दी। न बड़े को, न बाउजी को। खुद दोनों ही भाग-दौड़ करते रहे।
लेकिन, दूसरी बार की खबर बाउजी के जरिये बड़े तक पहुंच ही गई। बड़ा बहुत नाराज़ हुआ। लेकिन छोटा उसकी नाराज़गी टाल गया। बिज्जी महीना भर अस्पताल में रहीं। बाउजी लगातार वहीं रहे। अपने आपको पूरी तरह भूलकर। बिज्जी के घर वापस आ जाने पर बाउजी ने बड़े और छोटे के आगे हाथ जोड़े, उन्हें अब तो बिज्जी के साथ रहने दिया जाए और इस तरह वे अस्थायी तौर पर छोटे के घर आ गए हैं। शुरू-शुरू में बड़ा बिज्जी को देखने लगातार आता रहा। फिर धीरे-धीरे एकदम कम कर दिया।...

आधी रात के वक्त बड़े के घर फोन की घंटी बजी है। बड़े ने वक्त देखा-पौने दो। इस वक्त कौन? फोन उठाया।
''बड़े, मैं छोटा बोल रहा हूं। पहले मेरी पूरी बात सुन लो, तभी फोन रखना...'' बड़ा घबराया, छोटा इस वक्त क्या कहना चाहता है।...
''अभी थोड़ी देर पहले बिज्जी चल बसीं। अंतिम संस्कार... कल सुबह ग्यारह बजे होगा। आप बिज्जी के अंतिम दर्शन तभी कर पाएंंगे जब आप... प्रॉपर्टी में मेरे हिस्से के... पचास लाख के पेपर्स... लेकर आएंगे।'' और फोन कट गया।

