Tuesday, April 15, 2008

नौवीं कहानी - टैंकर

लुधियाना से जब करतारा ने टैंकर हाइवे पर लगाया तो रात के ग्यारह बज चुके थे। दिसम्बर की सर्द रात, सत्तर और अस्सी के बीच रेंगती स्पीडोमीटर की सुई और पूरी बोतल ठर्रा चढ़ाए व्हील पर बैठा करतारा। उसकी सीट के पीछे वाली लम्बी बर्थ पर दो-दो कम्बलों में खुद को सर्दी से बचाते हुए लेटे-लेटे मुझे तरह-तरह के ख्याल आ रहे हैं। बीच-बीच में सामने से आते किसी ट्रक की बत्तियों की चौंधियाहट आँखों पर पड़ती है तो थोड़ी देर के लिए एक अजीब-सा ख्याल जेहन में उभरता है - हम एक सर्द दोपहर में छायादार वृक्षों से घिरी किसी सड़क पर चल रहे हों और बीच-बीच में यह रोशनी न होकर धूप का टुकड़ा आ जाता हो। साइड से ट्रक के गुजरते ही यह अहसास मर जाता है और मैं फिर उस अँधेरी बर्थ पर अपने टूटते-जुड़ते ख्यालों के सिरों को तरबीब देने लगता हूँ।
कभी सोचा भी न था, मुझे इस तरह रात-बेरात, वक्त-बेवक्त शहर-दर-शहर भटकने वाली नौकरी करनी पड़ेगी। एक बेईमान व्यापारी की ईमानदार नौकरी। किसलिए-सिर्फ पाँच-सौ रुपये के लिए ही तो। हाँ, पाँच सौ रुपये की यह नौकरी जो मुझे बी.एससी. करने के बाद पूरे तीन साल तक बेरोजगार रहने के बाद मिली थी और जिसके लिए मुझे किस हद तक जलालत-भरी स्थितियों से गुजरना पड़ा था। बी.एससी. की पढ़ाई करते समय कुछ सपने पालने शुरू कर दिए थे, लेकिन इस नौकरी ने उन सारे सपनों की धज्जियाँ उड़ा दी थीं। अब मुझे सपने नहीं आते, बस हरदम एक कशमकश चलती रहती है। किसीं तरह इस सबसे छुटकारा पाना है।
इस समय लुधियाना से सत्तर हजार की नकद वसूली करके दिल्ली लौट रहा हूँ। करतारा गाड़ी दौड़ाता अपने में मगन है। बीच-बीच में स्टियरिंग पर ताल देता गाने लगता है-`नइयों लगदा दिल मेरा'! सर्दी से कँपकँपी छूट रही है। ट्रक की सारी खिड़कियाँ बंद होने के बावजूद झिर्रियों से आती हवा मानो चीर रही है। हम यहाँ आधी रात को ठंड में मर रहे हैं और हमारा सेठ इस समय साउथ दिल्ली में अपने आलीशान बँगले में बैठा एक के बाद एक पटियाला पैग खाली कर रहा होगा। सेठ का ख्याल आते ही मुझे उबकाई-सी आने लगी। उसे जोर से गाली देने का मन हुआ, पर उसे इर तरह सरेआम गाली नहीं दे सकता। फिर से बेरोजगार हो जाऊँगा।
दरअसल मैं जिस फर्म में काम करता हूँ उसका नाम है-जय अंबे ऑयल कम्पनी। इसके मालिक हैं सेठ मुरलीधर। पाँच टैंकर हैं इस फर्म के पास जो यू.पी., पंजाब, हरियाणा के शहरों, कस्बों में डीजल, फर्नेस ऑयल, एच.एस.डी., मिट्टी के तेल वगैरह की सप्लाई करते हैं।
