Friday, May 30, 2008

पन्‍द्रहवीं कहानी - क्या आप ग्रेसी राफेल से मिलना चाहेंगे?

चर्चगेट। मुंबई में पश्चिमी रेलवे में उपनगरीय ट्रेनों का अंतिम पड़ाव। आप जब वहां पहुंचेंगे तो स्टेशन के अहाते से बाहर निकलने के लिए तीन तरफ के लिए तीन चार रास्ते मिलेंगे। दायीं तरफ, बायीं तरफ और सामने, नाक की सीध में। सीधे चलने पर बायीं तरफ खुलने वाला रास्ता पश्चिमी रेलवे के मुख्यालय और फांउटेन की तरफ जाता है। वहीं एक तरफ कैमिस्ट की दुकान है, और स्टेशन के अहाते से बाहर आने के लिए तीन चार चौड़ी सीढ़ियां उतरनी पड़ती हैं। वहीं वे आपको नज़र आयेंगी। उम्र पचपन के आस पास। बिखरे हुए, खिचड़ी बाल। रंग गोरा और चेहरा साफ। कभी वे बहुत खूबसूरत रही होंगी लेकिन अब उनके चेहरे पर और पूरे शरीर पर लम्बी थकान की भुतैली छाया है। साड़ी पुरानी और अक्सर थिगलियां लगी हुई। पैरों में प्लास्टिक की चप्पलें। सामान के नाम पर उनके पास दो बड़े बड़े झोले हैं जिनमें पता नहीं क्या क्या अल्लम गल्लम भरा हुआ है। पास में एक मोटा सा सोंटा। कुत्ते भगाने के लिए। यही उनकी पूरी गृहस्थी है। पिछले बीस बरस से। और यही उनका ठीया भी है। इतने ही बरस से। सर्दी गरमी, बरसात, कोई भी मौसम हो, कोई भी समय रहा हो, दिन रात, आप उन्हें यहीं पर, हमेशा यहीं पर पायेंगे। अगर वे वहां नहीं भी होंती तो भी उनकी खाली जगह देख कर साफ महसूस होता है कि वे कहीं आस आस पास ही हैं और दो चार मिनट में ही लौट आयेंगी। अपने ठीये पर। वैसे भी उन्हें कहीं नहीं जाना होता। कहीं भी तो नहीं। कई बार हमारी गैर मौजूदगी ही हमारी मौजूदगी की चुगली खाने लगती है। हम किसी बंद दरवाजे की घंटी बजाते हैं तो घंटी की आवाज हमारे पास जस की तस लौट आती है और हम समझ जाते हैं कि घर में कोई भी नहीं है। और कई बार ऐसा भी होता है कि हम घंटी बजाते ही समझ जाते हैं कि अभी थ़ेडी ही देर में कोई जरूर ही दरवाजे तक आयेगा और हमारे लिए दरवाजा खोलेगा। कई बार ऐसा भी होता है कि हम किसी मरीज से तीसरी चौथी बार मिलने के लिए अस्पताल जाते हैं और उसका खाली, साफ सुथरा बिस्तर देख कर एक पल के लिए चौंक जाते हैं और तय नहीं कर पाते कि हमारा मरीज चंगा हो कर अस्पताल से रिलीव हो गया है या इस दुनिया से ही कूच कर गया है। हमारी असमंजस की हालत देख कर साथ वाले बिस्तर पर लेटा मरीज हमें संकट से उबारता है कि चिंता न करें, मरीज घर ही गया है। हमारी सांस में सांस आती है और हम वहां से लौट आते हैं।
तो मैं बात कर रहा था मिसेज ग्रेसी राफेल की। मिसेज ग्रेसी राफेल लगभग बीस बरस पहले जब पागल खाने से छूट कर आयीं थीं तो उनके सामने पूरी दुनिया थी लेकिन ऐसी कोई भी जगह नहीं थी जिसे वे अपना घर कह कर साधिकार जा सकतीं। रही भी होंगी ऐसी जगहें कभी, तो वे भी उनकी अपनी नहीं रही थीं। उनके दिमाग से सब नाम, रिश्ते, घर, मकान, शहर धुल पुंछ चुके थे और जो बाकी बचे भी थे, वहां उन्हें जाना नहीं था। आखिर वहीं से तो वे पागल खानों में भेजी गयी थीं। पता नहीं, वे भी बचे था या नहीं। अब उनके सामने पूरी दुनिया थी और अपना कहने को कोई भी नहीं था।
पागल खाने से बाहर आयी ठीक ठाक औरत कहां जाती और किसके पास जाती। सचमुच पागल होती तो सोचने की जरूरत ही नहीं थी, लेकिन वे पूरे होशो हवास में थीं और जानती थीं कि वे औरत हैं, अकेली हैं, अभी जवान हैं और बेसहारा है। शुरू शुरू में सुरक्षित और स्थायी ठीये की तलाश में इधर उधर भटकती रहीं। उस समय उनकी उम्र पैंतीस के आस पास थी। अलग अलग पागल खानों में सात आठ बरस गुजारने के बाद और तथाकथित रूप से पागल करार दिये जाने के बावजूद उनमें इतनी समझ बाकी थी कि वे कहीं भी रहें, दिन तो कैसे भी करके गुज़ारा जा सकता था लेकिन लावारिस, अकेली और जवान औरत के लिए घर से बाहर कहीं भी, खाली जगह में और सार्वजनिक जगह पर रात गुजारना कितना मुश्किल और संकटों से भरा और असुरक्षित हो सकता है, वे इस बारे में सतर्क और सचेत होने के बावजूद भटकती रही थीं। सब जगह एक ही डर था। वे कहीं भी सुरक्षित नहीं थीं। जुबान तो वे कब से खो चुकीं थीं। वे अकेले के बल बूते पर इस मोर्चे पर कुछ भी नहीं कर सकती थीं। वे कई दिन तक इधर उधर डरी सहमी बिल्ली की तरह भटकती रही थीं। अलग अलग ठिकानों पर गयी थीं। धर्मशालाओं में, स्टेशनों के प्लेटफार्मों पर लेकिन कहीं भी वे अपने आपको सुरक्षित नहीं पा सकी थीं। सब जगह देह नोचने और फाड़ खाने वाले ही तो थे। मौका मिलते ही अपने और उनके कपड़े उतारने लगते थे। ऐसे लोगों के लिए पागल, गरीब, बीमारी, बच्ची, बूढ़ी किसी में तब तक फर्क नहीं था जब तक वह मादा हो और नरपशु को तथाकथित यौन सुख देने की स्थिति में हो। पागल और भूखी मादा तो उनके लिए और भी बेहतर थी क्योंकि उसका विरोध का स्वर उसे दो रोटी दे कर बंद किया जा सकता था। जहां लोग बीमार, अपने तन की हालत से बेसुध नंगी घूम रही पागल औरतों तक को नहीं बख्शते थे और दो रोटी के लालच में उनके साथ पशुवत कुकर्म करके उन्हें गर्भवती तक बना डालते थे, मिसेज राफेल तो फिर भी जवान और खूबसूरत थीं। लोग उनके पीछे कुत्तों की तरह जीभ लपलपाते घूमते रहते। वे सुरक्षित नहीं थीं। कहीं भी नहीं। औरतों में बेशक एक प्राकृतिक जन्मजात गुण होता है कि किसी भी तरह के शारीरिक यौन हमले के संकेत उन्हें पहले से ही मिलने शुरू हो जाते हैं और वे सतर्क हो जाती हैं। पागल की सी हालत में होने के बावजूद सबसे बड़ी खिलाफ सबसे बड़ी बात यह थी कि वे औरत थीं, जवान थीं, अकेली थीं और हर समय घर से बाहर थीं, असहाय थीं, और इन सारी चीजों के चलते यह मान लिया जाता था कि वे पुलिसवालों के लिए, चोर उचक्कों के लिए, प्लेटफार्मों पर सोने वालों के लिए, कुलियों, उठाईगीरों के लिए, और निट्ठलों के लिए सर्वसुलभ थीं। वे रात रात भर सहमी सहमी गठरी बनीं जगती रहतीं और एक जगह से दूसरी जगह, शहर दर शहर भटकतीं फिरी थीं।
और आखिर उन्हें यही जगह सबसे मुफीद लगी थी। इसका कारण यह था कि चर्चगेट स्टेशन लगभग रात एक डेढ़ बजे तक जागता रहता था और दो ढाई घंटे की कच्ची पक्की नींद ले कर साढ़े तीन बजे तक सवेरे की सवारियां उठाने के लिए फिर जाग जाता और अपने काम धाम पर लग जाता था। वे अपने आपको यहां काफी हद तक महफूज समझ सकती थीं। बेशक शुरू शुरू में कई बरस तक वे यहां भी लगातार डरी हुई हालत में रात भर दुबकी बैठी रहती थीं। उस पर भी उन्हें चैन न लेने दिया जाता। वहीं खुले आसमान तले रहने को अभिशप्त बूट पालिश वाले, निठल्ले सारी रात उन्हें परेशान करते, उनका सामान बिखेर देते, लालच देते, धमकियां देते, मारते, उन पर पानी गिरा देते, उनका सारा का सारा सामान कई कई बार गायब कर देते, इधर उधर फैंक आते, रेलवे रिजर्व पुलिस वाले उन्हें बचाने के बजाये आये दिन उन्हें वहां से खद़ेड देते, या थाने ले जाने के बहाने उन्हें अंधेरे कोनों में ले जाने की फिराक में रहते ताकि बहती गंगा में खुद भी हाथ धो सकें। वे अपना सारा का सारा ताम झाम उठाये अपने आपको बचाने की हर चंद कोशिशें करतीं। उन्हें गालियां देतीं, शोर मचातीं और उनके आगे हाथ पैर जोड़तीं। सुनवायी कहीं नहीं थी। पुलिस वालों के जाते ही हौले हौले वहीं आ बैठतीं। शुरू शुरू में उन्हें सताने के आलम यह था कि उठाईगीरे उनका सामान उठा न लें जायें इस डर से उन्हें स्टेशन पर ही बने बाथरूम तक जाने के लिए दो चार मिनट के लिए ही सही, अपना सारा सामान अपने साथ ढो कर बाथरूम तक ले जाना पड़ता। बेशक वे खुद भी नहीं ही जानती होंगी कि इन बड़े बड़े थैलों में क्या भरा हुआ है और कब से भरा हुआ है। काम का है भी या नहीं, लेकिन अब ये सब उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुका है।
बाद में बाथरूम की भंगिनों ने जब उन्हें पहचान लिया और उनके अस्तित्व को वहां स्वीकार भी कर लिया तभी जा कर उनकी समस्याएं कुछ हद तक कम हुई थीं।
और इस बात में ही कई बरस बीत गये थे कि उन्हें चर्चगेट पर स्थायी रूप से रहने वाले लोगों के बीच नागरिकता दे दी गयी थी और लोग बाग उनकी मौजूदगी को सहज रूप से स्वीकार कर पाये थे। कई बार हमें पूरी उम्र लग जाती है अपने अस्तित्व को स्वीकार करवाने में। हम मौजूद होते हैं लेकिन देखने, जानने और महसूस करने के बावजूद हमारी मौजूदगी को हमेशा नज़रअंदाज़ किया जाता है। हम हैं या नहीं हैं लोग इस बात को अपनी सुविधा के अनुसार तय करते हैं। हमारी सारी कोशिशों के बावजूद।
वैसे तो वे हर समय ही फुर्सत में होती हैं। कभी बैठी होती हैं तो कभी लेटी, और कई बार सचमुच सो भी रही होती हैं। लेकिन जब वे अच्छे मूड में होती हैं, खास कर शाम के वक्त तो आप उन्हें किसी भी सुघड़ गृहिणी की तरह, अपने खुद के धोये कपड़ों की तह लगाते, हौले हौले कुछ गुनगुनाते देख सकते हैं। उनके सारे काम, दिनचर्या के सारे के सारे काम स्टेशन पर, यहीं पर पूरे होते हैं। वे वहीं नहाती धोती, खाती पीती, सोती जागती और अपने नित्यकर्म निपटाती हैं। इसके अलावा तो उन्हें और कोई काम होता ही नहीं है।
यह मुंबई की ही खासियत है कि यहां सारी चीजें एक बार तय हो जायें तो हमेशा वैसे ही चलती रहती है। बिना किसी व्यवधान के। बरसों बरस। भीख या दान या खैरात देने वाले और लेने वाले भी तय हैं। लोग बरसों बरस उन्हीं भिखारियों को या जरूरतमंदों को भीख देते चले आते हैं। लगभग उसी समय के आस पास आते हैं, सवेरे ऑफिस जाते समय या वापिस आते समय वे रुकते हैं, या गाड़ी रोकते हैं, और अपने तयशुदा भिखारी या जरूरतमंद को खाने के पैकेट, बिस्किट के पैकेट, वड़ा पाव या कुछ और चुप चाप दे कर आगे बढ़ जाते हैं। बिना कुछ भी बोले। ऐसा अरसे तक चलता ही रहता है।
ग्रेसी राफेल का गुज़ारा भी इसी तरह से चलता है। उन्हें चाय पिलाने वाले तय हैं। खाना खिलाने वाले तय हैं और उन्हें कपड़े लत्ते देने वाले भी तय हैं। कुछ लोग उन्हें नकद पैसे भी दे जाते हैं। वे बरसों से वहां हैं। लाखों लोग स्टेशन से रोजाना दोनों वक्त गुजरते हैं, उन्हें वहां देखते हैं। बिना आंखें मिलाये या बात किये भी उनकी मौजूदगी को स्वीकार करते हैं तो यह अहसास पनपने लगता है कि हम चीजों को एक समय के बाद जस का तस स्वीकार कर लेते हैं। ऑफिस जाने वाली महिलाएं जाते समय पुरानी साड़ियों, पुराने कपड़ों, शालों, या अंडर गार्मेंट्स के पैकेट उन्हें चुपचाप थमा कर आगे बढ़ जाती हैं। कोई उनके जीवन में नहीं झांकता और न ही किसी किस्म का सवाल ही पूछा जाता है। बस, मौन की भाषा और इतना सा लेनदेन। यही सिलसिला शाम के वक्त भी चलता है। महिलाएं अक्सर उन्हें त्यौहार के दिनों में कोई पकवान या खाने की दूसरी चीजें भी दे जाती हैं। वे ये सारी चीजें चुपचाप अपने पास रख लेती हैं और देने वाले की तरफ देखती भी नहीं। किसी किस्म की कोई प्रतिक्रिया नहीं। कई बार देर रात तक उनके ठीये के पास पाव भाजी के स्टाल लगाने वाले भी उन्हें पाव भाजी या वड़ा पाव वगैरह दे देते हैं या कोई ग्राहक ही उनके लिए पाव भाजी खरीद देता है और वे खा लेती हैं। लेकिन वे न तो किसी से कुछ मांगती हैं और न ही किसी की दी हुई चीज को ठुकराती ही हैं।
और इसी तरह से चल रही है जिंदगी ग्रेसी राफेल की। अरसे से, निरुद्देश्य, अर्थहीन। खाली खाली दिन, खाली खाली रातें, किसी से कोई भी संवाद नहीं, सम्पर्क नहीं, लेन देन नहीं, कहीं आना जाना नहीं, कोई काम नहीं। शायद ही वे कभी किसी से बात करती हों, या कोई उनसे संवाद करता हो। वे किसी के सुख दुख में शामिल नहीं हैं और उनके दुख? वे तो किसी ने जाने ही नहीं। वे कहीं भी किसी की जिंदगी में नहीं हैं और न ही उनकी ज़िंदगी में ही कोई बचा है। वे बीस बरस से इसी तरह का जीवन जीती चली आ रही हैं। आगे भी इसी तरह का निचाट जीवन उन्हें जीते जाना है। बेकार सा, बेमतलब सा और बेरौनक सा। उनकी स्मृति में कुछ भी बाकी नहीं बचा है। न अच्छा न बुरा। जो था भी, उसे वे कब का भुला चुकी हैं। वे सिर्फ वर्तमान में जी रही हैं। वर्तमान भी कैसा? जिसे न ढोया जा सकता है न त्यागा। कितनी अजीब बात है कि दुनिया में करोड़ों लोग बेकार की, बेमतलब की और कई बार बेहद तकलीफ भरी ज़िंदगी जीते चले जाते हैं लेकिन जीना छोड़ता कोई भी नहीं। जो जैसा चल रहा है, चलने दो, जब तक चलता है चलने दो। भविष्य कैसा है ये तो वे पिछले बीस बरसे से देख ही रही हैं। जो है, उसमें बेहतरी की गुंजाइश ही कहां बची है।
उन्हें पता है कि किसी सुबह वे यहीं इसी ठीये पर मरी हुई पायी जायेंगी। बेशक उनके ठीक पास से लाखों लोग रोजाना गुज़रते हैं, काफी देर तक लोगों को पता ही नहीं चलेगा कि लेटी नहीं, वे यहां से हमेशा के लिए जा चुकी है। उन्हें पता है उन्हें लावारिस मौत मरना है। और लावारिस मरने वालों का न कोई नाम होता है न धर्म या जाति ही। बीस बरस से उन्होंने जो जगह घेर रखी है, वह जरूर खाली हो जायेगी। शुरू शुरू में आने जाने वालों को अजीब लगेगा लेकिन कुछ दिन बाद वह जगह खाली देखने की लोगों को आदत पड़ जायेगी।
लेकिन वे हमेशा से ऐसी नहीं थीं। उनका भी घर बार था, उनकी ज़िंदगी में भी कई लोग थे और वे भी कई रिश्ते जी रही थीं। पत्नी, मां, बेटी, बहन सब के सब रिश्ते उन्होंने भी जीये हैं। और खूब जीये हैं। वे भी एक सम्मानजनक जीवन जी रही थीं और उनका भी अच्छा खासा घर-बार था, सामाजिक दायरा था और वे एक सुघड़ गृहणी के रूप में, एक सफल पत्नी के रूप में और एक आदर्श मां के रूप में पूरे सात आठ बरस तक रहीं थीं। उनका नाम था, अपना सर्किल था और पहचान थी। ये सब आगे भी बने रहते अगऱ . . . । अगर . . . बहुत सारे अगर मगर हैं। कहां तक गिनायें। एक कारण से दूसरा जुड़ता चला गया और वे अकेली, असहाय और निरुपाय होती चली गयीं। काश, उनके पिता की असमय मौत न हुई होती, काश, उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में न छोड़नी पड़ती। काश, उन्हें हैदराबाद न जाना पड़ता, न उन्होंने टाइपिंग सीखी होती और न उन्हें मिस्टर राफेल के ऑफिस में नौकरी करनी पड़ती और न ही मिस्टर राफेल पसंद करके ब्याह करके घर ले आते और न ही वे मिस्टर राफेल के शक की शिकार न हो गयी होतीं। इस शक ने एक हंसता खेलता परिवार हमेशा हमेशा के लिए खत्म कर दिया था और वे अपना घर बार होते हुए भी न केवल बेघर बार हो गयीं थीं बल्कि एक ऐसा अभिशप्त जीवन जीने के लिए मजबूर हो गयीं थीं जिसके बारे में वे कभी सोच भी नहीं सकतीं थीं कि चेरियन परिवार की यह होनहार लड़की एक दिन चर्चगेट स्टेशन पर इस हालत में बीस बरस के लम्बे अरसे तक रहने को मजबूर होगी और उससे पहले उसे सात आठ बरस बिना पागल हुए भी पागल बन कर दूसरी पगली औरतों के बीच अलग अलग पागल खानों में गुजारने पड़ेंगे। कब सोचा था उन्होंने कि उनके लिए पूरी दुनिया ही अपरिचित हो जायेगी और उनका किसी से भी, यहां तक कि अपने बच्चों से भी हमेशा हमेशा के लिए नाता टूट जायेगा। वे एक ऐसी गुमनाम और बेरहम जिंदगी जीने को अभिशप्त हो जायेंगी जिसमें कभी किसी से भी एक भी संवाद की गुंजाइश ही न बचे। पता नहीं, उन्हेंने आखिरी बार किससे, कब और क्या बात की होगी।
