Monday, May 19, 2008

चौदहवीं कहानी - फैसले

बद्रीप्रसाद वापिस लौट रहे हैं। एकदम हताश। टूटे हुए। अपने ही घर से बेगाने होकर। अपनों द्वारा ही ठुकराए जा कर। यह ठुकराया जाना नहीं है तो क्या है? क्या इसी दिन को देखने के लिए इतने बरस इंतज़ार किया था उन्होंने! एकदम ठूंठ-से दिन गुज़ारे। तनहा रहे। जैसे ज़िंदगी न जी रहे हों अब तक, बल्कि ज़िंदगी का इंतज़ार कर रहे हों। क्या-क्या तो सोचा था! कितनी मुश्किलों से तो आज का दिन देखना नसीब हुआ है! ज़िंदगी के सबसे अनमोल, बेशकीमती तेरह साल एकदम बर्बाद करने के बाद। अकेलेपन के कड़वे धुं में सुलग-सुलग कर राख हो जाने के बाद क्या हाथ लगा है? कुछ भी तो नहीं!
पूरे तेरह साल के इंतज़ार के बाद अब वह घड़ी आयी थी कि वे अपने टूटे-बिखरे परिवार को एक छत के नीचे ला सकते और इत्मीनान से दिन गुज़ारते। ज़िंदगी का जो वक्त गुज़र गया तो गुज़र गया। उसे लौटाना किसके बस की बात है। जो बाकी है, आगे है, उसी को बेहतर बनाने की दिशा में कुछ करने और बच्चों के सिर पर हाथ फेरने का जब वक्त आया है, तो उन्हें यह खरा-सा जवाब सुना दिया गया है, ``हम नहीं जाएंगे तुम्हारे साथ बंबई अपनी यह नौकरी छोड़कर। सब ठीक तो चल रहा है अब तक। आगे भी चलता ही रहेगा।'' सुनकर वे एकदम सकते में आ गए थे। सहसा विश्वास नहीं हुआ था, उमा यह क्या कह रही है! इतने साल कम नहीं होते जो उन्होंने अलग-अलग रह कर काटे हैं। कितनी मुश्किलों से तो यह संयोग बना है कि उमा और बच्चों को अपने पास बंबई ले जा सकें और वह है कि सिर्फ नौकरी के लिए अपने पति का साथ तक छोड़ने को तैयार बैठी है।
उन्होंने समझाने की बहुत कोशिश की, ``लेकिन नौकरी तो तुम्हें वहां भी मिल सकती है। न भी मिले तो अब तक हमें जो दो घरों पर दुगुना खर्च करना पड़ रहा है, एक साथ एक ही जगह रहने पर थोड़े कम पैसों में भी गुजर हो ही जायेगी। फिर इस मकान का किराया भी तो बच जायेगा,'' पर वह शायद पहले से सब कुछ तय किए बैठी है,``आप समझते क्यों नही! अगले सैशन में मेरे हेड बनने के पूरे चांस हैं। मैं ऐसे वक्त यह लेक्चररशिप कत्तई नहीं छोड़ सकती और न ही लम्बी छुट्टी लेकर यह चांस गंवाना चाहती हूं। जैसे अब तक हर महीने-पंद्रह दिन में आते रहे हैं, आगे भी आते रहिए।'' बिल्कुल ठण्डे स्वर में उसका जवाब मिला, ``हां, छुट्टियों की बात दूसरी है। हम वहीं आ जाया करेंगे आपके पास।''
अचानक सामने आयी इस स्थिति में क्या करें, वे तय नहीं कर पा रहे। उमा को धमकाएं? जबरदस्ती उसकी नौकरी छुड़वाएं या कोई और उपाय करें? पर उससे तो स्थितियां और बिगड़ेंगी। फिर से प्यार से उसे नफा-नुकसान समझाएं? या कहें कि वे अकेले रहते-रहते थक गए हैं। ढाबों में और खाना खाने की उनकी हिम्मत नहीं रही है। उसके पास तो फिर भी गुड्डू, अक्कू हैं। वे कैसे बताएं अब उम्र के इस दौर में सचमुच उन्हें परिवार की कितनी ज़रूरत है।