ये सप्लाई आमतौर पर दो नंबर पर होती है। रसीद वगैरह या तो होती नहीं, या जाली बनाई जाती है। देखने में सेठ जी बहुत ही भले और धार्मिक प्रवृत्ति के लगते हैं, तभी तो उन्होंने अपनी फर्म का नाम भी ऐसा रखा है। बहुत प्यार से, धीरे-धीरे बात करते हैं। आवाज में इतना अपनापन झलकता है और चेहरे से इतने भले लगते हैं कि शुरू-शुरू में कई बार मेरे मन में यह बेवकूफी भरा ख्याल आया कि मैं रोज सुबह उन्हें नमस्ते सेठजी न कहकर उनके पैर छू लिया करूँ। परन्तु यह उन दिनों की बात है जब मुझे उनके और उनके धंधे के बारे में कुछ भी मालूम न था।
हुआ यह था कि इस फर्म के लिए जो आदमी वसूली करके लाया करता था, वह चालीस हजार रुपये लेकर भाग गया। उसके घर-बार पर निगाह रखने और पुलिस को इत्तला दिए जाने के बावजूद उसका कुछ पता न चल पाया। चालीस हजार का चूना लग जाने के बाद सेठ सतर्क हो गए थे। इसलिए इस बार वे एक ऐसा आदमी चाहते थे जिसका पता-ठिकाना, घर-बार सब कुछ आँखों के सामने हो।
और इसी चूना लगने की घटना के बाद मैं इस फर्म से जुड़ा। यह सब-कुछ इतना आसान न था। उन दिनों मैं दो-एक ट्यूशनें करके गुजारा कर रहा था। मेहता साहब को, जिनके बच्चों को मैं पढ़ाता था, कहीं अच्छी-सी नौकरी का जुगाड़ बिठाने के लिए मैंने कह रखा था। उनकी सेठ से जान-पहचान थी। जब सेठ ने उन्हें अपनी फर्म के लिए एक ईमानदार लड़के की तलाश के लिए कहा तो उन्होंने मेरा नाम सुझाया। नाम सुझाना ही काफी नहीं था, सेठ ने व्यावहारिक बुद्धि और जीवन भर के अनुभव के आधार पर मुझसे उलटे-सीधे सवाल पूछे। एक बेहूदा सवाल यह भी पूछा कि कहीं मुझे मिर्गी वगैरह तो नहीं आती। कहीं ऐसा न हो कि मैं दस-बीस हजार रुपये की वसूली करके आ रहा होऊँ और रास्ते में मुझे मिर्गी आ जाए और कोई सारी रकम लेकर गायब हो जाए। ऐसे बेहूदा सवालों पर गुस्सा तो बहुत आया, सोचा भाड़ में जाए ऐसी नौकरी, लेकिन नौकरी की बेहद जरूरत और अपनी मध्यवर्गीय दब्बू प्रवृत्ति के कारण सारे सवालों का सही जवाब देता रहा। सेठ ने पाँच-सौ रुपये पर नौकरी पक्की कर दी, और अगले दिन से आने के लिए कह दिया। लेकिन सेठ बहुत काइयां था, वह अपने पिछले अनुभव को दोहराना नहीं चाहता था। रात को अपनी गाड़ी में मेहता साहब को लेकर पिताजी से मिलने के बहाने हमारे घर आया। घर में रखे सामान वगैरह का जायजा लिया। पिताजी से बातें-बातों में पूछ लिया कि मकान अपना ही है और कि घर में मेरे अलावा कितने बेटे-बेटियों की शादी होनी बाकी है। हम सब कुछ समझ रहे थे, परन्तु अपनी जरूरत के आगे चुप थे। आत्मसम्मान पर लगती हर चोट को किसी तरह झेलते रहे। एक बात और भी थी, हम यही मानकर तसल्ली करते रहे कि ये सारी बातें एहतियाती तौर पर जरूरी हैं। लेकिन बाद में जब मुझे भीतर की सारी बातों का पता चला तो इस बात पर गुस्सा आने के बजाय हँसी आयी कि मेरे सेठ को बेईमानी की कमाई वसूल करके लाने के लिए एक ईमानदार आदमी की जरूरत थी और उसने मुझे किस तरह से जलील सवाल पूछने के बाद ईमानदार पाया था।
