Friday, September 18, 2009

कहानी - छूटे हुए घर

वे महिलाएं अपनी जिंदग़ी के सबसे कठिन दौर से गुज़र रही थीं। वे बेहद चिड़चिड़ी हो गई थीं और हमेशा शिकायत के मूड में रहतीं। इन दिनों उनके पास बातचीत का सिर्फ एक ही टॉपिक था। इस विषय के अलावा वे न तो कुछ कहना चाहतीं, न सुनना। वे मौके या जगह की भी परवाह नहीं करती थीं, न यह देखती कि कोई उनका दुखड़ा सुनने के लिए तैयार भी है या नहीं। बस, उन्हें, ज़रा-सी शह मिली नहीं कि उनके दर्दभरे गीत शुरू हो जाते। वे अपना दुखड़ा न भी सुना रही होतीं, तब भी लगता, वे बिसूर तो ज़रूर ही रही थीं।
इन रोने-धोने की वज़ह से उनकी सेहत खराब होने लगी थी। वे ज्यादा बूढ़ी, थकी-थकी-सी और चुक गई-सी लगने लगी थीं। उनके जीवन से बचा-खुचा रस भी विदा लेने लगा था और वे जैसे-तैसे दिन गुज़ार रही थीं। कुछ तो सचमुच ही बीमार हो गई थीं। अगर वे खुद बीमार नहीं थीं तो उनके परिवार का कोई न कोई सदस्य बीमार हो गया था और वे उसी की चिंता में घुली जा रही थीं।
उनमें से अधिकतर की उग्र चालीस से पचास के बीच थी और वे मेनोपॉज के भीषण बेचैनी वाले कठिन दौर से गुज़र रही थीं, या किसी भी दिन उस दौर में जा सकती थीं। इस वज़ह से भी उनकी तकलीफें और बढ़ कई थीं। वे असहाय थीं। लाचार थीं। खुद को शोषित और पीड़ित तो वे मानती ही थीं। कुल मिलाकर उनके लिए ये बेहद तकलीफ भरे दिन थे।
वैसे वे हमेशा से ऐसी नहीं थीं। वे सब की सब अच्छे घरों से आती थीं। पढ़ी-लिखी थीं। उनके स्कूल-कॉलेज जाने वाले बच्चे थे। रुतबे वाले पति थे। घर-बार थे। उनमें से कुछ के तो महानगर में खुद के फ्लैट्स भी थे। गाड़ियां थीं। उनके पास सुख-सुविधा का सारा सामान था। अच्छे-अछे अगने और ढेर सारी साड़ियां थीं। वे हर दृष्टि से भरपूर जीवन जी रही थीं। वे सब-की-सब अच्छा कमा रही थीं। कुछ का वेतन तो `कोई फोर फीगर' से बढ़कर `फाइव' फीगर तक पहुंचा था। और यही अच्छा कमाना उनके लिए अभिशाप बन गया था। वैसे देखा जाए तो उनके साथ कोई ऐसी गंभीर बात नहीं हुई थी कि वे सब-की-सब सदमा लगा बैठतीं या जिंदग़ी से इतनी बेज़ार हो जातीं। लेकिन वे अपनी ज़िंदगा की पहली बड़ी परीक्षा में ही फेल हो गई थीं और उनकी यह हालत हो गई थी।
दरअसल वे सब-की-सब एक बहुत बड़े और महत्वपूर्ण संस्थान से जुड़ी हुई थीं। कुछ तो बहुत वरिष्ठ पदों पर भी कार्य कर रही थीं। इस संस्थान का प्रधान कार्यालय एक ऐसे महानगर में था, जिसमें वैसे तो ढेरों समस्याएं थीं, लेकिन वहां रहने वाले उस महानगर को बेहद प्यार करते थे। यह महानगर उनकी शिराओं में बहता था। उनकी सांस-सांस में रचा-बसा था। इस संस्थान की शाखाएं सभी प्रदेशों की राजधानियों में थीं। संस्थान में काम करना गर्व की बात माना जाता था, क्योंकि वहां बेतहाशा सुविधाएं थीं और वहां नौकरी का मतलब सुशी जीवन की गारंटी हुआ करता था। महानगर में स्थापित इस प्रधान कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारियों में महाओं का अनुपात अन्य केंद्रों की तुलना में बहुत अधिक था। यह अनुपात भी एक मायने में उनके लिए अभिशाप बन गया था।
उनकी खुद की निगाह में, यह अभिशाप था-उनका ट्रांसफर। हालांकि इस ट्रांसफर में कूछ भी नया या गलत नहीं था। संस्थान के नियम और ज़रूरतें ही ऐसी थीं। ये ट्रांसफर अरसे से होते आ रहे थे और हर बरस होते ही थे। जो अधिकारी सीधी भर्ती से आते थे, जिनमें अक्सर लड़कियां भी होती थीं, वे इन स्थानांतरणों को सहर्ष स्वीकार कर लेते थे, क्योंकि वे जानते थे, कैरियर की सीढ़ी लगातार चढ़ते रहने के लिए पांच-सात ट्रंसफर तो देखने ही होंगे। फिर उनकी उम्र भी कम होती थी। वे कुछ भी कर गुज़रने के जोश से लबालब भरे होते। लेकिन समस्या उन अधिकारियों की होती जो संस्थान में ही पंद्रह-बीस बरस की नौकरी करने के बाद अधिकारी बनते थे। इनमें से भी महिलाओं के साथ ज्यादा समस्याएं होतीं। ट्रंसफर की बारी आते-आते वे उम्र के चार दशक पार कर चुकी होती। घर-बार सैठिल कर चुकी होतीं। जीवन में स्थायित्व आ चुका होता। बच्चे बड़ी कक्षाओं में पहुंचने को होते। लड़कियां होतीं तो वे उपनी उम्र के सबसे नाजुक मोड़ पर होतीं, जहां उन्हें पिता की नहीं, मां की ही ज़रूरत होती। उम्र के ये दौर ही उनके लिए अभिशाप बन कर आए थे।
पिछले दो-तीन बरसों से संयोग कुछ ऐसा बन रहा था कि इन दिनों जितने भी ट्रंसफर हुए, हर सूची में इस महानगर की महिलाएं ही अधिक रहीं, जिन्हें वरिष्ठता क्रम से बाहर भेजा जाना था। अलबत्ता, इन महिलाओं के साथ संस्थान ने इतना लिहाज ज़रूर किया था कि उन्हें निकटतक प्रदेश की राजधानी में ही भेजा था, जहां से वे रातभर की यात्रा करके आ-जा सकती थीं। उनकी तुलना में उनके पुरुष सहकर्मी दूर-दूर के केंद्रो पर भेजे गए थे। इसके बावजूद ये महिलाएं खुद को अभिशप्त मान रही थीं।
ये अभिशप्त महिलाएं हर तरफ से घिर गई थीं। एक तरफ घर-बार था। पढ़ने और महंगी जींस पहनने वाले लड़के थे। सपने देखने वाली जवान होती लड़कियां थीं, जिन्हें लगातार अपनी मांओं की ज़रूरत थी और दूसरी तरफ इन सबकी बेतहाशा बढ़ चुकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें नौकरी करते रने की ज़रूरत थी। उनमें से कुछ ही महिलाएं ऐसी थीं जो, आदतवश, वक्त गुज़ारने के लिए नौकरी कर रही थीं। वे बहुत अच्छे घरों से थीं और नौकरी न करके भी अपना स्तर बनाए रख सकती थीं। बल्कि नौकरी करके वे जितना कमाती थीं, नौकरी के लिए खुद को सजाने-संवारने में उससे कहीं अधिक खर्च कर डालती थीं। कुछ ऐसी भी थीं, जिनके पति छोटी-मोटी या प्राइवेट नौकरी में थे और घर इन महिलाओं के वेतन से ही चल रहे थे। अगर नहीं भी चल रहे थे, तो भी उनकी अतिरिक्त और अच्छी-खासी आमदनी से उनके परिवार जिस तरह की सुख-सुविधाओं के आदी हो चुके थे, उन्हें त्यागने की वे लोग सोच भी नहीं सकते थे। कुछ महिलाओं ने कर्जे लेकर मकान बनवा लिये थे, या गाड़ी वगैरह खरीद ली थी, जिसकी किस्तें चुकाने के लिए उनका नौकरी करते रहना ज़रूरी था। उनकी यह मज़बूरी थी कि वे अगर नौकरी छोड़ना भी चाहतीं तो भी उनका परिवार उन्हें ऐसा करने की इजाज़त नहीं देता था।
निश्चित तारीख को उन्हें रिलीव कर दिया गया था। जो हैसियत वाली थीं और शौकिया नौकरी कर रही थींए उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी। कुछ ऐसी भी थीं जो इस उम्र में अकेली रहने की कल्पना भी नहीं कर सकती थीं, या जिन्हें डर था, उनके बिना उनका घर-बार टूट-बिखर जाएगा, उनके सामने भी नौकरी छोड़ने के अलावा और कोई रास्ता न था। कुछ घबरा कर बीमारी की छुट्टी पर चली गई थीं, तो कुछ सचमुच बीमार पड़ गई थीं। लेकिन उन्हें भी कभी न कभी तो ठीक होना ही था और नए केंद्रों पर ज्वाइन भी करना ही था।
