Monday, April 28, 2008

ग्‍यारहवीं कहानी - आँख मिचौली

आँख मिचौली
कैंप डायरी
पहला दिन

जिस जगह हमने कैंप लगाया है, वह समतल जमीन का एक छोटा–सा टुकड़ा है। नीचे की तरफ पहाड़ी नाला और ऊपर की तरफ सड़क। आसपास ऊबड़–खाबड़ जमीन है जिस पर बेतरतीबी से जंगली झाड़ियाँ उगी हुई हैं। हालाँकि हमें यहाँ सिर्फ सात दिन रहना है, फिर भी सारे टैंट कैंप प्लान के हिसाब से ही लगाए गए हैं। एक सिरे पर मेरा टैंट, उसके बाद सहायक कैंप अधिकारी घंटसाल का टैंट, फिर सर्वेयरों के, दो–दो सर्वेयरों के लिए एक–एक। कैंप के दूसरे सिरे पर अर्दलियों, खानसामों वगैरह के टैंट हैं। मैं अपने टैंट में बैठा–बैठा पूरे कैंप की गतिविधियों पर निगाह रख सकता हूँ।
आज का सारा दिन शिफ्टिंग में निकल गया है। हैडक्वार्टर से सत्तर किलोमीटर की यात्रा, सामान से भरे चार फाइव टनर तथा तीन जीपें। सामान उतारते–उतारते और कैंप लगाते–लगाते शाम हो गयी थी। हालाँकि हमने गाँव के पटेल से कहा भी था कि बोझा उठा सकने वाले हट्टे–कट्टे आदमियों का ही इन्तजाम करें, लेकिन उसने जो आदमी भेजे थे, वह बहुत ही मरियल किस्म के थे। अधनंगे, देखने में इतने कमजोर कि बरसों से कुछ खाया न हो। आँखों में याचक के से भाव। मैं साफ देख रहा था, लारियों से सामान उतारते–उतारते वे हाँफने लगते थे, लेकिन पता नहीं कौन–सी ताकत थी जो उनसे काम करवा रही थी। सचमुच पेट की आग बहुत अजीब होती है। आदमी से क्या कुछ नहीं करवा लेती! सोचता हूँ–पूरी कैंप अवधि के दौरान ऐसे ही मजदूर मिलते रहे तो खासी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा।
खाना खाने के बाद मैंने घंटसाल जी और ग्रुप सर्वेयरों को बुलाकर कल की पूरी डिटेलिंग कर ली है। हमें कितना एरिया कवर करना है और किस–िकस के कंट्रोल में सर्वे पार्टियाँ जायेंगी, उन्हें समझा दिया है। कैंप आफिसर के रूप में काम करने का आज मेरा पहला दिन है। इलाका भी मेरे लिए नया है। पहले कभी नहीं आया हूँ इस तरफ। वैसे यह सर्वे ज्यादा मुश्किल नहीं है। पिछले सर्वे के जो नक्शे हमारे पास हैं, उन्हीं का वेरिफिकेशन करना है। आठ जगह कैंप लगाने हैं और कुल 1500 वर्ग कि.मी. का एरिया कवर करना है। कुल मिलाकर चार महीने तक कैंप चलेगा। मुझे बीच–बीच में अलग–अलग टीमों का निरीक्षण करने के लिए जाना होगा। ज्यादातर दिन मुझे बेस कैंप में ही बिताने हैं। पचासों तरह के काम होंगे।
इस समय कैंप में सन्नाटा है। चारों तरफ पसरा अँधेरा वातावरण को और डरावना बना रहा है। साढ़े ग्यारह हो चुके हैं। आज का पन्ना यहीं खत्म करता हूँ।

दूसरा दिन

आज हम जिस इलाके में सर्वे करने गए, वह बहुत ही कठिन इलाका था। ऊबड़–खाबड़ रास्ते। बीच–बीच में पगडंडी भी खो जाती थी। कुल मिलाकर सात लोग थे हम। शुरू–शुरू में वैसे भी तकलीफ होती ही है। जो अर्दली थियोडोलाइट, पी.टी.स्टैंड और दूसरे सामान लेकर चल रहे थे, उनका पसीने के मारे बुरा हाल था। दोपहर के खाने के वक्त बहुत अजीब वाक्या हुआ।
उस वक्त तक पानी का हमारा सारा स्टॉक खत्म हो चुका था। खाने के समय न तो हमारे पास पानी बचा था और न ही कोई ढंग की जगह मिली जहाँ बैठकर हम ढंग से खाना खा सकें। अर्दली दूर–दूर तक पानी और छायादार जगह की तलाश में भटककर आ चुके थे। बहुत खोजने पर एक इकलौता पेड़ मिला। पास ही एक बावड़ी थी जिसमें पानी था। लेकिन बुरी तरह से सड़ाँध भरा। पेड़ के नीचे थी एक टूटी–फूटी कब्र। इस सुनसान जगह पर कब्र देखकर हम बहुत हैरान हुए थे। उसी कब्र पर बैठकर हमने खाना खाया। एक अर्दली बेचारा उस बदबूदार पानी को किसी तरह छानकर लाया। पानी मुँह के पास लाते ही उबकाई आने लगती, पर कोई चारा नहीं था उस वक्त।
फील्ड में पहले दिन का सारा रोमांच हवा हो चुका था हमारा। अभी तो यह पहला दिन था। पूरे चार महीने इसी तरह, कई बार इससे भी बदतर स्थितियों में काटने हैं। कैंप से हम लोग कम–से–कम आठ कि.मी. दूर थे उस वक्त। कैंप पहुँचकर ही हम ढंग से चाय–पानी पी सके थे।
लौटते–लौटते साँझ ढल आई थी। नहा–धोकर मैं यूँ ही आस–पास का एक चक्कर लगाने की नीयत से निकला था। अपने कैंप से थोड़ी ही दूर मैंने कुछ लोगों को देखा। पाँच–सात मर्द; लगभग उतनी ही औरतें और एक–दो बच्चे। वे बाँसों और चटाइयों की झोंपड़ियाँ खड़ी कर रहे थे। मैं बहुत हैरान हुआ, उन्हें इस तरह वहाँ पर घर बसाते देख। क्या प्रयोजन हो सकता है उनका यहाँ? सामान के नाम पर मुझे वहाँ गठरियों और बोरियों में भरे बर्तनों वगैरह के सिवा कुछ नजर नहीं आ रहा था। मेरी जानकारी के अनुसार वहाँ से निकटतम गाँव भी चार कि.मी.दूर था। मुझे खुद पर कोफ्त हुई स्थानीय भाषा न समझ पाने की वजह से। हिन्दी यहाँ के लोगों को उतनी ही समझ में आती है, जितनी मुझे यहाँ की भाषा। दो–चार काम चलाऊ शब्द। मैं दिमाग में कई प्रश्न लिए लौटा और सीधे घंटसाल जी के टैंट में गया। शायद वे कुछ बता सकें।
मेरा अंदाज सही था। जब मैंने उन्हें आस–पास हो रही गतिविधियों के बारे में बताया तो वे हौले से मुस्करा दिए, "तो वे लोग आ गए हैं।”
"कौन लोग हैं वे? ” मुझे हैरानी हुई थी। वे उनके बारे में पहले से जानते थे और उनके आने के बारे में भी उन्हें पता था।
"आप खुद ही देख लेंगे सर।” उन्होंने टालने के अन्दाज में कहा था।
"मुझे साफ–साफ बताइए घंटसाल जी, कौन हैं वे लोग और यहाँ निर्जन में बसने की क्या वजह हो सकती है?” मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी।
घंटसाल जी ने बहुत जोर देने पर भी कुछ नहीं बताया था। यही कहते रहे, "आप खुद ही जान जायेंगे एक–आध दिन में।” अपने टैंट में लौटकर भी मुझे चैन नहीं आया। मैं उनकी मौजूदगी के बारे में अपनी तसल्ली कर लेना चाहता था। तभी मुझे याद आया, मेरा खानसामा भी तो लोकल है। वह पहले भी आ चुका है यहाँ के कैंपों में। वह भी जानता होगा इनके बारे में। रात को जब वह खाना लेकर आया तो उसी से पूछा था मैंने।
पहले तो वह बताने को तैयार ही नहीं हुआ था। बहुत जोर देने पर और जरा धमकाने पर उसने जो कुछ बताया, वह सचमुच चौंकाने वाला था। वे धन्धा करने वाली औरतें थीं और उनके साथ के लोग भाई, रिश्तेदार या घरवाले, जो उन्हीं की दलाली करते हैं। खानसामा ने बताया था कि इस पूरे इलाके में बहुत गरीबी है। पेट भरना ही बहुत मुश्किल होता है। पानी न होने की वजह से ज्यादा खेती–बाड़ी होती नहीं। काम न होने से आदमी और भी नाकारा हो गए हैं। एक–दो रूपए मिल जाएँ कहीं से तो उसकी भी दारू पी लेते हैं। पेट की आग ही उन्हें यहाँ खींच लाई है। अब आगे–आगे हमारा कैंप होगा और पीछे पीछे उनका कैंप। हर साल ऐसा ही होता है, साब।
मेरा सर घूमने लगा था खानसामा की बात सुनकर। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। कहीं ऐसा भी हो सकता है। खानसामा की बातों पर यकीन करने को जी नहीं चाह रहा था।
मेरे यह पूछने पर कि उनके पास जाते कौन लोग हैं, तो उसने बताया था कि कैंप में पचास के करीब अर्दली, मैसेंजर, खानसामें और मजदूर वगैरह हैं। उन्हीं लोगों के सहारे चलेगी इनकी रोजी–रोटी अगले चार महीने तक। फिर उसने खुद ही बताया था कि कई चपरासी और खानसामे वगैरह इनके पक्के ग्राहक हैं। कई धंधेवालियाँ हर साल आती हैं और…वह कहते–कहते रूक गया था।
"और क्या?” जब मैंने पूछा था तो उसने सकुचाते हुए बताया कि कई अर्दलियों की उनके पास उधारी चलती है। कई–कई साल के पैसे बकाया हैं कुछेक लोगों पर। मैं दंग रह गया था। सपने में भी नहीं सोच सकता था कि इस धंधे में भी उधारी चलती होगी! खाता रखा जाता होगा! मैं और सुनने की स्थिति में नहीं था। खानसामा को जाने को कहकर यह डायरी लिखने बैठ गया था।
मुझे यहाँ का अर्थशास्त्र समझ में नहीं आ रहा है। यह तो मुझे पता था कि इस इलाके में गरीबी बहुत है, आय के कोई निश्चित साधन नहीं है। यहाँ के लोग हर साल लगने वाले कैंपों की बेसब्री से बाट जोहते हैं ताकि चार महीने तक तो जुगाड़ बना रहे दो वक्त की रोटी का। जिस गाँव के पास भी हमारा कैंप लगता है, वह गाँव मजदूरों, सब्जी, अंडे, दूध बगैरह की हमारी जरूरतें पूरी करता है। मुझे यह भी पता चला था कि हम जो मजदूरी यहाँ के मजदूरों को देते हैं, या जो खानसामें स्थानीय आधार पर रखते हैं, उन्हें भी पूरे पैसे नहीं मिल पाते। कुछ सर्वेयर या कैंप आफिसर खा जाते हैं और कुछ गाँव का पटेल हिस्सा मार लेता है। इस दोहरी मार की खबर तो थी। लेकिन शोषण के इस रूप का पता मुझे आज ही चला है।
मेरी समझ में नहीं आ रहा कि ये धंधेवालियाँ महीनों के लिए अपने घर–बार से बिछड़े जंगलों में पड़े इन चपरासियों वगैरह की शारीरिक भूख शांत करके उन पर अहसान कर रही हैं या ये लोग इन रंडियों को दो–दो, चार–चार रूपए देकर, उन्हें जिन्दा रहने लायक पैसे देकर उन पर अहसान कर रहे हैं। यह सब सोचते–सोचते मेरे माथे की नसें तड़कने लगी हैं। डायरी लिखना भारी पड़ रहा है।

तीसरा दिन
आज दिन भर व्यस्त रहा। टैंट से निकलने की फुर्सत ही नहीं मिली। शाम को थोड़ी देर के लिए टहलने के लिए निकल गया था। जानबूझकर उस तरफ नहीं गया। मैं उनके बारे में सोचना भी नहीं चाहता। मुझे सुबह ही रिपोर्ट मिल गई थी कि कल रात देर तक वहाँ जश्न होता रहा।
मैंने शाम को घंटसाल जी से बात की थी। उन्हें जब पता चला कि मुझे सब कुछ पता चल चुका है तो निश्चिंतता के भाव उनके चेहरे पर नजर आए। शायद वे मुझे कुछ बताने के धर्मसंकट से उबर गए थे। जब मैंने उनसे पूछा कि क्या इन लोगों को हमारे कैंप के आस–पास बने रहना गलत नहीं है तो उन्होंने कहा कि जब तक सब कुछ चुपचाप लचता रहता है। कोई कुछ नहीं कहता। कोई जतलाता भी नहीं कि किसे किस–िकस के बारे में खबर है। जब कोई दारू पीकर दंगा करता है तभी कैंप आफिसर को सख्ती से काम लेना पड़ता है। मैं साफ–साफ देख रहा था कि घंटसाल जी सारी स्थितियों को बहुत सहजता से ले रहे थे। मैं इस बात को जितनी गंभीरता से ले रहा था, वे उतनी ही उदासीनता दिखा रहे थे। जब मैंने उनसे कहा कि कुछ भी हो, यह सब गलत है। इसे इसी तरह कैसे चलने दिया जा सकता है। आखिर एक–दो दिन की बात नहीं। पूरे चार महीने वे इसी तरह हमारे पीछे लगे रहेंगे। अगर यह समांतर कैंप यूँ ही हमारे साथ लगा रहा तो हमारे स्टाफ पर बुरा असर पड़ेगा। मैं यह कहते–कहते उत्तेजित हो गया था। आखिर मैं कैंप लीडर हूँ। अपने कैंप के स्टाफ के प्रति मेरा भी कोई नैतिक दायित्व है।
लेकिन घंटसाल जी ने जरा भी उत्तेजित हुए बिना कहा, "सर कैंप कोई छोटे बच्चों का एनसीसी का कैंप नहीं है। सभी लोग कई–कई सालों से कैंप लाइफ जी रहे हैं। उन्हें अपने भले–बुरे का पता है। ज्यादातर लोग शादीशुदा हैं, और फिर यह सब कुछ पहली बार तो नहीं हो रहा है”, यह कहकर घंटसाल जी चले गए थे। मेरे सामने प्रश्नों का एक और पुलिंदा छोड़ के।
आज नींद नहीं आ रही है, अजीब उलझन है, सब कुछ गलत लग रहा है, पर स्थितियों पर मेरा बस नहीं है।

