Wednesday, December 17, 2008

बाजीगर - तेईसवीं कहानी

बाजीगर

खबर हाथों हाथ पूरे दफ्तर में फैल गयी है। सभी लपक रहे हैं उस तरफ। जो भी सुनता है, चार को सुनाता है, फिर कानों सुनी को आंखिन देखी करने के लिए टीले की तरफ बढ़ जाता है। जो लोग उस तरफ से आ रहे हैं, ऐसे बतिया रहे हैं, हो-हो कर रहे हैं, मानो संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य देखकर आ रहे हों। उस तरफ जाने वालों को बता भी रहे हैं, ‘जाओ भइया, तुम भी दर्शन कर आओ शिवजी महाराज के। एकदम फोकट में।’ महिलाओं तक भी खबर पहुंच गयी है। वे भी आपस में खुसर-पुसर करके खी-खी कर रही हैं। सब अच्छी तरह जानते हैं शिलाकांत जी कोई भी अनहोनी कर सकते हैं। करते भी रहते हैं। आये दिन सारा दफ्तर उनसे परेशान है, फिर भी उसकी इन हरकतों से मजे भी लेते रहते हैं। लेकिन उनकी अभी थोड़ी देर पहले की हरकत की खबर से तो लोगों को बहुत मजा आ रहा है, तभी तो टीले के नीचे सभी सैक्श़नों के चपरासी, बाबू लोग जमा हो गये हैं और हो-हो कर रहे हैं, उनसे और पंगे ले रहे हैं।
दफ्तर की मुख्य इमारत से कोई दो सौ गज दूर मोटर गैराज के पिछवाड़े एक ऊँचे टीले पर श्रीमान शिलाकांत, पीऊन अटैच्ड टू जनरल सैक्शन अलफ नंगे खड़े हैं। उनकी मैली वर्दी, फटी बनियान और धारीदार जांघिया आसपास बिखरे पड़े हैं। उनकी छ: फुट लम्बी, हट्टी-कट्टी बेडौल नंगी काया बहुत अजीब लग रही है। श्रीमान जी अपने पोपले श्रीमुख से मैनेजमेंट के खिलाफ धुंआधार गालियां प्रसारित कर रहे हैं, ‘अपने आपको समझते क्या हैं साले! हमसे बदमासी करेंगे! लें, कर ले बदमासी!’ वे अपने अंग विशेष को एक हाथ से झटका देते हैं ‘लें, लें, कर लें बदमासी। हम भी देखें उनकी . .. . में केतना दम हय। हमरी बदमासी देखेंगे तो होस ठिकाने आ जायेंगे भडुओं के! ससुरे जब से हमरे पीछे पड़े हैं। कहते है मीमो देंगे, चारसीट देंगे, सस्पेंन कर देंगे। अरे तुमने असली माई का दूध पीया हो तो आओ और चिपकाय देव हमरे पीछे मीमो सीमो।’’ वे अब अपने पिछले हिस्से को दो-तीन झटके देते हैं। लोग उनकी हरकतों पर खूब हंस रहे हैं और हो-हो करके उन्हें और उकसा रहे हैं। आज पहली बार और वह भी भरे-पूरे आफिस में शिलाकांत ने सबको अपना खुल्‍ला खेल दिखा दिया है फोकट में।
वैसे वे गाहे-बगाहे अपनी नयी-नयी हरकतों से सबका मान-अपमान करते करते ही रहते हैं, लेकिन उन्होंने मर्यादा की सारी सीमाएं एक साथ कभी नही लांघी थीं। बहुत हुआ तो किसी को मां-बहन की रसीली गालियां सुना दीं, गुस्से में सैक्शन में ही अपनी धोती उठा दी या ऐसा ही कुछ हंगामा। इससे आगे वे कभी नहीं बढ़े थे।
आज के उनके इस पब्लिक शो के पीछे क्या कारण हैं, वहां खड़े लोगों में से किसी को नहीं मालूम। सब अपने-अपने कयास भिड़ा रहे हैं। थोड़ी देर पहले कोई बता रहा था कि बड़े बाबू ने जब उनसे उनकी पिछली तीन-चार गैर-हाजरियों की छुट्टी की अर्जी मांगी तो जनाब उखड़ गये। पहले वहीं गाली-गलौज करते रहे। जब बड़े बाबू ने मीमो देने और बड़े साहब के सामने पेशी करने की धमकी दी तो महाशय यहां आकर नटराज नृत्य करने लगे। अभी इसी खबर को विश्वसनीय माना जा ही रहा था और प्रचारित भी किया जा रहा था कि जनरल सैक्श़न का कोई चपरासी इसका खण्डन करते हुए एक और शगूफा छोड़ गया है। उसके अनुसार रिजर्व कोटे के नये यू.डी.सी. मुसद्दी लाल ने जब शिलाकांत को एक गिलास पानी लाने के लिए कहा तो बताते हैं इन्होंने ऊंच-नीच बोलना शुरू कर दिया। नौबत हाथापाई तक आने को थी कि शिलाकांत बिफर गये और यहां चले आये। इस कहानी को भी मानने न मानने की दुविधा से अभी भीड़ उबरी नहीं थी कि डिस्पैच क्लर्क अपने यारों के साथ इस तरफ खैनी खाते हुए मजा लेने की नीयत से चले आये और पहले की कहानियों को चन्डू‍खाने की निर्मिति बताते हुए एक नया ही किस्सा छेड़ने लगे। उनके अनुसार आज के इस अद्भुत सीन के निर्माता, निर्देशक वे खुद हैं। वे बड़े गर्व से बता रहे हैं कि उन्हीं से हुई नोंक-झोंक का नतीजा है कि सबको शिलाकांत का यह गीत-संगीत और नृत्य का कार्यक्रम देखने को मिल रहा है। सब उनके आस-पास जुट आये हैं, सच्ची बात जानने के लिए।