अधिकतर महिलाओं के सामने समस्या यह थी कि वे कभी अकेली घर से बाहर निकली ही नहीं थीं। चार-पांच साल तक घर से अलग रहने की सोच-सोच कर उनकी रूह कांप रही थी। अधिकतर परिवारों की हालत ऐसी थी कि वे बच्चों को, परिवार को, नौकरीशुदा पति को, सास-ससुर को अपने साथ नहीं ले जा सकती थीं, या वे खुद इस पक्ष में नहीं थीं कि उनकी वजह से चार-पांच बरस के लिए पूरी गृहस्थी उजाड़ी जाए। वे गहरे असमंजस में थीं। ज्यादातर घरों में कई-कई दिन तक सलाह-मशविरे चलते रहे थे। आगा-पीछा सोचा गया था और अंतत: नये केंद्र पर ड्यूटी ज्वाइन कर ली गई थी। उन्होंने सोचा था-पहले जाएंगी तो पहले लौटेंगी। रो-धो कर बाकी महिलाएं भी वहां पहुंची थीं।
यहीं से उनके जीवन की दिशा बदल गई थी। वे एक तरह से बेघर हो गई थीं। यहां उन्हें नये सिरे से गृहस्भी जमानी थी। अपनी पहचान बनानी थी और अगले कई बरस तक अपने बिछुड़े परिवार के लिए ऐशो-आराम जुटाते रहने के लिए अकेले खटना था। संस्थान उन्हें यह सुविधा देता था कि जब तक उन्हें नये केंद्र पर रहने की जगह उपलब्ध नहीं करा दी जाती, वे दो महीने तक संस्थान के खर्चे पर किसी स्तरीय होटल में ठहर सकती थीं, लेकिन उनमें से कोई भी होटल में नहीं ठहरी थी। अकेली कैसे ठहर सकती थीं। कभी ठहरी ही नहीं थीं। सबने उन्हीं महिलाओं के यहां डेरे डाले थे, जो उनसे पहले यहां आ चुकी थीं और जिन्हें फ्लैट मिल चुके थे। दर असल, वे आयी ही उनके सहारे थीं कि चलो, कोई तो है अपना कहने को।
वे शुरू-शुरू में आधी-अधूरी तैयारी के साथ आयी थीं। संस्थान के फिलहाल कुछ को रहने के लिए सजे-सजाए सिंगल रूम दे दिये थे और कुछ के हिस्से में शेयरिंग आवास की सुविधा आई थी, जहां एक-एक फ्लैट में तीन-तीन, चार-चार महिलाएं नाम-मात्र के किराये पर रह सकती थीं। तभी अचानक उन सबमें यह परिवर्तन आया था। इसे संयोग माना जाए या दुर्घटना, लेकिन जो कुछ हुआ था, उस पर विश्वास करने को जी नहीं चाहता था। ये मैच्योर और समझदार महिलाएं, जो संस्थान में बड़े-बड़े फैसले लिया करती थीं, अकेले के बलबूते पर विभाग तक संभालती थीं, अचानक लड़ने लगी थीं। शिकायतें करने लगी थीं। जिन महिलाओं के हिस्से में सिंगल रूम आए थे, उन्हें शिकायत थी-हम कभी अकेली नहीं रही हैं। हमें डर लगता है। हमें शेयरिंग आवास दिया जाए। जिन्हें शेयरिंग आवास दिया गया था, उन्हें अपनी पार्टनर पसंद नहीं थीं। वे कभी एनसीसी के कैंपों में नहीं गई थीं। न कभी ट्रैकिंग वगैरह में ही गई थीं। उन्हें शेयर करने की आदत नहीं थी। न कमरा, न रोजमर्रा की चीज़ें और नही प्रायवेसी। उन्होंने आज तक राज किया था अपने-अपने घरों में, बच्चों, पतियों पर, नौकरों पर। वहां वे मालकिन हुआ करती थीं और पूरी व्यवस्था, सेटिंग और मूवमेंट पर पूरा नियंत्रण रखती थीं। वहां सब कुछ उनकी इच्छानुसार हुआ करता था। लेकिन इस ट्रंसफर ने उनकी हैसियत, राजपाट और नियंत्रण का दायरा एक ही झटके में बिस्तर भर की जगह में सीमित कर दिया था। यहां उन्हें सब कुछ शेयर करते रहना था-किचन, ड्राइंगरूम, बाथरूम, यहां तक कि बर्तन भी। यहां हुकुम चलाने या सैट करने जैसा कुछ भी नहीं था। यहां न परिवार के साथ शाम की चाय थी, न पति के साथ खुसुर-पुसुर। यहां कोई उनके आदेश पर एक गिलास पानी या चाय लोने वाला नहीं था, क्योंकि वे सब की सब वरिष्ठ अधिकारी थीं, सहकर्मी थीं। हमउम्र थीं। वे यहां एक-दूसरे के जूठे बर्तन मांजने तो कत्तई नहीं आई थीं। शुरू-शुरू में उन्होंने कुछ समझौते भी किए। जिसके साथ भी ठहराया गया, ठहर गईं। मिल-जुलकर सामान भल ले आईं। एक सब्जी बना लेती, तो दूसरी फटाफट चपातियां बेल देती। तीसरी इस बीच सलाद बना देती। चाय के बर्तन धो देतीं। फिलहाल उनका पहला मकसद था-कम से कम खर्च में खुद गुज़ारा करके महानगर में अपने परिवार के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसे भेजना। यहां आ जाने के बाद उन्हें बीच-बीच में की जाने वाली रेलयात्राओं और एसटीडी फोनों के लिए भी अतिरिक्त पैसे बचाने ही थे।
वैसे भी वे अकेले या बिना परिवार के होटलों में खाना खाने नहीं जाती थीं, बेशक शहर में अच्छे होटलों की कोई कमी नहीं थी और शहर के लाग बेहद शरीफ थे। वे अकेली औरत को दखकर लार नहीं टपकाते थे। अगर लोग शरीफ न भी होते तो भी कम से कम इन भद्र महिलाओं को, जिनकी उम्र चालीस से पचास के बीच थी और जो आजकल उदास-उदास रहा करती थीं, उनसे कोई खतरा नहीं हो सकता था। हालांकि इन महिलाओं ने अपना सारा जीवन देश के आधुनिकतम कहे जाने वाले महानगर में बिताया था, फिर भी वे पहले घरेलू महिलाएं थीं और बाद में आधुनिक। इसीलिए कभी-कभार होटल से खाना पैक करवा कर ले आती थीं। इसी में उन्हें सुभीता रहता था।
तो अभी जिक्र हुआ था इन महिलाओं का अचानक आम औरतों में बदल जाने का। अब सचमुच ये महिलाएं शक्की, झगड़ालू और नाक-भौं सिकोड़ने वाली हो गई थीं, जिनकी नाक पर हर समय गुस्सा घरा रहता था। वैसे भी उन्होंने कभी ज़िंदगी में शेयर नहीं किया था, मिल-जुलकर नहीं रही थीं और कभी झुकी नहीं थीं। अब मामूली-सी बात को लेकर भी वे अपनी पार्टनरों से लड़ पड़तीं। बेशक यह लड़ना सार्वजनिक नल पर होने वाले लड़ने के स्तर तक नहीं उतरा था फिर भी गुबार तो निकाला जाता ही था। वे अब इस बात पर भी आपस में बोलना छोड़ सकती थीं कि वे चप्पल पहन कर रसोई में चली आती हैं... जब मैं अखबार पढ़ रही होती हूं तो ज़ोर-ज़ोर से घंटी बजाकर आरती करती हैं... चाय के अपने जूठे कप कहीं भी छोड़ देती हैं... बाथरूम... गंदे बालों से भरी गंदी कंघी..., वाशबेसिन... वगैरह... वगैरह...। ऑफिस में बीसियों कर्मचारियों पर नियंत्रण करने वाली और महत्वपूर्ण फैसले लेने वाली महिलाएं अब इस बात पर भी लड़ लेती थीं कि ड्राइंगरूम में घूम रहा तिलचट्टा कौर मारे या देर रात या अल सुबह दरवाजे की घंटी बजने पर दरवाजा कौन खोले, या फिर रोज सुबह दूध कौन ले। कई बार खर्च शेयर करने को लेकर भी पंजे लड़ जाते। ये और ऐसी ढेरों बातें थीं जिनकी वजह से इस खूबसूरत, हरे-भरे, शालीन लोगों वाले फाश इलाके में रहने वाली ये भद्र महिलाएंं अपनी सुबह खराब करती थीं, दोपहर भर कुढ़ती रहती थीं। बेहद खूबसूरत शामों को, जब मौसम को देखकर किसी का भी मन खिल उठना चाहिए, वे या तो अपने डेरे पर आने से कतरातीं या सांझ ढले अपने-अपने दरवाजे बंद कर लेतीं। रात के वक्त जब सारा शहर उत्सव के मूड में होता, देर रात तक आवारागर्दी करता, शुशियां बांटता रहता, वे बिसूरते हुए करवटें बदलती रहती थीं।
