Monday, July 28, 2008

18वीं कहानी - दिव्या, तुम कहाँ हो?

सपना देख रहा हूं क्या? या सब कुछ मेरे सामने घट रहा है। मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। न मैं पूरी तरह होश में हूं न बेहोशी में। मैं जागने और नींद के बीच इधर से उधर झूल रहा हूं। हिचकोले खा रहा हूं। सरकस के एक्रोबैट्स की तरह। ऊपर से हवा में लटके एक तरफ के डण्डे से झूलते हुए दूसरी तरफ के डण्डे को थाम लेना। इधर होता हूं तो सब कुछ साफ होता है। रोशनी, कमरा... बिस्तर पर लेटा हुआ मैं, लेकिन उधर की तरफ का डण्डा थामते ही जैसे नींद की गहरी अंधेरी सुंग में उतर जाता हूं। सब कुछ गायब हो जाता है। एकदम अंधेरा। सन्नाटा। कई बार खुद को बीच अधर में पाता हूं। कुछ भी थामे बिना। रोशनी और अंधेरे की झिलमिल में वहां से तेजी से गिरने को होता हूं कि एकदम आंख खुल जाती है। थोड़ी देर बाद फिर वही कलाबाजियां। पता नहीं कितनी देर से चल रहा है यह सब। नींद की लहरों पर डूबना-उतराना।
तेज प्यास लगी है। आसपास देखता हूं। कोई भी नहीं है। किसी को पुकारना चाहता हूं। आवाज ही नहीं निकलती। कौन-सी जगह है यह? यह मेरा कमरा तो नहीं? हवा में दवाओं की गंध है। यानी अस्पताल में हूं। यहां कैसे आ गया मैं? क्या हुआ है मुझे? याद करने के लिए दिमाग पर ज़ोर डालता हूं। दर्द की एक तेज लहर से माथे की नसें तड़कने लगती हैं। याद आता है - आधी रात को सिर दर्द उठा था। भयंकर। जैसे पूरा कपाल भीतर तक खदबदा रहा हो। उलटी-सी भी आने को हो रही थी। पेनकिलर, बाम, नींद की गोलियां, सभी तो आजमाये थे। पता नहीं कितनी देर छटपटाता रहा था। दर्द की सुइयां और बारीक होती चली गयी थीं। अजीब तरीके से दिमाग चुनचुना रहा था। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। याद नहीं आ रहा, फिर क्या हुआ होगा? हो सकता है उठकर किसी पड़ोसी की जगाया हो, वही मुझे यहां छोड़ गया हो। अकेले तो नहीं आया होऊंगा। क्या कहा होगा डॉक्टर ने? इलाज शुरू हो गया क्या? कोई सीरियस बात होगी तभी तो अस्पताल में हूं। सिर अभी भी भारी लग रहा है। ऊपर से यह नींद आने उचटने की हालत।
उठकर बैठने की कोशिश करता हूं। दर्द की एक धारदार छुरी पूरे कपाल को चीरती चली जाती है। फिर लेट जाता हूँ। साइड टेबल की तरफ निगाह जाती है। ढेर सारी दवाएं। मेडिकल रिपोर्ट। तो इसका मतलब... इलाज शुरू हो चुका है। टेस्ट भी हो चुके। कब से हूं यहाँ? दर्द तो... याद नहीं आता... कब उठा था...। आज कितनी तारीख है? कैलेण्डर तो सामने लगा है। सितम्बर 1992। लेकिन इसमें दिखाई दे रही तीस तारीखों में से आज कौन-सी है? उस दिन कौन-सी तारीख थी... नहीं याद आता। आंखें बंद कर लेता हूं। क्या हुआ है मुझे? कहीं... कोई... खतरनाक...बी... मा... री...। मेडिकल रिपोर्ट तो यहीं रखी है। देखूँ, क्या कहती है। फाइल उठाता हूं। कई रिपोर्टें हैं इसमें तो। इसका मतलब कई टेस्ट हुए हैं। हर रिपोर्ट के नीचे लाल स्याही में टाइप की हुई इबारतें पढ़ने की कोशिश करता हूं।