चौथा दिन
आज बेस कैंप चला गया था। मूड बुरी तरह उखड़ गया था। बात ही कुछ ऐसी थी, कल रात दो सर्वेयर वहाँ जाते देखे गए थे। दोनों फ्रेशर हैं, पहली बार कैंप आए हैं। काफी देर तक कशमकश में रहा, उन्हें बुलाकर कहूँ – कुछ तो अपनी पोजीशन का, हैसियत का ख्याल किया होता, वहीं मुँह मारने चले गए, जहाँ तुम्हारे अर्दली और रसोइये जा रहे हैं। पर हिम्मत नहीं जुटा पाया। जब कुछ नहीं सूझा तो जीप लेकर बेस कैंप चला गया था। जब चीफ सर्वेयर मिस्टर मल्होत्रा को मैंने यह सब बताया तो वे ठहाका लगाकर हँसे। मैं भौंचक–सा उनका मुँह देखता रह गया। उन्होंने जो कुछ बताया उससे मेरी उलझन और बढ़ गई। वे बोले थे – हर साल यह समस्या हमारे सामने आती है, हम कुछ नहीं कर पाते। पहली बात तो यह है कि आप अर्दलियों, मजदूरों से कुछ कह भी दें, अपने कलीग अफसरों का पानी तो नहीं उतार सकते। अब जब आते हैं तो जाएँ। अपना भला–बुरा उन्हें खुद सोचना है। आप ही को अपना सुधारात्मक रवैया बदलना पड़ेगा। हाँ, अगर कोई पी–पाकर हंगामा खड़ा करे तो आप कान खींच सकते हैं उसके।
बेस कैंप जाकर मेरी उलझन बढ़ी ही थी। लौटकर अजीब–सा अजनबीपन महसूस कर रहा हूँ। लग रहा है किसी गलत जगह आ गया हूँ। मैं इस माहौल के लायक नहीं हूँ। मेरे संस्कार बार–बार मुझे टहोका दे रहे हैं–रोवूँ यह सब, यह गलत है, इसे हटाया जाना चाहिए। पर इस गलत समीकरण को हटाने के लिए कौन–सा सही समीकरण मेरे पास है, इसका उत्तर मुझे नहीं सूझता। फिर सोचता हूँ–चलने दो सब कुछ। जब सभी को यही मंजूर है तो मैं क्यों सिर खपाऊँ अपना इस सबमें। लेकिन मन इसे भी मानने के लिए तैयार नहीं।

छठा दिन
कल डायरी भी नहीं लिख पाया, फील्ड में एक सर्वेयर का पाँव पथरीली ढलान पर रपट गया था। फ्रैक्चर की आशंका थी। उसे किसी तरह से लादकर कैंप तक लाया गया। कैंप में मैं ही अकेला आफिसर मौजूद था, सो उसे जीप में पास के शहर लेकर गया, एक्सरे, प्लास्टर और अस्पताल में भरती करने के चक्कर में रात हो गयी थी। कैंप में देर रात को लौटा था।
आज सुबह सैर के लिए जाते समय नाले के बहाव के साथ–साथ काफी दूर तक निकल गया था। वापसी में कैंप से थोड़ी दूर उन लोगों को नहाते, कपड़े धोते देखा। मैं एकदम उनके सामने पड़ गया था। मुझे आता देख वे सकपका गयी थीं। मैंने पहली बार उन्हें इतने नजदीक से देखा था। साधारण चेहरे मोहरे जो घटिया किस्म के मेकअप के कारण बहुत अजीब लग रहे थे। कपड़े भड़कीले लेकिन सस्ते और आधे–अधूरे। उनके चेहरों पर व्यवसायजनित बेशर्मी के हावभावों के बावजूद गरीबी सार्वजनिक रूप से घोषणा कर रही थी। मेरा मन वितृष्णा से भर गया था। रास्ता बदलकर चला आया।
आज एक और बात पता चली है मुझे। कैंप के कई लोग वहाँ जाते हैं, लेकिन हर आदमी की कोशिश रहती है कि उसे वहाँ आता–जाता कोई देखे नहीं। हर आदमी पूरी प्रायवेसी बनाए रखने की कोशिश करता है। यह भी पता चला है कि कैंप में शराब भी पहुँच गयी है, कौन लाया है और कौन–कौन पी रहे हैं, यह पता नहीं चल पाया है, वैसे अभी किसी ने हुड़दंग नहीं मचाया है, सवेरा होते ही सब बिलकुल चुस्त–दुरूस्त होकर निकल पड़ते हैं।
इस सबके बावजूद मैं अभी भी लगातार यही सोच रहा हूँ–गलत हो रहा है यह। इसे रोका जाना चाहिए। कहीं कुछ अप्रिय घट गया तो मैं खुद को माफ नहीं कर पाऊँगा।

सातवाँ दिन
कल यहाँ से शिफ्ट करना है। नया कैंप यहाँ से 16 किमी. उत्तर में है। वहाँ हम पाँच दिन रहेंगे। यह हफ्ता किसी तरह बीत गया है। उस प्रसंग को छोड़ दें तो कैंप आमतौर पर ठीक रहा है, कोई बड़ी समस्या नहीं आयी है। हमने अपने निर्धारित लक्ष्य पूरे कर लिए हैं। इलाके की तकलीफों के बावजूद टीम स्पिरिट बनी हुई है। जिस सर्वेयर के पैर में फ्रैक्चर हुआ था उसे तीन सप्ताह तक प्लास्टर लगाए बेस कैंप में रहना होगा। कल उसकी जगह एक और सर्वेयर ने ज्वाइन कर लिया है।

आठवाँ दिन
आज कैंप नम्बर दो में आ गए हैं। पहले से खुली और अच्छी जगह है। गाँव भी ज्यादा दूर नहीं है। अतः छोटी–मोटी चीजों के लिए मैसेंजर को बेस कैंप नहीं दौड़ना पड़ेगा। सब्जियों और दूध, अंडों की सुविधा हो गयी है। पिछला पूरा हफ्ता पाउडर की चाय पीते बीता है। कुछ साथियों ने टैंट खड़े करने के बाँसों के सहाने नेट लगाकर वॉलीबाल खेलने का इंतजाम कर लिया है। देर तक खेलते रहे। अच्छा लगा। कैंप की जिंदगी ऐसी ही होती है। दिन बीतने के साथ–साथ लोग एक दूसरे के नजदीक आते हैं। सभी अपने लायक साथी ढूँढ़ लेते हैं। फिर टैंटों में शतरंज या ताश की बाजियाँ चलती हैं। कुछ लोग गाते–बजाते रहते हैं।
आज एक सर्वेयर का जन्मदिन था। जंगल में मंगल मनाया गया। सभी अफसरों का खाना एक साथ बना। काफी देर तक महफिल जमी रही। बहुत दिनों बाद आज मेरा मूड सँभला, शायद इस वजह से भी कि आज आसपास उनका कैंप नहीं है।

नौंवाँ दिन
आज उनका कैंप भी आ पहुँचा। एक दो वुँ वारी वेश्याएँ और आ जुड़ी हैं उनके कैंप में। जी चाहता है चौकीदार को भेजकर तहस–नहस करवा दूँ उनके झोंपड़े या ड्राइवर से कह दूँ–दूर छोड़ आए उन्हें ट्रक में बिठाकर। मन ही मन भुनभुना रहा हूँ। क्या हमारे कैंप के लोगों ने ही ठेका ले रखा है उनका! कोई और जरिया क्यों नहीं ढूँढते? आखिर हमने आसपास के गाँवों के लोगों को काम पर लगाया ही है। अच्छे पैसे भी दे रहे हैं। वे निठल्ले लोग भी तो हमारे पास काम माँगने आ सकते थे। क्या यही तरीका रह गया है? कल का दिन कितना सुकून भरा था, आज फिर वही तनाव दिमाग की नसों पर आ बैठा है।
घंटसाल जी से फिर इस बारे में बहस हुई आज। वे अभी भी अपने पुराने तर्कों पर अड़े हुए हैं। उनकी गरीबी, मजबूरी की बात करते रहे। मुझे यहाँ का अर्थशास्त्र समझाने लगे। जब मैंने उनसे यह पूछा कि तुम्हारे शोषित वर्ग के निठल्ले या दलाल पति अपनी ही बीवियों, बहनों से धंधा कराके क्या उनका शोषण नहीं कर रहे हैं, तो इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था। मुझे तो लगता है कहीं घंटसाल जी खुद भी तो…

तेरहवाँ दिन
वही हुआ जिसकी बहुत पहले आशंका थी। कल डायरी लिखकर लेटा ही था कि यकायक कुछ शोर सुनायी दिया। कुछ अस्पष्ट आवाजें आ रही थीं। झगड़े, गाली गलौज की। चौकीदार को आवाजों की दिशा में दौड़ाया। तब तक कुछ और लोग भी जाग गए थे और उसी दिशा में टार्चें चमका रहे थे। मैं साफ–साफ समझ पा रहा था कि कोई कैंपवाला दारू पीकर वहाँ पहुँच गया होगा। वहाँ पैसों के लेन–देन या ऐसी ही किसी बात को लेकर जो कुछ हुआ होगा, उसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं था।
थोड़ी ही देर में चौकीदार और दूसरे लोग एक अर्दली को थामे हुए मेरे टैंट में लाए। वह बुरी तरह नशे में था। सिर पर गहरी चोट के निशान। कपड़े खून से लथपथ। इसके बावजूद वह अंट शंट बक रहा था। चौकीदार ने कुछ बताना चाहा लेकिन मैंने मना कर दिया। मैं जानता था, क्या हुआ होगा। उसे फर्स्ट एड बाक्स देकर अर्दली की मरहम पट्टी करने के लिए कह सबको विदा किया।
इससे पहले कि वह सवेरे माथे पर पट्टियाँ बाँधे हाथ–पैर जोड़ने मेरे पास आता, मैंने उसे तत्काल बेस कैंप और वहाँ से हैड–क्वार्टर वापिस भिजवाने के लिए रवानगी आदेश तैयार करवा लिया था।

चौदहवाँ दिन
आज हमें कैंप 2 से कैंप 3 में शिफ्ट करना था। करीब 15 किमी. उत्तर में। दस दिन में इस कैंप में कुछ अतिरिक्त सर्वे करने थे। सुबह जब सारा सामान ट्रकों और जीपों के ट्रेलरों में लादा जा चुका और सभी लोग गाड़ियों में बैठ गए तो मैंने आदेश दिया – हम इस समय कैंप 3 में न जाकर कैंप 8 में 55 किमी. दूर जा रहे हैं। कैंप नं.3 सबसे आखिर में लगाया जाएगा। और इस तरह हम यहाँ कैंप 8 में आ गए हैं।
मुझे सुकून है कि हमारे यहाँ आने की बात उन्हें मालूम नहीं हैं।

Monday, April 21, 2008

दसवीं कहानी – फ़र्क




कुंदन आज बहुत खुश है। आज का दिन उसे मनमाफिक तरीके से मनाने के लिए मिला है। खूब घुमायेगा बच्चों को। पार्क, सिनेमा, चिड़ियाघर। किसी अच्छे होटल में खाना खिलायेगा। आज उसे मारुति वैन चलाते हुए अजब-सा रोमांच हो रहा है। रोज यही वैन चलाता है वह, पर रोज के चलाने और आज के चलाने में फ़र्क महसूस हो रहा है उसे। रोज वह ड्राइवर होता है। हर वक्त सतर्क, सहमा हुआ-सा। बैक व्यू मिरर पर एक आंख रखे। पता नहीं सेठजी कब क्या कह दें, पूछ लें। लेकिन आज के दिन तो वह मालिक बना बैठा है। सेठ जी ने खुद उसे दिन भर के लिए गाड़ी दी है। ``जाओ कुंदन। एक बार तुम कह रहे थे न, कभी बच्चों को घुमाने के लिए गाड़ी चाहिए। ले जाओ। बच्चों को घुमा-फिरा लाओ।'' दो सौ रुपये भी दिये हैं उसे। सेठ कितने अच्छे हैं। आज बेशक एक दिन के लिए सही, उस ज़िंदगी को जी कर देखेगा, जो उसका सपना थी। उसके भीतर का सहमा-सा, हर वक्त बुझा-बुझा रहने वाला मामूली वर्दी-कैप धारी ड्राइवर न जाने कहां फुर्र से उड़ गया है। आज वह सफारी सूट पहने बैठा है।
उसका मन गुनगुनाने को हो रहा है। स्टीरियो चला दिया है उसने। कोई बहुत पुराना गाना। उसके स्कूल के दिनों बहुत बजने वाला। वह मुस्कुराया। डैश बोर्ड पर लगी घड़ी में वक्त देखा। दस बजने को हैं। अब तक सब तैयार हो चुके होंगे, उसने सोचा। कल रात जब उसे सेठजी ने ग़ाड़ी ले जाने के लिए कहा था, तभी उसने कुंती से कह दिया था, दस बजे तक तैयार रखना बच्चों को। सुबह गाड़ी लेने जाते समय फिर से ताकीद कर गया था। एकदम अपटूडेट। सेठ के बच्चों के माफिक। अभी पांच मिनट में वह घर के दरवाजे पर होगा।
गाड़ी के गली में पहुंचते ही, वहां हर वक्त खेलने वाले बच्चों ने गाड़ी को घेर लिया और ज़ोर-ज़ोर से हो-हो करने लगे। दो-एक खिड़कियों में से उत्सुक चेहरे भी टंग गये। आज वह पहली बार गाड़ी घर पर लाया है। शोर सुनकर गप्पू, संजय और पिंकी बाहर निकल आये। वे अभी भी तैयार हो रहे हैं। गप्पू ने स्कूल यूनिफार्म पहनी हुई है और मुचड़ी हुई टाई उसके हाथ में है। संजय ने अपना इकलौता सफ़ारी सूट डाटा हुआ है और पैरों में हैं हवाई चम्पलें। तीनों उसे देखते ही चिल्लाये, ``मम्मी, मम्मी, पापा आ गये, पापा आ गये। अहा, कितनी अच्छी है, पापा की मारुति।'' गप्पू टाई हाथ में लिये-लिये सीधा वैन तक जा पहुंचा और बच्चों को धकियाने लगा, ``हटो, हटो, हमारी कार है यह। पापा आ गये, पापा देखो, संजय मुझे पहले कंघी नहीं करने दे रहा है।'' लगा, जैसे वे पहले से ही लड़ रहे थे। पिंकी बहुत ही शोख रंग की फ्राक पहने हुए है। उसे कुंती पर गुस्सा आया। ``इस औरत को कभी अक्कल नहीं आयेगी। बच्चों को ढंग से तैयार भी नहीं कर सकती।'' बच्चों को एक किनारे ठेल कर वह घर के भीतर वाले हिस्से में आया, जहां रसोई में एक दीवार की आड़ में बने गुसलखाने में कुंती की खटपट सुनायी दे रही है। वह वहीं से चिल्लाया, ``यह क्या तमाशा है, न खुद तैयार हुई हो, न बच्चों को तैयार किया है। अब मैं क्या सारा दिन दरवाजे पर ही टंगा रहूंगा?'' वह वहीं से बोली, ``क्या करती मैं। पानी ही नहीं आया। अभी तक बैठी थी, पानी के इंतज़ार में। नहीं आया तो राजो की मां से मांग कर लायी हूं दो बाल्टी।'' यह कहते-कहते कुंती केवल ब्रेसरी और पेटीकोट पहने, हाथ में गीला तौलिया लिये सामने आ गयी। हालांकि उसका गुसलखाने से बाहर आने का यह रोज़ का तरीका है, लेकिन कुंदन ने कभी इस तरफ ध्यान ही न दिया था। आज उसे इस हालत में देख कर कुंदन के सौन्दर्य बोध को बेतरह ठेस लगी। वह फिर फट पड़ा, ``यह क्या बेहूदगी है, जरा भी शऊर नहीं है तुम्हें?'' कुंती ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया और पास ही खड़ी गीले बात तौलिये से फटकारने लगी। कुंदन ने फिर चोर नज़रों से बीवी की तरफ देखा, जो बालों को सुखाने के बाद दोनों हाथ आगे किये हुए ब्लाउज पहन रही थी। कुंदन की निगाह अचानक उसकी बगल के गीले बालों की तरफ चली गयी। उसने मुंह बिचकाया और बाहर वाले कमरे में आ गया।
कमरें में आकर उसे समझ में नहीं आया, क्या करे। थोड़ी देर अजनबियों की तरह जेब में हाथ डाले खड़ा रहा। जैसे वह किसी और के घर में मजबूरी में खड़ा हो। तभी गप्पू उससे लिपटता हुआ बोला, ``पापा, मैं तैयार हो गया। गाड़ी में बैठ जाऊं?'' कुंदन ने उसकी तरफ देख लिया। कहा कुछ नहीं। संजय और पिंकी अभी भी बहस कर रहे हैं। कुंदन को लगा, उसका मूड उखड़ रहा है। वह आते समय यही मान कर चल रहा था कि बच्चे बिल्कुल तैयार होंगे। साफ-सुथरे, करीने से कपड़े पहने और यहां...।
वह दरवाजे पर आ खड़ा हुआ। सिगरेट सुलगाई और चाबियों का छल्ला घुमाते हुए गली का एक चक्कर लगाने की नीयत से चल पड़ा। गली के बच्चे अभी भी वैन के आस-पास डटे हुए हैं।

