(मानसिक रूप से विकलांग बच्चे की प्यार की, खास तौर पर मां के प्यार की तड़प को ले कर ये कहानी बीस बरस पहले लिखी गयी थी लेकिन आज भी यह कहानी उतनी ही सच है.)
बम्बई की बरसात भी बस ! मुसीबत ही है। कहाँ तो सोचा था कि इन दो–तीन दिनों में पूरी बम्बई घूमूँगा। इस मायानगरी को खुद अपनी आँखों से देखूँगा, जानूँगा और कहाँ फँसा पड़ा हूँ इस गेस्ट रूम में। जब से यहाँ आया हूँ, यह झड़ी जो लगी है, रूकने का नाम ही नहीं ले रही। इस कमरे में चहल–कदमी करते–करते थक गया हूँ। लेटने की कई बार कोशिश की है परन्तु इतना नरम बिस्तर होते हुए भी तुरन्त उठ बैठता हूँ। कमरे की एक–एक चीज को कई–कई बार देख चुका हूँ। सारी पत्रिकाएँ तो कल ही देख ली थीं, लेकिन मन में जो एक अजीब–सी कड़वाहट घर कर रही है – गुस्से की, बेचैनी की, उससे वक्त काटना और भी मुश्किल हो रहा है। और ऊपर से यह बरसात, मेरे भीतर उठते तूफान को और तेज कर रही है। पता नहीं, कब तक इस कैद में रहना होगा।
मैं इसे कैद क्यों कह रहा हूँ ! यह इतना बढ़िया गुदगुदे मैट्रेस वाला डबल–बैड, आरामकुर्सियाँ, किताबों से अटी पड़ी अल्मारियाँ, शो–केस, अटैच्ड बाथरूम, जिसमें ठण्डे–गर्म पानी की सुविधा है। सब कुछ साफ–सुथरा। सब कुछ तो यहाँ है! क्या हुआ जो इस कमरे में समुद्र की ओर खुलने वाली कोई खिड़की नहीं है। और तो कोई कमी नहीं। फिर बम्बई जैसे महँगे शहर में तीन–चार दिनों के लिए इतनी अच्छी तरह से रहने और साथ में खाने–पीने की सुविधा को मैं कैद कह रहा हूँ? जिसे मैं कैद कह रहा हूँ कभी सपने में भी कफ परेड जैसे पॉश इलाके में 20 वीं मंजिल पर इतने आलीशान फ्लैट के गेस्ट रूम में रहने के बारे में सोच सकता था। क्या मेरी इतनी औकात है कि मैं इतनी खूबसूरत जगह में आराम से पसरा रहूँ और चाय, नाश्ता सब कुछ मेरे कमरे में पहुँचा दिया आए और यह सब सेवा एक ऐसी नौकरानी करे जो मुझसे भी अच्छी अंग्रेजी बोलती है, और स्मार्ट तो इतनी है कि कल जब मैं दिन में यहाँ पहुँचा था और दरवाजा उसी ने खोला था तो मैं उसे खन्ना अंकल की लड़की रितु ही समझा था और उसे विश भी उसी के हिसाब से किया था।
कल शाम को तैयार होकर जब कमरे से बाहर निकला तो उस वक्त आंटी ड्राइंग रूम में फोन पर किसी से बात कर रही थीं। मैं यही चाह रहा था कि कोई–न–कोई ड्राइंग रूम में मिल जाए, नहीं तो फिर किसी को बुलवाने के लिए या तो आवाज देनी पड़ती या फिर रूबी को ढूँढना पड़ता। आंटी जब तक फोन पर बात करती रहीं, मैं वहीं सोफे की टेक लगाए खड़ा रहा। फोन रखते ही जब वे मुड़ीं तो मुझ पर नजर पड़ी। चेहरा एकदम तुनक नया। अभी तो फोन पर हँस–हँसकर बातें कर रही थीं !
– क्या बात है मनीश ! कहीं जा रहे हो क्या! उन्होंने चेहरे की तुनक कम किए बिना साड़ी की प्लीट्स ठीक करते हुए पूछा था। मैं एकदम सकपका गया था, फिर भी हिम्मत जुटाकर बोला था – वो सुबह से कमरे में बैठा–बैठा बोर हो रहा हूँ। इस समय शायद बरसात रूकी हुई है, सोच रहा था, कहीं घूम आऊँ।
मैंने जानबूझकर कार और ड्राइवर की बात नहीं की थी। हल्की–सी उम्मीद थी कि शायद वे खुद ही ड्राइवर को बुलाकर मुझे घुमा लाने के लिए कह दें। वैसे भी तो आज दोनों गाड़ियाँ घर पर हैं। सुबह अंकल ही तो बता रहे थे। आंटी भीतर के कमरे की तरफ मुड़ते हुए बोली थीं – भई! यहाँ बरसात का कोई भरोसा नहीं होता। फिर भी जाना चाहो तो बिल्डिंग के सामने ही बस स्टॉप है। मैरीन ड्राइव या फाउंंटेन वगैरह घूम आओ, लेकिन डिनर के वक्त तक लौट आना। रूबी को घर जाना होता है। बाहर जाने का मेरा सारा उत्साह खत्म हो गया था। लेकिन कमरे में बैठे–बैठे कुढ़ते रहने से तो यही अच्छा था कि बरसात में ही घूमता भीगता रहूँ, यही सोचकर – अच्छा आंटी कहकर मैं बाहर आ गया था। लिफ्ट का बटन दबाने के बाद मैं आँखें मूँदे दीवार के सहारे खड़ा हो गया था। मुझे बाउजी पर गुस्सा आने लगा था – क्यों भेजा उन्होंने मुझे यहाँ अपने वन–टाइम लँगोटिया यार और इस समय एक बहुत बड़े आदमी – कृष्ण गोपाल खन्ना के घर पर ठहरने के लिए? मैं कहीं भी दस–बीस रूपये वाले होटल वगैरह में ठहर जाता। वहाँ कम–से–कम मुझे हर वक्त ज़लील तो न होना पड़ता। मुझे अपने आउटसाइडर होने का या मेरे छोटेपन का अहसास तो न कराया जाता और फिर उस हालत में मैं चार दिन के लिए थोड़े ही आता। इन्टरव्यू वाला दिन और उससे एक दिन पहले यानी दो दिन की बात होती और फिर मैं सेकेण्ड क्लास से आया हूँ और वापसी की टिकट भी तो सेकेण्ड क्लास का बुक करवाया है, जबकि कम्पनी मुझे दोनों तरफ का फर्स्ट क्लास का किराया दे रही है। उससे जो पैसा बचता, वह रहने–खाने के काम आ जाता।