ओह गॉड! यह... क्या... हो... गया...। फाइल मेरे हाथ से छूट कर नीचे गिर गयी है। निढाल-सा पड़ गया हूं। सांस सकदम तेज हो गयी है। जैसे मीलों दौड़कर आया हूं। गले में कांटे उग आये हैं। पानी रखा है, पर उठकर पीने को हिम्मत नहीं है। पथराई आंखों से खिड़की के बाहर का अंधेरा देखता हूं। यह अंधेरा धीरे-धीरे कमरे के भीतर आ रहा है। मेरे चारों तरफ इस अंधेरे ने एक घेरा बना लिया है। अब यह मेरे भीतर उतरेगा और फिर... सब कुछ... खत्म...।
मैं... मुझे... मुझे... ब्रेन ट्यूमर हो गया है। कैंसर के जीवाणु लिये। कोई इलाज नहीं। निश्चित मौत। छ: महीने से दो साल के बीच। कभी भी। जब आखिरी बाद दर्द उठेगा तो चौबीस घंटे की मोहलत भी नहीं मिलेगी। उससे पहले कष्टदायक बीमारी झेलते हुए जीना। खर्चीला इलाज... ऑपरेशन... तकलीफ... तकलीफ... तकलीफ... इलाज से मौत थोड़ा पीछे खिसक सकती है। टलेगी नहीं। आंखों के आगे अंधेरा छा रहा है... अरे कोई है... मुझे बचाओ... किसी को बुलाने के लिए आवाज देना चाहता हूं। आवाज ही नहीं गले में... पानी... पा... नी... कोई है... पानी।
तो... ? खत्म हो गया मैं। सिर्फ़ चौंतीस साल की उम्र... आधी... अधूरी ज़िंदगी... सब कुछ यहीं छूट जायेगा। पैक अप कर लूं? खाली हाथ जाने के लिए पैक अप! यह घर-बार... दिव्या, मां-पिताजी, भाई-बहन, ऑफिस, सुख-दुख, दोस्त, खुशियां सब यहीं... रह जायेंगे... । सब कुछ चलता रहेगा। मैं ही नहीं रहूंगा। कहीं मज़ाक तो नहीं है? डॉक्टरों ने मुझे डराने के लिए, मुझसे पैसा ऐंठने के लिए यह सब लिख दिया हो। आजकल खूब चल रहा है इस लाइन में। कब हुए थे सब टेस्ट? मुझे होश में क्यों नही लाया गया? मुझसे पूछा क्यों नहीं गया?
दिमाग सुन्न हो रहा है। एकदम अंधेरा। बाहर-भीतर, दोनों जगह। मुझे मरना होगा... उससे पहले तिल-तिल कर जीना। हर सांस अनिश्चित। मेरी रुलाई फूट पड़ी है। मैंने क्या कसूर किया था, अधबीच ऊपर बुला लिया जाऊंगा। वह भी इतनी घातक बीमारी से? दिव्या, तुम कहां हो? देखो मैं कितना लाचार पड़ा हूं यहां। अपनी मौत का परवाना लिये! अपना ख्याल रखना दिव्या! ओ मेरी मां, मुझे बचाओ। मैं इतनी जल्दी मरना नहीं चाहता। बहुत डर लग रहा है मां, मैं क्या करूं।
एक चीख निकलती है, लेकिन उसकी आवाज भीतर ही भीतर घुटी रह गई है। किसी तरह उठ कर पानी पीता हूं। थकान होने लगी है। फिर लेटता हूं। कौन है यहाँ? यह कैसा अस्पताल है? कोई पूछने क्यों नहीं आता? इतने सीरियस मरीज को भी ये लोग अकेला छोड़ देते हैं। मुझे अभी कुछ हो जाये तो? सिर में अभी भी करेंट उठ रहे हैं। कया करूं? पता तो चले कौन लाया मुझे? डॉक्टर कया कहते हैं? दवाएं? इलाज? क्या यहां इलाज हो पायेगा? या मुम्बई जाना होगा? वहां बेहतर सुविधाएं हैं? मौत को पीछे सरकाने की। अमेरिका में और बेहतर हैं। लेकिन पैसे?
