Monday, May 5, 2008

बारहवीं कहानी - रंग–बदरंग

उन्हें दूसरे पैग से नशा होने लगा है। दिमाग में हल्की–हल्की सी झनझनाहट शुरू हो गयी है। कुछ भी सिलसिलेवार नहीं सोच पा रहे हैं। `ऑन द राक्स' व्हिस्की के गिलास पर बार–बार पानी की बूँदें जम जाती हैं। वे उन बूँदों को बड़ा होते और गिलास के पैंदे की तरफ तेजी से बढ़ते देखते हैं और अपने माथे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछते हैं। सोचते हैं–गिलास भीतर से भी ठण्डा है और बाहर से भी। परन्तु उनका माथा! भीतर से किसी भट्टी के मानिन्द तप रहा है और बाहर से सारा बदन पसीने से तर–बतर है। वे एक लम्बा घूँट भरते हैं।
जैसे–जैसे उसके आने का वक्त नजदीक आ रहा है, उनकी घबड़ाहट बढ़ती जा रही है। पता नहीं कौन होगी! देखने में कैसी होगी! किस तरह से पेश आएगी! वेटर तो यही बता रहा था, कहीं नर्सिंग का कोर्स कर रही है। हर रोज या हर तरह के ग्राहक नहीं लेती। उनके लिए खास तौर से शाम फ्री रखी है उसने। वे घड़ी देखते हैं – सात पैंतीस। अभी पूरे पचपन मिनट बाकी हैं उसके आने में। एक घूँट भरते हैं वे। उठकर कमरे की खिड़की पर आ खड़े हुए हैं और कमरे में बज रहे संगीत की लहरियों के साथ ताल देने लगे हैं। अपनी टाँगों में कँपकँपाहट महसूस करते हैं। डर अभी भी उन्हें घेरे हुए है। कहीं ऐन वक्त पर कुछ ऐसा–वैसा न कर बैठें। इसीलिए खुद को नशे में पूरी तरह खो देना चाहते हैं। कहीं पढ़ा था, आप जो कुछ पूरे होशो–हवास में नहीं कर सकते, नशे की आड़ में आराम से कर सकते हैं। परन्तु उन्हें लगता है नशा उनकी घबड़ाहट भी बढ़ा रहा है।
वे खुद उस लड़की से कैसे पेश आएँगे! वह सब कुछ कर भी पाएँगे, जिसके लिए अपने शहर से सैकड़ों मील दूर इस शहर में एकान्त होटल में गलत नाम से टिके हुए हैं। कितनी तो मुश्किलों से यह सब करने के लिए यहाँ आ पाए हैं। वेटर से सब कुछ तय करने में ही उसकी आधी जान सूख गयी थी।
वे हौले–हौले चलकर सोफे तक आते हैं। साँस फूल गयी है। धम्म से बैठकर आँखें मूँद लेते हैं। नशा पोर–पोर तक पहुँच गया। काफी देर तक यूँ ही बैठे रहते हैं, आँखें बन्द किए। अचानक दरवाजे पर खटका हुआ है। एकदम चौंककर आँखें खोलते हैं–आ गयी शायद। उनके दिल की धड़कन फिर तेज हो गयी है। रक्तचाप तेजी से बढ़ता प्रतीत होता है। उठते हैं। हाथ से ही मुँह पोंछते हैं और कदमों को सन्तुलित करते हुए दरवाजे तक जाते हैं। रूम सर्विस वाला वेटर है।
`सर, और कुछ चाहिए?' वह बहुत नम्रता से पूछता है। वे राहत की साँस लेते हैं। अच्छा ही हुआ, अभी नहीं आयी। वे खुद को उसके लिए पूरी तरह तैयार ही कहाँ कर पाए हैं। वेटर को मना कर देते हैं, `नहीं कुछ नहीं चाहिए।' दरवाजा बन्द करके बिस्तर पर आ बैठते हैं। दोनों तकिये की पाटी पर टिकाकर अधलेटे हो गए और आँखें मूँद लीं।
वे फिर से उस लड़की के बारे में सोचना चहते हैं। बन्द आँखों में उसकी छवि बनाना चाहते हैं ताकि जब वह आए तो उसे अपनी कल्पना के अनुरूप पाएँ। किसी अजनबी खूबसूरत चेहरे का अक्स आँखों में बने, इससे पहले ही पत्नी का खयाल आ जाता है। एकदम उठ बैठते हैं। मूड़ बदमजा हो गया। बड़बड़ाते हैं, `कम्बख्त से जितना बचना चाहता हूँ, उतना ही पीछा करती है। कम–से–कम यहाँ तो पिण्ड छोड़े।' वे फिर बेचैन हो गए हैं। कमरे में तेजी से टहलने लगे हैं। एक नया पैग बनाते हैं और गिलास को दोनों हाथों में थामकर एक लम्बा घूँट भरते हैं।