यह तो ड्ऱाइवरों और क्लीनरों के साथ टैंकरों पर आ-जाकर या कई बार माल की डिलीवरी देने के दौरान मुझे पता चला कि ग्राहकों के साथ कितने स्तरों पर और कितनी बारीकियों से धोखा किया जाता था। एक पूरा सिस्टम था बेईमानी का। अगर एक जगह चूक हो जाए तो दूसरी तरकीब हाजिर, लेकिन क्या मजाल जो पूरा माल ईमानदारी से सप्लाई हो जाए। सबसे पहली हेराफेरी टैंकर भरवाते समय ही शुरू हो जाती। पेट्रोल के टैंकर में डीजल की मिलावट, डीजल में मिट्टी के तेल की और इस तरह हर माल मिलावटी भरवाया जाता। कम से कम 100 लीटर माल घटिया होता। उसके बाद जो गड़बड़ की जाती थी उसके बारे में मैं आज तक नहीं समझ सहा हूँ कि वह सेठ और ड्राइवरों, क्लीनरों की मिलीभगत थी या सिर्फ ड्राइवरों की ईजाद की हुई तरकीब। किया यह गया था कि टैंकर के तल की पूरी लम्बाई-चौड़ाई में एक नकली फर्श बनाया गया था। उसके नीचे 100-150 लीटर माल आ जाता था। होता यह था कि कई बार पार्टी चेक कर लेती कि तेल, टैंकर में ढाई-ढाई हजार के चारों कम्पार्टमेंटों में ऊपर निशान तक भरा हुआ है या नहीं, चेक कर लेने पर कि माल पूरा है, वह ड्राइवर को टैंकर में लगे नलकों से पाइपों के जरिये अंडर ग्राउंड टैंकर में तेल डालने के लिए कह देती। नतीजा यह होता कि उन नलकों से केवल ऊपरी फर्श के लेबल तक का तेल ही बाहर आता, नलके के लेबल से नीचे के तहखाने का तेल टेंकर में ही रह जाता। बाद में ड्राइवर वगैरह अपने ईजाद किए गए तरीके से तेल पीपों में भर लेते और लौटते हुए दूसरे शहर में पूरे या औने-पौने दामों पर बेच देते। यह कमाई केवल उनकी होती या सेठ की भी, इसका मुझे पता न चल सका। वैसे भी मैं जब टैंकर के साथ जाता तो ड्राइवर वगैरह मुझे सेठ का आदमी समझ कर मुझसे ज्यादा न खुलते। सब काम मेरे सामने होता पर मुझे उसमें राज़दार न बनाते। अलबत्ता, इस कमाई में से जब वे हाइवे पर किसी ढाबे पर अपने लिए बोतल खोलते तो मुझ सूफी के लिए भी चिकन वगैरह का आर्डर देते।
एक अन्य टैंकर की बनावट में जो दूसरी तरह की हेराफेरी की गयी थी, वह थी कि टैंकर के चारों कम्पार्टमेंटों की भीतर की दीवारों में नीचे की तरफ चवन्नी-भर का एक छेद था। इससे होता यह था कि जब टैंकर का एक कम्पार्टमेंट खाली किया जाता तो उस छेद के जरिए दूसरे कम्पार्टमेंट में से तेल आना शुरू हो जाता। फिर तीसरे में से दूसरे व पहले में और फिर चौथे में से बाकी तीन कम्पार्टमेंटों में तेल आता रहता। जब तक घंटे-भर में टैंकर खाली होता, चारों खानों में से सौ-डेढ़ सौ लीटर तेल आराम से फैल चुका होता।