सुबह उठते समय आम तौर पर सभी पार्टनरों के चेहरों पर मुर्दनगी छायी होती और उनके सामने मनहूस चेहरों को देखते हुए एक और मनहूस दिन काटने के लिए होता। वे भारी मन से ऑफिस पहुंचतीं। वहां मन की यह भड़ास लंच टाइम में दैनिक किस्तों में अलग-अलग मेजों पर निकलती। एक ही फ्लैट शेयर करने वाली महिलाएं एक ही मेज पर कभी नहीं बैठतीं। कई बार वे पहले ही फोन पर तय कर लेतीं, आज किसे अपनी रामकहानी सुनानी है। हर महिला को ही कुछ न कुछ कना होता। उनमें से हरेक को श्रोताओं की ज़रूरत होती। अजीब हालत हो जाती। सभी बोलना चाहतीं। सुने कौन। उन मेजों पर बैठे पुरूष सहकर्मियों की अजीब हालत होती। उनके सामने ही ये भद्र महिलाएं अपनी ही सहकर्मियों, सखियों, दिन-रात की, खाने-पीने की साथिनों की छीछालेदर करतीं। उनके बखिए उधेड़तीं। सब की सब कोई माकूल सा कंधा तलाशते ही रोने लगतीं।
कई बार ऐसा भी होता कि वे आपस में सलाह-मशविरा करके अपने पार्टनर बदलने का फैसला कर लेतीं। ऑफिस में कह-सुनकर कागज़ी कार्रवाई करवा लेतीं। कुछ दिन तो नयी पार्टनरों के साथी ठीक-ठाक चलता, फिर वहां भी वही पुरानी रागिनी छिड़ जाती। फ्लैट बदले जा सकते थे। पार्टनर बदले जा सकते थे, लेकिन जो जीज़ कोई नहीं बदल सकता था, वह था उनका खुद का स्वभाव, जिसके बारे में उनमें से कोई भी नहीं जानता था कि उसे बदल देने भर से सारी समस्याएं खुद-ब-शुद सुलझ जाया करती हैं। वे खुद को बदलने के बारे में सोच भी नहीं सकती थीं।
इनकी तुलना में कुछ र्साभाग्यशाली महिलाएं ऐसी भी थीं जिन्हें वरिष्ठताक्रम से पूरा फ्लैट मिल गया था। लेकिन खुश वे भी नहीं थीं। जिन्हें ये फ्लैट लीज़ पर लेकर दिए गए थे, उन्हें भी ढेरों शिकायतें थीं-फ्लैट दूर है... गंदा है... पड़ोस खराब है... धूप बहुत आती है... धूप नहीं आती... ग्राउंड फ्लोर पर है... नहीं है... सुरक्षित नहीं है। लड़-झगड़ कर अपने लिए अलग फ्लैट ले लेने के बाद भी वे वहां अकेली नहीं रहती थीं। उन्हें डर लगता था। महंगा भी पड़ता था। अकेले वक्त भी नहीं गुज़रता था। यहां उन्हें एक सुविधा ज़रूर थी कि अपनी मर्जी से पार्टनर रख और बदल सकती थीं। इसके बावजूद खुश वे भी नहीं थीं।
इनकी तुलना में कुछेक महिलाओं ने इन सारी समस्याओं का एक अलग ही हल खोज लिया था। व अपने एकाध बच्चे को अपने साथ ले आई थीं और वहीं उसका एडमिशन करवा दिया था। उनके लिए कुछ हद तक जीवन र्साक बन गया था। वक्त तो अच्छी तरह गुजरता ही था, यह तसल्ली भी रहती कि बच्चे को अपनी निगरानी में पाल-पोस रही हैं।
ये अकेली, परिवार से बिछ़ुड़ी महिलाएं महानगर जाने का कोई मौका नहीं छोड़ती थीं। छुट्टियों की सूची मिलते ही वे साल भर का शेड्यूल बना लेतीं, कब-कब जाया जा सकता है। किसी नेता वगैरह के मरने पर होने वाली छुट्टी उनके लिए बोनस की तरह होती। कुछ तो बिला नागा हर शनिवार की रात की गाड़ी से जातीं, दिन भर वहां खटतीं, घर-परिवार की पटरी से उतरी गाड़ी संवारतीं और रात की ट्रेन से लौट आतीं। उनके पास हर वक्त अगले कई हफ्तों के आने-जाने के कन्फर्म टिकट होते।
कई बार वे एक दिन के लिए जातीं और महीनों नहीं लौटती थीं। बीमार पड़ जातीं या बीमारी की छुट्टी ले लेतीं। ऐसे में उनकी कन्फर्म टिकटों पर उनकी हमउम्र सहेलियां यात्रा करतीं। उनके छुट्टी पर बेठ जाने से ऑफिस के कामकाज का नुकसान होता था, लेकिन वे परवाह नहीं करती थीं। उनका कहना था-हमारी ही कौन परवाह करता है। इन महिलाओं में कुछ ऐसी भी थीं जिन्होंने विवाह नहीं किया था और महानगर में अकेली रहती आई थीं। वे भी बिला नागा महानगर आती-जाती रहतीं, क्योंकि महानगर उनकी हर धड़कन में इतना रचा-बसा था कि उसे बार-बार देखे बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता था। जब तक वे वहां जाकर वहां की हवा की सांस नहीं ले लेतीं थीं, उन्हें ऊर्जा नहीं मिलती थी।
कुछ ऐसी भी रहीं जिन्होंने यहां आने के बाद परिस्थितियों से घबरा कर नौकरी छोड़ दी थी, जबकि कुछ इर इंतज़ार में थीं कि कब वे स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवश्यक वर्ष पूरे करें और घर बैठें। जो यहां कई बरस पहले आई थीं, वे किसी भी दिन लौटने की आस लगाए बैठी थीं। वे हर दिन प्रधार कार्यालय से आने वाली डाक का इंतज़ार करतीं। उनकी हालत लेट चल रही ट्रेन के इंतज़ार में प्लेटफार्म पर बैठे यात्रियों जैसी थी। वे अरसे से आधे घंटे के नोटिस पर शहर छोड़ने की तैयारी किए बैठी थीं। इंतजार था कि खत्म नहीं होता था।
उधर कुछ महिलाओं के यहां चले आने से उनके घर-परिवार वाले गंभीर रूप से बीमार हो गए थे या दिल हार बैठे थे। ऐसी महिलाओं को एक विशेष मामले के रूप में, एक वर्ष के लिए उन्हीं के खर्च पर वापस भिजवा दिया जाता था। यह अवधि बढ़ाई नहीं जाती थी, अलबत्ता, उस हालत में कम ज़रूर कर दी जाती थी, जब मरीज ही उससे पहले चल दे। यानी महिलाओं का विशेष मामले पर लौटने का आधार ही न रहे। संस्थान इसी लिखित शर्त पर उन्हें भेजता था। इसी के साथ एक और शर्त नत्थी कर दी जाती थी कि साल भर बाद, या उससे पहले, जैसी भी स्थिति हो, उन्हें किसी और केंद्र पर भी भेजा जा सकता था। सशर्त वापसी का लाभ उठाने में आमतौर पर महिलाएं डरती थीं। हां, अगर उन्होंने ठान ही लिया हो कि साल भर बाद नौकरी छोड़नी है, तो वे किसी न किसी तिमड़म से किसी की बीमारी का बहाना लेकर एक बरस के लिए लौट आतीं और जब बाद में उन्हें कहीं और भेजा जाता तो वे नौकरी छोड़ देती थीं। इस तरह वे अपने परिवार के पास एक बरस पहले पहुंच जाती थीं।
कुल मिलाकर ये सारी भद्र महिलाएं बहुत मुश्किल से अपने दिन गुज़ार रही थीं। यह शहर बेहद शूबसूरत था, सांस्कृतिक गतिविधियों की कोई कमी नहीं थी। अच्छे पुस्ताकालय थी, घूमने-फिरने की जगहें थीं, लेकिन चूंकि उन्हें लगातार अपने बिछ़ुड़े घर की याद आती रहती थी, उन्हें यहां कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। उन्होंनक अपनी पूरी ज़िंदगी सिर्फ घर और परिवार ही जाना था, इसलिए वे लिखने, पढ़ने, घूमने या जीने जैसा कुछ सोच ही नहीं पाती थीं। उन्होंने इतने बरसों में इस शहर को ढंग से देखा भी नहीं था, क्योंकि उनकी आंखों के आगे हर वक्त महानगर और उसमें अपना परिवास झिलमिलाता नज़र आता रहता था। वैसे तो इस बात पर भी बहस की जा सकती थी कि उन्होंने अपना महानगर ही मितना देशा या जाना था। छुट्टी के दिन उनके लिए बहुत भारी गुज़रते थे। कुछ भी तो करने के लिए नहीं होता था। अगर शेयरिंग पार्टनरों से बातचीत बंद हो तो और भी तकलीफ़ होती थी। दिन गुजरे नहीं गुज़रता था। कभी-कभार ही ऐसा हो पाता था कि वे मनमुटाव भुलाकर, मिलजुल कर खाने का प्रोग्राम बनाएं, या कहीं शॉपिंग पर जाएंं। वैसे वे एक-दूसरे से मिलने दूसरे फ्लैटों में भी चली जाती थीं।
