आँख मिचौली
कैंप डायरी
पहला दिन
जिस जगह हमने कैंप लगाया है, वह समतल जमीन का एक छोटा–सा टुकड़ा है। नीचे की तरफ पहाड़ी नाला और ऊपर की तरफ सड़क। आसपास ऊबड़–खाबड़ जमीन है जिस पर बेतरतीबी से जंगली झाड़ियाँ उगी हुई हैं। हालाँकि हमें यहाँ सिर्फ सात दिन रहना है, फिर भी सारे टैंट कैंप प्लान के हिसाब से ही लगाए गए हैं। एक सिरे पर मेरा टैंट, उसके बाद सहायक कैंप अधिकारी घंटसाल का टैंट, फिर सर्वेयरों के, दो–दो सर्वेयरों के लिए एक–एक। कैंप के दूसरे सिरे पर अर्दलियों, खानसामों वगैरह के टैंट हैं। मैं अपने टैंट में बैठा–बैठा पूरे कैंप की गतिविधियों पर निगाह रख सकता हूँ।
आज का सारा दिन शिफ्टिंग में निकल गया है। हैडक्वार्टर से सत्तर किलोमीटर की यात्रा, सामान से भरे चार फाइव टनर तथा तीन जीपें। सामान उतारते–उतारते और कैंप लगाते–लगाते शाम हो गयी थी। हालाँकि हमने गाँव के पटेल से कहा भी था कि बोझा उठा सकने वाले हट्टे–कट्टे आदमियों का ही इन्तजाम करें, लेकिन उसने जो आदमी भेजे थे, वह बहुत ही मरियल किस्म के थे। अधनंगे, देखने में इतने कमजोर कि बरसों से कुछ खाया न हो। आँखों में याचक के से भाव। मैं साफ देख रहा था, लारियों से सामान उतारते–उतारते वे हाँफने लगते थे, लेकिन पता नहीं कौन–सी ताकत थी जो उनसे काम करवा रही थी। सचमुच पेट की आग बहुत अजीब होती है। आदमी से क्या कुछ नहीं करवा लेती! सोचता हूँ–पूरी कैंप अवधि के दौरान ऐसे ही मजदूर मिलते रहे तो खासी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा।
खाना खाने के बाद मैंने घंटसाल जी और ग्रुप सर्वेयरों को बुलाकर कल की पूरी डिटेलिंग कर ली है। हमें कितना एरिया कवर करना है और किस–िकस के कंट्रोल में सर्वे पार्टियाँ जायेंगी, उन्हें समझा दिया है। कैंप आफिसर के रूप में काम करने का आज मेरा पहला दिन है। इलाका भी मेरे लिए नया है। पहले कभी नहीं आया हूँ इस तरफ। वैसे यह सर्वे ज्यादा मुश्किल नहीं है। पिछले सर्वे के जो नक्शे हमारे पास हैं, उन्हीं का वेरिफिकेशन करना है। आठ जगह कैंप लगाने हैं और कुल 1500 वर्ग कि.मी. का एरिया कवर करना है। कुल मिलाकर चार महीने तक कैंप चलेगा। मुझे बीच–बीच में अलग–अलग टीमों का निरीक्षण करने के लिए जाना होगा। ज्यादातर दिन मुझे बेस कैंप में ही बिताने हैं। पचासों तरह के काम होंगे।
इस समय कैंप में सन्नाटा है। चारों तरफ पसरा अँधेरा वातावरण को और डरावना बना रहा है। साढ़े ग्यारह हो चुके हैं। आज का पन्ना यहीं खत्म करता हूँ।
दूसरा दिन
आज हम जिस इलाके में सर्वे करने गए, वह बहुत ही कठिन इलाका था। ऊबड़–खाबड़ रास्ते। बीच–बीच में पगडंडी भी खो जाती थी। कुल मिलाकर सात लोग थे हम। शुरू–शुरू में वैसे भी तकलीफ होती ही है। जो अर्दली थियोडोलाइट, पी.टी.स्टैंड और दूसरे सामान लेकर चल रहे थे, उनका पसीने के मारे बुरा हाल था। दोपहर के खाने के वक्त बहुत अजीब वाक्या हुआ।