पर बद्रीप्रसाद के हर तरह से समझाने से भी वह टस-से-मस नहीं हुई हैं उमा। अक्कू, गुड्डू भी मां की तरफ ज्यादा निकले। वे पिता की तरफ हो भी कैसे सकते हैं? सोलह साल के गुड्डू को वे तब छोड़कर गए थे जब वह सिर्फ तीन बरस का था। और अक्कू तो उनके बंबई जाने के बाद ही पैदा हुआ है। इन तेरह बरसों में वे कुल मिलाकर तेरह महीने भी तो उनके पास नहीं रहे हैं। वे हर समय आस-पास बनी रहने वाली मां की तुलना में मेहमान सरीखे आने वाले पिता का पक्ष ले भी कैसे सकते हैं? इसमें बच्चों का भी क्या कुसूर! वे खुद ही तो इन सारी स्थितियों के लिए दोषी हैं। न बंबई वाली यह नौकरी स्वीकार करते, न ही आज यह दिन देखना पड़ता।
वे तब यहीं, इसी शहर में एक छोटी-सी प्राइवेट नौकरी किया करते थे। किसी तरह गुजारा हो ही रहा था। शादी हो चुकी थी और वे किसी बेहतर नौकरी की तलाश में थे। तभी मुम्बई वाली इस नौकरी के लिए उनका चयन हो गया था। उम्मीद से कहीं अधिक अच्छी। आगे तरक्की के भी खूब अवसर थे। बस एक ही दिक्कत थी। मकान की। कम्पनी ने साफ-साफ कह दिया था, ``कम्पनी की तरफ से फिलहाल मकान नहीं दिया जा सकता। भविष्य में कभी हो सका तो ज़रूर देंगे। कब? कह नहीं सकते।''
बहुत सोचा था उन्होंने। वैसे भी सरकारी नौकरी का आखिरी चांस था। वे ओवर एज ब्रैकेट के एकदम पास थे। उमा ने भी यह सलाह दी थी, ``ज्वाइन तो कर ही लो। कहीं एक कमरा किराए पर लेकर शुरू तो करो। आखिर कभी तो कम्पनी मकान देगी ही। नहीं जमा तो लौट आना। यहां वाली नौकरी तो है ही।'' उमा ने भरोसा दिलाया था, ``हमारी चिंता मत करना। कैरियर पहले है। हम गुड्डू के साथ रह लेंगी।'' और वे बंबई चले आए थे।
उन्हें बंबई आकर ही पता चला था कि कितनी मुसीबतों की पोटली है यह मायानगरी। सबसे पहले तो उन्हें ढंग की जगह तलाशने में ही एड़ी-चोटी का दम लगाना पड़ गया था। महीनों अपना बोरिया-बिस्तर उठाए एक ठिकाने से दूसरे ठिकाने भटकते रहे। बिना डिपाजिट के कोई एक कमरा तक किराए पर देने को तैयार नहीं होता था। इतना डिपाजिट कहां से लाते। कभी किसी की बालकनी में चारपाई भर की जगह लेकर रहे तो कभी किसी गेस्ट हाउस में। कभी दो-चार मित्रों के साथ मिलकर कहीं कमरे का जुगाड़ किया तो कभी सायन-कोलीवाड़ा की सरकारी कॉलोनी में रहे। अरसे तक पेइंग गेस्ट भी बने रहे अलग-अलग घरों में।
लाख तरह की मुसीबतें सही, लेकिन उन्होंने तय कर लिया था, यहां से लौटकर नहीं जाना है। इसी शहर में अपने लिए जगह बनानी है। आज नहीं तो कल, वे अपने और अपने परिवार के लायक एक छत ढूंढ ही लेंगे। उन्होंने देख लिया था, यह शहर काम और काम करने वाले, दोनों की कद्र करता है। वे काम करने आए थे, लौटने का सवाल ही नहीं उठता था।
हर महीने बिला नागा घर जाते रहे और उमा को ज़रूरत भर पैसे देते रहे। इधर बंबई में मकान की तलाश जारी रही। उमा हिम्मत दिलाए रहती, ``डटे रहो। हम बिल्कुल ठीक हैं'' इस बीच उमा ने एक-दो ट्यूशनें कर लीं और साथ ही एम.ए. ज्वाइन कर लिया। इधर बद्री प्रसाद ने भी अपनी शामों का अकेलापन काटने की नीयत से शाम की क्लास में एल.एल.बी में दाखिला ले लिया।