उनके अनुसार, पिछले दिनों शिलाकांत के खिलाफ दो-तीन मामलों में अलग-अलग विभागीय जांच की गयी थीं। एक मामला बिना पूर्व अनुमति के अलग-अलग मौकों पर छुट्टी लेने और बाद में भी अर्जी न देने का, दूसरा मामला तृतीय श्रेणी के अपने से वरिष्ठ कर्मचारी से दुर्व्यवहार और गाली-गलौज का तथा तीसरा मामला उनके खिलाफ कार्यालय का अनुशासन और कायदे-कानून न मानने के बारे में था। दो मामले सिद्ध हो गये थे और तीसरे में उन्हें चार्जशीट दी जानी थी। इन तीनों मामलों के गोपनीय पत्र लेने से वे कब से इनकार कर रहे थे। बिल्कुल हाथ नहीं धरने देते थे। बकौल डिस्पैच क्लर्क के, आज भी जब शिलाकांत ने ये पत्र प्राप्त करने और डाकबुक में हस्ताक्षर करने से आनाकानी की, तो पहले बड़े बाबू और फिर अधीक्षक सा‍हब से शिकायत की गयी। अधीक्षक महोदय ने सुझाया कि ये पत्र उन्हें सबके सामने थमा दिये जायें और यह बात डाक बुक में दर्ज कर ली जाये। डिलीवरी पीऊन ने ज्यों ही शिलाकांत की जेब में ये लिफाफे जबरदस्ती ठूंसने चाहे, वे एकदम भड़क गये, गालियों पर उतर आये। जब बड़े बाबू ने डांटा और कमरे से बाहर निकल जाने के लिए कहा, तो जनाब यहां आकर यह नाटक करने लगे।
वहां जुटे सब कर्मचारियों को डिस्पैच क्लर्क की बात में वजन लगा। सबको पता था, आये दिन उसके खिलाफ कोई न कोई विभागीय जांच चलती ही रहती है। चिटि्ठयां लेने से इनकार करने का मामला भी कोई नया नहीं था। सबका ध्यान फिर शिलाकांत की तरफ चला गया था। वे फिर से शुरू हो गये थे, ‘सब साले चोर भरती हो गये हैं, कोई काम नहीं करना चाहता। सबसे सीनियर और बुजुर्ग आदमी को इस तरह लतियाया जाता है। मेरा धरम भ्रष्ट करना चाहते हैं सरऊ। मुझे भंगियों को पानी पिलाने की ड्यूटी दी जाती है। मैं विरोध करता हूं, आवाज उठाता हूं तो मीमो-सीमो की धमकी दी जाती है। मैं भी देख लूंगा सब हराम के जनों को। एक-एक का कच्चा चिट्ठा जानता हूं, खोल दूं तो भडुवों को लुगाइयन के पेटीकोट में मुंह छिपाना पड़े।’ सब जोर-जोर से हंसने लगे। शिलाकांत को और ताव आ गया। उनकी आवाज और ऊंची हो गयी और गालियों में एकदम नंगापन आ गया। वे सविस्तार अफसरों और उनके चमचों के झूठे-सच्चे किस्से बखानने लगे।
शिलाकांत भी एक ही जीव हैं। पचास के होने को आये, तीस साल की नौकरी हो गयी, कब से नाना-दादा बने हुए हैं, लेकिन चीजों के प्रति उनका नजरिया बच्चों से भी गया-गुजरा है। आजकल उनकी जिन्दगी का एक ही मकसद हो गया है—हर चीज का विरोध करना। उन्हें उनके प्रति लिये गये हर निर्णय में षड्यन्त्र की बू आती है। उन्हें लगता है, पूरी दुनिया में वे अकेले सही आदमी हैं और बाकी सब जटिल, गंवार, अनपढ़। इस खुशफहमी के बावजूद वे हद दर्जे के कामचोर, मुंहफट और कूड़मगज चपरासी के रूप में विख्यात हैं। कोई सैक्शन उन्हें लेने को तैयार नहीं होता। हर सैक्शन बिना चपरासी के गुजारा करने को तैयार है लेकिन शिलाकांत के रूप में आदमकद मुसीबत किसी को भी नहीं चाहिए। यही वजह है कि बार-बार जनरल सैक्शन से धकियाये जाने के बावजूद वे उसी सैक्शन के गले का हार बने रहते हैं।