लिफ्ट आ गई थी। मैं नीचे आ गया। सड़क पर आने के बाद मैंने आस–पास देखा, पानी थमा हुआ था लेकिन लोग तेजी से आ–जा रहे थे। मैंने यह बात सुबह भी नोट की थी, अब भी देख रहा था कि यहाँ पर लोग और शहरों की तुलना में ज्यादा तेज चलते हैं, कहीं देखते नहीं, बस लपकते से रहते हैं। सुबह चर्चगेट के बाहर तो मैंने कई औरतों को भागते हुए देखा था। औरतों को इस तरह भागते देखना सचमुच मेरे लिए एक नया दृश्य था। स्कर्ट पहने एक बहुत मोटी औरत भागते हुए बहुत ही अजीब लग रही थी।
अभी मुश्किल से मैंने सड़क पार ही की थी कि एक तेज बौछार ने मुझे पूरी तरह भिगो दिया। लोगों ने फटाफट अपने फोल्डिंग छाते खोल लिये। मुझे आस–पास कोई ऐसी जगह नजर नहीं आई जहाँ शरण ले सकता। ऊपर वापस जाने का कतई मूड न था। नतीजतन भगता हुआ बस–स्टाप की तरफ ही चलता रहा। मूड और खराब हो गया था। अब घूमने की भी कोई तुक नहीं थी। तुक तो मुझे पहले ही नजर नहीं आ रही थी क्योंकि मुझे यहाँ जगहों के सिर्फ नाम ही मालूम थे, उनकी दिशा या दूरी का कोई अन्दाज नहीं था। किसी से कुछ भी पूछना बेकार लगा। बस–स्टाप से पैदल चल पड़ा। यूँ ही काफी देर तक भटकता और भीगता रहा। भीगना मुझे अच्छा लगता है, लेकिन आज भीगने से मूड और भी बिगड़ता चला जा रहा था। तभी कोलाबा वाली सड़क पर एक अच्छा–सा बार दिखाई दिया। मुझे इस वक्त अपना अकेलापन काटने का इससे अच्छा कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया। बीयर बार में जा घुसा। बीयर पीते हुए मुझे हमेशा इस बात का अहसास होता रहता है कि आसपास कोई है जिससे मैं अपने मन की बातें कह रहा हूँ। हालांकि मैं उस समय बातें खुद से ही करता हूँ। जो बात किसी से कहने को बेचैन हो रहा होता हूँ, किसी के सामने मन की भड़ास निकालना चाहता हूँ तो खुद से बातें करके बहुत सुकून पाता हूँ। इस वक्त भी मुझे सुकून की जरूरत थी।
बीयर के दो घूँट भरते ही मैं अन्तर्मुखी हो गया। मेरे भीतर की सारी सुगबुगाहट बुलबुलों के साथ ऊपर आने लकी। फिर से सारी चीजें दिमाग पर हावी होने लगीं। खुद पर गुस्सा आने लगा – क्यों ठहरा मैं खन्ना अंकल के घर पर। बाऊजी को कम–से–कम एक बार तो सोच लेना चाहिए था कि इन पंद्रह–बीस सालों में उनका दोस्त कितना बदल चुका होगा। ठीक है उनकी खतो–किताबत होती रहती है, लेकिन वह अलग बात है, और फिर मुझे इस बात से क्या मतलब कि खन्ना पर बाउजी के कितने अहसान हैं या दोनों बचपन के दोस्त हैं और दोनों ने मुफलिसी के दिन एक साथ काटे हैं। बाउजी किस तरह अपनी और खन्ना की दोस्ती के चर्चे किए जा रहे थे। अब मैं अगर बाउजी को बताऊँ कि जिस दोस्त की उन्होंने अपने बच्चों का पेट काट कर मदद की थी, यहाँ तक कि एक बार हम बच्चों के लिए दीवाली पर पटाखे न खरीदकर उनके लिए बम्बई टिकट तक जुटाया था, वह आज इतना बड़ा आदमी हो गया है कि उसके पास उसी दोस्त के लड़के के लिए जरा–सा भी वक्त नहीं। गर्मजोशी तो दूर, ढंग से बात करने तक की जरूरत ही नहीं समझी गयी। ये बातें सुनकर उन्हें कैसा लगेगा ! मैं बीयर पीते–पीते दुखी हो रहा था। सुबह से आया हुआ हूँ और कोई बात तक नहीं कर रहा। आने पर ड्राइंग रूम में चाय पीते हुए जो दो–एक बातें हुई थीं, बाऊजी के हालचाल पूछे गए थे, उसके बाद तो मुझे जो गेस्ट रूम में पहुँचा दिया गया है, तब से वहीं घिरा बैठा था। अब बाहर निकला हूँ। यहाँ तक कि मेरा नाश्ता और खाना भी रूबी वहीं गेस्ट रूम में पहुँचा गई थी।