उस वक्त तक पानी का हमारा सारा स्टॉक खत्म हो चुका था। खाने के समय न तो हमारे पास पानी बचा था और न ही कोई ढंग की जगह मिली जहाँ बैठकर हम ढंग से खाना खा सकें। अर्दली दूर–दूर तक पानी और छायादार जगह की तलाश में भटककर आ चुके थे। बहुत खोजने पर एक इकलौता पेड़ मिला। पास ही एक बावड़ी थी जिसमें पानी था। लेकिन बुरी तरह से सड़ाँध भरा। पेड़ के नीचे थी एक टूटी–फूटी कब्र। इस सुनसान जगह पर कब्र देखकर हम बहुत हैरान हुए थे। उसी कब्र पर बैठकर हमने खाना खाया। एक अर्दली बेचारा उस बदबूदार पानी को किसी तरह छानकर लाया। पानी मुँह के पास लाते ही उबकाई आने लगती, पर कोई चारा नहीं था उस वक्त।
फील्ड में पहले दिन का सारा रोमांच हवा हो चुका था हमारा। अभी तो यह पहला दिन था। पूरे चार महीने इसी तरह, कई बार इससे भी बदतर स्थितियों में काटने हैं। कैंप से हम लोग कम–से–कम आठ कि.मी. दूर थे उस वक्त। कैंप पहुँचकर ही हम ढंग से चाय–पानी पी सके थे।
लौटते–लौटते साँझ ढल आई थी। नहा–धोकर मैं यूँ ही आस–पास का एक चक्कर लगाने की नीयत से निकला था। अपने कैंप से थोड़ी ही दूर मैंने कुछ लोगों को देखा। पाँच–सात मर्द; लगभग उतनी ही औरतें और एक–दो बच्चे। वे बाँसों और चटाइयों की झोंपड़ियाँ खड़ी कर रहे थे। मैं बहुत हैरान हुआ, उन्हें इस तरह वहाँ पर घर बसाते देख। क्या प्रयोजन हो सकता है उनका यहाँ? सामान के नाम पर मुझे वहाँ गठरियों और बोरियों में भरे बर्तनों वगैरह के सिवा कुछ नजर नहीं आ रहा था। मेरी जानकारी के अनुसार वहाँ से निकटतम गाँव भी चार कि.मी.दूर था। मुझे खुद पर कोफ्त हुई स्थानीय भाषा न समझ पाने की वजह से। हिन्दी यहाँ के लोगों को उतनी ही समझ में आती है, जितनी मुझे यहाँ की भाषा। दो–चार काम चलाऊ शब्द। मैं दिमाग में कई प्रश्न लिए लौटा और सीधे घंटसाल जी के टैंट में गया। शायद वे कुछ बता सकें।
मेरा अंदाज सही था। जब मैंने उन्हें आस–पास हो रही गतिविधियों के बारे में बताया तो वे हौले से मुस्करा दिए, "तो वे लोग आ गए हैं।”
"कौन लोग हैं वे? ” मुझे हैरानी हुई थी। वे उनके बारे में पहले से जानते थे और उनके आने के बारे में भी उन्हें पता था।
"आप खुद ही देख लेंगे सर।” उन्होंने टालने के अन्दाज में कहा था।
"मुझे साफ–साफ बताइए घंटसाल जी, कौन हैं वे लोग और यहाँ निर्जन में बसने की क्या वजह हो सकती है?” मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी।
घंटसाल जी ने बहुत जोर देने पर भी कुछ नहीं बताया था। यही कहते रहे, "आप खुद ही जान जायेंगे एक–आध दिन में।” अपने टैंट में लौटकर भी मुझे चैन नहीं आया। मैं उनकी मौजूदगी के बारे में अपनी तसल्ली कर लेना चाहता था। तभी मुझे याद आया, मेरा खानसामा भी तो लोकल है। वह पहले भी आ चुका है यहाँ के कैंपों में। वह भी जानता होगा इनके बारे में। रात को जब वह खाना लेकर आया तो उसी से पूछा था मैंने।
पहले तो वह बताने को तैयार ही नहीं हुआ था। बहुत जोर देने पर और जरा धमकाने पर उसने जो कुछ बताया, वह सचमुच चौंकाने वाला था। वे धन्धा करने वाली औरतें थीं और उनके साथ के लोग भाई, रिश्तेदार या घरवाले, जो उन्हीं की दलाली करते हैं। खानसामा ने बताया था कि इस पूरे इलाके में बहुत गरीबी है। पेट भरना ही बहुत मुश्किल होता है। पानी न होने की वजह से ज्यादा खेती–बाड़ी होती नहीं। काम न होने से आदमी और भी नाकारा हो गए हैं। एक–दो रूपए मिल जाएँ कहीं से तो उसकी भी दारू पी लेते हैं। पेट की आग ही उन्हें यहाँ खींच लाई है। अब आगे–आगे हमारा कैंप होगा और पीछे पीछे उनका कैंप। हर साल ऐसा ही होता है, साब।