पता नहीं ऑफिस वालों को खबर है या नहीं? अस्पताल का खर्च कौन देगा? दवाएं, ऑपरेशन? कहां से करूंगा इतना इंतज़ाम? पता नहीं कितनी तारीख है? घर पर तो दो-चार सौ भी नहीं होंगे। बैंक में जितने पैसे थे, दिव्या पहले ही ले जा चुकी है। कोई एडवांस बाकी नहीं है। कौन करेगा देखभाल मेरी। उधर दिव्या एक नये प्राणी के स्वागत में व्यस्त है और इधर मैं अपनी बची-खुची ज़िंदगी का लेखा-जोखा तैयार कर रहा हूं। वह तो पता चलते ही रो-रो कर जान दे देगी। मेरे बच्चे का आना और मेरा जाना। कैसा अभागा जन्मेगा! कहीं मैं ही तो अपने बच्चे का रूप धर कर नहीं लौट रहा! सोच... सोचकर कलेजा मुंह को आ रहा है।
कभी सोचा भी नहीं था, अपनी मौत को खबर बरस-दो बरस पहले मिल जायेगी मुझे। और फिर मरने के पल तक लगातार इस अहसास को जीते रहना - कोई भी पल मेरे लिए आखिरी हो सकता है। वैसे तो मौत किसी को भी कभी भी आ सकती है, रोज सैकड़ों-हजारों दुर्घटनाओं में, भूकंप से, दंगों, लड़ाइयों में मरते ही हैं, लेकिन वह मौत तो एकदम अचानक होती है। पल भर पहले भी पता नहीं होता, पिछली सांस, पिछला बोला गया संवाद, मिलाया गया हाथ, लिया गया चुम्बन आखिरी था। अगली सांस गायब। बल्ब फ्जूज हो जाने की तरह। एकदम अंधेरा। मेरे साथ भी वही होता। मरने से पहले की यह पीड़ा, ये चिंताएं तो न होतीं। एकदम मुक्त हो जाता। जो जहां है, जैसा है, वैसा ही छोड़कर। लेकिन मुझे तो खराब चोक वाली ट्यूब लाइट की तरह न जाने कब तक भक...भक... जलना-बुझना है। सबकी आंखों में चुभते हुए। मरना सिर्फ मुझे होगा, लेकिन झेलना सबको पड़ेगा।
आंखें बंद करता हूं। अपनी मौत को हर वक्त पास आते महसूस कर रहा हूं। क़ॉरीडोर में उसके कदमों की आहट आ रही है। दरवाजे पर आकर ठिठक गयी है। नॉक किया है उसने। मैं दम साधे पड़ा हूं। उसकी आवाज न सुनने का नाटक करता हूं। मौत मुस्कुराती है-घबरा रहे हो? पहले से पता हो तो सबके साथ ऐसा ही होता है। चलो। थोड़ा और जी लो। लेकिन ज्यादा नहीं। मैं यहीं बाहर इंतज़ार कर रही हूं।
देख रहा हूं - सब लगे हैं मेरी सेवा में। खुद को और मुझे झूठी तसल्ली देते हुए। मेरे सामने कोई नहीं रोता। सब आंसू पोंछकर आते हैं। जबरदस्ती रुलाई रोके हुए। लेकिन मेरे सामने से जाते ही इतनी देर से रोकी गयी रुलाई और नहीं रोक पाते। संवाद खत्म हो गये हैं। हर आदमी सूनी-सूनी आंखों से मेरी तरफ बैठा देखता रहता है। फिर हाथ दबाकर, सिर पर हाथ फेर कर चला जाता है। हिन्दी फिल्मों के नायक की तरह `सब ठीक हो जाएगा' का मंत्र दोहराता हुआ। सब परिचितों की दिनचर्या में एक और काम जुड़ जायेगा। मुझे देखने आना। मुझे और मेरे परिवार को लगातार याद दिलाया जायेगा कि मैं बस चंद दिनों का मेहमान हूं। यह अवधि जितनी कम होती चली जायेगी, सबकी चिंता का ग्राफ ऊपर उठता रहेगा। इतना ऊपर कि एक दिन मैं ही उस ग्राफ की सीमा से बाहर निकल जाऊंगा।
मेरी सांस फिर फूल गयी है। क्या है यह सब? कोई है क्यों नहीं मेरे पास? किसे बुलाऊं? किसका हाथ थामूं? दिव्या? कब आओगी दिव्या? लेकिन वह तो मायके में है? नन्हें-नन्हें स्वेटर, मोजे बुन रही होगी! खूबसूरत सपनों में जी रही होगी। और मैं?