उसी की वजह से तो मेरी यह हालत हो गयी है, वे सोचते हैं। कितने साल हो गए, इस तरह से असहज, तनावग्रस्त अधूरा जीवन जीते हुए। एक पूर्ण पुरूष से घटते–घटते वे कितने अधूरे–अधूरे से हो गए हैं। कहीं भी तो उन्हें अपने पूरेपन का अहसास नहीं मिल पाता। न पिता के रूप में, न पति के रूप में। न घर में, न दफ्तर में। हर वक्त जैसे कुछ झरता रहता है उनके व्यक्तित्व से। कच्ची ईंटों के मकान की तरह। एक भरे–पूरे घर से घटते–घटते वे एक चलता–िफरता खण्डहर रह गए हैं। वे यकायक उदास हो गए हैं। फिर सोफे पर आ बैठते हैं।
कमरे में अँधेरा पूरी तरह पसर गया है। सब कुछ अब सुरमई दिखाई दे रहा है। उठकर बत्ती जलाना चाहते हैं, नहीं उठ पाते। बैठे रहते हैं। थोड़ा सहज होने पर अपने हाथों के सफेद चकते देखने लगते हैं। निर्विकार भाव से देखते रहते हैं। उँगली की पोर से बायीं बाँह के एक चकते को सहलाते हैं। कुछ भी महसूस नहीं होता। उँगली फिराते–िफराते हाथ के उस हिस्से पर लाते हैं जहाँ दाग नहीं है। वहाँ भी कुछ महसूस नहीं होता। बारी–बारी से दोनों हथेलियों को निहारते हैं। तर्जनी से अँगूठे को कई बार छूते हैं। कोई चिपचिपाहट नहीं। कोई लेसदार द्रव नहीं है वहाँ। कहीं कुछ भी ऐसा नहीं जिससे उन्हें वितृष्णा हो। सब कुछ ठीक–ठाक तो है। तो फिर क्यों इतने वर्षों से इन चकतों ने, सफेद दागों ने उनके जीवन में जहर घोल रखा है। क्यों उन्हें हर समय यह अहसास कराया जाता है कि वे बीमार हैं। सामान्य नहीं हैं। उनके मन में गहरे तक यह बात बिठा दी गयी है कि इन सफद दागों की वजह से, ल्यूकोडर्मा की वजह से उन्हें कभी शांति से जीने नहीं दिया जाएगा। इसी अहसास को ढोते–ढोते उन्होंने कितने बरस गुजार दिए हैं, तिल–तिल कर जीते हुए। खुद को जबरदस्ती बीमार मानकर। इस बीमारी को ढोते हुए। खुद उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान, निरादर, क्या–क्या नहीं झेलना पड़ा है उन्हें इनकी खातिर! वे खुद से पूछना चाहते हैं, क्या कुसूर था मेरा! कौन से कर्मों की सजा भोग रहा हूँ मैं। न मन का चैन है, न तन का आराम।
वे याद करते हैं अपने बचपन के दिन। युवावस्था के दिन। अभावों के बावजूद पिता ने उन्हें कभी यह महसूस न होने दिया कि उनके लिए, उनकी पढ़ाई के लिए कहीं कोई कमी है। पिता ने उन्हें महत्वाकांक्षी होना सिखाया था। ऊपर, और ऊपर उठना। अपने बलबूते पर सब कुछ हासिल करना। वे सचमुच खुद को पिता की इच्छाओं के अनुरूप ढालने लगे थे। पिता गर्व में सीना फुलाते थे, `मेरा बचवा जरूर एक दिन बड़ा आदमी बनेगा।' लेकिन शायद पिता यह भूल गए थे कि आदमी का केवल महत्वाकांक्षी होना ही काफी नहीं होता। अपने सपनों को साकार करने के लिए, अपने वजूद की लड़ाई लड़ने का माद्दा होना भी जरूरी होता है। उन्हें पिता ने यह तो सिखाया था कि अपनी रोटी ईमानदारी से कैसे हासिल की जाए लेकिन यह दाँवपेंच नहीं सिखाया था कि अगर कोई तुम्हारे हाथ की रोटी छीन ले तो क्या करना चाहिए। आज की दुनिया पटकनी देने वालों की ही दुनिया है, यह उनके पिता ने नहीं बताया था और यहीं वे चूक गए थे। जिन्दगी में बहुत कुछ हासिल किया था उन्होंने अपने बलबूते पर। अपनी काबलियत और योग्यता के बल पर। लेकिन जो कुछ पाया था, उससे और अधिक पाने की कोशिश में वह सब भी गँवा बैठे थे। एक बार जो फिसले हैं, उससे कभी उबर नहीं पाए हैं। नीचे, और नीचे गिरते चले गए हैं। इतना नीचे कि अब ऊपर उठना तो दूर, इज्जत से खड़े हो पाना भी दूभर हो गया है उनके लिए।