Monday, March 24, 2008

छठी कहानी - बाबू भाई पंड्या

बाबू भाई पंड्या से मेरी मुलाकात डॉक्टर भाटिया ने करायी थी। उन दिनों मेरी पोस्टिंग अहमदाबाद में थी और डॉक्टर भाटिया सिविल अस्पताल के बर्न्स विभाग मे काम कर रहे थे। डॉक्टर भाटिया की पत्नी पारुल मेरी दोस्त थी और उसी ने भाटिया को मेरे लेखन के सिलसिले में बताया था। एक दिन डॉक्टर भाटिया ने बातों ही बातों में मुझसे पूछा था कि मैं अपनी कहानियों के लिए पात्र कहाँ से लाता हूँ तो मैंने हँसते हुए जवाब दिया था कि कहानियों के पात्र न तो तय करके कहीं से लाये जा सकते हैं और न ही लाकर तय ही किये जा सकते हैं। बहुत सारी बातें होती हैं जो पात्रों के चयन का फैसला करती हैं।
"लेकिन किसी न किसी तरह से पात्र का चयन तो करते होंगे आप लोग?" उन्होंने ज़ोर देकर पूछा था।
मैंने कहा था उनसे कि कौन व्यक्ति कब और कैसे हमारी किसी रचना का पात्र बनता चला जाता है और हमें पता भी नहीं चलता, बल्कि ये कहना भी बहुत मुश्किल होता है कि जो व्यक्ति हमारी किसी रचना का पात्र बना है, वह हू-ब-हू वैसा ही हमारी कहानी में उतरेगा भी या नहीं। कई-कई बार एक ही पात्र रचने के लिए हम बीसियों व्यक्तियों के जीवन की घटनाएँ उठाते हैं तो कई बार एक ही व्यक्ति के इतने रूप हमारे सामने खुलते हैं कि जितनी मर्जी कहानियाँ लिख लो।
"लेकिन कुछ न कुछ तो ऐसा होता होगा सामने वाले व्यक्ति में कि उसमें से आप लोग कहानी तलाश कर लेते हों।"
"होता भी है और नहीं भी होता। दरअसल, पहले से कुछ भी तय नहीं किया जा सकता कि सामने वाला व्यक्ति हमें सारी सम्भावना के बावजूद कोई कहानी देकर जायेगा ही।"
"और अगर मैं आपको कहानी की असीम सम्भावनाओं वाले पात्र से मिलवाऊं तो?" वे अभी भी अपनी जिद पर अड़े थे।
"मैंने कहा ना कि जरूरी नहीं कि मुझे उसमें कहानी की सम्भावनाएँ नजर आयें ही। हो सकता है उस पर कहानी तो क्या लतीफा भी न कहा जा सके और ऐसा भी हो सकता है कि वह पात्र मुझे इतना हांट करे और पूरा उपन्यास लिखवा कर ही मेरा पीछा छोड़े। लेकिन ये सारी बातें तो आपके पात्र से मिलने के बाद ही तय हो सकती हैं। किस बाँस से बाँसुरी बनेगी, ये तो बाँस देखकर ही तय किया जा सकता है।
"आप एक काम करें। कल बारह बजे के करीब मेरे डिपार्टमेंट में आ जायें। वहीं आपको मैं एक ऐसी ही शख्सियत से मिलवाऊंगा जिसे आप हमेशा याद रखेंगे। कहानी तो आप उस पर लिखेंगे ही, ये मैं आपको अभी से लिखकर दे सकता हूँ।"
"जरूर लिखूँगा कहानी, अगर वो खुद लिखवा ले जाये।"
"आप लिखें या न लिखें वह खुद लिखवा ले जायेगा।"
और इस तरह से बाबू भाई पंड्या से मुलाकात हुई थी मेरी।
मैं ठीक बारह बजे डॉक्टर भाटिया के पास पहुँच गया था। हम दोनों अभी चाय पी ही रहे थे कि केबिन का दरवाजा खुला और एक बहुत ही बूढ़ा सा आदमी अन्दर आया और बोला, "नमस्कार डॉक्टर साहब।"
डॉक्टर ने उसके नमस्ते का जवाब दिया और उसके हाल-चाल पूछे। तभी उस बूढ़े आदमी ने एक लिफाफा मेज पर रखते हुए कहा, "डॉक्टर साहब, ये आपका टेलिफोन का बिल जमा करा दिया है और ये आपने अपने भाई के लिए जो फार्म मँगवाये थे, वो भी लाया हूँ, भगवान उसे भी खूब तरक्की दे।"
"ठीक है बाबू भाई। और कुछ?" डॉक्टर भाटिया ने उससे पूछा था और मेरी तरफ इशारा किया था कि यही है वो आदमी जिससे मिलवाने के लिए मैं आपको यहाँ लाया हूँ और जिस पर आपको कहानी लिखनी है।
मैंने तब गौर से उस बूढ़े व्यक्ति को देखा था। उम्र होगी पिचहत्तर से अस्सी के बीच, नाटा कद, गंजा सिर लेकिन चेहरे पर गजब का आत्मविश्वास और एक तरह की ऐसी चमक जो जीवन से जूझ रहे लोगों के चेहरे पर सहज ही आ जाया करती है। वे सीधे और तनकर खड़े थे और कहीं से ये आभास नहीं देते थे कि लगे, उम्र के इतने पड़ाव पार कर चुके हैं।
बाबू भाई पंड्या डॉक्टर भाटिया से कह रहे थे, "डॉक्टर साब, बाकी तो सब ठीक है, बस जरा एक मेहरबानी चाहिए थी।"
"बोलो ना बाबू भाई।"
"वो जो चार नम्बर वार्ड में तेरह नम्बर का मरीज है उसे रात भर नींद नहीं आती। बेचारा कमजोर बहुत हो गया है। मैंने डॉक्टर भट्ट से कहा भी था कि उसके लिए कोई स्पेशल खुराक लिख दें तो बेचारा ठीक होकर काम पे जावे। बहुत ईमानदार आदमी है बेचारा। लेकिन क्या करे। अस्पताल में पड़ा है। घर में अकेला कमाने वाला। ठीक हो के जायेगा तो बच्चों के लिए कमाकर कुछ लायेगा। आपको दुआएँ देगा।"
"ठीक है बाबू भाई। उसके केस पेपर्स मेरे पास ले आना। मैं कर दूँगा। और कुछ बाबू भाई?"
"बस इतनी मेहरबानी हो जावे तो एक गरीब परिवार आपको दुआएँ देगा।"
और इससे पहले कि बाबू भाई हाथ जोड़ कर बाहर जाते, डॉक्टर भाटिया ने उन्हें रोकते हुए कहा था, "बाबू भाई ये मेरे दोस्त हैं चन्दर रावल। एक बड़ी कम्पनी में काम करते हैं और खूब अच्छी कहानियाँ लिखते हैं।"
बाबू भाई पंड्या ने मेरी तरफ देखते हुए तुरन्त हाथ जोड़ दिये थे और कहा था, "भगवान आपको लम्बी उमर दे साब। राइटर तो साब, भगवान के दूत होते हैं।" और उन्होंने अपने कन्धे पर लटके थैले में से कुछ पोस्टकार्ड निकालकर मुझे थमा दिये थे, "आप लोग तो दुनिया जहान की बातें अपनी कहानियों में लिखते होंगे। आपके पास तो बहुत सारी मैगजीनें भी आती होंगी। ये मेरे पते लिखे कुछ कार्ड हैं। जब भी आपके पास या किसी मेल-जोल वाले के पास पुरानी मैगजीनों की पास्ती होवे ना तो उसे बेचने का नहीं, मुझे ये कार्ड डाल देना, मैं आकर ले जाऊँगा।"
मैं हैरान रह गया था। कभी कोई पुरानी पत्रिकाएँ भी इतने आग्रह से माँग सकता है और अस्पताल में पुरानी पत्रिकाएँ भी उपयोग में लायी जा सकती हैं, मैं सोच भी नहीं सकता था।
पोस्टकार्ड पर पाने वाले के पते की जगह पर उनके पते की मुहर लगी हुई थी।
"आप पुरानी पत्रिकाओं का क्या करेंगे बाबू भाई?" मैं उनके मुँह से ही सुनना चाहता था।
"देखो साब, ऐसा है कि जो लोग दर्दी से मिलने कू आवे ना तो खाली बैठा-बैठा दूसरे को गाली देता रहता है, सास होगी तो बैठी-बैठी बहू की बुराई करेगी और क्लर्क होगा तो बॉस की बुराई करेगा। इससे दर्दी को बहुत तकलीफ होती है। वो बेचारा अपने मुलाकाती को तो कुछ कह नहीं सकता। सो इस वास्ते मैं सबसे बोलता हूँ पुरानी चोपड़ियो होवे तो बाबू भाई पंड्या के पास मोकलो। मैं इदर दर्दी और उसके मुलाकाती को दे देता हूँ, पढ़ो और कुछ अच्छी बातें गुनो। मैं सब लोग से इस वास्ते बोलता हूँ कि पास्ती वाला तो दो रुपये किलो लेवेगा, पर यहाँ सब लोग उन्हें पढ़ेंगे तो उनका टाइम भी पास होवेगा और कुछ ज्ञान-ध्यान की बातें भी सीखेंगे। मेरे पास एक कपाट है। साब लोगों की मेहरबानी से मिल गया है। उसी में रखवा देता हूँ और रोज सुबे राउंड पर निकलता हूँ तो सबको दे देता हूँ।"
वाह..कितनी नयी कल्पना है। इतने बरसों से सैकड़ों की तादाद में पत्रिकाएँ आती रही हैं मेरे पास। खरीदी हुई भी और वैसे भी, लेकिन आज तक मेरी पत्रिकाओं को मेरे अलावा कभी कोई दूसरा पाठक नसीब नहीं हुआ होगा। कहाँ थे बाबू भाई आप अब तक। मैं मन ही मन सोचता हूं।
"जरूर दूँगा पत्रिकाएँ आपको बाबू भाई, और कोई सेवा हो तो बोलिए।"
"बस साहब जी, आप लोगों की मेहरबानी बनी रहे।"
और वे हाथ जोड़कर चले गये थे। मैं उस शख्स को देखता रह गया था। डॉक्टर भाटिया बता रहे थे, "यही है आपकी अगली कहानी का पात्र। रिटायर्ड सीआइडी इन्स्पैक्टर बाबू भाई पंड्या। उम्र लगभग अस्सी साल। एक पुरानी सी मोपेड है इनके पास, उस पर रोजाना प्रगति नगर से आते हैं और दिन भर यहाँ मरीजों की सेवा करते रहते हैं। सारे डिपार्टमेन्ट्स के मरीज और उनके सगे वाले ही इनके असली परिवार है।"
"लेकिन वे तो आपके फोन बिल जमा करके आये थे वो ..?"
"दरअसल वे किसी का कोई भी अहसान नहीं लेना चाहते। हम लोगों के छोटे-मोटे काम कर देते हैं और बदले में मरीजों के लिए कुछ न कुछ माँग लेते हैं।"
"यार, ये तो अद्भुत कैरेक्टर है। इस व्यक्ति को गहराई से जानने की जरूरत है ताकि पता चले कि कौन सी शक्ति है जो इसे इस उम्र में भी इस तरह की अनूठी सेवा से जोड़े हुए है। घर में और कौन-कौन है इसके?"
"मेरे खयाल से तो सब हैं। बच्चे अफसर वगैरह हैं।"
"और बीवी?"
"बाबू भाई पंड्या के साथ बस, एक ही दिक्कत है कि वे अपने बारे में बात भी नहीं करते। आप उनसे मरीजों के बारे में, उनकी तकलीफों के बारे में और उनकी जरूरतों के बारे में घंटों बात कर लीजिए, लेकिन उनके बारे में यकीनी तौर पर किसी को कुछ भी नहीं मालूम। सब सुनी सुनायी बातें करते हैं। कोई कहता है कि बीवी के मरने पर वैरागी हो गये और सेवा से जुड़ गये तो कोई बताता है कि अरसा पहले इनकी कस्टडी में एक बेकसूर कैदी की मौत हो गयी थी। कुछ इन्क्वायरी वगैरह भी चली थी। उसकी मौत ने इन्हें भीतर तक हिला दिया और तब से मरीजों की सेवा में अपने आपको लगा दिया है। ये सब सुनी-सुनायी बाते हैं। अब राइटर महोदय, ये आप पर है कि कोई नयी थ्योरी लेकर आयें तो सारे रहस्यों पर से परदा उठे।"
"लेकिन ये होगा कैसे?" मैं पूछता हूँ।
"आप एक काम करो यार। दो-चार दिन इसके साथ गुजारो तो ही इसे जान पाओगे या एक और तरीका है। पुरानी मैगजीनों के बहाने उसे बुलाओ अपने यहाँ और तब इसकी भीतरी परतें खोलने की कोशिश करो। मैंने बताया था ना। शानदार कैरेक्टर।"
"न केवल शानदार बल्कि ऐसा कि आज के जमाने में उस जैसा बनने की सोच पाना भी मुश्किल।"
यह मेरी पहली मुलाकात थी बाबू भाई पंड्या से। मैं सचमुच विचलित हो गया था उनसे मिलकर और डॉक्टर भाटिया की बतायी बातों को सुनकर। जीवन कितना विचित्र होता है। एक अस्सी साल का बूढ़ा आदमी, जिसे अरसा पहले जीवन की आपा-धापी से रिटायर होकर आराम से अपना वक्त भजन पूजा में गुजारना चाहिए था, इस तरह से दीन दुखियों की सेवा में लगा हुआ है।
और अगली बार मैं एक दिन सुबह-सुबह ही अस्पताल पहुँच गया था। हाथ में ढेर सारी पत्रिकाओं के बंडल लिये। डॉक्टर भाटिया ने बताया था कि वे आठ बजे ही पहुँच जाते हैं ताकि डॉक्टरों के राउंड से पहले ही एक राउंड लगाकर मरीजों की समस्याओं के बारे में जान सकें और उनके लिए डॉक्टरों से सिफारिश कर सकें। मैं बाबू भाई पंड्या की दिनचर्या का पूरा एक दिन अपनी आँखों से देखना चाहता था। कुछेक दिन उनके साथ गुजारना चाहता था ताकि मैं इस चरित्र को नजदीक से जान सकूँ।
मेरे कई बरस के लेखन में यह पहली बार हो रहा था कि कहानी का जीता जागता पात्र मेरे सामने था और मुझे इस तरह से अपने आपसे जोड़ रहा था। वैसे अभी उसके बारे में कुछ भी साफ नहीं था कि ये चरित्र आगे जाकर क्या मोड़ लेगा और अपने बारे में क्या-क्या कुछ लिखवा ले जायेगा।
मैं आठ बजे ही अस्पताल में पहुँच गया था और अस्पताल के बाहर बेंच पर बाबू भाई पंड्या का इन्तजार करने लगा। मैंने अपने आने के बारे में डॉक्टर भाटिया को भी नहीं बताया था। मैं अपनी खुद की कोशिशों से इस व्यक्ति के भीतरी संसार में उतरना चाहता था और सब कुछ अपनी निगाहों से देखना चाहता था।
सवेरे के वक्त सिविल अस्पताल में जिस तरह की गहमा-गहमी होती है मैं देख रहा था। मरीज आ रहे थे, भाग-दौड़ कर रहे थे। चारों तरफ कराहें, तकलीफों और दर्द का राज्य। अस्पताल के नाम से ही मुझे हमेशा से दहशत होती है। चाहे अपने लिए अस्पताल जाना पड़े या किसी और के लिए, यहाँ दर्द की लगातार बहती नदी को पार करना मेरे लिए हमेशा मुश्किल रहा है।
तभी बाबू भाई पंड्या आ पहुँचे। अपनी मोपेड से मैगजीनों के भारी बंडल उतारने लगे। थैले वाकई भारी थे और उनके लिए ढोकर लाना मुश्किल। यही मौका था जब मैं जाकर उनसे बातचीत की शुरुआत कर सकता था और उनका विश्वास जीत सकता था।
"नमस्ते बाबू भाई। कैसे हैं?" मैंने उनके हाथ से थैला लेते हुए कहा।
"अरे आप हैं। राइटर साहब। नमस्ते। आप क्यों तकलीफ करते हैं। मैं ले जाऊँगा। पास ही तो है।" उन्होंने मेरा हाथ रोका।
"रहने दीजिए बाबू भाई। आप सबके लिए इतनी तकलीफ उठाते हैं और सबका कितना खयाल रखते हैं। मैं क्या आपकी इतनी भी मदद नहीं कर सकता।"
बाबू भाई पंड्या का जवाब था, "देखो साब, अगर हम सब एक दूसरे का खयाल रखें तो ये जीवन कितना सुखी हो जावे। पर हम सब दूसरे की कहाँ सोचते हैं। हम अगर किसी को खाना नहीं खिला सकते तो ना सही, लेकिन पानी तो पिला ही सकते हैं। उसके पास दो घड़ी बैठ सकते हैं। कैसे आना हुआ सुबह-सुबह, कोई मरीज है क्या इधर?"
"नहीं बाबू भाई। यूँ ही इधर से जा रहा था। सोचा आपसे भी मिल लूँगा और आपको थोड़ी मैगजीनें भी दे दूँगा।"
"बहुत अच्छा किया आपने। बहुत पुण्य का काम होता है किसी के काम आना। मैं तो सबसे यही कहता हूँ कि जो चीज आपके आप अपनी उमर पूरी कर चुकी है और अब आपके किसी काम की नहीं है, तो उसे दूसरों के पास जाने दो। उस आदमी के पास उसका कोई न कोई इस्तेमाल निकल ही आयेगा। वह चीज फिर से पहले जैसी काम की हो जायेगी। एक नया जीवन मिलेगा उसे।"
मैं उनकी सीधी-सादी फिलासफी पर मुग्ध हो गया। कितनी सहजता से वे बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं। कहीं कोई आडम्बर नहीं, कोई टीम टाम नहीं।
हम दोनों ने उनकी अलमारी में मैगजीनों के बंडल रखवाये। उनकी अलमारी में अद्धुत खजाना भरा हुआ था। किताबें और पत्रिकाएँ तो थीं ही, बच्चों के लिए पुराने खिलौने, प्लास्टिक की नलियाँ, गिलास, मिठाई की गोलियाँ वगैरह भी थीं। वे ये सारी चीजें एक थैले में भरने लगे।
"तो चलूँ अपने राउंड पर?" वे मेरी तरफ देखकर पूछने लगे।
"अगर मैं भी आपके साथ चलूँ तो आपको कोई एतराज तो नहीं होगा", मैंने संकोच के साथ पूछा। बाबू भाई को उनके काम के जरिये ही जाना जा सकता था।
"हाँ चलो ना, इसमें क्या।"
और हम दोनों राउंड पर निकल पड़े। सबसे पहले वे बच्चों के वार्ड की तरफ गये। सारे बच्चे उन्हें देखते ही आवाजें लगाने लगे, "बाबू भाई आये मिठाई लाये..बाबू भाई आये गोली लाये।" और उन्होंने अपने थैले में से पुराने ग्रीटिंग कार्ड, मिठाई की गोलियाँ और छोटे-छोटे लट्टू जैसे खिलौने निकालकर बच्चों में बाँटना शुरू कर दिया।
"केम छो बाबा, लो तेरे वास्ते ये अपनी करिश्मा कपूर ने कार्ड भेजा है कि बच्चा जल्दी से अच्छा हो जावे तो मैं उसको मिलने को आवेगी। मेरे को फोन करके बोली कि क्या नाम है उसका ..हाँ..हाँ..अपने सुन्दर का..उसका खयाल रखना। मैंने डॉक्टर से कह दिया है। आके तपास कर जावेगा।" वे बच्चे के गाल पर हाथ फिरा देते।
वे फिर एक और बच्चे के पास गये।
बच्चा उन्हें देखते ही मुस्कुराया, बाबू भाई न टउसे छेड़ा, "क्यों रे मास्तर, रात को नींद आयी
थी या तारे गिनता रहा।
बच्चा खुलकर हँसा, "आयी थी।"
बच्चे की माँ उन्हें बच्चे के बारे में बताती है।
"फिकिर नहीं करो बेन। सब ठीक हो जायेगा और बच्चा पहले की तरह खेलने लगेगा।" एक और बच्चे के पास जाकर वे उसकी नब्ज देखते हैं। बच्चे की माँ बताती है कि दर्द के मारे बच्चे को बहुत परेशानी हो रही है।
"कोई बात नहीं। ये तो एकदम फरिश्ता लड़का है। वेरी स्वीट बॉय। अभी देखना हम इसे देखने के लिए अस्पताल के सबसे बड़े डॉक्टर को लेकर आते हैं। ये तो बहुत लवली बॉय है। मैं इसे एक मीठी गोली देता हूँ। खा लो बच्चे। इससे दाँत भी खराब नहीं होते और भूख भी नहीं लगती। ले लो। स्पेशल लन्दन से मँगवायी है मैंने बच्चों के लिए। अभी तुम एकदम अच्छे हो जाओगे और फिर से फुटबाल खेल सकते हो।"
मैं देख रहा था उनका राउंड लेना ठीक बड़े डॉक्टर के राउंड लेने जैसा ही है। लोग उनके आते ही खड़े हो जाते। ठीक वैसे ही प्रणाम करते जैसा डॉक्टरों को किया जाता है।
मरीज के साथ वाले उन्हें अपने मरीज के बारे में बता रहे थे और वे कोई न कोई आश्वासन जरूर दे रहे थे। मैंने पाया कि उनके प्रति सभी में अपार श्रद्धा है और अगाध प्रेम है उनके मन में अपने मरीजों के प्रति। कहीं कोई दिखावा या आडम्बर नहीं।
एक दूसरे वार्ड में एक आदमी पानी पीने के वास्ते उठ नहीं पा रहा था। वे उसके पास जा के पानी पिलाते हैं और थैले में से प्लास्टिक की नली निकालकर उसे देते हैं, "जब भी प्यास लगे तो इस नली को मुँह से लगा लेना और लेटे-लेटे पानी पी लेना। कोई तकलीफ नहीं होवेगी।"
वह आदमी करुणापूरित नयनों से उन्हें देखता रह गया। दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम किया उसने बाबा को।
एक अन्य वार्ड में बाबू भाई ने मैगजीनें, फल और दूसरी चीजें बाँटी। हाल-चाल पूछे।
एक मरीज उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करता है।
"भाई केम छो?" बदले में बाबू भाई पंड्या उसके कन्धे पर हाथ रखकर पूछते हैं, "तू अपनी कह, कैसा है। ले तेरे लिए मिनिस्टर साहब ने सन्तरे भिजवाये हैं, बोला है कि टाइम मिलते ही आऊँगा मिलने।"
हम पूरे अस्पताल का ही राउंड लगा रहे थे। डॉक्टरों के तो वार्ड बँधे होते हैं। बच्चों के डॉक्टर बच्चों के वार्ड में और हड्डियों के डॉक्टर अपने वार्ड में लेकिन बाबू भाई का कोई तय वार्ड नहीं था। सारे वार्ड उनके थे। सारे मरीज उनके थे। वे सबके सगे थे और सब उनके सगे। वे सबको प्रणाम कर रहे थे और सब उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे थे।
बाबू भाई पंड्या को देखते ही एक जवान लड़का उनके पैर छूकर प्रणाम करने लगा। बाबू भाई पंड्या उसे उठाते हैं, "बेटा मेरे पैर नहीं पकड़ो। ऊपर वाले की मेहरबानी है कि वक्त पर तुम्हारे बापू को मदद मिल गयी और उनकी जान बच गयी।"
लड़का अभी भी हाथ बाँधे खड़ा था। एकदम रोने को हो आया, "आप न होते तो उन्हें तो कोई अन्दर नहीं आने दे रहा था। आप ही की वजह से.." उसने दोनों हाथों से बाबू भाई पंड्या के हाथ पकड़ लिये हैं, "मैं कैसे आपका अहसान चुकाऊँगा।"
बाबू भाई पंड्या उसे दिलासा देते हैं, "मुझे कुछ नहीं चाहिए बेटा। अगर तुम कुछ करने की हालत में हो तो एक काम करो। एक दुखी परिवार तुम्हें दुआएँ देगा।"
लड़का कहने लगा, "आप हुकुम करो बाबू भाई।"
बाबू भाई पंड्या उसे बता रहे हैं, "वार्ड नम्बर तीन में बिस्तर नम्बर सोलह पर एक दर्दी है। उसे आज रिलीव करने वाले हैं। उसके घर से कोई लेने वाला आया नहीं है। अस्पताल वाले तो उसे वरांडे में डाल देंगे। बेचारा फिर से बीमार हो जायेगा। तुम एक काम करो। उसे उसके घर तक भिजवाने का इन्तजाम करा दो तो समझो तुम्हारे बप्पा का काम हुआ है। जय श्री कृष्ण।"
लड़का खुश हो गया था, "हो जायेगा। और कुछ बाबू भाई?"
बाबू भाई पंड्या ने उसके कन्धे पर हाथ रखा, "बस, एक बात और, अपने माँ-बाप की खूब सेवा करो। उनकी सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं। बूढ़े लोग दो बात कड़वी भी बोलें तो नीम के पत्ते समझ के ले लो। फायदा ही करेंगे।"
लड़के ने एक बार फिर से बाबू भाई के पैर छूए और चला गया।
हम पूरा राउंड लगाकर वापस आ गये।
बात आगे बढ़ाने की गरज से मैंने पूछा, "बाबू भाई आप रहते कहाँ हैं ?"
बाबू भाई बताने लगे, "थोड़ी दूर है घर मेरा। प्रगति नगर में।"
मैं आगे पूछता हूँ, "आप यहाँ रोज आते हैं?"
"हाँ भाई। अब तो रोज ही आता हूँ। सुबे आठ बजे तक आ जाता हूँ और रात को ही जाता हूँ।"
"और आपका घर बार, आपका काम?"
"भाई ये काम ही तो कर रहा हूँ मैं। ईश्वर के बन्दों का काम। देखो साहब, यहाँ तरह-तरह के दर्दी आते हैं। किसी-किसी वार्ड में तो महीना-महीना भी रहना पड़ता है। तो ऐसे दर्दी के साथ उसके घर वाले काम-धन्धा तो छोड़ के नहीं बैठ सकते ना। और फिर छोटे-छोटे बच्चे होते हैं, गरीब लोग होते हैं, जिनका कोई नहीं होता। बूढ़े होते हैं जिनसे कोई बात करने वाला नहीं होता। फिर अस्पताल का स्टाफ बेचारा किस-किसकी सुने। वे भी बेचारे थक जाते हैं। गर्दी इतनी है, तो ये बाबू भाई पंड्या है ना, इसे घर पर तो कोई काम है नहीं, सो आ जाता है।"
"लेकिन आप ये सब करते हैं इसके लिए तो ढेर सारे पैसे चाहिए ना।"
"ना ना.. पैसा तो आप सबका है, मेरे तो बस ये दो हाथ हैं, वही काम करते हैं। पैसा तो ऊपर वाला भेजता ही रहता है। चलिए साहब, जरा गेट तक हो आयें। कुछ फल आये होंगे, मरीजों के लिए। ले आवें।"
मैं हैरान हो गया-किसने भेजे होंगे।
"बहुत लोग हैं। भेजते रहते हैं। एक एमएलए साब हैं। वे हर दिन एक टोकरा फल भिजवाते हैं। एक और साहब हैं, वे बच्चों के लिए खुराक भिजवा देते हैं। और भी कई लोग हैं जो अलग-अलग सामान भिजवाते रहते हैं। मैं आगे दे देता हूँ। बस.. मैं तो बस डाकिया हूँ ऊपर वाले का .."
"आप कब से ये काम कर रहे हैं?"
"बीस बरस तो हो ही गये होंगे। रिटायरमेंट के बाद से ही सेवा के इस काम से जुड़ गया था।"
"आप क्या करते थे?"
"पुलिस में सीआइडी इन्सपेक्टर था। तब किसी न किसी केस के लिए अस्पताल के चक्कर काटने पड़ते थे। मैं गरीब मरीजों को देखता। बेचारे राह देखते, कोई उनकी सेवा के लिए आये। एक गिलास पानी पिलाये। तब मैं सिर्फ छुट्टी के दिन आया करता था। रिटायर होने के बाद तो मैंने अपने जीवन का यही मिशन बना लिया है। अब तो जीना-मरना यहीं है।"
"बाबू भाई, आप बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। मैं देख रहा हूँ कि लोग यहाँ इतने परेशान हैं कि कोई सुनता ही नहीं है उनकी। गरीब आदमी की तो कोई सुनवाई ही नहीं है यहाँ।"
मैं महसूस कर पा रहा था कि वे अपने बारे में बातें करते हुए सहज नहीं थे और बड़ी बेचैनी महसूस कर रहे थे। जो कुछ भी उन्होंने बताया, ऊपरी तौर पर मोटी-मोटी बातें ही बतायीं। मैंने उन्हें ज्यादा नहीं सताया। डॉक्टर भाटिया इशारा कर ही चुके थे।
"ठीक कहते हैं आप।" वे बात आगे बढ़ाते हैं, "देश में गरीब आदमी की कहीं भी सुनवायी नहीं है। उस बेचारे को तो अपनी बात कहने का हक ही नहीं है। अब मुझसे जितना हो पाता है, मैं करता हूँ और रात को जब सोता हूँ तो तसल्ली होती है कि आज का दिन बेकार नहीं गया।"
हम गेट पर पहुँचे। वहाँ दो टोकरे सन्तरे और केले वगैरह पान की दुकान के बाहर रखे थे।
बाबू भाई को देखते ही पान वाला कहने लगा, "बाबू भाई, अभी कोई आदमी आपके लिए ये लिफाफा छोड़ गया है। बोल रहा था, बाद में मिलने आयेगा।"
बाबू भाई ने लिफाफा खोलकर देखा। ढेर सारे पुराने ग्रीटिंग कार्ड थे। वे खुश हो गये, "चलो अच्छा हुआ। कार्ड खतम भी हो रहे थे।"
मैं अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाता, "आप बच्चों को ये पुराने कार्ड क्यों देते हैं?"