उनमें से कुछ को संस्थान के काम से आसपास के शहरों में निरीक्षण के लिए जाने की ज़रूरत पड़ती थी। कभी-कभी ये निरीक्षण इस तरह के पिछड़े या दूरदराज के इलाकों में होते, जहां रहने-खाने की तकलीफ होती। ऐसे निरीक्षणों पर जाने से वे भरसक बचतीं। कभी पूरी टीम में अकेली महिला होने के बहाने से, तो कभी किसी अन्य कारण से। ऐन वक्त पर उनके मना कर देने से या बीमारी की छुट्टी लेकर बैठ जाने से निरीक्षण का सारा शेड्यूल बिगड़ जाता। लेकिन अगर निरीक्षण के लिए महानगर की दिशा में जाना होता तो वे हर हाल में टीम में अपना नाम शामिल करवाने की जुगत भिड़ातीं। लल्लो-चप्पो करतीं। अगर निरीक्षण लंबा हुआ तो बीच की छुट्टियों में या रविवार को, दो-तीन घंटे की यात्रा करके चुपचाप महानगर होकर आया जा सकता था। विपरीत दिशा में कोई जाना न चाहती और महानगर की दिशा के लिए मारा-मारी होती।
वे हमेशा अफवाहों से घिरी रहतीं, एक-एक से उनकी सच्चाई के बारे में पूछती फिरतीं। कभी खबर उड़ा देतीं-नयी ट्रांसफर पालिसी आ रही है तो कभी कहतीं-गोल्डर हैंड शेक स्कीम आ रही है, जिसमें संस्थान इच्छुक कर्मचारियों को ढेर सारा रुपया देकर सेवानिवृत्ति करेगा। महानगर के प्रधान कार्यालय से कोई भी वरिष्ठ अधिकारी आता तो वे उससे मुलाकात के लिए समय ज़रूर मांगतीं। अपने दुखड़े रोतीं... जवान लड़कियां... गिड़ते बच्चे... पति बीमार... शदियां...पढ़ाई... खुद की बीमारी... `मेनोपॉज'। ज्यादा रोना वे `इसी' का रोतीं। एक बार तो एक वरिष्ठ अधिकारी ने उन्हें मुलाकात का समय तो दिया, लेकिन साफ-साफ कह दिया था-आपके पास वापस जाने के लिए `मेनोपॉज' के अलावा और कोई कारण हो तो बताएं। सिर्फ इसी वजह से तो आपको ट्रांसफर नहीं किया जा सकता।
सबके चेहरे एकदम काले पड़ गए थे और सबकी सब बिना एक भी शब्द बोले केबिन से बाहर आ गई थीं। बाद में पता चला था-प्रधान कार्यालय में इन महिलाओं ने स्थानांतरण के लिए जितने भी आवेदन भेजे थे, सब में प्रमुख रूप से `इसी' वजह से होने वाली तकलीफों का बखान किया गया था।
यहां रहते हुए इन लोगों के साथ कुछ दुर्घटनाएं भी हो गई थीं। इससे इनके हौसले और मंद हो गए थे। एक महिला कॉलेज जाने वाली अपनी अति सुंदर लड़की को साथ लेकर आयी थी कि कामकाजी पति अकेले उसका ख्याल नहीं रख पाएंगे। एक-दो साल तक सब ठीक चलता रहा था। मां-बेटी एक दूसरे का सहारा बनी रही थीं। बेटी ने मां से अपने से सहपाठी का जिक्र किया था। उससे मिलवाया भी था, लेकिन विजातीय और बेरोजगार लड़के को मां ने पहली ही नज़र में ठुकरा दिया था। बेटी को चेताया भी था-उससे मेल-जोल न रखे।
इधर मां एक ट्रेनिंग पर बाहर गई, उधर लड़की ने उसी लड़के से ब्याह रचाया, चाबी पड़ोस में दी और हनीमून पर निकल गई।
मां को इतना सदमा लगा था कि वह नौकरी ही छोड़ गई थी। जिसके लिए सब कुछ कर रही थी वही दगा दे गई, अब किसके लिए कमाना-धमाना। पति की निगाहों में कसूरवार भी वही बनी थी कि लड़की को संभाल नहीं पाई।
एक अन्य महिला अधिकारी के पति का महानगर में चक्कर चलने लगा था। इससे पहले कि मामला कोई निर्णयक मोड़ लेता, वह बोरिया-बिस्तर समेट कर लौट गई थी और वहां से इस्तीफा भेज दिया था। इन दो-एक मामलों से ये महिलाएं काफी विचलित हो गई थीं।
ऐसा नहीं था कि लगभग इन्हीं कारणों से अपना परिवार पीछे छोड़कर आए उनके पुरुष सहकर्मी उनसे कम परेशान थे। तकलीफें उन्हें भी होती थीं। लेकिन वे अपनी तकलीफों का इतना सार्वजनिक नहीं करते थे कि उनके प्रति बेचारगी का भाव उपजे। वैसे उनके पास खुद को भुलाए रखने या व्यस्त रहने के जरिए भी ज्यादा थे। उनके पास ताश थे, खाना और पीना था, फिल्में थीं। ब्लू पिल्में थीं। घूमना-फिरना था। किताबें थीं। ठहाके थे और बहसें थीं। वे कभी भी किसी भी दोस्त के घर जाकर महफिल जमा सकते थे। वहां रात गुज़ार सकते थे। देर तक सड़कों पर आवारागर्दी कर सकते थे। इन सब कामों में उनकी ईगो कभी आड़े नहीं आती थी।
कई बार वे अपनी महिला सहकर्मियों को छेड़ते-जिन चीज़ों पर आपका बस नहीं हैं, उसके लिए क्यों अपनी सेहत खराब कर रही हैं। तनाव में रहने से क्या जल्दी ट्रंसफर हो लाएगा। वे उन्हें समझाते भी और उन पर हंसते भी थे-हमें ही देख लो। परिवार से अलग हैं तो भी खा-पी रहे हैं। हर वक्त मस्ती के मूड में रहते हैं। कभी चुपके से अपने घर जाकर तो देखो तुम्हारे पति और बच्चे तुम लोगों के बिना कितना सहज और खुला-खुला महसूस कर रहे होंगे, बल्कि आप लोगों के वहां पहुंचने पर बाल-बच्चे पूछते होंगे-आप कितने दिन की छुट्टी पर आई हैं, लेकिन उन पर इन सीरी बातों का कोई असर नहीं होता था। उनका एक ही जवाब रहता-आप पुरुष हैं। हम लेडीज की तकलीफ कैसे समझेंगे। आपके साथ इतनी जिम्मेदारियां होतीं तो पता चलता।
बहरहाल ये बहसें चलती रहती थीं। एक के बाद एक बरस बीतते रहते थे। जैसे-जैसे उनके घर से दूर रहने की अवधि बढ़ती जा रही थी, ये महिलाएं घर की चिंता में और दुबली होती जा रही थीं। घर जो पीछे छूट गया था, लेकिन दिलो-दिमाग में लगातार बना रहता था। वे उसे दूर से ही जकड़े हुए थीं। वे वहां जल्द-से-जल्द पहुंच कर उसे अपने नियंत्रण में ले लेना चाहती थीं। उनके लिए एक-एक पल भारी पड़ रहा था।
दूसरी तरफ, उनकी गैर-मौजूदगी में आमतौर पर घरों को कुछ भी नहीं हुआ था। न दीवारें दरकी थीं, न किसी के सिर पर छत ही गिरी थी। सभी घर जस के तस खड़े थे, बल्कि पहले की तुलना में आत्मनिर्भर और हर लिहाज से मजबूत। इन बरसों में पढ़ने वाले बच्चे कॉलेजों में जा पहुंचे थे या नौकरी वगैरह पर भी लग गए थे, शादियां भी कई बच्चों की हुई थीं इस बीच। अमूमन सभी घर इन महिलाओं की गैर-मौजूदगी में, लेकिन उनसे मिलने वाले पैसों की मदद से, कुछ भी `मिस' नहीं करते थे, वे परिस्थितियों के अनुमूल जीवन जीने लगे थे। उन घरों को इन महिलाओं-जो पत्नी, मां, बेटी, बहरन, कुछ भी हो सकती थीं, की ज़रूरत तो थी, लेकिन ये अब उन लोगों की दिनचर्या का, आदत का हिस्सा नहीं रही थीं। वे इनके लिए परेशान होते थे लेकिन व्याकुल नहीं होते थे।
वक्त गुज़रता रहा था। तभी एक दिन दो समाचार सुनने को मिले थे। एक शुभ और दुसरा खराब। अच्छी खबर यह थी कि एक लंबे अरसे के बाद से सारी महिलाएं स्थानांतरित होकर महानगर वापस लौट रही थीं।
दूसरी, उदास कर देने वाली खबर यह थी कि उनके स्थान पर लगभग उतनी ही महिलाएं स्थानांतरित होकर बाहर जा रही थीं। इस बार, पास और दूर के सभी केंद्र पर।
रचनाकाल 1995

Friday, April 24, 2009

उर्फ़ चंदरकला – 1991 की अश्लीलतम कहानी

ये कहानी 1976 की घटना पर 1991 में लिखी गयी थी और नवम्बर 91 में वर्तमान साहित्य में छपी थी। कहानी छपते ही हंगामा मच गया था। वार्षिक ग्राहकों ने अपना चंदा वापिस मांगा, देश भर में इसकी फोटोकॉपी करा के प्रतियां बांटी गयीं, गोष्ठियां हुईं, साल भर कहानी के पक्ष और विपक्ष में पत्र आते रहे। और मेरी लानत मलामत की जाती रही। कहानी का भूत अरसे तक हिन्दी जगत को सताता रहा। लीजिये, आप भी पढ़ कर अपनी राय बनाइये।