बीयर अपना काम कर रही थी। मैं कुढ़ रहा था और सभी को दोषी मान रहा था। मुझे माँ पर भी गुस्सा आ रहा था, क्यों उसने इतनी मेहनत करके खाने का सामान बना कर दिया है खन्ना के बच्चों के लिए। उसे पता तो चले कि बम्बई के बच्चे ये सब चीजें नहीं खाते। पता नहीं क्या खाते हैं ! आंटी हलवे पकवानों का डिब्बा देखते ही किस तरह मुँह बनाकर बोली थीं – क्या जरूरत थी इतना सब भेजने की? यहाँ तो ये सब कोई नहीं खाता। रूबी ये तुम ले जाना अपने घर, और मैं अवाक रह गया था ! माँ ने कितनी मेहनत से यह बनाया था। कितने घंटे मेहनत करती रही थी बेचारी और बाऊजी भी तो जिद किए जा रहे थे, खन्ना को ये पसन्द है, वो पसन्द है। पता नहीं बम्बई में उसे ये खाने को मिलते होंगे या नहीं! देख लें न यहाँ आकर ! और रितु को देखो, क्या नखरे हैं! मंजू ने इतना शानदार कार्डीगन बनाकर दिया और वो किस तरह मुँह बनाकर बोली – मुझे नहीं पहनना ये सड़ा हुआ कार्डीगन। और वह स्वेटर वहीं पटककर अपने कुत्ते को गोद में लिए अपने कमरे की ओर चली गई थी। सच, उस समय तो मेरा खून ही खौल गया था। मन हुआ था कि अभी अटैची उठाकर चल दूँ कहीं और। साला यह भी कोई तरीका है बात करने का! माना तुम लोग रईस हो गए हो। ट्रंसपोर्ट के बिजनेस में ब्लैक की कमाई करके बीस–तीस लाख के आदमी हो गए हो लेकिन इसका ये तो कोई मतलब नहीं है कि दूसरों की इस तरह इज्जत उतार लो। अभी तो मुझे आए हुए कुल आधा घंटा ही हुआ था और किस तरह से यहाँ से मोहभंग हो गया था।
मन में हल्की–सी तसल्ली भी हुई थी कि अगर हम रईस नहीं हैं तो कम–से–कम इन्सानी मूल्यों पर तो टिके हुए हैं, तहजीब से बात तो कर सकते हैं। अब यही लोग मेरठ आए होते तो इनको बता देते कि मेजबानी क्या होती है! सारा परिवार इनकी जी–हुजूरी में एक टाँग पर खड़ा होता। क्या मजाल कि कोई जरा ऊँची आवाज में बोल कर तो दिखाए। बाउजी की यही तो खासियत है। न तो किसी की बेइज्जती करते हैं, न अपनी होने देते हैं। अब उनको मैं ये सब बताऊँगा तो देखना–खन्ना अंकल से बातचीत तब बंद न हुई तो बात है। सवालों के जवाब मैं बीयर के घूँट भरते हुए खुद से पूछता रहा। बीयर के सुरूर में खुद को, सबको कोसने के बाद मैं हलका महसूस कर रहा था। सोचा, कल स्टेशन जाकर इंटरव्यू वाले दिन की टिकट की कोशिश करूंगा, ताकि फालतू में यहाँ दिमाग खराब न होता रहे।
दरवाजा अंकल ने खोला था। ड्राइंग रूम में हलकी रोशनी थी। उनके हाथ में भरा हुआ गिलास था और ड्राइंग रूम के कोने में बने उनके शानदार बार में बत्ती जल रही थी। बार स्टैण्ड पर आइस–बॉक्स, सोडा फाउन्टेन और खुली बोतल रखी थी।
– यस, यंग मैन, उन्होंने अपने गिलास में से लम्बा घूँट लेते हुए पूछा था – कहाँ घूमकर आ रहे हो?
–कहीं नहीं अंकल, बरसात की वजह से सारे दिन घर पर ही रहा, अभी जरा नीचे तक घूमने निकल गया था। मैं उनसे नजरें नहीं मिलाना चाहता था, क्योंकि मूड अभी पूरी तरह ठीक नहीं हुआ था और मैं नहीं चाहता था कि उन्हें पता चले कि मैं बीयर पीकर आया हूँ। वैसे भी अपनी और फजीहत करवाने की इच्छा नहीं थी। बेशक अंकल ने कोई ऐसी बात नहीं की थी, जिसे मैं अन्यथा लेता, लेकिन वे सुबह हो रहे पूरे ड्रामे में तो मौजूद थे। जब मैंने शहर देखने की इच्छा व्यक्त की थी तो वे भी तो मुझे गाइड कर सकते थे या रितु या ड्रायवर को मुझे घुमा लाने के लिए कह सकते थे, या फिर आंटी और रितु को चीजें रख लेने के लिए कह सकते थे।
–तुम्हारा खाना तुम्हारे कमरे में रखा है, हमें पता नहीं था तुम कितने बजे तक लौटोगे। उन्होंने गिलास खाली किया और तिपाई पर रखते हुए बोले थे – हम डिनर पर बाहर इन्वाइटेड हैं। आंटी वगैरह जा चुके हैं। मैं तुम्हारे लिए ही बैठा था। वे उठ खड़े हुए और बाहर जाते हुए बोले – ओ.के.यंग मैन, सी यू टुमारो, गुड नाइट। मैं गुडनाइट कहकर अपने कमरे में आ गया था। कोनेवाली मेज पर ढका हुआ खाना और पानी का जग वगैरह रखे हुए थे। देखा–दो एक सब्जियाँ, चावल और रोटी थीं। भूख होने के बावजूद खाने की इच्छा नहीं हुई। अगर मेरी इतनी ही चिन्ता थी तो मुझे उसी वक्त बता देते या कह देते, बाहर ही खा लेता। लेकिन फिर सोचा–अगर मैं खाना न खाऊँ और सुबह होने पर आंटी देखेंगी तो फिर भिनभिनाएँगी – एक तो स्पेशियली खाना बनवाया और छुआ तक नहीं। नहीं खाना था तो मना करके जाते। और मैं खाना खाकर सो गया था।
सबेरे से फिर वही रूटीन चल रहा है, बरसात हो रही है और मैं कमरे में बन्द हूँ। रूबी एक बार सुबह पूछ भी गई थी वीडियो पर कोई फिल्म देखना चाहेंगे। लेकिन मैंने मना कर दिया था। फिल्म देखने का मतलब है – ड्राइंग रूम में बैठना और ड्राइंग रूम चूँकि सभी कमरों के बीच में पड़ता है, अतः सबकी निगाहों के बीच बैठना मुझे कतई गवारा नहीं था। रितु के कमरे से अब म्यूजिक की आवाज आनी बन्द हो गई है, लगता है कि किसी किताब वगैरह में मन लग गया होगा। फर्स्ट ईयर में है रितु। सुन्दर है, पर है अपनी माँ की तरह नकचढ़ी। एक ही नजर में आप मालूम कर सकते हैं – माँ–बाप की बिगड़ैल और जिद्दी लड़की है। बस ड्राइंग रूम में ही कल जो हैलो हुई थी, उसके बाद नजर तो कई बार आई है लेकिन आँखें न उसने मिलाई हैं न मैंने ही जरूरत समझी है। खासकर कार्डीगन वाले प्रसंग से तो मुझे उसकी शक्ल तक से नफरत हो गई है।