बहुत ही कम उम्र में वे कैरियर के उस मुकाम पर पहुँच गए थे, जहाँ लोग अक्सर रिटायरमेंट के आसपास पहुँचते हैं। अच्छी नौकरी, पढ़ी–लिखी बीवी, अच्छा घर–बार। सब कुछ तो जुटा लिया था उन्होंने । अब उनका लक्ष्य अपने विभाग का अध्यक्ष बनना था। उसी के लिए जुटे हुए थे। पद साक्षात्कार द्वारा भरा जाना था और इसके लिए गिने–चुने उम्मीदवार थे। वे ही सबसे योग्य, अनुभवी और वरिष्ठ थे। उन्हीं का पलड़ा भारी होना चाहिए था। उन्हें पूरा विश्वास था, वहाँ तक पहुँचने में उन्हें कोई नहीं रोक सकता। लेकिन यहीं वे गच्चा खा गए थे। उनसे बहुत ही कनिष्ठ, कम योग्य और उन्हीं के अधीन काम कर रहे एक जूनियर ने राजनीति का सहारा लेकर गोटियाँ अपने पक्ष में करनी शुरू कर दी थीं। उन्हें इस तरह के खेलों का अनुभव नहीं था। हमेशा खुद की काबलियत के सहारे आगे बढ़े थे, समझ नहीं पा रहे थे, क्या करें। सिर्फ भाग्य के भरोसे रहना अब सम्भव नहीं था। अभी इस ऊहापोह से उबरे नहीं थे कि घर से पिता की बीमारी का तार आ गया। हाथ–पाँव फूल गए थे उनके। क्या करें! किसे छोड़ें।
बड़ी विकट स्थिति थी। एक तरफ कैरियर था। दूसरी तरफ दम तोड़ते पिता। तार से सिर्फ इतना ही संकेत मिला था कि पिता की हालत नाजुक है। उन्हें अचानक क्या हुआ है, इसकी बाबत कुछ नहीं लिखा था। अगर वे रात की गाड़ी पकड़ लें तो भी कल दोपहर से पहले गाँव नहीं पहुँच पाएँगे और फिर पता नहीं वहाँ कितने दिन रूकना पड़े। साक्षात्कार भी दो दिन बाद है, जिसे किसी भी हालत में स्थगित नहीं किया जा सकता। यह पद उनका कितना पुराना सपना था, उसके लिए एकमात्र अवसर कैसे छोड़ सकते थे। जूनियर की राजनीति से पहले ही परेशान थे, पिता की बीमारी के समाचार ने हालत और पतली कर दी थी। कुछ भी तय नहीं कर पा रहे थे। पिता के लिए उनके मन में गहरा सम्मान था। एक वे ही तो थे जिनकी वजह से वे आज यहाँ तक पहुँच पाए थे। अब उन्हीं की बीमारी ने उन्हें दुविधा में डाल दिया है। अजीब साँसत में फँसे थे वे।
बहुत सोचने–समझने के बाद उन्होंने साक्षात्कार दिया था और सीधे वहीं से गाँव के लिए रवाना हो गए थे। दुर्भाग्य की पहली किस्त वहाँ उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। पिता दम तोड़ चुके थे। अगर उन्हें थोड़ी देर हो जाती तो पिता को मुखाग्नि देना भी नसीब न होता उन्हें। पत्नी और बेटी तो तीसरे दिन ही पहुँच पाए थे। चूक गए थे वे। उन्हें यही लगता रहा, उनके प्रेरणा स्तम्भ पिता उनकी इस सफलता का समाचार सुनकर ही मरेंगे। इसीलिए वे साक्षात्कार देकर आए थे।
भारी मन से अन्तिम रस्में अदा की थीं। पिता की थोड़ी बहुत संपत्ति की कामचलाऊ व्यवस्था करने लौट आए थे। पूरी तरह टूटे हुए। यहाँ दूसरा सदमा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। उस कनिष्ठ अधिकारी का चयन कर लिया गया था। वे यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाए थे। गहरी पीड़ा और तनाव लिए वे अपने कमरे में बन्द हो गए थे। रात भर छटपटाते, रोते रहे थे। दुर्भाग्य ने अभी अपनी पूरी गठरी नहीं खोली थी। उन्हें अभी बहुत कुछ झेलना था।