उर्फ़ चन्दरकला
दोनों वहां वक्त पर पहुंच गये हैं। अभी एन आर की अर्थी सजायी जा रही है। वहां खड़ी भीड़ में धीरे-धीरे सरकते हुए वे सबसे आगे जा पहुंचे और मुंह लटका कर खड़े हो गये। दोनों ऐसी जगह जा कर खड़े हो गये हैं, जहां चेयरमैन और दूसरे वरिष्ठ अधिकारियों की निगाह उन पर पड़ जाये। तभी सतीश ने आनंद को इशारा किया, दोनों आगे बढ़े और अर्थी पर फूल मालाएं रखने वालों के साथ हो लिये। ज्यादातर लोग चकाचक सफेद कुर्ते पायजामों में हैं। इन दोनों के पास कोई सफेद या डल कपड़े नहीं हैं, इसलिए रोज के ऑफिस वाले कपड़ों में ही चले आये हैं।
माहौल में बहुत उदासी है। रह-रह कर मिसेज एन आर, उनके छोटे लड़के और जवान लड़कियों की सिसकियों से माहौल और भारी हो जाता है। जब एन आर की मृत देह मंत्रोच्चारणों के साथ खुले ट्रक में रखी जाने लगी तो सतीश और आनंद ने भी आगे बढ़ कर हाथ लगा दिया। एन आर परिवार और दूसरों की रुकी हुई रुलाई फिर फूट पड़ी। सबकी तरह सतीश और आनंद भी अपनी उंगलियां आंखों तक ले गये, लेकिन वहां कोई आंसू नहीं है।
दोनों धीरे-धीरे खिसकते हुए भीड़ से बाहर आ गये। सतीश ने आनंद का हाथ थामा और बोला - मिसेज एन आर बिना मेकअप के कितनी अजीब लग रही हैं। अपनी उम्र से दुगुनी।
"अबे घोंचू, यही उनकी असली उम्र है। मेकअप से आधी लगती थी।" आनंद फुसफुसाया। तभी उसकी निगाह एन आर की बिलखती हुई बड़ी लड़की पर पड़ी। उसकी सफेद कुर्ते में से झांकती काली ब्रा की पट्टी पर नज़रें गड़ाये वह बोला," मुझसे तो इन लड़कियों का रोना नहीं देखा जा रहा। जी कर रहा है दोनों को सीने से लगाकर दिलासा दूं। पीठ पर हाथ फेर कर चुप कराऊं।" सतीश ने भी आंखों ही आंखों में लड़कियों के शरीर तौले और मायूस होते हुए कहा, "हां यार, एन आर इतनी खूबसूरत लड़कियों को यतीम कर गया। मुझसे भी उनका दुःख नहीं देखा जा रहा। एक तुझे मिले चुप कराने के लिए और एक मुझे।" उसने आनंद का हाथ दबाया और आदतन आँख मारी।
ऑफिस की सारी गाड़ियां, बसें सबको श्‍मशान घाट तक ले जाने के लिए खड़ी हैं। कॉलोनी तक वापिस भी छोड़ जाएंगी। आज की छुट्टी घोषित कर दी गयी है। सब लोग बसों की तरफ बढ़ने लगे।
बस में चढ़ने से पहले सतीश फिर फुसफुसाया," यार क्या करेंगे वहां? ….. सारा दिन बर्बाद जायेगा। यहां सबको अपना चेहरा दिखा ही चुके हैं। हाज़िरी लग गयी है। चल खिसकते हैं।"
" हां यार, वैसे भी मूड भारी हो गया है। चल, सिटी चलते हैं। वहीं दिन गुजारेंगे।"
उन्होंने देखा, और भी कई लोग बसों में चढ़ने के बजाये इधर-उधर हो गये हैं। मौका देखकर वे भी शव-यात्रा का काफिला शुरू होने से पहले ही फूट लिये।
एन आर के बंगले से काफी दूर आ जाने के बाद आनंद ने सिगरेट सुलगाते हुए पूछा,"क्या ख्याल है तेरा, एन आर की जगह उसकी फैमिली में किसे नौकरी दी जायेगी।"
"अरे इसमें देखना क्या, तय है। बड़ी वाली लड़की ही ज्वाइन करेगी। एन आर जीएम था भई। थर्ड इन रैंक, अब उसकी विडो इस उम्र में तो डिस्पैच क्‍लर्क बनने से रही।" सतीश ने दार्शनिकता झाड़ी।
" गुरु, मजा आ जायेगा तब तो। बल्कि मैं तो कहता हूं, जीएम के स्टैंडर्ड के हिसाब से तो दोनों लड़कियों को रखा जा सकता है। पर्सोनल मैनेजर अपना यार है। उससे कह कर इन्हें अपने सैक्शान में रखवा लेंगे।" आनंद ने मन ही मन लड्डू फोड़े।
"कुछ भी हो यार", सतीश फिर दार्शनिक हो गया, "आदमी की भी क्या जिंदगी है, यही एन आर कल तक कितनी बड़ी तोप था। अच्छे-अच्छों को नकेल डाल रखी थी, आज कैसा निरीह सा पड़ा था मुझे ...."
"मत याद दिला यार" आनंद ने तुरंत टोका, "मेरी आंखों से तो उसकी रोती हुई लड़कियों की तस्वीर ही नहीं मिटती। बेचारी लड़कियां, कभी जाएंगे उनके घर। अफसोस करने। पूछेंगे, हमारे लायक कोई काम हो तो .....।"
"हां यार, जाना ही चाहिये। आखिर इन्सान ही इन्सान के काम आता है।" आनंद उससे पूरी तरह सहमत हो गया।
तभी एक खाली ऑटो वहां से गुजरा। आनंद ने उसे रोका, बैठने के बाद सिटी की तरफ चलने के लिये कहा।
"कल रात तू कितना जीता?" सतीश ऑटो में पसरते हुए बोला।
"तीन सौ के करीब, लेकिन कोई खास फायदा नहीं हुआ, इस महीने कुल मिला कर घाटे में ही चल रहा हूँ।"
"जो रकम तू हार चुका है, उसे गिन ही क्‍यों रहा है। वो तो वैसे ही तेरे हाथ से जा चुकी।" सतीश ने अपनी नरम गुदगुदी हथेलियों में उसका हाथ दबाया,"चल आज तेरी जीत ही सेलिब्रेट की जाये। सारा दिन कहीं तो गुजारना ही है।"
"तेरे पास कितने हैं?" आनंद ने सतीश की जेब की थाह लेनी चाही।
"होंगे सौ के आस-पास" सतीश ने लापरवाही जतायी।
सिटी पहुंच कर दोनों मेन मार्केट की तरफ चले। बाजार की रौनक से आंखें सेंकते हुए। जब सतीश को कोई दर्शनीय चीज़ नज़र आ जाती तो वह आनंद का हाथ दबा देता। आनंद की निगाह पहले पड़ती तो वह सतीश को कोंच देता। काफी देर तक वे यूं ही मटरगश्ती करते रहे।
तभी सड़क के किनारे बने एक पार्क के बाहर रेलिंग के सहारे खड़ी एक लड़की ने सतीश को आँख मारी। सतीश सकपका गया। दुनिया का आठवां आश्चर्य। आज तक तो यह काम वही करता रहा है। उसे आँख मारने वाली कौन सी अम्मा पैदा हो गयी। वह सांस लेना भूल गया। दोनों तब तक पाँच सात कदम आगे बढ़ चुके थे। सतीश ने हलके से मुड़ कर देखा, लड़की की निगाह अभी भी इस तरफ है। लड़की फिर मुस्कुरायी। सतीश ने तुरंत आनंद का हाथ दबाया," गुरु, रुक जरा। माल है। खुद बुला रही है।"
आनंद ने शायद उसे देखा नहीं है। दोनों रुक गये। सतीश ने दिखाया, " वे रेलिंग के सहारे खड़ी है।"
" हां यार, लगती तो चालू है। करें बात?" आनंद की धड़कन भी तेज हो गयी।
"पर उसे दिन दहाड़े ले जायेंगे कहां?" सतीश ने आनंद की उंगलियां अपनी उंगलियों में फंसा लीं।
" पहले देख तो लें। कैसी है? कितना मांगती है? जगह तो बाद में भी तय कर लेंगे। चल पास जाते हैं।"
" तू जा, उससे बात कर।"
" अबे पौने आठ, आंख उसने तुझे मारी है। आगे मुझे कर रहा है।" लड़की अभी भी खड़ी इन दोनों की हरकतें देख रही है।
दोनों उससे थोड़ी दूर जा कर खड़े हो गये। आनंद ने सिगरेट सुलगा ली और सतीश खुद को व्यस्त दिखाने के लिए रेलिंग के सहारे जूते का तस्मा खोल कर बांधने लगा।
लड़की ने दोनों की तरफ देखा और बेशरमी से मुस्कुरायी। सतीश ने उसे आँख के इशारे से बुलाया। लड़की तुरंत बगीचे के अंदर चली गयी और उसे अपने पीछे पीछे आने का इशारा किया।
भीतर जा कर वह एक खाली बैंच पर बैठ गयी। दोनों उसी बैंच पर उससे हट कर बैठ गये। देखा, लड़की ठीक-ठाक है। उन्नीस बीस की उम्र। सस्ती साड़ी, प्लास्टिक की चप्पल, उलझे बाल। शायद कई दिन से नहायी भी न हो।
" चलेगी?" आनंद ने कश लगाते हुए पूछा।
" कित्ती देर के वास्ते?"