मेरा सर घूमने लगा था खानसामा की बात सुनकर। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। कहीं ऐसा भी हो सकता है। खानसामा की बातों पर यकीन करने को जी नहीं चाह रहा था।
मेरे यह पूछने पर कि उनके पास जाते कौन लोग हैं, तो उसने बताया था कि कैंप में पचास के करीब अर्दली, मैसेंजर, खानसामें और मजदूर वगैरह हैं। उन्हीं लोगों के सहारे चलेगी इनकी रोजी–रोटी अगले चार महीने तक। फिर उसने खुद ही बताया था कि कई चपरासी और खानसामे वगैरह इनके पक्के ग्राहक हैं। कई धंधेवालियाँ हर साल आती हैं और…वह कहते–कहते रूक गया था।
"और क्या?” जब मैंने पूछा था तो उसने सकुचाते हुए बताया कि कई अर्दलियों की उनके पास उधारी चलती है। कई–कई साल के पैसे बकाया हैं कुछेक लोगों पर। मैं दंग रह गया था। सपने में भी नहीं सोच सकता था कि इस धंधे में भी उधारी चलती होगी! खाता रखा जाता होगा! मैं और सुनने की स्थिति में नहीं था। खानसामा को जाने को कहकर यह डायरी लिखने बैठ गया था।
मुझे यहाँ का अर्थशास्त्र समझ में नहीं आ रहा है। यह तो मुझे पता था कि इस इलाके में गरीबी बहुत है, आय के कोई निश्चित साधन नहीं है। यहाँ के लोग हर साल लगने वाले कैंपों की बेसब्री से बाट जोहते हैं ताकि चार महीने तक तो जुगाड़ बना रहे दो वक्त की रोटी का। जिस गाँव के पास भी हमारा कैंप लगता है, वह गाँव मजदूरों, सब्जी, अंडे, दूध बगैरह की हमारी जरूरतें पूरी करता है। मुझे यह भी पता चला था कि हम जो मजदूरी यहाँ के मजदूरों को देते हैं, या जो खानसामें स्थानीय आधार पर रखते हैं, उन्हें भी पूरे पैसे नहीं मिल पाते। कुछ सर्वेयर या कैंप आफिसर खा जाते हैं और कुछ गाँव का पटेल हिस्सा मार लेता है। इस दोहरी मार की खबर तो थी। लेकिन शोषण के इस रूप का पता मुझे आज ही चला है।
मेरी समझ में नहीं आ रहा कि ये धंधेवालियाँ महीनों के लिए अपने घर–बार से बिछड़े जंगलों में पड़े इन चपरासियों वगैरह की शारीरिक भूख शांत करके उन पर अहसान कर रही हैं या ये लोग इन रंडियों को दो–दो, चार–चार रूपए देकर, उन्हें जिन्दा रहने लायक पैसे देकर उन पर अहसान कर रहे हैं। यह सब सोचते–सोचते मेरे माथे की नसें तड़कने लगी हैं। डायरी लिखना भारी पड़ रहा है।
तीसरा दिन
आज दिन भर व्यस्त रहा। टैंट से निकलने की फुर्सत ही नहीं मिली। शाम को थोड़ी देर के लिए टहलने के लिए निकल गया था। जानबूझकर उस तरफ नहीं गया। मैं उनके बारे में सोचना भी नहीं चाहता। मुझे सुबह ही रिपोर्ट मिल गई थी कि कल रात देर तक वहाँ जश्न होता रहा।