आज की ग्रेसी राफेल तब ग्रेसी चेरियन हुआ करती थीं। वे कई बार अपने स्कूल की बेस्ट स्टूडेंट का खिताब पा चुकी थीं और स्कूल के स्पोर्ट्स डे पर सबसे ज्यादा ईनाम बटोर कर लाना उनके लिए बायें हाथ का खेल था। वे स्कूल की शान थीं और तय था, अपने घर में, रिश्तेदारी में और अपने समाज में उन्हें हमेशा एक ऐसी लड़की के रूप में देखा और सराहा जाता था जो चेरियन परिवार का नाम खूब रौशन करेगी। वे कर ही रही थीं और आगे भी तरक्की की और सीढ़ियां चढ़तीं। बचपन में वे खूब हंसती थीं। खुद भी हंसती और सारे घर में हंसी बिखेरती रहतीं। उनकी हंसने की आदत का यह आलम था कि बात बेबात पर जब देखो खिड़खिड़ कर रही हैं। घर वाले उनकी हंसी से परेशान हो कर कोसते कि जब ससुराल जायेगी तो सारी हंसी धरी की धरी रह जायेगी। वे जवाब देतीं कि तब की तब देखी जायेगी। कई बार मज़ाक में कही गयी बातें भी किस तरह से भविष्यवाणियां बन जाया करती है। उनकी हंसी पर भी नज़र लग गयी और वह हमेशा के लिए थम गयी।
अभी वे ग्यारहवीं में ही पढ़ रही थीं कि उनके पिता को व्यापार में घाटा होने लगा। घर का आर्थिक ग्राफ एकदम नीचे आ गया और घर में खाने के भी लाले पड़ने लगे। एक दिन अचानक उनके पिता नींद में ही चल बसे और किसी को कुछ करने या सोचने का मौका ही न मिला। ग्रेसी भाई बहनों में सबसे बड़ी थी इसलिए उसी को अपनी पढ़ाई अधबीच में ही छोड़ देनी पड़ी। एक बसा-बसाया घर देखते ही देखते भुखमरी के कगार पर आ गया।
घर में कोई भी कमाने वाला नहीं बचा था। नारियल और रबड़ की थोड़ी बहुत खेती थी लेकिन उससे न तो कर्ज पट सकते थे और न ही घर का खर्च ही चल सकता था। जैसे-तैसे घर की गाड़ी खींची जा रही थीं। कुछ दिन वे हैदराबाद में अपनी चचेरी बहन के पास भी रही थीं। उनकी चचेरी बहन और जीजा दोनों ही एक सरकारी संस्थान में काम करते थे और उनकी बहन की डिलीवरी होने वाली थी। डिलीवरी से पहले बहन की सेवा करने और बाद में नवजात बच्चे की देखभाल करने के लिए किसी की जरूरत थी। ग्रेसी की पढ़ाई वैसे भी छूट चुकी थी और यही उचित समझा गया कि उन्हें वहां भेज दिया जाये। उनका दिल भी लगा रहेगा और वे कुछ न कुछ सीख कर ही लौटेंगी। निश्चित ही इसके पीछे आर्थिक समीकरण भी काम कर ही रहे थे। और इस तरह ग्रेसी को हैदराबाद भेज दिया गया था। उस समय उनकी उम्र मात्र सत्रह बरस थी और हैदराबाद जाने के साथ ही उनका घर हमेशा के लिए छूट गया था।
हैदराबाद में दीदी के घर रहते हुए ही उन्होंने टाइपिंग सीखी थी और जीजा जी ने उन्हें अपने एक परिचित मिस्टर राफेल के ऑफिस में टाइपिस्ट की नौकरी दिलवा दी थी। ग्रेसी ने अपनी मेहनत के बल पर ऑफिस में एक खास जगह बना ली थी और वे खासी लोकप्रिय हो गयी थीं। और यही मेहनत और लोकप्रियता उनके लिए जी का जंजाल बन गयी थी। आर्थिक मोर्चे पर आत्म निर्भर हो जाने के बाद उनका आत्म विश्वास भी बढ़ा था और वे घर पर भी पैसे भेजने लगीं थीं ताकि भाई बहनों की पढ़ाई का कोई सिलसिला बन सके।
कम्पनी के मैनेजर मिस्टर के टी राफेल अक्सर उन्हें अपने केबिन में बुलवाने लगे थे और ऑफिस के बाद भी उन्हें देर तक किसी न किसी काम में उलझाये रहते। इधर उधर की बातें करते और किसी न किसी बहाने ग्रेसी के पहनावे की, काम की और खूबसूरती की तारीफें किया करते। वे इन तारीफों का मतलब खूब समझती थीं और उनकी आंखों में लपलपाती काम वासना को साफ साफ पढ़ सकती थीं। वे शर्म से लाल हो जातीं लेकिन जानते बूझते हुए भी कुछ न कह पातीं। एक तो वे अपने खुद के घर पर नहीं थीं और दूसरे कम्पनी के मैनेजर उनके जीजा के दोस्त थे। वे किसी को भी नाराज़ करने की स्थिति में नहीं थीं और कुल मिला कर उनकी उम्र अभी उन्नीस बरस भी नहीं हुई थी, जबकि राफेल कम से कम पैंतीस बरस के थे। वे उनके और उनकी पारिवारिक स्थिति के बारे में कुछ भी नहीं जानती थीं। वे अपना काम खत्म करके जितनी जल्दी हो सके, केबिन से बाहर आने की कोशिश करतीं।
तभी एक दिन मिस्टर राफेल ने खुद उनके घर आ कर ग्रेसी के जीजा जी से ग्रेसी का हाथ मांग लिया था। भला जीजा को क्या एतराज हो सकता था। उन्होंने अपनी ड्यूटी पूरी कर दी थी। ग्रेसी को काम धंधे से लगा ही दिया था। ग्रेसी की मम्मी से औपचारिक सहमति ले ली गयी थी और इस तरह ग्रेसी चेरियन स्टार एंटरप्राइजेज की मामूली टाइपिस्ट से रातों रात मैनेजर की ब्याहता बन गयी थीं।
वे समझ नहीं पायी थीं कि उन्हें इस तरक्की पर खुश होना चाहिये या अफसोस मनाना चाहिये। उनके बस में है ही क्या कि चीजों का विरोध कर सकें। उनका बस चलता तो वे खूब पढ़ना चाहतीं, राष्ट्रीय स्तर की एथलीट बनना चाहतीं और एक शानदार ज़िंदगी जीना चाहतीं। अब उनके हिस्से में अपनी पसंद का कुछ भी नहीं रहा था। हंसना तो वे कम से भूल चुकी थीं अब तक बोलना भी छूटने लगा था। घर छूट चुका था और वे अब वही कुछ स्वीकार करने को मजबूर थीं जो दूसरे उनके लिए तय करें।
उन्होंने इस शादी के लिए एक ही शर्त रखी कि उन्हें कुछ दिन तक अपनी पगार का कुछ हिस्सा घर पर भेजने की अनुमति दी जाये ताकि भाई बहन तो अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें। बाकी जो जैसा हो रहा है होने दो। लेकिन इस वायदे का भी कुछ मतलब नहीं रहा था क्योंकि जल्दी ही उनकी नौकरी छुड़वा दी गयी थी। लड़ने का सबसे बड़ा हथियार आर्थिक आधार होता है और इसी मामले में उन्हें कमजोर कर दिया गया था।
शादी के बाद ही उन्हें पता चला था कि उनके पति हद दरजे के शराबी आदमी हैं और चरित्र के भी कमजोर हैं। उनकी जिंदगी में अक्सर लड़कियां आती जाती रहती हैं। ग्रेसी ने तब यही सोचा था कि शादी से पहले वे जैसे भी भी रहें हों, अब तो घर बार बस जाने के बाद उनकी जीवन शैली बदलेगा ही और उनका भटकाव कम होगा। लेकिन ये उनका भ्रम था। शादी के बाद भी उनकी जीवन शैली में कोई भी फर्क नहीं आया था। वे खूब पीते थे और कोई शाम ऐसी नहीं गुजरती थी जब वे धुत्त होने के स्तर तक न पी लेते हों। शुरू शुरू के कुछ दिन तक तो वे बिलकुल ठीक रहे और वक्त पर घर आते रहे लेकिन जल्दी ही वे अपने रंग में आ गये थे। वे बाहर से भी पी कर आते थे और घर पर फिर से बोतल खोल कर बैठ जाते। अकेले ही। बेशक ग्रेसी की अब तक खूब तारीफ करते रहे थे और उन्हें खुद पसंद करके लाये थे फिर भी कुछ ऐसा था कि जिसे भीतरी खुशी नहीं कहा जा सकता था। कोई उमंग नहीं, खुशी नहीं और नयापन नहीं। जैसे वे ग्रेसी को घर लाने के बाद उन्हें भूल ही गये थे। घर में लाये किसी भी सामान की तरह। नौकरी तो उनकी तुंत ही छुड़वा दी गयी थी। ग्रेसी उनकी शराब की आदत को ले कर या देर रात घर आने को ले कर कुछ कहना चाहतीं तो वे झिड़क देते कि मुझे किसी की भी कोई भी बात सुनने की आदत नहीं है। मैं अपना काम कर रहा हूं और तुम अपना काम करो। घर संभालो।
ग्रेसी सारा दिन खाली बैठी बैठी बोर होतीं। दीदी जीजा भी ऑफिस गये होते इसलिए उनके घर जाने का भी मतलब न होता। उन्होंने अपने आपको पूरी तरह घर के लिए समर्पित कर दिया था लेकिन घर की जरुरतें इतनी कम थीं कि उनके पास सारा दिन बोर होने के अलावा कुछ भी न होता। उन्होंने एक बार दबी जबान में राफेल से कहा था कि वे आगे पढ़ना चाहती हैं और हो सके तो काम भी करना चाहती हैं लेकिन राफेल को दोनों ही बातें मंजूर नहीं थीं। एक बार फिर झिड़क कर मना कर दिया। वे कट कर रह गयीं। ऐसी भी शादी क्या कि पति से कोई संवाद ही नहीं। वे कब जाते हैं, कब आते हैं और कितना घर पर रहते हैं और जब घर पर रहते हैं तो बीवी से कितनी देर बात करते हैं इस बारे में ग्रेसी को न कुछ कहने का हक था न सवाल करने का। कई बार वे सोचतीं कि इससे तो अच्छा वे कुंवारी ही थीं। कम के कम जीवन अपने तरीके से जीने का हक तो था। यहां तो वे उनकी कीमत राफेल के घर में एक सामान से ज्यादा नहीं थी। बस, राफेल की जरूरतें पूरी करते रहो और घर में सारा दिन बंद हो कर घुटते हो। बेकार दिन गुजारने के बाद बेकार रातों का इंतजार करो।
इस बीच उनके दो बच्चे हुए थे। दोनों लड़के। सिर्फ दो बरस के अंतराल पर। तेइस बरस की उम्र में वे दो छोटे छोटे बच्चों की मां बन चुकी थी। इससे उनके जीवन में बदलाव भी आया था और ठहराव भी। समय भी बेहतर गुजरने लगा था। सारा दिन बच्चों की देखभाल में कब गुजर जाता, पता ही न चलता।
तभी राफेल का दिल्ली ट्रंसफर हो गया था। ग्रेसी को लगा था कि शायद यहां आ कर उनके जीवन में बदलाव आयेगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था, बल्कि वे पहले की तुलना में और अकेली हो गयी थीं। हैदराबाद में कम से कम आसपास मलयालम या अंग्रेजी बोलने समझने वाले कुछ तो लोग थे, कुछ रिश्तेदार और दीदी जीजा वगैरह तो थे ही, यहां वे बिल्कुल अकेली पड़ गयी थीं। कोई बात करने वाला ही नहीं था। दिल्ली आने के बाद राफेल की दिनचर्या और व्यस्त हो गयी थी और उनका समय और ज्यादा बाहर गुजरने लगा था। वे सारा दिन अपने आपको बच्चों में उलझाये रहतीं। बहुत हुआ तो कभी बाल्कनी में आ कर खड़ी हो जातीं और नीचे सड़क पर चल रहे ट्रैफिक को देखती रहतीं।
तभी उन्होंने पाया था कि जब भी वे बाल्कनी में खड़ी होती हैं, उनके ठीक सामने वाले घर में खिड़की में परदे के पीछे से एक चेहरा छुप कर उन्हें देखता रहता है। स्मार्ट सा, गोरा चिट्टा आदमी। उम्र चालीस के आस पास। वे लज्जावश अंदर आ जातीं और जब वे दोबारा किसी काम से या यूं ही वहां खड़े होने के मकसद से बाल्कनी में जातीं तो पातीं कि वह तब भी उन्हीं की तरफ देख रहा होता। वे समझ न पातीं कि वह लगातार उन्हीं के घर की तरफ क्यों देखता रहता है। एक बार निगाह में आ जाने के बाद तो जब वे देखती, उस शख्स को अपनी तरफ ही देखता पातीं। वे हैरान होतीं इस आदमी को और कोई काम भी है या नहीं, जब देखो, खिड़की पर ही टंगा रहता है। पहले तो वह उन्हें देखता ही रहता, अब कुछ दिन से उन्हें देख कर मुस्कुराने भी लगा था।
डर के मारे उन्होंने बाल्कनी में जाना ही कम कर दिया था लेकिन वे अपने कमरे के भीतर से छुप कर भी देखतीं तो उस आदमी को अपने घर की तरफ ही देखता पातीं। वे बहुत डर गयी थीं। कहीं राफेल ने उसे देख लिया तो उन्हें कच्चा चबा ही जायेगा, सामने वाले को भी जिंदा नहीं छोड़ेगा। वैसे उन्हें यह देख कर मन ही मन अच्छा भी अच्छा भी लगता कि कोई तो है भले ही अनजान, अपरिचित ही सही, उनकी तरफ तारीफ भरी निगाह से देखता तो है। राफेल ने तो शादी के छ: बरसों में कभी भूले से भी उनकी तारीफ नहीं की थी। सोचा था ग्रेसी ने, कुछ मांगता थोड़े ही है, बस, इस तरफ देखता ही रहता है। देखने दो। उस खिड़की में उनके अलावा और कोई चेहरा कभी भी नजर नहीं आता था।
लेकिन यहीं उनसे चूक हो गयी थी। हालांकि अब वे उस चेहरे की तरफ से उदासीन हो गयी थीं और पहले की तरह बाल्कनी में जाने लगी थीं, लेकिन यह इतना आसान नहीं था। उस तरफ न देखते हुए भी वे जानती थीं कि खुली खिड़की में से या परदे के पीछे से एक जोड़ी आंखें उन्हीं की तरफ लगी हुई हैं।
एकाध दिन ऐसे ही चला था। वे बाल्कनी में जातीं, उस तरफ देखती भी नहीं और लगातार महसूस करती रहतीं कि उन आंखों की आंच बिन देखे भी उन तक पहुंच रही है। तभी अचानक उस तरफ निगाह घुमाने पर उन्होंने पाया था कि खिड़की तो बंद है।
पहले तो उन्होंने इसकी तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन जब दिन में कई बार देखने पर भी जब उन्होंने खिड़की को बंद ही पाया तो वे परेशान हो उठीं। कहां चला गया वो शख्स। बेशक कुछ कहता नहीं था लेकिन उसकी मौजूदगी ही एक सुखद सा अहसास देने लगी थी। बेशक वे उसे जानती नहीं थी, कौन है, क्या करता है, उसके घर में और कौन कौन है, उन्हें कुछ भी नहीं मालूम था फिर भी एक नामालूम सा खालीपन उन्हें महसूस होने लगा था।
खिड़की पूरे सात दिन तब बंद रही थी। इस बीच ग्रेसी ने सैकड़ों बार बाल्कनी में आ कर उस तरफ देखा होगा लेकिन हर बार खिड़की के पल्ले बंद पा कर उनके दिल में एक हूक सी उठती। पता नहीं कहां गया वो आदमी। कहीं बीमार वीमार तो नहीं हो गया।
आठवें दिन ग्यारह बजे के आसपास का समय होगा। वे घर के कामकाज निपटा कर गीले कपड़े धूप में डालने के लिए बाल्कनी में आयी ही थीं कि उन्होंने बिल्डिंग के नीचे एक टैक्सी को रुकते देखा। तभी उन्होंने देखा कि टैक्सी वाला एक आदमी को सहारा दे कर टैक्सी से बाहर निकाल रहा है और हौले हौले सहारा देता हुआ इमारत के अंदर ला रहा है। उस आदमी ने ऊपर उनके घर की तरफ देखा। वे देख
कर हैरान रह गयीं। वही आदमी था। बीमार, थका हुआ और एकदम कमजोर। चलने में भी उसे तकलीफ हो रही थी। लेकिन उनसे अंाखें मिलते ही उसके चेहरे पर फीकी सी हंसी आयी थी।
वे लपक कर भीतर आ गयी थीं। इसका मतलब उनका शक सही निकला। वह आदमी जरूर बीमार रहा होगा तभी तो टैक्सी वाला उसे सहारा दे कर भीतर ला रहा था।
काफी देर तक बाल्कनी में जाने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। उन्हें धुकधुकी लगी हुई थी मानो उन्हें ही कुछ हो गया हो। टैक्सी जा चुकी थी।
काफी देर के बाद जब वे बाल्कनी में गयी थीं तो खिड़की हमेशा की तरह खुली हुई थी और वह वहां खड़ा था। बेहद कमजोर, दाढ़ी बढ़ी हुई और चेहरे पर थकान। वह उन्हें देखते ही मुस्कुराया। वे एक दम चौंक गयीं। वह उन्हें इशारा करके बुला रहा था। उनकी सांस फूल गयी और वे अचानक तय नहीं कर पायीं कि वे कैसे रिएक्ट करें। यह आदमी तो शराफत की सारी सीमाएंं लांघ रहा है। दिन दहाड़े उन्हें अपने घर में बुला रहा है। बीमार है तो क्या हुआ, आदमी को शर्म लिहाज तो होनी चाहिये, न जान न पहचान, अपने घर में इस तरह से इशारे करके बुलाने का क्या मतलब।
वे बाल्कनी से वापिस लौट आयीं और कमरे में आ कर लेट गयीं। लेकिन भीतर आने के बाद भी उन्हें चैन नहीं था। लगता, बेचारा बीमार है, अस्पताल वगैरह से आया होगा, घर में खाने को कुछ नहीं होगा या दवा वगैरह की ही जरूरत हो सकती है। जा कर देखने में कोई हर्ज नहीं है। वे काफी देर तक इसी उथल पुथल में अंदर बाहर होती रहीं कि क्या करें। लेकिन हिम्मत न जुटा पायीं। वे फिर बाहर बाल्कनी में आयीं तो देखा, खिड़की बंद हो चुकी थी और फिर वह शाम तीन चार बजे तक न खुली। अब ग्रेसी की बेचैनी बहुत ब़ढ़ गयी कि वे करें तो क्या करें। वहां जाने की हिम्मत तो नहीं ही थी उनकी लेकिन चैन भी नहीं आ रहा था कि शायद बेचारे को दवा की ही जरूरत होगी इसीलिए बुलवा रहा होगा। अकेला ही रहता है। पता नहीं घर में पीने का पानी भी हो या नहीं।