यदि उन्हें आसान ड्यूटी दी जाती है तो यह उन्हें अपनी वरिष्ठता का अपमान लगता है, मुश्किल ड्यूटी को वे बुढ़ापे में अपने शोषण के रूप में लेते हैं। किसी भी जवाब तलब को वे अपना अपमान मानते हैं और यदि उन्हें कोई पूछता नहीं, तो वे यह मान लेते हैं कि उन्हें इग्नोर किया जा रहा है, इसे वे किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करते। उन्हें किसी से भी ऊंचा बोलने, गाली देने, काम करने से इनकार कर देने के सारे अधिकार हैं। लेकिन उनसे कोई ऐसी हरकत करे तो वे इस तरह के नाटक करने लगते हैं। छुट्टी की अर्जी न देना, घंटों गायब रहना, कैंटीन में हंगामे करना, दफ्तर द्वारा दी गयी वर्दी में छोटे-मोटे नुक्स निकालना उनके मौलिक अधिकार हैं। मैनेजमेंट द्वारा जवाब-तलब किये जाने को वे अपने मौलिक अधिकारों का हनन मानते हैं।
उनके विरोध के तरीके भी अजीब हैं। कभी घंटों बड़बड़ाते रहेंगे, सिर पर खड़े होकर, कभी अपनी शिकायत को पोस्टर के आकार में उलटी-सीधी भाषा में लिखकर नोटिस बोर्ड पर चिपका आयेंगे, कभी तंग करनेवाले अधिकार/कर्मचारी के इतने कान खायेंगे कि उसी को माफी मांगने पर मजबूर कर देंगे। अपने अकेले के बलबूते पर अफसरों के खिलाफ नारेबाजी करने का सौभाग्य भी उन्हें ही प्राप्त है।
हां, एक बात है, वे न कभी गिड़गिड़ाते हैं और न ही हाथ-पांव पकड़ कर माफी मांगते हैं। उनका कहना है कि वे जब कोई गलती ही नहीं करते, तो माफी किस बात की मांगें।
लेकिन शिलाकांत हमेशा से ऐसे नहीं थे। एक वक्त़ था जब उन्हें पूरे आफिस का सबसे बेहतरीन चपरासी समझा जाता था। एकदम चुस्त, मुस्तै्द। कोई भी काम करने के लिए एकदम तैयार। क्या मजाल जो किसी से ऊंची आवाज में बात करें। उन दिनों उन्हें जिस भी सैक्शन में या जिस अधिकारी के साथ रखा जाता, वे अपने मृदु स्वभाव और आज्ञापालन की मिसाल कायम करते थे। वे थे भी युवा और नौकरी में नये-नये आये थे।
तभी तो उनकी ईमानदारी और मेहनत से खुश होकर एक बार बड़े साहब ने उन्हें कोठी की ड्यूटी पर लगा दिया था। काम था घर के छोटे-मोटे काम कर देना और मेमसाहब की मदद करना। पता नहीं इस बात में कहां तक सच्चाई है पर तब कहने वाले यही कहते थे कि साहब के घर पर काम करते-करते उनकी जीभ मेमसाहब की जवानी देखकर ही लपलपाने लगी थी, शायद मेमसाहब को भी कुछ शक हो गया था कि शिलाकांत छुप-छप कर उन्हें नहाते हुए या कपड़े बदलते हुए देखते रहते हैं। ऊपर से भोलेनाथ बने रहने के बावजूद वे अपनी नजरों का खोट नहीं छुपा पाये थे और वहां से तुरन्त हटा दिये गये थे। लेकिन उनके बारे में इसके ठीक उलटी कहानी भी कही जाती रही। वह यह कि मेमसाहब खुद ही उनकी जवानी और कदकाठी पर मोहित हो गयी थीं और उनसे घर के कामकाज करवाने के बजाय अपने हाथ-गोड़ दबवाने लगी थीं। वे इससे भी आगे बढ़ पातीं या शिलाकांत को आगे बढ़ने के लिये आमन्त्रित कर पातीं शिलाकांत खुद ही बिफर गये थे ‘हम यहां बीबियन की मालिस करने की पगार नहीं पाते हैं,’ उन्होंने आफिस में बड़े बाबू से कह दिया था, ‘हमें आफिस में काम करने की पगार मिलती है, हम यहीं काम करेंगे। बहुत कुरेद-कुरेद कर पूछ कर लोगों ने भीतर की बात जाननी चाही थी पर वे टस से मस नहीं हुए थे। इस पूरे प्रकरण पर एकदम चुप्प हो गये थे। आज बीस-पच्चीस साल बीत जाने पर भी सच्चाई किसी को मालूम नहीं है।
शिलाकांत की तीन पत्नियां हैं। दो गांव में और एक यहां पर लोकल। गांव की दोनों शादियों से उन्हें सात बच्चे हैं, पांच लड़कियां, दो लड़के। यहां वाली से तीन बच्चे हैं, दो बच्चे उसकी पहली शादी के हैं। वह साथ लायी थी। एक शिलाकांत से हुआ। सबको पता है उनकी तीनों शादियों के बारे में, लेकिन ऑफिस में उनकी एक ही शादी और उससे पांच बच्चे दर्ज हैं। गांव वाली बीवियों, बच्चों को वे यहां कभी नहीं लाये। खुद हर साल एक बार महीने भर के लिए घर जाते हैं, कभी किसी बच्चें का गौना कर आते हैं, तो कभी ब्याह। खेती-बाड़ी के सारे मामले वे उसी महीने में निपटा आते हैं। सुना है पहले काफी खेती थी उनकी, उसी में और शिलाकांत के भेजे थोड़े-बहुत पैसों से गुजर हो जाया करती थी। इधर बच्चों के बड़े हो जाने और ब्याह वगैरह हो जाने के बाद काफी जमीन हाथ से निकल चुकी है। कुछ जमीन भाई लोगों ने दबा ली है।