मैंने शाम को घंटसाल जी से बात की थी। उन्हें जब पता चला कि मुझे सब कुछ पता चल चुका है तो निश्चिंतता के भाव उनके चेहरे पर नजर आए। शायद वे मुझे कुछ बताने के धर्मसंकट से उबर गए थे। जब मैंने उनसे पूछा कि क्या इन लोगों को हमारे कैंप के आस–पास बने रहना गलत नहीं है तो उन्होंने कहा कि जब तक सब कुछ चुपचाप लचता रहता है। कोई कुछ नहीं कहता। कोई जतलाता भी नहीं कि किसे किस–िकस के बारे में खबर है। जब कोई दारू पीकर दंगा करता है तभी कैंप आफिसर को सख्ती से काम लेना पड़ता है। मैं साफ–साफ देख रहा था कि घंटसाल जी सारी स्थितियों को बहुत सहजता से ले रहे थे। मैं इस बात को जितनी गंभीरता से ले रहा था, वे उतनी ही उदासीनता दिखा रहे थे। जब मैंने उनसे कहा कि कुछ भी हो, यह सब गलत है। इसे इसी तरह कैसे चलने दिया जा सकता है। आखिर एक–दो दिन की बात नहीं। पूरे चार महीने वे इसी तरह हमारे पीछे लगे रहेंगे। अगर यह समांतर कैंप यूँ ही हमारे साथ लगा रहा तो हमारे स्टाफ पर बुरा असर पड़ेगा। मैं यह कहते–कहते उत्तेजित हो गया था। आखिर मैं कैंप लीडर हूँ। अपने कैंप के स्टाफ के प्रति मेरा भी कोई नैतिक दायित्व है।
लेकिन घंटसाल जी ने जरा भी उत्तेजित हुए बिना कहा, "सर कैंप कोई छोटे बच्चों का एनसीसी का कैंप नहीं है। सभी लोग कई–कई सालों से कैंप लाइफ जी रहे हैं। उन्हें अपने भले–बुरे का पता है। ज्यादातर लोग शादीशुदा हैं, और फिर यह सब कुछ पहली बार तो नहीं हो रहा है”, यह कहकर घंटसाल जी चले गए थे। मेरे सामने प्रश्नों का एक और पुलिंदा छोड़ के।
आज नींद नहीं आ रही है, अजीब उलझन है, सब कुछ गलत लग रहा है, पर स्थितियों पर मेरा बस नहीं है।
चौथा दिन
आज बेस कैंप चला गया था। मूड बुरी तरह उखड़ गया था। बात ही कुछ ऐसी थी, कल रात दो सर्वेयर वहाँ जाते देखे गए थे। दोनों फ्रेशर हैं, पहली बार कैंप आए हैं। काफी देर तक कशमकश में रहा, उन्हें बुलाकर कहूँ – कुछ तो अपनी पोजीशन का, हैसियत का ख्याल किया होता, वहीं मुँह मारने चले गए, जहाँ तुम्हारे अर्दली और रसोइये जा रहे हैं। पर हिम्मत नहीं जुटा पाया। जब कुछ नहीं सूझा तो जीप लेकर बेस कैंप चला गया था। जब चीफ सर्वेयर मिस्टर मल्होत्रा को मैंने यह सब बताया तो वे ठहाका लगाकर हँसे। मैं भौंचक–सा उनका मुँह देखता रह गया। उन्होंने जो कुछ बताया उससे मेरी उलझन और बढ़ गई। वे बोले थे – हर साल यह समस्या हमारे सामने आती है, हम कुछ नहीं कर पाते। पहली बात तो यह है कि आप अर्दलियों, मजदूरों से कुछ कह भी दें, अपने कलीग अफसरों का पानी तो नहीं उतार सकते। अब जब आते हैं तो जाएँ। अपना भला–बुरा उन्हें खुद सोचना है। आप ही को अपना सुधारात्मक रवैया बदलना पड़ेगा। हाँ, अगर कोई पी–पाकर हंगामा खड़ा करे तो आप कान खींच सकते हैं उसके।
बेस कैंप जाकर मेरी उलझन बढ़ी ही थी। लौटकर अजीब–सा अजनबीपन महसूस कर रहा हूँ। लग रहा है किसी गलत जगह आ गया हूँ। मैं इस माहौल के लायक नहीं हूँ। मेरे संस्कार बार–बार मुझे टहोका दे रहे हैं–रोवूँ यह सब, यह गलत है, इसे हटाया जाना चाहिए। पर इस गलत समीकरण को हटाने के लिए कौन–सा सही समीकरण मेरे पास है, इसका उत्तर मुझे नहीं सूझता। फिर सोचता हूँ–चलने दो सब कुछ। जब सभी को यही मंजूर है तो मैं क्यों सिर खपाऊँ अपना इस सबमें। लेकिन मन इसे भी मानने के लिए तैयार नहीं।
छठा दिन
कल डायरी भी नहीं लिख पाया, फील्ड में एक सर्वेयर का पाँव पथरीली ढलान पर रपट गया था। फ्रैक्चर की आशंका थी। उसे किसी तरह से लादकर कैंप तक लाया गया। कैंप में मैं ही अकेला आफिसर मौजूद था, सो उसे जीप में पास के शहर लेकर गया, एक्सरे, प्लास्टर और अस्पताल में भरती करने के चक्कर में रात हो गयी थी। कैंप में देर रात को लौटा था।