जब दोपहर के वक्त काम वाला बाई आयी तो तभी उन्हें सूझा कि इसे भेज कर सही बात का पता लगाया जा सकता है। लेकिन इसे विश्वास में कैसे लिया जाये। कैसे बताया जाये कि सामने की बाल्कनी वाला आदमी आज बीमारी की हालत में अस्पताल से वापिस आया है और उसे मदद की जरूरत है। काफी उधेड़बुन के बाद जब उनसे रहा नहीं गया तो आखिर उन्हें बाई को विश्वास में लेना ही पड़ा। एक मनगढ़ंत किस्सा बताया कि जब टैक्सी वाला उन्हें ऊपर छोड़ कर वापिस आ रहा था तो वे उस वक्त बाजार से लौट रही थीं। टैक्सी वाला किसी को बता रहा था कि साहब बहुत बीमार हैं और उनकी देखभाल करने वाला कोई भी नहीं है। तू जा कर देख कर आ ना बेचारे को, शायद दवा वगैरह की जरूरत हो। बाकी बात बाई ने खुद ही संभाल ली - हमें मालूम है मेमसाब, वो बहुत ही शरीफ आदमी है। कई दिन से बहुत बीमार है बेचारा। अकेला रहता है। कोई नहीं है दुनिया में उसका। खाना भी होटल में खाता है। मैं जा के देखती हूं।
जब तक बाई वहां से वापिस नहीं आ गयी, ग्रेसी का मन तरह तरह की आशंकाओं से घिरा रहा। वे लगातार अंदर बाहर होती रहीं। बाई जब वापिस आयी तो उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। हाथ में कुछ कागज और पैसे थे। बताने लगी - 'साब की हालत तो बहुत खराब है। डाक्टर ने पता नहीं क्यों अस्पताल से घर भेज दिया। न कोई देखने वाला, न दवा देने वाला। घर में खाने को भी कुछ नहीं। ये पैसे दिये हैं दवा और कुछ संतरे वगैरह लाने को। मेम साब क्या करूं मैं। मुझे तो पता नहीं, कौन सी दवा लानी है और कितनी लानी है। इत्ते सारे कागज दे दिये मुझे।
- दरवाजा खुला था क्या।
- नहीं, बड़ी मुश्किल से दरवाजे तक चल के आये।
- फिर
- मैंने फिर सहारा दे कर बिस्तर पर लिटाया, पानी पिलाया और तब वो बोले कि किसने भेजा है।
- तो क्या बोली तू
- क्या बोलती मैं, मैं यही बोली कि टैक्सी वाले ने बताया था कि आपको दवा ला के देनी है।
- ठीक किया तूने। चल एक काम करती हूं। मैं तेरे साथ चल कर ये दवाएं दिलवा देती हूं। तू जा कर दे देना और पूछ भी लेना अगर उन्हें और कोई काम हो या किसी काम वाली बाई की जरूरत हो तो।
- मैं पूछूंगी।

तब ग्रेसी बाई के साथ कैमिस्ट के पास गयी थी। जब सारी दवाएं मिल गयीं तो पैसे देते समय ग्रेसी ने कैमिस्ट से यूं ही पूछ लिया था कि ये सब किस बीमारी की दवाएं हैं।
- कैंसर की। क्यों, आप दवा लेने आयी हैं और आप ही को पता नहीं।
ग्रेसी का कलेजा एकदम मुंह को आ गया था। वे बड़ी मुश्किल से अपनी भावनाओं को बाई और कैमिस्ट से छुपा पायी थीं।
उस दिन बेशक बाई ही जा कर दवाएं दे आयी थी और कमरा वगैरह भी साफ कर आयी थी, उसका बिस्तर ठीक से लगा आयी थी लेकिन घर आते आते ग्रेसी की बुरी हालत हो गयी थी। अब उन्हें समझ में आ रहा था कि वे अब तक एक बीमार, मरते हुए आदमी की हंसी ही देखती आ रही थीं। चुक रहे आदमी की हंसी, जिसका मन की खुशी से कोई नाता नहीं होता।
ग्रेसी की बाई ने ही वहां का काम हाथ में ले लिया था। सफाई, खाना बनाना और जूस वगैरह बना देना, पीने के लिए पानी उबाल देना, दवा दे देना, और जरूरत पड़ने पर दूसरे काम कर देना। उस आदमी ने अपने घर की एक चाबी बाई को ही दे दी थी ताकि उसे बार बार उठने की जहमत न उठानी पड़े। बाई चूंकि ग्रेसी के घर काम करने के बाद वहां जाती इसलिए चाबी उसने ग्रेसी के पास ही रखवा दी थी। बताती थी बाई ग्रेसी को उसके बारे में - साब बहोत शरीफ है। सारा दिन लेटा रहता है। किताबें पढ़ता रहता है। मुझे इतने पैसे दे देता है कि कहीं और काम करने की जरूरत ही न पड़े। कहता है, आज तक उसकी किसी ने इतनी सेवा नहीं की है जितनी मैं करती हूं।
अब खिड़की खुलती तो थी, लेकिन वह चेहरा नजर नहीं आता था। अब ग्रेसी के घर की तरफ कोई नहीं देखता था लेकिन ग्रेसी जानती थीं कि वह शख्स सारा दिन लेटे लेटे जरूर उनका इंतजार करता होगा। लेकिन वे सब कुछ जानते हुए भी वहां जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं। एकाध बार उनके मन में आया कि मिस्टर राफेल को बाई के हवाले से उस आदमी की बीमारी के बारे में बतायें और उन्हें वहां जा कर उसे देख आने के लिए कहें लेकिन वे राफेल को जानती थीं। किसी भी बात का गलत अर्थ लगाने में उन्हें जरा भी देर न लगती और मुसीबत उन्हीं की होती। बेशक बाई से उसकी सेहत के बारे में, दिनचर्या के बारे में जानने को बेचैन रहतीं। बाई भी बिला नागा उसकी सेहत का बुलेटिन प्रसारित कर जाती।
उस दिन बाई काफी देर तक नहीं आयी थी। रोजाना आठ बजे आ कर पहले उसके नाश्ते पानी का इंतजाम करती और बाद में ग्रेसी के घर का काम करती। ग्रेसी ने अपने घर का काम तो निपटा लिया था लेकिन उन्हें लगातार इस बात की चिंता लगी हुई थी कि उसने अब तक नाश्ता भी नहीं किया होगा, पता नहीं, खाली पेट दवा कैसे लेगा। ग्रेसी का मन बहुत बेचैन था लेकिन कुछ भी सूझ नहीं रहा था कि वे क्या करें। बच्चे स्कूल जा चुके थे नहीं तो उनके हाथ ही कुछ खाने के लिए भिजवा देतीं। बच्चे दो बजे लौटते थे और अभी सिर्फ ग्यारह ही बजे थे। बेचारा सुबह से भूखा होगा। पता नहीं बाई को भी आज क्या हो गया।
जब ग्रेसी से और नहीं रहा गया तो उन्होंने एक गिलास गाजर का जूस तैयार किया, हलका सा नाश्ता बनाया, हिम्मत करके चाबी उठायी और चल दीं - जो भी होगा देखा जायेगा। आखिर किसी के जीवन मरण का प्रश्न है। सिर्फ खाने की बात नहीं है, दवा की भी बात है। वे मन कड़ा करके उसके दरवाजे पर पहुंचीं, दरवाजे में चाबी घुमायी और हलके से दरवाजा धकेला।
वह सामने ही लेटा हुआ था। आंखें बंद। दाढ़ी कई दिन से बढ़ी हुई और चेहरा एकदम निस्तेज। बहुत कमजोर हो गया था वह। दरवाजा खुलने की आवाज से उसकी नींद खुली और उसने मुड़ कर देखा - उन्हें देख कर चेहरे पर फीकी चमक आयी। कुछ कहना चाहा उसने लेकिन खुश्क होंठों से कोई शब्द बाहर नहीं आये। और वह सूनी आंखों से अपने मेहमान को देखता रह गया। उसने जीभ अपने पपड़ाये होंठों पर फिरायी। ग्रेसी समझ गयी कि उसे प्यास लगी है।
ग्रेसी ने सामान एक तिपाई पर रखा और एक गिलास पानी भर कर उसके पास लायीं। उसने उठने की कोशिश की, लेकिन उठ नहीं पाया। ग्रेसी थोड़ी देकर संकोच में खड़ी रहीं फिर सहारा दे कर उसे बिठाया, पानी पिलाया और तौलिये से उसका मुंह पोंछा।
पानी पीकर उसे थोड़ी राहत मिली। दोनों की आंखें मिलीं। उसकी आंखों में बहुत डरावना सन्नाटा था जिसे देख कर ग्रेसी एक बारगी तो डर ही गयी थीं। वे एक मरते हुए आदमी की आंखें थीं जिनमें बेपनाह मुहब्बत की भीख थी।
उसे नाश्ता पानी कराके, दवा दे कर और पानी का गिलास सिरहाने रख कर जब ग्रेसी लौटने लगीं तो उस आदमी की निगाहों में जो चमक ग्रेसी ने देखी तो उन्हें लगा उन्हें बहुत पहले उसके पास आना चाहिये था और कुछ दिन उसकी सेवा करनी चाहिये थी।
जब वे लौटीं तो उन्हें बहुत संतोष था। अपनी जिदंगी में उन्होंने पहली बार कई चीजें एक साथ देखी थीं। तिल तिल मरता हुआ आदमी, उन मरती हुई आंखों में भी बेपनाह मुहब्बत थी और शायद पहली बार हो रहा था कि किसी अनजान आदमी की पहली ही मुलाकात में उन्होंने इतनी सेवा की थी और संतोष का अनुभव किया था। बेशक दोनों में एक भी संवाद का आदान प्रदान नहीं हुआ था और दोनों ही एक दूसरे का नाम भी नहीं जानते थे। वे खुद उसके लिए दवाएं लायी थीं लेकिन पर्ची पर उसका नाम देखने की जरूरत महसूस नहीं हुई थी उन्हें।
उसके बाद भी वे कई बार उसके कमरे पर गयी थीं। उसे चुपचाप खाना खिलाया था, दवा दी थी और . . . और धीरे धीरे उसे ठीक होते देखा था। संवाद अभी भी दोनों ओर से एक बार भी नहीं हुआ था।
तभी एक दिन हंगामा हो गया था। मिस्टर राफेल ने उन्हें उसकी दहलीज से बाहर निकलते देख लिया था। उनके हाथ में खाने के बरतन थे। वे उसे खाना खिला कर आ रही थीं। घर पहुंचते ही कड़े स्वर में पूछा था राफेल ने - कब से चल रहा है ये चक्कर
- कौन सा चक्कर, मिसेज राफेल ने पलट कर पूछा था।
- ये ही रंगरेलियां मनाने का चक्कर और कौन सा चक्कर, साली बदजात, एक तो दिन दहाड़े अपने यार से मिलने उसके घर पर जाती है और पूछती है कौन सा चक्कर
- आप ये क्या कह रहे हैं। ग्रेसी ने दबी जबान में विरोध किया था - उसे कैंसर है और उसे दवा देने वाला भी कोई नहीं हैं। बेचारा . . राफेल ने उन्हें बात भी पूरी नहीं करने दी थी और बिना सोचे समझे उन पर लात घूंसों की बरसात शुरू कर दी थी। ग्रेसी को मालूम था, एक न एक दिन ये नौबत आनी ही थी, इसलिए वे बिना उफ भी किये पिटती रहीं। उन्हें पिटते हुए भी इस बात का संतोष था कि वे किसी के काम आ सकीं थीं। वे गालियां बके जा रहे थे और उन पर ऐसे ऐसे आरोप लगा रहे थे जिनके बारे में वे कभी सोच भी नहीं सकती थीं। उन्हें पता था, विरोध का एक भी शब्द राफेल के गुस्से को और बढ़ायेगा और उनकी और ज्यादा पिटायी होगी।
लेकिन ग्रेसी ने भी जिद ठान ली थी कि जब तक वह आदमी पूरी तरह से चंगा नहीं हो जाता, वे उसकी जितनी भी हो सके, देख भाल करती रहेंगी। राफेल से पिटने के बावजूद। राफेल से इसी बात पर कई बार उन्हें पीटा था। बच्चों के सामने और एक बार तो रात के वक्त घर से बाहर भी निकाल दिया था। वे अब उनकी पूरी तरह से जासूसी करने लगे थे और पता नहीं कहां कहां के पुराने बखेड़े ले कर बैठ गये थे। मिस्टर राफेल ने एक बार भी इस बात की जरूरत नहीं समझी कि जिस आदमी के शक में वे इतने दिनों से अपनी बीवी को पीटे जा रहे हैं और उसका जीना मुहाल किये हुए हैं, कम से कम एक बार जा कर देख तो लें कि उसकी ऐसी हालत है भी या नहीं जिसके साथ रंगरेलियां मनायी जा सकें। लेकिन राफेल अपना गुस्सा ग्रेसी पर ही उतारते रहे। पता नहीं कितने दिनों का और किस किस बात की गुस्सा था कि खत्म होने में ही नहीं आता था। वे इन दिनों जैसे पागलपन के दौर में थे और बात बेबात ग्रेसी पर बरस पड़ते। घर पर ताला लगा कर जाते और उन्हें भूखा रखते। इतने पर भी संतोष न होता तो घर से निकालने की धमकियां देते। ग्रेसी छटपटातीं। उस बीमार आदमी को देखने के लिए। काश, वे उस मरते हुए आदमी के लिए कुछ कर पातीं और उसे बचा पातीं।
इस बीच राफेल ने अपने हिसाब से उन्हें एक बार फिर रंगे हाथों पकड़ा। बाई ने उन्हें दवा की पर्ची और पैसे ला कर दिये थे कि वे बाजार से दवा लाकर रख लें, वह दोपहर को दे आयेगी। वे उसके लिए बाजार से दवा ला रही थीं कि रास्ते में राफेल मिल गये थे और यह पता चलने पर कि वे उस आदमी के लिए दवा ला रहीं हैं, उनके साथ वहीं सड़क पर ही पागलों जैसा व्यवहार करने लगे थे। दवा छीन कर उन्होंने नाली में फेंक दी थी और कागज और बिल वगैरह फाड़ दिये थे। वे बहुत तिलमिलायीं थीं कि इससे ज्यादा पागलपन क्या हो सकता है कि एक मरते हुए आदमी की दवा तक छीन कर नाली में फेंक दी जाये। उन्हें बहुत गुस्सा आया था लेकिन वे खून के घूंट पी कर रह गयी थीं। राफेल के सामने विरोध करने का कोई मतलब नहीं था।
ये कई बरसों के बाद हो रहा था कि आजकल राफेल रोज शाम को ही आ कर घर में जम जाते और कई बार आफिस ही न जाते। सिर्फ जासूसी करने के लिए।
तभी बाई से उन्हें पता चला था कि उसकी तबीयत और खराब हो गयी थी। बाई ने उसके पड़ोसियों को खबर कर दी थी कि उसकी हालत खराब है और वह दर्द से बेहाल है।
ग्रेसी को पता नहीं चल पाया था कि उस आदमी को एक सुबह कहां ले जाया गया था और क्यों ले जाया गया था। बाई बता रही थी कि जब वह हमेशा की तरह काम करने गयी थी तो वहां ताला लगा हुआ था और किसी को पूरी तरह से पता नहीं था कि उन्हें किधर ले जाया गया था। उसके बाद उन्हें उसकी कभी भी कोई भी खबर नहीं मिल पायी थी। वे उसे आखरी बाद देख भी नहीं पायीं थीं और उसकी दवाएं उस तक न पहुंचाने का मलाल उन्हें कई दिन तक सालता रहा था।
ग्रेसी ने तब सोचा था कि जितनी भी हो सकी, उन्होंने अपनी तरफ से उसकी सेवा की थी और अब राफेल को कम से कम शक की आग में और नहीं जलना पड़ेगा। ये कैसा नेह था जो ग्रेसी ने उस अनजान आदमी को दिया था। न उसका नाम पूछा था न अपना नाम बताया था। वह क्या था जिसने उन दोनों को जोड़ा था बिना एक भी संवाद बोले और उस मरते हुए आदमी की आंखों में कुछ पलों के लिए उम्मीदों के चिराग जल उठे थे। ग्रेसी ने उस अरसे में एक भरपूर जीवन जी लिया था। बेशक वे उसके जीवन में कुछ जोड़ नहीं पायीं थीं फिर भी यह अहसास तो था ही कि कुछ तो दिया ही था।
तब राफेल ने एक दूसरा खेल शुरू कर दिया था। पता नहीं इसमें बदले की भावना काम कर रही थी या वे सचमुच उस छोकरी से प्यार करने लगे थे। जब राफेल ने देखा कि वह आदमी अब यहां से जा चुका तो फिर से उन्होंने देर से आना शुरू कर दिया था। ग्रेसी को कुछ लोगों ने बताया था कि आजकल उनका अपने ऑफिस की किसी लड़की से अफेयर चल रहा है। ग्रेसी इन सारी बातों की कभी भी परवाह नहीं करती थीं। इस तरह के अफेयर उनके अक्सर चलते ही रहते थे। उनके हिस्से में उनका पूरा पति आज तक आया ही नहीं था कि उसे खोने से डरतीं। संकट तब शुरू हुआ जब उसे ले कर वे घर आने लगे और ग्रेसी से उम्मीद करने लगे कि वे उसकी सेवा करें। वह अति साधारण लड़की थी और पता नहीं किस लालच में राफेल से चिपकी हुई थी। सब कुछ जानते बूझते हुए भी। ग्रेसी ने इस बात को भी स्वीकार कर लिया था। अगर उनके पति को ही अपने बच्चों और अपनी बीवी का, अपने अड़ोसियों पड़ोसियों की आंखों का लिहाज नहीं है, तो उन्हें क्या पड़ी है। मरने दो। वैसे भी कौन सा सुख दे रहे थे जो छिन जाता और इस दुख के लिए शिकायत करतीं।
लेकिन हद तो तब हो गयी जब वे उसे सीधे ही बेडरूम में ले जाने लगे और ग्रेसी से नौकरानी का सा व्यवहार करने लगे। यह उन्हें नागवार गुजरा था। अब तक तो सब सहती आयीं थीं, ये उनसे सहन नहीं हुआ। बेडरूम का दरवाजा खुला रहता, बच्चे आस पास मंडराते रहते और राफेल कमरे में सारी सीमाएं लांघते नज़र आते। ग्रेसी ने जब इसका दबे स्वरों में विरोध किया तो उन्हीं पर गुर्राने लगे कि अब इस घर में तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। या तो खुद घर छोड़ कर चली जाओ या मैं ही घर से निकाल दूंगा। अपने दिन भूल गयी जब दिन दहाड़े अपने यार से मिलने जाती थी। तुझे जाना हो तो जा अपने यार के पास।
उस रात पहली बार ग्रेसी अपने पति पर भड़की थीं। बहुत देर तक शोर मचाती रहीं थीं। इतना कि राफेल दंग रह गये थे कि इस औरत में इतना ताप है। ग्रेसी अपना आपा खो बैठी थीं। पता नहीं कब से घुटती आ रही थीं और अब मौका मिल गया था अपनी बात कहने का। बदहवासी में उन्होंने अपने कपड़े फाड़ डाले थे और सारा सामान बिखेर दिया था। उन्होंने बच्चों की भी परवाह नहीं की थी और सारा घर सिर पर उठा लिया था। कहा था राफेल से - मैं भी देखती हूं कि कैसे वह च़ुड़ैल इस घर में आती है। बच्चे पहली बार मां के इस रूप को देख रहे थे। वे डरे सहमे कोने में दुबके खड़े थे।