रातों–रात काया–कल्प हो गया था और सबेरे जब वे उठे थे तो भाग्य एक और खेल दिखा चुका था। वे ल्यूकोडर्मा के शिकार हो गए थे। एक साथ इतने सदमे! वे बदहवास हो गए थे और अपने बाल, कपड़े नोचने लगे थे। बहुत भाग–दौड़ की गयी। हर तरह का इलाज आजमाया गया। न सफेद दाग गए और न वे तनाव–मुक्त हो पाए। हर दिन बीतने के साथ दोनों बढ़ते रहे। डाक्टरों का कहना था, यह सब इनके सदमों के कारण हुआ है। अगर मरीज साथ दे और तनाव भूल कर सहज हो जाए तो दवाएँ असर कर सकती हैं। परन्तु उनके लिए सब कुछ भूल पाना इतना आसान न था। वे रोग बढ़ाते रहे। तनाव झेलते रहे।
सबने उम्मीद छोड़ दी थी। वे खुद पूरी तरह हताश, निराश थे। लम्बे अरसे तक छुट्टी पर रहने के बाद जब वे आफिस गए तो सभी महत्वपूर्ण पोर्टफोलियों उनसे लिए जा चुके थे। उनके पर कतर दिये जाने से उनके ठीक होने की रही–सही उम्मीदों भी खत्म हो गयी थीं। वे बेहद कमजोर, असहाय और अकेले रह गए थे।
ऐसे में पत्नी ही थी, जिसके पास वे जा सकते। दुनिया भर से बटोरा हुआ दुख–दर्द जिसके आँचल में उढ़ेल कर हलके हो सकते। परन्तु दुर्भाग्य ने इस दरवाजे पर भी दस्तक दे दी थी। सबसे पहले पत्नी ने ही उन्हें यह अहसास कराया कि वे अब वह नहीं रहे। उनकी जगह, मर्यादाएँ, सम्बन्ध सब कुछ एक ही झटके में बाँध दी गयीं। उसका सहारा था, उसी ने हाथ खींच लिया। बीमारी ने, आघातों ने उन्हें लाचार कर दिया था, बीवी की बेरूखी ने उन्हें बेचारा बना दिया।
काश! पत्नी ने एक बार तो कहा होता, `नहीं, यह कोई असाध्य रोग नहीं। आप चिन्ता न करें, मैं आपके साथ हूँ। आपकी हर तरह से सेवा करके आपको चंगा कर दूँगी?' लेकिन नहीं। सबसे पहली लक्ष्मण रेखा उसी ने तो खींची थी। जब उनके शरीर पर ये चकते उभरने शुरू हुए थे और लाइलाज लगने लगे थे तो उसी ने एक दूरी बनाए रखना शुरू कर दिया था। अपना बिस्तर अलग कर लिया था। वे रात भर करवटें बदलते रहते। बहुत जिद करने पर ही पास आती। मुँह से कुछ न कहती पर जो कुछ जतलाया जाता उससे उनका सारा उत्साह मर जाता। पत्नी के ठण्डे शरीर से कब तक उलझते। लौट आते अपने बिस्तर पर। पस्त, टूटे हुए। मन पर एक दाग और लिए हुए। उन्हें लगने लगता, ये दाग सिर्फ सफेद दाग नहीं हैं, इनमें कीड़े रेंग रहे हैं, जो उन्हें समूचा कुतर रहे हैं। धीरे–धीरे। हर वक्त।
धीरे–धीरे दोनों के बीच खाई बढ़ती गयी थी। दोनों चिड़चिड़ाये रहते। संवाद उस बिन्दु पर आकर ठहर गए थे जहाँ कहने न कहने से कोई अंतर नहीं पड़ता। केवल शब्दों के जरिए रिश्ते कब तक जिये जाते। वे तनहा होते चले गए थे। हर रात उन्हें जलती चिता पर आत्मदाह करने जैसी लगती। इसी आग में वे कब से तप रहे हैं। ज्वालामुखी भरता चला गया है।
इस लम्बी तनहाई में वे अपनी बिटिया को बहुत पीछ़े छोड़ आए हैं। पाँच बरस की थी जब उन्हें यह रोग लगा था। पूछती थी भोलेपन से, `पापा आपके बदन पर ये दाग कैसे? आप ठीक तो हो जाएँगे न पापा', हम बड़े होकर डाक्टर बनेंगे पापा और आपका इलाज करेंगे।' ऐसे ही ढेरों सवाल हर वक्त उनके हौंसले को बढ़ाते। वे क्या जवाब देते। टाल जाते सवालों को। फिर धीरे–धीरे वह बड़ी होने लगी थी। मम्मी की देखादेखी दूर होती चली गयी थी। पत्नी ने सिर्फ तनहाई दी थी, बिटिया खालीपन छोड़ रही थी उनकी जिन्दगी में। कहाँ तो हर वक्त लाड़ लड़ाती, दुनिया भर की चीजें माँगती और कहाँ अब कन्नी काटने लगी थी। वे सब समझ रहे थे। भीतर–ही–भीतर रोते थे, लेकिन जब उसकी तरफ बढ़ाए हुए उनके हाथ खाली रह जाते, तो चुपचाप अपने कमरे में चले जाते, जहाँ रात भर घुटते रहते।