"इन गरीब बच्चों को नये कार्ड कौन भेजेगा और क्यों भेजेगा? तो मैं लोगों से कहता हूँ कि भई पुराने कार्ड फाड़ कर फेंकने के बजाये मुझे दे दो। बच्चों को बहलाता रहूँगा कि माधुरी दीक्षित ने भेजा है और शाह रुख खान ने भेजा है। बच्चे खुश हो जाते हैं। और हमें क्या चाहिए। बच्चे के चेहरे की मुस्कराहट से ज्यादा कीमती चीज दूसरी नहीं होती साहब। हम बस यही काम नहीं करते, भूल जाते हैं। बच्चे कोई सोना-चाँदी नहीं माँगते, जमीन जायदाद नहीं माँगते, उनके गाल पर प्यार से हाथ फेर दो और दुनिया के सबसे खूबसूरत फूल खिलते हुए देख लो। आइए मैं आपको दिखाऊँ।"
बाबू भाई मेरा हाथ पकड़कर एक बच्चे के पास लेकर जाते हैं। बच्चे के पैर पर पलस्तर लगा हुआ था। उन्हें देखते ही बच्चा खुश हो गया। हाथ जोड़कर नमस्ते की। बाबू भाई उसके सिर पर हाथ फेरते हैं और उसके सामने सौ रुपये का एक नोट, फूलों वाला एक खूबसूरत कार्ड और एक टॉफी रखते हैं, "लो बेटा, कोई एक चीज चुन लो"
बच्चा भोलेपन से पूछता है, "मैं ये कार्ड ले लूँ। और ये टाफी भी...?"
बाबू भाई, "ले लो बेटे...दोनों ले लो।" बच्चा कार्ड पाकर बेहद खुश हो गया था।
पूछा था बच्चे ने, "मेरे लिए है ये?"
"हाँ बेटा तेरे लिए ही है। अपनी वो तब्बू है ना, वो कल रात आयी थी इधर। तू तो सो रहा था तो मेरे पास आयी और बोली कि अभी मैं जाती हूँ। मेरी तरफ से ये कार्ड मुन्ना राजा को दे देना।"
हम देख रहे थे कि बच्चा कार्ड पाकर बेहद खुश हो गया है।
बाबू भाई बताने लगे, "देखा? बच्चे के चेहरे के बदलते हुए रंग को? बच्चों को खुश करना कितना आसान होता है। बस मैं यही तो करता हूँ।"
मैं भावुक होने लगा था। पता नहीं कैसे ये ख्याल मन में आ रहा था कि इस देवता के पैर छूकर उसे प्रणाम करूँ और कहूँ - मुझे भी अपने साथ जोड़ लीजिए। मैं पता नहीं क्यों कागज काले करते हुए ये मोह पाले हुए हूँ कि इससे क्रान्ति आ जायेगी, मेरे लिखे से समाज का भला हो जायेगा या सब लोग सुखी हो जायेंगे।
मैं देख रहा था कि असली मानव सेवा तो ये अस्सी बरस का बूढ़ा कर रहा है और बदले में किसी से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता। कुछ भी तो नहीं। जो कुछ माँगता है इन मरीजों के लिए ही माँगता है। हे देव, प्रणाम है तुम्हें। मैं तो तुम्हारे पासंग खड़े होने लायक काम भी नहीं करता। दावे बेशक इतने बड़े-बड़े करता होऊँ।
भावुक होकर कहा था मैंने, "बाबू भाई एक बात बोलूँ।"
बाबू भाई मेरे कन्धे पर हाथ रखकर बोले, "बोलिए ना साब। आप तो खुद इतना बड़ा काम कर रहे हो। लिखने का। समाज में जो भी अच्छा बुरा है उसको सामने लाने का काम तो बहुत बड़ा होता है साहब।"
"मैं कभी-कभी आकर आपके साथ काम कर सकता हूँ क्या, ये छोटे-छोटे काम। अगर कुछ और नहीं तो टाइम तो दे ही सकता हूँ।" हालांकि मैं जानता हूँ कि संवाद मेरे भीतर से नहीं आ रहा। श्मशान वैराग्य है ये। घर जाते ही मैं दुनियावी धन्धों में फँस जाऊँगा। मैं दो बार भी आकर इनके साथ राउंड लगा लूँ तो भी बहुत बड़ी बात होगी। मुझसे हो ही नहीं पायेगा। लेकिन फिर भी कह तो दिया ही था मैंने।
"आप जरूर आना। ये अस्पताल एक तरह से बहुत बड़ा स्कूल है। जीवन का स्कूल। यहाँ आपको हजार तरह के आदमी मिलेंगे। अच्छे भी बुरे भी। यहाँ जीवन को आप बहुत नजदीक से देखेंगे। असली जीवन तो यहीं है साब। दुख, तकलीफ, फिर भी चेहरे पर हँसी। एक दूसरे के लिए कुछ करने की इच्छा। और क्या होता है जीवन में साहब। दो मीठे बोल बोले और सब कुछ पा लिया। अब चलूँ मैं साहब। आप चाहें तो अपने डॉक्टर दोस्त के पास बैठें। मैं जरा अपने पुराने मरीजों की नहाने-धोने में मदद करूँ। नर्स बेचारी भी कितने मरीजों की सेवा करे। थक जाती हैं वे भी तो।"
और वे मुझे लम्बे गलियारे के बीच में ही छोड़कर चले गये थे।
***
मैं एक ही हफ्ते बाद ही जब अस्पताल पहुँचा था तो पता चला, बाबू भाई कहीं गये हुए हैं। बस आते ही होंगे। मैं वहीं बेंच पर बैठ कर इन्तजार करने लगा था। मेरे पास ही बेंच पर कुछ बच्चे बैठे हुए थे। उनमें एक बच्चे के पैर में सूजन थी। मैं उनके इतने नजदीक बैठा था कि उनकी पूरी बात सुन पा रहा था।
"मैं तुझे बोला था ना .. वो हड्डी जोड़ने वाले बंगाली के पास लेकर जाते और वो फटाक से हड्डी जोड़ देता पर तुम लोग माने ही नहीं। यहाँ ले के आ गये।" उनमें से एक कह रहा था।
ये सुनते ही सूजे पैर वाला लड़का रोने लगा।
दूसरा उसे चुप करा रहा था। "तू क्यों रो रहा है रे मुन्ना। ये हमारी सिरदर्दी है कि तेरा इलाज होना चाहिए। रो नहीं। कोई न कोई रास्ता निकल आयेगा।"
सूजे पैर वाला वही लड़का कह रहा था, "मैं हमेशा तुम लोगों को तंग करता रहता हूँ।"
बड़ा लड़का जवाब में बोला, "तो क्या हुआ? हम तेरे दोस्त ही तो हैं।"
वही लड़का, "इतने पैसे कहाँ से लाओगे?"
बड़ा लड़का, "वो सोचना तेरा काम नहीं है। कुछ न कुछ करेंगे।"
वही लड़का, "देख कबीरा। इसे ऐसे ही रहने दें। अपने आप ठीक हो जायेगा। वह उठने की कोशिश कर रहा था।
कबीरा, "तू चुप चाप बैठ और हमें सोचने दे।"
लड़के फुटपाथ पर काम करने वाले लग रहे थे। ऐसे मरीजों की अस्पताल में क्या हालत होती है, हर कोई जानता है। अस्पताल में ही क्यों, कहीं भी।
काश.. हर अस्पताल में दस-बीस बाबू भाई पंड्या होते। कोई तो इनके हक की बात करने वाला होता। आसपास जितने भी मरीज नजर आ रहे थे, सारा दिन यहाँ से वहाँ तक धकियाये जायेंगे और शाम ढलने पर अस्पताल में होने के बावजूद सबकी तकलीफ बढ़ चुकी होगी।
मैं उन बच्चों की गतिविधियाँ देख ही रहा था कि तभी हमारी ही बेंच पर बैठे एक आदमी ने पूछा बच्चों से, "क्या बात है। क्यों परेशान हो?"
बड़े लड़के ने बताया, "ये हमारा दोस्त है। सड़क पार करते समय गिर गया। डॉक्टर पहले बोला कि इक्सरे कराओ और अब बोलता है पिलस्टर लगेगा। दवा बाज़ार से लाने के वास्ते बोला है।"
वह आदमी पूछने लगा, "पैसे नहीं है क्या?"
लड़के ने सिर हिलाया, "नहीं हैं।"
वह आदमी दिलासा देने लगा, "तो घाबरने का नई। बाबू भाई पंड्या के पास जाओ। वोई काम करा देगा।"
अब मुझे पूरे मामले में दिलचस्पी होने लगी कि देखें क्या होता है और ये बच्चे क्या करते हैं।
लड़का हैरानी से पूछ रहा था, "ये बाबू भाई पंड्या कौन है?"
वह आदमी बताने लगा, "है एक भला आदमी। उसी को ढूँढो। मिल जावे तो उसे अपनी बात बोलो। मदद करेगा। भगवान है वो। उसके दर से कोई खाली नहीं जाता।"
वह लड़का आगे पूछ रहा था, "किदर मिलेगा वो?"
उस आदमी ने तब बताया, "कहीं भी देखो उसे। किसी न किसी दर्दी के पास मिल जायेगा।"
उस लड़के के चेहरे पर चमक आ गयी थी, "तुम लोग यहीं ठहरो। मैं उसे देख के आता है। चल सत्ते तू भी चल।"
मैं जानता था, बाबू भाई पंड्या अभी नहीं आये हैं। चाहता तो इन बच्चों को बता भी सकता था और उनके आने पर उनसे मिलवा भी सकता था। मदद के लिए अलबत्ता उनसे कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती। अपने-आप ही मिल जाती लेकिन मैं देखना चाहता था कि इन बच्चों से उनका संवाद कैसे होता है?
कबीरा नाम का वह बड़ा लड़का कई लोगों से बाबू भाई पंड्या के बारे में पूछ रहा था। लोग उसे कभी दायें तो कभी बायें भेज रहे थे। एक आदमी ने तो उसे बाहर की तरफ ही भेज दिया। बाकी लड़के भी परेशान से पूरे अस्पताल में बाबू भाई को खोज रहे थे।
उस दिन मेरी बाबू भाई से मुलाकात हो नहीं पायी थी। मैं काफी देर तक बैठकर लौट गया था।
इसके बाद भी दो बार और ऐसा हुआ कि बाबू भाई पंड्या से मिल नहीं पाया। अलबत्ता, उन बच्चों से जरूर मुलाकात हो गयी। जिस बच्चे के पैर में सूजन थी, वह बच्चों के वार्ड में भर्ती हो चुका था और उसके पैर में पलस्तर चढ़ा हुआ था। उसके साथ के तीनों लड़के उसके पास ही बैठे थे।
मैं उन बच्चों के पास चला गया और पूछने लगा, "मैंने तुम लोगों को दो तीन दिन पहले बाबू भाई को खोजते हुए देखा था। क्या उन्हीं की मदद से ये भर्ती हो पाया है?"
"हाँ साब, अपने को भगवान मिल गया साहब, अगर वो न होते तो हमारे इस दोस्त को पलस्तर तो क्या साहब, कोई पट्टी तक बाँधने को तैयार नहीं था।"
क्या करते हो तुम लोग? पूछा मैंने।
"मेरा नाम कबीरा है। ये सत्ते और ये गप्पू। हम लोग बूट पालिश करते हैं। मुन्ना हमारा दोस्त है, ये अभी सीख रहा है काम करना। हमारा ध्यान नहीं था। अचानक सड़क की तरफ दौड़ा और एक स्कूटर से टकरा कर गिर गया। पैर की हड्डी टूट गयी। अगर बाबू भाई न मिलते तो.. हमारे पास तो दवा के पैसे.. भी नहीं थे।"
अब दूसरा लड़का बताने लगा, "जब हम बाबू भाई के पास गये तो वो आये और बोले, "कोई बात नहीं। ये तो एकदम फरिश्ता लड़का है। ये एकदम अच्छा हो जायेगा और फिर से फुटबाल खेलने लगेगा। अभी देखना हम इसे अस्पताल के सबसे अच्छे वार्ड में भर्ती कराते हैं, चलो मेरे साथ। ये तो बहुत लवली बॉय है।" वे खुद हमारे साथ दो-तीन डॉक्टरों के पास लेकर गये साहब। डॉक्टर लोग को पूरी बात बतायी और फिर एक ट्राली लेकर आये और मुन्ना को प्लास्तर वाले कमरे में ले गये।"
अब तीसरा लड़का बता रहा था, "हमें रोना आ रहा था साहब, तो बाबू भाई बोले, "रोते नहीं.. रोते नहीं। रोने से आँखें दुखेंगी और फिर दवा के लिए और पैसों की जरूरत पड़ेगी। फिर तुम बाबू भाई पंड्या को खोजोगे। ऐसा काम नहीं करो कि दवा कि जरूरत पड़े। हाँ तो तुम लोक फिकिर नहीं करना.. बच्चे अगर फिकर करें तो कैसे चलेगा भई.. अभी मैं बड़े साहब से बोल के इदर दो दिन रहने के वास्ते वार्ड में तुम्हारे दोस्त को जगा दिला देता हूँ। खाने का भी ठिकाना हो जायेगा। जब खाना देने वाला बॉय आये तो बोलना बाबू भाई पंड्या के आदमी हैं, थोड़ा जास्ती खाना दे देगा। मिल बाँट के खा लेना। मैं भी बोलकर रखूँगा।"
बच्चे अभिभूत थे और उनके पास बाबू भाई की तारीफ के लिए शब्द नहीं थे। उनके गले रुँधे हुए थे और समझ में नहीं आ रहा कि उनकी इतनी सारी बातें कैसे बतायें।
मैंने पूछा, "यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं है।"
कबीरा नाम का लड़का बताने लगा, "नहीं साहब, बाबू भाई ने सबको कह दिया है कि बच्चे का खयाल रखें। कोई तकलीफ नहीं है साहब।"
अब दूसरा लड़का मुझे बता रहा था, "साहब यहाँ अस्पताल में हर आदमी उनको सलाम मारता है, वो किसी भी डॉक्टर के कमरे में चले जाते हैं और काम करा के आते हैं। कोई भी उससे ऊँची आवाज में बात नहीं करता।"
अब तीसरा लड़का बताने लगा, "इदर सरकार ने उसे रखा होयेंगा कि गरीब लोक की मदद करो करके।"
तो कबीरा ने उसे टोका, "अबे ये तो सरकारी हस्पताल है रे तो सबको सरकार ही रखी होयेगी ना .."
सत्ते - "जो भी हो एक बात माननी पड़ेगी, आदमी हीरा है, कितना बुड्ढा है फिर भी सबके काम करता रहता है।"
अब बच्चे मेरी उपस्थिति भूलकर आपस में ही बात करने लगे थे। एक तरह से अच्छा ही था। बच्चे उनके बारे में क्या राय रखते हैं, उन्हीं की जबानी सुनने में क्या हर्ज है।
सत्ते- "कितने बरस उमर होगी रे उनकी?"
कबीरा - "अस्सी साल के तो होयेंगे रे।"
तेंडया - "अस्सी साल तो भोत होते हैं।"
कबीरा - "तो क्या हुआ। काम करने वाले कभी उमर देखकर थोड़े ही काम करते हैं।"
कबीरा - "यार मैं तो दंग हूँ इस आदमी की हिम्मत देखकर। अस्सी साल की उमर में भी इतनी हिम्मत। आदमी नहीं फरिश्ता है ये।"
सत्ते -"अगर ये न होते तो मुन्ना का पिलस्तर तो क्या पट्टी भी न लग पाती, जब वो डॉक्टर से कह रहे थे इसके बारे में तो मैं सोचता था इस तरह से तो कोई अपने मरीज के लिए भी नहीं कहता।
तभी साथ वाले मरीज के पास बैठा आदमी बीच में ही कहने लगा, "तुम लोग बाबू भाई पंड्या की बात कर रहे हो क्या?
कबीरा - "हाँ क्यों?"
मरीज- "वो वाकई फरिश्ता है। पता नहीं किस-किस मरीज की सेवा करके इसने उन्हें ठीक ठाक वापस भिजवाया है। इसकी सेवा से ही हजारों आदमी मौत के मुँह से वापस आये होंगे।"
उसकी देखा देखी एक और आदमी भी बातचीत में शामिल हो गया, "इस बेचारे ने जिन्दगी भर तो सेवा की ही है, मरने के बाद भी अपना पूरा शरीर अस्पताल को दान कर दिया है, ताकि डॉक्टरी पढ़ने वाले बच्चों के काम आ सके।"
पहले वाले ने जानकारी बढ़ायी, "मैंने सुना है अपनी पूरी पेंशन भी यहीं खर्च कर देता है।"
दूसरे ने आगे बताया, "मैंने तो ये भी सुना है कि इसके बच्चे बड़े-बड़े अफसर हैं। अपनी गाड़ियाँ हैं उनकी।"
अब पहला बता रहा था, "मुझे तो ऐसा लगता है कि अपने घर पर इसकी कद्र नहीं होती होगी इसलिए दूसरों के बीच अपन वक्त बाँटता रहता है।"
अब दूसरे ने फैसला सुना दिया, "जो भी हो, हमें उससे मतलब नहीं। हम तो ये जानते हैं कि वे एक आदमी नहीं देवता हैं।"
मैं बच्चों के साथ थोड़ा वक्त गुजारकर लौटकर आया था। वापस आते समय सोच रहा था कि ये आदमी तो वाकई देवता है। किसी आम आदमी के बस में नहीं होता ये सब करना। और वो भी आज के युग में। मैंने मन ही मन बाबू भाई पंड्या को प्रणाम किया था। ये तीसरी बार था कि मैं उनसे बिना मिले लौट रहा था। गये होंगे किसी मरीज को उसके घर पहुँचाने या किसी डॉक्टर के व्यक्तिगत काम निपटाने।
***
अगली बार अस्पताल जाने पर मुझे उनके एक और ही रूप के दर्शन हुए। मैं अस्पताल पहुँचा ही था कि बाबू भाई पर मेरी नजर पड़ी। वे एक तरफ एक डेड बॉडी को अकेले ही कपड़े में लपेट रहे थे। वहीं पास ही बैठी एक अकेली औरत रो रही थी और बाबू भाई निष्काम भाव से अपने काम में लगे हुए थे। आस-पास खड़े कई लोग देख रहे थे लेकिन कोई भी उनकी मदद के लिए आगे नहीं आ रहा था। बाबू भाई पंड्या ने अपना काम खतम करके एक टैक्सी बुलवायी और डेड बॉडी को टैक्सी की छत पर बँधवा दिया। रो रही अकेली औरत को सहारा देकर उन्होंने टैक्सी में बिठाया और जेब से कुछ पैसे निकालकर उस औरत को दे दिये और हाथ जोड़कर उसे विदा कर दिया। मैं देख पा रहा था कि उस औरत के हाथ दूर जाती टैक्सी से देर तक नजर आते रहे थे।
इस बार भी मैं हिम्मत नहीं जुटा पाया था कि उनके सामने भी पड़ सकूँ। मैं इस बार भी उनसे मिले बिना मन ही मन देव तुल्य प्रतिमा को प्रणाम करके लौट आया था।
अगली बार जब मैं उनसे मिलने गया तो वे एक आदमी को अस्पताल से विदा कर रहे थे। वह आदमी जोर-जोर से रोये जा रहा था और बाबू भाई उसे चुप करा रहे थे, "रोते नहीं बेटा, तुम किस्मत वाले हो। तुम अपनी बीवी को इतना प्यार करते हो। सारे काम छोड़कर इतनी दूर से उससे मिलने आते हो। उसका पूरा खयाल रखते हो। ऊपर वाले पर भरोसा रखो, उसे कुछ नहीं होगा। वो एकदम ठीक होकर अपने पैरों पर चलकर तुम्हारे साथ वापस जायेगी।"
वह आदमी बार बार, "बाबू भाई" ही कह पा रहा था। वे उसके कन्धे पर हाथ रखकर हँस रहे थे, "सात फेरों की याद है न .. वैसे ही वो अपने पैरों से चलेगी जैसे चलकर तुम्हारे घर आयी थी और तुम देखोगे बेटा। उसे बहुत प्यार से रखना बेटा। बहुत अच्छी लड़की है।"
"बापू आप न होते तो .."
"मैंने तो अपनी तरफ से कुछ नहीं किया बेटा। ऊपर वाले का आर्डर हुआ कि यहाँ मदद चाहिए तो आ गया। अच्छा लगता है कि तुम एक दूसरे के बारे में सोचते हो। जरा उनकी सोचो कि जिनके पास कोई नहीं आता। जाओ। जो भी काम करना, ईमानदारी से करना और जो भी कमाओ उसमें से थोड़ा दूसरों के लिए भी रखना। हम इसलिए न रोयें कि हमारे पास जूते नहीं हैं। हम उनकी भी सोचें जिनके पैर ही नहीं होते, जाओ बेटा। छत और छतरी के फर्क को कभी मत भूलना बेटा। जाओ, अपना खयाल रखना।"
वह आदमी कह रहा था, "आप बहुत भले आदमी हैं बाबा। आजकल के ज़माने में दूसरों के लिए कौन इतना करता है।"
बाबू भाई, "बेटे, हम अच्छे तो सब अच्छे। हम बुरे तो सब बुरे हो जाते हैं। हमारी अच्छाई ही हमारा साथ देगी बेटा। सेवा में ही मेवा है। भगवान गवाह है इस सेवा के अलावा जिन्दगी में और कोई भी चीज इतनी पवित्र और खूबसूरत नहीं है बेटा। कोई भी ऐसा काम न करो कि सामने वाले को अपनी आँखें पोंछनी पड़ें। सबके चेहरे पर हँसी लाओ। वही जीवन को जीने लायक बनाती है। जीते रहो बेटा।"
वह आदमी बाबू भाई के पैर छू रहा था। जाते समय उसके दोनों हाथ जुड़े हुए थे। आँखों में आँसू की दो बूँदे अटकी हुई थीं।
इस बीच मैं बाबू भाई से पचासों बार मिला। उनके साथ अस्पताल के कई वार्डों के चक्कर काटे। कई पत्रिकाएँ और किताबें उनके लिए जुटायीं और उनके साथ घन्टों बैठकर मरीजों के हाल-चाल बाँटे, लेकिन इसके बावजूद मैं डॉक्टर भाटिया से किया गया वायदा पूरा नहीं कर पाया था। लिख ही नहीं सकता था।
इस बीच बाबू भाई भी कई बार मुझसे मिलने आये। वे कभी हमारे ऑफिस पत्रिकाएँ लेने आ जाते। पोस्टकार्ड डाल देने भर से वे आ जाते। मैंने उनके पोस्टकार्ड कई दोस्तों को दिये और इस बात का इन्तजाम कर दिया था कि हर महीने उनके पास काफी मात्रा में पत्रिकाएँ पहुँचती रहें। वे आते, थोड़ी देर बैठते और पत्रिकाएँ बाँधना शुरू कर देते। वे उतनी ही देर रुकते जितनी देर में वे बंडल बाँधें और गेट पास बनकर आये, लेकिन वे कभी भी रुककर एक गिलास पानी भी नहीं पीते। अपने बारे में तो वे कभी बात भी नहीं करते। बहुत कुरेदने पर भी नहीं। यहाँ तक कि इस विषय को ही टालते। मैं भी उन्हें नाराज करके कुछ जानना नहीं चाहता था। हालाँकि उनके बारे में मुझे और भी बहुत सी जानकारी मिली थी और डॉक्टर भाटिया भी अकसर उनके बारे में नयी-नयी बातें बताते रहते, लेकिन मैं चाहकर भी उनके बारे में लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था।
जब भी उन पर कहानी लिखने की सोचता, वे इतने विराट और दयालुता की प्रतिमा हो जाते कि मेरी लेखनी छोटी पड़ जाती और कुछ भी लिखने से इनकार कर देती। शब्द मेरा साथ छोड़ देते।
यह भी पहली बार हो रहा था कि कहानी के लिए पात्र साक्षात मेरे सामने था और मैं नहीं लिख पा रहा था। लिखना चाहता था मैं लेकिन हो ही नहीं पाता था। एक साक्षात जीवन चरित को शब्दों में बाँध पाने में मैं अपने आपको असमर्थ पा रहा था।
इस बीच अहमदाबाद छूट गया। वहाँ से आये मुझे छह बरस तो हो ही गये होंगे। मैं अहमदाबाद छोड़ने से पहले आखिरी बार उनसे मिलना चाहता था। पैंकिंग के बाद ढेर सारी पत्रिकाएँ भी निकल आयी थीं, वे भी उन्हें देना चाह रहा था लेकिन मिलना हो नहीं पाया था। दो एक बार गया था तो वे मिले नहीं थे और पोस्टकार्ड डालने पर आये नहीं थे। हो सकता है बीमार वगैरह हो गये हों या कोई और बात हो। मन में एक कसक सी थी कि पता नहीं फिर कब मिलना हो .. लेकिन शायद ऐसा ही होना था। मैं उनसे बिना मिले चला आया था। शायद कुछ और कोशिश करता या उनके दिये पते पर ही चला जाता तो हाल-चाल तो मिल जाते लेकिन शहर छोड़ने की गहमागहमी और दोस्तों की विदाई दावतों के बीच बाबू भाई पंड्या जरूरी कामों की सूची में कहीं नीचे चले गये थे।
बेशक मैं अहमदाबाद से मन पर बहुत बोझ लेकर आया था। इस शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया था और बहुत कुछ सीखा था मैंने वहाँ लेकिन बाबू भाई पंड्या से मिलना इन सबसे ज्यादा कीमती सौगात थी मेरे लिए।
***
अहमदाबाद से डॉक्टर भाटिया आये हुए हैं। बरसों बाद उनसे भेंट हुई है। वे उसी अस्पताल में अपने विभाग के हैड हो गये हैं। बातों ही बातों में बाबू भाई पंड्या का जिक्र आया।
उन्होंने जो कुछ बताया है उससे मैं दहल गया हूं। मैं सोच भी नहीं सकता था कि बाबू भाई पंड्या के साथ भी ऐसा हो सकता है।
डॉक्टर भाटिया बता रहे हैं, "बाबू भाई को उनकी बहू ने घर से निकाल दिया है। वे खुद बता रहे थे कि बहू उनके आने-जाने के टाइम से और घर में किसी भी किस्म की दिलचस्पी न लेने के कारण उनसे चिढ़ी रहती थी। एक वजह पेंशन भी थी जिसे वे अपने चहेते मरीजों पर ही खर्च कर डालते थे।"
"अरे ये तो बहुत बुरा हुआ। इस उम्र में और ऐसे देवता आदमी की ऐसी दुर्गत। कहाँ रह रहे हैं वो अब?
"रहना कहाँ? अब तो हमारे अस्पताल में ही आ गये हैं। वे पिछले पच्चीस बरस से अपना सारा वक्त वहीं तो दे रहे थे। एक किनारे अपना थोड़ा सा सामान लेकर टिक गये हैं। इतना बड़ा अस्पताल है, किसी को क्या फर्क पड़ना है।"
ये बताते हुए डॉक्टर भाटिया अपनी गीली आँखें पोंछ रहे हैं। मेरी आँखें भी भर आयी हैं। किसी तरह भरे गले से पूछता हूँ, "तो क्या उनकी दिनचर्या अब भी वही है। अब तो उमर भी बहुत हो गयी होगी।"
"हाँ, उमर तो बहुत हो गयी है और अब उतना कर भी नहीं पाते लेकिन अब भी सारा दिन मरीजों के पास जाकर बैठते हैं। उनके साथ बातें करते हैं। थोड़ी-बहुत मदद तो कर ही देते हैं।"
"एक बार कोई बता रहा था कि उन्होंने अपना शरीर भी अस्पताल के नाम डोनेट कर रखा है" मैं पूछता हूँ ।
"हाँ, यह सही है, उन्होंने अपनी आँखें और अपना पूरा शरीर अस्पताल को डोनेट कर रखा है। मैं आपको बता नहीं सकता, उनके रहने से हम डॉक्टरों को, अस्पताल के स्टाफ को और मरीजों को कितना सहारा रहता है। सबसे बड़ी बात है कि वे मरीज में विश्वास जगाये रहते हैं जिससे हमारे लिए इलाज करना बहुत आसान हो जाता है।"
"यार, अपनी जिन्दगी में मैंने इतने जीवट वाला आदमी नहीं देखा जो जीते जी तो इतना कर ही रहा है, मरने के लिए पहले से तैयार होकर वहीं आ गया है कि उसके मरने के बाद उसके शरीर को भी किसी मकसद के लिए इस्तेमाल किया जा सके।"
"कहते हैं बाबू भाई कि अपना शरीर तो दान कर ही रखा है। मरने के बाद यहाँ लाने में सबको तकलीफ ही होगी मैं खुद ही आ गया हूँ जब भी मेरी आखिरी साँस का नम्बर आये तो आप लोग मेरी पर्ची काट देना। मेरे केस की फाइल बन्द कर देना। आप लोगों को आसानी होगी।"
"क्या अब भी सारे वार्डों के वैसे ही चक्कर लगाते हैं और बच्चों बूढ़ों को कार्ड, मैगजीनें और दूसरी चीजें देते रहते हैं?"
"नहीं, अब तो वो सब जगह जा नहीं पाते। हमारे पास भी कम ही आते हैं। हम ही बीच बीच में उन्हें देख आते हैं और उन्हें पुराने कार्ड वगैरह दे आते हैं और उनसे मजाक में कहते हैं, "लो बाबू भाई पंड्या। अपनी करीना कपूर ने आपके लिए ये कार्ड भेजा है। कह रही थी बाबू भाई से किसी दिन जरूर मिलने आऊँगी।"
हँसते हैं तब बाबू भाई। कहते हैं, "हाँ भई अब तो मेरी ही बारी है। देखना किसी दिन खुद भी आयेगी बाबू भाई पंड्या से मिलने के वास्ते।"
"आपकी बात बिलकुल सही है, लेकिन दिक्कत यही है कि बाबू भाई पंड्या जैसे लोगों की नियति यही होती है।"
"मुझे तो डर है कि पिचासी साल की उमर में अगर उन्हें कुछ हो गया तो पता नहीं, अस्पताल के अहाते में रहते हुए भी उन्हें दवा की आखिरी खुराक भी मिलेगी या नहीं।"
मैं डॉक्टर भाटिया की बात सुनकर चुप रह गया हूँ। कई बार शब्द भी तो साथ नहीं देते।
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शायद बाबू भाई पंड्या जैसे आदमी पर कहानी लिखी ही नहीं जा सकती। ऐसे लोग तो खुद जीती-जागती कहानियाँ रचते हैं।
उन्हें सिर्फ प्रणाम किया जा सकता है।
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Monday, March 17, 2008