लेकिन आखिर हार ग्रेसी की ही हुई थी। राफेल उस लड़की को अगले दिन से हमेशा हमेशा के लिए घर पर ले आये थे और ग्रेसी से साफ साफ कह दिया कि इस घर में रहना है तो इसे स्वीकार करना होगा। आखिर बच्चों को अपने घर को और अपनी दुनिया को छोड़ कर कहां जातीं। ग्रेसी बिस्तर पर पड़ गयी थीं और गहरे डिप्रेशन में चली गयीं थीं। डॉक्टर लगातार आता रहा था और इंजेक्शन देता रहा था। कुछ दिन के बाद बेशक ग्रेसी ठीक हो गयीं थी लेकिन उस लड़की को देखते ही उन पर हिस्टीरिया के दौरे पड़ने लगते और फिर से उनकी तबीयत खराब होने लगती। इंजेक्शनों और दवाओं के असर में वे घंटों सोयी रहतीं और घर कम सारे काम वैसे ही पड़े रहते। राफेल इस बात पर बिगड़ते और नित नये झगड़े होते। ग्रेसी समझ नहीं पा रही थीं कि दवा लेते ही उन्हें क्या हो जाता है। लेकिन जो कुछ सामने देखतीं उसे भी सहन करने की ताकत नहीं बची थीं उनमें। राफेल ने तो उनसे बात करना भी बंद कर दिया था। उन्हें अपना होश भी न रहता। बच्चे क्या खाते हैं, कोई उन्हें खाना देने वाला भी है या नहीं, या स्कूल जाते हैं या नहीं, उन्हें पता न रहता। जब तबीयत ठीक होती तो थोड़ा बहुत काम कर लेतीं वरना लेटी रहती और अपनी किस्मत को कोसती रहतीं। धीरे धीरे उनकी सेहत खराब होती चली गयी थीं और एक दिन राफेल के डॉक्टरों की सलाह पर उन्हें पागल खाने पहुंचा दिया गया था।
वैसे देखा जाये तो वे पागल कहां हुई थीं। उनके सामने हालात ही ऐसे बना दिये गये थे कि भला चंगा आदमी पागल हो जाये। उन्होंने तो फिर भी पूरे छ: महीने तक सारी स्थितियों को सहन किया था और चूं तक नहीं की थी और उस लड़की को वे पूरे छ: महीने तक अपनी छाती पर झेलती रहीं। जब भी उन्होंने विरेध किया या करने की कोशिश की, हिस्से में मार ही आयी और आखिर पागल बना कर उन्हें घर से निकाल ही दिया गया।
उन्हें नहीं पता कि वे कितने अरसे पागलखानों में रहीं और कहां कहां भटकती रहीं। एक बार जब वे ठीक हो कर बाहर आयीं भी, तो उस वक्त तक राफेल दिल्ली छोड़ कर जा चुके थे। उनके लिए अतीत के सारे दरवाजे बंद हो चुके थे। वे बहुत छटपटायीं थीं अपने बच्चों से मिलने के लिए। पागलों की हालत में एक शहर से दूसरे शहर में भटकती रहीं थीं लेकिन उनके शरीर पर दवाओं को इतना गहरा असर था कि बहुत कोशिश करने पर भी पिछली बातें याद न आतीं। शहर याद आता तो कॉलोनी भूल जातीं और कॉलोनी याद आने पर घर का पता भूल चुकी होतीं। थक हार कर उन्होंने कोशिश ही छोड़ दी थी और भटकते भटकते आखिर मुंबई पहुंची थीं और यहां, चर्चगेट के इस कोने में अपना डेरा डाल दिया था। तब से यही उनका स्थायी पता है। ऐसा पता, जिस पर न कोई आता है न आना चाहेगा।
आज अगर वे अपने परिवार में होतीं तो उनका बड़ा बेटा 33 बरस का और छोटा बेटा लगभग 31 बरस का होता। वो तो अब भी इसी उम्र के होंगे, बस, उन्हें ही नहीं पता, कहां होंगे वे। राफेल को गुज़रे अरसा हो गया है।
कोई बड़ी बात नहीं, उनके दोनों बेटे यहीं मुंबई में ही हों और रोजाना अपने काम पर यहीं से गुज़र कर जाते हों। होने को तो यह भी हो सकता है कि रोजाना सवेरे दस बजे के करीब एक लम्बी सी कार में वह जो सांवला सा आदमी आ कर खाने का पैकेट उन्हें दे जाता है और कभी कभी कपड़े भी दे जाता है, मिसेज ग्रेसी राफेल का ही बड़ा या छोटा बेटा हो और अपने परिवार के डर से उन्हें घर ले जाने की हिम्मत न जुटा पाता हो। होने को तो बहुत कुछ हो सकता है मेरे प्रिय पाठक, लेकिन अगर आप कभी चर्चगेट से गुज़रें और आपको मिसेज राफेल से बात करने की इच्छा हो और मौका भी मिल जाये तो वे आपको यही बतायेंगी कि उन्हें कुछ भी याद नहीं है कि उनका कोई बेटा भी था या उनका कभी कोई घर बार भी था।
निश्चित ही वे अपने अतीत के बारे में कोई भी बात नहीं करना चाहतीं।
वे आपसे इस बारे में कोई बात नहीं करेंगी।
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Monday, May 19, 2008

चौदहवीं कहानी - फैसले

बद्रीप्रसाद वापिस लौट रहे हैं। एकदम हताश। टूटे हुए। अपने ही घर से बेगाने होकर। अपनों द्वारा ही ठुकराए जा कर। यह ठुकराया जाना नहीं है तो क्या है? क्या इसी दिन को देखने के लिए इतने बरस इंतज़ार किया था उन्होंने! एकदम ठूंठ-से दिन गुज़ारे। तनहा रहे। जैसे ज़िंदगी न जी रहे हों अब तक, बल्कि ज़िंदगी का इंतज़ार कर रहे हों। क्या-क्या तो सोचा था! कितनी मुश्किलों से तो आज का दिन देखना नसीब हुआ है! ज़िंदगी के सबसे अनमोल, बेशकीमती तेरह साल एकदम बर्बाद करने के बाद। अकेलेपन के कड़वे धुं में सुलग-सुलग कर राख हो जाने के बाद क्या हाथ लगा है? कुछ भी तो नहीं!
पूरे तेरह साल के इंतज़ार के बाद अब वह घड़ी आयी थी कि वे अपने टूटे-बिखरे परिवार को एक छत के नीचे ला सकते और इत्मीनान से दिन गुज़ारते। ज़िंदगी का जो वक्त गुज़र गया तो गुज़र गया। उसे लौटाना किसके बस की बात है। जो बाकी है, आगे है, उसी को बेहतर बनाने की दिशा में कुछ करने और बच्चों के सिर पर हाथ फेरने का जब वक्त आया है, तो उन्हें यह खरा-सा जवाब सुना दिया गया है, ``हम नहीं जाएंगे तुम्हारे साथ बंबई अपनी यह नौकरी छोड़कर। सब ठीक तो चल रहा है अब तक। आगे भी चलता ही रहेगा।'' सुनकर वे एकदम सकते में आ गए थे। सहसा विश्वास नहीं हुआ था, उमा यह क्या कह रही है! इतने साल कम नहीं होते जो उन्होंने अलग-अलग रह कर काटे हैं। कितनी मुश्किलों से तो यह संयोग बना है कि उमा और बच्चों को अपने पास बंबई ले जा सकें और वह है कि सिर्फ नौकरी के लिए अपने पति का साथ तक छोड़ने को तैयार बैठी है।
उन्होंने समझाने की बहुत कोशिश की, ``लेकिन नौकरी तो तुम्हें वहां भी मिल सकती है। न भी मिले तो अब तक हमें जो दो घरों पर दुगुना खर्च करना पड़ रहा है, एक साथ एक ही जगह रहने पर थोड़े कम पैसों में भी गुजर हो ही जायेगी। फिर इस मकान का किराया भी तो बच जायेगा,'' पर वह शायद पहले से सब कुछ तय किए बैठी है,``आप समझते क्यों नही! अगले सैशन में मेरे हेड बनने के पूरे चांस हैं। मैं ऐसे वक्त यह लेक्चररशिप कत्तई नहीं छोड़ सकती और न ही लम्बी छुट्टी लेकर यह चांस गंवाना चाहती हूं। जैसे अब तक हर महीने-पंद्रह दिन में आते रहे हैं, आगे भी आते रहिए।'' बिल्कुल ठण्डे स्वर में उसका जवाब मिला, ``हां, छुट्टियों की बात दूसरी है। हम वहीं आ जाया करेंगे आपके पास।''
अचानक सामने आयी इस स्थिति में क्या करें, वे तय नहीं कर पा रहे। उमा को धमकाएं? जबरदस्ती उसकी नौकरी छुड़वाएं या कोई और उपाय करें? पर उससे तो स्थितियां और बिगड़ेंगी। फिर से प्यार से उसे नफा-नुकसान समझाएं? या कहें कि वे अकेले रहते-रहते थक गए हैं। ढाबों में और खाना खाने की उनकी हिम्मत नहीं रही है। उसके पास तो फिर भी गुड्डू, अक्कू हैं। वे कैसे बताएं अब उम्र के इस दौर में सचमुच उन्हें परिवार की कितनी ज़रूरत है।
पर बद्रीप्रसाद के हर तरह से समझाने से भी वह टस-से-मस नहीं हुई हैं उमा। अक्कू, गुड्डू भी मां की तरफ ज्यादा निकले। वे पिता की तरफ हो भी कैसे सकते हैं? सोलह साल के गुड्डू को वे तब छोड़कर गए थे जब वह सिर्फ तीन बरस का था। और अक्कू तो उनके बंबई जाने के बाद ही पैदा हुआ है। इन तेरह बरसों में वे कुल मिलाकर तेरह महीने भी तो उनके पास नहीं रहे हैं। वे हर समय आस-पास बनी रहने वाली मां की तुलना में मेहमान सरीखे आने वाले पिता का पक्ष ले भी कैसे सकते हैं? इसमें बच्चों का भी क्या कुसूर! वे खुद ही तो इन सारी स्थितियों के लिए दोषी हैं। न बंबई वाली यह नौकरी स्वीकार करते, न ही आज यह दिन देखना पड़ता।
वे तब यहीं, इसी शहर में एक छोटी-सी प्राइवेट नौकरी किया करते थे। किसी तरह गुजारा हो ही रहा था। शादी हो चुकी थी और वे किसी बेहतर नौकरी की तलाश में थे। तभी मुम्बई वाली इस नौकरी के लिए उनका चयन हो गया था। उम्मीद से कहीं अधिक अच्छी। आगे तरक्की के भी खूब अवसर थे। बस एक ही दिक्कत थी। मकान की। कम्पनी ने साफ-साफ कह दिया था, ``कम्पनी की तरफ से फिलहाल मकान नहीं दिया जा सकता। भविष्य में कभी हो सका तो ज़रूर देंगे। कब? कह नहीं सकते।''
बहुत सोचा था उन्होंने। वैसे भी सरकारी नौकरी का आखिरी चांस था। वे ओवर एज ब्रैकेट के एकदम पास थे। उमा ने भी यह सलाह दी थी, ``ज्वाइन तो कर ही लो। कहीं एक कमरा किराए पर लेकर शुरू तो करो। आखिर कभी तो कम्पनी मकान देगी ही। नहीं जमा तो लौट आना। यहां वाली नौकरी तो है ही।'' उमा ने भरोसा दिलाया था, ``हमारी चिंता मत करना। कैरियर पहले है। हम गुड्डू के साथ रह लेंगी।'' और वे बंबई चले आए थे।
उन्हें बंबई आकर ही पता चला था कि कितनी मुसीबतों की पोटली है यह मायानगरी। सबसे पहले तो उन्हें ढंग की जगह तलाशने में ही एड़ी-चोटी का दम लगाना पड़ गया था। महीनों अपना बोरिया-बिस्तर उठाए एक ठिकाने से दूसरे ठिकाने भटकते रहे। बिना डिपाजिट के कोई एक कमरा तक किराए पर देने को तैयार नहीं होता था। इतना डिपाजिट कहां से लाते। कभी किसी की बालकनी में चारपाई भर की जगह लेकर रहे तो कभी किसी गेस्ट हाउस में। कभी दो-चार मित्रों के साथ मिलकर कहीं कमरे का जुगाड़ किया तो कभी सायन-कोलीवाड़ा की सरकारी कॉलोनी में रहे। अरसे तक पेइंग गेस्ट भी बने रहे अलग-अलग घरों में।
लाख तरह की मुसीबतें सही, लेकिन उन्होंने तय कर लिया था, यहां से लौटकर नहीं जाना है। इसी शहर में अपने लिए जगह बनानी है। आज नहीं तो कल, वे अपने और अपने परिवार के लायक एक छत ढूंढ ही लेंगे। उन्होंने देख लिया था, यह शहर काम और काम करने वाले, दोनों की कद्र करता है। वे काम करने आए थे, लौटने का सवाल ही नहीं उठता था।
हर महीने बिला नागा घर जाते रहे और उमा को ज़रूरत भर पैसे देते रहे। इधर बंबई में मकान की तलाश जारी रही। उमा हिम्मत दिलाए रहती, ``डटे रहो। हम बिल्कुल ठीक हैं'' इस बीच उमा ने एक-दो ट्यूशनें कर लीं और साथ ही एम.ए. ज्वाइन कर लिया। इधर बद्री प्रसाद ने भी अपनी शामों का अकेलापन काटने की नीयत से शाम की क्लास में एल.एल.बी में दाखिला ले लिया।
किस्मत अच्छी थी उमा की कि प्रथम श्रेणी में एम.ए. करते ही एक स्थानीय कॉलेज में पहले अस्थायी और फिर स्थायी लेक्चरशिप मिल गयी। हालांकि बद्री प्रसाद उमा की इस नौकरी से बहुत खुश नहीं थे, पर एक तसल्ली भी हुई थी कि अब वे घर पर ज्यादा पैसे भेजने के बजाय मकान के लिए पैसे जमा कर पाएंगे।
इधर उन्होंने एल.एल.बी के बाद जर्नलिज्म ज्वाइन कर लिया ताकि वक्त तो ढंग से गुज़रता रहे। इस कोर्स का उन्हें एक और फायदा हुआ था। वे कोर्स के दौरान और बाद में भी विज्ञापन एजेंसियों और फीचर एजेंसियों के लिए काम करने लगे। वक्त तो गुजरता ही था कुछ अतिरिक्त आमदनी भी हो जाती।
अपने बंबई प्रवास के पहले पांच साल में वे अपने परिवार को सिर्फ दो-तीन बार एक-एक सप्ताह के लिए बंबई ला पाए थे। वह भी तब, जब उनके दोस्त अपने परिवारों के साथ बाहर गए होते और वे उनके फ्लैट की चाबी एकाध हफ्ते के लिए मांग लेते। उमा को बंबई कतई पसंद नहीं थी। दड़बे जैसे घर, चारों तरफ गंदगी और हर समय भागम भाग। बद्री प्रसाद ने तब यही समझा था, दूसरे के घर में रहने की वजह से उमा व्यवस्थित महसूस नहीं कर रही है। अपना घर होते ही सब ठीक हो जाएगा।
एक जगह से दूसरी जगह, एक ठीए से दूसरे ठीए तक आठ साल तक धक्के खाने के बाद पहली बार वे एक फ्लैट का जुगाड़ कर पाए थे। दूर-दराज के कल्याण स्टेशन से भी दो किलोमीटर पर एक गंदी बस्ती में। मकान मालिक चलास हजार डिपाजिट मांग रहा था, जो उन्हें मकान छोड़ते समय लौटा दिए जाते। किराया पांच सौ रुपये।
उन्होंने बड़ी मुश्किल से ये पैसे जुटाए थे। अपनी और उमा की सारी बचत। यार-दोस्तों से उधार और कम्पनी की क्रेडिट सोसाइटी से कर्ज। वे उस घर को पाकर बेहद खुश थे। आखिर मिला तो सही। एक छत तो है सिर पर। बेशक छोटी जगह सही। उनके परिवार के लिए काफी है।
वे गर्मी की छुट्टियों में परिवार को ले आए थे। लेकिन आस-पास का इलाका देखकर उमा ने यहां रहने से साफ इनकार कर दिया था। ``हम इस सड़ी हुई जगह में कत्तई नहीं रहेंगी''। पूरी छुट्टियां बड़ी मुश्किल से उसने वहां गुज़ारी थी। बद्री प्रसाद ने बहुत समझाया था, ``लोग तो इससे भी खराब जगहों में रहते हैं। वे इससे अच्छी जगह की तलाश करते रहेंगे। और फिर, फ्लैट भीतर से तो साफ-सुथरा है।'' लेकिन उमा नहीं मानी थी और बच्चों को लेकर लौट गयी थी।
वे बीच-बीच में महसूस करते रहे हैं कि उमा बंबई के नाम से कभी उत्साहित नहीं रही। वह अपनी नौकरी और बच्चों में इतनी मगन रहती है कि जब वे यहां आते हैं तो उनकी तरफ भी ज्यादा ध्यान नहीं देती। उन्हें लगता है कि अब वे अपने ही घर में अपनी जगह खो चुके हैं। बच्चों के लिए उनके मन में कितना भी प्यार क्यों न हो, बच्चे उनसे हर वक्त कटे-कटे रहते हैं। कई बार उन्होंने महसूस किया है कि ज्यादा दिन रुकने पर बच्चे उनकी वापसी का इंतज़ार करने लगते हैं। कहीं उमा भी तो... नहीं, नहीं, इससे आगे वे नहीं सोचना चाहते और सिर थाम लेते हैं। सोचते हैं, बद्री प्रसाद, इस बंबई की नौकरी के चक्कर में उन्होंने कितना कुछ खो दिया है। अपने बच्चों तक के लिए अजनबी बन गए हैं। अपनी पत्नी से कितनी दूर जा चुके हैं। अब यहां लौट भी तो नहीं सकते। चालीस के होने को आए। अब कौन देगा इतनी पगार वाली नौकरी। यह रुतबा।
उन्हें समझ में नहीं आ रहा, उमा बार-बार बंबई जाने से क्यों मना कर दती है। कभी वह बच्चों की पढ़ाई का रोना लेकर बैठ जाती है तो कभी कहती है कि बंबई की आबोहवा उसे सूट नहीं करती। अब जब कम्पनी ने इतने खूबसूरत इलाके में काफी बड़ा फ्लैट उन्हें दे लिया है तो हैडशिप का नया बखेड़ा शुरू कर दिया है उसने। वह किसी तरह बंबई जाने से बचना चाहती है। वे उसे हर तरह से मनाकर, समझाकर हार चुके हैं। पिछले छह महीनों में यह उनका सातवां चक्कर है और इस बार भी वे अकेले वापस लौट रहे हैं। बिना किसी उम्मीद के। बिना किसी आश्वासन के।
कई बार उन्हें लगता है कि उमा के इस लगातार इनकार के पीछे कोई और वजह भी होगी। नहीं, वे उसके चरित्र पर शक नहीं करते। मेरी उमा ऐसी नहीं है। तो फिर! क्यों नहीं आना चाहती वह? उन्हें लगता है, शायद इतने बरस तक अकेले रहते-रहते उमा ने स्वतंत्र रूप से रहने, अपने फैसले खुद लेने की जो आदत बना ली है, उसे छोड़ना नहीं चाहती। शायद उसे यह डर लगता हो कि यहां जो सोसायटी में, कॉलेज में उसने अपनी पहचान बनायी है, वह एकदम खो जाएगी और बंबई में उसे नये सिरे से सब कुछ संवारना पड़ेगा। शायद कोई और बात हो। वे सोच नहीं पाते। वे तय नहीं कर पाते, क्या करें। क्या यूं ही सब कुछ चलने दें। रहते रहें अकेले? हारे हुए? टूटे हुए? लेकिन कब तक? या फिर लौटें उसे मनाने के लिए?