जब कुंती बच्चों को लेकर वैन में सवार होने के लिए आयी, तो कुंदन को चारों कार्टून नजर आये। गप्पू ने यूनिफार्म उतार दी है और नेकर-बुश्शर्ट पहन लिये हैं। नेकर-बुश्शर्ट के रंगों का कोई मेल नहीं है। एक हरी, एक लाल। पिंकी ने खूब कस कर बालों की चुटिया बनायी है। चेहरा एकदम खिंचा-खिंचा सा लग रहा है उसका। संजय सफारी में किसी कम्पनी एक्सक्यूटिव की तरह तना-तनाया खड़ा है, लेकिन हवाई चप्पल उसकी सारी हेकड़ी निकाल रहे हैं। उसने एक नज़र कुंती पर डाली। शायद उसने अपनी सबसे भड़कीली साड़ी पहनी है। तेल चुपड़े बाल, मांग में ढेर सारा सिंदूर और कहीं से भी मैच न करती लिपस्टिक। वह कुंती से फिर कोई कड़वी बात कहना चाहता है, लेकिन कुछ कहे बिना ही उसने अपने चेहरे के भावों से मन की बात कह ही दी।
बच्चे वैन के दरवाजे खुलने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। तीनों बच्चे पीछे हुड खोलकर वहां बैठने के चक्कर में हैं और पिछले दरवाजे पर खड़े एक-दूसरे को धकिया रहे हैं। गली के बच्चे अब भी थोबड़े लटकाये, मुंह में गंदी उंगलियां ठूंसे इन्हें बड़ी ईर्ष्यालु निगाहों से देख रहे हैं। कुंदन झल्लाया बच्चों पर, हटो परे, सब पिछली सीट पर बैठेंगे। हुड नहीं खुलेगा। बच्चों के चेहरे उतर गये।
कुंदन उन्हें इस तरह पीछे हुड खोल कर बिठा तो देता, लेकिन बेमेल और गंदे कपड़े देखते हुए उसकी हिम्मत नहीं हुई कि खुले हुड से सबको पता चले कि ये गाड़ी के मालिक के नहीं ड्राइवर के बच्चे हैं। तीनों बच्चे लपक कर चढ़ गये। कुंती ने सलीके से साड़ी का पल्लू संभाला और बड़ी ठसक के साथ बगल वाली सीट पर आ विराजी।
वैन के चलते ही बच्चे धमाचौकड़ी करने लगे। कुंदन ने अचानक ही ब्रेक लगायी। सभी चौंके, पता नहीं क्या हुआ। कुंदन ने कुंती की तरफ झुक कर दरवाजा ठीक से बंद किया और गाड़ी गियर में डाली। कुंदन का मूड अभी भी ठिकाने नहीं है। उसे लगातार इस बात की कोफ्त हो रही है कि उसने नाहक ही सेठजी का अहसान लिया। ये बच्चे इस लायक नहीं हैं कि गाड़ियों में घूम सकें। अब खुद सेठ की तरह गाड़ी चलाने, बीवी-बचों को सेठ के बच्चों की तरह ऐश करवाने का उसका कत्तई मन नहीं है।

कभी जिंदगी में उनका भी सपना था, एक बड़ा आदमी बनने का। खूब सारी अच्छी-अच्छी चीज़ें खरीदने, अमीर आदमियों की तरह एकदम बढ़िया कपड़े पहने होटलों में जाने का। एकदम लापरवाही का अंदाज लिये ज़िंदगी जीने का। शुरू-शुरू में उसकी बहुत इच्छा हुआ करती थी कि उसकी बीवी बहुत ही खूबसूरत हो और बच्चे एकदम फर्स्ट क्लास। तमीजदार। फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलने वाले। बचपन उसका बहुत अभावों में बीता था। सुख-सुविधाएं तो दूर, ज़रूरी चीज़ों तक से वंचित।
और सपना भी उसका कहां पूरा हो पाया था। आधी-अधूरी छोड़ी हुई पढ़ाई। दसियों तरह के धंधे। साधारण-सी औरत से शादी और कहीं से भी विशिष्ट न बन सकने या लग सकने वाले बच्चे। चाह कर भी वह उनको मनमाफिक ज़िंदगी नहीं दे पाया था। कुछ अरसे से इस सेठ की मारुति वैन चलाने का काम मिल गया है। `उस तरफ की दुनिया' की हसरतें फिर ज़ोर मारने लगी थीं और उसने सेठजी से कह दिया था, एक दिन के लिए गाड़ी देने के लिए।
उसके ख्यालों की शृंखला टूट गयी। पिछली सीट से उसके कंधे पर उचक आया गप्पू उससे कार स्टीरियो चलाने के लिए कह रहा है। वह फिर लौट आया अपने खराब मूड में। नहीं चलाया उसने स्टीरियो। गप्पू ने फिर कहा, तो कुंती भी बोली, ``चला दीजिए न'। कुंदन ने भरपूर नज़र से कुंती की तरफ देखा और एक झटके से स्टीरियो ऑन कर दिया। बच्चे गाने की धुन के साथ-साथ उछलने लगे।
कुंदन ने फिर डपटा, ``शांति से नहीं बैठ सकते क्या?'' दरअसल इस समय वह कत्तई इस मूड में नहीं है कि ज़रा-सा भी शोर हो। वह उन्हें पुराने दिनों के ख्वाबों में खोया रहना चाहता है। लेकिन सब कुछ उसके खिलाफ चल रहा है। कुंती सब देख रही है। वह साफ महसूस कर रही है कि आज का कुंदन रोज़ वाला कुंदन नहीं है। बार-बार उसे और बच्चों को ऐसे डपट रहा है जैसे उन्हें कभी इस रूप में देखा ही न हो। उसे क्या पता नहीं, बच्चों के पास कैसे और कौन-से कपड़े हैं। य सोच-सोच कर अपना खून जला रहा है कि उसके बच्चे सेठ के बच्चों जैसे क्यों नहीं हैं। कुंती अनमनी-सी सड़क की तरफ देखने लगी।
वैन जू के गेट पर रुकी। बच्चे अभी सहमे हुए हैं। वे कुंदन से आंखें चुरा रहे हैं। उसने दरवाजे खोले तो डरते-डरते उतरे। कुंदन को लगा, उससे कुछ ज्यादती हो गयी है। गाड़ी पार्क करके उसने टिकट लिये और बच्चों को धौल-धप्पा करके दौड़ा दिया। बच्चे फिर किलकारियां भरते पिंजरों की तरफ भागे।
कुंदन और कुंती धीरे-धीरे चलने लगे। कुंदन ने गॉगल्स पहन लिये और चाबियों का छल्ला घुमाने लगा। दोनों में से कोई कुछ नहीं बोल रहा है। आज छुट्टी का दिन नहीं है, फिर भी चिड़ियाघर में चहल-पहल है। बच्चे थक जाते हैं तो रुक कर इन दोनों का इंतज़ार करने लगते हैं। उन्होंने जब बताया कि प्यास लगी है तो कुंदन ने सबको कोल्ड ड्रिंक्स पिलवाये।
जू दिखाने के बाद कुंदन उन्हें हैंगिंग गार्डेन ले गया। वहां तेजी से रपटते हुए पिंकी गिरी और अपने घुटने, कोहनियां छिलवायी। फ्रॉक खराब हुई सो अलग। बजाय बच्चे को संभालने, पुचकारने के, कुंदन फिर बड़बड़ाने लगा, ``ढंग से चल भी नहीं सकते। जब देखो गंदे बच्चों की तरह कूदते-फांदते रहेंगे।'' कुंती ने तुरन्त पिंकी को संभाला और कुंदन पर बरस पड़ी, ``अब ये तो नहीं कि बच्ची गिर गयी है, उसे संभालें, पुचकारें, बस तब से लट्ठ लेकर पीछे पड़े हैं,'' उसने पिंकी को दुलारते हुए अपनी गोद में उठाया और उसकी चोटें सहलाने लगी। कुंदन पिंकी के नज़दीक ही था, जब वह गिरी, लेकिन अपना सफ़ारी खराब होने के चक्कर में उसे नहीं उठाया उसने।
हैंगिंग गार्डन से चौपाटी आते समय सब एकदम चुप हैं। तीनों बच्चों को भूख लगी है। सामने स्टाल भी है, लेकिन हिम्मत नहीं हुई कुछ मांगें। बस ललचाई निगाहों से वे खाने-पीने का सामान देखते रहे। कुंदन आगे-आगे चलता रहा। बिना इस बात की परवाह किये कि उन्हें कुछ दिलवा दे।
मछली घर देखते-देखते तीनों बच्चे भूख और थकान से निढाल हो रहे हैं। सुबह जो कुछ खाकर चले थे, तब से एक-एक कोल्ड ड्रिंक पिया है, सबने। यहां भी कुंदन का ध्यान इस ओर कत्तई नहीं है कि बच्चों को कुछ दिलवा दे। कुंती समझ नहीं पा रही, कुंदन ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है। कल तक तो भला-चंगा था। कल रात कितना उत्साहित था, बच्चों को घुमाने के लिए। और आज सुबह से उसके और बच्चों के पीछे पड़ा है। ``कपड़े गंदे क्यों हैं?'' ``ढंग से तैयार क्यों नहीं हुए?'' ``शऊर नहीं है, कुछ खाने का, जैसे कुछ देखा नहीं है, नदीदे कहीं के।'' अरे तुमने ज़िंदगी में कुछ दिखाया होता तो देखा होता। कभी इस तन को पहने हुए जोड़े के अलावा दूसरा ढंग को जोड़ा नसीब नहीं हुआ, और कहता है, ``ढंग के कपड़े क्यों नहीं पहने। मैं ही जानती हूं, जैसे-तैसे लाज रखे हुए हूं। घर की गाड़ी खींच रही हूं। माना, आज एक दिन के लिए सेठ ने तुम्हें गाड़ी दे दी है, हमें घुमाने-फिराने के लिए पर इसका ये मतलब तो नहीं कि तुम लाट साहब हो गये, गाड़ी चलाते-चलाते और हम फटीचर ही रह गये। कुंती कुढ़े जा रही है, अब ड्राइवर के बच्चे सेठ के बच्चे तो नहीं बन सकते न, अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने वाले कि एक बार में मान जायें। आखिर बच्चे ही तो हैं। पहली बार घूमने निकले हैं। थोड़ा बिगड़-बिफर गये तो क्या? बेकार ही आये, अगर पहले पता होता कि कुंदन यह हाल करेगा तो...।''
बच्चे अलग कुढ़ रहे हैं। आज पहली बार गाड़ी लाये हैं और रौब मार रहे हैं दुनिया भर का। अब कभी नहीं बैठेंगे पापा की गाड़ी में। तीनों रुआंसे-से बैठे हुए हैं। अबकी बार संजय को चपत लगी है, अपनी चप्पलों से सीट खराब करने के चक्कर में। वही सबसे ज्यादा उत्साहित था सुबह और इस समय वहीं सबसे अधिक उखड़ा हुआ बैठा है।
सबको बहुत हैरानी हुई जब कुंदन ने एक एयरकंडीशंड और अच्छे रेस्तरां के आगे गाड़ी रोकी। शायद वह दिन भर की कसर यहीं पूरी करना चाहता है। बच्चे, चमत्कृत होकर भीतर की सज्जा देखने लगे। कुंती भरसक प्रयास करने लगी, सहज दिखने की, जैसे यहां आना उनके लिए कत्तई नयी बात न हो। कुंदन खुद ऐसा ही दिखाने की कोशिश कर रहा है जैसे इस तरह की जगहों में उसका रोज़ का आना-जाना हो, लेकिन साफ लग रहा है, वह खुद पहली बार आया है यहां। आस-पास की मेजों पर खूब शोर है। लोग खुल कर ठहाके लगा रहे हैं, लेकिन ये सब बिल्कुल काना-फूसी के स्वर में बातें कर रहे हैं। गप्पू, पिंकी और संजय आपस में खुसुर-पुसुर करके माहौल से परिचय पा रहे हैं।
मीनू देखते ही कुंदन चकरा गया है। चीजों के दाम उसकी उम्मीद से बहुत अधिक हैं। दूसरी परेशानी यह है कि उसे पता नहीं चल पा रहा कि ये चीजें हैं क्या? कभी नाम भी नहीं सुने थे, ऐसे व्यंजनों से भरा पड़ा है मीनू। टाईधारी स्टुअर्ट ऑर्डर लेने के लिए सिर पर आ खड़ा हुआ। कुंदन ने थोड़ा समय मांगने की गरज से उसे टरकाया और कुंती से फुसफुसा कर कहा, ``यहां तो चीजें बहुत महंगी हैं, क्या करें?'' कुंती ने उसे सलाह दी, ``दो-तीन दाल-सब्जियां मंगा लो किसी तरह मिल-बांट कर खा लेंगे।'' कुंदन ने किसी तरह हकलाते हुए सबसे कम कीमत वाली दाल-सब्जियों का ऑर्डर दिया और राहत की सांस ली। ए.सी. रेस्तरां में भी उसे पसीना आ रहा है। वेटर छुरी-कांटे सजा गया है। बच्चे उन्हें उलट-पुलट कर देख रहे हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा, इनसे कैसे खाना खायेंगे।
सुबह से यह पहली बार है कि कुंदन बीवी-बच्चों से आंखें चुरा रहा है। वह खुद को इस माहौल में एडजस्ट नहीं कर पा रहा। बार-बार पसीना पोंछता, यही कहता रहा है, बहुत गर्मी है। सबने मुश्किल से खाना खाया है। हौले-हौले। चुपचाप। अभी भी वे अजनबियों की तरह व्यवहार कर रहे हैं। खाने के बाद जब वेटर फिंगर वाउल लाया, तो किसी को समझ नहीं आया, इनका क्या करना है। गुनगुना पानी और उसमें तैरते नीबू के कतरे। सबने कुंदन की तरफ देखा। वह खुद सकपका रहा है, क्या करे इसका। संजय ने कुछ सोचा, झट से नीबू निचोड़ा और गटक कर पानी पी गया। गप्पू और पिंकी भी यही करने वाले थे, तभी पास खड़े वेटर ने उन्हें बताया, यह पानी पीने के लिए नहीं, उंगलियों पर लगा तेल, घी, हटाने और धोने के लिए हैं। कुन्दन का चेहरा विद्रूपता से एकदम काला होने लगा। उसे लगा, भरे बाज़ार में उसे नंगा कर दिया गया है। उससे भी अदने आदमी द्वारा आज उसे उसकी औकात दिखा दी गयी है। उसने सिर ऊपर उठाये बिना हाथ धोये और बिल लाने के लिए कहा।
खाना खाकर बाहर निकलते समय सबके मूड उखड़े हुए हैं। गप्पू चिंहुक रहा है, क्योंकि आइसक्रीम न दिलवाये जाने के कारण वह बुक्का फाड़ कर रो पड़ा था और कुंदन ने बिना देर किये उसे एक चांटा रसीद कर दिया। कुंती की शिकायत है, ऐसे होटल में क्यों लाये जहां पैसे तो ढेर सारे लगे, खाने में जरा भी मज़ा नहीं आया। इसी बात पर कुंदन फिर भड़क गया है, ``जैसे मैं यह सब अपने लिए कर रहा हूं। तुम्हीं लोगों को घुमाने-फिराने के लिए सेठ का अहसान लिया और यहां यह हाल है...''
``हमें पता होता कि इस तरह गाड़ी का रौब मार कर हमारी पत उतारोगे तो आते ही नहीं। देखो तो ज़रा, कितने ज़रा-ज़रा से मुंह निकल आये हैं बेचारों के।'' गप्पू अब आगे आया है, मां की गोद में, ``अगर एक आइसक्रीम दिलवा देते उसे तो क्या घट जाता?'' कुंती गप्पू को चुप कर रही है।
``हां दिलवा देता आइसक्रीम, देखा नहीं कितनी महंगी थी आइसक्रीम और बाकी चीजें। बाहर आकर मांग लेता, दिलवा भी देता, वह तो वहीं चिल्लाने लगा, नदीदों की तरह। अरे कोई देखे तो कया समझे?''
``हां कोई देखे तो यही समझे कि कोई बड़े लाट साहब अपने ड्राइवर के गलीज बच्चों को घुमा रहे हैं शहर में। अरे इतना ही शौक था किसी बालकटी बीवी का और टीम टाम वाले बच्चों का, तो क्यों नहीं कह दिया सेठ को अपने, लौंडिया ब्याह दी होती अपनी। हमारी जान के पीछे क्यों पड़े हो। जाहिल हैं, गंवार हैं हम तो। हमें तो गाड़ियों में घूमने का न तो शऊर है और न ही शौक। कहीं नहीं जाना अब हमें। छोड़ दो घर पर। बहुत हो गया।'' कुंती का पारा भी चढ़ गया है।
बात तू-तू मैं-मैं से हाथा पाई तक पहुंचती, इससे पहले कुंदन ने इसी में खैरियत समझी कि उन्हें घर पर छोड़े। गाड़ी सेठ के हवाले करे और कहीं बैठ दारू पिये। अभी सिर्फ तीन ही बजे हैं और गाड़ी उसने सात-आठ बजे तक लौटाने के लिए कह रखा है।