इस घर में मुझे एक ही आदमी ढंग का लगा है – टीपू। सत्रह साल का टीपू देखने में खासा जवान लगता है, स्मार्ट भी है। टैन्थ में पढ़ता है। इतना अच्छा लड़का, लेकिन अफसोस कि वह गूँगा–बहरा है। समझता है वह भी सिर्फ अंग्रेजी लिप मूवमेंट के सहारे।
अपनी बात माइमिंग से ही समझाता है या कभी–कभी लिखकर भी। उससे आज बहुत ही शानदार ढंग से मुलाकत हुई। इन्टरव्यू के सिलसिले में कुछ तैयारी कर रहा था कि दरवाजे पर वह दिखाई दिया। पहले तो मैंने पहचाना नहीं लेकिन जब अन्दर आ गया और उसने हाथ बढ़ाया तो मुझे याद आ गया। कल जब मैं यहाँ पहुँचा तो वह स्कूल जा रहा था। शायद पैसों की किसी बात को लेकर आंटी उसे डाँट रही थीं। बाऊजी ने भी मुझे उसके बारे में बताया था कि खन्ना उसकी ट्रेनिंग और पढ़ाई की वजह से काफी परेशान रहते हैं।
उसने बहुत गर्मजोशी से मेरा हाथ थामा। मुझे बहुत अच्छा लगा। कोई तो है जो यहाँ शब्दों के बिना भी इतनी अच्छी तरह से कम्यूनिकेट कर रहा था। हम हाथ मिलाने भर में एक–दूसरे के मित्र बन गए। मुझे उसका आना अच्छा लगा। वह अचानक उठा और दरवाजा बन्द कर आया। हालाँकि उस वक्त हम दोनों और रूबी के अलावा घर में कोई और न था। उसने जेब से सिगरेट की डिब्बी और माचिस निकाली और एक सिगरेट ऊपर करके मेरे आगे बढ़ायी। अच्छा तो यह बात थी! सिगरेट कभी–कभार मैं पी लेता हूँ। चार्म्स मेरा ब्रांड भी है, परन्तु यहाँ अंकल के घर पर रहने के कारण मैंने फिलहाल स्थगित कर रखी थी। अब सिगरेट देखकर तलब तो उठी लेकिन एक सोलह–सत्रह साल के लड़के के साथ इस तरह सिगरेट पीना न जाने क्यों अच्छा नहीं लगा – हालाँकि ऑफर वही कर रहा था। मेरे मना करने पर उसे आश्चर्य हुआ। उसके सिगरेट सुलगाने और पीने का अन्दाज बता रहा था कि वह पुराना खिलाड़ी है। उससे खुलकर बातें करना चाहता था पर कभी ऐसी स्थिति से वास्ता न पड़ा था कि माइमिंग के सहारे बात करनी पड़े या ऊँची आवाज में अंग्रेजी बोलते हुए होंठों से सही मूवमेंट्स के जरिए अपनी बात समझानी पड़े। उसने इशारे से पूछा – यहाँ किस सिलसिलें में आया हूँ। मैंने बताया यहाँ एक कम्पनी में मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव के लिए इन्टरव्यू देना है। कल इन्टरव्यू है बेलार्ड पियर में। तभी उसने अपनी जेब से एक लड़की की तस्वीर निकाली। मुझे फोटो दिखाते हुए वह दिल पर हाथ रख कर मुस्कुराया। मैं समझ गया कि वह उसकी स्वीट हार्ट की फोटो थी। लड़की निश्चय ही सुन्दर और संवेदनशील लगी। मैंने नाम पूछा। उसने कागज लेकर उस पर बहुत सुन्दर अक्षरों में लिखा – उदिता, माई लव। और कागज को चूम लिया। मुझे हँसी आ गई। पूछा – तुम्हारे साथ पढ़ती है क्या। उसने सिर हिलाया – नहीं। फ्रेंड की सिस्टर है। – वह भी तुम्हें चाहती है क्या! मेरे पूछने पर उसने कुछ नहीं कहा, सिर्फ एक मिनट में आने का इशारा करके चला गया। थोड़ी देर में वापस आया तो उसके हाथ में कई चीजें थीं – दो तीन किताबें, एक खूबसूरत पेन, सेंट की शीशी, गॉगल्स और कई छोटे–मोटे गिफ्ट आइटम। वह अपने हाथों में यह अनमोल खजाना लिए बहुत उल्लसित था। मैंने पूछा और तुमने क्या दिया है उसे। उसने आँख दबाकर कैमरा एडजस्ट और क्लिक करने की माइमिंग की।
- लेकिन इतने पैसे कहाँ से लाए तुम? जो कुछ उसने बताया, वह मुझे चौंकाने के लिए काफी था।
- नयी साइकिल बेचकर और घर में बताया कि खो गई।