नहीं। उमा इस तरह से नहीं मानेगी। कब से तो प्यार से, मनुहार से मना रहे हैं। अब वे और अकेले नहीं रह सकते। उमा और बच्चों को भले ही उनकी ज़रूरत न हो, उन्हें अपने बीवी-बच्चों की सख्त ज़रूरत है। अब परिवार के बिना और नहीं रह सकते। कोई न कोई फैसला करना ही होगा। चाहे सख्ती करनी पड़े। वे तय कर लेते हैं।
बंबई पहुंचते ही उमा को एक कड़ा पत्र लिखेंगे, ``नौकरी से त्यागपत्र देकर आ जाए वरना... वरना तलाक के लिए तैयार रहे।
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Monday, May 12, 2008

तेरहवीं कहानी - शिब्बू

हमने उस वक्त तक दौड़ में मिल्खा सिंह का ही नाम सुना था। हमें तब तक पता नहीं था कि बड़ी रेसों में दौड़ने के लिए खास तरह के जूतों की और तकनीक की ज़रूरत होती है। हमें यह भी पता नहीं था तब तक कि किसी भी दौड़ में अव्वल आने के लिए समय की गणना के लिए सेकेंड के हिस्से भी मायने रखते हैं और हम ये भी नहीं जानते थे कि ऐसी दौड़ों में दो चार सेंटीमीटर से भी पिछड़ जाने का क्या मतलब होता है। ये सारी बातें हमें बहुत देर बाद पता चली थीं। लेकिन उस सारे अरसे के दौरान हम एक बात अच्छी तरह से जानते थे कि हमारे स्कूल में और हमारे ही साथ, हमारी ही कक्षा में पढ़ने वाला शिव प्रसाद पंत किसी भी मिल्खा सिहं से कम नहीं है। बेशक उसके पास जूते, कपड़े और दूसरे तामझाम नहीं थे फिर भी उसमें बला की चुस्ती, फुर्ती और गति थी। वह जब दौड़ता था तो हमें चीते से भी तेज़ दौड़ता नज़र आता था और उसके साथ दौड़ने वाले उससे कोसों पीछे छूट जाते थे। वह हमेशा अव्वल था और हमारे लिए वही मिल्खा था। छोटे कद और गठीले बदन वाला हमारा शिव प्रसाद पंत हमारा हीरो था। हमें उस पर नाज़ था। वह हमारा अपना धावक था और उसका साथ हमें गर्व से भर देता था।
शिव प्रसाद पंत। लेकिन हम सबका शिब्बू। उससे मेरी दोस्ती लगातार पांच-छ: बरस तक रही। सातवीं से ले कर ग्यारहवीं तक। हम दोनों की दांत-काटी दोस्ती थी। वह बेशक हमारे घर से बहुत दूर रहता था, फिर भी छुट्टी के दिन भी हमारी मुलाकात हो ही जाती थी। हम दोनों को रोजाना मिले बिना चैन न पड़ता। वह चला आता या मैं ही उससे मिलने चला जाता।
शिब्बू हमारे स्कूल की शान था और मैं इस बात से फूला नहीं समाता था कि वह मेरा पक्का याड़ी है। दूसरे लड़के उससे दोस्ती करने के लिए तरसते और मुझे उसका हर समय का साथ यूं ही मिला रहता। शिब्बू बहुत कम बोलता था और हम दोनों लगातार कई कई घंटे एक साथ बिताने के बावजूद बहुत कम बातें करते, बस साथ साथ रहते, घूमते और शरारतें करते।
स्कूल का शायद ही कोई ऐसा बच्चा हो जिसकी कभी न कभी बात बे बात पर पिटाई न होती हो। कभी होमवर्क न करके लाने के कारण या यूनिफार्म न पहन कर आने के कारण या किसी और वज़ह से लेकिन पूरे स्कूल में शिब्बू ही ऐसा लड़का था जिसकी कभी भी पिटाई नहीं होती थी। पढ़ाई में वह साधारण ही था और होम वर्क भी अक्सर ही उसका अधूरा रहता और हम सब मिल-मिला कर उसकी कापियां दिखाने लायक बना दिया करते थे। यूनिफार्म भी उसके पास एक ही थी जिसे वह रोज़ रात को धो कर सुबह पहन कर आया करता था। जिस दिन यूनिफार्म सूख न पाती, उस दिन वह बिना यूनिफार्म के, कमीज और धारीदार पायजामे में ही चला आता और ऐसा हफ्ते में दो-तीन बार तो हो ही जाता था लेकिन उसके लिए सब माफ था।
शिब्बू हमारे स्कूल का बेहतरीन धावक था। न केवल स्कूल का, बल्कि शहर और पूरे प्रांत में किसी भी स्कूल में उसका सानी नहीं था। वह हमेशा नंगे पैर ही दौड़ता था और मज़ाल है किसी भी रेस में कोई उससे आगे निकल जाये। स्कूल में वार्षिक उत्सव पर हमारी याद में पांच-सात बरसों में जितनी भी खेलकूद प्रतियोगिताएंं हुई थीं, सौ मीटर से ले कर पांच हज़ार मीटर तक और ऊंची कूद से ले कर लम्बी कूद तक, सब में वह लगातार अव्वल रहा था। स्कूल की नाक होने के पीछे यही वजह थी कि वह लगातार स्कूल द्वारा जीती जाने वाली चल वैजयंतियों की संख्या बढ़ा रहा था। प्रतियोगिता कहीं भी हो, किसी भी स्तर की हो और किसी भी रेस की हो, स्कूल से पहला नाम उसी का जाता था और ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि वह पहले स्थान की शील्ड लिये बिना वापिस आया हो। उसके साथ जाने वाले हमारे स्पोर्ट्स टीचर हमेशा आश्वस्त ही रहते कि शिब्बू के होते भला किसकी मज़ाल कि शील्ड ले जाये।
हमारे अपने स्कूल के वार्षिक उत्सव में तो उसका रंग देखने लायक होता। सारी की सारी प्रतियोगिताओं के पहले पुरस्कार उसकी झोली में होते। उसे पुरस्कार देने का क्रम सबसे आखिर में रखा जाता और पूरा पांडाल लगातार तालियों की गड़गड़ाहट से देर तक गूंजता रहता और वह एक के बाद एक पुरस्कार लेने के लिए मंच पर आता रहता। हम मंच के नीचे बैठे उसके हाथ से ट्राफियां लेते रहते और वह मंच पर वापिस जा जा कर ट्राफियां बटोरता रहता।
स्पोर्ट्स डे वाले दिन तो ये हालत होती कि खेलकूदों में हिस्सा लेने वाले बाकी सारे होशियार लड़के, भूपेन्द्र और वीरेन्द्र मैसन, देवेन्द्र भसीन, नंदू, अवतार सिहं, शम्सुद्दीन, मेहर अली, नानू दीन, शशि मोहन पंछी, पवन बिष्ट वगैरह सब के सब उसके आगे हाथ जोड़ते कि भइया, एक आध प्रतियोगिता तो हमारे लिए भी छोड़ दो, ये सर्टिफिकेट हमारे बहुत काम आयेंगे। तुम्हारे पास तो सैकड़ों की संख्या में जमा हो रहे हैं। जवाब में वह हंस देता,``मैंने कब मना किया है तुम्हें। आओ आगे और ले जाओ पहला स्थान।'' लेकिन पहला स्थान शिब्बू के रहते बाकी के लिए सपना ही रहता।
शिब्बू बेहद गरीब घर का लड़का था। वे लोग पांच भाई बहन थे और उसके पिता बिजली के दफ्तर में काम करने वाले एक ठेकेदार के यहां काम करते थे और उनकी आमदनी एकदम मामूली थी। बेशक उसकी फीस माफ थी लेकिन कुछ न कुछ खर्च तो पढ़ाई के सिलसिले में हो ही जाता था, उसके लिए ये चीज़ें जुटाना भी मुश्किल पड़ जाता था। शायद यही वज़ह रही होगी कि उसने प्रिंसिपल साहब से एक बार कहा था कि उसे स्कूल से मिलने वाली इतनी ज्यादा शील्डें और कप वगैरह न दिये जायें और बदले में, हो सके तो नकद पैसे या कुछ काम की च़ाजें दे दी जाया करें। उसके पास इन बरसों में इतनी ज्यादा शील्डें हो गयी थीं कि एक ही कमरे के उसके घर में रखने की जगह नहीं रही थी और न ही उसके या उसके परिवार के लिए उनकी कोई उपयोगिता ही थी। उसने स्पोर्ट्स टीचर के जरिये ये भी कहलवाया था कि अगर वे चाहें तो मंच पर से दिये जाने के लिए वह अपनी पुरानी शील्डों और कपों में से कुछ को धो-पोंछ कर, चमका कर उठा लाया करेगा और मुख्य अतिथि के हाथों उन्हीं को ले लिया करेगा, बस, इन पर खर्च होने वाली राशि उसे नकद दे दी जाया करे। एकाध बार शायद ऐसा किया भी गया था लेकिन ये सिलसिला ज्यादा नहीं चल पाया था।
ऐसा नहीं था कि उसे शील्ड वगैरह लेना अच्छा न लगता हो लेकिन उसके घर की हालत वाकई खराब थी। उसे इतनी कम उम्र में पिता की मामूली आमदनी में हाथ बंटाने के लिए तरह तरह के ध्ंाधे करने पड़ते। दुकानों में देर रात तक काम करने के अलावा वह और उसके भाई बहन मिल कर पुरानी कापियों से लिफाफे बना कर दुकानदारों के पास बेचते तो कभी वह घर के पास की टाल में लकड़ियां चीरने जैसा मुश्किल और हाड़-तोड़ काम करके दो एक रुपये अपने लिए जुटाता। लेकिन एक बात थी। वह कुछ भी काम कर रहा हो किसी को हवा तक नहीं लगने देता था कि उसे अपनी पढ़ाई जारी रखने लिए किन किन धंधों में खटना पड़ता है और न ही वह किसी को यह ही पता ही चलने देता कि उसने कल रात से कुछ नहीं खाया है। वह हमारे घर भी कभी भी खाने के वक्त न आता।
स्कूल में भी खाने की छुट्टी में वह चुपके से किसी भी तरफ सरक लेता ताकि उसे कोई दोस्त अपना टिफिन शेयर करने के लिए न बुला ले। हां, उसे इतना सहारा ज़रूर रहता कि हमें स्कूल की तरफ से मिड डे मील के नाम पर हफ्ते में तीन दिन बिस्किट, दो दिन केले और शनिवार के दिन भुने हुए चने मिला करते थे। सुबह हाज़री के बाद हर कक्षा के मानीटर को स्पोर्ट्स टीचर के कमरे में जा कर बताना पड़ता था कि आज कक्षा में कितने बच्चे आये हैं और फिर लंच की घंटी बजने से पांच मिनट पहले वहां जा कर मिड डे मील की ट्रे लानी पड़ती थी। मानीटर हमेशा बेईमानी करते और अनुपस्थित बच्चों की संख्या भी लिख आते और इस तरह से रोज़ाना तीन-चार बच्चों का अतिरिक्त नाश्ता ले आते और अपने खास-खास दोस्तों को दो-दो केले या बिस्किट दे देते या खाली ट्रे वापिस ले जाते समय रास्ते में आपस में बांट लेते। पूरी कक्षा में एक अलिखित समझौता-सा था कि जो बच्चे टिफिन नहीं ला पाते या आधी छुट्टी में घर नहीं जा पाते, उन्हें अतिरिक्त नाश्ता दिया जाता था और ऐसे लड़कों में शिब्बू भी रहता। बेशक इसके लिए न तो उसने कभी हाथ फैलाया और न ही इसे हक मांग कर ही लिया।
इधर-उधर के काम धंधों के चक्कर में कई बार उसका स्कूल भी मिस हो जाता और वह पढ़ाई में और पिछड़ जाता। शहर का सबसे बढ़िया एथलीट होने के बावजूद उसके पास न तो जूते थे और न ही दूसरे शहरों में जाने लायक दो जोड़ी कपड़े ही। स्कूल में तो वह नंगे पैर ही चला आता लेकिन दूसरे शहरों में जाता तो अपने लिए उसने एक ज़ोड़ी किरमिच के जूते रख छोड़े थे और उन्हें बहुत ही एहतियात से पहनता। बेशक उसके पास एक दो जोड़ी मामूली कपड़े ही थे फिर भी वह हमेशा साफ-सुथरा रहता।
जब हम ग्यारहवीं में थे तो हम दोनों के साथ ही ऐसे हादसे हो गये कि हम दोनों की ज़िंदगी की दिशा ही बदल गयी। हम दोनों ही ग्यारहवीं में फेल हो गये थे। बेशक दोनों के फेल होने की वज़हें अलग-अलग थीं।
मैं अति विश्वास के चक्कर में लुढ़क गया था। उस बरस सिर्फ मैं ही नहीं, हम चारों भाई बहन अपनी-अपनी कक्षा में फेल हो गये थे। दोनों बड़े भाई बारहवीं में, मैं ग्यारहवीं में और छोटी बहन सातवीं में। दो बरस पहले मुझसे बड़े भाई को दसवीं में गणित में पिचासी प्रतिशत अंक मिले थे और उनके कुल अंक 58 प्रतिशत थे। उनका नाम विशेष योग्यता पाने वाले छात्रों की सूची में प्रधानाचार्य के कमरे के बाहर लगे बोर्ड पर दर्ज किया गया था। इसके बावजूद वे ग्यारहवीं में बहुत मुश्किल से गणित खींच पाये थे और बारहवीं के गणित ने उनकी हवा ढीली कर रखी थी। और जब दसवीं में मैं भी गणित में पिचहतर प्रतिशत अंक ले कर पहली श्रेणी में पास हुआ तो मैं जैसे सातवें आसमान पर था। बड़े भाई के लाख समझाने पर कि दसवीं के गणित में तो कोई भी सौ में से सौ अंक भी ला सकता है और कि बारहवीं का गणित सबके बस का नहीं, गणित मत लो और साइंस के बजाय कला या वाणिज्य में दाखिला ले लो, मैं बिलकुल भी नहीं माना था और ज़िद करके विज्ञान और गणित विषय ही लिये थे। नतीजा सामने था। बड़े भाई का बारहवीं का बोर्ड का परिणाम तो बाद में आया था लेकिन मैं ग्यारहवीं में हिन्दी और अंग्रेजी को छोड़ कर गणित, भौतिक विज्ञान और रसायन शास्त्र में बुरी तरह से लुढ़का हुआ था। बीस प्रतिशत अंक भी नहीं जुटा पाया था इन विषयों में।
हम सब भाई-बहनों के एक साथ फेल हो जाने से हमारे माता-पिता को बहुत झटका लगा था। आर्थिक भी और मानसिक भी और मेरी पढ़ाई बंद कर दी गयी थी। अब मैं सिर्फ सत्रह बरस की उम्र में स्कूल से बाहर था और मेरे सामने एक पूरी तरह से अंधेरी दुनिया थी।
उधर शिब्बू के फेल होने की वज़हें बिलकुल अलग थीं। ये जनवरी या फरवरी के आस-पास की बात थी। शिब्बू प्रांतीय स्तर पर होने वाली स्कूली खेलकूद प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए लखनऊ गया हुआ था। पूरे पद्रह दिन का कार्यक्रम था और वहां पर उसने 100 मीटर, 200 मीटर और 500 मीटर, तीनों में बेहतरीन समय निकाला था। अपना भी और प्रांतीय प्रतियोगिताएां में भी अब तक का सब से अच्छा समय। इस बात की पूरी उम्मीद थी कि आगे चल कर उसे राष्ट्रीय स्तर पर चुन लिया जायेगा और उसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में भाग लेने का मौका मिलेगा। अभी उसकी उम्र ही क्या थी, सत्रह के आस-पास। लेकिन उसकी गति, टाइमिंग और शैली गजब की थीं। बेशक उसने इन सारी चीज़ों की विधिवत तालीम नहीं पायी थी, न उसकी खुराक का ठिकाना था और न कपड़ों और जूतों का लेकिन सही मार्ग दर्शन मिलने पर वह और बेहतर परिणाम दिखा सकता था।
अभी वह लखनऊ में ही था कि उसे खबर मिली कि उसके पिता हाई वोल्टेज बिजली का झटका लगने के कारण बुरी तरह से घायल हो गये हैं। उनके शरीर का दायां हिस्सा बुरी तरह से जल गया था। जिस दिन शिब्बू को लखनऊ में ये खबर मिली, थोड़ी देर पहले ही उसने पांच हज़ार मीटर की दौड़ जीती थी और अपने टीचर के साथ अपने घर तथा स्कूल के लिए तार भेजने के लिए निकला ही था। खबर पा कर वह जिस हाल में था, वापिस निकल पड़ा। पुरस्कार वितरण समारोह अगले दिन था और उसकी अध्यक्षता राज्यपाल करने वाले थे लेकिन शिब्बू अपने पिता के साथ हुए हादसे की खबर सुनने के बाद वहां रुक ही नहीं सका और लौट आया। आते ही पिता के पास अस्पताल पहुंचा था। वे बोलने, शरीर को हिला-डुला पाने की शक्ति खो चुके थे और लुंज-पुंज से पड़े हुए थे। शिब्बू को आया देख कर भी वे उसे सूनी आंखों से देखते रह गये थे। शिब्बू के पास उन्हें सुनाने के लिए अपने जीवन की सबसे अच्छी खबरें थीं लेकिन अब सब कुछ खत्म हो चुका था। वे सुख-दुख, सुनने और सुनाने की सीमा रेखा पर गुमसुम पड़े थे।