पहले उनके घर से हफ्ते में तीन-चार चिटि्ठयां आया करती थीं। सबकी सब बैरंग, वे ही हर बार पैसे देकर छुड़ाते। सारी चिटि्ठयां बैरंग आने के पीछे दो वजहें थीं, पहली तो यह कि उनकी बीवियों, बच्चों, भाइयों में से किसी का भी आपस में जरा सा झगड़ा, तू-तू, मैं-मैं हुई नहीं कि बच्चों की कापी से पन्ना फाड़ा, खुद लिखना आता है तो ठीक वरना किसी बच्चे़ को घेर-घार कर शिकायत लिखवायी, गोंद या चावल के माड़ से चिपकायी और डाल दी लाल डिब्बे में। घर पर पैसे, पोस्टकार्ड न भी हो तो परवाह नहीं, पाती तो पहुंचेगी ही बाबा के पास। कर्इ बार तो ऐसा होता कि झगड़ा करने वाली दोनों पार्टियों के खत उन्हें एक ही डाक से मिलते। इससे उन्हें झगड़े की पूरी बात दोनों पक्षों से पढ़ने को मिल जाती और उन्हें यह फैसला करने में कतई दिक्कत नहीं होती कि अगली बार उन्हें खत में क्या लिखना है।
आठवीं पास हैं शिलाकांत। अपनी चिट्ठी पत्री खुद ही करते हैं। बैरंग चिटि्ठयां पाने में शिलाकांत को बेशक गांठ से काफी पैसे ढीले करने पड़ते लेकिन वे इसका बुरा नहीं मानते थे। वे दो तर्क देते, एक तो चिट्ठी वक्त पर मिलती है, उन्हें ही मिलती है, सलामत मिलती है और डाकिया खुद उन्हें ढूंढ़ कर देता है और दूसरे वे यह मानते कि घर-बार के लोगों को जब तक तुरन्त और मुफ्त में उन तक शिकायत पहुंचाने का अवसर मिलता रहे, तभी तक बेहतर। वे लिख कर अपना बोझ हलका कर लेते हैं तो उन्हें इस सुख से क्यों वंचित रखा जाये।
लेकिन उनकी यह सुखद स्थिति ज्यादा अरसा नहीं चल पायी थी। तीन-तीन बीवियां, दस बच्चे, मामूली-सा वेतन उनकी मानसिक और आर्थिक हालत डांवाडोल होने लगी थी, इसका असर उनके कामकाज और व्यवहार पर नजर आने लगा। हर समय चिड़चिड़ाये बैठे रहते। कभी जबान भी न खोलने वाले शिलाकांत लोगों से उलझने लगे। शायद उन्हें सबसे ज्यादा दिक्कत आर्थिक थी, सो कर्जे का सहारा लेने की जरूरत पड़ने लगी, अब उन्होंने बैरंग चिटि्ठयां लेना भी बंद कर दिया था। जब उन्हें पता ही है कि इनमें झगड़ों की बातों और शिकायतों, पैसों की मांग के अलावा कुछ नहीं है तो और पैसे क्यों बरबाद किये जायें। उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ने की स्थिति आ गयी। शायद एकाध लड़की की शादी की बात भी टूट गयी थी और उनका काफी पैसा दबा लिया गया था। वे मामला सुलझाने लिए एक बार गांव गये तो पूरे तीन-चार महीने तक नहीं लौट पाये थे। एक तो छुटि्टयां नहीं थीं उनके पास, सो रजिस्टर्ड डाक से बुलावे पहुंचने लगे और दूसरे यहां वाली बीवी और बच्चों के भूखे मरने की नौबत आ गयी। वह बेचारी सबसे पूछती फिरी। दो-दो, चार-चार रुपये उधार मांग कर दिन गिनती रही।
शिलाकांत जब लौटे तो गांव के मामले सुलझने के बजाय और उलझ चुके थे। सिर पर भारी कर्ज हो गया था। ऑफिस में भी बिना छुट्टी गैर-हाजिर रहने की स्थिति अनुकूल नहीं रही थी। ऐसे कठिन समय में एक बहुत बड़ी दुर्घटना हो गयी शिलाकांत के साथ।
उन्होंने जिस पठान से पैसे उधार ले रखे थे, अरसे से उसका ब्याज भी नहीं चुका पा रहे थे। बकाया वेतन न मिलने के कारण वैसे ही फाकों की हालत में उनके दिन कट रहे थे। ऐसे में एक दिन पठान सवेरे-सवेरे उनके घर जा धमका और लगा उन्हे गलियाने, ‘अगर कर्जा चुका नहीं सकते तो लेते क्यों हो? तीन-तीन बीवियों से मजे लेने के लिए पैसे हैं और हमारे लिए नहीं है। शायद शिलाकांत का परिवार उस दिन फाके पर था, वैसे ही उनका पारा गर्म था, सो शिलाकांत बाहर निकले और पठान की अच्छी-खासी धुनाई कर दी।