सेठजी कुंदन को देखते ही चौंके, ``क्या बात है, इतनी जल्दी लौट आये। अच्छी तरह घूमा-फिरा दिया न बच्चों को?'' इससे पहले कि कुंदन कुछ कह पाता, अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आया; बोले, ``ऐसा करो, घर चले जाओ। मेम साहब की बहनें आयी हुई हैं, बच्चों के साथ। सब लोग उनकी कार में नहीं आ पायेंगे। तुम वैन ले जाओ और वे जहां कहें, घुमा लाओ सबको। मैं फोन कर देता हूं, ठीक।''
कुंदन अब फिर ड्राइवर बन चुका है। ``यस सर'' कहकर बाहर आ गया। मूड अब भी संवरा नहीं है। कहां तो सोच रहा था, दारू पियेगा कहीं आराम से बैठ कर, और यहां फिर ड्यूटी लग गयी, शहर भर के चक्कर काटने की। बेकार ही यहां आया, सोचा उसने, ``गाड़ी लौटाने शाम को ही आना चाहिए था।''
सेठजी के घर पहुंचा तो कोई तैयार नहीं था वहां। अपने आने की खबर दे कर वापिस वैन में आ गया। वहीं बैठा लगातार सिगरेट फूंकता रहा। कोई घंटे भर बाद सब लोग नीचे आये। तीन महिलाएं, एक पुरुष, ढेर सारे बच्चे। शायद सात-आठ। एक बड़ी लड़की। कुंदन ने सबको नमस्कार किया, जिसका उसे कोई जवाब नहीं मिला। एस्टीम मेम साहब ने खुद निकाली। उनकी बहनें, जवान लड़की, दो बड़े लड़के उसी में बैठे। वैन की तरफ सभी बच्चे लपके। तीनों दरवाजे भड़भड़ा कर खोले गये और सारे बच्चे पीछे हुड खोलकर वहां बैठने के लिए झगड़ने लगे। कुंदन अपनी सीट छोड़ कर नीचे आया। उसने देखा, सभी बच्चों ने रंग-बिरंगे कपड़े पहने हुए हैं। किसी की नेकर कहीं जा रही है, तो किसी की टी शर्ट झूल रही है। सभी बच्चे पीछे बैठने के लिए उतावले हैं। आखिर उन सज्जन ने किसी तरह समझौता करवाया उनमें कि जो बच्चे जाते समय पीछे बैठेंगे, वापसी में वे आगे बैठेंगे।
कुंदन किनारे पर खड़ा सब देख रहा है। अचानक उसकी निगाह वैन के अन्दर गयी। सभी बच्चों ने गंदे जूते-चप्पलों से सीटें बुरी तरह खराब कर दी हैं। उसकी मुट्ठियां तनने लगीं, लेकिन जब उसके कानों ने ``चलो ड्राइवर'' का आदेश सुना तो चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गया और एस्टीम के आगे निकलने का इन्तज़ार करने लगा। आदेश हुआ, ``पहले हैगिंग गार्डन चलो।'' वे सज्जन उसकी बगल वाली सीट पर बैठ गये। बच्चे अभी गुलगपाड़ा मचाए हुए हैं। वैन के चलते ही किसी बच्चे ने उसे एकदम रूखी आवाज में आदेश दिया, ``ड्राइवर, स्टीरियो ऑन करो'' उसने पीछे मुड़ कर देखा, आदेश देने वाला लड़का गप्पू की उम्र का ही रहा होगा सींकिया-सा। अचानक उसे सुबह गप्पू का कहा वाक्य याद आया, कैसे मिमिया कर कह रहा था, ``पापा स्टीरियो बजाओ ना,'' लड़के की आवाज फिर गूंजी, ``सुना नहीं ड्राइवर, स्टीरियो चलाओ।'' वह तिलमिलाया। चुपचाप स्टीरियो चला दिया। सभी बच्चे चिल्लाने लगे। उसने कनखियों से साथ वाली सीट पर बैठे साहब को देखा। उन पर बच्चे की टोन का कोई असर नहीं हुआ है। हैंगिग गार्डन तक पहुंचते-पहुंचते बच्चों ने शोर मचा-मचा कर, गंदी जुबान में बातें करते हुए उसकी नाक में दम कर दिया। वह किसी तरह खुद पर नियंत्रण रखे हुए है। बार-बार उसका जी चाह रहा है, गले पकड़ कर धुनाई कर दे सब बच्चों की अभी। ज़रा भी तमीज नहीं है। मां-बाप कुछ भी नहीं सिखाते इन्हें। देखो तो, कैसे शह दे रहे हैं अपने बच्चों को।
हैंगिंग गार्डन पहुंचते ही सब बच्चे कूदते-फांदते भाग निकले, सेठानी और उनके मेहमान टहलते हुए उनके पीछे चले। उसका मूड फिर उखड़ गया है। अचानक उसे ख्याल आया, पिछली सीट बहुत गंदी कर दी है बच्चों ने। वह एक कपड़ा गीला करके लाया और रगड़ -रगड़ कर सीटें पोंछने लगा। उसे याद आया, उसके अपने बच्चे भी तो तीन-चार घंटे बैठे रहे हैं इसी गाड़ी में तब तो एक दाग भी नहीं लगा था सीटों पर। संजय को सीट पर सिर्फ चप्पल रखने पर भी डांटा था उसने। सीटें साफ करते समय उसने सोचा, नाहक ही इतनी मेहनत कर रहा है। थोड़ी देर बाद बच्चों ने इनका फिर यही हाल कर देना है।
जब सब लोग हैंगिंग गार्डेन से निकले तो एक बच्चे के कपड़े बुरी तरह गंदे हैं और घुटने छिले हुए हैं। कहीं गिर-गिरा गया होगा, कुंदन ने सोचा। उसे उस सज्जन ने गोद में उठा रखा है और बार-बार पुचकार रहे हैं। गाड़ियों में सवार होने से पहले सारा काफिला रेस्तरां की तरफ बढ़ गया।
हैंगिंग गार्डेन से सब लोग चौपाटी की तरफ चले। इस बार वह लड़की वैन में आ गयी है। बड़े अजीब-से कपड़े हैं उसके। घुटनों तक टी शर्ट। बहुत ही मैली चीकट जींस और बाथरूम स्लीपर्स। वह बार-बार आंखें मिचमिचा रही है और बबलगम चुभला रही है। कुंदन को बबलगम से बहुत चिढ़ है। खास कर ये बच्चे जब बबलगम मुंह में फुलाकर पच्च की आवाज करते हुए फोड़ देते हैं। उसे बराबर यह डर बना रहा कि यह लड़की बबलगम कहीं गाड़ी में न चिपका दे।
कुंदन का डर सही निकला। चौपाटी पर उतरते समय लड़की के मुंह में चुंइगम नहीं हैं। सबके दूर जाते ही उसने तुंत गाड़ी की पिछली सीटों वाली जगह पर देखा। चुंगम दरवाजे की फोम पर टिकुली-सा चिपका हुआ है। कुंदन की आंखों में अजीब रंग आने-जाने लगे। जी में आया, ईंट का टुकड़ा उठा कर सिर पर दे मारे उसके। ``ये बच्चे तो सचमुच ही मेरे बच्चों से भी गये-गुज़रे हैं। मैं फालतू में ही सारा दिन अपने बच्चों के पीछे पड़ा रहा कि उन्हें मैनर्स नहीं है।''
उसे अपने आप पर बहुत शर्मिंदगी होने लगी। चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गया और शीशा चढ़ा दिया। एकदम उदास हो गया। कितने बड़े भ्रम में था वह अब तक। उस तरफ की दुनिया। ऊहं!!
उसने तय किया कि रात को घर जाते समय बच्चों के लिए खाने की ढेर सारी चीज़ें और खिलौने ले जायेगा।
......