जीवन और मौत के बीच पूरे तीन महीने के तक झूलने और परिवार पर अच्छा-खासा आर्थिक बोझ डाल कर वे चल बसे थे। इस बीच इस हादसे से पहले शिब्बू इन दिनों कई और हादसे झेल चुका था। राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली स्पर्धाओं में अपने प्रांत की तरफ से उसे चुन लिया गया था लेकिन अंतिम चयन के लिए वह पटियाला नहीं जा पाया था। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने जलवे दिखाने के मौके उसके हाथ से जाते रहे थे। बेशक उसने ग्यारहवीं की परीक्षा दी थी लेकिन उसके लिए कोई तैयारी नहीं कर पाया था और बुरी तरह से फेल हो गया था। अगर एकाध विषय में दो चार नम्बर कम भी होते तो उसे ग्रेस मार्क दे कर पास कर दिया जाता लेकिन वह इन तीन चार महीनों में पढ़ पाना तो दूर, कायदे से स्कूल ही नहीं आ पाया था। वह इस हालत में ही नहीं था कि स्कूल की तरफ चक्कर ही काट पाता। पिछले तीन महीने से वह अस्पताल और घर के बीच ही चक्कर काटता रहा था। एक तरफ पिता थे जो सांस-सांस के लिए अस्पताल में लड़ रहे थे और दूसरी तरफ पूरी तरह से चरमरा गयी घर की हालत थी। पिता के इलाज के लिए पैसे कहीं से भी नहीं जुटाये जा सके थे। होने को दिल्ली में उन्हें ले जाने पर बेहतर इलाज की उम्मीद बंधती लेकिन उन्हें वहां तक ले जा पाने लायक हालत में नहीं था वह। अब घर में सबसे बड़ा वही था और घर की गाड़ी चलाने की जिम्मेवारी भी उस पर आ पड़ी थी। इस दौरान उसकी सारी शील्डें, पदक और कप वगैरह कबाड़ी बाजार के जरिये घर से औने पौने दामों में विदा हो चुके थे।
हम दोनों के लिए ही ये बेहद मुश्किल भरे दिन थे। मेरे घर की भी हालत ऐसी नहीं थी कि हम चारों भाई बहनों को फिर से उन्हीं कक्षाओं में पढ़ाया जाता। सबसे बड़े भाई पढ़ाई को हमेशा के लिए जय राम जी की कह की एक दुकान में मामूली से वेतन पर काम करने लगे थे। मुझसे बड़े भाई ने तो शर्म के मारे शहर ही छोड़ दिया था और दूसरे शहर में एक चाचा के पास रहते हुए बाटा की दुकान में हेल्परी की नौकरी पकड़ ली थी। उनकी नौकरी वैसे भी उसी दुकान पर पक्की थी। अगर बारहवीं पास कर लेते तो सीधे ही सेल्समैन बन जाते। लेकिन अब हेल्पर बन कर ही रह गये थे और उम्मीद कर रहे थे कि अगली बार विषय बदल कर बारहवीं की परीक्षा प्राइवेट छात्र के रूप में देंगे।
छोटी बहन की भी उम्र और छोटी कक्षा को देखते हुए उसकी पढ़ाई जारी रखी गयी थी। अब बचा था सिर्फ मैं। दसवीं में प्रथम श्रेणी और ग्यारहवीं में फेल। उम्र सिर्फ सत्रह बरस और चार महीने। वे मेरे लिए बेहद तनाव भरे दिन थे और कुछ नहीं सूझता था कि क्या किया जाये। बारहवीं की परीक्षा प्राइवेट तौर पर दी जा सकती थी लेकिन उसके लिए भी बोर्ड के नियमों के अनुसार ग्यारहवीं में फेल होने के बाद एक बरस का ब्रेक जरूरी था। अब मेरे सामने इस बात के अलावा कोई उपाय नहीं था कि पूरे डेढ़-दो बरस तक इंतजार करूं और उसके बाद ही बारहवीं की परीक्षा दूं। फिलहाल इस दौरान मेरे पास करने धरने को कुछ भी नहीं था। मेरे सब दोस्त स्कूल चले जाते और मैं मारा-मारा फिरता या घर पर रह कर मां बाप की डांट सुनता रहता। इतनी कम उम्र में नौकरी मिलने का सवाल ही नहीं था और ग्यारहवीं फेल को अपने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने भी कौन देता। दो एक परिवारों ने तरस खा कर प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेवारी दे दी थी लेकिन इन ट्यूशनों से पैसे इतने कम मिलते थे कि टाइपिंग सीखने की फीस का जुगाड़ भी न हो पाता। सिर्फ वक्त कटी का बहाना था। वक्त गुज़ारने और घर वालों की निगाह में एक दम नाकारा न बने रहने की वजह से टाइपिंग क्लास में दाखिला ले लिया था। कई बार दुकानों पर भी बैठ कर काम किया लेकिन कहीं भी टिक नहीं पाता था। शर्म आती और हर आदमी जैसे मुफ्त में हमालगिरी कराने की फिराक में रहता। उन दिनों नौकरी मिलना बहुत मुश्किल काम था और अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे लड़के रोज़गार दफ्तर के चक्कर काटते रहते और किसी भी तरह की नौकरी से चिपक जाने के लिए तैयार हो जाते। मेरी मुश्किल ये थी कि अट्ठारह बरस का होने से पहले रोज़गार दफ्तर में नाम भी नहीं लिखवा सकता था।
उधर शिब्बू को भी घर की हालत देखते हुए पढ़ाई जारी रख पाना मुश्किल लग रहा था। बेशक स्कूल ने अपने लालच के चलते उसे प्रवेश दे रखा था ताकि बाहर होने वाली प्रतिस्पर्धाओं में भेजे जाने के लिए कहने मात्र के लिए वह स्कूल का छात्र बना रहे। अलबत्ता, उसे सभी प्रतिस्पर्धाओं में पहले ही की तरह भेजा जाता रहा। कक्षाओं में वह शायद ही कभी आ पाता, क्योंकि पिता के मरने के बाद पूरा घर चलाने की जिम्मेवारी उस पर ही आ पड़ी थी। अब हमारी मुलाकातें भी पहले की तुलना में कम हो गयी थीं। मेरे पास टाइम ही टाइम था और उसके पास सबसे दुर्लभ वक्त ही था। सारी चीज़ें एकदम उसके खिलाफ हो गयी थीं।
अट्ठारह बरस पूरे होते ही हम दोनों ने एक साथ रोज़गार दफ्तर में नाम लिखवा लिया था और अब हम एक बेकार सी उम्मीद करने लगे थे कि किसी दिन हमारे लिए भी नौकरी के लिए काल लैटर आयेगा और हमें भी कोई अच्छी-सी नौकरी मिलेगी। शिब्बू और मैं, दोनों ही अपने-अपने तरीके से अच्छी नौकरी के लिए खुद को दावेदार मानते। शिब्बू के पास सैकड़ों की संख्या में स्पोर्ट्स के प्रमाण पत्र थे और वह प्रांतीय स्तर का धावक था जबकि मेरे पक्ष में हाई स्कूल की प्रथम श्रेणी और टाइपिंग की अच्छी स्पीड थी। जबकि सच हम जानते थे कि रोज़गार दफ्तर में हमसे पहले भी हजारों की तादाद में हमसे ज्यादा पढ़े लिखे लड़कों ने अपने नाम दर्ज करवा रखे थे और किसी भी नौकरी पर हमसे पहले उनका हक बनता था। लेकिन रिक्तियां इतनी कम निकलतीं कि एक एक पद के लिए पचास लोगों को काल लैटर भेजना मामूली बात थी।
और तभी सर्वे के दफ्तर में असिस्टेंट केयर टेकर की रिक्ति आयी थी। एक ही पद था और संयोग से मुझे भी कॉल लैटर आ गया था। दरअसल मुझे इतनी जल्दी कॉल लैटर मिलने के पीछे का किस्सा ये था कि जो आदमी रोज़गार दफ्तर में कॉल लेटर निकालता था, वह हमारे बड़े मामा जी यानी नानी के भाई की राशन की दुकान से राशन उधार लिया करता था। वह अक्सर बड़े मामा जी की दुकान पर आता था। मामाजी को मेरी हालत के बारे में पता था और ये भी पता था कि मैं टाइपिंग वगैरह सीख रहा हूं। उन्हेंने ही मुझसे मेरा एक्सचेंज के कार्ड नम्बर मांग रखा था कि मौका लगने पर उसे दे देंगे। अब सर्वे की पास्ट आने पर उससे कह कर मामा जी ने मेरा कार्ड निकलवा दिया था। बड़ी अजीब सी थी ये पोस्ट। न क्लास थ्री में और न क्लास फोर में। बीच का पद था ये। क्लास फोर में इसलिए नहीं था कि इस पद पर आदमी को चपरासियों की तरह वर्दी नहीं पहननी पड़ती थी और क्लास थ्री में इसलिए नहीं था कि इस पद से बाकी क्लर्कों की तरह यूडीसी वगैरह में प्रोमोशेन नहीं था। अलबत्ता, इस पद के साथ कुछेक फायदे जुड़े हुए थे। मसलन इस्टेट में रहने को मकान और बिजली पानी भी फ्री। मामाजी का ये मानना था कि किसी तरह से इस पोस्ट से एक बार चिपक तो जाओ, बाद में पढ़ाई भी करते रहना और दूसरी भर्तियां होने पर डिपार्टमेंटल केंडीकेट के नाते हर बार एग्जाम देते रहना। तब अपना आदमी एक्सचेंज में रहे न रहे, क्या गारंटी। इस समय तो उसने खुद ही कार्ड निकाल कर दिया है। किसी तरह घुस जाओ सर्वे में।
मैं अजीब दुविधा में था। हाइ स्कूल में फर्स्ट क्लास और काम घर-घर जा कर लीक करते नलके और बिजली की फिटिंग चेक करना। चार घंटे सुबह ड्यूटी और चार घंटे शाम। रहने के लिए क्लास फोर कालोनी में ही मकान। वहां पर रहना जरूरी। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं। घर वालों का भी यही मानना था कि आगे की पढ़ाई तो वैसे भी प्राइवेट करनी है तो क्या दिक्क्त। और फिर छोटा-सा ही सही, बिना किराये का मकान भी तो मिल रहा है साथ में। वर्दी तो पहननी नहीं है कि चपरासी कहलाओ। वैसे भी ये पद चपरासी का तो है भी नहीं।
पता नहीं कैसे हुआ था कि पिताजी के कोई परिचित सर्वे में निकल आये थे जिन्होंने मुझे वहां पर फिट कराने की जिम्मेवारी ले ली थी। मैं अपने आने वाले जीवन को ले कर बेहद परेशान था कि क्या होगा और कैसे होगा। ये तय था कि मुझे अभी और आगे पढ़ना था लेकिन जो हालात मेरे चल रहे थे उसमें तो मुझे बारहवीं का फार्म भरने के लिए भी पैसे घर से ही मांगने पड़ते।
इसी परेशानी के आलम में मैं शिब्बू के पास गया था और उसे सारी बात बतायी थी। वह काफी देर तक मेरी बात सुनता रहा था और सिर्फ हां हूं करता रहा था। कहा कुछ भी नहीं था उसने।
ये तो लिखित परीक्षा वाले हॉल में जा कर ही पता चला था मुझे कि शिब्बू भी उसी पद के लिए एक केंडीडेट है। मैं इस बात को ले कर हैरान हो रहा था कि मैं तो उसके घर पर जाकर अपने बारे में बात कर के आया था और उसने इस बात का ज़िक्र तक नहीं किया था। लेकिन अब उसे देख कर मैं सचमुच चाहने लगा था कि उसका ही चयन हो जाये। उसकी जरूरत मेरी जरूरत से ज्यादा बड़ी थी।
लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के आधार जो सूची बनी थी उसमें मैं पहले स्थान पर और शिब्बू का नाम दूसरे स्थान पर था। पिताजी के परिचित ने अपना वायदा निभाया था। अभी भी मैं चाह रहा था कि ये पद शिब्बू को ही मिले तो बेहतर। और जब नियुक्ति पत्र शिब्बू के नाम आया तो मुझे कोई हैरानी नहीं हुई थी। बाद में पिताजी के उस परिचित से ही पता चला था कि शिब्बू के कोई चाचा उसकी मां को ले कर चयन समिति के अध्यक्ष से मिले थे और शिब्बू की उपलब्धियों और जरूरत के आधार पर शिब्बू के लिए ये नौकरी दिये जाने की सिफारिश की थी। चयन समिति के अध्यक्ष से कोई नजदीकी रिश्तेदारी भी निकाल ली गयी थी। इस बात का शिब्बू को भी बहुत बाद में पता चला था। मुझे पता था, वह अपनी ओर से इस तरह से कभी भी न जाता।
शिब्बू ने वहां ज्वाइन कर लिया था। मैं उसे बधाई देने गया था और इस बात का बिल्कुल भी ज़िक्र नहीं किया था कि उसने इस बारे में मुझसे सारी बातें छुपायी क्यों। बल्कि मैं अब चयन न हो पाने की वजह से राहत ही महसूस कर रहा था कि अब मेरे पास पढ़ाई जारी रखने का कम से कम बहाना तो बना रहेगा। मैंने तय कर लिया था कि जैसे भी हो, अब जम कर पढ़ाई करनी ही है।
अब हमारी मुलाकातें कम होतीं। उसकी नौकरी के घंटे ही उसे इस बात की इजाज़त न देते कि वह कहीं आ जा सके। घर मिल जाने से उसका परिवार सड़क पर आ जाने से बच गया था और उसके भाई बहनों की पढ़ाई का ठीक ठाक सिलसिला बन गया था।
नौकरी में आ जाने के कारण उसका स्कूल लगभग छूट चुका था। वैसे कहने का अभी भी उसका नाम कटा नहीं था लेकिन नौकरी के चक्कर में अब वह स्थानीय प्रतिस्पर्धाओं में भी हिस्सा नहीं ले पाता था। अब उसका सारा समय टूटे नलके ठीक कराने और बंद नालियां साफ करवाने में जाने लगा था।
तब तक मैंने भी खूब मेहनत करके कला विषय ले कर बारहवीं की परीक्षा अच्छी सेकेंड डिवीजन में पास कर ली थी। अब मेरे पास कुछ अच्छी ट्यूशनें भी थीं और एक काम चलाऊ नौकरी भी। आगे पढ़ने की अपनी ललक को जारी रखते हुए मैंने मार्निंग क्लास में बीए में दाखिला ले लिया था। अब शिब्बू से मेरी मुलाकातें और भी कम हो पातीं। मैं सुबह छ: बजे ही निकल जाता। नौ बजे तक कॉलेज एटेंड करता और सीधे नौकरी पर भागता। नौकरी से छूटते ही ट्यूशन के लिए लपकता। बहुत ज्यादा न मिल पाने के बावजूद हमें एक दूसरे की पूरी खबर रहती थी। हम जब भी मिलते, पहले की-सी गर्मजोशी से ही मिलते थे।
मेरी किस्मत अच्छी थी कि बीए करते ही मुझे स्टाफ सेलेक्शन के जरिये दिल्ली में शिक्षा मंत्रालय में असिस्टैंट की नौकरी मिल गयी थी। दिल्ली जाने से पहले मैं दो बार उससे मिलने गया था लेकिन वह दोनों ही बार इस्टेट आफिसर के साथ कालोनी की अपनी रूटीन विजिट पर गया हुआ था और उसे आने में कम से कम दो घंटे लगते। मैं उसके नाम चिट्ठी छोड़ कर आ गया था।
दिल्ली आ कर भी मैं टिक कर नहीं बैठा था और लगातार पढ़ाई करता और परीक्षाओं में बैठता रहा था। मेरे भाग्य का सितारा बुलंदी पर चल रहा था और तीसरे प्रयास में मैं आइएएस में आ गया था। मेरे लिए ये बहुत ऊंची छलांग थी। सिर्फ दस बरस मे ही ये कमाल हो गया था कि मैं ग्यारहवीं फेल निट्ठले से काम का आदमी बन गया था। मैं हालांकि ट्रेनिंग पर मसूरी में ही था लेकिन कई बार अपने घर देहरादून आने के बाद भी मैं शिब्बू से मिलने नहीं जा पाया था। हालांकि हमेशा मिलना चाहता रहा। हां, उससे बीच बीच में पत्राचार होता रहा था जो वक्त के साथ साथ कम होते हुए बाद में बंद ही हो गया था। शिब्बू की शादी हो गयी थी और वह अपने परिवार और ड्यूटी में पूरी तरह से रम गया था। इस बीच मैं भी अपने परिवार और कैरियर में रम गया था। लगातार अलग-अलग शहरों में पोस्टिंग के चक्कर में और दूसरी व्यस्तताओं के चक्कर में उससे कई बरस तक मिलने जाना नहीं हो पाया था।
मैं तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता हुआ संयुक्त सचिव के वरिष्ठ पद तक पहुंच गया था।
कोई बीस बरस बाद मैं एक बार फिर अपने शहर में था। छुट्टी का दिन था और मैं खाली था। कोई और काम न होने के कारण मैं शिब्बू से मिलने चला गया था।
इस बार मैं पूछता-पाछता शिब्बू के घर ही चला गया था। पता चला था कि वह ऑफिस में ही है। उसके बीवी बच्चों से मैं कभी नहीं मिला था इसलिए परिचय देने की कोई तुक नहीं थी। उसके ऑफिस में जा कर पता चला कि वह अपने किसी सीनियर अफसर के साथ इस्टेट विजिट पर गया हुआ था। इस बार भी मैं उससे नहीं मिल पाया था।
बस, इस बीच एक ही फर्क मैं देख पा रहा था। अब उसकी मेज पर जो नेम प्लेट रखी हुई थी, उस पर असिस्टैंट केयर टैकर के बजाय केयर टेकर लिखा हुआ था। उसे बीस बरस में एक पदोन्नति मिली थी। काम शायद वह अभी भी वही कर रहा था।