" दिन भर के लिए" इस बार सतीश बोला।
" जगा नहीं है अपुन के पास। तुमको इंतजाम करना पड़ेगा" लड़की ने स्पष्ट किया।
" कर लेंगे, पहले तू पैसे बोल।"
" दोनों के वास्ते सौ का पत्ता लगेगा, मंजूर हो तो बोलो।"
" सौ ज्यादा है। कम कर" सतीश ने उसे नज़रों से तौला।
" अस्सी दे देना और खाना खिला देना बस्स।" वह सतीश की आंखों में लपलपाती लौ देख कर बोली।
" पचास मिलेंगे, चलना हो तो बोल" सतीश अपनी औकात पर आ गया।
लड़की ने मना कर दिया, " पचास कम है। सत्तर दे देना।"
दोनों उठ गये और गेट की तरफ बढ़ने लगे। सतीश आनंद से पूछना ही चाहता था कि सत्तर ठीक हैं क्या, इससे पहले ही लड़की इनके पीछे लपकी, "चलो सेठ।"
सतीश मुस्कुराया। सौदा महंगा नहीं है। दिन भर के लिए दोनों के हिस्से में पच्चीस-पच्ची़स ही आयेंगे। आनंद से पूछा," गुरु, तय तो कर लिया। अब इसे ले जायें कहां? घर तो इस समय ले जा नहीं सकते। आज छुट्टी की वजह से पूरी कालोनी आबाद है। कोई भी चला आयेगा। होटल में ले जाने लायक यह है नहीं।"
" तू ही तो मेरे पीछे पड़ गया था। अब ले भुगत।" दोनों को लगा, बेवक्त की दावत कुबूल कर बैठे हैं। लड़की अभी भी खड़ी इनके इशारे का इंतजार कर रही है।
आनंद ने घड़ी देखी, साढ़े ग्या़रह, " चल, पिक्चर चलते हैं पहले। इस शो में हॉल खाली होते हैं। बाकी बाद में देखेंगे।"
सतीश ने लड़की से कहा, " चलो, पहले फिल्म देखेंगे।"
लड़की लाड़ से बोली, " पहले कुछ खिला दो सेठ, कल से एक कप चा भी नहीं पी है।"
आनंद ने अहसान जताया, " चल पहले कुछ खा ले, नहीं तो चिल्लायेगी।" वे एक सस्ते़ से रेस्तरां की तरफ बढ़ गये।
सिनेमा हॉल में बहुत भीड़ नहीं है। दोनों ने उसे अपने बीच वाली सीट पर बिठाया। अँधेरा होते ही दोनों चालू हो गये। दोनों को ही लगा, लड़की मजबूत है। वह भी खा पी कर मूड में आ गयी है। दोनों ने अपना एक एक हाथ उसके ब्लाउज में खोंस लिया। पसीने और मैल से उनके हाथ चिपचिपाने लगे। लेकिन वे लगे रहे। कभी सतीश उसे भींच लेता है तो कभी आनंद चूमने लगता है। अब उनके लिए हॉल में बैठना मुश्किल हो गया है। आस-पास बैठे लोग भी महसूस कर रहे हैं, असली फिल्म तो यहीं चल रही है। तभी धींगामुश्ती में लड़की का ब्लाउज चर्र से फट गया। लड़की जोर से चिल्ला पड़ी, "हाय, मेरा ब्लाउज फाड़ दिया।" दोनों सकपका गये। तेजी से अपने हाथ खींचे। उन्हें उम्मीद नहीं थी, वह इतनी जोर से बोल पड़ेगी। आस-पास वाले हँसने लगे और सीटियां बजाने लगे। दोनों खिसिया कर एकदम बाहर की तरफ लपके। लड़की को भी बाहर आना पड़ा।
बाहर निकल कर दोनों बाथरूम में घुस गये। सतीश बोला, "यार, माल तो पटाखा है एकदम गर्म कर दिया साली ने। "
"हां यार, अब अंदर तो नहीं बैठा जा रहा। क्या करें?"
"एक तरीका है। ऑटो लेकर किले की तरफ निकल चलते हैं। वहां का रास्ता एकदम सुनसान है। घनी झाड़ियां भी हैं। वहीं चलते हैं।"
" हां, यही ठीक रहेगा।"
दोनों ने बाहर निकल कर लड़की को पीछे आने का इशारा किया। ऑटो तय करके उसमें बैठ गये और लड़की को बुला लिया। अभी ऑटो बाज़ार में ही था कि आनंद ने ड्राइवर को एक मिनट के लिए रुकने के लिए कहा। वह लपक कर गया। जब वापिस लौटा तो उसके हाथ में एक खाकी लिफ़ाफ़ा था। लिफाफे की शेप देखकर सतीश मुस्कुराया। लड़की दोनों के बीच दुबकी बैठी है। ब्लाउज ज्यानदा फट गया है उसका। साड़ी कस के लपेट रखी है उसने।
किले वाली सड़क पर शहर से काफी दूर आ जाने के बाद उन्होंने आटो रुकवाया। बिल्कुल सुनसान जगह है यह। पहले आनंद ऑटो में बैठा रहा और सतीश लड़की को लेकर झाड़ियों के पीछे निकल गया। जाने से पहले उसने लिफाफे में ही 'हाफ' खोल कर गला तर कर लिया है।
सतीश के आने तक आनंद घूँट भरता रहा और सिगरेटें फूँकता रहा। सतीश ने आते ही मुस्कुरा कर आनंद की तरफ देखा और उसका कंधा दबाया। अब सिगरेटें फूंकने की बारी सतीश की है। आटो ड्राइवर इतनी देर से इन सवारियों की हरकतें देख कर मुस्कुरा रहा है। सतीश के लौटने पर बेशर्मी से बोला, " साब मैं भी एक गोता लगा लूं गंगा में।"
सतीश और आनंद ने एक दूसरे की तरफ देखा – यह तीसरा भागीदार कहां से पैदा हो गया। अब तक लड़की भी बाहर आ गयी है।
अजीब स्थिति है। ड्राइवर को 'हां' कैसे कहें और अगर मना करते हैं तो एक तो वह इस मामले का राज़दार है और उन्हें वापिस भी जाना है। लफ़ड़ा कर सकता है। दोनों ने आंखों ही आंखों में इशारा किया। इसे भी हो आने देते हैं। अपना क्या जाता है। तभी सतीश बोला, " बीस रुपये लेगेंगे।" ड्राइवर ने एक पल सोचा, फिर बोला "चलेगा। "

सतीश लड़की को एक किनारे ले गया और उसे डरा दिया, " ड्राइवर धमकी दे रहा है। उसे भी निपटा दे। नहीं तो वापिस नहीं ले जायेगा। जा। चली जा। यहां और कोई ऑटो भी नहीं मिलेगा।" लड़की सचमुच डर गयी है। वह झाड़ियों की तरफ लौट गयी। ड्राइवर उसके पीछे लपका। उनके जाने के बाद सतीश ने कुटिलता से मुस्कुरा कर आनंद की तरफ देखा, " कैसी थी?"