पांचवीं कहानी - पत्थर दिल

शिरीष,
कैसे हो! फोटो से तो यही लगता है, आगे के सारे बाल झड़ गये हैं। शायद चांद भी निकल आयी हो। चश्मे का नम्बर तो पता नहीं बदला या नहीं, पर इस फोटो में तुमने जो चश्मा लगा रखा है, तुम पर जंच रहा है। वह पहले वाला लापरवाही का-सा अंदाज शायद अभी भी छोड़ा नहीं तुमने! बधाई लो।
तुम हैरान हो रहे होगे, कौन पाठिका है जो इतनी बेतकल्लुफी से लिख रही है। जानती है क्या मुझे! हां शिरीष, जानती हूं तुम्हें, तभी तो लिख रही हूं। तुम भी शायद मुझे भूले नहीं होगे। आज ही एक पत्रिका में तुम्हारी ताज़ा कहानी देखी और साथ में सचित्र परिचय तो लिखने का मन हो आया। नहीं, इतना लम्बा पत्र तुम्हारी कहानी की तारीफ में नहीं लिख रही हूं। मेरे जैसी नासमझ पाठिका तुम्हारी कहानी का कहां मूल्यांकन कर सकती है भला। हां, आज मैं खुद तुम्हें एक कहानी लिख रही हूं। पर वचन दो इसे कहीं छपवाओगे नहीं। बस, सिर्फ पढ़ना और इसे अपने तक ही सीमित रखना।
तुम्हें मुझसे शिकायत रहती थी ना, मैं बहुत कम बालती हूं। एक-एक, दो-दो शब्द के वाक्य, तो लो, आज ढेर सारे शब्दों में अपनी बात कर रही हूं। पिछली सारी कमी पूरी हो जायेगी।
मैं श्रीपर्णा हूं। याद आया? नहीं! श्रीपर्णा मेहरा, रोल नं. तरेपन, बी.ए. सेकिण्ड ईयर। तुम्हारा रोल नम्बर तो बावन था। मैं ये सब यूं लिख रही हूँ, जैसे सचमुच रोल नम्बर के जरिये ही हम एक दूसरे को पहचानते हों। दरअसल मेरा रोल नम्बर आते ही तुम मेरा ''यस सर,'' सुनने के लिए एकदम तैयार होकर बैठ जाते थे। इसलिए याद रह गया। आज इतने बरसों बाद अचानक मेरा खत पाकर हैरानी हो रही है ना! हैरानी तो तुम्हें उस दिन भी बहुत हुई होगी, जब मैं अचानक गायब हो गई थी। बारह-मार्च थी उस दिन, सन् चौहत्तर। डॉ.मिश्रा का पीरियड चल रहा था। इतिहास का। तभी चपरासी मुझे बुलाने आया था, ऑफिस में मेरे लिए एक ज़रूरी फोन था। फोन एटैंड करते ही मैं तुरन्त क्लास में आई थी। सर से अनुमति ली थी और फिर लौटकर कॉलेज में कभी नहीं आई थी। मुझे बाद में पता चला था, तुमने बहुत कोशिश की थी, पता लगाने कि मैं अचानक कहां गायब हो गयी, पर तुम्हें कोई कुछ नहीं बता पाया था। बताता भी क्या। बताने लायक कुछ होता तो सबसे पहले मैं ही तुम्हें बताती। मेरे घर जाने की हिम्मत तो तुम नहीं ही जुटा पाये होगे। हो सकता है, तुमने मेरा बहुत-बहुत इंतज़ार भी किया हो, तुम्हारे कुछ नोट्स भी मेरे पास थे, शायद उन्हीं के लिए याद किया हो और बाद में उम्मीद छोड़ दी हो। यह भी हो सकता है, तुम्हें सारी बात का पता चल गया हो और तुमने मेरे लिए बहुत अफ़सोस जाहिर किया हो। खैर, ये तो मेरे ख्याल ही हैं। सच क्या था, वही सब आज तुम्हें लिखने जा रही हूं।
घर पहुंचते ही पता चला था, जचगी में दीदी की डैथ हो गयी है, जयपुर में। मेरे तो हाथ-पांव ही सुन्न हो गये थे सुनकर। मां वहीं गयी हुई थी उसके पास। पापा, वीनू भइया और मैं लगातार दस घंटे ड्राइव करके पहुंचे थे वहां। बस, हमारा ही इंतज़ार किया जा रहा था। दीदी सबको बिलखता हुआ छोड़ गयी थी। अपने नन्हें से बेटे का मुंह भी नहीं देख पायी थी बेचारी। उसे दूध पिलाने की तो नौबत ही नहीं आ पायी।
सारे घर में कोहराम मचा हुआ था। क्या होगा, इन छोटे-छोटे बच्चों का! कैसा अभागा जन्मा कि मां का दूध तक नसीब नहीं हुआ! कैसे संभालेंगे रंजीत इन्हें! नौ साल का शेखर तो फिर भी थोड़ा समझदार था। तीन साल की प्रियंका को समझ में नहीं आ रहा था, यह सब रोना-धोना क्यों मचा हुआ है। उधर जीजाजी सदमे की वजह से एकदम चुप हो गये थे। बस, पथराई आंखों से सबको देख रहे थे। जब रोते हुए शेखर ने चिता में आग दी तो वे अचानक फूट-फूट कर रो पड़े थे और शेखर को सीने में भींच लिया था।
मुझे वहां जाते ही बच्चों की देखभाल में व्यस्त हो जाना पड़ा था। मैं खुद रोती और नन्हां शंतनु मेरी गोद में रोता रहता। मेरे सीने में मुंह घुसेड़ता, पर कहां से उसे कुछ मिलता। मेरा प्यार, दुलार, स्नेह उसके लिए काफी न होते। उसे मां का-सा स्पर्श तो दे सकती थी, दूध कहां से देती। बोतल का दूध उसे पच नहीं रहा था। मेरा कलेजा मुंह में आने को होता। मैं मां के गले लगकर रोती और वह मेरे गले लग कर। समझ में नहीं आता था, आगे क्या होगा!
दसेक दिन इसी तरह से बीत गये थे। उदास, परेशान और फीके-फीके। तेरहवीं की रस्म तक सभी लोग लौट चुके थे। मम्मी, डैडी, वीनू, मैं, रंजीत और उनके घर के लोग ही बचे थे। सबकी आंखों में एक बहुत बड़ा प्रश्न तैर रहा था। हर कोई सामने वाले की आंखों में इस प्रश्न को आसानी से पढ़ रकता था, पर जवाब किसी के पास नहीं था। रंजीत अभी भी पूरी तरह सहज नहीं हो पाये थे। एकदम गुमसुम बैठे रहते।

एक रात मम्मी, डैडी, रंजीत, उनके माता-पिता तथा दो-एक रिश्तेदार सिर जोड़कर एक बन्द कमरे में बैठे थे और जब वे दो-ढाई घंटे बाद बार निकले थे तो इस विराट प्रश्न का उत्तर खोज लिया गया था। मम्मी बाहर आते ही मेरे गले से लिपट कर रोने लगी थी, और उसके मुंह से मेरी बच्ची, मेरी बच्ची के सिवाय कोई शब्द नहीं निकल रहा था। मैं समझ नहीं पा रही थी, अचानक सब मुझे बेचारगी से क्यों देख रहे हैं! एकदम ठण्डी आवाज में मुझे बताया गया था, ''हमारे पास हर तरह से इससे अधिक स्वीकार्य कोई विकल्प नहीं है कि रंजीत से तुम्हारी शादी कर दी जाये। उसके टूट गये परिवार को सहारा देने के लिए यह बहुत ज़रूरी है।'' मैं एक शब्द भी नहीं कह पायी थी, बच्चों से लिपट कर देर तक रोती रही थी।
आज सोचती हूं, किसके लिए और किस विकल्प की तलाश कर रहे थे सब! मेरे बारे में फैसला कर रहे थे और मुझसे पूछा तक नहीं गया था। सिर्फ फैसला सुना दिया गया था। रंजीत का परिवार टूटने से बच जाये, इसलिए किसी न किसी को बलिदान करना ही था। मैं एकदम सामने पड़ गई थी सबके। किसी को भी विकल्प की तलाश की ज़रूरत ही नहीं रही थी। काश, मेरे बारे में इतना बड़ा फैसला करने से पहले मेरी राय तो ली जाती! अब तो यही सोच कर तसल्ली कर जाती हूं कि अगर मुझसे पूछा भी जाता, तो मैं भी तो यही करती न। माया, ममता और सहानुभूति की भेंट वे न भी चढ़ाते, शायद, मैं खुद चढ़ जाती बिना एक शब्द भी बोले।
मेरी शादी विशुद्ध रूप से सहानुभूति, जज़्बात, जल्दीबाजी और तथाकथित इन्सानी मूल्यों के नाम पर एक भावुकता भरा कदम थी। दीदी और बच्चों के प्रति मेरे पेम को यह मान लिया गया था कि मैं बड़ा से बड़ा त्याग करने में भी हिचकूंगी नहीं। उनके सामने मैं थी ही। इतने दिनों से बच्चों के पीछे खुद को भी भूली हुई थी, बस इसे स्थायी व्यवस्था की भूमिका मान लिया गया। इस शादी को मज़बूरी, ज़रूरत या सुविधा का नाम भी दिया जा सकता है। कई बार ख्याल आता है, रंजीत नये सिरे से, किसी नयी लड़की से विवाह करते तो क्या आज उन्हें उन आवरणों की ज़रूरत पड़ती, जिसमें वे खुद को वर्षों से कैद किए हुए हैं। न ही किसी से त्याग की उम्मीद की जाती और न ही बेहतर या कमतर विकल्प की बात उठती! लेकिन मैं ये भी सोचती हूं कि हगर मेरी शादी यहां न हुई होती तो मैं उतनी सुखी या दुखी होती, जितनी आज हूं। क्या मेरी पसंद के आदमी से शादी होने पर मुझे उससे वे सब शिकायतें न होतीं जो आज रंजीत से हैं। लेकिन यह सब तो होता, तब की बात थी।
और इस तरह से हमारी शादी हो गई। महज औपचारिक शादी। दीदी की मृत्यु के ठीक सत्रह दिन बाद। उस समय मैं इक्कीस की भी नहीं हुई थी। रंजीत छत्तीस पूरे कर चुके थे। दीदी से उनकी शादी के वक्त मैं सिर्फ ग्यारह साल की थी, जिसे रंजीत जीजाजी टॉफी और आइसक्रीम से बहलाया करते थे। अब मैं उनकी पत्नी थी। उनके तीन बच्चों की मां।
हमारी शादी में शादी जैसा कुछ था भी नहीं। न हंसी मज़ाक, न सहेलियां, न डोली, न बारात और न ही विधिवत कन्यादान। बेहद बोझिल वातावरण में बस पंडितजी की उपस्थिति में दो-चार मंत्र पढ़े गए थे और मैं शादी का जोड़ा पहनाकर ब्याह दी गई थी। तब मुझे समझ नहीं आ रहा था, मेरी लगातार रुलाई किसलिए थी। समझ तो आज तक नहीं पायी हूं कि मैं तब क्यों रो रही थी?
तुम्हें हंसी आयेगी, हमारी पहली रात भी हमारे बीच नन्हां, सत्रह दिन का दूध पीता शंतनु सो रहा था और मुझे दो-तीन बार उसके पोतड़े बदलने के लिए उठना पड़ा था। अब उसकी मां जो थी मैं।