इस तरीके में भी यही होता कि पार्टी द्वारा टैंकर में मौजूद तेल की मात्रा का सत्यापन कर लिए जाने के बावजूद उसे बेवकूफ बना दिया जाता। ये तो वे तरीके थे जो मैं देख पाया था या जो मुझसे छुपे नहीं रहे थे, और न जाने कितने तिलिस्म रहे होंगे टैंकरों मैं। इसके अलावा, टैंकर में माल की पैमाइश करने के लिए डिप रॉड में भी हेराफेरी की गयी थी। इसमें निशान तो पाँच फट तक के बने हुए थे, लेकिन नाप में कम से कम तीन इंच का फर्क था। उस तीन इंच के फर्क से पूरे टैंक में 100 लीटर का फर्क पड़ जाता था। मुझे पता चला था कि कुछ दूसरी कम्पनियों के टैंकरों में भरा तो नकली या मिलावटी माल जाता था, लेकिन टैंकर की ऊँचाई में ढक्कन के नीचे एक पाइप फिट था, जिसमें असली माल होता था, दिखावे भर के लिए।
सबका हिस्सा बंधा हुआ था। पुलिस को बंधी-बधाई सकम पहुँचा दी जाती। डिप रॉड का कैलिब्रेशन करने वाले का हिस्सा हेराफेरी की मात्रा के साथ-साथ घटता-बढ़ता रहता। चुंगी और नाके वालों का फी ट्रक हिस्सा बंधा हुआ था। उनका हिस्सा उन्हें मिल जाए तो उसके बाद उन्हें कोई मतलब नहीं कि टैंकर में तेल जा रहा है या शराब।
इन सब पर तुर्रा यह कि ज्यादातर माल की सप्लाई दो नंबर से होती थी। यानि नो रसीद बिजनेस। और इसीलिए बैंक खुला होने के बावजूद मुझे भुगतान नकद लाना पड़ता। बहुत कम मौकों पर मुझे टैंकर के साथ भेजा जाता। कई बार तो ऑफिस जाकर ही पता चलता कि कहाँ जाना है। कई मौकों पर रात भी बाहर या यात्रा में ही काटनी पड़ी।
पहली बार जब वसूली के लिए दिल्ली से चला तो बहुत डर लग रहा था। बुलंदशहर की किसी पार्टी से सात हजार रुपये लाने थे। मुझे राह खर्च के लिए सौ रुपये तथा पार्टी का पता दे दिया और कहा गया कि वहाँ अपना परिचय देकर पैसे ले हूँ, हम फोन कर रहे हैं। जब मैं बुलंदशहर पहुँचा तो शाम के सात बज रहे थे। अगर वापसी के लिए आठ बजे की बस भी मिलती तो दिल्ली में सेठ के घर पहुँचने तक रात का एक बज ही जाता। मैंने पार्टी से कहा कि मैं रात किसी धर्मशाला वगैरह में काट लेता हूँ, पैसे सुबह उनके घर से ही लेकर चला जाऊँगा। सबेरे जब मैंने सात हजार रुपये लिए तो मेरा दिल धकधक कर रहा था। मैंने अपनी जिंदगी में इतने सारे रुपये पहली बार अपने हाथों में लिए थे। सात हजार तो दूर, कभी एक हजार रुपये भी आए हों, याद नहीं पड़ता। रुपये अच्छी तरह संभाल लेने के बावजूद रास्ते भर खटका लगा रहा, कहीं रास्ते में डाका न पड़ जाए, कोई चोर-उचक्का पीछे न लग जाए, डर के मारे चाय पीने के लिए भी नीचे नहीं उतरा। दिल्ली आकर सेठ को पैसे देने के बाद जान में जान आई। सेठ ने सारा हिसाब पूछा, मैंने ईमानदारी से बता दिया। उसने मुझे दो दिन के जेब खर्च के लिए बीस रुपये और दिए। तबीयत प्रसन्न हो गयी। अगर इसी तरह जेबखर्च भी मिलता रहे तो कोई दिक्कत नहीं है। कम से कम पूरी तनख्वाह तो घर पर दे सकूँगा।