मुझे उस पर तरस आया। बेचारे को अपने प्यार का इजहार करने के लिए क्या–क्या करना पड़ता है। मैंने यूँ ही पूछा – कभी फिल्म वगैरह भी जाते हो, लेकिन तुरन्त ही अपने सवाल पर अफसोस होने लगा – टीपू बेचारा कैसे इन्जॉय कर पाता होगा। लेकिन मुझे टीपू की मुस्कराहट ने उबार लिया। उसने इशारे से बताया कि वे कई फिल्में एक साथ देख चुके हैं। मैं कुछ और पूछता इसके पहले ही टीपू ने मुझे घेर लिया – आपकी कोई गर्ल फ्रैंड है क्या! आँखों के सामने मृदुभा का चेहरा उभर आया और याद आयी यहाँ आने से पहले उससे हुई आखिरी मुलाकात। जब मैंने उससे पूछा था – तुम्हारे लिए क्या लाऊँ बम्बई से, तो उसने कहा था – तुम सफल होकर लौट आना, मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मैं अभी उस मुलाकात के ख्यालों में ही डूबा था कि टीपू ने मेरा कंधा हिलाकर अपना सवाल दोहराया। मैं मुस्करा दिया – हाँ है एक। उसने तुरन्त नाम पूछा, क्या करती है, कैसी है।
उसकी आँखों में चमक थी। मुझे अच्छा लगा कि मैंने सिगरेट की तरह इस मामले में झूठ नहीं बोला है। मेरी गर्ल फ्रैण्ड की बात जानकर वह खुद को मेरे और करीब महसूस करने लगा था। मैंने उसे बताया कि वह फिजिक्स में एम.एससी. कर रही है अभी।
- और आप? उसने मुझसे पूछा।
- हम तो भई, बी.एससी. के बाद से ही काम की तलाश
में भटक रहे हैं। उसने जेब में डिब्बी निकालकर एक और सिगरेट सुलगायी। तभी उसे कुछ याद आया। वह सिगरेट छोड़कर अपने कमरे में गया और जब वापस आया तो उसके हाथ में पासपोर्ट था। उसने बताया कि अगली जनवरी में वह एक साल के लिए न्यूयार्क जा रहा है। उसे पापा के क्लब ने स्पॉन्सर किया है स्पेशल ट्रेनिंग के लिए।
कमरे में उसके आने से मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। हमें बेशक एक–दूसरे की बात समझने में या अपनी बात समझाने में काफी दिक्कत हो रही थी, लेकिन फिर भी हम दोनों का अकेलापन कट रहा था। मेरा अकेलापन तो खैर दो–चार दिन का था। वह खुद को अभिव्यक्त करने के लिए कितना परेशान रहता होगा। तभी उसने घड़ी देखी।
बताया–उसके टयूटर के आने का वक्त हो गया है। उसने अपनी चीजें सहेजीं और फिर मिलने का वादा करके चला गया।
वह अपने पीछे कई सवाल छोड़ गया है। कितना अकेलापन महसूस करता होगा टीपू। क्या रितु उससे उसी तरह लड़–झगड़ कर लाड़–प्यार जताती होगी जिस तरह सामान्य भाई–बहन करते हैं। क्या आंटी अपने क्लब और पार्टियों से फुर्सत निकालकर इसके सिर पर हाथ फेरने या होमवर्क करवाने का टाइम निकाल पाती होंगी। क्या इसके उस तरह के दोस्त होंगे जो इसे अपने खेलों, अपनी दिनचर्या में खुशी–खुशी शामिल करते होंगे। क्या उदिता और टयूटर के अलावा भी कोई उससे बात करता होगा। मैं तो यहाँ दो दिनों के अकेलेपन से ही टूट रहा हूँ, बेचारा टीपू तो कब से अकेला है। मुझे नहीं लगा कि वह अपनी दिनचर्या में इतना खो जाता हो कि उसे किसी साथी की जरूरत ही न होती हो। उसने अपनी एक अलग दुनिया बनायी तो होगी लेकिन उसका कितना दिल करता होगा कि कोई उसकी अकेली दुनिया में आए। देर तक उसके ख्यालों में खोया रहा।
इन्टरव्यू बहुत अच्छा हो गया है। मैं चुन लिया गया हूँ और मुझे मेरे अनुरोध पर दिल्ली हैडक्वार्टर दिया गया है। दिल्ली, पंजाब और हरियाणा कवर करना होगा। अपॉइन्टमेंट लैटर दस दिनों में भेज दिया जाएगा। तुरन्त ज्वाइन करना है और पद्रह दिन की ट्रेनिंग के लिए फिर बम्बई आना होगा। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है। मेरे संघर्ष खत्म हो रहे हैं। मनपसन्द नौकरी मिल गयी है। अच्छी पोस्ट, बड़ी कंपनी, अच्छा वेतन, और टूरिंग जॉब। मैं इतना उत्साहित हूँ कि जी कर रहा है कि किसी भी व्यक्ति को रोककर उसे अपने सेलेक्शन के बारे में बताऊँ। बाऊजी को तुरन्त तार दूँ, लेकिन तार तो कल ही पहुँच पाएगा। फोन कर दूँ, पड़ोस के सचदेवा के घर, लेकिन उन लोगों से तो आजकल ठनी हुई है। कहीं मेरा नाम सुनकर ही फोन रख दिया तो मेरे तीस–चालीस रूपयों का खून हो जाएगा। मैं तो इसी वक्त और यहीं अपनी खुशी बाँटना चाहता हूँ। कितनी अजीब बात है, असीम दुख के क्षण मैंने तनहा काटे हैं और कभी किसी को अपने दुख का हमराज नहीं बनाया है। आज मैं अपनी खुशी के क्षणों में भी अकेला हूँ। कोई हमराज है ही नहीं यहाँ। हालाँकि खुशी बाँटने के लिए कब से तरस रहा हूँ।
घर पर तार डाला। मृदुभा को सांकेतिक भाषा में कार्ड डाला। थोड़ी देर मैरीन ड्राइव पर टहलता रहा। मन बहुत हलका हो गया है। समुद्र ज्वार पर है। लगा, मानो वह भी मेरी खुशी में शामिल है और लहरों के हाथ बढ़ाकर मुझे बधाई दे रहा है। बहुत खूबसूरत है शहर का यह हिस्सा। वापिस आने का मन ही नहीं है। घर लौटते हुए शाम हो गई है। एक मन हुआ कि मिठाई का एक डिब्बा ही ले लूं अंकल वगैरह के लिए। लेकिन टाल गया। मुझे पता है मिठाई का भी वही ह होना है जो पकवानों और कार्डिगन का हुआ है। मुझे और फजीहत नहीं करानी अपनी, न ही मूड खराब करना है।