किस्मत अच्छी थी उमा की कि प्रथम श्रेणी में एम.ए. करते ही एक स्थानीय कॉलेज में पहले अस्थायी और फिर स्थायी लेक्चरशिप मिल गयी। हालांकि बद्री प्रसाद उमा की इस नौकरी से बहुत खुश नहीं थे, पर एक तसल्ली भी हुई थी कि अब वे घर पर ज्यादा पैसे भेजने के बजाय मकान के लिए पैसे जमा कर पाएंगे।
इधर उन्होंने एल.एल.बी के बाद जर्नलिज्म ज्वाइन कर लिया ताकि वक्त तो ढंग से गुज़रता रहे। इस कोर्स का उन्हें एक और फायदा हुआ था। वे कोर्स के दौरान और बाद में भी विज्ञापन एजेंसियों और फीचर एजेंसियों के लिए काम करने लगे। वक्त तो गुजरता ही था कुछ अतिरिक्त आमदनी भी हो जाती।
अपने बंबई प्रवास के पहले पांच साल में वे अपने परिवार को सिर्फ दो-तीन बार एक-एक सप्ताह के लिए बंबई ला पाए थे। वह भी तब, जब उनके दोस्त अपने परिवारों के साथ बाहर गए होते और वे उनके फ्लैट की चाबी एकाध हफ्ते के लिए मांग लेते। उमा को बंबई कतई पसंद नहीं थी। दड़बे जैसे घर, चारों तरफ गंदगी और हर समय भागम भाग। बद्री प्रसाद ने तब यही समझा था, दूसरे के घर में रहने की वजह से उमा व्यवस्थित महसूस नहीं कर रही है। अपना घर होते ही सब ठीक हो जाएगा।
एक जगह से दूसरी जगह, एक ठीए से दूसरे ठीए तक आठ साल तक धक्के खाने के बाद पहली बार वे एक फ्लैट का जुगाड़ कर पाए थे। दूर-दराज के कल्याण स्टेशन से भी दो किलोमीटर पर एक गंदी बस्ती में। मकान मालिक चलास हजार डिपाजिट मांग रहा था, जो उन्हें मकान छोड़ते समय लौटा दिए जाते। किराया पांच सौ रुपये।
उन्होंने बड़ी मुश्किल से ये पैसे जुटाए थे। अपनी और उमा की सारी बचत। यार-दोस्तों से उधार और कम्पनी की क्रेडिट सोसाइटी से कर्ज। वे उस घर को पाकर बेहद खुश थे। आखिर मिला तो सही। एक छत तो है सिर पर। बेशक छोटी जगह सही। उनके परिवार के लिए काफी है।
वे गर्मी की छुट्टियों में परिवार को ले आए थे। लेकिन आस-पास का इलाका देखकर उमा ने यहां रहने से साफ इनकार कर दिया था। ``हम इस सड़ी हुई जगह में कत्तई नहीं रहेंगी''। पूरी छुट्टियां बड़ी मुश्किल से उसने वहां गुज़ारी थी। बद्री प्रसाद ने बहुत समझाया था, ``लोग तो इससे भी खराब जगहों में रहते हैं। वे इससे अच्छी जगह की तलाश करते रहेंगे। और फिर, फ्लैट भीतर से तो साफ-सुथरा है।'' लेकिन उमा नहीं मानी थी और बच्चों को लेकर लौट गयी थी।