" साली गंदी थी, लेकिन थी जोरदार। तुझे कैसी लगी?"
"वाह गुरु, मेरा पसंद किया हुआ माल और मुझी से पूछ रहा है, कैसी थी।"
वह हंसने लगा, "बहुत दिनों बाद ऐसी चीज़ मिली है। लगता है, ज्यादा दिनों से धंधे में नहीं है।" उसने कयास भिड़ाया। " अब क्या करें, सिर्फ ढाई बजे हैं अभी।" आनंद को अब कोई मलाल नहीं है। " चल किले तक हो कर आते हैं। वहीं देखेंगे।"
" इसे रात को भी रखना है क्या?"
" वो तो यार, बाद की बात है। पहले यह तो तय हो, अब इसका क्या करना है। अभी पाँच मिनट में झाड़ियों से कपड़े झाड़ती निकल आयेगी हमारी अम्मा।"
आनंद ने दाँत दिखाये, " अभी से तो अम्मा मत बना यार उसे, अभी तो दूध पीती बच्ची है। कुंवारी कली।" सतीश ने टहोका मारा।
"अबे लण्डूरे, अभी खुद ही तो उसका दूध पी के आ रहा है और कहता है, दूध पीती बच्ची है। आनंद ने धक्का मारा, "पता नहीं तेरे जैसे कितने बिगड़े बच्चों को दूध पिला चुकी है।"
तभी ड्राइवर कपड़े झाड़ता हुआ बाहर आया। उसका चेहरा चमक रहा है। तब तक लड़की भी बाहर आ गयी है। एकदम पस्त। साड़ी के भीतर से उसका फटा हुआ ब्लाउज और गुलाबी गोलाई नजर आ रहे हैं। ड्राईवर ने अपनी सीट पर जमते हुए पूछा," अब कहां चलना है साहब?"
" किले की तरफ ले चलो।" सतीश ने आदेश दिया। अब उसके सामने तकल्लुफ करने की गुंजाइश नहीं है। आनंद ने लड़की के गले में बांह डाल कर उसे भींच लिया और चूमते हुए बोला, " थक गयी है क्या जाने मन।" लड़की ने सिर हिलाया," नहीं तो।"
सतीश उसकी जांघ पर हाथ फेरता हुआ बोला, "तूने अपना नाम तो बताया ही नहीं, क्या नाम है तेरा?"
लड़की अपना मुंह सतीश के कान के पास ले जा कर फुसफुसायी "चमेली।"
"बदन से तो तेरे बदबू आ रही है और नाम चमेली है।" सतीश उसके सीने पर हाथ मारता हुआ हँसने लगा, "हम तुझे चंदरकला कह कर बुलायेंगे। चलेगा न।"
यह सतीश की पुरानी आदत है। वह हर किराये की लड़की को इसी नाम से पुकारता है। वह चंद्रकला नहीं कह पाता। किले पर पहुंच कर उन्होंने ऑटो छोड़ दिया। ड्राइवर को पैसे देते समय सतीश ने बीस रुपये काट लिये। लड़की को ले कर पहले दोनों किले के भीतर घूमते रहे। उसके साथ मस्ती करते रहे। फिर किले के पिछवाड़े की तरफ निकल गये। यह जगह एकदम सुनसान है। चलते-चलते वे काफी दूर जा पहुंचे, जहां बहुत बड़े-बड़े पत्थर हैं। यह जगह सुरक्षित लगी उन्हें। वे पत्थरों के पीछे उतर गये।
आनंद वहीं एक पत्थेर से टिक कर लेट गया और लड़की को अपने पास बिठा लिया। सतीश घास पर लेट गया। लेटे लेटे वह ऊंचे सुर में गाने लगा। अचानक वह उठा और लड़की से बोला," चल चंदरकला, अब तू एक गाना सुना। "
" मुझे गाना नहीं आता।" वह इतराते हुए बोली।
" आता कैसे नहीं, धंधेवालियों को गाना, नाचना सब कुछ आना चाहिए। चल गाना सुना।"
लड़की गाने लगी। उसे सचमुच गाना नहीं आता। यूं ही रेंकती रही थोड़ी देर। सतीश और आनंद ताली बजाने लगे। उसकी हिम्मत बढ़ी। उसने और जोर से अलापना शुरू कर दिया, लेकिन जल्दी ही हांफ गयी। आनंद ने सिगरेट निकाली तो लड़की बोली, "एक मुझे भी दो।" आनंद ने डिब्बी माचिस उसी को दे दी और कहा, "ले खुद भी पी और हमें भी पिला।" लड़की ने बारी बारी से दोनों के मुंह में सिगरेट लगा कर सुलगा दी। खुद भी पीने लगी।
" सिगरेट ही पीती है या शराब भी?" सतीश ने धुंआ छोड़ते हुए पूछा।
लड़की ने आनंद के पास रखे हॉफ की तरफ देखा और सतीश की नाक पकड़कर बोली, " कोई पिला दे तो पी लेती हूँ।"
सतीश ने उसे पकड़कर अपने पास बिठा लिया और बोतल उसे दे दी, " ले मेरी जान, जितनी चाहे पी पिला।"
लड़की ने तीन-चार घूँट खींचे। फिर बोतल सतीश के मुंह से लगा दी। सतीश को अचानक खांसी आ गयी तो लड़की जोर-जोर से हंसने लगी। तभी सतीश बोला, " चल नाच के दिखा।"
वह नखरे करने लगी। सतीश ने उसे पकड़ कर खड़ा कर दिया और उसे जबरदस्ती नचाने लगा। आनंद भी उठ बैठा। दोनों ताली बजाने गाने लगे। लड़की हाथ पैर मारने लगी। उसे नशा होने लगा है। आनंद चिल्लाया, "ऐसे नहीं, ढंग से नाच। जरा तेज कदम उठा।
लड़की अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रही है, लेकिन नाचना उसके बस की बात नहीं है। तभी सतीश लड़की के पास आया और उसकी साड़ी खोलने लगा। लड़की एकदम रुक गयी और उसे मना करने लगी। सतीश ने पुचकारा, "चंदरकला डार्लिंग, कपड़े उतार कर नाच। खूब मजा आयेगा।"
लड़की एकदम बिफर गयी, " मैं नंगी नहीं नाचूंगी।" सतीश ने कस के उसके बाल पकड़ लिए, "साली प्यार से मना रहा हूँ नाच, फिर भी नखरे कर रही है।" लड़की बिगड़ गयी है, " देखो सेठ, खाली धंधे के वास्ते मैं आई इधर। फालतू परेशान नईं करने का। एक तो इत्ता कम पइसा दे रये और उप्पर से लफड़ करने कू मांगते।" उसने अपनी साड़ी कस के पकड़ ली और सतीश का हाथ झटक रही है। उसके बाल भी भी सतीश के हाथ में हैं।
तभी आनंद ने लपक कर उसे सतीश की पकड़ से छुड़वाया। प्यार से थपथपाते हुए उसे दस का नोट देते हुए बोला, " ले ये नाचने के पैसे अलग से ले। अब तो नाच।" लड़की अभी भी गुस्से में है। दस का नोट हाथ में लिए तय नहीं कर पा रही, क्या। करे।
आनंद ने फिर पुचकारा, " यहां कोई नहीं आयेगा। और फिर हम से क्या शरम?"