Tuesday, April 15, 2008

नौवीं कहानी - टैंकर

लुधियाना से जब करतारा ने टैंकर हाइवे पर लगाया तो रात के ग्यारह बज चुके थे। दिसम्बर की सर्द रात, सत्तर और अस्सी के बीच रेंगती स्पीडोमीटर की सुई और पूरी बोतल ठर्रा चढ़ाए व्हील पर बैठा करतारा। उसकी सीट के पीछे वाली लम्बी बर्थ पर दो-दो कम्बलों में खुद को सर्दी से बचाते हुए लेटे-लेटे मुझे तरह-तरह के ख्याल आ रहे हैं। बीच-बीच में सामने से आते किसी ट्रक की बत्तियों की चौंधियाहट आँखों पर पड़ती है तो थोड़ी देर के लिए एक अजीब-सा ख्याल जेहन में उभरता है - हम एक सर्द दोपहर में छायादार वृक्षों से घिरी किसी सड़क पर चल रहे हों और बीच-बीच में यह रोशनी न होकर धूप का टुकड़ा आ जाता हो। साइड से ट्रक के गुजरते ही यह अहसास मर जाता है और मैं फिर उस अँधेरी बर्थ पर अपने टूटते-जुड़ते ख्यालों के सिरों को तरबीब देने लगता हूँ।
कभी सोचा भी न था, मुझे इस तरह रात-बेरात, वक्त-बेवक्त शहर-दर-शहर भटकने वाली नौकरी करनी पड़ेगी। एक बेईमान व्यापारी की ईमानदार नौकरी। किसलिए-सिर्फ पाँच-सौ रुपये के लिए ही तो। हाँ, पाँच सौ रुपये की यह नौकरी जो मुझे बी.एससी. करने के बाद पूरे तीन साल तक बेरोजगार रहने के बाद मिली थी और जिसके लिए मुझे किस हद तक जलालत-भरी स्थितियों से गुजरना पड़ा था। बी.एससी. की पढ़ाई करते समय कुछ सपने पालने शुरू कर दिए थे, लेकिन इस नौकरी ने उन सारे सपनों की धज्जियाँ उड़ा दी थीं। अब मुझे सपने नहीं आते, बस हरदम एक कशमकश चलती रहती है। किसीं तरह इस सबसे छुटकारा पाना है।
इस समय लुधियाना से सत्तर हजार की नकद वसूली करके दिल्ली लौट रहा हूँ। करतारा गाड़ी दौड़ाता अपने में मगन है। बीच-बीच में स्टियरिंग पर ताल देता गाने लगता है-`नइयों लगदा दिल मेरा'! सर्दी से कँपकँपी छूट रही है। ट्रक की सारी खिड़कियाँ बंद होने के बावजूद झिर्रियों से आती हवा मानो चीर रही है। हम यहाँ आधी रात को ठंड में मर रहे हैं और हमारा सेठ इस समय साउथ दिल्ली में अपने आलीशान बँगले में बैठा एक के बाद एक पटियाला पैग खाली कर रहा होगा। सेठ का ख्याल आते ही मुझे उबकाई-सी आने लगी। उसे जोर से गाली देने का मन हुआ, पर उसे इर तरह सरेआम गाली नहीं दे सकता। फिर से बेरोजगार हो जाऊँगा।
दरअसल मैं जिस फर्म में काम करता हूँ उसका नाम है-जय अंबे ऑयल कम्पनी। इसके मालिक हैं सेठ मुरलीधर। पाँच टैंकर हैं इस फर्म के पास जो यू.पी., पंजाब, हरियाणा के शहरों, कस्बों में डीजल, फर्नेस ऑयल, एच.एस.डी., मिट्टी के तेल वगैरह की सप्लाई करते हैं।
ये सप्लाई आमतौर पर दो नंबर पर होती है। रसीद वगैरह या तो होती नहीं, या जाली बनाई जाती है। देखने में सेठ जी बहुत ही भले और धार्मिक प्रवृत्ति के लगते हैं, तभी तो उन्होंने अपनी फर्म का नाम भी ऐसा रखा है। बहुत प्यार से, धीरे-धीरे बात करते हैं। आवाज में इतना अपनापन झलकता है और चेहरे से इतने भले लगते हैं कि शुरू-शुरू में कई बार मेरे मन में यह बेवकूफी भरा ख्याल आया कि मैं रोज सुबह उन्हें नमस्ते सेठजी न कहकर उनके पैर छू लिया करूँ। परन्तु यह उन दिनों की बात है जब मुझे उनके और उनके धंधे के बारे में कुछ भी मालूम न था।
हुआ यह था कि इस फर्म के लिए जो आदमी वसूली करके लाया करता था, वह चालीस हजार रुपये लेकर भाग गया। उसके घर-बार पर निगाह रखने और पुलिस को इत्तला दिए जाने के बावजूद उसका कुछ पता न चल पाया। चालीस हजार का चूना लग जाने के बाद सेठ सतर्क हो गए थे। इसलिए इस बार वे एक ऐसा आदमी चाहते थे जिसका पता-ठिकाना, घर-बार सब कुछ आँखों के सामने हो।
और इसी चूना लगने की घटना के बाद मैं इस फर्म से जुड़ा। यह सब-कुछ इतना आसान न था। उन दिनों मैं दो-एक ट्यूशनें करके गुजारा कर रहा था। मेहता साहब को, जिनके बच्चों को मैं पढ़ाता था, कहीं अच्छी-सी नौकरी का जुगाड़ बिठाने के लिए मैंने कह रखा था। उनकी सेठ से जान-पहचान थी। जब सेठ ने उन्हें अपनी फर्म के लिए एक ईमानदार लड़के की तलाश के लिए कहा तो उन्होंने मेरा नाम सुझाया। नाम सुझाना ही काफी नहीं था, सेठ ने व्यावहारिक बुद्धि और जीवन भर के अनुभव के आधार पर मुझसे उलटे-सीधे सवाल पूछे। एक बेहूदा सवाल यह भी पूछा कि कहीं मुझे मिर्गी वगैरह तो नहीं आती। कहीं ऐसा न हो कि मैं दस-बीस हजार रुपये की वसूली करके आ रहा होऊँ और रास्ते में मुझे मिर्गी आ जाए और कोई सारी रकम लेकर गायब हो जाए। ऐसे बेहूदा सवालों पर गुस्सा तो बहुत आया, सोचा भाड़ में जाए ऐसी नौकरी, लेकिन नौकरी की बेहद जरूरत और अपनी मध्यवर्गीय दब्बू प्रवृत्ति के कारण सारे सवालों का सही जवाब देता रहा। सेठ ने पाँच-सौ रुपये पर नौकरी पक्की कर दी, और अगले दिन से आने के लिए कह दिया। लेकिन सेठ बहुत काइयां था, वह अपने पिछले अनुभव को दोहराना नहीं चाहता था। रात को अपनी गाड़ी में मेहता साहब को लेकर पिताजी से मिलने के बहाने हमारे घर आया। घर में रखे सामान वगैरह का जायजा लिया। पिताजी से बातें-बातों में पूछ लिया कि मकान अपना ही है और कि घर में मेरे अलावा कितने बेटे-बेटियों की शादी होनी बाकी है। हम सब कुछ समझ रहे थे, परन्तु अपनी जरूरत के आगे चुप थे। आत्मसम्मान पर लगती हर चोट को किसी तरह झेलते रहे। एक बात और भी थी, हम यही मानकर तसल्ली करते रहे कि ये सारी बातें एहतियाती तौर पर जरूरी हैं। लेकिन बाद में जब मुझे भीतर की सारी बातों का पता चला तो इस बात पर गुस्सा आने के बजाय हँसी आयी कि मेरे सेठ को बेईमानी की कमाई वसूल करके लाने के लिए एक ईमानदार आदमी की जरूरत थी और उसने मुझे किस तरह से जलील सवाल पूछने के बाद ईमानदार पाया था।
यह तो ड्ऱाइवरों और क्लीनरों के साथ टैंकरों पर आ-जाकर या कई बार माल की डिलीवरी देने के दौरान मुझे पता चला कि ग्राहकों के साथ कितने स्तरों पर और कितनी बारीकियों से धोखा किया जाता था। एक पूरा सिस्टम था बेईमानी का। अगर एक जगह चूक हो जाए तो दूसरी तरकीब हाजिर, लेकिन क्या मजाल जो पूरा माल ईमानदारी से सप्लाई हो जाए। सबसे पहली हेराफेरी टैंकर भरवाते समय ही शुरू हो जाती। पेट्रोल के टैंकर में डीजल की मिलावट, डीजल में मिट्टी के तेल की और इस तरह हर माल मिलावटी भरवाया जाता। कम से कम 100 लीटर माल घटिया होता। उसके बाद जो गड़बड़ की जाती थी उसके बारे में मैं आज तक नहीं समझ सहा हूँ कि वह सेठ और ड्राइवरों, क्लीनरों की मिलीभगत थी या सिर्फ ड्राइवरों की ईजाद की हुई तरकीब। किया यह गया था कि टैंकर के तल की पूरी लम्बाई-चौड़ाई में एक नकली फर्श बनाया गया था। उसके नीचे 100-150 लीटर माल आ जाता था। होता यह था कि कई बार पार्टी चेक कर लेती कि तेल, टैंकर में ढाई-ढाई हजार के चारों कम्पार्टमेंटों में ऊपर निशान तक भरा हुआ है या नहीं, चेक कर लेने पर कि माल पूरा है, वह ड्राइवर को टैंकर में लगे नलकों से पाइपों के जरिये अंडर ग्राउंड टैंकर में तेल डालने के लिए कह देती। नतीजा यह होता कि उन नलकों से केवल ऊपरी फर्श के लेबल तक का तेल ही बाहर आता, नलके के लेबल से नीचे के तहखाने का तेल टेंकर में ही रह जाता। बाद में ड्राइवर वगैरह अपने ईजाद किए गए तरीके से तेल पीपों में भर लेते और लौटते हुए दूसरे शहर में पूरे या औने-पौने दामों पर बेच देते। यह कमाई केवल उनकी होती या सेठ की भी, इसका मुझे पता न चल सका। वैसे भी मैं जब टैंकर के साथ जाता तो ड्राइवर वगैरह मुझे सेठ का आदमी समझ कर मुझसे ज्यादा न खुलते। सब काम मेरे सामने होता पर मुझे उसमें राज़दार न बनाते। अलबत्ता, इस कमाई में से जब वे हाइवे पर किसी ढाबे पर अपने लिए बोतल खोलते तो मुझ सूफी के लिए भी चिकन वगैरह का आर्डर देते।
एक अन्य टैंकर की बनावट में जो दूसरी तरह की हेराफेरी की गयी थी, वह थी कि टैंकर के चारों कम्पार्टमेंटों की भीतर की दीवारों में नीचे की तरफ चवन्नी-भर का एक छेद था। इससे होता यह था कि जब टैंकर का एक कम्पार्टमेंट खाली किया जाता तो उस छेद के जरिए दूसरे कम्पार्टमेंट में से तेल आना शुरू हो जाता। फिर तीसरे में से दूसरे व पहले में और फिर चौथे में से बाकी तीन कम्पार्टमेंटों में तेल आता रहता। जब तक घंटे-भर में टैंकर खाली होता, चारों खानों में से सौ-डेढ़ सौ लीटर तेल आराम से फैल चुका होता।
इस तरीके में भी यही होता कि पार्टी द्वारा टैंकर में मौजूद तेल की मात्रा का सत्यापन कर लिए जाने के बावजूद उसे बेवकूफ बना दिया जाता। ये तो वे तरीके थे जो मैं देख पाया था या जो मुझसे छुपे नहीं रहे थे, और न जाने कितने तिलिस्म रहे होंगे टैंकरों मैं। इसके अलावा, टैंकर में माल की पैमाइश करने के लिए डिप रॉड में भी हेराफेरी की गयी थी। इसमें निशान तो पाँच फट तक के बने हुए थे, लेकिन नाप में कम से कम तीन इंच का फर्क था। उस तीन इंच के फर्क से पूरे टैंक में 100 लीटर का फर्क पड़ जाता था। मुझे पता चला था कि कुछ दूसरी कम्पनियों के टैंकरों में भरा तो नकली या मिलावटी माल जाता था, लेकिन टैंकर की ऊँचाई में ढक्कन के नीचे एक पाइप फिट था, जिसमें असली माल होता था, दिखावे भर के लिए।
सबका हिस्सा बंधा हुआ था। पुलिस को बंधी-बधाई सकम पहुँचा दी जाती। डिप रॉड का कैलिब्रेशन करने वाले का हिस्सा हेराफेरी की मात्रा के साथ-साथ घटता-बढ़ता रहता। चुंगी और नाके वालों का फी ट्रक हिस्सा बंधा हुआ था। उनका हिस्सा उन्हें मिल जाए तो उसके बाद उन्हें कोई मतलब नहीं कि टैंकर में तेल जा रहा है या शराब।
इन सब पर तुर्रा यह कि ज्यादातर माल की सप्लाई दो नंबर से होती थी। यानि नो रसीद बिजनेस। और इसीलिए बैंक खुला होने के बावजूद मुझे भुगतान नकद लाना पड़ता। बहुत कम मौकों पर मुझे टैंकर के साथ भेजा जाता। कई बार तो ऑफिस जाकर ही पता चलता कि कहाँ जाना है। कई मौकों पर रात भी बाहर या यात्रा में ही काटनी पड़ी।
पहली बार जब वसूली के लिए दिल्ली से चला तो बहुत डर लग रहा था। बुलंदशहर की किसी पार्टी से सात हजार रुपये लाने थे। मुझे राह खर्च के लिए सौ रुपये तथा पार्टी का पता दे दिया और कहा गया कि वहाँ अपना परिचय देकर पैसे ले हूँ, हम फोन कर रहे हैं। जब मैं बुलंदशहर पहुँचा तो शाम के सात बज रहे थे। अगर वापसी के लिए आठ बजे की बस भी मिलती तो दिल्ली में सेठ के घर पहुँचने तक रात का एक बज ही जाता। मैंने पार्टी से कहा कि मैं रात किसी धर्मशाला वगैरह में काट लेता हूँ, पैसे सुबह उनके घर से ही लेकर चला जाऊँगा। सबेरे जब मैंने सात हजार रुपये लिए तो मेरा दिल धकधक कर रहा था। मैंने अपनी जिंदगी में इतने सारे रुपये पहली बार अपने हाथों में लिए थे। सात हजार तो दूर, कभी एक हजार रुपये भी आए हों, याद नहीं पड़ता। रुपये अच्छी तरह संभाल लेने के बावजूद रास्ते भर खटका लगा रहा, कहीं रास्ते में डाका न पड़ जाए, कोई चोर-उचक्का पीछे न लग जाए, डर के मारे चाय पीने के लिए भी नीचे नहीं उतरा। दिल्ली आकर सेठ को पैसे देने के बाद जान में जान आई। सेठ ने सारा हिसाब पूछा, मैंने ईमानदारी से बता दिया। उसने मुझे दो दिन के जेब खर्च के लिए बीस रुपये और दिए। तबीयत प्रसन्न हो गयी। अगर इसी तरह जेबखर्च भी मिलता रहे तो कोई दिक्कत नहीं है। कम से कम पूरी तनख्वाह तो घर पर दे सकूँगा।