वे बीच-बीच में महसूस करते रहे हैं कि उमा बंबई के नाम से कभी उत्साहित नहीं रही। वह अपनी नौकरी और बच्चों में इतनी मगन रहती है कि जब वे यहां आते हैं तो उनकी तरफ भी ज्यादा ध्यान नहीं देती। उन्हें लगता है कि अब वे अपने ही घर में अपनी जगह खो चुके हैं। बच्चों के लिए उनके मन में कितना भी प्यार क्यों न हो, बच्चे उनसे हर वक्त कटे-कटे रहते हैं। कई बार उन्होंने महसूस किया है कि ज्यादा दिन रुकने पर बच्चे उनकी वापसी का इंतज़ार करने लगते हैं। कहीं उमा भी तो... नहीं, नहीं, इससे आगे वे नहीं सोचना चाहते और सिर थाम लेते हैं। सोचते हैं, बद्री प्रसाद, इस बंबई की नौकरी के चक्कर में उन्होंने कितना कुछ खो दिया है। अपने बच्चों तक के लिए अजनबी बन गए हैं। अपनी पत्नी से कितनी दूर जा चुके हैं। अब यहां लौट भी तो नहीं सकते। चालीस के होने को आए। अब कौन देगा इतनी पगार वाली नौकरी। यह रुतबा।
उन्हें समझ में नहीं आ रहा, उमा बार-बार बंबई जाने से क्यों मना कर दती है। कभी वह बच्चों की पढ़ाई का रोना लेकर बैठ जाती है तो कभी कहती है कि बंबई की आबोहवा उसे सूट नहीं करती। अब जब कम्पनी ने इतने खूबसूरत इलाके में काफी बड़ा फ्लैट उन्हें दे लिया है तो हैडशिप का नया बखेड़ा शुरू कर दिया है उसने। वह किसी तरह बंबई जाने से बचना चाहती है। वे उसे हर तरह से मनाकर, समझाकर हार चुके हैं। पिछले छह महीनों में यह उनका सातवां चक्कर है और इस बार भी वे अकेले वापस लौट रहे हैं। बिना किसी उम्मीद के। बिना किसी आश्वासन के।
कई बार उन्हें लगता है कि उमा के इस लगातार इनकार के पीछे कोई और वजह भी होगी। नहीं, वे उसके चरित्र पर शक नहीं करते। मेरी उमा ऐसी नहीं है। तो फिर! क्यों नहीं आना चाहती वह? उन्हें लगता है, शायद इतने बरस तक अकेले रहते-रहते उमा ने स्वतंत्र रूप से रहने, अपने फैसले खुद लेने की जो आदत बना ली है, उसे छोड़ना नहीं चाहती। शायद उसे यह डर लगता हो कि यहां जो सोसायटी में, कॉलेज में उसने अपनी पहचान बनायी है, वह एकदम खो जाएगी और बंबई में उसे नये सिरे से सब कुछ संवारना पड़ेगा। शायद कोई और बात हो। वे सोच नहीं पाते। वे तय नहीं कर पाते, क्या करें। क्या यूं ही सब कुछ चलने दें। रहते रहें अकेले? हारे हुए? टूटे हुए? लेकिन कब तक? या फिर लौटें उसे मनाने के लिए?
नहीं। उमा इस तरह से नहीं मानेगी। कब से तो प्यार से, मनुहार से मना रहे हैं। अब वे और अकेले नहीं रह सकते। उमा और बच्चों को भले ही उनकी ज़रूरत न हो, उन्हें अपने बीवी-बच्चों की सख्त ज़रूरत है। अब परिवार के बिना और नहीं रह सकते। कोई न कोई फैसला करना ही होगा। चाहे सख्ती करनी पड़े। वे तय कर लेते हैं।
बंबई पहुंचते ही उमा को एक कड़ा पत्र लिखेंगे, ``नौकरी से त्यागपत्र देकर आ जाए वरना... वरना तलाक के लिए तैयार रहे।
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1 comment:

सतीश पंचम said...

बिल्कुल यही कहानी हकीकत में मेरे एक परिचित के साथ घटित हुई है, आश्चर्य , नाम मे भी समानता है, हरीप्रसाद...एक अलग बात जो हुई वो ये कि हरीप्रसाद को खुद ही नौकरी छोडकर गांव अपनी पत्नी-बच्चों के पास जाना पडा क्योंकि कंपनी ने VRS दे दिया, उम्र - 46 साल थी उनकी, ठीक बद्रीप्रसाद की कहानी के तरह हरिप्रसाद की पत्नी भी सफल रही हैं।
....कहानी मुझे सच के ज्यादा करीब लगी।