दीदी की स्मृतियां दिमाग पर बुरी तरह हावी थीं। उस सदमे से कोई भी उबर नहीं पाया था। गहरे पशोपेश में थी। बिल्कुल समझ में नहीं आता था, क्या हो गया ज़िंदगी का। बच्चों और रंजीत की तरफ देखती तो उनके लिए प्यार और तरस के भाव उपजते, खुद का सोचती तो रोना आता। क्या कुछ तो चाहा था, पढ़ना, कैरियर बनाना, खूब ऊपर उठना। जिस व्यक्ति को कल तक जीजाजी का आदर भरा सम्बोधन देती थी, कब सोचा था, वे ही अचानक एक दिन, बिना किसी भूमिका के मेरे पति हो जायेंगे। उनके जीवन में जहां-जहां मेरी दीदी थीं, वे सारी जगहें मुझे भरनी होंगी। शुरू-शुरू में समझ नहीं पाती थी, मुझे खुद अपनी ज़िन्दगी जीनी है, या दीदी बनकर, दीदी के बच्चों की मम्मी बनकर, दीदी के पति की पत्नी बनकर, दीदी द्वारा खाली की गयी जगह भरनी है! सब कुछ पूर्ववत् चलता रहे, इसकी कोशिश करनी है या हर जगह से दीदी का नाम धो-पोंछ कर खुद अपनी जगह बनानी है। तुम्हें मैं कैसे बताऊं शिरीष, कितना-कितना रोती थी मैं उन दिनों। एक भूमिका निभाना शुरू करती तो दूसरी भूल जाती। दूसरी में मन रमाने की कोशिश करती तो तीसरे में कन्फ्यूज हो जाती। खुद अपने आपको कहां रखना है, तय नहीं कर पाती।
रंजीत के हाथ मेरी तरफ न बढ़ते। वह संकोच के मारे बेडरूम में न आते। हमने कई रातें यूं ही अलग-अलग काटीं। वह अगर मुझे छूते भी तो कई बार चौंक कर अपना हाथ खींच लेते। मैं भी संकोच में रहती। अरसे तक हम पति-पत्नी के सम्बन्ध को सहजता से नहीं जी पाये थे। बार-बार लगता, दीदी कहीं आसपास ही हैं और उन्हें सब पता चल गया है। अभी परदा हटाकर अचानक कमरे में आ जायेंगी और मुझे जीजाजी के साथ इस तरह रंगरेलियां मनाते देख, मेरी चुटिया पकड़, अपने घर से बाहर निकाल देंगी। मैं खुद को लाख समझाती, अब कुछ बदल चुका है। रिश्तों के अर्थ हमारे लिए बदल गये हैं, फिर भी मन आशंकित रहता। इस सबके बावजूद खुद सहज रहते हुए उन्हें भी सहज रखने की कोशिश करती, पर वह न जाने मौन के किस अंधे कुएं में उतर गए थे, आज तक, सोलह साल बीत जाने पर भी उससे बाहर नहीं आ पाये हैं।
जब पहले दीदी के घर जाती थी तो बच्चे लाड़ लड़ाते हुए मेरे पास सोने की ज़िद करते। मुझसे बहुत हिले हुए थे। अब मैं उनकी मां बनकर आ गई थी तो वे मुझे अविश्वास से देखने लगे थे। इस बदले हुए, थोपे हुए रिश्ते को स्वीकार नहीं कर रहे थे। हर समय सहमे-सहमे रहते। मम्मी के न रहने से परेशान वैसे ही थे। शेखर को तो खैर इतनी समझ थी, प्रियंका महीनों तक मम्मी के पीछे पागल रही। उसने मम्मी को अस्पताल जाते हुए देखा था, वापिस तो वह आयी ही नहीं थी, सो प्रियंका अक्सर दरवाजे पर खड़ी मम्मी की राह देखा करती। मम्मी संबोधन तो खैर मुझे शंतनु के बोलना सीखने के बाद से ही मिलना शुरू हुआ था।
अरसे तक हम दोनों का संवाद नपे-तुले शब्दों तक सीमित रहा। हम ज़रूरत भर बात करते। घर पर हर वक्त मनहूस-सा सन्नाटा पसरा पहता। खाना खा लीजिए, चाय पी लीलिए। आपके कपड़े रख दिए हैं, नहा लीजिए, जैसी निहायत ज़रूरी सूचनाएंं। सम्बोधन तो हमारे पास अरसे तक नहीं रहा। नाम से बुला न पाती। अभ्यासवश मुंह से जीजाजी ही निकलता। वह दीदी को अपर्णा न कहकर रिन्नी कहकर पुकारते थे। मेरा घर का नाम पर्णा था। वह अक्सर मुझे भी रिन्नी कहकर पुकार बैठते। अपनी गलती का अहसास होने पर हम देर तक नज़रें चुराते रहते।
दीदी की पहली पुण्यतिथि पर मैंने उनका विधिवत् श्राद्ध किया था। दान-पुण्य करके उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की थी। दीदी की पहली पुण्यतिथि के ठीक सत्रह दिन बाद हमारी शादी की पहली वर्षगांठ थी। हालांकि उस शादी में कुछ भी ऐसा नहीं था, जिसे याद रखा जाता, यहां तक कि उस मौके पर कोई तस्वीर भी नहीं खींची गई थी, लेकिन शादी तो फिर भी शादी थी। बेशक उनके लिए दूसरी हो, मेरे लिए तो पहली थी। वैसे भी दीदी को गुज़रे साल से ऊपर गुजर चुका था, और हम सबने नयी परिस्थितियों में, नये रिश्तों को स्वीकार करके जीना शुरू कर दिया था।
रंजीत को हमारी शादी की पहली वर्षगांठ याद नहीं रही थी। अरसे तक याद नहीं आई थी। जीवन उनका ढर्रे पर चलने लगा था। लगता था, उन्होंने अपनी जीवन से सभी अच्छी-अच्छी तारीखें, चीज़ें मिटा दी थीं और अब जो कुछ बचा था, उनकी दृष्टि में उसमें सेलिब्रेट करने जैसा कुछ नहीं था। मैं चुप रह गई थी। याद नहीं दिलाया था उन्हें। यही सही।
शादी के बाद जब पहला जन्मदिन आया था तो दीदी को गुज़रे ज्यादा अरसा नहीं हुआ था। मैं उनकी स्थिति समझ सकती थी! लेकिन जब शादी के बाद मेरा दूसरा जन्मदिन भी उन्हें याद नहीं आया तो मैं बहुत-बहुत रोयी थी। भला ऐसी भी क्या रुग्ण आसक्ति कि जो अब नहीं है, उनके लिए आप हर समय उदास ग़मगीन बने रहें और जो है, जिन्होंने आपके और आपके परिवार के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया, वह कहीं नहीं है! जब मैं उनकी साली थी तो हर साल कोई न कोई तोहफा जरूर भेजते थे। कैमरा तक दिया था उन्होंने मुझे और अब पत्नी बन जाने पर इतनी बड़ी सज़ा!
ऐसा भी नहीं था कि हमने इस दौरान बच्चों के जन्मदिन न मनाये हों। बेशक छोटे पैमाने पर सही, बच्चों को उनकी इस छोटी-सी खुशी से मैंने कभी वंचित नहीं किया था। खुद रंजीत के जन्मदिन पर मैंने उन्हें एक बढ़िया रेडीमेड शर्ट दी थी। केक बनाया था। उन्हें सरप्राइज दिया था कि आज उनका जन्मदिन है।
अपने जन्मदिन के प्रति मैं शुरू से ही बहुत सेंसेटिव हूं। इसे इस तरह गुज़रते देख मैं बहुत रोयी थी। छटपटाई थी। दूसरी बार यह हो रहा था। मम्मी-पापा ने भी शायद मुझे विदा कर देने के बाद यह तारीख याद रखने की ज़रूरत नहीं समझी थी। केवल वीनू भैया का खूबसूरत कार्ड आया था जिसे मैंने तुरन्त छिपा दिया था। मानो उसकी खबर पाकर हंगामा मच जाएगा।
ऐसा भी नहीं था कि अब तक रंजीत मुझे मानसिक और शारीरिक तौर पर स्वीकार न कर पाए हों। अपने अन्तरंग क्षणों में उन्होंने कई बार कहा था, पर्णा तुम न आती तो मैं तो बिल्कुल टूट जाता। क्या होता इन बच्चों का और मेरा! और वह मुझे बेहद प्यार करने लगते। लेकिन सुबह होते ही बिल्कुल बदले हुए इन्सान होते। एकदम रिज़र्व, अपने आप में गुमसुम।
मैं उन्हें अक्सर कहती ''चलिए, कहीं घूम आयें। चेंज हो जाएगा।' लेकिन वह टाल जाते। ''मन नहीं करता'' कहकर घर से भी न निकलते। शहर से बाहर तो दूर, दोस्तों-परिचितों तक के घर भी वह जाने से कतराते। एक बार ऑफिस से आने के बाद अगली सुबह ही बाहर निकलते। उन्होंने शायद यह धारणा-सी बना ली थी कि श्रीपर्णा की तो कोई इच्छा ही नहीं है। सारा दिन घर और बच्चों के साथ मारा-मारी करके उसकी भी तो घर से बाहर निकलने की इच्छा हो सकती है, यह जानने-मानने की जैसे ज़रूरत ही नहीं थी उन्हें।
जब दीदी थीं तो वे लोग हर साल कहीं न कहीं घूमने निकलते थे। मेरी शादी के चार साल तक रंजीत ने एक बार भी नहीं कहा कि चलो अब बहुत हो गया, कहीं घुमा लायें तुम्हें। इन वर्षों में हम केवल दो बार उनके घर कानपुर गये और एक बार मैं मायके आयी, वह भी इसलिए कि वीनू भैया की शादी थी और जाना ज़रूरी था।
बाहर जाना तो दूर, वह कभी भूल से भी नहीं कहते, ''चलो पर्णा, आज कहीं होटल में खाना खाते हैं या चलो तुम्हें एक नयी साड़ी ही दिलवा दें।'' बीसियों बार टूर पर जाते हैं। बच्चों के लिए कुछ न कुछ लाते हैं। चाहे अपनी मर्जी से, या उनकी मांगें पूरी करने के लिए। उन्हें कभी सूझता ही नहीं, पर्णा के लिए भी कुछ ले जाया जा सकता है। उसकी भी कभी इच्छा हो सकती है, कोई गिफ्ट मिले। हर बार मुझे ही कहना, मांगना पड़ता है। अगर शिकायत करो तो बिना खिसियाए कहेंगे, ''तुम भी कह सकती थीं, मांग सकती थीं। न ला कर देता, तब कहती।'' अरसे से कुछ भी मांगना, कहना छोड़ दिया है। अपनी शॉपिंग खुद ही करती हूं।
हां, याद आया, मेरी शादी के वक्त मम्मी बाजार से पांच-सात सोबर-सी लगने वाली साड़ियां ले आई थी। घर से तो हम दो-चार जोड़े ही लेकर चले थे। बेशक मम्मी ने मेरे लिए अच्छा-खासा दहेज जुटा रखा था, वह सब वहीं रह गया था। जब मैंने देशा कि रंजीत तो एक साड़ी भी कभी नहीं दिलवायेंगे, तो मम्मी से कहकर, एक-एक करके सारे कपड़े मैंने मंगवा लिये थे।
दीदी की अलमारियां एक से एक बेहतरीन साड़ियों, ड्रेसों से अटी पड़ी थीं, लेकिन उन्हें मैं कभी नहीं पहन पाई थी। एक बार एक साड़ी बहुत अच्छी लगने पर मैंने पहन ली थी तो सारे घर में रोना-धोना मच गया था। रंजीत और बच्चों को दीदी की याद आ गयी थी और सब रोने लगे थे। मेरे लिए उसके बाद अलमारी कभी नहीं खुली थी। सारे कपड़े मैंने इधर-उधर दे डाले थे।
कई बार अपनी उम्र के हिसाब से सुन्दर और आकर्षक कपड़े पहनने का मन करता। मेक अप करने की इच्छा होती, लेकिन रंजीत की हद दरजे की उदासीनता से कुछ न कर पाती। वह सारी शामें, सारी छुट्टियां घर पर लेटे रहकर गुज़ारते। मेरा दम घुटता, छटपटाहट महसूस होती। लेकिन रंजीत न जाने किस मिट्टी के बने हुए हैं। उन्हें कुछ महसूस ही न होता। ज़िंदगी के प्रति कोई उत्साह नहीं। कुछ नया, कुछ उमंग भरा करने की कोई ललक नहीं, बस हर वक्त सुस्ता रहे हैं।
मैं उनके इस रूखे व्यवहार की वजह समझ न पाती और रोती रहती। समझ न आता क्या हो रहा है और वह ऐसा क्यों कर रहे हैं! उनसे पूछती, गिड़गिड़ाती, अपने मन की बात क्यों नहीं कह कर हल्के हो जाते ! क्यों तिल-तिल कर मर रहे हैं? आखिर मेरी गलती, मेरा कसूर तो पता चले कि यह सज़ा क्यों दी जा रही है मुझे, पर शायद रंजीत को मुझसे कोई शिकायत नहीं थी, खुद से ही थी। हर बार यही कह कर टाल जाते, सब ठीक तो है। तुम्हें बेकार वहम हो रहा है।