पल–पल सीने पर पर हजार–हजार हथौड़ों के बार सहते कितने बरस गुजार दिए हैं। कब से बिटिया के सिर पर हाथ नहीं फेरा है, उससे लाड़ नहीं लड़ाया है। अब तो वह सत्रह की हो गयी है। इन्टर में है, उन्हें तो यह भी पता नहीं होता कौन–कौन से विषय पढ़ती है। क्या खाती–पीती है। नहीं पता उन्हें कि वह इन बारह वर्षों में कहां की कहां पहुँच गयी है। वे तो अभी भी उसे पाँच बरस की बच्ची की तरह दुलराना चाहते हैं। उफ! अब तो सब कुछ इतिहास हो गया है।
क्या कुछ नहीं किया उन्होंने इस रोग से निजात पाने के लिए–देसी, विदेशी दवाएँ, धूप–स्नान, रबड़ और प्लास्टिक से परहेज, कॉफी, मसालों से तौबा। जिसने भी जो इलाज सुझाया, आजमा कर देखा। ठीक नहीं होना था, नहीं हुए। बल्कि दाग बढ़ते गए। कभी लगता, कुछ दाग गायब हो रहे हैं, पर अगली बार वहाँ पहले से बड़े चकते उभर आते। भीतर–ही–भीतर हताश होने लगे थे वे उन दिनों। लगातार बढ़ता रोग, पत्नी की बेरूखी, रिश्तेदारों की मुँह जवानी सहानुभूति, यारों–दोस्तों के व्यवहार में उभरता ठण्डापन। अब पीठ पीछे उनका उपहास उड़ाया जाने लगा था। लोग उन्हें पीठ पीछे बदरंग शास्त्री के नाम से पुकारने लगे थे। वे निरीह से सब कुछ देखते। कई बार लोग उनके सामने भी कुछ ऐसा–वैसा कह देते, जिससे वे तिलमिला जाते, लेकिन खुद पर खीझ उतारने के अलावा कुछ न कर पाते।
धीरे–धीरे उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ने लगा था। सारे दबाव झेलते–झेलते वे शायद विद्रोह करने लगे थे। उनकी हरकतें अजीब होने लगीं थी। एक बार अड़ गए, उनकी स्टेनों की मेज उनके केबिन में लगायी जाए। पूरे ऑफिर में हंगामा मच गया। उन्हें समझाया गया, `यह उनके पद, गरिमा के खिलाफ है, लेकिन नहीं माने थे वे। सबसे लड़ते रहे। जी.एम. तक बात पहुँची। डॉक्टर बुलवाया गया, जिसने उन्हें आराम करने की सलाह देकर घर भेज दिया। तब से उनके लिए पुरूष स्टैनो ही रखे गए हैं। वे छोटी–छोटी चीजों जैसे पेंसिल, रिफिल या राइटिंग पैड के लिए पूरा ऑफिस सिर पर उठा लेते। एक ही कागज दसियों बार टाइप कराते। उन्हें हमेशा शिकायत रहती उनका स्टाफ काम नहीं करता। नया स्टाफ दिए जाने पर कहते, `इससे तो पहले वाला अच्छा था, वही वापिस दिया जाए। हर समय बड़बड़ाते रहते। लोग कभी छेड़ते, कभी सहानुभूति दर्शाते। एक बार उन्होंने एक अखिल भारतीय संघ बनाने की घोषणा कर डाली थी जो देश में हर तरह की ज्यादतियों, भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ लड़ेगा। उनके अनुसार देश के राष्ट्रपति इस संघ के संरक्षक और वे खुद मानद अध्यक्ष बनने वाले थे। कई दिन तक वे इसी में उलझे रहे। सबसे सदस्य बनने के लिए कहते फिरे।
एक और आदत पड़ गयी थी उनकी। वे बहुत कंजूस हो गए थे। इतने बड़े पद पर होने के बावजूद ट्रेन में सेकेंड क्लास में आते। बस की लाइन में कोई परिचित चेहरा तलाशते जो उनके लिए भी अठन्नी का टिकट खरीद ले। उन्होंने बैठकों आदि में पैड या दूसरों के फोल्डरों से पैन आदि निकालने शुरू कर दिए थे। काफी दिनों तक उनकी यही हालत रही। जिन्दगी के हर मुकाम पर वे नीचे गिरते जा रहे थे। अपनी इज्जत खुद गँवा रहे थे। उनमें सेल्फ रिस्पेक्ट बची ही न थी। हर समय दीनता की मूर्ति बने रहते। सहानुभूति बटोरते रहते। बात शुरू करने की देर होती, कुछ भी अनर्गल बातें शुरू कर देते। बैठकों में एक बार बोलना शुरू करते, तो पूरा समय बोलते ही रहते। उन्हें हाथ पकड़कर बिठाना पड़ता। एक बार तो किसी सेमिनार में वे मुख्य अतिथि का परिचय कराने खड़े हुए, पचपन मिनट तक बोलते रहे। मुख्य अतिथि के लिए सिर्फ पाँच मिनट बचे थे।