पठान रोता हुआ थाने जा पहुंचा और शिलाकांत हवालात के अन्दर हो गये। बहुत हाथ-पैर मारे, लेकिन कोई जमानत के लिए तैयार न हुआ। यूनियन ने भी मदद करने से मना कर दिया। ऑफिस वाले तो पहले से ही तैयार बैठे थे सस्पैंशन ऑर्डर के साथ। बड़ी मुश्किल से बीवी ने अपने सारे जेवर, बर्तन-भाण्डे बेचकर पठान का कर्ज चुकाया, पुलिस को खिलाया-पिलाया, तभी शिलाकांत बाहर आ सके। हवालात से तो बाहर आ गये, लेकिन ऑफिस के अन्दर न घुस सके। वे सस्पैण्ड किये जा चुके थे। अब भी यूनियन उनकी तरफ से केस लड़ने को तैयार न थी। पूरे चार महीने तक सस्पैण्ड रहे। जब नौकरी पर बहाल किया गया तो सजा के तौर पर दो साल के लिए वेतनवृद्धियां रोक दी गयीं और भविष्य में कायदे से रहने की हिदायत दी गयी। यूनियन के रुख से बेजार होकर शिलाकांत ने उसकी सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया और अपनी अलग से यूनियन बना ली। अब तक उन्होंने शराफत का जामा उतार फेंका था और मैनेजमेंट को दिये गये आश्वासन के बावजूद खुराफातें करने में लगे रहे। उनकी तरह के कुछ और भी ऐसे कर्मचारी थे, जिनके सही गलत कामों में यूनियन ने पक्ष लेने से इन्‍कार कर दिया था या पूरी तरह से उनके साथ नहीं रही थी, वे सब शिलाकांत के साथ हो लिये। आखिर उन्हें भी तो कोई मसीहा चाहिये था। यह बात दीगर है कि उनकी यूनियन को न तो कभी मान्यंता दी गयी, न ही सुविधाएं और न ही किसी विवाद की स्थिति में मान्‍यता प्राप्त यूनियन की तरह बातचीत के लिए उन्हें बुलवाया गया।
शिलाकांत ने कभी परवाह नहीं कि कि कोई उनकी यूनियन को घास नहीं डालता या उसे कोई यूनियन मानने के लिए तैयार ही नहीं है। वे हर वक्त इस बात की टोह लेते रहते कि मान्यता प्राप्त यूनियन या मैनेजमेंट से कब कोई गलती या चूक होती है। वे तुरन्त अपनी अधकचरी भाषा में पोस्टर तैयार करके, दीवार पर, यूनियन या ऑफिस के नोटिस बोर्ड पर दन्न से चिपका आते। उनकी भाषा एक दम धमकी भरी होती और उसमें किसी का लिहाज न रहता। उन्हें कई बार वार्निंग दी गयी कि वे अपनी इन ओछी हरकतों से बाज आयें, पर वे कहां मानने वाले थे।
उनकी इन हरकतों से परेशान होकर एक बार मान्यता प्रापत यूनियन ने भी तय कर लिया कि शिलाकांत को मजे चखाये जायें। किसी कर्मचारी के जरिये उनके खिलाफ शिकायतें की गयीं कि हालांकि उन्होंने तीन-तीन शदियां कर रखी हैं, लेकिन घोषित एक ही की है। एक से अधिक शादियां सेवा-नियमों के खिलाफ हैं इसलिए उनके विरुद्ध कार्रवाई की जाये। किसी तरह शिलाकांत को यह खबर लग गयी कि यह शिकायत किसने की है। आधी रात को गंडासा लेकर उसके घर पहुंच गये और उसकी गर्दन पर गंडासा रखते हुए धमकाया, ‘’मेरी तीन बीवियों और दस बच्चों का तो किसी तरह गुजारा हो जायेगा, पर अगर तेरी बीवी विधवा हो गयी तो सड़क पर आ जायेगी। सोच ले।’ उसकी घिग्घी बंध गयी। उस बेचारे ने तो यूनियन के कहने पर शिकायत की थी, उसे क्या पड़ी थी कि किसके तीन बीवियां हैं या पांच। उसने अगले ही दिन अपनी शिकायत वापिस ले ली थी। फिर किसी ने उनसे शादी को लेकर कोई लफड़ा नहीं किया।
अलबत्ता, अब शिलाकांत पहले वाले भोले-भाले आदर्श चपरासी नहीं रहे थे। वे लोगों से, अपने संगी-साथियों से कटते चले गये। पता नहीं किस बात पर वे कैसे रिएक्ट करें। हां, लोगों को ऑफिस का मनहूस वातावरण रंगीन बनाना हो, कुछ फुलझडि़यां सुननी हों तो उनसे बढि़या कोई पात्र नहीं था। लोग अक्सर उनसे पंगे ले लेते, उन्हें छेड़कर अपनी सीट की तरफ बढ़ जाते शिलाकांत को सुलगता हुआ छोड़कर। घंटों बकझक करते रहते शिलाकांत। कई बार स्थिति बड़ी विचित्र हो जाती। वे तो अपनी तरफ से तो बड़ा सूझ भरा कदम उठाते, लेकिन सयाना बनने के चक्कर में उनसे कोई मौलिक बेवकूफी हो जाती। कई बार वे और लोगों के झांसे में भी आ जाते और ऊटपटांग हरकतें कर बैठते।