लेकिन मुझे इतना घबराना नहीं चाहिए। हो सकता है, इनीशियल स्टेज ही हो। या डॉक्टरों की गलती भी तो हो सकती है। फिर से टेस्ट कराये जा सकते हैं। इतनी जल्दी तो नहीं मरा जा रहा। अस्पताल में तो हूं ही। देखभाल हो ही रही होगी। घबराने से क्या होगा? आखिर ऊपर वाले से छीना-झपटी तो नहीं की जा सकती। हिस्से में होगा तो बेहतर इलाज से ठीक भी तो हो सकता हूं। मुझे हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। ठण्डे दिमाग से सोचना चाहिए। अभी तो मेरे पास वक्त है। इसे जीना चाहिए।
कौन था वह? हां, आनन्द फिल्म का नायक। राजेश खन्ना। उसे भी तो कोई ऐसा ही रोग था। कितना हंसता-हंसाता था। लेकिन वह तो एक्टिंग कर रहा था। जब मरने का वक्त आया तो कितना चिल्लाता था, `बचा लो मुझे। मैं मरना नहीं चाहता। ज़िंदगी के नाटक का अंतिम सीन करते-करते कितना रोता था। लेकिन वह भी तो एक्टिंग ही थी। यहां तो सचमुच का रोल है। जीवन्त मंच। जीवंत अभिनय। मैं अकेला पात्र, कोई संवाद नहीं। बस दम साधे पड़े रहो। एक पूरा नाटक समाप्त। इस अभिनय के लिए तालियां, आंसू, शाबाशी, रोना-धोना कुछ नहीं पहुंचेगा मुझ तक।
फीकी हंसी आती है। राजेश खन्ना को अगर सचमुच ब्रेन ट्यूमर हो जाये तो कर पायेगा आनन्द फिल्म की तरह हंसना-हंसाना। कहीं रोता-छटपटाता पड़ा रहेगा। कर पाऊंगा मैं भी उसी की तरह मौत का सामना! या बाकी सारा समय रोते-कलपते बीतेगा? अपनी ज़िंदगी का नायक बनकर जीना। जीना-मरना ऊपर वाले के हाथ... हम तो सिर्फ कठपुतलियां...।
खुद पर काबू पाने की कोशिश करता हूं। अभी तो नहीं मर रहा हूं। जब तक वक्त है मेरे पास, हाथ-पांव और दिमाग चलते हैं, चीजें व्यवस्थित कर लूं। अपनी अधूरी हसरतें पूरी कर लूं। जितना है जी लूं। यह सोचकर तनाव थोड़ा कम हो गया है। उठता हूं। पानी पीता हूं।
अभी भी याद नहीं आ रहा, यहां कैसे पहुंचा? कब आया अस्पताल! नर्स आयेगी तो पूछूंगा। सारे टेस्ट हो गये हैं या नहीं! मुझे पता क्यों नहीं चला। आंखें बंद कर लेता हूं। अब क्या फर्क पड़ता है। अस्पताल तो पहुंच ही गया हूं। सुबह कोई तो आयेगा। ऑफिस या कॉलोनी से। हो सकता है, किसी ने पता ढूंढ़कर दिव्या या पिताजी को भी खबर भेज दी हो।
किसी को तो बुलवाना ही होगा। डॉक्टर भी अकेले रहने की सलाह नहीं देंगे। दिव्या तो डिलीवरी के बाद ही आयेगी। उसका अभी आना ठीक नहीं होगा। उसे खुद देखभाल की ज़रूरत है। लेकिन एक बार पता चल जाये तो रुक पायेगी क्या... रो...रोकर बुरा हाल कर लेगी। कौन करेगा उसकी देखभाल यहां?