वे साफ–साफ महसूस करते हैं कि लोग उनसे हाथ तक मिलाने से कतराते हैं। कभी कोई उनका आगे बढ़ा हुआ हाथ थाम भी लेता है तो यह बात उनकी नजरों से छुपी नहीं रहती कि उनसे हाथ मिलाकर लोग अपना हाथ पैंट से पोंछ लेते हैं। मानो उनके हाथों से कोई लिसलिसा पदार्थ निकलकर सामने वाले के हाथ पर लग गया हो, लड़कियाँ तो दूर, लड़के भी उनके सैक्शन में काम नहीं करना चाहते। बाकी अफसरों के केबिनों में आफिस की लड़कियों की हाहा हूहू हर वक्त गूँजती रहती है। एक उन्हीं का केबिन है, कोई पास तक नहीं फटकता। लोग बुलाने पर भी नहीं आते। वे बेशक किसी की बाट नहीं जोहते, पर बार–बार जानबूझ कर दुत्कारे जाने की सी हालत में भी वे खुद पर काबू पाने की कोशिश करते हैं। हर वक्त भीतर से खौलते रहते हैं, तिल–ितल कर अपमानित होते रहते हैं, पर इन कमबख्त सफेद दागों ने न केवल उनसे उनका व्यक्तित्व छीन लिया है, उनका आत्मविश्वास बिल्कुल चुक गया है। वे जहाँ भी होते है, वहीं अन्वांटेड समझ लिए जाते हैं। लोग उनसे मिलने से पूर्व ही उनके बारे में पूर्व धारणाएँ बना लेते हैं। कोई उनसे खुलकर बात नहीं करता। उनके साथ ठहाके नहीं लगता।
उन्हें हर वक्त, हर तरह से याद दिलाया जाता है, उनका शरीर ही नहीं, उनका व्यक्तित्व, उनका पुरूष, उनका मान–सम्मान सब कुछ दागदार है। उन्हें ढंग से जीने, लोगों के साथ हँस–बोल कर बात करने का कोई अधिकार नहीं है। शरीर का हर दाग उन्हें आइसबर्ग की तरह लगता है। शरीर के भीतर दस गुना बड़ा। और जितना कष्ट ये दाग बाहर से देते हैं, उससे कई गुना दर्द वे भी भीतर–ही–भीतर झेलते रहते हैं हर वक्त।
सोचते–सोचते उन्हें पता ही नहीं चला कि वे कब रोने लगे। उनका पूरा चेहरा आँसुओं से तर–ब–तर हो गया है। उन्होंने चौंक कर आस–पास देखा। नहीं कोई नहीं है इस अँधेरे कमरे में। अकेले हैं वे। हाथ में कब से खाली गिलास पकड़े बैठे हैं। हौले से गिलास रखते हैं। उठ कर बत्ती जलाकर बाथरूम तक जाते हैं। मुँह पर पानी के छींटे मारते हैं। मुँह पोंछते वक्त शीशे में अपना अक्स देखते हैं। बाल ढलती उम्र की गवाही दे रहे हैं। पूरा माथा, बायीं आँख का हिस्सा, दोनों गाल और मुँह के आस–पास का हिस्सा एकदम सफेद हैं। बाकी रंगत गेहुआँ है। देर तक खुद को यूँ ही देखते रहते हैं। याद करने की कोशिश करते हैं, कैसा लगता था तब उनका चेहरा। धुँधली–सी याद ही बची है। जो कुछ अपना था, सब कुछ तो खत्म हो गया है। वे तो अब किसी अभिशप्त की लाश ढो रहे हैं। जिन्दा लाश, लोगों की निगाह में जिसकी कोई इच्छाएँ नहीं होतीं। जो न हँसने में साथ दे सकता है न गाने में। वे प्यार करने के तो काबिल ही नहीं रहे हैं। अपनी बच्ची को भी नहीं। कितना तरसते हैं, बच्ची को जी भर कर प्यार करने के लिए। वे तो बस चाबी भरा बबुआ मात्र हैं जो दिन भर खटते रहते हैं। सब की जरूरतें पूरी करने के लिए। उनके भीतर के कौर–कौन से कोने खाली पड़े हैं, कब से टल रही हैं, उनकी मूलभूत जरूरतें, किसके पास फुर्सत है जानने की!