एक बार ऑफिस के बाद कहीं जाने के लिए घर से निकले। चकाचक धोती और कुर्ता। शायद किसी दावत में जीमने जा रहे थे। बस स्टैण्ड पर भीड़ थी। दो-तीन बसें आयीं, लेकिन वे चढ़ नहीं पाये। एक बस रुकी। उसमें पहले ही बहुत भीड़ थी। किसी तरह वे फुटबोर्ड पर एक पैर रखने की जगह भर बना पाये थे कि बस चल पड़ी। दूसरा पैर जमीन पर था। शायद ऑफिस के ही किसी आदमी ने उनकी धोती पर पैर रख दिया। बस चल चुकी थी। नतीजा यह हुआ कि उसके पैर रखने से इनकी धोती जो खुली, खुलती चली गयी और बस के पीछे-पीछे हवा में लहराने लगी। शिलाकांत जी अजीब दुविधा में फंसे चिल्लाने लगे, ‘’अरे भाई बस रोको।‘’ वे मुश्किल से एक हाथ से डण्डा पकड़े हुए थे। दूसरे हाथ से धोती लपकने की कोशिश की, पर हाथ भीड़ में ही फंस कर रह गया। बस तेज हो चुकी थी और उनकी धोती लहराने के बाद अब सड़क पर बिछी हुई थी। उन्होंने दनादन दो-चार गालियां ड्राइवर को, धोती पर पैर रखने वालों को और ही-ही कर रही जनता को दीं। किसी तरह बस रुकी, अपने कुर्ते को दबाये-दबाये धोती की तरफ लपके। धोती सड़क पर मिट्टी में बुरी तरह से गंदी हो गयी थी। बस अड्डे पर खडे लोग भी उनकी हरकत के मजे ले रहे थे। उन्हें और ताव आ गया। एक आड़ में जाकर धोती लपेटी और बस स्टैण्ड पर आकर जोर-जोर से गालियां बकने लगे, ‘’किस सरऊ की हिम्मत हुई है, सामने आये। हमारा वो देखना चाहता है धोती खुलबाय के तो ले, देख ले’’ वे वहीं बिना किसी का भी लिहाज किये अश्लील हरकतें और गाली-गलौज करने लगे। अगर उन्हें पता चल जाता कि धोती पर पैर किसने रखा है, तो उस दिन उसकी खैर नहीं थी।

शिलाकांत काण्ड की खबर डिप्टी साहब तक पहुंच गयी है। हालांकि उनके लिए यह बहुत अच्छा अवसर है अपने पुराने अपमान का बदला लेने का, लेकिन फिर भी वे रिस्‍क नहीं लेना चाहते। इतने साल बीत जाने पर भी न तो वे उस अपमान की कड़वी यादें भूल पाये हैं और न ही उसका बदला ही ले पाये हैं शिलाकांत से। ज्यों ही उन्हें खबर दी गयी है कि शिलाकांत वहां खुराफात कर रहा है, क्या किया जाये, उन्हें मन्त्रांलय का कोई भूला हुआ काम याद आ गया है। उन्होंने तुरन्त जीप मंगवाने के लिए पी.ए. से कहा और एक फाइल उठा ऑफिस से फुर्र हो गये। न वहां होंगे, न इस बारे में कोई फैसला ही करना पड़ेगा। वे चाहें तो आज इस बच्चू को अच्छा मजा चखा सकते हैं, लेकिन उन्हें पता है, यह औंधी खोपड़ी कल उनके केबिन में भी भरत नाट्यम करने पहुंच सकता है। फिर कहीं दांव शिलाकांत का पड़ गया तो।
यह किस्सा काफी पहले का है। वे प्रशासनिक अधिकारी थे तब। शिलाकांत की खुराफातों से बहुत तंग आये हुए थे। कई बार समझाने, धमकाने, वेतन काटे जाने, वार्निंग दिये जाने के बावजूद वे सीधी राह पर नहीं आ रहे थे। कई विभागीय जांचें उनके खिलाफ चल रही थीं। शिलाकांत अपने मन की तरंग में यही माने चल रहे थे कि वे तो एकदम ठीक हैं। प्रशासनिक अधिकारी ही उनके पीछे पड़े हुए हैं हाथ धो के। दोनों अपनी-अपनी तरफ से दूसरे को गलत सिद्ध करने में और नीचा दिखाने में लगे हुए थे। संयोग से शिलाकांत मौका हथिया ले गये।
डिप्टी साहब एक दिन लंच के वक्‍त यूं ही ज़रा धूप में अकेले खड़े हुए थे। आस पास बाबू, चपरासी लोग बैठे ताश खेल रहे थे। थोड़ी दूर कुछ और अधिकारी खड़े बतिया रहे थे। तभी जनाब शिलाकांत उनके पास आये और सिर झुकाकर, हाथ जोड़कर खड़े हो गये। शिलाकांत के पास आते ही वे समझ गये थे कि आज कुछ अनहोनी होने ही वाली है। तभी शिलाकांत ने नमस्कार की मुद्रा में झुके-झुके ही उन्हें मां बहन की गालियां देना शुरू कर दिया। वे जब तक संभलते, समझते, शिलाकांत जी उन्हें बुरी तरह गालिया कर गेट की तरफ बढ़ चुके थे। इस सारी प्रक्रिया में मुश्किल से एक मिनट लगा। पूरे समय के दौरान शिलाकांत सिर झुकाये, हाथ जोड़े खड़े रहे।