धीरे-धीरे मुझमें आत्मविश्वास आने लगा। पहले रकम दस हजार से कम ही होती थी। धीरे-धीरे मुझे बड़ी वसूलियों के लिए भेजा जाने लगा। पैसे संभाल कर लाने के नये-नये तरीके मैंने ढूँढ़ लिए। कभी जूते वाले डिब्बे में तीस-चालीस हजार रुपये तक रख देता और फिर डिब्बा आराम से बगल में दबा लेता, मानो नये जूते खरीद कर ला रहा होऊँ, कभी रुपये टिफिन बाक्स में रखकर लाता तो कभी डालडा के खाली डिब्बे में। इस तरह पैसे रखकर खूद को पूरी तरह संतुलित और सामान्य बनाए रखने की कोशिश करता। मैंने देखा कि रुपये इस तरह लेकर चलने में कभी कोई तकलीफ नहीं हुई। इस दौरान मैंने एक बात और सीख ली थी-किस तरह से ज्यादा-से-ज्यादा पैसे बचाए जाएँ, मसलन बस से यात्रा करना और ऑटो रिक्शा के पैसे हिसाब में लिखना, होटल में न ठहरकर धर्मशाला में ठहरना या खाना घर से ले जाना और होटल में खाने के पैसे लिख लेना। और जब किसी रिश्तेदारी वाले शहर में जाना हो तो खाना, रहना दोनों फ्री और पूरे पैसे बचा लेना। इस तरह दिल्ली से बाहर जाने वाले दिनों में कई बार तीस-चालीस रुपये ऊपर से बना लेता। हाँ, इस बात का ख्याल जरूर रखता कि हिसाब बिल्कुल सच्चा लगे। कहीं ऐसा न हो, दो-चार रुपये के चक्कर में पाँच-सौ रुपये शुद्ध और तीनेक सौ रुपये ऊपर वाली नौकरी से हाथ धोना पड़े। सेठ भले ही बहुत काइयाँ था, पर मुझ पर विश्वास करने लगा था, एक बात और भी थी कि चूँकि मैं उसके काफी सारे राज़ जान गया था, अत: हिसाब में ज्यादा मीनमेख न निकालता।
इन्हीं सब बातों को सोचते-सोचते न जाने कब मेरी आँख लग गयी। सुबह जब मेरी आँख खुली तो हम दिल्ली में प्रवेश कर चुके थे। यह ख्याल आते ही कि आज रविवार है, मन को तसल्ली हुई। कई दिन से कुछ काम टल रहे थे, दर्जी को कपड़े देने हैं सोचा आज फुर्सत से सब काम निपटाएँगे।
करतारा ने टैंकर का रुख सेठ के घर की तरफ कर दिया। वहाँ सेठ को रकम सौंपनी है। उसके बाद करतारा और क्लीनर टैंकर को ले जाकर आफिस के पास खड़ा कर देंगे। फिर उनकी भी अगली याञा तक के लिए छुट्टी।
अभी नहा कर निकला ही था कि पता चला फर्म का मुंशी आया हुआ है। वह बहुत घबराया हुआ है। उसने बताया कि टैंकर ब्लास्ट हो गया है। सेठ कहीं बाहर चले गए हैं, सो मुझे इत्तला देने आ गया है। फटाफट तैयार होकर मैं उसके साथ लपका। अभी-अभी तो हम टैंकर छोड़ कर आए हैं। ये अचानक क्या हो गया। रास्ते में मुंशी ने बताया कि टैंकर में से बचा-खुचा तेल निकालने वालों की वजह से ऐसा हुआ है। एक के तो बिल्कुल चीथड़े उड़ गए हैं।
-ओ गॉड, मैं चौंका,