घर पर सिर्फ टीपू और रूबी हैं। मैंने टीपू को खबर सुनायी है। वह तपाक से मेरे गले मिला है। मैंने खुशी से उसका गाल चूम लिया है और उसके बाल बिखरा दिए हैं। वह बहुत खुश हो गया है। मुझे अच्छा लगा है कि घर पर सिर्फ टीपू मिला है। आंटी वगैरह को तो मैं बताता ही नहीं। रूबी ने चाय के लिए पूछा, लेकिन टीपू ने मना कर दिया है।
– आज की शाम हम सेलीब्रेट करेंगे। खाना भी बाहर खायेंगे, और उसने मुझे हाथ–मुँह धोने का भी मौका नहीं दिया है। घसीट कर बाहर ले आया है। हल्की–हल्की बूँदा–बाँदी हो रही है और आज बरसात में भीगना अच्छा लग रहा है। पर शायद टीपू को यहाँ की बरसात में भीगने में कोई दिलचस्पी नहीं है। उसने एक टैक्सी रूकवायी है और कोलाबा की तरफ चलने का इशारा किया है। मैं परसों इस तरफ आया था लेकिन तब मूड खराब होने के कारण कुछ भी एन्जॉय नहीं कर पाया था। आज कोलाबा में घूमना चाहता हूँ, पर टीपू पता नहीं कहाँ लिए जा रहा है। उसने दो–एक बार टैक्सी को दायें–बायें मुड़ने का इशारा किया है। टैक्सी ताज होटल के पोर्च में आकर रूकी है। अब तक ताज होटल और गेटवे को फिल्मों में ही देखा था। किसी फाइव स्टार होटल में जाने का यह पहला मौका है। मैं मेरठ के एयर कण्डीशण्ड होटलों में भी दो–एक बार ही कॉफी पीने ही जा पाया था। मैंने टैक्सी का बिल देने की बड़ी कोशिश की परन्तु टीपू ने दिया और चेंज लिए बिना मुझे घसीट कर अन्दर ले चला। मैंने जेब पर बाहर से ही हथेली के स्पर्श से महसूस कि किया पैसे सुरक्षित हैं। हालाँकि मुझे यहाँ के दामों के बारे में कोई जानकारी नहीं है फिर भी मैंने मन ही मन हिसाब लगा लिया है, सौ–डेढ़ सौ रूपए तक तो खर्च होंगे ही।
अंदर आते समय मेरा मन मध्यमवर्गीय दब्बूपन की वजह से डर रहा है, लेकिन टीपू की चाल में ऐसी कोई बात नहीं है। वह लापरवाही के अन्दाज में मेरी बांह में बांह डाले चल रहा है। मेरा सारा ध्यान आसपास की रौनक और शानोशौकत पर लगा है। मेरी निगाहों में चकित भाव है जिसे मैं छुपाने की नाकाम कोशिश कर रहा हूँ।
हम पहली मंजिल पर स्थित रेस्तरां में पहुँचे। इत्तिफाक से ठीक समुद्र वाली खिड़की के पास की एक मेज खाली मिल गयी। समुद्र अपना असीम विस्तार लिए हमारे सामने है। दूर खड़े बड़े–बड़े जहाजों की बत्तियाँ बहुत अच्छी लग रही हैं। छोटी–बड़ी किश्तियाँ ऊँची लहरों पर इतरा रही है। इससे पहले कि मैं मीनू पर निगाह डालूँ, टीपू ने दो बीयर का आर्डर दे दिया है। हमारी निगाहें मिलती हैं तो दोनों मुस्करा देते हैं। टीपू मुझसे मेरे इन्टरव्यू के बारे में पूछता है। मैं बतलाता हूँ कि किस तरह सत्ताइस लड़कों में से पाँच को इन्टरव्यू के बाद भी रूकने के लिए कहा गया था। उन पाँच में मैं भी था। उन्हें कुल तीन लड़के लेने थे। बाद में इन्फॉरमली बातचीत के लिए बुलाया गया था और तभी मुझे बता दिया गया था कि मैं चुन लिया गया हूँ। बीयर आ गयी है। साथ में भुनी हुई मूँगफली और सलाद। सर्विस बहुत अच्छी है और वेटर वगैरह बहुत नम्र।
हम धीरे–धीरे सिप करने लगे हैं। मैं टीपू से उसके दोस्तों, उसके परिवार वालों के व्यवहार के बारे में पूछना चाहता हूं। परिवार वालों का नाम सुनते ही उसने मुँह बिचकाया है। मुझे पहले ही आशंका थी कि उसे बहुत अच्छा ट्रीटमेंट नहीं मिलता। वह माइमिंग करके बताता रहा कि किस तरह पापा से बात किए हुए उसे कई दिन बीत जाते हैं, सिर्फ हैलो, हाय से आगे वे कभी बात नहीं करते। अव्वल तो वे घर पर होते ही नहीं। क्लब, पार्टियाँ, बिजनेस ट्रिप्स वगैरह और जब घर पर होते हैं तो या तो अपने बैडरूम में बैठे रहते हैं और बिजनेस के फोन वगैरह करते रहते हैं या शाम के वक्त अपने बार में बैठे पीते रहते हैं। मुझे बहुत धक्का लगा जब उसने बताया कि मम्मी अपने कुत्ते को तो गोद में बिठाकर खाना खिलाती है लेकिन उससे कभी सीधे मुँह बात नहीं करती हैं। जब भी सामने पड़ती हैं किसी–न–िकसी बात पर डाँटने लगती हैं – पढ़ता क्यों नहीं, बाहर क्यों घूमता रहता हूँ, पैसे क्यों माँगता हूं हर वक्त। वह बहुत उदास हो गया है। उसका चेहरा बता रहा है कि अरसे से किसी ने प्यार से बात तक नहीं की है। जब मैंने रितु के बारे में पूछा तो उसका चेहरा और विकृत हो गया। वह बुदबुदाया – शी इज ए बिच। तो मेरा अन्दाज सही था। वह सचमुच बिगड़ी हुई लड़की है। टीपू उसके बारे में बात करने तक को तैयार नहीं है। बहुत कुरेदने पर उसने बताया कि वह पता नहीं किन आवारा लड़कों के साथ घूमती रहती है और ड्रग्स भी लेती है।