पहले तो उनकी समझ में ही नही आया, यह सब क्या हो गया, फिर वे एकदम गुस्से में आग-बबूला हुए साहब के केबिन की तरफ लपके थे। साहब लंच के बाद की झपकी ले रहे थे। डिप्‍टी इतने गुस्से में थे कि साहब के सामने पूरी बात कहने में भी तकलीफ हो रही थी। पूरी बात सुन कर साहब उनके साथ लपके हुए बाहर आये थे। डिप्टी साहब ने आसपास मौजूद कई लोगों को बुलवा लिया था कि इन सबके सामने शिलाकांत ने मुझे गालियां दी है। वह सुनकर सभी सकपका गये थे। दरअसल किसी ने भी उसे गालियां देते हुए नहीं सुना था। बस उसे झुके-झुके गिड़गिड़ाते हुए देखा था। वैसे भी गंडासे वाले किस्से के बाद किसकी हिम्मत थी कि उनके खिलाफ झूठी-सच्ची गवाही दे। सबने वही कहा जो उन्हों ने देखा था। सुना तो वैसे भी किसी ने कुछ नहीं था। डिप्टी साहब को इसकी कतई उम्मीद नहीं थी कि वे इस अपमान का एक भी गवाह नहीं जुटा पायेंगे। वे अभी भी अपमान की आग में जल रहे थे। शिलाकांत उनके मुंह पर थूककर चले गये थे और उसकी जलालत वे झेल रहे थे।
शिलाकांत कोई सवा दो बजे आये। लंच टाइम खत्म होने के पैंतालीस मिनट बाद। उन्हें तुरन्त तलब किया गया और एकदम कड़े शब्दों में इस घटना के बारे में साहब ने खुद पूछा। वे साफ मुकर गये, ‘’अजी साहब, क्या बात करते हैं, हम और साहब को गाली दिये? ना ना, कभी नहीं हुजूर, हम तो साहब से दरखास करने गये थे कि साहेब घर पर हमारा बचवा बुखार में तड़प रहा है। सो हमें आधे घंटे की छुट्टी दी जाये ताकि हम उसे डाक्टर के पास ले जाकर उसकी दवा-दारू का इंतजाम कर सकें और हम कुछ नहीं बोले साहब ! साहब से बस हाथ जोड़े विनती करते रहे। सब बाबू लोग इसके गवाह हैं हुजूर। किसी से भी पूछ लीजिये और अगर हम झूठ बोल रहे हैं तो हमें अपने बीमार बच्चे की कसम। ये देखिये उसकी दवा की पर्ची भी हमारे पास है।‘’ और उन्होंने जेब से डाक्टर की पर्ची निकालकर दिखा दी।
साहब और वे खुद दोनों ही समझ गये थे कि आज शिलाकांत ऊंचा खेल खेल गये हैं। बेहद शातिराना अंदाज में। उन पर हाथ डालने की कोई गुंजाइश नहीं थी। साहब ने शिलाकांत को भेजकर डिप्टी के कंधे पर हाथ रखकर कहा था। ‘’सम अदर टाइम सम अदर वे। वी कांट ट्रैप हिम टूडे।
उनका मुंह अपमान से काला पड़ गया था। उनकी मुटि्ठयां शिलाकांत का गला दबाने के लिए कसमसा रही थीं और वे कुछ नहीं कर पा रहे थे। आज उसी घटना की याद ताजा हो आयी थी उन्हें और वे जीप लेकर निकल गये थे। आज अगर वे उसे घेर भी लें, क्या गारंटी कल शिलाकांत पहले जैसा खेल नहीं खेलेगा। उससे दूर ही भले।

टीले पर अभी भी शिलाकांत का प्रवचन जारी है—‘’साले, समझते हैं कि शिलाकांत अकेला है। उसके आगे-पीछे रोने वाला कोई नहीं है। मार डालेंगे। बंबू किये रहेंगे ताकि शान्ति से बैठा रहे। अन्याय सहता रहे। हम बताये देत हैं मनिजमेंट और उसके चमचों के लिए हम ही अकेले काफी हैं। सबकी . . . में डंडा करने को। एक-एक को बुलवाये लो। सबकी फाड़ के न रख दी तो हमारा नाम भी शिलाकांत नहीं,’’ वे अपने अंग विशेष को हिलाते हुए बके जा रहे हैं। नीचे भीड़ बहुत बढ़ गयी है। लंच टाइम हो चुका है सो सभी वहीं भागे चले आ रहे हैं। हर बार कोई न कोई उन्हें उकसा देता है और वे नये से शुरू हो जाते है। तभी किसी ने उनकी तरफ एक तौलियानुमा कपड़ा फेंका ताकि वे बांध लें उसे और अपनी नंगई छोडें। वे फिर दहाड़े, ‘’ले जावो इस कफनी को और ओढ़ाय देव मनिजमेंट की लास को। वही बिना कफन के जलाने के इंतजार में सड़ रही है।‘’ सुरक्षा अधिकारी कुछेक गार्डों के साथ उन्हें नीचे उतारने और कपड़े पहनाने की कोशिश करता है, वे ऊपर से पत्‍थर मारने लगते हैं। उसी के पितरों का तर्पण करने लगते हैं।