मेरी तो पुकार हो गयी। वह कैसे निभायेगी? छोटा बच्चा? अकेली कहां रहेगी? फ्लैट भी तो छोड़ना पड़ेगा। अपना मकान अभी अधूरा खड़ा है। पता नहीं कब पैसे होंगे और कब पूरा होगा। कब तक भागदौड़ करेगी बेचारी। कैसे कर पायेगी। किस-किस के आगे हाथ जोड़े जायेंगे? वैसे भी खुद्दार है, आसानी से उसके हाथ नहीं जुड़ते।
इलाज...ऑपरेशन... कहां से आयेगा खर्च। कहां कहां भटकना होगा दिमाग का यह रोग लिये? रोज़-रोज़ नयी दवाएं, टेस्ट... मोटे-मोटे मेडिकल बिल... लम्बी मेडिकल लीव... फिर हाफ पे... फिर विदआउट पे और आखिर में... एक्सपायर्ड... इस घर, परिवार, ऑफिस से, इस दुनिया से एक और आदमी चला जायेगा। बिना कुछ हासिल किये। कुछ दिन अल्बम में, लोगों की याद में बना रहूंगा। फिर धीरे-धीरे पूरी तरह भुला दिया जाऊंगा। कहां याद करते हैं हम अपने पूर्वजों को। अपने गुजरे साथियों को। एक आदमी से एक याद और उस याद के भी धुंधला जाने के दौर से मुझे भी गुजरना होगा। मेरा सब कुछ मेरे साथ खत्म हो जायेगा।
लेकिन इस तरह खत्म होने से पहले की ज़िंदगी मैं कैसे गुज़ारूंगा? अकेले तो कत्तई नहीं रह पाऊंगा। किसी को तो घर से बुलाना पड़ेगा। दौड़-धूप... डॉक्टरों, अस्पतालों के चक्कर। हो सकता है, डॉक्टर बंबई जाने के लिए कहें। किसे बुलाऊं। सुनील भाई साहब, परेश भाई साहब या फिर छोटा सुदीप। लेकिन जो भी आयेगा, काम-धंधा छोड़कर आयेगा। काम का हर्जा होगा। पता नहीं कितने दिन रहना पड़े। और फिर सभी को तो पचीसों तकलीफें हैं। सुनील भाई साहब खुद ढीले रहते हैं। आये दिन चारपाई पकड़े रहते हैं। परेश जी तो पैसों की तंगी की वजह से छुट़टी तक नहीं ले पाते। प्राइवेट नौकरी। जो भी आयेगा, मेरी इस महंगी बीमारी में न चाहते हुए भी उस पर बोझ पड़ेगा। न भी खर्च करने दूं मैं, बीसियों बार डॉक्टरों, कैमिस्टों के चक्कर लगेंगे। पता नहीं कितने दिन अस्पताल में रहना पड़े।
पिताजी को बुलवाऊं। लेकिन कहां कर पायेंगे इतनी भागदौड़। बेशक पता चलते ही तुंत चल पड़ेंगे। इस उम्र में भी सबसे ज्यादा मददगार और सहारा देने वाले साबित होंगे। सब कुछ छोड़कर आ जायेंगे। मां की भी परवाह नहीं करेंगे, जो अभी भी पूरी तरह ठीक नहीं हुई है। उसे तो हर वक्त किसी के सहारे की ज़रूरत होती है। मां को किसके भरोसे छोड़ेंगे। पिताजी को बुलवाऊं भी किस मुंह से। कई-कई महीने बीत जाते हैं उन्हें मनीऑर्डर भेजे हुए। हर बार उन्हीं का मनीऑर्डर टल जाता है। उनकी मामूली-सी पेंशन। मां का इलाज। बीसियों दूसरे खर्चे। पूरी रिश्तेदारी। पैंसठ साल की उम्र में भी वे अपनी बूढ़ी हड्डियों को आराम नहीं देना चाहते। कहीं न कहीं खटते रहते हैं। न किसी से कुछ मांगते हैं, न हममें से कोई आगे बढ़कर उनकी बूढ़ी हथेली पर कुछ रखने की सोचता है। हर बार यही होता है। हम सब भाई यही मान लेते हैं, इस बार दूसरे ने भेज दिया होगा। सामने कोई नहीं आता।
आये भी कैसे? सबके पीछे बीवियां हैं, जो दरवाजे की ओट में खड़ी देखती रहती हैं। कहीं उनका पति आगे बढ़कर कोई फालतू जिम्मेवारी तो नहीं उठा रहा। ताने मारती रहती हैं। उनकी तेज आंखें पति की पीठ पर चिपकी उन्हें कोंचती रहती हैं। बहुत कर लिया है इस घर के लिए। सारी उम्र का ठेका थोड़े ले रखा है।
अगर पिताजी आते भी हैं तो भी मां की ही पोटलियां खुलवायेंगे। गनीमत होगी उनमें भी अगर किराये भर के पैसे निकल आयें। वैसे भी मेरी बीमारी का सुनकर एकदम टूट जायेंगे। उन्हें ही कुछ हो गया तो...? मां के एक्सीडेंट के समय इस बुढ़ाने में भी ज़ार-ज़ार रोते थे। इस उम्र में अकेले रह जाने का डर उनकी जान खाये जा रहा था। उन्हें पता था, हम सब बच्चों के होते हुए भी वे एकदम अकेले और अलग-थलग पड़ जायेंगे। नहीं, उन्हें तकलीफ होगी यहां आकर। फिर मां भी तो है। उनकी कौन करेगा?