- कैसे? मुंशी बताने लगा - करतारा के टैंकर खड़ा करते ही आस-पास गैराजों में काम करने वाले दो छोकरे पीपा और पाइप लेकर आ गए। हमेशा की तरह करतारा ने उनसे दस रुपये लेकर टैंकर में से बचा-खुचा तेल निकलने की इजाजत दे दी और अपने घर चला गया। छोकरों को इस बार टैंकर से ज्यादा तेल नहीं मिला। अमूमन वे पाँच-सात लीटर तेल मुँह में पाइप लगा कर टैंकर में से खींच लेते हैं। चूँकि इस टैंकर से पेट्रोल की डिलीवरी हुई थी इसलिए उन्होंने सोचा होगा कि शायद सर्दी की वजह से पेट्रोल नीचे जम गया है और निकल नहीं रहा है। पैट्रोल के लालच में उनमें से एक लड़के ने बहुत बड़ी बेवकूफी की। उसने तेल से भीगा एक कपड़ा एक लकड़ी पर लपेटा और उसमें आग लगाकर टैंकर पर चढ़ गया। उसने सोचा कि शायद आग की गर्मी से पैट्रोल पिघल जाएगा लेकिन टैंकर का ढक्कन खोलते ही टैंकर में जमा हो गयी गैस की वजह से जोर का धमाका हुआ और टैंकर फट गया। टैंकर अब अंजर-पंजर रह गया है। सारी बात सुन कर मेरा दिमाग भन्ना गया - न जाने कौन थे वे छोकरे! वहीं मर-वर न गए हों।
जब हम वहाँ पहुँचे तो भीड़ लगी हुई है। नौ-दस साल की उम्र के दो मासूम छोकरे वहाँ पड़े बुरी तरह तड़प रहे हैं। पुलिस के डर से उन्हें अब तक कोई अस्पताल नहीं ले गया है। हमारे पहुँचते ही करतार और क्लीनर भी आ गए। दोनों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही हैं। उन्हीं की वजह से यह सब हुआ है। छोकरे गए सो गए, सेठ को तीन लाख के टैंकर के लिए क्या जवाब देंगे।
हमने उन दोनों को किसी तरह एक टैम्पो पर चढ़ाया और अस्पताल ले गए। वहाँ डॉक्टरों ने कहा - यह पुलिस केस है, पहले पुलिस को आ जाने दो, तभी भर्ती किया जाएगा। बहुत-बहुत मिन्नतें करने और लड़कों की हालत की दुहाई देने पर उन्हें भर्ती किया गया। पुलिस को खबर कर दी गयी। जो लड़का टैंकर पर च़ढ़ा था, उसके बचने की उम्मीद कम ही थी। उन्हें अस्पताल में मैं, मुंशी, क्लीनर और दुकान का एक अन्य नौकर छोड़ने आए हैं। पुलिस के आने से पहले ही मुंशी ने कहा - हम तो इस लफड़े में नहीं पड़ेंगे। अस्पताल पहुँचा दिया, अब उनका बचना न बचना ऊपर वाले के हाथ में है। उम्र भर के लिए पुलिस और अदालतों के चक्कर में कौन पड़े। और उसने सहमति माँगने की गरज से क्लीनर और दूसरे नौकर की तरफ देखा। वह बेचारा पहले ही घबराया हुआ था, क्या कहता, तीनों मुझे छोड़कर चले गए। मैंने उन छोकरों को इस तरह छोड़ना उचित नहीं समझा। टैंकर तो गया ही, उसका बीमा भी हो रखा होगा, पैसे मिल जाएँगे; लेकिन इन बेचारों का क्या होगा। तभी मैंने सोचा फोन करके सेठ को पूछ लूँ शायद आ गए हों। पर वह तब तक नहीं आए थे।
एमरजेन्सी वार्ड के बाहर बैठे मुझे तरह-तरह के ख्याल आ रहे हैं। वे किसके बच्चे हैं; कहाँ के रहने वाले हैं? उन्हें कुछ हो गया तो किसे इत्तला करूँगा। मैं यह भी सोच रहा हूँ कि मैं यहाँ क्यों बैठा हूँ उनकी इस हालत के लिए मैं तो कहीं जिम्मेवार नहीं हूँ। क्यों मैं सुबह से बिना एक चाय पिए यहाँ बैठा हूँ? अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तीन-चार लड़के इधर आए। उनके चेहरे उतरे हुए हैं। उनमें से एक ने मुझे बताया कि वो लड़का जो ज्यादा जल गया है शिब्बू एक गैराज में था, -साहब वो बच जाएगा ना? वह पूछ रहा है, मैं उसे क्या जवाब दूँ। उस बारह-तेरह साल के लड़के पर एकाएक कितनी बड़ी जिम्मेवारी आ गयी है। मैं उन्हें वहीं बैठ जाने का इशारा करता हूँ।