हम एक–एक बीयर ले चुके हैं। हलका–सा सुरूर आने लगा है। टीपू ने इशारे से दो और बीयर का आर्डर दे दिया। मेरी इच्छा नहीं है और बीयर पीने की। साथ ही टीपू की उम्र देखते हुए भी डर रहा हूँ कि कहीं उसे ज्यादा न हो जाए। थोड़ा सा ध्यान जेब पर भी है। पर बीयर आ चुकी हैं। मैं उसका खराब मूड देखकर बातचीत को उदिता पर ले आया। उसका चेहरा कुछ सँभला। लगता है, वह उदिता को जी–जान से चाहता है, वह उसकी छोटी–छोटी बातें भी बताने लगा। उदिता की चर्चा करते हुए वह इतना भावुक हो गया कि उसकी आँखों में पानी आ गया। उसके हाथ काँपने लगे। किसी तरह हमने बीयर खत्म की। मुझे डर लगने लगा है टीपू घर पहुँच भी पाएगा या नहीं। जब अंकल को पता चलेगा कि हम दोनों ने दो–दो बीयर पी हैं तो मुझे ही डांटेंगे। मैंने बिल मँगवाया। मैंने सौ का नोट निकालकर बिल के फोल्डर में रखा लेकिन टीपू अड़ गया – यह ट्रीट उसकी तरफ से है, वही पे करेगा। वह हाथ–पैर चलाने लगा। मैं सीन क्रिएट नहीं करना चाहता। बिल उसी ने दिया। हलकी–सी राहत भी हुई। मैं तय कर लेता हूँ डिनर के पैसे मैं दूँगा। टीपू उठा और लड़खड़ाते हुए मेरे साथ चलने लगा। वह ठीक तरह चल भी नहीं पा रहा है। मेरी चिंता बढ़ती जा रही है।
बाहर आए तो दखा कि नौ बज रहे हैं। मैंने टैक्सी रूकवायी तो उसने मना कर दिया। हम पैदल ही फिर कोलाबा की ओर चल दिये हैं। हालाँकि मैं भी पूरे सुरूर में हूँ लेकिन टीपू की वजह से मैं खुद को भूले हुए हूँ। टीपू ने मेरा हाथ मजबूती से थामा हुआ है। तभी मेरी निगाह सड़क के दोनों तरफ खड़ी सजी–धजी लड़कियों पर पड़ती है। पहले तो उन्हें देख कर हैरान होता हूँ, तभी ख्याल आता है, अरे! ये तो धंधा करने वाली लड़कियाँ हैं। पर इस तरह सरे आम! उनकी तरफ देखते हुए भी मुझे अजीब लग रहा है। कुछेक लड़कियाँ तो काफी अच्छी लग रही हैं। टीपू अपने ख्यालों में मस्त चला जा रहा है। मेरे हाथ में कसा उसका हाथ अस्थिर है।
हम धीरे–धीरे कदम बढ़ा रहे हैं। तभी मैंने देखा कि एक खंभे की आड़ में खड़ी एक खूबसूरत लड़की हमारी तरफ देखकर मुस्कराई। निश्चय ही यह मुस्कुराहट प्रोफेशनल है। उसके रंग–ढंग से प्रभावित होने के बावजूद मैंने उसकी तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया है और आगे बढ़ गया हूँ। लेकिन टीपू ने मेरे हाथ से अपना हाथ छुड़वा लिया है और उसके पास चला गया है। मैं चौंका और भौंचक–सा वहीं खड़ा रह गया। टीपू यह क्या कर रहा है? मेरा दब्बूपन मुझे उस लड़की के पास जाने से रोक रहा है। टीपू उससे इशारों से बात कर रहा है। मेंरे पाँव काँपने लगे हैं। असमंजस में पड़ गया हूँ। वहीं बुत–सा खड़ा सब देख रहा हूं। इतनी भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ कि टीपू का हाथ पकड़कर उसे वहाँ से हटाऊँ। तभी टीपू मेरे पास लौटा है। उसकी आँखों में एक अजीब–सी चमक आ गयी है। उसने मेरी सहमति चाही है। मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूँ। उसका हाथ पकड़कर आगे बढ़ना चाहता हूँ पर वह वहीं मेरा हाथ पकड़कर अड़ गया है। आज आयी मुसीबत! एक तो यह पहले ही होश में नहीं है। उस पर यह सब कुछ। मैं टीपू को प्यार से समझाता हूँ, पर टीपू कुछ सुनने को तैयार नहीं है। तभी टीपू ने मुझे अपनी बाँहों में भरा और मेरी मनुहार करने लगा है। वह कुछ कहना चाह रहा है, पर उसके मुँह से गों–गों की आवाज निकलने लगी है। यह आवाज मैंने उसके मुँह से पहले कभी नहीं सुनी थी। लड़की अभी भी वहीं खड़ी है और कनखियों से हमारी तरफ देख रही है। मैं लड़की की तरफ बढ़कर उससे ही टीपू की हालत पर तरस खाने के लिए कहना चाहता हूँ, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाता।