वे कमरे में लौट आए हैं। घड़ी पर निगाह डालते हैं। आठ दस। बीस मिनट और। फिर वे कम–से–कम इस जरूरत को तो पूरा कर पाएँगे। बेशक किराये की खुशियाँ सही, वे खुद का वह अधूरापन तो बांट पाएँगे, जो अरसे से सीने पर जमा है। पौरूषत्व की कसौटी पर खुद को खरा तो सिद्ध कर पाएँगे। कितना तो अरसा हो गया है इस रिश्ते को ढंग से जीये हुए। पत्नी, नहीं! नहीं अब वे उसे याद नहीं करेंगे। वे सिर झटक देते हैं। नया पैग बनाते हैं और खिड़की पर जा खड़े होते हैं। साढ़े आठ बजते–बजते आधी बोतल खत्म कर चुके हैं आज तक इतनी कभी भी नहीं पी थी उन्होंने। नशा फिर तारी होने लगा है। बेचैन होने लगे हैं। उसके आने का वक्त हो रहा है। चहल कदमी करने लगते है। कभी बैठते हैं तो कभी उठ कर परदे सरकाने लगते हैं।
अचानक खटका हुआ। वे एकदम सतर्क हो गए। रक्तचाप तेज हो गया। उन्होंने अपने कपड़े ठीक किए और कदम साधते हुए दरवाजे तक आए। वही थी। सँवलाया चेहरा। तीखे नैन नक्श। करीने से पहनी साड़ी। आँखें झुकी। कहीं से भी उसके हाव–भाव से यह नहीं लगता कि वह धंधे वाली है और यहाँ इसी मकसद से आयी है। उनकी साँस फिर फूलने लगी है। उसे अन्दर आने के लिए कहने के लिए देर तक उन्हें शब्द नहीं सूझे, तो उसके लिए रास्ता छोड़ दिया। वह कमरे में आकर एक किनारे खड़ी हो गयी। उन्होंने हौले से दरवाजा बन्द किया और उसे बैठने का इशारा किया। वे खुद दूसरी तरफ पड़ी आराम कुर्सी में आ धँसे। उन्हें थकान सी महसूस हुई, मानो मीलों लम्बा सफर तय करके आ रहे हों।
उन्होंने सोच रखा था, जैसे ही वह आएगी वे एकदम दरवाजा बन्द कर देंगे और कमरे की सारी बत्तियाँ जला देंगे। खुद भी निर्वस्त्र हो जाएँगे और एक–एक करके उसके वस्त्र उतारेंगे। जिन सफेद दागों की वजह से वे बरसों से पत्नी के साथ सहज, पूर्ण सहवास से वंचित हैं, जिन दागों की वजह से पत्नी उन्हें पूरे समर्पण भाव से स्पर्श तक नहीं करती या बत्ती नहीं जलाती, आज इन्हीं दागों को पूरी तरह प्रदर्शित करते हुए वे भरपूर शारीरिक सुख भोगेंगे। कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ेंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी कर पाने में वे खुद को असहाय पा रहे हैं। कहाँ से और क्या शुरू करें, समझ नहीं पा रहे। उन्हें अपनी अनुभवहीनता की वजह से पछतावा–सा हो रहा है।
उन्होंने कनखियों से उसकी तरफ देखा। वह उन्हीं की तरफ देख रही थी। वह हौले से मुस्कराई। वे सकपका गए। उन्हें लगा, लड़की ने उन्हें नंगा देख लिया है और उनका मजाक उड़ा रही है। वे हिम्मत करके उठे और अपने लिए पैग बनाने लगे। अचानक उन्हें लगा, लड़की से भी पूछ लेना चाहिए। शायद पीती हो। वे गिलास लेकर उसके पास आए, लेकिन पूछने की हिम्मत नहीं हुई। उनके मुँह से आवाज ही नहीं निकल रही थी। लड़की ने खुद ही मना कर दिया, `नहीं, मैं नहीं पीती।' वे बातचीत का सिलसिला जोड़ना चाहते हैं, परन्तु ऐसी स्थिति में उनका सामना पहली बार हो रहा है। उन्हें कुछ सूझ ही नहीं रहा। कहाँ से शुरू करें। उन्होंने उसका नाम पूछना चाहा, परन्तु शब्द होठों ही में फुसफुसा कर रह गए। लड़की उनकी हालत समझ रही है, वह देख चुकी है, शौकिया नहीं है उसका आज का ग्राहक। यह बुजुर्ग आदमी बेहद थका हुआ, टूटा हुआ संस्कारग्रस्त आदमी है। वह न कुछ कर पाएगा न कह पाएगा।