वापिस आते समय मैं सोच रहा था कि ये भी तो हो सकता था कि इस नेम प्लेट पर शिव प्रसाद पंत की जगह मेरा नाम होता।
होने को तो ये भी हो सकता था कि शिव प्रसाद पंत तब राष्ट्रीय चयन शिविर में जा पाता और उसका वहां पर चयन हो गया होता।
सूरज प्रकाश
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Monday, May 5, 2008

बारहवीं कहानी - रंग–बदरंग

उन्हें दूसरे पैग से नशा होने लगा है। दिमाग में हल्की–हल्की सी झनझनाहट शुरू हो गयी है। कुछ भी सिलसिलेवार नहीं सोच पा रहे हैं। `ऑन द राक्स' व्हिस्की के गिलास पर बार–बार पानी की बूँदें जम जाती हैं। वे उन बूँदों को बड़ा होते और गिलास के पैंदे की तरफ तेजी से बढ़ते देखते हैं और अपने माथे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछते हैं। सोचते हैं–गिलास भीतर से भी ठण्डा है और बाहर से भी। परन्तु उनका माथा! भीतर से किसी भट्टी के मानिन्द तप रहा है और बाहर से सारा बदन पसीने से तर–बतर है। वे एक लम्बा घूँट भरते हैं।
जैसे–जैसे उसके आने का वक्त नजदीक आ रहा है, उनकी घबड़ाहट बढ़ती जा रही है। पता नहीं कौन होगी! देखने में कैसी होगी! किस तरह से पेश आएगी! वेटर तो यही बता रहा था, कहीं नर्सिंग का कोर्स कर रही है। हर रोज या हर तरह के ग्राहक नहीं लेती। उनके लिए खास तौर से शाम फ्री रखी है उसने। वे घड़ी देखते हैं – सात पैंतीस। अभी पूरे पचपन मिनट बाकी हैं उसके आने में। एक घूँट भरते हैं वे। उठकर कमरे की खिड़की पर आ खड़े हुए हैं और कमरे में बज रहे संगीत की लहरियों के साथ ताल देने लगे हैं। अपनी टाँगों में कँपकँपाहट महसूस करते हैं। डर अभी भी उन्हें घेरे हुए है। कहीं ऐन वक्त पर कुछ ऐसा–वैसा न कर बैठें। इसीलिए खुद को नशे में पूरी तरह खो देना चाहते हैं। कहीं पढ़ा था, आप जो कुछ पूरे होशो–हवास में नहीं कर सकते, नशे की आड़ में आराम से कर सकते हैं। परन्तु उन्हें लगता है नशा उनकी घबड़ाहट भी बढ़ा रहा है।
वे खुद उस लड़की से कैसे पेश आएँगे! वह सब कुछ कर भी पाएँगे, जिसके लिए अपने शहर से सैकड़ों मील दूर इस शहर में एकान्त होटल में गलत नाम से टिके हुए हैं। कितनी तो मुश्किलों से यह सब करने के लिए यहाँ आ पाए हैं। वेटर से सब कुछ तय करने में ही उसकी आधी जान सूख गयी थी।
वे हौले–हौले चलकर सोफे तक आते हैं। साँस फूल गयी है। धम्म से बैठकर आँखें मूँद लेते हैं। नशा पोर–पोर तक पहुँच गया। काफी देर तक यूँ ही बैठे रहते हैं, आँखें बन्द किए। अचानक दरवाजे पर खटका हुआ है। एकदम चौंककर आँखें खोलते हैं–आ गयी शायद। उनके दिल की धड़कन फिर तेज हो गयी है। रक्तचाप तेजी से बढ़ता प्रतीत होता है। उठते हैं। हाथ से ही मुँह पोंछते हैं और कदमों को सन्तुलित करते हुए दरवाजे तक जाते हैं। रूम सर्विस वाला वेटर है।
`सर, और कुछ चाहिए?' वह बहुत नम्रता से पूछता है। वे राहत की साँस लेते हैं। अच्छा ही हुआ, अभी नहीं आयी। वे खुद को उसके लिए पूरी तरह तैयार ही कहाँ कर पाए हैं। वेटर को मना कर देते हैं, `नहीं कुछ नहीं चाहिए।' दरवाजा बन्द करके बिस्तर पर आ बैठते हैं। दोनों तकिये की पाटी पर टिकाकर अधलेटे हो गए और आँखें मूँद लीं।
वे फिर से उस लड़की के बारे में सोचना चहते हैं। बन्द आँखों में उसकी छवि बनाना चाहते हैं ताकि जब वह आए तो उसे अपनी कल्पना के अनुरूप पाएँ। किसी अजनबी खूबसूरत चेहरे का अक्स आँखों में बने, इससे पहले ही पत्नी का खयाल आ जाता है। एकदम उठ बैठते हैं। मूड़ बदमजा हो गया। बड़बड़ाते हैं, `कम्बख्त से जितना बचना चाहता हूँ, उतना ही पीछा करती है। कम–से–कम यहाँ तो पिण्ड छोड़े।' वे फिर बेचैन हो गए हैं। कमरे में तेजी से टहलने लगे हैं। एक नया पैग बनाते हैं और गिलास को दोनों हाथों में थामकर एक लम्बा घूँट भरते हैं।
उसी की वजह से तो मेरी यह हालत हो गयी है, वे सोचते हैं। कितने साल हो गए, इस तरह से असहज, तनावग्रस्त अधूरा जीवन जीते हुए। एक पूर्ण पुरूष से घटते–घटते वे कितने अधूरे–अधूरे से हो गए हैं। कहीं भी तो उन्हें अपने पूरेपन का अहसास नहीं मिल पाता। न पिता के रूप में, न पति के रूप में। न घर में, न दफ्तर में। हर वक्त जैसे कुछ झरता रहता है उनके व्यक्तित्व से। कच्ची ईंटों के मकान की तरह। एक भरे–पूरे घर से घटते–घटते वे एक चलता–िफरता खण्डहर रह गए हैं। वे यकायक उदास हो गए हैं। फिर सोफे पर आ बैठते हैं।
कमरे में अँधेरा पूरी तरह पसर गया है। सब कुछ अब सुरमई दिखाई दे रहा है। उठकर बत्ती जलाना चाहते हैं, नहीं उठ पाते। बैठे रहते हैं। थोड़ा सहज होने पर अपने हाथों के सफेद चकते देखने लगते हैं। निर्विकार भाव से देखते रहते हैं। उँगली की पोर से बायीं बाँह के एक चकते को सहलाते हैं। कुछ भी महसूस नहीं होता। उँगली फिराते–िफराते हाथ के उस हिस्से पर लाते हैं जहाँ दाग नहीं है। वहाँ भी कुछ महसूस नहीं होता। बारी–बारी से दोनों हथेलियों को निहारते हैं। तर्जनी से अँगूठे को कई बार छूते हैं। कोई चिपचिपाहट नहीं। कोई लेसदार द्रव नहीं है वहाँ। कहीं कुछ भी ऐसा नहीं जिससे उन्हें वितृष्णा हो। सब कुछ ठीक–ठाक तो है। तो फिर क्यों इतने वर्षों से इन चकतों ने, सफेद दागों ने उनके जीवन में जहर घोल रखा है। क्यों उन्हें हर समय यह अहसास कराया जाता है कि वे बीमार हैं। सामान्य नहीं हैं। उनके मन में गहरे तक यह बात बिठा दी गयी है कि इन सफद दागों की वजह से, ल्यूकोडर्मा की वजह से उन्हें कभी शांति से जीने नहीं दिया जाएगा। इसी अहसास को ढोते–ढोते उन्होंने कितने बरस गुजार दिए हैं, तिल–तिल कर जीते हुए। खुद को जबरदस्ती बीमार मानकर। इस बीमारी को ढोते हुए। खुद उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान, निरादर, क्या–क्या नहीं झेलना पड़ा है उन्हें इनकी खातिर! वे खुद से पूछना चाहते हैं, क्या कुसूर था मेरा! कौन से कर्मों की सजा भोग रहा हूँ मैं। न मन का चैन है, न तन का आराम।
वे याद करते हैं अपने बचपन के दिन। युवावस्था के दिन। अभावों के बावजूद पिता ने उन्हें कभी यह महसूस न होने दिया कि उनके लिए, उनकी पढ़ाई के लिए कहीं कोई कमी है। पिता ने उन्हें महत्वाकांक्षी होना सिखाया था। ऊपर, और ऊपर उठना। अपने बलबूते पर सब कुछ हासिल करना। वे सचमुच खुद को पिता की इच्छाओं के अनुरूप ढालने लगे थे। पिता गर्व में सीना फुलाते थे, `मेरा बचवा जरूर एक दिन बड़ा आदमी बनेगा।' लेकिन शायद पिता यह भूल गए थे कि आदमी का केवल महत्वाकांक्षी होना ही काफी नहीं होता। अपने सपनों को साकार करने के लिए, अपने वजूद की लड़ाई लड़ने का माद्दा होना भी जरूरी होता है। उन्हें पिता ने यह तो सिखाया था कि अपनी रोटी ईमानदारी से कैसे हासिल की जाए लेकिन यह दाँवपेंच नहीं सिखाया था कि अगर कोई तुम्हारे हाथ की रोटी छीन ले तो क्या करना चाहिए। आज की दुनिया पटकनी देने वालों की ही दुनिया है, यह उनके पिता ने नहीं बताया था और यहीं वे चूक गए थे। जिन्दगी में बहुत कुछ हासिल किया था उन्होंने अपने बलबूते पर। अपनी काबलियत और योग्यता के बल पर। लेकिन जो कुछ पाया था, उससे और अधिक पाने की कोशिश में वह सब भी गँवा बैठे थे। एक बार जो फिसले हैं, उससे कभी उबर नहीं पाए हैं। नीचे, और नीचे गिरते चले गए हैं। इतना नीचे कि अब ऊपर उठना तो दूर, इज्जत से खड़े हो पाना भी दूभर हो गया है उनके लिए।
बहुत ही कम उम्र में वे कैरियर के उस मुकाम पर पहुँच गए थे, जहाँ लोग अक्सर रिटायरमेंट के आसपास पहुँचते हैं। अच्छी नौकरी, पढ़ी–लिखी बीवी, अच्छा घर–बार। सब कुछ तो जुटा लिया था उन्होंने । अब उनका लक्ष्य अपने विभाग का अध्यक्ष बनना था। उसी के लिए जुटे हुए थे। पद साक्षात्कार द्वारा भरा जाना था और इसके लिए गिने–चुने उम्मीदवार थे। वे ही सबसे योग्य, अनुभवी और वरिष्ठ थे। उन्हीं का पलड़ा भारी होना चाहिए था। उन्हें पूरा विश्वास था, वहाँ तक पहुँचने में उन्हें कोई नहीं रोक सकता। लेकिन यहीं वे गच्चा खा गए थे। उनसे बहुत ही कनिष्ठ, कम योग्य और उन्हीं के अधीन काम कर रहे एक जूनियर ने राजनीति का सहारा लेकर गोटियाँ अपने पक्ष में करनी शुरू कर दी थीं। उन्हें इस तरह के खेलों का अनुभव नहीं था। हमेशा खुद की काबलियत के सहारे आगे बढ़े थे, समझ नहीं पा रहे थे, क्या करें। सिर्फ भाग्य के भरोसे रहना अब सम्भव नहीं था। अभी इस ऊहापोह से उबरे नहीं थे कि घर से पिता की बीमारी का तार आ गया। हाथ–पाँव फूल गए थे उनके। क्या करें! किसे छोड़ें।
बड़ी विकट स्थिति थी। एक तरफ कैरियर था। दूसरी तरफ दम तोड़ते पिता। तार से सिर्फ इतना ही संकेत मिला था कि पिता की हालत नाजुक है। उन्हें अचानक क्या हुआ है, इसकी बाबत कुछ नहीं लिखा था। अगर वे रात की गाड़ी पकड़ लें तो भी कल दोपहर से पहले गाँव नहीं पहुँच पाएँगे और फिर पता नहीं वहाँ कितने दिन रूकना पड़े। साक्षात्कार भी दो दिन बाद है, जिसे किसी भी हालत में स्थगित नहीं किया जा सकता। यह पद उनका कितना पुराना सपना था, उसके लिए एकमात्र अवसर कैसे छोड़ सकते थे। जूनियर की राजनीति से पहले ही परेशान थे, पिता की बीमारी के समाचार ने हालत और पतली कर दी थी। कुछ भी तय नहीं कर पा रहे थे। पिता के लिए उनके मन में गहरा सम्मान था। एक वे ही तो थे जिनकी वजह से वे आज यहाँ तक पहुँच पाए थे। अब उन्हीं की बीमारी ने उन्हें दुविधा में डाल दिया है। अजीब साँसत में फँसे थे वे।
बहुत सोचने–समझने के बाद उन्होंने साक्षात्कार दिया था और सीधे वहीं से गाँव के लिए रवाना हो गए थे। दुर्भाग्य की पहली किस्त वहाँ उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। पिता दम तोड़ चुके थे। अगर उन्हें थोड़ी देर हो जाती तो पिता को मुखाग्नि देना भी नसीब न होता उन्हें। पत्नी और बेटी तो तीसरे दिन ही पहुँच पाए थे। चूक गए थे वे। उन्हें यही लगता रहा, उनके प्रेरणा स्तम्भ पिता उनकी इस सफलता का समाचार सुनकर ही मरेंगे। इसीलिए वे साक्षात्कार देकर आए थे।
भारी मन से अन्तिम रस्में अदा की थीं। पिता की थोड़ी बहुत संपत्ति की कामचलाऊ व्यवस्था करने लौट आए थे। पूरी तरह टूटे हुए। यहाँ दूसरा सदमा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। उस कनिष्ठ अधिकारी का चयन कर लिया गया था। वे यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाए थे। गहरी पीड़ा और तनाव लिए वे अपने कमरे में बन्द हो गए थे। रात भर छटपटाते, रोते रहे थे। दुर्भाग्य ने अभी अपनी पूरी गठरी नहीं खोली थी। उन्हें अभी बहुत कुछ झेलना था।
रातों–रात काया–कल्प हो गया था और सबेरे जब वे उठे थे तो भाग्य एक और खेल दिखा चुका था। वे ल्यूकोडर्मा के शिकार हो गए थे। एक साथ इतने सदमे! वे बदहवास हो गए थे और अपने बाल, कपड़े नोचने लगे थे। बहुत भाग–दौड़ की गयी। हर तरह का इलाज आजमाया गया। न सफेद दाग गए और न वे तनाव–मुक्त हो पाए। हर दिन बीतने के साथ दोनों बढ़ते रहे। डाक्टरों का कहना था, यह सब इनके सदमों के कारण हुआ है। अगर मरीज साथ दे और तनाव भूल कर सहज हो जाए तो दवाएँ असर कर सकती हैं। परन्तु उनके लिए सब कुछ भूल पाना इतना आसान न था। वे रोग बढ़ाते रहे। तनाव झेलते रहे।
सबने उम्मीद छोड़ दी थी। वे खुद पूरी तरह हताश, निराश थे। लम्बे अरसे तक छुट्टी पर रहने के बाद जब वे आफिस गए तो सभी महत्वपूर्ण पोर्टफोलियों उनसे लिए जा चुके थे। उनके पर कतर दिये जाने से उनके ठीक होने की रही–सही उम्मीदों भी खत्म हो गयी थीं। वे बेहद कमजोर, असहाय और अकेले रह गए थे।
ऐसे में पत्नी ही थी, जिसके पास वे जा सकते। दुनिया भर से बटोरा हुआ दुख–दर्द जिसके आँचल में उढ़ेल कर हलके हो सकते। परन्तु दुर्भाग्य ने इस दरवाजे पर भी दस्तक दे दी थी। सबसे पहले पत्नी ने ही उन्हें यह अहसास कराया कि वे अब वह नहीं रहे। उनकी जगह, मर्यादाएँ, सम्बन्ध सब कुछ एक ही झटके में बाँध दी गयीं। उसका सहारा था, उसी ने हाथ खींच लिया। बीमारी ने, आघातों ने उन्हें लाचार कर दिया था, बीवी की बेरूखी ने उन्हें बेचारा बना दिया।
काश! पत्नी ने एक बार तो कहा होता, `नहीं, यह कोई असाध्य रोग नहीं। आप चिन्ता न करें, मैं आपके साथ हूँ। आपकी हर तरह से सेवा करके आपको चंगा कर दूँगी?' लेकिन नहीं। सबसे पहली लक्ष्मण रेखा उसी ने तो खींची थी। जब उनके शरीर पर ये चकते उभरने शुरू हुए थे और लाइलाज लगने लगे थे तो उसी ने एक दूरी बनाए रखना शुरू कर दिया था। अपना बिस्तर अलग कर लिया था। वे रात भर करवटें बदलते रहते। बहुत जिद करने पर ही पास आती। मुँह से कुछ न कहती पर जो कुछ जतलाया जाता उससे उनका सारा उत्साह मर जाता। पत्नी के ठण्डे शरीर से कब तक उलझते। लौट आते अपने बिस्तर पर। पस्त, टूटे हुए। मन पर एक दाग और लिए हुए। उन्हें लगने लगता, ये दाग सिर्फ सफेद दाग नहीं हैं, इनमें कीड़े रेंग रहे हैं, जो उन्हें समूचा कुतर रहे हैं। धीरे–धीरे। हर वक्त।
धीरे–धीरे दोनों के बीच खाई बढ़ती गयी थी। दोनों चिड़चिड़ाये रहते। संवाद उस बिन्दु पर आकर ठहर गए थे जहाँ कहने न कहने से कोई अंतर नहीं पड़ता। केवल शब्दों के जरिए रिश्ते कब तक जिये जाते। वे तनहा होते चले गए थे। हर रात उन्हें जलती चिता पर आत्मदाह करने जैसी लगती। इसी आग में वे कब से तप रहे हैं। ज्वालामुखी भरता चला गया है।