स्थितियाँ मेरी पहुँच से बाहर हो गई हैं। मैं कुछ भी करने में अपने को असमर्थ पा रहा हूँ। कहाँ तो हम सेलिब्रेट करने निकले थे और कहाँ टीपू यह सब नाटक करने लगा। सोलह–सत्रह वर्ष की उम्र और यह सब धंधे। मैंने हथियार डाल दिए हैं। लेकिन मैंने तय कर लिया है कि मैं इस सब में शरीक नहीं होऊँगा। टीपू ने टैक्सी रूकवायी है। लड़की आगे बैठी है। हम दोनों पीछे। मैंने कनखियों से लड़की की तरफ देखा है– बीस–बाइस साल की और पढ़ी लिखी लग रही है जो शायद गलत धंधे में आ गयी है। मैंने आँखें फिरा ली हैं। लड़की ने ही टैक्सी वाले को जगह बतायी। टीपू बहुत गंभीर है। उसकी मुट्ठियाँ तनी हुई हैं और वह कहीं नहीं देख रहा। हम दोनों ने एक बार भी आँखें नहीं मिलायी हैं। टैक्सी कहाँ जा रही है, मुझे कुछ पता नहीं। लगभग 10 मिनट बाद हम टैक्सी से उतरते हैं। टीपू अभी भी लड़खड़ा रहा है। लड़की एक पुरानी–सी इमारत की तीसरी मंजिल पर ले आयी है और डोर बेल दबाकर दरवाजा खुलने का इन्तजार करती है। लड़की को फिर कनखियों से देखता हूँ। यह लड़की कॉलगर्ल कतई नहीं लगती। मैं कल्पना करता हूँ – अगर यही लड़की मेरठ में होती और खुद को इस धंधे में नहीं डालती तो अच्छी–अच्छी लड़कियाँ इसके आगे पानी भरतीं। मैं जितना सोचता हूँ, उतना ही परेशान होता हूँ। मैं इस दलदल में कहाँ आ फँसा! किसी को पता चले कि मनीश बम्बई में कोठे पर गया था तो क्या सोचे! तभी एक बूढ़ी औरत ने दरवाजा खोला है। हमें देखते ही दरवाजा खुला छोड़कर भीतर चली गई है। साधारण–सा ड्राइंगरूम, लेकिन साफ–सुथरा। मेज पर कुछ पत्रिकाएँ। लड़की हमें वहीं बैठने को कह कर भीतर चली गई है।
थोड़ी देर में जब वह लौटती है तो वह गाउन पहने है। परदे के पीछे खड़े होकर उसने मुझे आमंत्रित किया है। यह आमंत्रण बिलकुल ठंडा है। मैं सकपका गया हूं। इसके लिए कतई तैयार नहीं हूँ। मैं सिर हिलाकर मना करता हूँ। कुछ कह ही न पाया। तभी टीपू मेरा हाथ पकड़कर पहले भीतर जाने के लिए मुझसे आग्रह करने लगा है। मैं मना करता हूँ। और टीपू को ही खड़ा करके भीतर भेज देता हूँ। उसके शरीर का तनाव कम हो गया है पर नशा अभी भी बरकरार है। दरवाजा बन्द कर दिया गया है और परदा फिर अपनी जगह आ गया है।
मेरा नशा उड़ चुका है। दिमाग शून्य हो गया है। मुझे कतई गुमान न था कि इतनी खुशनुमा शाम का अन्त इस तरह से होगा और एक सोलह–सत्रह साल का मासूम और अपाहिज लड़का मुझे इस तरह यहाँ ले आएगा।
मैंने सोफे की टेक से सिर लगा लिया है और आँखें बन्द कर ली हैं। तभी भीतर से टीपू की गों–गों की आवाज सुनाई देती है। मैं डर जाता हूँ। दिमाग सुन्न हो गया है। सारी चीजें गडमड हो रही हैं। टीपू, अंकल, रितु, उदिता, मृदुभा, भीतर वाली लड़की। सबके चेहरे तेजी से मानस पटल पर आ–जा रहे हैं। मुझे टीपू पर तरस आ रहा है। बेचारा इतनी कम उम्र में इन धंधों में फँस गया है। उधर रितु ड्रग्स के नशे में किसी और की बाँहों में झूल रही होगी। और यह लड़की – उसके बारे में सोचना चाहता हूँ, पर कहीं लिंक नहीं जुड़ता। उसे इस वातावरण से अलग किसी और वातावरण के फ्रेम में देखना चाहता हूँ पर उसका चेहरा बदल जाता है। उसकी जगह कोई और चेहरा ले लेता है। सिर बुरी तरह घूम रहा है। आँखें बन्द किए बैठा हूँ। कमरे में हल्की रोशनी है, पर आँखों में जलन हो रही है। कम से कम लड़की को तो यह देखना चाहिए था कि वह कैसे मासूम बच्चे को फँसाकर लाई है। तभी गों–गों की आवाज आनी बन्द हो गयी। मैंने फिर आँखें बन्द कर लीं। जितना सोचता हूँ, दिमाग उतना ही खराब होता है।
तभी खटके की आवाज से मेरी आँख खुली। वह लड़की दरवाजे में खड़ी है। निर्विकार सी। मैं डर गया – तो क्या वह फिर मुझे आमंत्रित करने आयी है पैसे ऐंठने के लिए। मैं कुछ हूँ, इसके पहले ही वह धम्म से सामने वाले सोफे पर बैठ गयी है – सॉरी सर, वह कुछ कहना चाहती है पर सिर झुका लेती हैं।
– क्यें क्या हुआ! मेरी जान हलक में आ गयी है।
– आपके दोस्त को किसी लड़की की नहीं, माँ की गोद की जरूरत थी। भीतर जाइए, वह सो रहा है। इतना कहते ही वह मुझसे नजरें चुराने लगती है।
मैं भीतर लपकता हूँ। टीपू सोया हुआ है और लड़की उसे कंधों तक चादर ओढ़ा गयी है। मैं कमरे की पीली रोशनी में उसका चेहरा नजदीक से देखता हूँ। उसके चेहरे पर तृप्ति का वही भाव है, जो माँ का दूध पीने के बाद शिशु के चेहरे पर होता है।
मेरी आँखों के सामने आँटी का तुनक भरा चेहरा आ जाता है।
Monday, March 3, 2008
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