मैं भी कैसा पागल हूं। लगता है दिमागी फोड़े ने अपना असर दिखाना खुरू कर दिया है। यह कैसे हो सकता है कि मैं किसी एक को बुलवाऊं और उसे जब यहां आकर असलियत का पता चले और वह औरों को न बताये। दो-तीन दिन में ही पूरा कुनबा यहां आ पहुंचेगा। कैसे भी करके। आयेंगे सब। बिना बुलाये ही। बस पता लगने भर की देर होगी। मुझे एक दिन भी यहां अकेले नहीं रहने दिया जायेगा। कहीं भी शिफ्ट कर दिया जायेगा। हर तरह का संभव, असंभव इलाज आजमाया जायेगा।
मां के एक्सीडेंट के समय देख चुका हूं। पता लगते ही पास-दूर के सब रिश्तेदार आ जुटे थे। हर आदमी अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराना चाहता था। हर तरह की मदद के लिए तैयार था। मां को चौथे दिन होश आया था, वह याददाश्त खो बैठी थी। फिर भी सबकी चाह रहती, मां उन्हें कम-से-कम एक बार तो पहचान ले। मां कोशिश करती। कुछ बुदबुदाती। दिमाग पर ज़ोर पड़ता। वह दर्द से कराहती। लेकिन कोई भी मां की आंखों में पहचान दर्ज करवाये बिना जाना नहीं चाहता था।
तो... तो... इसका यही मतलब हुआ, किसी को भी बुलवाया जाये, आयेंगे सब। जो भी पहले आयेगा, पहला काम यही करेगा सबको फोन, तार, चिट्ठी से खबर करेगा। यहां अकेला हूं। अस्पताल में पड़ा हूं। दिव्या मायके में। सब आ गये तो कैसे होगा? कौन करेगा सबके लिए? दिव्या लौट भी आये तो मेरी देखभाल करेगी, खुद को संभालेगी या आया-गया देखेगी। मेरे बीमार होने से सब पेट पर पट़टी बांधकर नहीं आयेंगे। फिर इलाज? खर्च?
कहां से आयेगा यह रुपया। इलाज के लिए? घर खर्च के लिए। इधर-उधर से कर्ज उठाये जायेंगे। कौन लेगा? मेरे बाद चुकाना भी तो होगा। तय है जो लेगा उसी को चुकाना पड़ेगा। कौन आयेगा सामने। बात पांच-सात हजार की हो तो कोई सोचे भी। अंधे कुएं में पता नहीं कितना डालना पड़े। न वापसी की गारंटी, न मेरे ठीक होने की।
याद करने की कोशिश करता हूं, क्या लेना-देना है। कहां से लिया जा सकता है लोन? उस दिन इन्कम टैक्स के लिए हिसाब लगाया तो था। नकद बचत तो दिव्या ले गयी है। थोड़े-बहुत सेविंग सर्टिफिकेट्स हैं। दो पॉलिसियां। और कर्ज़-डेढ़ लाख हाउसिंग लोन के, सात हजार स्कूटर लोन के। चार हजार कन्ज्यूमर लोन के, सत्रह हजार क्रेडिट सोसाइटी के। क्रेडिट सोसाइटी से लोन रिन्यू करा के तीन हजार मिलेंगे और एमरजेंसी लोन पांच हजार। ये आठ हजार तो डॉक्टर चरणामृत के रूप में ही ले लेंगे। बाकी?