धीरे-धीरे मुझमें आत्मविश्वास आने लगा। पहले रकम दस हजार से कम ही होती थी। धीरे-धीरे मुझे बड़ी वसूलियों के लिए भेजा जाने लगा। पैसे संभाल कर लाने के नये-नये तरीके मैंने ढूँढ़ लिए। कभी जूते वाले डिब्बे में तीस-चालीस हजार रुपये तक रख देता और फिर डिब्बा आराम से बगल में दबा लेता, मानो नये जूते खरीद कर ला रहा होऊँ, कभी रुपये टिफिन बाक्स में रखकर लाता तो कभी डालडा के खाली डिब्बे में। इस तरह पैसे रखकर खूद को पूरी तरह संतुलित और सामान्य बनाए रखने की कोशिश करता। मैंने देखा कि रुपये इस तरह लेकर चलने में कभी कोई तकलीफ नहीं हुई। इस दौरान मैंने एक बात और सीख ली थी-किस तरह से ज्यादा-से-ज्यादा पैसे बचाए जाएँ, मसलन बस से यात्रा करना और ऑटो रिक्शा के पैसे हिसाब में लिखना, होटल में न ठहरकर धर्मशाला में ठहरना या खाना घर से ले जाना और होटल में खाने के पैसे लिख लेना। और जब किसी रिश्तेदारी वाले शहर में जाना हो तो खाना, रहना दोनों फ्री और पूरे पैसे बचा लेना। इस तरह दिल्ली से बाहर जाने वाले दिनों में कई बार तीस-चालीस रुपये ऊपर से बना लेता। हाँ, इस बात का ख्याल जरूर रखता कि हिसाब बिल्कुल सच्चा लगे। कहीं ऐसा न हो, दो-चार रुपये के चक्कर में पाँच-सौ रुपये शुद्ध और तीनेक सौ रुपये ऊपर वाली नौकरी से हाथ धोना पड़े। सेठ भले ही बहुत काइयाँ था, पर मुझ पर विश्वास करने लगा था, एक बात और भी थी कि चूँकि मैं उसके काफी सारे राज़ जान गया था, अत: हिसाब में ज्यादा मीनमेख न निकालता।
इन्हीं सब बातों को सोचते-सोचते न जाने कब मेरी आँख लग गयी। सुबह जब मेरी आँख खुली तो हम दिल्ली में प्रवेश कर चुके थे। यह ख्याल आते ही कि आज रविवार है, मन को तसल्ली हुई। कई दिन से कुछ काम टल रहे थे, दर्जी को कपड़े देने हैं सोचा आज फुर्सत से सब काम निपटाएँगे।
करतारा ने टैंकर का रुख सेठ के घर की तरफ कर दिया। वहाँ सेठ को रकम सौंपनी है। उसके बाद करतारा और क्लीनर टैंकर को ले जाकर आफिस के पास खड़ा कर देंगे। फिर उनकी भी अगली याञा तक के लिए छुट्टी।
अभी नहा कर निकला ही था कि पता चला फर्म का मुंशी आया हुआ है। वह बहुत घबराया हुआ है। उसने बताया कि टैंकर ब्लास्ट हो गया है। सेठ कहीं बाहर चले गए हैं, सो मुझे इत्तला देने आ गया है। फटाफट तैयार होकर मैं उसके साथ लपका। अभी-अभी तो हम टैंकर छोड़ कर आए हैं। ये अचानक क्या हो गया। रास्ते में मुंशी ने बताया कि टैंकर में से बचा-खुचा तेल निकालने वालों की वजह से ऐसा हुआ है। एक के तो बिल्कुल चीथड़े उड़ गए हैं।
-ओ गॉड, मैं चौंका,
- कैसे? मुंशी बताने लगा - करतारा के टैंकर खड़ा करते ही आस-पास गैराजों में काम करने वाले दो छोकरे पीपा और पाइप लेकर आ गए। हमेशा की तरह करतारा ने उनसे दस रुपये लेकर टैंकर में से बचा-खुचा तेल निकलने की इजाजत दे दी और अपने घर चला गया। छोकरों को इस बार टैंकर से ज्यादा तेल नहीं मिला। अमूमन वे पाँच-सात लीटर तेल मुँह में पाइप लगा कर टैंकर में से खींच लेते हैं। चूँकि इस टैंकर से पेट्रोल की डिलीवरी हुई थी इसलिए उन्होंने सोचा होगा कि शायद सर्दी की वजह से पेट्रोल नीचे जम गया है और निकल नहीं रहा है। पैट्रोल के लालच में उनमें से एक लड़के ने बहुत बड़ी बेवकूफी की। उसने तेल से भीगा एक कपड़ा एक लकड़ी पर लपेटा और उसमें आग लगाकर टैंकर पर चढ़ गया। उसने सोचा कि शायद आग की गर्मी से पैट्रोल पिघल जाएगा लेकिन टैंकर का ढक्कन खोलते ही टैंकर में जमा हो गयी गैस की वजह से जोर का धमाका हुआ और टैंकर फट गया। टैंकर अब अंजर-पंजर रह गया है। सारी बात सुन कर मेरा दिमाग भन्ना गया - न जाने कौन थे वे छोकरे! वहीं मर-वर न गए हों।
जब हम वहाँ पहुँचे तो भीड़ लगी हुई है। नौ-दस साल की उम्र के दो मासूम छोकरे वहाँ पड़े बुरी तरह तड़प रहे हैं। पुलिस के डर से उन्हें अब तक कोई अस्पताल नहीं ले गया है। हमारे पहुँचते ही करतार और क्लीनर भी आ गए। दोनों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही हैं। उन्हीं की वजह से यह सब हुआ है। छोकरे गए सो गए, सेठ को तीन लाख के टैंकर के लिए क्या जवाब देंगे।
हमने उन दोनों को किसी तरह एक टैम्पो पर चढ़ाया और अस्पताल ले गए। वहाँ डॉक्टरों ने कहा - यह पुलिस केस है, पहले पुलिस को आ जाने दो, तभी भर्ती किया जाएगा। बहुत-बहुत मिन्नतें करने और लड़कों की हालत की दुहाई देने पर उन्हें भर्ती किया गया। पुलिस को खबर कर दी गयी। जो लड़का टैंकर पर च़ढ़ा था, उसके बचने की उम्मीद कम ही थी। उन्हें अस्पताल में मैं, मुंशी, क्लीनर और दुकान का एक अन्य नौकर छोड़ने आए हैं। पुलिस के आने से पहले ही मुंशी ने कहा - हम तो इस लफड़े में नहीं पड़ेंगे। अस्पताल पहुँचा दिया, अब उनका बचना न बचना ऊपर वाले के हाथ में है। उम्र भर के लिए पुलिस और अदालतों के चक्कर में कौन पड़े। और उसने सहमति माँगने की गरज से क्लीनर और दूसरे नौकर की तरफ देखा। वह बेचारा पहले ही घबराया हुआ था, क्या कहता, तीनों मुझे छोड़कर चले गए। मैंने उन छोकरों को इस तरह छोड़ना उचित नहीं समझा। टैंकर तो गया ही, उसका बीमा भी हो रखा होगा, पैसे मिल जाएँगे; लेकिन इन बेचारों का क्या होगा। तभी मैंने सोचा फोन करके सेठ को पूछ लूँ शायद आ गए हों। पर वह तब तक नहीं आए थे।
एमरजेन्सी वार्ड के बाहर बैठे मुझे तरह-तरह के ख्याल आ रहे हैं। वे किसके बच्चे हैं; कहाँ के रहने वाले हैं? उन्हें कुछ हो गया तो किसे इत्तला करूँगा। मैं यह भी सोच रहा हूँ कि मैं यहाँ क्यों बैठा हूँ उनकी इस हालत के लिए मैं तो कहीं जिम्मेवार नहीं हूँ। क्यों मैं सुबह से बिना एक चाय पिए यहाँ बैठा हूँ? अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तीन-चार लड़के इधर आए। उनके चेहरे उतरे हुए हैं। उनमें से एक ने मुझे बताया कि वो लड़का जो ज्यादा जल गया है शिब्बू एक गैराज में था, -साहब वो बच जाएगा ना? वह पूछ रहा है, मैं उसे क्या जवाब दूँ। उस बारह-तेरह साल के लड़के पर एकाएक कितनी बड़ी जिम्मेवारी आ गयी है। मैं उन्हें वहीं बैठ जाने का इशारा करता हूँ।
तभी पुलिस वाले आ गए हैं। दोनों छोकरे अभी एमरजेन्सी वार्ड में बेहोश पड़े हैं और बयान देने की स्थिति में नहीं हैं। मेरा बयान लिया गया है। मुझे जितना बताया गया था, मैंने बता दिया है। वे सेठ और ड्राइवर आदि के पते लेकर, फिर आने के लिए कह कर चले गए हैं।
मुझे बहुत जोर की चाय की तलब लगी है, भूख भी लगने लगी है, परन्तु वहाँ से उठने की हिम्मत नहीं बटोर पा रहा। वहाँ बैठे हुए भी मुझे हर वक्त यही लग रहा है कि अभी डाक्टर या नर्स बाहर आकर कहेगी, वो लड़का क्या नाम है उसका, हाँ...उसे बचाया नहीं जा सका, और वह सिर झुका कर वापिस चली जाएगी। तब हम उठेंगे और...
और हुआ भी यही। कोई तीन घंटे तक हमारे वहाँ बैठे रहने के बाद एक डाक्टर ने वार्ड से बाहर आकर बताया कि उस लड़के को नहीं बचाया जा सका। शिब्बू का भाई सिसकने लगा है। उसके साथ आए लड़के बुरी तरह सहम गए हैं। मैं एकाएक खालीपन महसूस करने लगा हूँ। मैंने शिब्बू के भाई के कंधे पर हाथ रखा। मेरे हाथ का स्पर्श पाते ही वह फफक पड़ा। मैंने उसे रोने दिया। थोड़ी देर बाद जब उसका रोना कुछ थमा तो उससे पूछा-अब क्या करोगे, कहाँ घर है तुम्हारा-उसने बताया, यहाँ हमारा कोई नहीं है। दोनों होटल में ही सोते थे। घर बहादुरगढ़ में है! आप ही बताइए - क्या करूँ साहब! मैं चिंतित हो गया। वह अबोध लड़का कैसे कर पाएगा यह सब। मैं खुद अपने आपको इतना उदास थका-थका और खाली महसूस कर रहा हूँ कि साथ जाना संभव नहीं है, मैंने उसे यही सलाह दी कि मैं एक टैक्सी कर देता हूँ, वह शिब्बू की लाश को लेकर गाँव चला जाए। उसने हामी भर ली है। लाश मिलने और पुलिस की कागजी खाना पूरी करने में शाम के चार बज गए हैं। मैंने सारी कार्रवाई पूरी की। लाश मिलने पर बहुत मुश्किल से एक टैक्सी वाला लाश लेकर सौ रुपये में जाने के लिए तैयार हुआ है। बाकी लड़के भी उसके साथ जा रहे हैं। मैंने सेठ के पैसों में से सौ रुपये टैक्सी वाले को और दो सौ रुपये शिब्बू के भाई को दिए।
उन्हें विदा करके मैं सीधा सेठ के घर गया। वे अब तक नहीं आए हैं। सुबह फिर आने को कहकर मैं वापिस घर आ गया। बुरी तरह थक गया हूँ। सुबह से कुछ खाया भी नहीं है, हालांकि इन सारी घटनाओं के पीछे मैं कहीं भी दोषी नहीं हूँ, फिर भी न जाने क्यों एक अपराध-बोध सा मुझे कचोट रहा है।
अगले दिन जब मैं आफिस पहुँचा तो सेठ जी करतारा को बहुत ऊँची आवाज में गालियाँ दे रहे हैं। आम तौर पर वे बहुत धीमे-धीमे बोलते हैं, पर इस समय वे अपनी पंजाबी पर उतर आए हैं। माँ-बहन की गालियाँ मैं उनके मुँह से पहली बार सुन रहा हूँ। वे इस सारी दुर्घटना के लिए करतारा को दोषी ठहरा रहे हैं। करतारा इस बात से बिल्कुल इनकार कर रहा है कि उसने उन छोकरों को टैंकर से तेल निकालने की इजाजत दी थी। बल्कि उसका कहना है कि उसने उन्हें कभी देखा भी न था। अब कोई भी आकर उसके पीछे से चोरी करे तो उसका क्या कुसूर।
शायद रात पुलिस भी सेठ के घर पर आई हो। मैं वहीं एक कोने में खड़ा हूँ। इतने में उनकी निगाह मुझ पर पड़ी, एकदम भड़के, ये सब क्या लफड़ा है? किस चक्कर में फँसा दिया तुम लोगों ने हमें? क्या हुआ उन छोकरों का? एक तो मर गया है न? और हाँ! पेमेंट लाए क्या? कहाँ है?'' इतने सारे सवालों के जवाब में मैंने यही कहा, जी, मैं आपको बताने आया था, पर आप थे नहीं, मैंने उसकी लाश उसके भाई को दिलवा दी और, सोचा पैसों की बात भी उन्हें बता दूँ, आखिर उन्हीं के पैसे खर्च किए हैं, मैंने, वे तारीफ ही करेंगे कि चलो कुछ तो किया उनके लिए, जी और पेमेंट ले आया था और उसमें से लाश गाँव ले जाने के लिए टैक्सी वाले को सौ रुपये और क्रिया-कर्म के लिए भाई को दो सौ रुपये दे दिए थे।
क्या? सेठ जी चौंके - किससे पूछ कर आपने उस हरामी के पिल्ले पर तीन सौ रुपये खर्च कर दिए, लाट साहब जी, एक तो यहाँ तीन लाख का टैंकर उड़ गया, बीमा कम्पनी से पता नहीं हर्जाना भी मिलेगा या नहीं और आप हैं कि तीन सौ का चूना और लगा आए! उनकी आवाज फिर ऊपर उठने लगी है, मैं पूछता हूँ - वो मेरा दामाद लगता था कि उसकी लाश को टैक्सी से ले जाने के लिए सौ रुपये खर्च कर दिए हैं। सेठजी बड़बड़ाने लगे, एक तो वो हमारे टैंकर से तेल चोरी कर रहा था और हमारा तीन लाख का टैंकर ले डूबा। अचानक उन्होंने बात रोक कर मुंशी जी को आवाज दी- ऐ मुंशी जी, ये तीन सौ रुपये लिख दो सतपाल जी के नाम। हमारी इतनी हैसियत नहीं है कि दया-धर्म दिखलाते फिरें। मैं भौंचक रह गया। मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि बीस-पचीस लाख की मिल्कियत वाला यह सेठ इन तीन सौ रुपयों के लिए इस हद तक उतर आएगा। दो पल पशोपेश में रहा - मार दूँ ऐसी नौकरी पर लात, थू है ऐसी कमाई पर, पर अगले ही पल नौकरी छोड़ने वाली सारी घटनाएँ तेजी से दिमाग में घूम गयीं। नहीं, छोड़ना सरासर मूर्खता होगी। तय कर लिया है और चुपचाप बाहर आ गया हूं। अब मुझे यही फैसला करना है कि अपनी ईमानदारी में और कितने प्रतिशत की कटौती करूँ।