आज सुबह सैर के लिए जाते समय नाले के बहाव के साथ–साथ काफी दूर तक निकल गया था। वापसी में कैंप से थोड़ी दूर उन लोगों को नहाते, कपड़े धोते देखा। मैं एकदम उनके सामने पड़ गया था। मुझे आता देख वे सकपका गयी थीं। मैंने पहली बार उन्हें इतने नजदीक से देखा था। साधारण चेहरे मोहरे जो घटिया किस्म के मेकअप के कारण बहुत अजीब लग रहे थे। कपड़े भड़कीले लेकिन सस्ते और आधे–अधूरे। उनके चेहरों पर व्यवसायजनित बेशर्मी के हावभावों के बावजूद गरीबी सार्वजनिक रूप से घोषणा कर रही थी। मेरा मन वितृष्णा से भर गया था। रास्ता बदलकर चला आया।
आज एक और बात पता चली है मुझे। कैंप के कई लोग वहाँ जाते हैं, लेकिन हर आदमी की कोशिश रहती है कि उसे वहाँ आता–जाता कोई देखे नहीं। हर आदमी पूरी प्रायवेसी बनाए रखने की कोशिश करता है। यह भी पता चला है कि कैंप में शराब भी पहुँच गयी है, कौन लाया है और कौन–कौन पी रहे हैं, यह पता नहीं चल पाया है, वैसे अभी किसी ने हुड़दंग नहीं मचाया है, सवेरा होते ही सब बिलकुल चुस्त–दुरूस्त होकर निकल पड़ते हैं।
इस सबके बावजूद मैं अभी भी लगातार यही सोच रहा हूँ–गलत हो रहा है यह। इसे रोका जाना चाहिए। कहीं कुछ अप्रिय घट गया तो मैं खुद को माफ नहीं कर पाऊँगा।
सातवाँ दिन
कल यहाँ से शिफ्ट करना है। नया कैंप यहाँ से 16 किमी. उत्तर में है। वहाँ हम पाँच दिन रहेंगे। यह हफ्ता किसी तरह बीत गया है। उस प्रसंग को छोड़ दें तो कैंप आमतौर पर ठीक रहा है, कोई बड़ी समस्या नहीं आयी है। हमने अपने निर्धारित लक्ष्य पूरे कर लिए हैं। इलाके की तकलीफों के बावजूद टीम स्पिरिट बनी हुई है। जिस सर्वेयर के पैर में फ्रैक्चर हुआ था उसे तीन सप्ताह तक प्लास्टर लगाए बेस कैंप में रहना होगा। कल उसकी जगह एक और सर्वेयर ने ज्वाइन कर लिया है।
आठवाँ दिन
आज कैंप नम्बर दो में आ गए हैं। पहले से खुली और अच्छी जगह है। गाँव भी ज्यादा दूर नहीं है। अतः छोटी–मोटी चीजों के लिए मैसेंजर को बेस कैंप नहीं दौड़ना पड़ेगा। सब्जियों और दूध, अंडों की सुविधा हो गयी है। पिछला पूरा हफ्ता पाउडर की चाय पीते बीता है। कुछ साथियों ने टैंट खड़े करने के बाँसों के सहाने नेट लगाकर वॉलीबाल खेलने का इंतजाम कर लिया है। देर तक खेलते रहे। अच्छा लगा। कैंप की जिंदगी ऐसी ही होती है। दिन बीतने के साथ–साथ लोग एक दूसरे के नजदीक आते हैं। सभी अपने लायक साथी ढूँढ़ लेते हैं। फिर टैंटों में शतरंज या ताश की बाजियाँ चलती हैं। कुछ लोग गाते–बजाते रहते हैं।
आज एक सर्वेयर का जन्मदिन था। जंगल में मंगल मनाया गया। सभी अफसरों का खाना एक साथ बना। काफी देर तक महफिल जमी रही। बहुत दिनों बाद आज मेरा मूड सँभला, शायद इस वजह से भी कि आज आसपास उनका कैंप नहीं है।
नौंवाँ दिन