ख्याल आता है, अगर मुझे कुछ हो जाये तो? पैसों के अभाव में ढंग का इलाज न मिल पाने के कारण अगर मुझे कुछ हो जाता है तो? जीते जी मुझे कर्ज़ चुकाने हैं, इलाज के लिए पैसे नहीं हैं, लेकिन मरने के बाद सारे कर्ज़ चुकाकर भी कम से कम ढाई लाख रुपये दिव्या को मिलेंगे। साठ हजार फंड के। नब्बे हजार ग्रुप इंशोरेंस, पन्द्रह हजार स्पेशल ग्रेच्यूटी, साठ हजार ग्रेच्यूटी। सर्टिफिकेट्स वगैरह के। और छोटी-मोटी रकमें, दो लाख बीमे के। अजीब मज़ाक है। ज़िंदा हाथी खाक का, मरा सवा लाख का। इलाज के बिना मरूं और मरने पर पैसे ही पैसे। किसे? दिव्या को ही तो। वही तो नॉमिनी है।
कम से कम इस फ्रंट पर तो मुझे ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए। कभी न कभी मकान भी पूरा हो जायेगा। हो सकता है, मेरे सामने हो जाये। फिर मेरी जगह दिव्या को नौकरी भी तो मिलेगी। ग्रेजुएट है। क्लर्की ही सही। आगे तरक्की कर सकती है। पर ये सारे पैसे दिव्या को मिलें, नौकरी भी उसे मिले, मकान भी उसी के नाम रहे और मां-पिताजी उन्हीं ग्यारह सौ की पेंशन में गुजारा करते रहें? अब तो फिर भी कुछ न कुछ देता हूं, बाद में तो वह भी बंद हो जायेगा। उन्हें इन पैसों में से कुछ नहीं मिलेगा, क्या किसी एकाध जगह नॉमिनी बदला नहीं जा सकता। पूछना पड़ेगा। अगर दिव्या नौकरी करेगी तो उसे यहीं रहना होगा और मां-पिताजी अपना घर छोड़कर यहां आयेंगे नहीं?
फिर ख्याल आता है, क्यों सोच रहा हूं मैं यह सब? अभी तो पता नहीं, इलाज शुरू भी हुआ है या नहीं। अभी तो नहीं मर रहा। क्या पता एकदम ठीक हो जाऊं। इन रिपोर्टों में भी जिस शब्दावली में मेरा रोग और निदान लिखा है, मुझे समझ कहां आयी है। मुझे सोच-सोचकर अपना खून नहीं जलाना चाहिए।
आंखें बंद करता हूं, फिर वही ख्याल... अपने-पराये... मरना... दिमाग में टूटे-फूटे वाक्य बन-बिगड़ रहे हैं। मानस पटल पर सबके चेहरे आ-जा रहे हैं। मां... दिव्या... पिताजी... अपने होने वाले बच्चे का चेहरा... कैसा होगा... यार-दोस्त...। सिर झटकता हूं। उठकर पानी पीता हूं। यह क्या हो रहा है मुझे... मैं... मैं... मुझे आराम क्यों नहीं मिल रहा... कोई है... मुझसे बात करो... मेरी सारी बातें नोट करे कोई... मैं... अकेला नहीं रह सकता... मुझे कोई... बोलने वाला... सुनने वाला चाहिए... अरे... कोई है...? कहां है... नर्स... कितने बजे हैं... कौन-सी तारीख है... महीना... साल... डॉक्टर कब आयेगा मां... मां... मैं यहां हूं मां... मुझे कुछ दिखायी क्यों नहीं दे रहा... किसकी चिट्ठी है... कौन आया है... कौन-कौन आ रहा है... जो भी आये... जल्दी आये... तुंत... मैं सबसे मिलना चाहता हूं। गले मिलना... पिताजी आ रहे हैं... लेकिन मां उन्हें अकेले... नहीं आने देगी... वह भी आयेगी... लेकिन मां तो सब कुछ भूल जाती है... मुझे पहचानेगी क्या या गुमसुम बैठी रहेगी... दोनों आयेंगे। पेंशन के चैक के बदले किसी से उधार लेकर...। भाई आयेंगे... भाभियां आयेंगी... कुछ भी हो... मुझसे स्नेह रखती हैं... सब...। बहनें आयेंगी... सारी तकलीफों के बावजूद... कब से नहीं मिला हूं उनसे। दीपा... उसका पति अजय... उनकी नन्हीं-सी बच्ची... क्या नाम है... करिश्मा... और संध्या... उसका गोल-मटोल गोपू... लेकिन अब उसे उठाकर ऊपर... उछाल नहीं पाऊंगा... सब दोस्त आयेंगे... उमेश, देशी, गामा, फिर... मामा आयेगा... सबके सुख-दुख में सबसे पहले पहुंचता है... दिव्या तुम... तो यहीं हो न... मेरे सिरहाने... कहीं जाना नहीं दिव्या... नहीं मुझे दवा नहीं चाहिए... तुम यहीं मेरे पास बैठकर...स्वेटर और ख्वाब... बुनती रहो... अनन्त काल तक... मुझे... कुछ नहीं होगा... इस घड़ी में अभी... बहुत चाभी बाकी है... अभी तो मेरा बच्चा... उसका नामकरण... बर्थ डे पार्टी... तालियां...।