Monday, April 7, 2008

आठवीं कहानी

खो जाते हैं घर
बब्बू क्लिनिक से रिलीव हो गया है और मिसेज राय उसे अपने साथ ले जा रही हैं। उन्होंने क्लिनिक का पूरा पेमेंट कर दिया है।
- ओ के डाक्टर, तो फिर मै इसे ले जा रही हूं। कोई भी बात होगी तो मैं आपको फोन पर बता दूंगी। वे चलते समय डॉक्टर की अनुमति लेती हैं।
डॉक्टर ने उन्हें निश्चिंत किया है - ठीक है मैडम, आप इसे दवाएं देती रहें। कुछ ही दिनों में बिलकुल ठीक हो जायेगा। ओ के बब्बू , बाय। आंटी को परेशान नहीं करना।
बब्बू ने कमज़ोर आवाज़ में कहा है - नहीं करूंगा।
डॉक्टर ने बब्बू के गाल सहला कर उसे गुड बाय कहा है।
वे एक बार फिर डॉक्टर को याद दिला रही हैं - अगर वो आदमी आये इस बच्चे के बारे में पूछने तो मुझे तुंत खबर करें। प्लीज़।
डॉक्टर ने उन्हें आश्वस्त किया है - श्योर, श्योर, हालांकि अब इतने दिन बीत जाने के बाद उसके आने की बाद उम्मीद कम ही है, लेकिन जैसे ही वो आया, मैं आपको तुंत खबर कर दूंगा। मुझे अभी भी यही लग रहा है कि उसने इस बच्चे को कहीं बुखार में तड़पते देख लिया होगा और खुद इसका इलाज कराने की हैसियत नहीं रही होगी इसलिए इसे यहां छोड़ गया।
- मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है। उसका अपना बच्चा होता कि कैसे भी करके एक बार तो ज़रूर ही मिलने आता ही। लेकिन बीच बीच में ये दूसरे बच्चों की कहानियां सुनाता रहा है, उससे मामला और उलझ गया है। मिसेज राय ने अपनी आशंका व्यक्त की है।
-मेरे ख्याल से बच्चे के पूरी तरह से ठीक हो जाने के बाद ही सारी बातों के बारे में बेहतर ढंग से पता चल सकेगा।
- हां मेरा भी यही ख्याल है कि बच्चा अभी भी सारी बातें सिलसिलेवार नहीं बता पा रहा है। कुछ दिन तो इंतजार करना ही पड़ेगा।
मिसेज राय ने ड्राइवर से सारा सामान उठाने के लिए कहा है और वार्ड बॉय को इशारा किया है बच्चे को कार में बिठा देने के लिए।
बब्बू को कार में आराम से बिठा देने के बाद वे खुद कार में आयी हैं।
बब्बू जिंदगी में पहली बार किसी कार में बैठा है और हेरानी से सारी चीजें देख रहा है। बहुत ज्यादा आरामदायक सीटें, ठंडी ठंडी हवा, बहुत हौल हौले बजता संगीत और पानी पर चलती सी कार। वह शीशे से आंखें सटा कर बाहर का नजारा देखना चाहता है।
मिसेज राय उसे आराम से बिठा कर खिड़की के नजदीक सरका देती हैं।
वह अचानक कार में से अनुपस्थित हो गया है और बाहर भागती दौड़ती दुनिया में शामिल हो गया है। मिसेज राय उसके सिर पर हौले हौले उंगलियां फिरा रही हैं। वे अपनी तरफ से कुछ कह कर या पूछ कर बच्चे और उसकी दुनिया में बाधक नहीं बनना चाहतीं। उन्हें कोई जल्दी नहीं है।
बब्बू थोड़ी ही देर में कार के भीतर की दुनिया में लौटता है और उनसे आंखें मिलाता है।
वे मुस्कुराती हैं।
बब्बू भी उनकी मुस्कुराहट के बदले अपने चेहरे पर कीमती मुस्कुराहट लाने की कोशिश करता है।
उसका गाल सहलाते हुए पूछती हैं वे - बेटे, अब कैसा लग रहा है?
वह हौले से कहता है - ठीक।
बदले में वह उनसे पूछता है - हम कहां जा रहे हैं?
-घर, क्यों?
-किसके घर?
- अपने घर और किसके घर?
-आपका घर कहां है?
-लोखंड वाला में।
बब्बू चुप हो गया है। उसे सूझ नहीं रहा कि बात को आगे कैसे बढ़ाये। कभी किसी से उसने इतनी और इस तरह की बातें की ही नहीं हैं।
वह कुछ सोच कर अपने आप ही कहने लगता है - मेरा घर तो बहुत दूर है।
- कहां है तुम्हारा घर मेरे बच्चे? उन्हें उम्मीद की कुछ किरणें नज़र आयी हैं।
-पता नहीं। बच्चे ने एक बार फिर उन्हें मझधार में छोड़ दिया है।
- अच्छा वो आदमी कौन था जो तुम्हें अस्पताल में छोड़ गया था?
- मुझे नहीं पता।
- अच्छा इतना तो पता होगा कि तुम कहां रहते थे और किसके साथ रहते थे?
- दोस्तों के साथ।
- कहां ?
- पुल के नीचे।
-जगह याद है?
- नहीं।
- कोई खास बात याद है उस पुल के बारे मे?
- उधर मच्छर बहुत थे। रात भर काटते रहते थे।
- बंबई आये कितने दिन हुए होंगे तुम्हें?
- पता नहीं।
- खाना कहां खाते थे?
- कहीं भी खा लेते थे।
- सारा दिन क्या करते रहते थे?
- कुछ भी नहीं ।
- तुम्हारे वो दोस्त कहां मिल गये थे जिन्हें तुम्हें रोज याद करते थे?
- वहीं पुल के नीचे।
- क्या करते थे वो लोग?
- सब अलग अलग काम करते थे।
- तो तुम्हारा ख्याल कौन रखता था?
- सब रखते थे।
- खाना पीना?
- सब मिल कर खाते थे।
- तो तुम क्या करते थे?
- कुछ नहीं, मैं तो बहुत छोटा हूं ना.. ..।
-लेकिन हो उस्ताद। छोटू उस्ताद।
- मैं उस्ताद थोड़ी हूं।
-अच्छा, अपने घर की याद है तुम्हें?
-हां।
- कौन कौन हैं तुम्हारे घर में ?
-बाबू, अम्मा, दीदी.. भाई..।
- तुम बंबई में कैसे आ गये ?
- ट्रेन में।
- कब की बात है ?
- पता नहीं ।
- तुम लोग बंबई क्या करने आ रहे थे?
- शादी में।
- और कौन थे साथ में?
- सब थे।
- तो तुम उनसे अलग कैसे हो गये?
- पता नहीं।
- तुम्हारे मां बाप तुम्हें ट्रेन में छोड़ गये थे क्या?
- मुझे क्या पता।
- तुम कितने भाई -बहन हो?
- चार।
- अच्छा .. ..। तो तुम्हें बिलकुल याद नहीं है कि कहां पर है तुम्हारा घर ?
- बहुत दूर।
- लेकिन कहां?
- गांव में।
- गांव का नाम याद है?
- ज्वालापुर।
- और स्कूल का ?
- आदर्श स्कूल।
- और पिता जी का नाम?
- बाबू ।
- और मां का ?
- पता नहीं ।
- बाबू क्या करते हैं?
- दुकान है।
- तुम्हें तो बेटे कुछ भी अच्छी तरह याद नहीं या पता नहीं। ऐसे में अपने घर कैसे जाओटगे?
- पता नहीं।
- अपने बाबू अम्मा से कैसे मिलोगे?
- पता नहीं।
बब्बू इतने सारे सवालों से थक गया है। और फिर उसे अपने घर की भी याद आने लगी है। उसने अपनी अंाखें मूंद ली हैं। मिसेज राय भी समझ रही है कि उससे इतने सारे सवाल एक साथ नहीं पूछने चाहिये थे।
वे उसे चुप ही रहने देती हैं।
अचानक बब्बू ने आंखें खोली हैं - आंटी आप क्या करती हैं?
- क्यों बेटे?
- वैसे ही पूछा, आपकी गाड़ी बहुत अच्छी है। ठंडी ठंडी।
- तुम्हें अच्छी लगी?
- हां, आप भी।
- अरे बाप रे, हम भी तुम्हें अच्छे लगे, भला क्यूं ?
- आप रोज आती थी हमसे मिलने। इत्ती सारी चीजें लाती थीं और मारती भी नहीं थी।
- मैं क्यूं मारने लगी तुम्हें मेरे बच्चे ? तुम तो इतने प्यारे, इतने अच्छे बच्चे हे, भला कोई तुम्हें क्यों मारने लगा ?
- बाबू नहीं मारते थे। अम्मा मारती थी, दीदी, भइया मारते थे।
- बहुत खराब थे वो लोग। तुम्हें तो कोई मार ही नहीं सकता।
तभी उन्होंने ड्राइवर से कहा है - ड्राइवर, जरा सामने रेडीमेड कपड़ों की दुकान के आगे गाड़ी तो रोकना। अपने राजा बाबू के लिए कुछ कपड़े तो ले लें।
- मैं क्या करूंगा कपड़े? बब्बू ने अपना जिक्र सुन कर पूछा है।
- क्यों कपड़ों का क्या करते हैं?
- पहनते हैं। मैंने भी तो पहने हुए हैं।
- तुम इतने दिन से अस्पताल में थे ना, अब घर जा रहे हो इसलिए अच्छे कपड़े तो चाहिये ही ना। और खिलौने भी। बोलो कौन सा खिलौना पसंद है?
- हम घर पर खिलौनें से थोड़े ही खेलते थे।
- तो किस चीज से खेलते थे मेरे बच्चे ?
- वैसे ही खेलते रहते थे।
- बहुत भोले हो तुम बेटे, बच्चें के तो खिलौनों से खेलना ही चाहिये। है ना ?
गाड़ी एक स्टोर के सामने रुकी है। मिसेज राय बच्चे को ड्राइवर के साथ वहीं कार में ही छोड़ कर भीतर जा कर बच्चे के लिए ढेर सारे कपड़े और खिलौने ले कर आयी हैं।
कार में आते ही उन्होंने ड्राइवर से कहा है - अब सीधे घर चलें। हमारे बेटे को भी आराम करना चाहिये। है ना मुन्ना? वे उसकी तरफ देख कर पूछती हैं।
वह सिर हिलाता है।
गाड़ी लोखंड वाला कॉम्पलैक्स में एक बहुत ही बड़ी और भव्य इमारत के आगे रुकी है। वे बच्चे को आराम से नीचे उतारती हैं। दोनें लिफ्ट तक आते हैं। बच्चा हैरानी से सारी भव्यता देख रहा है। उसके लिए ये दुनिया बिलकुल अनजानी और अनदेखी है।
लिफ्ट आने पर दोनों भीतर आये हैं।
बच्चा लिफ्ट में पहली बार आ रहा है और हैरानी से पूछता है - आंटी, ये कमरा क्या है ?
वे हंस कर बताती हैं - बच्चे ये कमरा नहीं है। ये लिफ्ट है। इससे ऊपर जाते हैं।
- अच्छा ये लिफ्ट है। टीवी पर एक बार पिक्चर में देखी थी।
वे अपनी मंजिल पर पहुंच गये हैं।
वे एक दरवाजे की घंटी बजाती हैं। दरवाजा बाइ ने खोला है। वे उसे ले कर भीतर गयी हैं।
नौकरानी ने उनके हाथ से सामान ले लिया है और बच्चे को देख कर कहती है - हाय, किती छान मुलगा आहे। किसका है मेमसाहब?
वे गर्व से बताती हैं - हमारा मेहमान है। अभी हमारे साथ ही रहेगा और सुनो, ये बाबा बीमार है। इसके लिए हलका खाना बनाना। पूरा ख्याल रखना इसका। ठीक ..।
- ठीक है मेमसाहब। उसके हाथ बच्चे के गाल सहलाने के लिए मचलते हैं लेकिन वह खुद पर कंट्रोल करती है। बहुत मौके आयेंगे इसके। वह चुपचाप भीतर सामान रखने चली गयी है।
अपने कमरे में जाते ही उन्होंने बच्चे को भींच कर अपने सीने से लगा लिया है। वे ज़ोर ज़ोर से रोने जा रही हैं। वे उसे भींचे भींचे - मेरे लाल, मेरे लाल कहे जा रही हैं। उन्हें रोते देख बच्चा घबरा गया है और वह भी रोने लगा है।
- आंटी आप रो क्यों रही हो?
- अरे पागल, मैं रो कहां रही हूं, ये तो .. ये तो.. खुशी के आंसू हैं।
- आंटी, खुशी के आंसू कैसे होते हैं।
- बहुत सवाल करता है रे। आदमी जब बहुत खुश होता है ना, तब भी रोता है।
- मैं तो जब भी रोता हूं तो खुशी के आंसू थोड़े ही आते हैं। जब गिर जाता हूं या भूख लगती है तो मैं तो सचमुच रोता हूं। आंटी, आपको चोट लगती है तो आप रोती हैं क्या?
- पगले, बड़ों को जब चोट लगती है ना.. तो वो चोट नजर नहीं आती। बस, पता चल जाता है कि चोट लग गयी है। समझे बुद्धू राम ..।
- नहीं।
- तू नहीं समझेगा मेरे लाल। आ मैं तुझे समझाती हूं।
उसे ले कर एक तस्वीर के सामने ले कर आती हैं, लगभग पांच साल के एक गदबदे बच्चे की तस्वीर है। मुस्कुराते हुए बच्चे की तस्वीर।
- आंटी, ये किसकी तस्वीर है?
- बेटे, ये मेरे पोते की तस्वीर है।
- पोता क्या होता है?
- अरे बाप रे, कैसे बताऊं कि पोता क्या होता है। अच्छा देख। तू बेटा तो समझता है ना। जैसे तू अपने बाबू का बेटा है।
- हां।
- तो जो तेरा बेटा होगा ना वो तेरे बाबू का पोता होगा।
- मेरा बेटा कैसे होगा? मैं तो इतना छोटा सा हूं।
- अरे जब तेरी शादी होगी तब तेरा बेटा होगा ना वो तेरे बाबू का पोता होगा। समझे?
- नहीं समझा।
- कोई बात नहीं। ये मेरे पोते की तस्वीर है।
- क्या नाम है आपके पोते का?
- मेरे पोते का नाम है रिक।
- आंटी ये कैसा नाम है रिक?
- बेटे, जहां वह रहता है वहां ऐसे ही नाम होते हैं।
- कहां रहता है वह?
- फ्लोरिडा में।
- ये कहां है?
- बहुत दूर। सात समंदर पार।
- आंटी समंदर क्या होता है?
- समंदर माने, समंदर माने.. चलो, एक काम करते हैं, तुझे शाम को समंदर दिखाने ले चलेंगे। अपने आप देख लेना।
- आप उसे अपने पास क्यों नहीं रखतीं आंटी?
वे फिर से रोने लगी हैं - पगले मैंने उसे आज तक देखा ही नहीं है। कितनी अभागी हूं। मेरा पोता पांच साल का हो गया और आज तक मैंने उसे देखा ही नहीं। पास रखने का बात तो दूर है। कभी कभी फोन पर उसकी आवाज सुन लेती हूं तो मेरे कलेजे में ठंडक आ जाती है।
- आपने उसे देखा क्यों नहीं है आंटी?
- मेरा बेटा कभी उसे यहां ले कर आया ही नहीं।
- क्यों ?
- उसके पस टाइम ही नहीं है। वह खुद भी अब यहां नहीं आता।
- क्यों नहीं आता?
- इन सारे सवालों का जवाब मेरे पास नहीं है बेटे। होता तो क्या तुझे अपने सीने से लगा कर रोती पगले।
बच्चा समझ नहीं पाता इतनी सारी बातें और उनके बंधन से अपने आप को मुक्त कर लेता है। अब अलग होने के बाद उसका ध्यान घर पर, वहां रखे इतने सारे सामान पर और शानो शौकत पर गया है। उसने पूरे घर का एक चक्कर लगाया है और लौट कर उनके पास वापिस आया है।
- आंटी इतने बड़े घर में आप अकेली रहती हैं?
सिर हिला कर बताती हैं - हां।
- आपको डर नहीं लगता?
- लगता है।
- किससे ?
- बेटे, एक डर हो तो बताऊं। कभी अपने आपसे डर लगता है तो कभी अपने अकेलेपन से डर लगता है। कभी अपने बुढ़ापे से डर लगने लगता है। बोल तू मेरे साथ यहां रहेगा मेरा डर दूर करने के लिए?
- मेरे रहने से आपका डर दूर हो जायेगा आंटी?
- तू नहीं जानता मेरे बेटे तू कितना प्यारा है तेरे यहां रहने से इस घर का सारा अंधेरा दूर हे जायेगा।
- आंटी आप जोक मारती हैं। घर में अंधेरा कहां है। इतनी रोशनी है।