आज उनका कैंप भी आ पहुँचा। एक दो वुँ वारी वेश्याएँ और आ जुड़ी हैं उनके कैंप में। जी चाहता है चौकीदार को भेजकर तहस–नहस करवा दूँ उनके झोंपड़े या ड्राइवर से कह दूँ–दूर छोड़ आए उन्हें ट्रक में बिठाकर। मन ही मन भुनभुना रहा हूँ। क्या हमारे कैंप के लोगों ने ही ठेका ले रखा है उनका! कोई और जरिया क्यों नहीं ढूँढते? आखिर हमने आसपास के गाँवों के लोगों को काम पर लगाया ही है। अच्छे पैसे भी दे रहे हैं। वे निठल्ले लोग भी तो हमारे पास काम माँगने आ सकते थे। क्या यही तरीका रह गया है? कल का दिन कितना सुकून भरा था, आज फिर वही तनाव दिमाग की नसों पर आ बैठा है।
घंटसाल जी से फिर इस बारे में बहस हुई आज। वे अभी भी अपने पुराने तर्कों पर अड़े हुए हैं। उनकी गरीबी, मजबूरी की बात करते रहे। मुझे यहाँ का अर्थशास्त्र समझाने लगे। जब मैंने उनसे यह पूछा कि तुम्हारे शोषित वर्ग के निठल्ले या दलाल पति अपनी ही बीवियों, बहनों से धंधा कराके क्या उनका शोषण नहीं कर रहे हैं, तो इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था। मुझे तो लगता है कहीं घंटसाल जी खुद भी तो…
तेरहवाँ दिन
वही हुआ जिसकी बहुत पहले आशंका थी। कल डायरी लिखकर लेटा ही था कि यकायक कुछ शोर सुनायी दिया। कुछ अस्पष्ट आवाजें आ रही थीं। झगड़े, गाली गलौज की। चौकीदार को आवाजों की दिशा में दौड़ाया। तब तक कुछ और लोग भी जाग गए थे और उसी दिशा में टार्चें चमका रहे थे। मैं साफ–साफ समझ पा रहा था कि कोई कैंपवाला दारू पीकर वहाँ पहुँच गया होगा। वहाँ पैसों के लेन–देन या ऐसी ही किसी बात को लेकर जो कुछ हुआ होगा, उसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं था।
थोड़ी ही देर में चौकीदार और दूसरे लोग एक अर्दली को थामे हुए मेरे टैंट में लाए। वह बुरी तरह नशे में था। सिर पर गहरी चोट के निशान। कपड़े खून से लथपथ। इसके बावजूद वह अंट शंट बक रहा था। चौकीदार ने कुछ बताना चाहा लेकिन मैंने मना कर दिया। मैं जानता था, क्या हुआ होगा। उसे फर्स्ट एड बाक्स देकर अर्दली की मरहम पट्टी करने के लिए कह सबको विदा किया।
इससे पहले कि वह सवेरे माथे पर पट्टियाँ बाँधे हाथ–पैर जोड़ने मेरे पास आता, मैंने उसे तत्काल बेस कैंप और वहाँ से हैड–क्वार्टर वापिस भिजवाने के लिए रवानगी आदेश तैयार करवा लिया था।
चौदहवाँ दिन
आज हमें कैंप 2 से कैंप 3 में शिफ्ट करना था। करीब 15 किमी. उत्तर में। दस दिन में इस कैंप में कुछ अतिरिक्त सर्वे करने थे। सुबह जब सारा सामान ट्रकों और जीपों के ट्रेलरों में लादा जा चुका और सभी लोग गाड़ियों में बैठ गए तो मैंने आदेश दिया – हम इस समय कैंप 3 में न जाकर कैंप 8 में 55 किमी. दूर जा रहे हैं। कैंप नं.3 सबसे आखिर में लगाया जाएगा। और इस तरह हम यहाँ कैंप 8 में आ गए हैं।
मुझे सुकून है कि हमारे यहाँ आने की बात उन्हें मालूम नहीं हैं।
Monday, April 28, 2008
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2 comments:
भाई सूरज जी,
अपने बॉग में क्रमशः अपनी कहानियां सुरक्षित करके आप अच्छा काम कर रहे हैं. आपसे प्रेरणा लेनी होगी.
चन्देल
जी ये सही है कि इस उम्र में रोज तो रचा नहीं जाता, जो हे उसे ही तकनीकी सहारा ले कर सबके लिए सुलभ कर दिया जाये, खास कर जो घर बैठक एक साथ हमारी रचनाएं पढ़ना चाहें.
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