इस लम्बी तनहाई में वे अपनी बिटिया को बहुत पीछ़े छोड़ आए हैं। पाँच बरस की थी जब उन्हें यह रोग लगा था। पूछती थी भोलेपन से, `पापा आपके बदन पर ये दाग कैसे? आप ठीक तो हो जाएँगे न पापा', हम बड़े होकर डाक्टर बनेंगे पापा और आपका इलाज करेंगे।' ऐसे ही ढेरों सवाल हर वक्त उनके हौंसले को बढ़ाते। वे क्या जवाब देते। टाल जाते सवालों को। फिर धीरे–धीरे वह बड़ी होने लगी थी। मम्मी की देखादेखी दूर होती चली गयी थी। पत्नी ने सिर्फ तनहाई दी थी, बिटिया खालीपन छोड़ रही थी उनकी जिन्दगी में। कहाँ तो हर वक्त लाड़ लड़ाती, दुनिया भर की चीजें माँगती और कहाँ अब कन्नी काटने लगी थी। वे सब समझ रहे थे। भीतर–ही–भीतर रोते थे, लेकिन जब उसकी तरफ बढ़ाए हुए उनके हाथ खाली रह जाते, तो चुपचाप अपने कमरे में चले जाते, जहाँ रात भर घुटते रहते।
पल–पल सीने पर पर हजार–हजार हथौड़ों के बार सहते कितने बरस गुजार दिए हैं। कब से बिटिया के सिर पर हाथ नहीं फेरा है, उससे लाड़ नहीं लड़ाया है। अब तो वह सत्रह की हो गयी है। इन्टर में है, उन्हें तो यह भी पता नहीं होता कौन–कौन से विषय पढ़ती है। क्या खाती–पीती है। नहीं पता उन्हें कि वह इन बारह वर्षों में कहां की कहां पहुँच गयी है। वे तो अभी भी उसे पाँच बरस की बच्ची की तरह दुलराना चाहते हैं। उफ! अब तो सब कुछ इतिहास हो गया है।
क्या कुछ नहीं किया उन्होंने इस रोग से निजात पाने के लिए–देसी, विदेशी दवाएँ, धूप–स्नान, रबड़ और प्लास्टिक से परहेज, कॉफी, मसालों से तौबा। जिसने भी जो इलाज सुझाया, आजमा कर देखा। ठीक नहीं होना था, नहीं हुए। बल्कि दाग बढ़ते गए। कभी लगता, कुछ दाग गायब हो रहे हैं, पर अगली बार वहाँ पहले से बड़े चकते उभर आते। भीतर–ही–भीतर हताश होने लगे थे वे उन दिनों। लगातार बढ़ता रोग, पत्नी की बेरूखी, रिश्तेदारों की मुँह जवानी सहानुभूति, यारों–दोस्तों के व्यवहार में उभरता ठण्डापन। अब पीठ पीछे उनका उपहास उड़ाया जाने लगा था। लोग उन्हें पीठ पीछे बदरंग शास्त्री के नाम से पुकारने लगे थे। वे निरीह से सब कुछ देखते। कई बार लोग उनके सामने भी कुछ ऐसा–वैसा कह देते, जिससे वे तिलमिला जाते, लेकिन खुद पर खीझ उतारने के अलावा कुछ न कर पाते।
धीरे–धीरे उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ने लगा था। सारे दबाव झेलते–झेलते वे शायद विद्रोह करने लगे थे। उनकी हरकतें अजीब होने लगीं थी। एक बार अड़ गए, उनकी स्टेनों की मेज उनके केबिन में लगायी जाए। पूरे ऑफिर में हंगामा मच गया। उन्हें समझाया गया, `यह उनके पद, गरिमा के खिलाफ है, लेकिन नहीं माने थे वे। सबसे लड़ते रहे। जी.एम. तक बात पहुँची। डॉक्टर बुलवाया गया, जिसने उन्हें आराम करने की सलाह देकर घर भेज दिया। तब से उनके लिए पुरूष स्टैनो ही रखे गए हैं। वे छोटी–छोटी चीजों जैसे पेंसिल, रिफिल या राइटिंग पैड के लिए पूरा ऑफिस सिर पर उठा लेते। एक ही कागज दसियों बार टाइप कराते। उन्हें हमेशा शिकायत रहती उनका स्टाफ काम नहीं करता। नया स्टाफ दिए जाने पर कहते, `इससे तो पहले वाला अच्छा था, वही वापिस दिया जाए। हर समय बड़बड़ाते रहते। लोग कभी छेड़ते, कभी सहानुभूति दर्शाते। एक बार उन्होंने एक अखिल भारतीय संघ बनाने की घोषणा कर डाली थी जो देश में हर तरह की ज्यादतियों, भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ लड़ेगा। उनके अनुसार देश के राष्ट्रपति इस संघ के संरक्षक और वे खुद मानद अध्यक्ष बनने वाले थे। कई दिन तक वे इसी में उलझे रहे। सबसे सदस्य बनने के लिए कहते फिरे।
एक और आदत पड़ गयी थी उनकी। वे बहुत कंजूस हो गए थे। इतने बड़े पद पर होने के बावजूद ट्रेन में सेकेंड क्लास में आते। बस की लाइन में कोई परिचित चेहरा तलाशते जो उनके लिए भी अठन्नी का टिकट खरीद ले। उन्होंने बैठकों आदि में पैड या दूसरों के फोल्डरों से पैन आदि निकालने शुरू कर दिए थे। काफी दिनों तक उनकी यही हालत रही। जिन्दगी के हर मुकाम पर वे नीचे गिरते जा रहे थे। अपनी इज्जत खुद गँवा रहे थे। उनमें सेल्फ रिस्पेक्ट बची ही न थी। हर समय दीनता की मूर्ति बने रहते। सहानुभूति बटोरते रहते। बात शुरू करने की देर होती, कुछ भी अनर्गल बातें शुरू कर देते। बैठकों में एक बार बोलना शुरू करते, तो पूरा समय बोलते ही रहते। उन्हें हाथ पकड़कर बिठाना पड़ता। एक बार तो किसी सेमिनार में वे मुख्य अतिथि का परिचय कराने खड़े हुए, पचपन मिनट तक बोलते रहे। मुख्य अतिथि के लिए सिर्फ पाँच मिनट बचे थे।
वे साफ–साफ महसूस करते हैं कि लोग उनसे हाथ तक मिलाने से कतराते हैं। कभी कोई उनका आगे बढ़ा हुआ हाथ थाम भी लेता है तो यह बात उनकी नजरों से छुपी नहीं रहती कि उनसे हाथ मिलाकर लोग अपना हाथ पैंट से पोंछ लेते हैं। मानो उनके हाथों से कोई लिसलिसा पदार्थ निकलकर सामने वाले के हाथ पर लग गया हो, लड़कियाँ तो दूर, लड़के भी उनके सैक्शन में काम नहीं करना चाहते। बाकी अफसरों के केबिनों में आफिस की लड़कियों की हाहा हूहू हर वक्त गूँजती रहती है। एक उन्हीं का केबिन है, कोई पास तक नहीं फटकता। लोग बुलाने पर भी नहीं आते। वे बेशक किसी की बाट नहीं जोहते, पर बार–बार जानबूझ कर दुत्कारे जाने की सी हालत में भी वे खुद पर काबू पाने की कोशिश करते हैं। हर वक्त भीतर से खौलते रहते हैं, तिल–ितल कर अपमानित होते रहते हैं, पर इन कमबख्त सफेद दागों ने न केवल उनसे उनका व्यक्तित्व छीन लिया है, उनका आत्मविश्वास बिल्कुल चुक गया है। वे जहाँ भी होते है, वहीं अन्वांटेड समझ लिए जाते हैं। लोग उनसे मिलने से पूर्व ही उनके बारे में पूर्व धारणाएँ बना लेते हैं। कोई उनसे खुलकर बात नहीं करता। उनके साथ ठहाके नहीं लगता।
उन्हें हर वक्त, हर तरह से याद दिलाया जाता है, उनका शरीर ही नहीं, उनका व्यक्तित्व, उनका पुरूष, उनका मान–सम्मान सब कुछ दागदार है। उन्हें ढंग से जीने, लोगों के साथ हँस–बोल कर बात करने का कोई अधिकार नहीं है। शरीर का हर दाग उन्हें आइसबर्ग की तरह लगता है। शरीर के भीतर दस गुना बड़ा। और जितना कष्ट ये दाग बाहर से देते हैं, उससे कई गुना दर्द वे भी भीतर–ही–भीतर झेलते रहते हैं हर वक्त।
सोचते–सोचते उन्हें पता ही नहीं चला कि वे कब रोने लगे। उनका पूरा चेहरा आँसुओं से तर–ब–तर हो गया है। उन्होंने चौंक कर आस–पास देखा। नहीं कोई नहीं है इस अँधेरे कमरे में। अकेले हैं वे। हाथ में कब से खाली गिलास पकड़े बैठे हैं। हौले से गिलास रखते हैं। उठ कर बत्ती जलाकर बाथरूम तक जाते हैं। मुँह पर पानी के छींटे मारते हैं। मुँह पोंछते वक्त शीशे में अपना अक्स देखते हैं। बाल ढलती उम्र की गवाही दे रहे हैं। पूरा माथा, बायीं आँख का हिस्सा, दोनों गाल और मुँह के आस–पास का हिस्सा एकदम सफेद हैं। बाकी रंगत गेहुआँ है। देर तक खुद को यूँ ही देखते रहते हैं। याद करने की कोशिश करते हैं, कैसा लगता था तब उनका चेहरा। धुँधली–सी याद ही बची है। जो कुछ अपना था, सब कुछ तो खत्म हो गया है। वे तो अब किसी अभिशप्त की लाश ढो रहे हैं। जिन्दा लाश, लोगों की निगाह में जिसकी कोई इच्छाएँ नहीं होतीं। जो न हँसने में साथ दे सकता है न गाने में। वे प्यार करने के तो काबिल ही नहीं रहे हैं। अपनी बच्ची को भी नहीं। कितना तरसते हैं, बच्ची को जी भर कर प्यार करने के लिए। वे तो बस चाबी भरा बबुआ मात्र हैं जो दिन भर खटते रहते हैं। सब की जरूरतें पूरी करने के लिए। उनके भीतर के कौर–कौन से कोने खाली पड़े हैं, कब से टल रही हैं, उनकी मूलभूत जरूरतें, किसके पास फुर्सत है जानने की!
वे कमरे में लौट आए हैं। घड़ी पर निगाह डालते हैं। आठ दस। बीस मिनट और। फिर वे कम–से–कम इस जरूरत को तो पूरा कर पाएँगे। बेशक किराये की खुशियाँ सही, वे खुद का वह अधूरापन तो बांट पाएँगे, जो अरसे से सीने पर जमा है। पौरूषत्व की कसौटी पर खुद को खरा तो सिद्ध कर पाएँगे। कितना तो अरसा हो गया है इस रिश्ते को ढंग से जीये हुए। पत्नी, नहीं! नहीं अब वे उसे याद नहीं करेंगे। वे सिर झटक देते हैं। नया पैग बनाते हैं और खिड़की पर जा खड़े होते हैं। साढ़े आठ बजते–बजते आधी बोतल खत्म कर चुके हैं आज तक इतनी कभी भी नहीं पी थी उन्होंने। नशा फिर तारी होने लगा है। बेचैन होने लगे हैं। उसके आने का वक्त हो रहा है। चहल कदमी करने लगते है। कभी बैठते हैं तो कभी उठ कर परदे सरकाने लगते हैं।
अचानक खटका हुआ। वे एकदम सतर्क हो गए। रक्तचाप तेज हो गया। उन्होंने अपने कपड़े ठीक किए और कदम साधते हुए दरवाजे तक आए। वही थी। सँवलाया चेहरा। तीखे नैन नक्श। करीने से पहनी साड़ी। आँखें झुकी। कहीं से भी उसके हाव–भाव से यह नहीं लगता कि वह धंधे वाली है और यहाँ इसी मकसद से आयी है। उनकी साँस फिर फूलने लगी है। उसे अन्दर आने के लिए कहने के लिए देर तक उन्हें शब्द नहीं सूझे, तो उसके लिए रास्ता छोड़ दिया। वह कमरे में आकर एक किनारे खड़ी हो गयी। उन्होंने हौले से दरवाजा बन्द किया और उसे बैठने का इशारा किया। वे खुद दूसरी तरफ पड़ी आराम कुर्सी में आ धँसे। उन्हें थकान सी महसूस हुई, मानो मीलों लम्बा सफर तय करके आ रहे हों।
उन्होंने सोच रखा था, जैसे ही वह आएगी वे एकदम दरवाजा बन्द कर देंगे और कमरे की सारी बत्तियाँ जला देंगे। खुद भी निर्वस्त्र हो जाएँगे और एक–एक करके उसके वस्त्र उतारेंगे। जिन सफेद दागों की वजह से वे बरसों से पत्नी के साथ सहज, पूर्ण सहवास से वंचित हैं, जिन दागों की वजह से पत्नी उन्हें पूरे समर्पण भाव से स्पर्श तक नहीं करती या बत्ती नहीं जलाती, आज इन्हीं दागों को पूरी तरह प्रदर्शित करते हुए वे भरपूर शारीरिक सुख भोगेंगे। कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ेंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी कर पाने में वे खुद को असहाय पा रहे हैं। कहाँ से और क्या शुरू करें, समझ नहीं पा रहे। उन्हें अपनी अनुभवहीनता की वजह से पछतावा–सा हो रहा है।
उन्होंने कनखियों से उसकी तरफ देखा। वह उन्हीं की तरफ देख रही थी। वह हौले से मुस्कराई। वे सकपका गए। उन्हें लगा, लड़की ने उन्हें नंगा देख लिया है और उनका मजाक उड़ा रही है। वे हिम्मत करके उठे और अपने लिए पैग बनाने लगे। अचानक उन्हें लगा, लड़की से भी पूछ लेना चाहिए। शायद पीती हो। वे गिलास लेकर उसके पास आए, लेकिन पूछने की हिम्मत नहीं हुई। उनके मुँह से आवाज ही नहीं निकल रही थी। लड़की ने खुद ही मना कर दिया, `नहीं, मैं नहीं पीती।' वे बातचीत का सिलसिला जोड़ना चाहते हैं, परन्तु ऐसी स्थिति में उनका सामना पहली बार हो रहा है। उन्हें कुछ सूझ ही नहीं रहा। कहाँ से शुरू करें। उन्होंने उसका नाम पूछना चाहा, परन्तु शब्द होठों ही में फुसफुसा कर रह गए। लड़की उनकी हालत समझ रही है, वह देख चुकी है, शौकिया नहीं है उसका आज का ग्राहक। यह बुजुर्ग आदमी बेहद थका हुआ, टूटा हुआ संस्कारग्रस्त आदमी है। वह न कुछ कर पाएगा न कह पाएगा।
वे फिर खिड़की के पास आकर खड़े हो गए हैं। अब भी हालाँकि सुरूर बाकी है, लेकिन इतना होश है कि अपनी बेचारगी को महसूस कर सकें। एकांत जगह, आधी बोतल का नशा, खूबसूरत जवान लड़की। हल्की रोशनी और बरसों से पूर्ण सेक्स से वंचित वे। सब कुछ तो सही है, फिर भी क्यों नहीं वे शुरूआत कर पा रहे। कहाँ धरा रह गया उनका पुरूषत्व! क्यों नहीं लपक कर दबोच लेते है लड़की को। आखिर पूरी रात के पैसे देने हैं। यूँ ही कब तक पसोपेश में खड़े रहेंगे! वे आगे बढ़े। दो–तीन बत्तियाँ और जला दीं। उन्होंने लड़की की तरफ देखा, फिर पलँग की तरफ। अपनी दमित इच्छाएँ उन्हें सिर उठाती हुई प्रतीत हुई। एक बार उन्होंने अपने हाथों की तरफ देखा और लड़की को फिर से निहारा। मासूम चेहरा। भरी–भरी आँखें। उम्र का अन्दाजा नहीं लगा पाए वे। बीस या पच्चीस। वह अभी भी खड़ी उनके अगले आदेश की प्रतीक्षा कर रही है। किसी तरह कह पाए वे, `आपको खाने के लिए जो कुछ मँगाना हो, फोन पर आर्डर दे दीजिये।' लड़की ने सिर हिलाकर मना कर दिया, `नहीं कुछ नहीं चाहिए।' बातचीत का सिलसिला फिर टूट गया। वे कितनी बार कोशिश करके देख चुके हैं, लेकिन सूत्र हर बार टूट जाते हैं।
उन्होंने वक्त देखा, नौ पाँच हो रहे हैं। उन्होंने आधा घंटा यूँ ही बरबाद कर दिया है। अभी तक उसका नाम भी नहीं पूछ पाए हैं। उन्हें फिर खुद पर ग्लानि होने लगी। इस तरह तो कर चुके मौज मजा! भोग चुके नारी देह! फिर से हिम्मत जुटाई और इस बार अपने अटैची केस में से अपना गाउन निकाल कर उसे दे दिया। वह गाउन लेकर बाथरूम में चली गई। उन्होंने फिर से सारी बत्तियाँ बन्द कर दीं। साइड लैम्प की हल्की रोशनी में एक कोने में खड़े होकर उसका इन्तजार करने लगे।
जब वह बाथरूम से निकली तो हल्की रोशनी में वह उन्हें बहुत अच्छी लगी। उन्हें लगा उसका बदन दहक रहा है। उसके बदन से तेज आग निकल रही है। वे उसमें पिघल जाएँगे। वे उत्तेजित होने लगे। मुट्ठियाँ भींच ली उन्होंने। वे काफी देर तक यूँ ही मुट्ठियाँ भींचे खड़े रहे। उनके कदमों ने जैसे उनका साथ देने से इनकार कर दिया था। उन्हें अपने पूरे शरीर में तेज झनझनाहट महसूस हो रही है, लेकिन शक्ति चुक गई सी लगती है। वे फिर से पस्त हों इससे पहले ही अचानक लड़की उनके समीप आई। उनका हाथ थामा और पलँग पर लिटाया और उनका माथा सहलाने लगी। वे एकदम ढीले पड़ गए। लड़की का मृदु स्पर्श उन्हें बहुत भला लगा। आँखें मूँद लीं उन्होंने। अरसे बाद स्नेहिल, अपनत्व भरा स्पर्श उन्हें मिला था। भीतर तक सुख से भर गए। आँखें बन्द किए देर तक भीगते रहे उस स्पर्श सुख से।
अचानक नशे ने फिर जोर मारा। वे एकदम चौंक कर उठ बैठे। नहीं, वे इस सब के लिए थोड़े ही आए हैं। और यह लड़की न तो उनकी नर्स है और न वे उसके मरीज। इस समय तो वे यहाँ किसी और रिश्ते के लिए आए हैं। उन्हें नहीं चाहिए यह ममत्व भरा चोंचला।
उन्होंने सहम कर खड़ी हुई लड़की को अपनी और खींचा। लड़की कटे पेड़–सी आ गिरी उन पर। लड़की का स्पर्श पाकर वे फिर से पिघलने लगे। सारा शरीर शिथिल हो गया। जाने क्या हुआ, वे लड़की की पीठ पर हाथ धरे सुबकने लगे।