- हां बेटे, बाहर से ही तो रोशनी नजर आती है। भीतर का अंधेरा ऐसे ही थोड़ी नजर आता है। बोल ना रहेगा मेरे पास। मैं तुझे खूब पढ़ाऊंगी। अच्छे स्कूल में तेरा एडमिशन कराऊंगी। तू खूब पढ़ लिख कर फिर मेरी मदद करना। मेरा डर दूर करना। करेगा?
- लेकिन मेरे दोस्त ?
- दोस्त तो ठीक हैं बेटे लेकिन हम उन्हें ढूंढें कहां ? तुम्हें सिर्फ पुल के अलावा कुछ भी तो याद नहीं? कितना अच्छा होता तुम्हारे मां बाप भी मिल जाते।
- लेकिन मैं दोस्तों के पास ही जाऊंगा।
- अच्छा एक काम करते हैं। तुम जरा ठीक हो जाओ तो बंबई में जितने भी पुल है हम सब जगह जायेंगे और तुम्हारे दोस्तों का पता लगायेंगे। चलोगे न हमारे साथ?
- चलूंगा। आंटी कबीरा मेरा बहुत ख्याल रखता है। और फिर मोती भी तो है। मैं आपको सबसे मिलवाउंगा।
-ये मोती कौन है?
- आंटी मोती हमारा कुत्ता है। बहुत सयाना है। झट से बता देता है कि दोस्त कौन है और दुश्मन कौन।
- अरे वाह कैसे बता देता है भाई ?
- आंटी, वे जब किसी को देख कर सिर हिलाये तो इसका मतलब है कि वो दोस्त है और जब किसी को देख कर भौंकना शुरू कर दे तो इसका मतलब है कि सामने वाला दुश्मन है।
- अरे वाह, ये तो बहुत मजेदार बात है। हमें मिलवायेगा तू मोती से?
- हां आंटी और एक गप्‍पू भी है हमारे साथ। हर समय उसकी निकर नीचे उतरती रहती है। खूब मजा आता है।
- अरे वाह, चल बेटे अब तू आराम कर ले जरा। मैं भी कुछ काम धाम निपटा लूं। जब भूख लगे तो मुझ्टा या माया आंटी को बता देना। ठीक है। लो इस कमरे में आराम करो, ठीक है। बाद में बात करेंगे।
- अच्छा आंटी।
- अब से तुम इसी कमरे में रहोगे।
- ये इत्ता बड़ा कमरा मेरे अकेले के लिए?
- क्यों? डर लगता है क्या?
- नहीं। ठीक है आंटी।
मुन्ना लेट तो गया है लेकिन उसे नींद नहीं आ रही। ये सारी चीजें, यहां का माहौल और तामझाम उसकी कल्पना से परे हैं। वह उठ बैठा है। वह पूरे घर में घूम घूम कर देख रहा है। सारी चीजें उसके लिए नई हैं और उसने पहले कभी नहीं देखी हैं। वह कभी स्टीरियो देखता है तो कभी रंगीन टैलिफोन। कभी कभी तस्वीरें देखता है और मूर्तियां। जब चारों तरफ की चीजें देख चुका तो वह आंटी के दिये खिलौने अकेले खेलने लगा। वह देर तक अकेले बैठे उन सारे खिलौनों को उलटता पलटता रहा। उसकी दिक्कत ये है कि ज्यादातर खिलौने या तो बैटरी वाले हैं या उन्हें चलाना उसके बस में नहीं। थक हार कर उसने सारी चीजें एक तरफ सरका दी हैं।
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मिसेज राय बच्चे को जुहू घुमा कर लायी हैं। उसने अपनी ज़िंदगी में पहली बार समुद्र देखा है। बेशक वह तीन महीने से मुंबई में भटक रहा था लेकिन पता नहीं कैसे वह समुद्र तक पहुंच नहीं पाया। उसे कोई भी उस तरफ नहीं ले कर गया। वह समुद्र से मिल कर बहुत खुश हुआ और पानी में खूब अठखेलियां की उसने। बेशक मिसेज राय डर रहीं थी कि बच्चा अभी ही तो बीमारी से उठा है, कहीं समुद्र की ठंडी हवा उस पर कोई असर न कर दे, लेकिन बच्चा मस्त हो कर पानी से खूब खेलता रहा। वह कभी लहरों से दूर भागता तो कभी पानी के एकदम पास जाना चाहता। मिसेज राय ने खुद भी उसके साथ झूले में बैठीं, घोड़ा गाड़ी की सवारी की और गुब्बारे ले कर उसे साथ साथ गीली रेत पर दौड़ती रहीं। उन्होंने अरसे बाद अपने आप को पूरी तरह से भूल कर, बच्चे के साथ बच्चा बन कर एक नया अनुभव लिया।
घर पहुंच कर बच्चा बिफर गया है। उसे अपने दोस्तों की याद आ गयी है। वह रुआंसा हो गया है - आंटी, मुझे कबीरा के पास जाना है।
मिसेज राय की परेशानी बढ़ गयी है - देखो बेटे, अभी तुम्हारी तबीयत पूरी तरह से ठीक नहीं हुई है। अभी तो कुछ दिन तुम्हें दवा खानी है। हम तुम्हें इस तरह से बाहर नहीं भेज सकते। एक काम करते हैं हम। कल हम गाड़ी में जा कर पूरे शहर में कबीरा को खोज निकालेंगे। तब हम उसे कहेंगे कि तुमसे रोज मिलने आया करे या हम ड्राइवर से कह देंगे वह कबीरा को ले आया करेगा।
बच्चे को आशा की किरण दिखी है - मोती को भी लायेगा?
बच्चे को इतनी आसानी से मान जाते देख मिसेज राय सहज हो गयी हैं। लपक कर आश्वस्त किया है उसे - ठीक है मोती को भी लायेंगे। बस, अब तुम आराम करो बेटे। इतनी देर पानी में खेले तुम।
लेकिन बच्चे की लिस्ट अभी पूरी नहीं हुई है - गप्पू को भी ?
मिसेज राय को यह शर्त भी महंगी नहीं लगी- ठीक है गप्पू को भी, हम भी देखें कि उसकी नेकर कैसे नीचे उतरती है। चलो अब आप आराम करो। आपकी दवा का भी टाइम हो रहा है।
अब बच्च अपने सवालों की दुनिया में वापिस आ गया है। पूरी शाम जुहू पर जो सवाल पूछता रहा, फिर से उसके ध्यान में आ गये हैं - आंटी, समुद्र में इतना पानी कहां से आता है?
मिसेज राय ने उसे समझाने की कोशिश कर रही हैं - अरे बेटा, तुम अभी भी वहीं अटके हो। देखो ऐसा है कि समुद्र में पहले से ही इत्ता सारा पानी है।
- आंटी, समुद्र सब जगह क्यों नहीं होता?
- अगर समुद्र सब जगह होगा मेरे भोले बेटे तो हम रहेंगे कहां?
- सब जगह पानी रहेगा तो कित्ता मजा आयेगा, पानी में खेलते रहेंगे हम।
- तो स्कूल कब जायेंगे, काम कब करेंगे और दवा कब खायेंगे नटखट राम जी?
- हम दवा नहीं खायेंगे, कड़वी लगती है।
- दवा नहीं खाओगे तो ठीक कैसे होवोगे, बोलो, तब कबीरा और गप्पू के साथ कैसे खेलोगे। उन्होंने उसे ब्लैकमेल किया है।
- ठीक है खाऊंगा। वह अपने ही फंदे में फंस गया है।
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सवेरे का समय है। वह सो रहा है। मिसेज राय ऑफिस जाने की तैयारी कर रही हैं। उसके पास आ कर प्यार से वे उसे चूमती हैं।
नौकरानी को आवाज देती हैं - माया, सुनो, हमें शाम को वापिस आने में देर हो जायेगी। बच्चे का पूरा ख्याल रखना। मैं बीच बीच में फोन करती रहूंगी।
- ठीक है मेम साहब
- जब बच्चा जग जाये तो उसे गरम पानी से नहला देना। उसे अपने आप खेलने देना। खाना वक्त पर खिला देना।
- अच्छा मेम साहब
- बच्चे को टाइम पर दवा दे देना। मालूम है ना कौन सी गोली देनी है।
- मालूम।
मिसेज राय एक बार फिर बच्चे के गाल चूम कर जाती हैं।
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बच्चे ने जागने के बाद सबसे पहले पूरे घर में आंटी को ढूंढा है।
कहीं नहीं मिलीं उसे। रुआंसा हो गया है वह। उसे रसोई में माया नजर आयी हैं। अब वह उसे भी पहचानने लगा है – आंटी कहां है?
- काम पे गयी मेम साब।
- कहां ?
- आपिस।
- आपिस क्या होता है?
- आपिस माने कचेरी।
- कचेरी क्या होता है?
- वो सब हमको मालूम नईं। मेमसाब रोज जाता आपिस। शाम कू आता। बाबा, तुम दूध पीयेंगा अब्भी। फिर तुम नहा कर खेलना।
- आज कबीरा आयेगा?
- हां, मेमसाहब बेला कि ड्राइवर जा के कबीरा को खोजेंगा और फिर मुन्ना बाबा और कबीरा एक साथ खेलेंगा।
बच्चा खुश हो गया है। अब उसे आंटी नहीं चाहिये - मोती भी आयेगा ना?
- हां मोती भी आयेगा।
लेकिन माया के आश्वासन के बावजूद कबीरा नहीं आया है। वह कई बार बाल्कनी में, बड़े वाले कमरे में और पूरे घर में टहलते हुए अपने दोस्तों का इंतजार कर रहा है। ड्राइवर भी अब तक वापिस नहीं आया है। उसे बेशक स्नान कर लिया है, दूध पी पी लिया है, दवा भी खा ली है लेकिन उसका ध्याल लगातार दरवाजे पर ही लगा रहा है और एक पल के लिए भी वह आराम नहीं कर पाया है। माया के बार बार कहने के बावजूद वह सोने के लिए तैयार नहीं हुआ है। कहीं ऐसा न हो कि कबीरा वगैरह आयें और उसे सोया पा कर लौट जायें।
वह अकेले बोर हो रहा है। सारे कमरे में खिलौने बिखरे पड़े हैं। वह कभी बालकनी में जा रहा है और कभी भीतर आ रहा है। उसका मूड बुरी तरह से उखड़ा हुआ है। वह इस बीच कई बार रो चुका है। उसे समझ में ही नहीं आ रहा कि क्या करे।
तभी फोन की घंटी बजी है। उसे समझ नहीं आता कि फोन की आवाज सुन कर क्या करे। उसे फोन उठाना नहीं आता। तभी लपकती हुई माया आयी है और उसने फोन उठाया है। वह फोन सुनते हुए लगातार हा हा कर रही है। फिर उसने उसे बुलाया है - बाबा मेमसाहब का फोन है। आप से बात करेंगा।
बच्चा फोन लेता है लेकिन समझ में नहीं आता उसे कि कैसे पकड़ना है। माया उसे बताती है और कहती है - हैलो बोलने का।
- हैलो, आंटी आप जल्दी आओ। कबीरा नहीं आया।
मिसेज राय उसे बताती हैं - हम जल्दी आयेंगे बेटा। तुम आराम करो। ठीक है।
- ठीक है। फोन माया को लौटा देता है।
**
बच्चे का मूड बुरी तरह बिगड़ा हुआ है। वह ज़ोर ज़ोर से रोये जा रहा है। माया उसे कभी गोद में उठा कर चुप कराने की कोशिश करती है तो कभी खिलौने दे कर बहलाना चाहती है लेकिन बच्चा है कि एकदम बिफर गया है और किसी भी तरह से काबू में नहीं आ रहा है। माया इस बीच कई बार कोशिश कर चुकी है कि मेमसाहब को फोन पर बताये कि बच्चा किसी भी तरह से काबू में नहीं आ रहा है, वह करे तो क्या करे लेकिन वे किसी मीटिंग में हैं और उन तक वह कैसे भी करके संदेश नहीं दे पा रही। आज तक उसके सामने ऐसी स्थिति नहीं आयी थी। उसने कभी अपनी तरफ से मेम साहब को फोन ही नहीं किया है।
माया उसे बहलाने की कोशिशें कर रही है लेकिन उसे समझ में नहीं आता कि क्या करें। तभी माया ने उसे पैंसिल और कागज ला कर दिया है। बच्चा उस पर आड़ी तिरछी रेखायें खींचने लगा है। कुछ देर के लिए वह बहल गया है। ये देख कर माया की जान में जान आयी है। वह रेखाएं खींच रहा है। कभी गोल, कभी सीधी। उसका मन बहल गया है और वह अब उसी में मस्त है। कागज रंगते रंगते उसे नींद नींद आ गयी है और वह वहीं सो गया है।
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वह बालकनी में खड़ा है। नीचे पार्क में बच्चे खेल रहे हैं। वह थोड़ी देर उन्हें खेलते देखता रहता है। फिर माया से पूछता है - मैं नीचे खेलने जाऊं।
- जाओ बाबा, लेकिन जल्दी आ जाना।
माया उसके कपड़े बदलती है और जूते पहनाती है और उसके लिए दरवाजा खोल देती है।
माया को नहीं मालूम कि यह बच्चा इस दुनिया का नहीं है। वह जहां से आया है, वहां लिफ्ट, बहुमंजिला इमारतें, चिल्डर्न पार्क और ये सारे ताम झाम नहीं होते। वह बच्चा इस दुनिया में खुद नहीं आया, बल्कि लाया गया है और उसे कई सारी चीजों के बारे में बिलकुल भी नहीं पता।
माया ने तो ये देखा कि बच्चा घर में बैठे बैठे बोर हो रहा है तो थोड़ी देर नीचे खेल कर लौट आयेगा। माया को ये बात सूझ ही नहीं सकती कि बच्चे को खुद नीचे ले जाये और अपने सामने थोड़ी देर तक खिला कर वापिस ले आये।
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वह थोड़ी देर तक लिफ्ट के आगे खड़ा रहता है लेकिन उसे समझ में नहीं आता कि इसे कैसे खोले। इधर माया ने भी दरवाजा बंद कर दिया है। उसे डोर बैल के बारे में पता है लेकिन उस तक उसका हाथ नहीं पहुंचता। वह तीन चार बार हौल हौले से दरवाजा थपकाता है लेकिन भीतर काम कर रही माया तक आवाज नहीं पहुंचती।
वह धीरे धीरे सीढ़ियां उतरने लगता है।
वह बच्चों के पार्क में पहुंच गया है और उन्हें खेलता हुआ टुकुर टुकुर देख रहा है। वैसे भी वह उन बच्चों के सामने अपने आपको बौना महसूस कर रहा है। धीरे धीरे वह सामने आता है लेकिन तय नहीं कर पाता कि कौन सा खेल खेले या किस खेल में शामिल हो जाये। अचानक एक गेंद लुढ़कती हुई उसके पैरों के पास आती है और वह उसे उठा कर एक लड़के को दे देता है। पता नहीं कैसे होता है कि वह भी उनके खेल में शामिल हो जाता है। उसे अपना लिया गया है और उसे अच्छा लगने लगता है। वह सब कुछ भूल कर खूब मस्ती से खेल रहा है।
काफी देर तक वह उनके साथ खेलता रहता है।
इस बीच अंधेरा घिरने लगा है और सारे बच्चे अकेले वापिस जा रहे हैं या अपनी अपनी आयाओं, बहनों, माताओं के साथ लौट रहे हैं।
वह भी खेल कर थक गया है और वापिस लौटना चाहता है।
वह कदम बढ़ाता है, लेकिन उसे याद ही नहीं आता कि वह किस बिल्डिंग में से निकल कर आया था। कभी एक बिल्डिंग की तरफ जाता है और कभी दूसरी की तरफ। वह लड़खड़ा रहा है, और घबरा कर रोने लगा है। वह अपना घर भूल गया है। वह रोते रोते भटक रहा है और अपनी इमारत से काफी दूर आ गया है।
अंधेरा पूरी तरह घिर चुका है।
सड़क पर रोता हुआ अकेला बच्चा चला जा रहा है।
बच्चा वापिस सड़क पर आ गया है।
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सूरज प्रकाश