दिमाग को एक तेज झटका लगता है। मैं यह सब क्या देख रहा था? आस-पास देखता हूं। अभी भी रात है। नर्स अभी तक नहीं आयी। दवा...पानी... फाइल अभी भी फर्श पर गिरी पड़ी है... उठाऊं। उठने की कोशिश करता हूं। टाल जाता हूं। उसमें लिखा बदल थोड़े ही गया होगा।
लेकिन अगर मैं किसी को भी न बुलवाऊं तो...? अस्पताल में तो देखभाल हो ही जायेगी। यहां हमेशा तो नहीं रहना होगा... और फिर दर्द हर समय तो नहीं उठेगा? इलाज तो चलता रह सकता है। मैं सबको प्यार करता हूं। सबको इस तरह परेशान करने का मुझे क्या हक है। मेरी मरने के बाद सबके हिस्से में जो दु:ख लिखा है, वे उसे झेलेंगे ही। जीते-जी सबको क्यों रुलाऊं। जो भी आयेगा, काम-धंधा छोड़कर आयेगा। मेरी हालत देख-देखकर रोता रहेगा। जो नहीं आयेंगे, उनकी जान वहीं सूखी रहेगी। हर वक्त तार या फोन का खटका लगा रहेगा।
जो भी झेलना है, मुझे ही झेलना है। सबको अपने साथ क्यों मारूं। सबका मोह सिर्फ मेरे लिए ही तो नहीं। मैं भी तो सबको खुश देखना चाहता हूं। सबको क्यों परेशान करूं। सबसे मिलना है, तो फिर आखिरी बार मैं ही क्यों न जाऊं सबसे मिलने? सबके पास रहूं। तब किसी को पता भी नहीं चलेगा, यह हमारी आखिरी मुलाकात है। अभी तो मेरी मौत मुझे इतना समय देगी कि सबसे मिल-जुल लूं। कुछ जी लूं। मां-बाप के पास रह लूं। दिव्या को उसके कठिन वक्त में साथ दूं। अपने होने वाले बच्चे का इंतजार करूं। उसका स्वागत करूं। खिलाऊं। उसकी मुस्कान में खुद को देखूं।
ब्रेन ट्यूमर का क्या है। किसी को बताया न जाये तो उसे पता भी न चलेगा। कहीं ज्यादा तकलीफ हुई तो कह दूंगा - मामूली सिर दर्द है। ठीक हो जायेगा। दवाएं लेता रहूंगा। लेकिन महंगा इलाज, ऑपरेशन नहीं कराऊंगा। क्या होगा उससे? मौत सिर्फ सरकेगी। टलेगी नहीं। पैसे कहां हैं इलाज के लिए? अगर हो भी जायें तो उनसे दूसरे काम निपटाऊंगा।
सोचकर अच्छा लग रहा है। लेकिन कर पाऊंगा यह सब? आनन्द की तरह जीना? या जीने का नाटक करना... किसी को पता भी न चले... और जब पता चले तो बहुत देर हो चुके... इतनी देर कि इलाज... खर्च... रोना... धोना... और फुलस्टॉप... कुछ भी मायने न रखें।
दिमाग फिर थकने लगा है। दर्द की लहरें फिर माथे से टकरा रही हैं। आंखें बंद कर लेता हूं। धीरे... धीरे... नींद...।

3 comments:

रंजना said...

एक और सशक्त, पाठक को अपने में बाँध आत्मविस्मृत कराती कथा.
सत्य है..सबको मालूम है कि एक दिन मरना है,पर जब यह सामने आकर खड़ी हो जाती है तो इसके लिए स्वयं को तैयार कर पाना आसान नही.संवेदनाओं को इतने सुंदर ढंग से आपने उकेरा है कि जितनी तारीफ़ की जाए कम है.

vipinkizindagi said...

aaj first time aapke blog par aaya
bahut achcha laga sir,
mere blog bhi dekhe,
meri ek gazal.....
खाली न हो घर दिल का,
इसमे समान कोई रखना,
जो चले गये छोड़कर सफ़र,
उनकी याद में याद कोई रखना,
जब हो कामयाबी का नशा खुद पर
तो सामने अपने आईना कोई रखना,
यकीनन ज़िंदगी एक ज़ंग है मगर,
इस दौड़ में अपना ईमान कोई रखना

सतीश पंचम said...

काफी दिलचस्प और बांधकर रखने वाली रचना है। बहुत बढिया।