इसी दौर में तीन-चार घटनाएंं एक साथ घटीं। शादी के चौथे-पांचवे साल में। हमारा बेटा हुआ। परेश। मैंने बी.ए. का फार्म भरा। शेखर हॉस्टल में चला गया और, और रंजीत को किडनी स्टोन की शिकायत हुई। इन सारी घटनाओं ने हमारे परिवार के सारे समीकरण बदल दिए। यह एक ऐसा दौर था, जब मुझ पर अपनी सार्थकता, अपनी अहमियत को सिद्ध करने का जुनून-सा सवार हो गया था। मैं खुद को बच्चों की पढ़ाई, घर-बार की बेहतरी और अपना खुद का सर्किल बनाने में पूरी तरह व्यस्त रख कर तसल्ली ढूंढ़ने लगी थी। पिछले पांच सालों से घुटन भरे माहौल से एकदम विद्रोह करने की-सी मानसिकता थी मेरी। ऐसा नहीं था कि मैंने रंजीत की तरफ ध्यान देना कम कर दिया हो, वह खुद को किसी तरह इस सबसे बाहर रखने की कोशिश करते। उन्हें सब लल्लो-चप्पो लगता।
किडनी स्टोन की बीमारी रंजीत को इस तरह एक वरदान की तरह मिली थी। वह बड़ी सफाई से हर तरफ की मुसीबतों, जिम्मेदारियों और औपचारिकताओं से मुक्त हो गए थे। कई बार मुझे लगता है, अगर उन्हें पथरी की शिकायत न होती तो और कोई बीमारी हो जाती, कोई ऐसी बीमारी जो ज्यादा तकलीफ दिए बिना अरसे तक आपके साथ चल सके। जब आप चाहें कह दें, अब ठीक हूं, और जब आप चाहें उसकी आड़ लेकर बिस्तर पर पड़ जायें। यह बीमारी एक ऐसा अंधेरा कमरा थी जिसमें वह जब चाहें छुप जाते थे, आराम से खुद को हम सबसे काट सकते थे। जब देखते, अब सब कुछ ठीक है, तो हौले से बाहर आ जाते, लुका-छिपी के खेल की तरह। तब से आज तक मुझसे उनका लुका-छिपी का खेल जारी है।
कई बार मुझे लगता है, मैं इतने सालों से किसी सिविल अस्पताल में रह रही हूं। चारों तरफ दवाओं की गंध है। जिस चीज को भी छुओ, किसी न किसी टेबलेट की गंध उसमें बसी हुई है। हवा यहां की इतनी भारी है कि अब सांस लेने में भी तकलीफ होती है। हमारा बेडरूम तो कब से पेशेंट रूम में बदल चुका है। मुझे कुछ नहीं हुआ है, फिर भी हर वक्त खुद को बीमार महसूस करती हूं। इस सिविल अस्पताल में मेरी भूमिका क्या है, मुझे नहीं मालूम। बस यहां एक अदद मरीज है और इस घर का कारोबार घर उसी की सुविधा, ज़रूरत, इच्छा या जिद के हिसाब से चलता है। उसे जो खाना चाहिए सबके लिए वही बनेगा। उसे घर में ही पड़े रहना है तो कोई बाहर नहीं जाएगा। कोई किसी को तंग नहीं करेगा। यह मरीज किसी से कुछ नहीं कहता, किसी को मन मर्जी करने से रोकता भी नहीं, परन्तु इतने बरसों से कुछ न कहने के अभ्यास से उसने घर भर को अपनी इतनी जबरदस्त गिरफ्त में ले रखा है, कि कोई ऊंचे स्वर में बात नहीं कर पाता। असली दिक्कत ही यही है कि वह कुछ कहता नहीं। कहे और एक ही बार में सब कुछ खत्म हो गया तो वह क्या करेगा! कई बार लगता है, हम सब मरीज हैं, जिन्हें इस घर का दमघोंटू सन्नाटा हर वक्त कुतर-कुतर कर खा रहा है। हम असहाय से देख रहे हैं।
यह मरीज सारा दिन अपनी दवाइयों की दुकान सजाए रहता है। कभी वह होम्योपैथी का इलाज करवा रहा होता है, तो कभी ऐलोपैथी, यूनानी या आयुर्वेदिक का। पता भी नहीं चलने देता कब इलाज बदल दिया। उसे शहर भर के किडनी स्टोन के डॉक्टरों और मरीजों की पूरी जानकारी है और वह अपनी बीमारी पर घंटों बात कर सकता है। सच तो यह है कि अब वह सिर्फ अपनी बीमारी पर ही बात कर सकता है। हमारे घर मेहमान हमसे बोलने-बतियाने या खाने-पीने नहीं आते। उसका राग-पत्थरी सुनने आते हैं, जिसे वह पिछले दस-ग्यारह साल से अनवरत गाए जा रहा है।
उसे बच्चों के जन्मदिन की तारीखें, शादी की वर्षगांठ की तारीखें भले ही याद न रहती हों, पिछले दस सालों से किस-किस डॉक्टर ने किस-किस तारीख को उसका इलाज किया है, उसे उंगलियों पर याद हैं। मज़े की बात तो यह है कि लोगों का किडनी स्टोन एकाध ऑपरेशन से या यूं ही पेशाब के साथ निकल जाता है, लेकिन रंजीत का स्टोन पता नहीं किस पेड़ पर लगता है, जब देखो, अपनी मौजूदगी को अहसास कराता रहता है। जब देखो, उसे शूल उठते ही रहते हैं। कोई बड़ी बात नहीं, स्टोन की उसकी बीमारी तो कब की ठीक हो चुकी हो। बस, उसे ही नहीं पता।
उसने बच्चों को कभी पास बिठाकर बेशक कभी होमवर्क न करवाया हो, किडनी स्टोन पर छपने वाला हर आर्टिकल ज़रूर पढ़ा होगा। कई बार वह बिल्कुल ठीक होता है। एक-एक, दो-दो साल, लेकिन कतई जाहिर नहीं करता वह। उसे एक कवच की तरह ओढ़े रहता है, सामने नहीं आता, सहज होकर।
कितनी बड़ी यंत्रणा है, शिरीष, हम पति-पत्नी और हमारे चार बच्चे कभी भी एक साथ बैठकर ठहाके नहीं लगाते। कहीं घूमने-फिरने नहीं जाते। काफी अरसा लग गया था मुझे बच्चों को यह विश्वास दिलाने में कि अब मैं ही उनकी मां हूं। अब तो स्थिति यह हो गई है कि मैं सगी मां तो कब की बन चुकी हूं लेकिन रंजीत ही सगे पिता नहीं रह गए हैं। पता नहीं इस घर में पेइंग गेस्ट रंजीत हैं, या हम बाकी लोग।
तुम हैरान-परेशान हो रहे होंगे, शिरीष कि मैंने तुम्हें यह सब क्यों लिखा। मुझे तुम्हारी सहानुभूति नहीं चाहिए। वह तो इस ज़िंदगी में इतनी मिल चुकी है, अब और नहीं सही जाएगी। दरअसल किसी ऐसे आदमी से कुछ कहने के लिए मैं कब से तड़प रही थी जो मुझे सिर्फ सुने, कोई प्रश्न न करे। मुझे कोई भी तो ऐसा नहीं मिला, जिससे मैं अपनी बात कह पाती, अपने मन का कुछ बोझ हल्का कर पाती, और पूछ पाती, ''यह सब मुझे ही क्यों मिला! क्या मुझे अपने तरीके से अपनी ज़िन्दगी का यह स्वरूप सौंप दिया गया था, क्या उसे संवारने-सजाने में रंजीत की कोई भूमिका नहीं थी, हमारी शादी की यह शर्त तो कतई नहीं थी कि वह सब कुछ मुझे सौंप कर, एक आया, नर्स, नौकरानी या हाउस-सर्वेन्ट बनाकर अपने ही बच्चों से दूर जाकर खड़े हो जायेंगे। मैं पूछना चाहती थी शिरीष, मैंने इस घर के लिए इतना सब कुछ किया, नहीं, उसे त्याग का नाम नहीं दूंगी, उसके बदले में मुझे अपने ही पति से इतना क्रूर ठण्डापन क्यों मिल रहा है? आज उनका परिवार एक ठोस आधार पर खड़ा है। शेखर आर्मी में कैप्टन है, प्रियंका डॉक्टरी कर रही है, शांतनु और परेश अच्छे अंक ला रहे हैं और मैं एम.ए., बी.एड. होने के बावजूद नौकरी नहीं कर रही क्योंकि मैं अभी भी मानती हूं, रंजीत, बच्चों और इस घर को मेरा पूरा समय मिलना ही चाहिए। मैं आज की नहीं सोचती, आने वाले समय की सोचकर मेरे माथे की नसें तड़कने लगती हैं। पांच-छ: साल बाद रंजीत रिटायर हो जायेंगे। तब तक बाकी बच्चे भी अपने कैरियर में लग ही चुके होंगे। तब चालीस-इकतालीस साल की उम्र से शुरू होने वाला हम दोनों के बीच का ठंडापन मुझे कब तक भोगना होगा, यह सोच-सोचकर मरी जाती हूं।
ऐसा नहीं है कि मैंने रंजीत को इस अंधे कुएंं से निकलने की कोशिश न की हो। प्यार, मनुहार, रूठना, गुस्सा होना, उन पर कोई असर नहीं करते। वह अभी भी बेडरूम में लेटे लिथोट्रिप्सी पर कोई लेख पढ़ रहे हैं। मुझे पता है वह सचमुच बीमार हैं तो लिथोट्रिप्सी ट्रीटमेंट से एकदम ठीक हो जायेंगे। लेकिन वह ठीक ही कहां होना चाहते हैं। दरअसल, उन्हें कोई रोग है ही नहीं। उन्हें रोग होने का वहम भर है। और वहमों के इलाज नहीं हुआ करते। वे हाइपोकौन्ड्रियाक हैं।
ये सारी बातें थीं, किसी से कहना चाहती थी। आज तुम्हारी कहानी देखकर, लगा तुम्हीं सही व्यक्ति हो, जिससे मैं अपने मन की बात कह सकती हूं। हम दोनों एक-दूसरे को जानते-समझते थे। अपने प्रति तुम्हारी भावनाओं को मैं समझती थी, तुम मुझे अच्छे लगते थे और, मुझे पता है तुम्हारी उन दिनों की सारी कहानियों, कविताओं की नायिका मैं ही हुआ करती थी। शायद आगे चलकर हमारे सम्बन्ध और प्रगाढ़ होते, लेकिन ये सब तो तब होता जब होता, हुआ तो वही जो आज मेरे सामने है। तुम यह भी सोच सकते हो, ये बातें मैं तुम्हें पहले भी तो लिख सकती थीं, तुम्हारी कहानियां उपन्यास पहले भी खूब छपे ही हैं, पर हर बार मैं खुद को एक मौका और देती थी। शायद कहीं कुछ हो जाए। स्थितियां बदल जायें। लेकिन शायद बदलाव शब्द मेरे हिस्से में नहीं लिखा है।
मैं अपना पता जानबूझ कर नहीं लिख रही हूं। नहीं चाहती तुम मुझे ढूंढ़ते हुए आओ और अब जब सब कुछ खत्म होने को है, तुम आकर मेरी और अपनी परेशानियां बढ़ाओ। तुम्हारे लेखन के बारे में तो खूब जानती हूं, कामना करती हूं और ऊपर उठो, तुम्हारे परिवार के बारे में जानना चाहती थी, पर उसके लिए पता लिखना पड़ेगा। तुम मुझे पत्र लिखो, यह मैं नही चाहती।
एक बात और, यह सब पढ़कर मेरे लिए अफसोस मत जाहिर करना, न ही यह सोचना कि तुम मेरे लिए कुछ नहीं कर पाए। उसकी ज़रूरत नहीं। हां, कहीं भूल से अगर मुलाकात हो जाए, तो यही जतलाना, तुम मझे नहीं जानते, न ही तुम्हें यह सब पता है।
फिर से वचन दो, इसे कहीं छपवाओगे नहीं।
बस, खत्म करती हूं।
श्री...