तभी पुलिस वाले आ गए हैं। दोनों छोकरे अभी एमरजेन्सी वार्ड में बेहोश पड़े हैं और बयान देने की स्थिति में नहीं हैं। मेरा बयान लिया गया है। मुझे जितना बताया गया था, मैंने बता दिया है। वे सेठ और ड्राइवर आदि के पते लेकर, फिर आने के लिए कह कर चले गए हैं।
मुझे बहुत जोर की चाय की तलब लगी है, भूख भी लगने लगी है, परन्तु वहाँ से उठने की हिम्मत नहीं बटोर पा रहा। वहाँ बैठे हुए भी मुझे हर वक्त यही लग रहा है कि अभी डाक्टर या नर्स बाहर आकर कहेगी, वो लड़का क्या नाम है उसका, हाँ...उसे बचाया नहीं जा सका, और वह सिर झुका कर वापिस चली जाएगी। तब हम उठेंगे और...
और हुआ भी यही। कोई तीन घंटे तक हमारे वहाँ बैठे रहने के बाद एक डाक्टर ने वार्ड से बाहर आकर बताया कि उस लड़के को नहीं बचाया जा सका। शिब्बू का भाई सिसकने लगा है। उसके साथ आए लड़के बुरी तरह सहम गए हैं। मैं एकाएक खालीपन महसूस करने लगा हूँ। मैंने शिब्बू के भाई के कंधे पर हाथ रखा। मेरे हाथ का स्पर्श पाते ही वह फफक पड़ा। मैंने उसे रोने दिया। थोड़ी देर बाद जब उसका रोना कुछ थमा तो उससे पूछा-अब क्या करोगे, कहाँ घर है तुम्हारा-उसने बताया, यहाँ हमारा कोई नहीं है। दोनों होटल में ही सोते थे। घर बहादुरगढ़ में है! आप ही बताइए - क्या करूँ साहब! मैं चिंतित हो गया। वह अबोध लड़का कैसे कर पाएगा यह सब। मैं खुद अपने आपको इतना उदास थका-थका और खाली महसूस कर रहा हूँ कि साथ जाना संभव नहीं है, मैंने उसे यही सलाह दी कि मैं एक टैक्सी कर देता हूँ, वह शिब्बू की लाश को लेकर गाँव चला जाए। उसने हामी भर ली है। लाश मिलने और पुलिस की कागजी खाना पूरी करने में शाम के चार बज गए हैं। मैंने सारी कार्रवाई पूरी की। लाश मिलने पर बहुत मुश्किल से एक टैक्सी वाला लाश लेकर सौ रुपये में जाने के लिए तैयार हुआ है। बाकी लड़के भी उसके साथ जा रहे हैं। मैंने सेठ के पैसों में से सौ रुपये टैक्सी वाले को और दो सौ रुपये शिब्बू के भाई को दिए।
उन्हें विदा करके मैं सीधा सेठ के घर गया। वे अब तक नहीं आए हैं। सुबह फिर आने को कहकर मैं वापिस घर आ गया। बुरी तरह थक गया हूँ। सुबह से कुछ खाया भी नहीं है, हालांकि इन सारी घटनाओं के पीछे मैं कहीं भी दोषी नहीं हूँ, फिर भी न जाने क्यों एक अपराध-बोध सा मुझे कचोट रहा है।