जब बड़े साहब को इस मामले की खबर दी गयी तो वे एकदम आगबबूला हो गये हैं, तुरन्त प्रशासनिक अधिकारी, कार्मिक अधिकारी और सुरक्षा अधिकारी को तलब किया गया है। वे दहाड़े, ‘’ये क्या हो रहा है ऑफिस में। यह ऑफिस है या गंगाघाट? आप लोग कुछ देखते करते क्यों नहीं? उन्होंने बारी-बारी से तीनों को घूरा। कोई कुछ कह से, इससे पहले ही वे बोले, ‘’नो, नो, मै कुछ सुनना नहीं चाहता। अगर वह सीधी तरह नही मानता, तो टेक सम स्टर्न एक्शन। कॉल पुलिस। ही इज स्पाइलिंग द ऑफिस एटमास्फेयर। डू समथिंग इमीडियेटली’’ उन्होंने बिना किसी को कुछ भी कहने का मौका दिये हुए कहा। कार्मिक अधिकारी ने किसी तरह से हिम्मत जुटाकर कहा, ‘’सर पुलिस बुलाने में बहुत कंपलीकेशंस हैं। अगर वह गिरफ्तार कर लिया गया तो बाद में कोर्ट-कचहरी के चक्कर हमें ही काटने पड़ेंगे।‘’ कार्मिक अधिकारी अपनी खाल बचाये रखना चाहते हैं।
‘’देन डू व्हाट एवर यू कैन डू, बट दिस रास्कल मस्ट वी टॉट ए लेसन दिस टाइम।‘’ तभी उन्हें कुछ सूझा, तीनों को रुकने के लिए कहा और एकदम फैसला करने के अन्दाज में बोले, ‘’एक काम कीजिये आप’’ उन्होंने सुरक्षा अधिकारी से कहा, ‘’आप फायर ब्रिगेड को फोन कीजिये, फायर इंजिन से उसकी अच्छी तरह धुलाई करा दीजिए। अपने आप ठिकाने होश आ जायेंगे, उस इडियट के।‘’ तीनों अधिकारी साहब से एकदम सहमत हो गये हैं। उन्हें मन ही मन अफसोस भी हुआ कि इतना बढिया आइडिया उन्हें क्यों नहीं सूझा।
फायर इंजिन की घंटी की आवाज सुनकर वहां खड़ी भीड़ में भगदड़ मच गयी है। उसके लिए एकदम रास्ता बना दिया गया है। धक्का मुक्की करके हर आदमी अब आगे जाना चाह रहा है। सब हैरान भी हो रहे हैं कि यह किसके दिमाग की उपज है। डेढ़-दो घंटे से जो तमाशा चल रहा है, उसका पटाक्षेप होने ही वाला है। यह दृश्य कोई भी मिस नहीं करना चाहता। फायरमैन अपनी-अपनी पोजीशन लेकर पानी का जेट तैयार करके आदेश की प्रतीज्ञा में हैं। सुरक्षा अधिकारी, कार्मिक अधिकारी और अन्य अधिकारी शिलाकांत को आखिरी चेतावनी दे रहे हैं: ‘’शराफत से कपड़े पहनकर नीचे आ जाओ वरना.....’’
शिलाकांत यह सब अमला देखकर और भड़क गये हैं। और ऊँचे टीले पर जा खड़े हुए हैं और अपनी गालियों का प्रसाद नये मेहमानों को भी देने लगे हैं। सब लोग हो-हो करके हंसने लगे। सुरक्षा अधिकारी को एकदम ताव आ गया। वह पहले वहां खड़ी भीड़ पर दहाड़ा, ‘’क्‍या तमाशा लगा रखा है सबने यहां? जाओ अपनी-अपनी सीट पर। आप लोगों की वजह से ही वह इतनी देर से नाटक कर रहा है। जाइए आप लोग’’, लोग दो-चार कदम पीछे हट कर फिर खड़े हो गये। गया कोई नहीं। वे इस नाटक का अन्त देखे बिना कैसे जा सकते हैं।
तभी सुरक्षा अधिकारी ने शिलाकांत को स्नान कराने का आदेश दे दिया। पानी की तेज धार जब उन पर पड़ी तो वे सारी गालियां भूल गये। फायरमैनों को भी आज की इस ड्यूटी में मजा आ रहा है। उन्होंने शिलाकांत को पानी की मोटी धार से इतना परेशान कर दिया कि उनके लिए खड़ा रहना मुश्किल हो गया। वे चिल्लाने लगे। पहले घुटनों के बल झुके, तो पानी की धार भी नीचे कर दी गयी। फिर वे जमीन पर बिल्कु‍ल लेट से गये। हाथ ऊपर करके हाय-हाय करने लगे। उनकी सांस फूल गयी और वे हांफने लगे। सुरक्षा अधिकारी ने पानी रोकने का इशारा किया और चिल्ला कर पूछा, ‘’क्यों श्रीमान, दिमाग की मैल उतर गयी या अभी बाकी है ?’’
शिलाकांत एकदम बेदम पड़े हैं बुरी तरह हांफते हुए। हाथ हवा में टंगे हुए है। खेल खत्म हो गया है। सुरक्षा अधिकारी ने अग्निशमन दल को धन्यवाद दिया और सुरक्षा गार्डों को आदेश दिया कि वे शिलाकांत को कपड़े पहनाकर उसके केबिन में ले आयें।
लोगों के हुजूम लौट रहे हैं, ऑफिस की तरफ। हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा आ जाये, वाला भाव लिये।

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