Monday, March 10, 2008

चौथी कहानी : राइट नम्बर : राँग नम्बर

राइट नम्बर
इस मामले की शुरूआत उस वक्त हुई थी जब मैंने रिलायंस का मोबाइल फोन लिया ही था। शायद तीसरा या चौथा दिन रहा होगा। घंटी बजने पर मेरे हैलो कहने पर फोन करने वाले ने रूबी से बात कराने के लिए कहा। जब मैंने बताया कि ये नम्बर किसी रूबी का नहीं, मेरा है तो सामने वाले ने हैरानी से कहा कि ये कैसे हो सकता है, रूबी ने खुद ही ये नम्बर दिया है और इससे पहले भी इसी नम्बर पर रूबी से बात हो चुकी है। लेकिन मेरे कई बार बताने पर भी सामने वाला शख्स आश्वस्त नहीं लग रहा था। इसके बाद तो अक्सर दूसरे चौथे रोज मेरे मोबाइल पर रूबी के लिए फोन आने लगे। फोन करने वाले जो भी होते, जिद करते कि ये नम्बर रूबी का ही है और वे इस नम्बर पर पहले भी रूबी से बात कर चुके हैं। हद तो तब हो गयी एक बार दिल्ली विजिट के दौरान जब मोबाइल की घंटी बजी तो मेरे हैलो कहने से पहले ही सामने से किसी लडकी की आवाज सुनायी दी, `मम्मी, मम्मी', जब मैंने उसे बताया कि ये उसकी मम्मी का नम्बर नहीं, मेरा नम्बर है, तो वह हैरानी से बोली कि ये कैसे हो सकता है, ये तो मम्मी का ही नम्बर है और ये फोन आपके पास कैसे आ गया। मेरे कई बार समझाने के बाद भी उस लडकी ने अपनी जिद न छोडी और बार बार फोन करके मुझे हैरान करती रही और ख्दा परेशान होती रही। तीन चार बार के बाद उसकी आवाज में रूआंसापन साफ झलकने लगा था। कहने लगी कि उसे मम्मी से तुंत और जरूरी बात करनी है और आप हैं कि बार बार इस नम्बर पर आ जाते हैं। मेरे पास कोई उपाय नहीं था कि उसकी और उसकी मम्मी की आपस में बात करा देता। मैंने जब उससे पूछा कि वह बोल कहां से रही है तो उसने बताया कि लोनावला से। तो इसका मतलब हुआ, जरूर मुंबई और किसी नजदीकी शहर में एक ही नम्बर दो पार्टियों के पास हो सकता है। इस रहस्य से पर्दा तब उठा जब मैंने उससे पूछा कि वह लोनावला गयी कहां से है। उसने बताया पुणे से।
अब जा कर मुझे पूरा मामला समझ में आया कि रूबी को फोन करने वाले इतने आत्म विश्वास के साथ मेरे मोबाइल को रूबी का मोबाइल समझ कर बात कैसे करते थे। पुणे का एसटीडी कोड है 020 और मुंबई का 022, बाकी नम्बर वही। अनजाने में या बिना एसटीडी कोड के सीधे ही नम्बर डायल कर देने से इस बात की पूरी गुंजाइश हो सकती है कि रूबी के लिए फोन मेरे नम्बर पर आते रहे। अगर मेरे नम्बर पर उसके लिए फोन आ सकते हैं तो इस बात की भी तो संभावना हो सकती है कि लोग बाग मुझसे बात करने के लिए रूबी का नम्बर डायल करते रहे हों। मैंने मोबाइल कम्पनी से भी फोन करके पूछा कि ये माजरा क्या है, बार बार मेरे मोबाइल पर किसी रूबी के लिए फोन क्यों आते हैं तो पहले तो वे यही बताते रहे कि ये नम्बर मेरा ही है, लेकिन जब मैंने जोर दे कर कहा कि मुझे बताया जाये कि क्या पुणे में भी यही नम्बर किसी रूबी के पास है तो उन्हने कन्फर्म किया कि हां, पुणे में भी यही नम्बर किसी रूबर्टीना रॉड्रिक्स के नाम पर है, बल्कि ये नम्बर और भी शहर में हो सकता है, फर्क सिर्फ एसटीडी कोड का ही है।
अब मेरी परेशानी कुछ हद तक कम हो गयी थी। उसके लिए अब जो भी फोन आते थे, तो राइट नम्बर या रांग नम्बर की बहस किये बिना मेरे लिए उन्हें बताना आसान हो गया था कि वे मुंबई के एसटीडी कोड के बजाये पुणे का एसटीडी कोड लगा कर यही नम्बर डायल करें, रूबी से बात हो जायेगी।
लेकिन असली किस्सा तब शुरू हुआ जब मैं पिछले दिनों एक सेमिनार के सिलसिले में पुणे में ही था। सेमिनार में होने के कारण मोबाइल वाइब्रेशन मोड में रखा हुआ था। इतने में इनकमिंग फोन का संकेत आया। सामने नजर आ रहा नम्बर मेरे परिचित में से किसी का भी नहीं था। इसलिए फोन एंटैंड करने की कोई जल्दी नहीं लगी मुझे। लेकिन जब बार बार उसी नम्बर से फोन किये जाने के संकेत आने लगे तो मजबूरन मुझे सेमिनार से बाहर आ कर फोन एटैंड करना पडा। फोन रूबी के लिए था। पिछले कई दिन से उसके नाम पर कोई फोन नहीं आया था इसलिए उसका नाम भी दिमाग से उतर चुका था। अचानक उसके लिए फोन आने पर याद आया, `अरे, रूबी भी तो पुणे में ही रहती है और उसका नम्बर भी वही है जो मेरा है।' फिलहाल ज्यादा उत्तेजित हुए बिना या बहस किये बिना मैंने फोन करने वाले से यही कहा कि वह मुंबई के बजाये पुणे के एसटीडी कोड के बाद यही नम्बर डायल करके रूबी से बात कर सकता है।
सेमिनार के चक्कर में रूबी का फिर ख्याल ही नहीं आया लेकिन बाद में इनकमिंग कॉल्स के नम्बर मोबाइल से मिटाते समय मिस्ड कॉल्स में कई बार नजर आ रहे इस अनजान नम्बर को देख कर याद आया कि इस नम्बर से तो रूबी के लिए फोन किया गया था। तो तो क्या, रूबी से बात की जा सकती है। कम से कम यही बताने के लिए कि हम दो अलग अलग शहर में रहते हैं लेकिन हमारी मोबाइल कम्पनी भी एक ही है और हम दोन के नम्बर भी संयोग से एक ही हैं। मैंने पुणे का कोड लगाते हुए रूबी का नम्बर मिलाया। फोन कनेक्ट होने पर मैंने रूबी के लिए पूछा। लाइन पर वही थी। मैंने अपना परिचय दिया और बताया कि किस तरह से हम दोनों के पास एक ही नम्बर है और अक्सर मेरे मोबाइल पर उसके लिए फोन आ जाते हैं। आज अभी थोडी देर पहले ही आपके लिए एक फोन आने पर याद आया कि मैं आप ही के शहर में हूं और संयोग से इस समय पुणे में ही हूं, इसलिए जस्ट हैलो कहने के लिए फोन कर दिया। मेरी बात सुन कर वह बहुत हैरान हुई कि कितना मजेदार संयोग है। उसने यह भी बताया अक्सर उसे फोन करने वाले बताते रहे हैं कि उसके नम्बर के लिए अक्सर रांग नम्बर लग जाया करता था। मैं कुछ और पूछता कि रूबी ने खुद ही कहा कि इस समय वह किसी ऑफिस में है और आधे घंटे बाद तसल्ली से बात कर पायेगी। उसने फोन करने के लिए मेरा आभार माना। नेवर मांइड कह के मैंने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया।
मैं बेहद रोमांचित महसूस कर रहा था कि क्या तो अजीब संयोग है कि मैं अपने ही फोन नम्बर वाली लेडी से बात कर रहा हूं। अगर परिचय कहीं आगे बढे तो फोन नम्बर याद करना कितना आसान। अपना ही फोन नम्बर। वह बेहद शालीनता से और साफ सुथरी अंग्रेजी में बात कर रही थी।
आधा घंटा बीतते न बीतते उसी की तरफ से फोन आ गया। लेकिन इस बार संकट मेरी तरफ था। मैं अभी भी सेमिनार में था। इसलिए मैंने एसएमएस करके उसे बताया कि फिलहाल मैं व्यस्त हूं। क्या वह बाद में फोन कर सकती है।
बात आयी गयी हो गयी। पुराने यार दोस्त से मिलने और नये परिचित के चक्कर में देर तक याद ही नहीं आया कि रूबी से फोन पर बात करनी है। मोबाइल पर निगाह डालने पर देखा, रूबी की तरफ से एसएमएस था - नेवर मांइड, रूबी। सोचा, अब मैं भी फ्री हूं और हो सकता है, वह भी फ्री हो, मैंने एक बार फिर उसका नम्बर मिलाया। मेरा नाम सुनते ही ढेर सवाल पूछने लगी, `मुंबई में कहां रहते हैं, घर में और कौन कौन हैं, कहां काम करते हैं, किस तरह के सेमिनार में आये हैं, कहां हैं सेमिनार है और कब तक हैं।' बाप रे, उसने तो पहली ही बार में इतने सारे सवाल पूछ डाले। किसी तरह सरसरी तौर पर उसे कुछेक बातें बतायीं और कुछेक गोल कर लीं। किसी को भी फोन पर पहली ही बार में यह बताना कि हम कहां काम करते हैं और घर में कौन कौन हैं, किसी भी तरह से उचित नहीं लगता। न पूछना, न बताना। पूछने लगी कि क्या कर रहे हैं इस वक्त तो बताया मैंने कि बस, जरा शाम के वक्त टहलने के लिए जिमखाना की तरफ जा रहे हैं। अचानक पूछा उसने, `कि आप कब फ्री होंगे और पुणे में कब तक हैं।'
मैं ये सवाल सुन कर हैरान भी हुआ और रोमांचित भी कि ये सवाल उसी की तरफ से पूछा जा रहा है और मैं परेशानी में डालने वाले इस तरह का सवाल पूछने से बच गया। मैंने हिसाब लगाया, सेमिनार कल यानी शनिवार की शाम तक है और मेरी वापसी का कुछ तय नहीं, परस रविवार की दोपहर किसी भी वक्त वापिस जाया जा सकता है। मैंने उसे अपने प्रोग्राम के बारे में बताया। तभी उसने बताया कि वह बाद में फोन करेगी।
अच्छा भी लगा और हैरानी भी हुई कि दो दिन के लिए पुणे आना हुआ और एक बिल्कुल नये किस्म का परिचय होने जा रहा है। मुलाकात न भी हो, कम से कम फोन पर तो बातचीत का सिलसिला बना ही रह सकता है। ये तो तय है कि वह एक युवा लडकी की मां है। जिस तरह से उसकी लडकी ने मुझसे बात करते हुए बताया था कि वह मम्मी से बात करना चाहती है, आवाज और अंदाज से तो यही लग रहा था कि वह लडकी अपनी सहेलियों के साथ लोनावला घूमने आयी होगी। कॉलेज वाली लडकी यानि सत्रह अट्ठारह बरस की उम्र और इस हिसाब से रूबी की उम्र होगी यही कोई चालीस के आस पास।
रात साढे नौ बजे फोन आया उसका। वह इधर उधर के ऐसे सवाल पूछती रही जो आम तौर पर लोग नये परिचय के वक्त पूछते ही हैं। फोन रखते समय उसने कहा, `टेक केयर डीयर, कल बात करेंगे।' पिछले आठ घंटे के दौरान हमारे बीच चार बार बात हुई थी।
शनिवार सारा दिन सेमिनार की भेंट चढ गया। याद तो था कि रूबी से बात करनी है लेकिन जब भी मैंने फोन किया, उसने एकाध वाक्य के बाद ही कह दिया कि वह बाद में खुद फोन करेगी। मैंने भी कोई उतावली नहीं दिखायी और अपने यार दोस्त में ही व्यस्त रहा। उसकी तरफ से भी कोई फोन नहीं आया। एकाध बार मुझे याद आया भी होगा तो फुर्सत नहीं रही।
जिस वक्त उसका फोन आया तब हम रात के खाने के लिए डाइनिंग हॉल की तरफ जा ही रहे थे। पूछने लगी, `कैसा रहा दिन और कैसी रही शाम, कहां गये थे घूमने आज? मैंने बताया कि आज तो दिन भर बेहद बिजी रहे और शाम को यूं ही बस, आस पास ही टहलते रहे और कुछ खास नहीं किया।
अचानक उसने पूछा, `कुछ ड्रिंक वगैरह लिया या नहीं? मैं उसके इस सवाल पर हैरान हुआ कि किस तरह की लेडी है, सारा लेखा जोखा बिन मिले ही जान लेना चाहती है।
मैंने उसे बताया कि शाम तो ठीक ठाक रही लेकिन ड्रिंक इसलिए नहीं लिया क्यकि मैं जिन दोस्त के साथ था, उनमें से कोई भी पीने वालों में से नहीं था। अब अकेले फिर बाजार जा कर अपने लिए कुछ लाने की तुक नहीं लगी।
`क्या पीते हैं आप? पूछा उसने।
`वैसे तो बीयर लेता हूं लेकिन ड्रिंक्स में वोदका ही पसंद करता हूं।' बताया मैंने।
तभी वह बोली, `मुझे भी वोदका पसंद है हालांकि इधर कई दिन से मौका ही नहीं बन पाया है।'
मैं हैरान हुआ कि अरे ये तो अच्छी खासी मॉड लेडी है। ड्रिंक्स भी लेती है और जानकारी भी रखती है। अभी तो हमारी मुलाकात भी नहीं हुई थी और हमारा परिचय मात्र चार पांच फोन कॉल पुराना है फिर भी उसकी तरफ से इस तरह के सवाल मुझे हैरानी में डाल रहे हैं।
`और क्या पसंद है आपको ? बात आगे बढाने की नीयत से पूछा मैंने।
`बहुत कुछ पसंद है वैसे तो लेकिन, उसने ठंडी सांस भरी है, `जिंदगी है कि कुछ एन्जाय ही नहीं करने देती।'
`ऐसा क्या हो गया?
`क्या बतायें, जाने दीजिये।' उसने टालना चाहा है।
मैंने उसके मूड को देख कर बातचीत का रूख बदलने की नीयत से पूछा है, `क्या करती हैं आप?'
`मैं इस्टेट कन्सलटैंट हूं। बडी बडी कम्पनियों के लिए लीज्ड फ्लैट्स का इंतजाम करती हूं।'
`ऑफिस कहां है आपका?'
`मैं घर से ही आपरेट करती हूं।'
`काफी क्लायंट्स होंगे आपके और घूमना भी बहुत पडता होगा आपको?'
`हां, काम ही ऐसा है कि सारा दिन घर से बाहर रहना पडता है। खैर, मेरी जाने दीजिये, अपने बारे में कुछ बताइये', कहा है उसने।
मैंने टालना चाहा है,` ऐसा कुछ भी नहीं है बताने लायक मेरे पास। कभी मिले तो बता भी देंगे।' मैंने टोह लेनी चाही है।
`क्या हम आपसे मिलने आ सकते हैं ?' ये उसकी तरफ से सीधा और साफ सवाल था और पूछने में किसी भी तरह का संकोच नहीं था।
`हां हां, श्योर जब आप चाहें।' अब मैं घिर चुका था।
`कब?'
`ऐसा कीजिये, कल दिन में तो मैं चला जाऊंगा, दो एक लोग से मिलने का भी तय कर रखा है। आप एक काम कीजिये, सवेरे बेकफास्ट हमारे साथ लीजिये।'
`कितने बजे?'
`यही कोई साढे आठ के करीब।'
`ठीक है मैं थोडी देर में कन्फर्म करके बताती हूं,,'
बाद में उसने कन्फर्म किया, `बेकफास्ट पर ठीक साढे आठ बजे आ जायेगी। लेकिन दस मिनट बाद ही उसका फिर से फोन आ गया, `सुबह तो आना नहीं हो पायेगा, ऐसा करते हैं, मैं दस बजे के आपस पास आऊंगी, आपसे खूब बातें करेंगे, वी विल हैव सम नाइस टाइम टूगेदर, आप का मूड होगा तो थोडी सी वोदका भी ले लेंगे और लंच हम एक साथ लेंगे।' उसने सारे फरमान एक साथ सुना दिये हैं।
`ओह श्योर, मैं आपका दस बजे इंतजार करूंगा।' मैंने उसे गेस्ट हाउस का पता और लोकेशन बता दिये हैं।
मैं हैरान भी हूं और रोमांचित भी। कोई महिला भला बिना मिले किसी के गेस्ट हाउस में आकर खुद गप शप करने, वोदका पीने और लंच या साथ लेने का प्रोग्राम कैसे बना सकती है। सबसे ज्यादा मुझे परेशानी उसके इस वाक्य से हो रही है जो उसने हंसते हुए कहा है कि वी विल हैव सम नाइस टाइम टूगेदर।
क्या मतलब हो सकता है इस वाक्य का। वह दस बजे आयेगी, हम वोदका पीयेंगे, दो पैग ...तीन पैग। आखिर दिन में पीने की और वह भी एक अनजान औरत के साथ पहली ही मुलाकात में पीने की एक सीमा हो सकती है और होनी भी चाहिये। उसका ये कहना कि लंच एक साथ लेंगे, लंच लेने गये भी तो एक ड़ेढ बजे ही जा पायेंगे। इसका मतलब वह तीन चार घंटे यहां बिताने की नीयत से आ रही है। शादी शुदा और एक बच्ची की मां तो वह है ही, घर में और लोग बाग भी होंगे, मुंबई में तो कोई भी घर परिवार वाला आदमी रविवार का दिन अपने परिवार के बीच ही बिताना चाहता है, और यहां तो ये अनजान मोहतरमा का मामला है जो मेरे साथ तीन चार घंटे गपशप करने, वोदका पीने और कुछ अच्छा वक्त बताने की नीयत से आ रही है। समझ में नहीं आ रहा, इस सारे जुमले का क्या मतलब निकालूं।
कहीं कोई ऐसी वैसी औरत न हो। मतलब लाइन से उतरी हुई जो किसी न किसी बहाने शिकार तलाशने की फिराक में रहती हो, लेकिन कल तक तो वह मुझे जानती भी नहीं थी और पहला फोन भी मैंने किया था। भला इस तरह से किसी को अपने चंगुल में कैसे फंसाया जा सकता है। बातचीत से तो भले घर की महिला लग रही है। एक अनजाना सा डर भी लग रहा है कि कहीं किसी जाल में न फंस जाऊं। लेकिन अपने आप को तसल्ली देता हूं कि मैं कोई छोटा बच्चा थोडे ही हूं और न ही वह कोई जादूगरनी ही है जो मुझे देखते ही मेढा बना डालेगी। आखिर जिंदगी में पहली बार तो किसी अनजान औरत से नहीं मिल रहा हूं। फिर मैं अपने गेस्ट हाउस के कमरे में ही तो होऊंगा। अपनी जगह पर होने की एडवांटेज तो मुझे ही मिलेगी। बस, एक काम और बढ गया बैठे बिठाये। अब मुझे बाजार जा कर वोदका वगैरह का इंतजाम करना पडेगा।

पता नहीं क्या वजह रही होगी कि रात भर सिर दर्द के कारण सो ही नहीं पाया। कई बार उठा, सिर पक़ड कर बैठा रहा लेकिन कुछ सूझा ही नहीं कि क्या करूं। मुझे ये भी पता नहीं था कि मेरे आस पास के कमर में कौन टिके हुए हैं। और इस बात की भी कोई गारंटी नहीं थी कि उनके पास सिर दर्द की गोली मिल ही जाये। सवेरे पांच बजे के आस पास ही नींद आ पायी होगी।
सवेरे डाइनिंग हॉल में बेक फास्ट के समय सबसे मिलते समय मुझे इस बात की बहुत तसल्ली हुई कि अच्छा हुआ कि रूबी ब्रेक फास्ट के टाइम नहीं आयी, नहीं तो इतने लोग को जवाद देना भारी पड जाता।

डाइनिंग हॉल में ही एक साथी से सिर दर्द की गोली ली और कमरे में आ कर लेट गया। हालांकि ज्यादातर साथियों की फ्लाइट में अभी समय है और सबका आग्रह भी है कि थोडा सा वक्त तो उनके साथ गुजारूं, फिर पता नहीं कब मिलना हो, लेकिन मुझे आराम की सख्त जरूरत है, इसलिए सबसे माफी मांग कर गोली खा कर कमरे में आ कर लेट गया हूं। अभी पौने नौ ही बजे हैं और रूबी के आने में अभी कम से कम एक ड़ेढ घंटा बाकी है। इतनी देर में मैं रात की बकाया नींद में से थोडी सी तो पूरी कर ही सकता हूं।

मेरी नींद पौने ग्यारह बजे खुली। मोबाइल बज रहा है। पत्नी का फोन है। पूछ रही है वापिस आने का क्या प्रोग्राम है। मैंने उसे बताया है कि रात सिरदर्द की वजह से सो नहीं पाया हूं। अभी सो रहा हूं। तीन बजे के आस पास की बस ले कर आ जाऊंगा।
अचानक याद आया कि इस समय तक तो रूबी को आ जाना चाहिये था। पता नहीं आ भी रही है या नहीं। पत्नी के फोन से यह भी ख्याल आया कि कहीं मैं अपनी पत्नी से बेईमानी तो नहीं कर रहा हूं। फिर अपने आप को खुद ही तसल्ली दे दी है कि इसमें बेईमानी कहां से आ गयी। कोई भली महिला मुझसे मिलने आ रही है। हां, यह जरूर है कि वह चाय कॉफी के बजाये वोदका पीयेगी। बस, और क्या। इसमें बेईमानी कहां से आ गयी। हम दो भले आदमियों की तरह मिलेंगे, बात वात करेंगे और उसके बाद वो अपनी राह और मैं अपनी राह। मैंने सोचा जब तक रूबी आये, एक झपकी और ली जा सकती है। क्या पता न ही आये। आना होता तो अब तक आ जाती।
इंटरकॉम की कर्कश आवाज से फिर नीद खुली। रिसेफ्शन से फोन है, `कोई मैडम आपसे मिलने आयी हैं।'
वक्त देखा - बारह दस हो रहे हैं।
बताया मैने, `भेज दो और गाइड कर दो ताकि कमरा खोजने में उन्हें तकलीफ न हो।'
तो आखिर आ ही गयी रूबी मैडम। दिल में धुकधुकी हो रही है कि देखने में, व्यवहार में कैसी होगी और कैसे वो पेश आयेगी और कैसे मैं पेश आऊंगा। अपनी धडकन पर काबू पाने के लिए मैं पूरा गिलास पानी पीता हूं। बिना जरूरत बाथरूम जा रहा हूं।
दरवाजे पर नॉक हुई है।