लड़की अब कातर निगाहों से दोनों की तरफ देख रही है। इससे पहले कि सतीश दोबारा उसके बाल पकड़ने के लिए आगे बढ़े, उसने कपड़े उतारने शुरू कर दिये। पैसे आनंद को पकड़ा दिया, "बाद में दे देना।"
दोनों पत्थरों पर बैठ गये और फिर से गाने लगे। सतीश ने बची खुची शराब भी उसे पिला दी। दोनों देर तक शोर मचाते रहे। सतीश फिर उठ कर उसके साथ लचकने लगा। कभी उसे गोल-गोल घुमाने लगता तो कभी उसे ऊपर उठाने की कोशिश करता, लेकिन उसका वज़न संभाल न पाता। थोड़ी देर बाद वह खुद तो थक कर बैठ गया, लेकिन उसने लड़की को बैठने नहीं दिया। लड़की नाच-नाच कर बेदम हुई जा रही है। इधर दोनों चिल्लाये जा रहे हैं - "और तेज नाच ... और मटक ... और उछल ... और जोर लगा के ....।"
आखिर लड़की एकदम निढाल हो कर पड़ गयी। वह पसीना-पसीना हो रही है। काफी देर तक यूं ही लेटी रही। आनंद ने एक सिगरेट सुलगायी और उसके होठों से लगा दी।
" थक गयी है क्या? " वह पसीने से चिपचिपाते उसके बदन पर हाथ फेरता हुआ बोला। लड़की ने आंखें खोले बिना सिर हिलाया - हां। आनंद ने लड़की को अपनी गोद में बिठा लिया और प्यार करने लगा। थोड़ी ही देर में वह उसे लेकर पत्थरों की ओट में चला गया। वापिस आने के बाद आंनद ने सतीश से पूछा, "जाता है क्या उसके पास? अभी वहीं है।" सतीश मुस्कुराते हुए उठा और बोला, " जैसी आज्ञा महाराज – और धीरे-धीरे जाता हुआ पत्थरों के पीछे गुम हो गया। उसे गये हुए अभी थोड़ी ही देर हुई है कि लड़की के चीखने चिल्लाने की आवाजें आने लगी। आनंद लेटा रहा। तभी लड़की नंगी भागती हुई आनंद के पास आयी और बड़बड़ाने लगी, " मुझे पता होता, एइसा गलीच आदमी है ये तो मैं आतीच नई। बिलकुल हैवान है। कित्ता परेशान करता है।" उधर सतीश के चीखने की आवाजें आ रही हैं। " इधर आ ओ चंदरकला, एक बार आ तो सही।" आनंद मुस्कुराया। तो सतीश आज फिर छोटी लाइन पर गाड़ी चलाना चाहता है या और कोई मांग रख बैठा है। उसे अच्छी तरह पता है, हर लड़की इस तरह के कामों के लिए आसानी से तैयार नहीं होती, फिर भी बाज नहीं आता वह। वह अभी भी चिल्ला रहा है, "आनंद जरा भेजना चंदरकला को। उससे कह, अब बिल्कुल तंग नहीं करूंगा।" लड़की ने कपड़े पहनने शुरू कर दिये हैं। वह अभी भी बोले जा रही है - पहले मेरा ब्लाउज फाड़ा, फिर कपड़े उतारे अब गलत-सलत करने को बोलता हैं, छी: एकदम जानवर की माफिक है तुम्हारा सेठ। लाओ, एक सिगरेट दो। साला मूड खराब कर दिया हलकट ने।"
आनंद ने उसे सिगरेट दी और सतीश के पास जाने के लिए कहा। अब वह किसी कीमत पर जाने के लिए राज़ी नहीं है। सतीश अभी भी आवाजें दिय जा रहा है। आनंद ने बड़ी मुश्किल से लड़की को सतीश के पास इस शर्त पर भेजा कि अब अगर वह जरा भी गलत हरकत करे तो फिर कभी मत जाना उसके पास। वह राजी नहीं है। बड़ी मुश्किल से गयी। एक तरह से ठेल कर भेजा आनंद ने।
तीनों जब किले से बाहर निकले तो धुंधलका हो रहा है। चाय पीते-पीते उन्होंने सात बजा दिये। वापिस चलने से पहले सतीश ने आनंद से पूछा, "रात भर रखने के बारे में क्या ख्याल है? "
आनंद ने कहा, "पहले इसे पूछते हैं, जाती भी है या नहीं। लड़की ने साफ मना कर दिया, "नई जाना मेरे कू। कित्ता हैरान किये तुम लोग। मेरा हिसाब कर देवो और वहीं छोड़ देना मुजे।" सतीश ने पुचकारा, "नाराज नहीं होते जाने मन। चल तुझे बढ़िया खाना खिलायेंगे और दारू भी पिलाएंगे।" लगता है, अभी उसका मन नहीं भरा।
दारू और खाने की बात सुन कर लड़की सोच में पड़ गयी है। कुछ सोच कर बोली, "पर मेरे कू फिर परेशान किया तो?
"नहीं करेंगे, बस कहा ना।" आनंद ने दिलासा दिलाया।
" रात का पूरा सौ का पत्ता लगेगा। एक पैसा कमती नई।" लड़की ने फैसला कर लिया। सतीश ने फिर पचास से शुरू किया। आखिर सौदा एक सौ तीस में पटा। दिन के मिला कर। दस उसे अलग से मिले हैं।
आनंद ने ऑटो तय किया और कालोनी तक चलने के लिए कहा। आनंद ने पूछा, "ले जायेंगे कैसे?"
सतीश मुस्कुराया, " वही अपना ऑपरेशन बुरका।"
यह उनकी आजमायी हुई और सफल तरकीब है। जब भी रात को लड़की लानी होती है, लड़की तय कर लेने के बाद दोनों में से एक लड़की के साथ अंधेरे में इंतजार करता है और दूसरा असग़र को लेने चला जाता है। वह इनका खास दोस्त और कभी-कभी का पार्टनर है। वह अख़बार में लपेट कर अपनी बीवी का बुरका ले आता है। बुरके में लड़की सबके साथ घर के अंदर सुरक्षित पहुंच जाती है। बाद में बुरका पहन कर आनंद या सतीश असग़र के साथ कुछ दूर तक चला जाता है। लड़की सुबह जल्दी ही बाहर कर दी जाती है।
सारा रास्‍ता लड़की सतीश से नाराज बैठी रही। सतीश ने दो-चार बार छेड़खानी करने की कोशिश की। लेकिन वह ऊंघती बैठी रही।
आपरेशन बुरका शुरू होते ही सतीश खाना और शराब लेने बाजार की तरफ निकल गया। आनंद असग़र और लड़की को लेकर चला।
दोनों ने असग़र से बहुत कहा, आज की दावत में शरीक होने के लिए। लेकिन असग़र ने आँख दबा कर मना कर दिया, "आज नहीं।" अलबत्ता जल्दी-जल्दी उसने एक दो पैग गले से नीचे उतार लिये।
सतीश बुरका ओढ़े जब असग़र को छोड़ने गया तो आनंद ने लड़की को साबुन न दे कर नहाने के लिए कहा। उसने घर के दरवाजे खिड़कियां बंद कर दिये। बत्ति्यां बुझा दीं। सिर्फ टेबल लैम्प लगा कर जमीन पर रख दिया। दरियां बिछा कर खाना भी जमीन पर लगा दिया। नहाने के बाद तीनों खाने-पीने बैठे।
लड़की अब बिल्कुल खामोश है। दोनों की हरकतों, शरारतों का कोई जवाब नहीं दे रहीं। जो भी गोद में बिठाता है, बैठ जाती है। जूठा खाते-खिलाते हैं, खा लेती है। धीरे-धीरे उसे नशा होने लगा है। वह लुढ़कने लगी है। बहकने लगी है। इन दोनों को भी चढ़ गयी है। नशे में इन्हें लड़की बहुत सुंदर लगने लगी है। दोनों उसकी तारीफ किये जा रहे हैं।
बत्ती बंद करते लड़की को इतना होश जरूर है कि उसने पूरे पैसे ले लिये और तीन-चार बार गिन कर अपने कपड़ों में छुपा कर लिए।
वे कब सोये, उन्हें पता ही नहीं चला। अचानक रात को नशा टूटने पर सतीश की नींद खुली। उसने घड़ी देखी, साढ़े तीन। आनंद और लड़की बेसुध सोये पड़े हैं। सतीश उठा और उसने झिंझोड़ कर लड़की को जगाया, " उठ, उठ चंदरकला, जल्‍दी कर।"
लड़की अभी पूरी तरह नींद में है। वह कुनमुनायी और फिर सो गई। सतीश ने उसे फिर झिंझोड़ा, लड़की आंखें मलते हुए उठी और पूछा, "क्या है सेठ", सतीश दबे स्वर में बोला, " फटाफट कपड़े पहन और फूट ले।" लड़की नशे और नींद की वजह से बैठ भी नहीं पा रही। वह फिर लेट गयी। सतीश ने फिर झिंझोड़ा उसे और एकदम खड़ा कर दिया। लड़की समझ नहीं पायी, यह क्या हो रहा है। उसने सतीश का हाथ पकड़ कर उसकी घड़ी में वक्त देखा। वह परेशान हो गयी है। आधी रात को सात-आठ किलोमीटर कैसे जायेगी। सतीश अभी भी हड़बड़ा रहा है, " जल्दी कर, जल्दी कर," उसने सतीश से थोड़ी देर और रुकने देने के लिए कहा, लेकिन सतीश ने उसका हाथ पकड़कर उसके कपड़े पैसे उसे थमा दिये और उसे नंगी ही दरवाजे से बाहर कर दिया। उसकी चप्पलें उठा कर बाहर फेंक दीं। लड़की को झटका लगा, यह हो क्या रहा है। कुछ समझ नहीं पायी वह। आखिर बोली," जाती हूँ सेठ, ऑटो के लिए पन्द्रह-बीस रुपये तो दे दो।" सतीश भुनभुनाया, "नहीं, नहीं अब एक पैसा भी नहीं मिलेगा। चल फूट। "
लड़की अभी भी आधी नींद में, कुछ और पैसों की उम्मीद में दरवाजे पर खड़ी है। सतीश ने फिर डपटा, " जाती है या नहीं।"
" कुछ तो और दे दो।"
सतीश ने जवाब में उसे कस के एक लात जमायी और भड़ाक से दरवाजा बंद कर दिया।