वे फिर खिड़की के पास आकर खड़े हो गए हैं। अब भी हालाँकि सुरूर बाकी है, लेकिन इतना होश है कि अपनी बेचारगी को महसूस कर सकें। एकांत जगह, आधी बोतल का नशा, खूबसूरत जवान लड़की। हल्की रोशनी और बरसों से पूर्ण सेक्स से वंचित वे। सब कुछ तो सही है, फिर भी क्यों नहीं वे शुरूआत कर पा रहे। कहाँ धरा रह गया उनका पुरूषत्व! क्यों नहीं लपक कर दबोच लेते है लड़की को। आखिर पूरी रात के पैसे देने हैं। यूँ ही कब तक पसोपेश में खड़े रहेंगे! वे आगे बढ़े। दो–तीन बत्तियाँ और जला दीं। उन्होंने लड़की की तरफ देखा, फिर पलँग की तरफ। अपनी दमित इच्छाएँ उन्हें सिर उठाती हुई प्रतीत हुई। एक बार उन्होंने अपने हाथों की तरफ देखा और लड़की को फिर से निहारा। मासूम चेहरा। भरी–भरी आँखें। उम्र का अन्दाजा नहीं लगा पाए वे। बीस या पच्चीस। वह अभी भी खड़ी उनके अगले आदेश की प्रतीक्षा कर रही है। किसी तरह कह पाए वे, `आपको खाने के लिए जो कुछ मँगाना हो, फोन पर आर्डर दे दीजिये।' लड़की ने सिर हिलाकर मना कर दिया, `नहीं कुछ नहीं चाहिए।' बातचीत का सिलसिला फिर टूट गया। वे कितनी बार कोशिश करके देख चुके हैं, लेकिन सूत्र हर बार टूट जाते हैं।
उन्होंने वक्त देखा, नौ पाँच हो रहे हैं। उन्होंने आधा घंटा यूँ ही बरबाद कर दिया है। अभी तक उसका नाम भी नहीं पूछ पाए हैं। उन्हें फिर खुद पर ग्लानि होने लगी। इस तरह तो कर चुके मौज मजा! भोग चुके नारी देह! फिर से हिम्मत जुटाई और इस बार अपने अटैची केस में से अपना गाउन निकाल कर उसे दे दिया। वह गाउन लेकर बाथरूम में चली गई। उन्होंने फिर से सारी बत्तियाँ बन्द कर दीं। साइड लैम्प की हल्की रोशनी में एक कोने में खड़े होकर उसका इन्तजार करने लगे।
जब वह बाथरूम से निकली तो हल्की रोशनी में वह उन्हें बहुत अच्छी लगी। उन्हें लगा उसका बदन दहक रहा है। उसके बदन से तेज आग निकल रही है। वे उसमें पिघल जाएँगे। वे उत्तेजित होने लगे। मुट्ठियाँ भींच ली उन्होंने। वे काफी देर तक यूँ ही मुट्ठियाँ भींचे खड़े रहे। उनके कदमों ने जैसे उनका साथ देने से इनकार कर दिया था। उन्हें अपने पूरे शरीर में तेज झनझनाहट महसूस हो रही है, लेकिन शक्ति चुक गई सी लगती है। वे फिर से पस्त हों इससे पहले ही अचानक लड़की उनके समीप आई। उनका हाथ थामा और पलँग पर लिटाया और उनका माथा सहलाने लगी। वे एकदम ढीले पड़ गए। लड़की का मृदु स्पर्श उन्हें बहुत भला लगा। आँखें मूँद लीं उन्होंने। अरसे बाद स्नेहिल, अपनत्व भरा स्पर्श उन्हें मिला था। भीतर तक सुख से भर गए। आँखें बन्द किए देर तक भीगते रहे उस स्पर्श सुख से।
अचानक नशे ने फिर जोर मारा। वे एकदम चौंक कर उठ बैठे। नहीं, वे इस सब के लिए थोड़े ही आए हैं। और यह लड़की न तो उनकी नर्स है और न वे उसके मरीज। इस समय तो वे यहाँ किसी और रिश्ते के लिए आए हैं। उन्हें नहीं चाहिए यह ममत्व भरा चोंचला।
उन्होंने सहम कर खड़ी हुई लड़की को अपनी और खींचा। लड़की कटे पेड़–सी आ गिरी उन पर। लड़की का स्पर्श पाकर वे फिर से पिघलने लगे। सारा शरीर शिथिल हो गया। जाने क्या हुआ, वे लड़की की पीठ पर हाथ धरे सुबकने लगे।

2 comments:

सतीश पंचम said...

सशक्त और रोचक रचना, कहानी अच्छी लगी।

चण्डीदत्त शुक्ल said...

बहुत सुंदर. ऐसे ही ढह जाता है मन के आगे तन. ममता से बड़ी वासना नहीं. पता नहीं, ये मेरे अंदर का नैतिकताबद्धजीव बोल रहा है, या सचमुच जो मैं सोचता हूं-वही लिख रहा...पर आपने जो लिखा, वो छू गया। बधाई