रॉंग नम्बर
मैंने धडकते दिल से दरवाजा नॉक किया है। दरवाजा खुला है। मेरे सामने जो मर्द ख़डा है, पचास बावन साल के आस पास का है। स्मार्ट लग रहा है। कुर्ते पैंट में है। पर्सनैलिटी से लग रहा है, बडा अफसर होगा।
मुस्कुरा कर उसने मेरी तरफ हाथ बढाया है लेकिन मैंने जानबूझ कर मुस्कुराते हुए हाथ ज़ोडे हैं और भीतर आयी हूं। कमरे का जायजा लेती हूं। एसी, टीवी, फोन, कार्पेट, बढिया फर्नीचर। मतलब किसी ऊंची पोस्ट पर जरूर होगा। मेज पर रखी वोदका की फुल बॉटल, स्नैक्स और लाइम कार्डियल। इसका मतलब बुढऊ ने पूरी तैयार कर रखी है। आज मुझे निराश नहीं होना पडेगा। बेचारा दो घंटे से मेरी राह देखते देखते थक गया होगा।
`वेलकम रूबी,' मेरा स्वागत किया है उसने और पूछा है,`देर कहां हो गयी आपको। आप तो दस बजे आने वाली थीं।'
`क्या बताऊं। एक पार्टी के पास जाना पड गया। चेक कलेक्ट करना था उनसे। पूरा एक घंटा बैठी रही।' मैंने शुरूआत ही झूठ से की है और ठंडी सांस भरते हुए बात पूरी की है, `तब जा कर चेक मिला।' अब मैं इस आदमी को कैसे बताऊं कि उसे दो घंटे इंतजार कराने के चक्कर में ही मैं साढे ग्यारह बजे घर से निकली हूं। पार्टी को जितना इंतजार कराती हूं, उतना ही मीठा फल मिलता है। और अगर आदमी इसी उम्र का हो तो पता नहीं मेरे आने तक कितने सपने बुन लेता है। हर तरह के सपने और इन्हीं सपनों की कीमत वसूलती हूं। वैसे भी मुझे पता था अपने गेस्ट हाउस के कमरे से निकल कर बेचारा कहां जायेगा?
`फिर तो आज आप बहुत अमीर हो गयीं?' पूछ रहा है।
`अरे नहीं सर, मेरी नयी कम्पनी के नाम से चेक दिया है पार्टी ने। पहले तो इस कम्पनी के नाम से एकाउंट खोलना होगा। तब जा कर चेक जमा कर पाऊंगी। एक वीक तो लग ही जायेगा।' मैंने पहला दाना डाला है। लेकिन एक बात माननी पडेगी। घाघ लग रहा है।
`पानी पीयेंगी आप?' मेरे थके चेहरे की तरफ देख कर पूछा है उसने?
`यर सर, पानी तो पीऊंगी।'
पानी दिया है उसने। मैंने पूरी अदायें दिखाते हुए, पसीना पछते हुए और रूमाल लहराते हुए पानी लिया है और अब सोफे पर आराम से बैठ गयी हूं। और उसे ये दिखाने के लिए कि मैं उसमें और उसके पूरे माहौल में दिलचस्पी ले रही हूं, मैं कमरे को एक बार फिर देख रही हूं।
वह हैरानी से मुझे देखे जा रहा है।
पूछ ही लिया है उसने, `क्या देख रही हैं आप?'
`इस कमरे का तो बहुत ज्यादा किराया होगा?' मेरे सवाल के जवाब में वह अपने पलंग पर तकिये का सहारा ले कर आराम से पसर गया है।
`नहीं, हमें किराया नहीं देना पडता। ये हमारे ही ट्रेनिंग इंस्टीटयूट का गेस्ट हाउस है। नॉन एसी कमरे भी हैं लेकिन हमारे लेवल के ऑफिसर्स के लिए सारे कमरे ऐसे ही हैं।'
`खाने का क्या एरेंजमेंट है?'
`डाइनिंग हॉल है। खाने का इंतजाम वहां है। बस, हमारे एलांउसेसस से थोडे पैसे काट लेते हैं रहने खाने के।'
मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है कि एलांउसेसस से थोडे पैसे काट कर इतनी अच्छी सुविधा मिल सकती है।
`वोदका पी जाये?' मेरी बेचैन निगाह को रोकते हुए पूछा है उसने।
`ओह श्योर,' कहा है मैंने, 'दरअसल, पहले हमारा कैटरिंग का ही बिजिनेस था।' मैंने चुग्गा डालना शुरू किया है, `हमारे पास कई कम्पनियां थीं, पचास साठ का स्टाफ था लेकिन सब कुछ ठफ्प हो गया। मेरे हसबेंड को पेरेलिसिस हो गया और सब खत्म हो गया।' मैंने उसके हाथ से वोदका का गिलास ले कर अपने दोनों हाथ में घुमाते हुए कहा है। इस्टेट एजेंसी, कन्सलटेंसी, कैटरिंग वगैरह ऐसे काम हैं जिनके बारे में जी भर कर झूठ बोला जा सकता है और पहली मुलाकात में तो इन काम के जरिये मैं अपनी अच्छी खासी इमेज बना लेती हूं। मेरे आगे के सारे कदम आसान हो जाते हैं। देखें, ये जनाब कितनी देर में लाइन पर आते हैं।
`वेरी सैड, ये तो बहुत बुरा हुआ।' उसने अफसोस जताया है। आदमी लाइन पर लाया जा सकता है। मेरी कहानी उसे उदास कर दे, यही तो मैं चाहती हूं।
`मैं आपको अपनी कम्पनी के क्लायंट्स की लिस्ट दिखाती हूं कितनी लम्बी लिस्ट थी।' मैंने गिलास रख कर अपने पर्स में से कागज खोजने का नाटक करना शुरू किया है। ऐसे मौक पर बहुत बडा पर्स रखना कितना अच्छा रहता है जिसमें ढेर कागज, विजिटिंग कार्ड वगैरह ठुंसे हुए हों। कुछ भी ढूंढने का नाटक करते रहो, फिर कोई बीच में ही और कोई बात शुरू करके ढूंढना अधबीच में ही छोड दो। यही किया है मैंने। अब बता रही हूं उसे कि हसबेंड के इस तरह से बैड रिडन होने के कारण सारा काम मुझे ही करना पडता है। अब मैंने पर्स में से रूमाल निकाल लिया है। हाथ में रूमाल हो तो आंख के पास रूमाल बार बार ला कर रोने का नाटक बेहतर तरीके से हो सकता है। मैंने बात आगे बढायी है, `अब तो सब कुछ मेरे ही हाथ में है। हर तरह के काम कर लेती हूं मैं। प्‍फ्लेसमेंट का काम भी करती हूं। पुणे में सर, आप जानते हैं कि एडमिशन मिलना कितना मुश्किल होता है। अभी मैंने एक बच्चे का एडमिशन कराया। तीन हजार का चेक मिला मुझे। मैं दिखाती हूं आपको।' मैंने एक बार फिर खोजने का नाटक किया है।
अचानक चेक खोजना छोड कर पूछा है उनसे मैंने, `आपके इस इंस्टीटयूट का कैटरिंग कांट्रैक्ट मुझे मिल सकता है क्या? मेरी फैमिली को बहुत बडा सहारा हो जायेगा।`
उसने मेरी तरफ देखा है मानो मुझे तौल रहा हो। वह जिस तरह की निगाह से मुझे देख रहा है, कहीं उसे पता तो नहीं चल गया कि मैं क्या हूं और किस मकसद से आयी हूं। लगता तो नहीं कि इसे बिस्तर तक ले जा सकूंगी। इमोशनल ब्लैकमेलिंग भी पता नहीं चलेगी या नहीं। पता नहीं आज काम भी हो पायेगा या नहीं।
उसने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया है और अपना गिलास दोबारा भरा है। मेरे गिलास का तरफ देखा भी नहीं कि खाली है या नहीं। मुझे बेहद भूख लगी है। सुबह से कुछ खाया नहीं है। स्नैक्स ही तसल्ली से खा रही हूं।
`ये कहना तो बहुत मुश्किल है कि आपको इंस्टीटयूट का कैटरिंग कांट्रैक्ट कैसे मिल सकता है लेकिन मैं आपको यहां के मैनेजर का कांटैक्ट नम्बर वगैरह दे देता हूं। आप बाद में खुद चेक कर लेना।' आखिर कहा है उसने।
`श्योर, मैं उन्हें आपका रेफरेंस दे दूं?' मैंने चेहरे का रंग बदला है और अपने चेहरे पर हंसी लाने की कोशिश की है। जो कुछ करना है जल्दी करना होगा।
`हां कोई दिक्कत नहीं, आप बता दीजिये मेरा नाम।'
अब ये नई मुसीबत, मैंने अब डायरी और पैन खोजने के लिए फिर से पर्स खंगालना शुरू किया लेकिन अधबीच में ही छोड कर उससे पूछा है,`आप बॉम्बे के ही रहने वाले हैं क्या?'
`नहीं, मैं राजस्थान का रहने वाला हूं। मुंबई में तो नौकरी की वजह से हूं।'
`घर में और कौन कौन हैं?' मैंने उनकी टोह लेनी चाही है।
टाल गया है मेरा सवाल। फिर अपने गिलास के साथ साथ मेरे खाली गिलास में वोदका डालने लगा है। मैंने देखा है कि उसने मुझसे भी ज्यादा तेजी से अपना गिलास खाली किया है, जबकि मैं खुद ज्यादा अपनी नार्मल स्पीड से ज्यादा तेज पी रही हूं आज।
अब पूछ रहा है, `आपको तो अपने काम के सिलसिले में काफी घूमना पडता होगा। तरह तरह के लोगों से मिलना पडता होगा।'
`हां, हर तरह के लोग से मिलने जाना पडता है। हर तरह के एक्सपीरिंएस होते हैं। लेकिन लोग हमेशा मेरी मदद करते हैं। काम मिलता रहता है। अभी परसों ही एक बडी कम्पनी की एक लडकी को पेइंग गेस्ट एकोमोडेशन दिलवाया। एक महीने रेंट मिला मुझे। पता है आपको सर, यहां एस्टेट एजेंट दो महीने का रेंट मांगते हैं लेकिन मैं सिर्फ एक ही महीने का लेती हूं। नया काम है ना। अभी नये नये क्लायंट्स बनाने हैं।'
अब मैं इसे कैसे बताऊं कि कैसे कैसे पापड बेलने पडते हैं मुझे इस धंधे में। असली धंधे में। मुझे तो बस, पैसे से मतलब है जैसे भी मिलें। कई बार इतनी मेहनत करने के बाद भी कुछ हाथ नहीं आता। पिछली बार कितनी मेहनत से भारत फोर्ज कम्पनी के उस बुड्ढे मैटेरियल मैनेजर पगारे को लाइन पर लायी थी। सोचा था लम्बी पारी खेलूंगी उसके साथ और किस्तों में उसे खुश करती रहूंगी। दस चक्कर कटवाये उसने तब जा कर कुछ बात बनी थी। मैं चाहती थी कि जो कुछ करना है, करे लेकिन काम तो करे मेरा। पूरा काम मिल जाता तो कम से कम तीस हजार बचते। लेकिन न हाथ रखता था न रखने देता था। आखिर में मुझे यही हसबेंड के बेड रिडन होने की कहानी सुनानी पडी तो मेरे कंधे पर हाथ रख कर सीरियस हो कर बोला था, यू आर लाइक माई यंगर सिस्टर, आइ विल डेफिनेटली हेल्प यू। लेकिन जब आर्डर देने का वक्त आया तो यही बुड्ढा एडवांस पन्‍द्रह पर्सेंट की मांग करने लगा। सीधे मुंह पर ही मांग लिया। नो रिलेशंस इन बिजिनेस। आपको सिस्टर बोला तो काम भी तो कर रहा हूं। कहां से देती मैं। होते तो देती भी। जब सिस्टर बना लिया तो सैक्स से थोडे ही मानने वाला था। बिस्तर पर आता तो फिफ्टीन पर्सेट कैसे मांगता। हलकट कहीं का। मेरे पांच सात दिन बरबाद किये।
`हां सो तो है, किसी भी नये काम में ये सब तो करना ही पडता है।' दार्शनिक अंदाज में बोल रहा है।
अचानक उसने ये सवाल पूछ कर जैसे मुझे एकदम नंगा ही कर दिया है, `एक बात बताइये रूबी, मैं कल से इस बारे में सोच रहा हूं।'
अब गये काम से। पता नहीं क्या पूछ बैठे। कहीं इसे मेरी असलियत तो पता नहीं चल गयी।
`पूछिये न सर,' मैंने डरते डरते कहा है।
`आप पहली बार मुझसे मिलने आ रही थीं और आपने मुझसे मिले बिना ही मेरे साथ ड्रिंक लेने का प्रोग्राम बना लिया। आम तौर पर लेडीज से इतनी बोल्डनेस की उम्मीद नहीं की जाती। आइ मस्ट से, यू आर रियली बोल्ड एंड स्ट्रेट फारवर्ड पर्सन।'
आखिर घेर ही लिया कम्बख्त ने। जरा भी ऐसा नहीं लगा इसे ये कहते हुए कि ये बात किसी लेडी से कैसे कही जा सकती है कि आपके आने का मकसद क्या है। हद है। जरा तो सोचता, मुझे खराब लग सकता है। अब तो मेरे सारे दांव बेकार जा रहे हैं। क्या जवाब दूं इसका। इसका मतलब, अब मैं चाह कर भी इसे बिस्तर तक नहीं ले जा सकती। कैसे कहूं कि मैं इसी मकसद से आयी थी कि कैसे भी करके हजार पांच सौ झटक सकूं। यही मेरा पेशा है और यही मेरा तरीका है। मैं कैसे बताऊं इसे कि मैं कोई भी कांटैक्ट बेकार नहीं जाने देती। इंश्योरेंस एजेंट की तरह। दिन दिन भर भटकती रहती हूं और लच्छेदार बात में लोगों को बेवकूफ बना कर अपना काम निकालती हूं। एक एक आदमी को टटोलती हूं। धोखे भी खाती हूं और कई बार एक पैसा पाये बिना लुट कर भी आती हूं। लेकिन यही काम है मेरा तो कैसी शर्म इसमें। लेकिन आपका मामला अलग है जनाब। आप ही ने तो पहला फोन किया था, भला मैं इतना अच्छा मौका हाथ से कैसे जाने देती।
मैंने इस बात का जवाब देने में भरपूर वक्त लिया है और अपने चेहरे का रंग बदला है, सोफे से ख़डी हो गयी हूं, और घूम कर पूरे कमरे का एक चक्कर लगाया है। टीवी ऑन करके ऑफ किया है और फिर चल कर उसके पलंग के पास आयी हूं। पलंग पर अभी भी पसरा लेटा है वह। मेरे एकदम निकट आने से चौंक गया है। घबरा कर पीछे हटा है कि पता नहीं क्या करने मैं उसके इतने निकट आ गयी हूं। मैंने उसकी आंखों में झांका है।
अचानक ही मेरा मोबाइल बजा है। धत् इसे भी इसी वक्त ही बजना था। मैं वापिस सोफे तक आ गयी हूं। फोन उठा कर देखा है और इन्कमिंग कॉल का नम्बर देख कर फोन डिस्कनेक्ट कर दिया है। हसबेंड का है। जरा भी चैन नहीं लेने देते। जरा घर से बाहर निकली नहीं कि फोन पर फोन।
इस बार मैं उसके नजदीक नहीं गयी हूं और सोफे पर बैठते हुए बोली हूं, `सर, मुझे विश्वास था कि आप भले आदमी हैं इसीलिए मैं आपसे मिलने आयी हूं। मुझे पता है आप सर, आप इतने बडे ऑफिसर हैं, मेरे साथ कोई जबरदस्ती तो नहीं ही करेंगे। हाई हैव फेथ इन यू सर।'
`कमाल है। बिना मिले ही मुझ पर इतना भरोसा?' उसका मूड बदला है।
`सर, मैंने भी दुनिया देखी है, फोन पर बात करते हुए भी हमें पता चल जाता है कि कौन कैसा है और किसके पास जाना चाहिये। आप मेरे पहले दोस्त हैं सर जिनसे फोन के जरिये परिचय हुआ है। और मुझे पता है मैं आपके पास बिलकुल सेफ हूं। लाइक एक ट्रू फ्रेंड।' मैं पता नहीं क्या क्या बोले जा रही हूं। अब मुझे सारे खेल को तुरंत बदलना होगा। सैक्स इस नाउ आउट। सीधे सीधे मदद मांगनी ही होगी। और कोई तरीका नहीं है।
आखिर मैंने कह ही दिया है, `सर, लेकिन मुझे आपकी मदद चाहिये।'
`बोलिये रूबी, मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं?'
अब वह भी समझ रहा है कि कुछ ऐसा घटने जा रहा है जिसके बारे में उन्हें पहले से तैयार रहना चाहिये था।
`मुझे कल अपने बेटे का नाइन्थ में एडमिशन करना है और मुझे वन थाउजेंड रूपीज चाहिये। मेरे पास तीन चार चेक हैं लेकिन आपको बताया ना, सर, एकाउंट पेयी हैं सारे और मेरी नयी कम्पनी है। कम्पनी का एकांउट खुलवाना ही भारी पड रहा है। जब भी आप अगली बार आयेंगे, मुझे सिर्फ एक दिन पहले फोन कर देंगे तो मैं जहां कहेंगे मैं पूरे पैसे साथ ले आ जाऊंगी। आप तो यहां आते रहेंगे सर। अब तो इस नयी फ्रेंड की खातिर भी आपको आना होगा। आयेंगे न सर? मेरी खातिर।'
`लेकिन डीयर, मैं जितने पैसे लाया था, ज्यादातर तो खर्च कर दिये हैं।' वह बता रहा है, `ये आफिशियल ट्रिप थी इसलिए ज्यादा लाया भी नहीं था। मेरे पास मुश्किल से पांच सौ होंगे। ढाई सौ बस के लिए और पचास के करीब ऑटो के लिए। रीयली सॉरी रूबी, मुझे कल भी बता दिया होता तो।'
`सर आज वाली पार्टी ने कैश देने के लिए कहा था लेकिन एकाउंट पेयी चैक दे दिया है।'
ये तो दिक्‍क्‍त हो गयी। बुड्ढा खाली हाथ टरकायेगा क्या। साथ ही डर भी लग रहा है कि कहीं चेक दिखाने के लिए ही न कह दे। मैंने इतने सारे चेकों का जिक्र कर तो दिया है और पर्स में चेक तो क्या बीस रुपये भी नहीं हैं।
`वो तो ठीक है, लेकिन मेरे पास सचमुच नहीं हैं। ये दो ढाई सौ हैं, अब अगर इनसे तुम्हारा काम चलता हो।'
ये तो पूरा घाघ निकला। अगर बिस्तर तक भी ले जा सकती तो शायद बात बन जाती। कुछ तो निकालता। अब तो गयी बाजी हाथ से। दो सौ से क्या बनेगा। शायद कुछ और निकालने को तैयार हो जाये। लेकिन ज्यादा से ज्यादा तीन सौ दे देगा। जब इतने ही मिलने हैं तो और वक्त बरबाद क्यूं करूं। इतने ही ले कर चैफ्टर को यहीं क्लोज करती हूं।
मैंने झट से कहा है,`सर, आप कितने बजे जायेंगे ?'
उसने घडी देखी है, `इस समय एक पैंतीस हो रहे हैं, यही कोई तीन चार के बीच। क्यों?'
`एक काम करती हूं मैं, थोडी देर के लिए जा रही हूं। बस, गयी और आयी, फिर आराम से बातें करेंगे। एक और पार्टी से दस मिनट का काम है, बस मिलना भर है। मैं वापिस आ ही रही हूं। आप आठ बजे के करीब चले जाना।'
`लेकिन आठ बजे जाने से तो मैं रात बारह बजे घर पहुंच पाऊंगा। बहुत देर हो जायेगी।'
`नहीं होगी देर सर, मैं बस, गयी और आयी, आप मेरी राह देखना। बहुत जरूरी काम है। मुश्किल से बीस मिनट लगेंगे।'
`लेकिन रूबी, आपके पास वैसे भी पैसे की कमी है, ऑटो में जाने आने के सौ डेढ सौ क्यों खर्च करती हैं ?'
`आप हैं न सर, मुझे किस बात की चिंता।' मैंने हंस कर उसका विश्वास जीतने की आखिरी कोशिश है। शायद बुड्ढा रोक ले।
`लेकिन कहा न मैंने, मेरे पास इतने ही हैं। उसने सचमुच जेब से दो सौ रुपये निकाल कर मेरे सामने कर दिये हैं।'
मैंने उसके हाथ से रुपये ले लिये हैं और उसे आश्वस्त करते हुए कहा है, `आप मेरी राह देखना सर, मैं गयी और आयी। मैं आपके साथ ढेर सारी बातें करूंगी, हम एक साथ डिनर लेंगे और मैं आपको बस स्टैंड तक खुद छोडने आऊंगी। वेट फार मी सर, जस्ट हाफ एन हावर।'
और मैं कमरे से बाहर हो गयी हूं।

राइट नम्बर
मुझे पता है, रूबी अब कभी वापिस नहीं आयेगी। फोन भी करूंगा तो मेरा नम्बर देखते ही डिस्केनक्ट कर देगी।
जाते जाते उसने मुझसे पूछा कि क्या वह बोतल में बची हुई वोदका ले जा सकती है।
मैंने वोदका की बोतल और नमकीन का पैकेट खुद ही उसे थमा दिये थे।