अगले दिन जब मैं आफिस पहुँचा तो सेठ जी करतारा को बहुत ऊँची आवाज में गालियाँ दे रहे हैं। आम तौर पर वे बहुत धीमे-धीमे बोलते हैं, पर इस समय वे अपनी पंजाबी पर उतर आए हैं। माँ-बहन की गालियाँ मैं उनके मुँह से पहली बार सुन रहा हूँ। वे इस सारी दुर्घटना के लिए करतारा को दोषी ठहरा रहे हैं। करतारा इस बात से बिल्कुल इनकार कर रहा है कि उसने उन छोकरों को टैंकर से तेल निकालने की इजाजत दी थी। बल्कि उसका कहना है कि उसने उन्हें कभी देखा भी न था। अब कोई भी आकर उसके पीछे से चोरी करे तो उसका क्या कुसूर।
शायद रात पुलिस भी सेठ के घर पर आई हो। मैं वहीं एक कोने में खड़ा हूँ। इतने में उनकी निगाह मुझ पर पड़ी, एकदम भड़के, ये सब क्या लफड़ा है? किस चक्कर में फँसा दिया तुम लोगों ने हमें? क्या हुआ उन छोकरों का? एक तो मर गया है न? और हाँ! पेमेंट लाए क्या? कहाँ है?'' इतने सारे सवालों के जवाब में मैंने यही कहा, जी, मैं आपको बताने आया था, पर आप थे नहीं, मैंने उसकी लाश उसके भाई को दिलवा दी और, सोचा पैसों की बात भी उन्हें बता दूँ, आखिर उन्हीं के पैसे खर्च किए हैं, मैंने, वे तारीफ ही करेंगे कि चलो कुछ तो किया उनके लिए, जी और पेमेंट ले आया था और उसमें से लाश गाँव ले जाने के लिए टैक्सी वाले को सौ रुपये और क्रिया-कर्म के लिए भाई को दो सौ रुपये दे दिए थे।
क्या? सेठ जी चौंके - किससे पूछ कर आपने उस हरामी के पिल्ले पर तीन सौ रुपये खर्च कर दिए, लाट साहब जी, एक तो यहाँ तीन लाख का टैंकर उड़ गया, बीमा कम्पनी से पता नहीं हर्जाना भी मिलेगा या नहीं और आप हैं कि तीन सौ का चूना और लगा आए! उनकी आवाज फिर ऊपर उठने लगी है, मैं पूछता हूँ - वो मेरा दामाद लगता था कि उसकी लाश को टैक्सी से ले जाने के लिए सौ रुपये खर्च कर दिए हैं। सेठजी बड़बड़ाने लगे, एक तो वो हमारे टैंकर से तेल चोरी कर रहा था और हमारा तीन लाख का टैंकर ले डूबा। अचानक उन्होंने बात रोक कर मुंशी जी को आवाज दी- ऐ मुंशी जी, ये तीन सौ रुपये लिख दो सतपाल जी के नाम। हमारी इतनी हैसियत नहीं है कि दया-धर्म दिखलाते फिरें। मैं भौंचक रह गया। मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि बीस-पचीस लाख की मिल्कियत वाला यह सेठ इन तीन सौ रुपयों के लिए इस हद तक उतर आएगा। दो पल पशोपेश में रहा - मार दूँ ऐसी नौकरी पर लात, थू है ऐसी कमाई पर, पर अगले ही पल नौकरी छोड़ने वाली सारी घटनाएँ तेजी से दिमाग में घूम गयीं। नहीं, छोड़ना सरासर मूर्खता होगी। तय कर लिया है और चुपचाप बाहर आ गया हूं। अब मुझे यही फैसला करना है कि अपनी ईमानदारी में और कितने प्रतिशत की कटौती करूँ।

2 comments:

नीरज गोस्वामी said...

सूरज जी
इस छोटी सी कहानी में आप ने ज़िंदगी के कितने ही रंग इस खूबसूरती से डाल दिए हैं की पढ़ के कहना पढता है...लाजवाब. वाह.
नीरज

सूरज प्रकाश का रचना संसार said...

आभार बंधु
आपकी प्रतिक्रिया मेरा उत्‍साह बढ़ाती है. मैं और अमीर हो जाता हूं.
आपको भेजी ईमेल वापिस आ गयी है.
देखें
सूरज